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________________ आठवां उद्देशक ३११ हैं। ३४१६. कालं च ठवेति तहिं, बेति य परिसाडि वज्जमप्पेहं। यथाभाव, सुन करके, विपरिणामकथन, व्यवच्छिन्न तथा अणुण्णवण जयणेसा, गहिते जतणा इमा होति॥ विप्रतिषिद्ध। इन द्वारों की क्रमशः विशेष बात बताऊंगा। संस्तारक प्राप्त होने पर काल की स्थापना की जाती है ३४२४. संथारो देहतं, असहीण पशुं तु पासिउं पढमो। (इतने समय तक हम इसको रखेंगे।) उसे कहते हैं-यह संस्तारक ताधे पडिसरिऊणं, ओभासिय लद्धमाणेति॥ जीर्ण है। जो परिशटित हो जाएगा उसको छोड़कर हम इसे अर्पित एक मुनि ने देहांत-देह प्रमाण फलकस्वरूप संस्तारक को कर देंगे। यह अनुज्ञापना में यतना है। ग्रहण विषयक यतना यह देखा। परंतु उसका स्वामी नहीं मिला। तब वह देखकर वसति में होती है। लौट आया। फिर कभी उस फलक के स्वामी से याचना कर ३४१७. कास पुणऽप्पेयव्वो, बेति ममं जाधे तं भवे सुण्णो। वसति में हो आता है। अमुगस्स सो वि सुन्नो, ताधे घरम्मि ठवेज्जाहि॥ ३४२५. संथारो दिट्ठो न य, तस्स पभू लहुग अकहणे गुरुणं। ३४१८. कहि एत्थ चेव ठाणे, पासे उवरिं च तस्स पुंजस्स। कधिते व अकधिते वा, अण्णेण वि आणितो तस्स॥ अधवा तत्थेवच्छउ, ते वि हु नीयल्लगा अम्हं।। मुनि वसति में आकर गुरु को यदि यह नहीं कहता है कि यह संस्तारक हम किसको समर्पित करें? यह पूछने पर मैंने संस्तारक देखा है, परंतु उसका स्वामी उपलब्ध नहीं हुआ, वह कहे-मुझे ही दें। फिर पूछे-यदि तुम न मिल तो? वह तो उस मुनि को लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। गुरु को कहने कहे-अमुक को तुम दे देना। फिर पूछे-यदि वह भी न मिले तो? पर अथवा न कहने पर दूसरा मुनि यदि उसे ले आता है तो भी वह वह कहे-मेरे घर में स्थापित कर देना। फिर पूछे-घर में कहां संस्तारक, जिसने पहले देखा था उसी का आभाव्य है। रखें? तब वह कहे-जहां से लिया है वहीं रख दें, यहीं रख दें, ३४२६. बितिओ उ अन्नदिटुं, अहभावेणं तु लद्धमाणेती। पास में रख दें, जिस पुंज के ऊपर से लिया है वहीं रख दें, अथवा पुरिमस्सेवं, सो खलु, केई साधारणं बेति॥ तुम जहां हो वहीं उसे रख दें। उस वसति के स्वामी हमारे स्वजन पूर्वस्थिति का अजानकार दूसरा कोई मुनि अन्यदृष्ट उस संस्तारक को स्वामी की आज्ञा से प्राप्त कर यथाभाव से उसे ले ३४१९. एसा गहिते जतणा, एत्तो गेण्हतए उ वोच्छामि। आता है। फिर भी वह संस्तारक प्रथमदृष्ट मुनि का ही आभाव्य एगो च्चिय गच्छे पुण, संघाडो गेण्हऽभिग्गहितो॥ होगा। कोई उसे साधारण कहते हैं अर्थात् वह संस्तारक दोनां यह ग्रहण करने की यतना है। ग्रहण करने के पश्चात् की मुनियों का आभाव्य होगा। यतना के विषय में कहूंगा। गच्छ में एक ही आभिग्रहिक संघाट ३४२७. ततिओ तु गुरुसगासे, विगडिज्जतं सुणेत्तु संथारं। संस्तारक ग्रहण करता है, दूसरा नहीं। __ अमुगत्थ मए दिट्ठो, हिंडंतो वण्णसीसंतं॥ ३४२०. आभिग्गहियस्सऽसती, वीसुं गहणे पडिच्छिउं सव्वे। ३४२८. गंतूण तहिं जायति, लद्धम्मी बेति अम्ह एस विधी। दाऊण तिन्नि गुरुणो, गेण्हतऽण्णे जहा वुहूं। अन्नदिट्ठो न कप्पति, दिट्ठो एसो उ अमुगेणं॥ __ आभिग्रहिक के अभाव में प्रत्येक संघाटक पृथक्-पृथक् ३४२९. मा देज्जसि तस्सेयं, पडिसिद्धे तम्मि एस मज्झं तु। संस्तारक ग्रहण करते हैं। उन सबको एकत्रित कर, तीन संस्तारकों अण्णा धम्मकधाए, आउट्टेऊण तं पुव्वं ।। को गुरु को दे दे तथा शेष संस्तारकों को रत्नाधिक के क्रम से ३४३०. संथारगदाण फलादिलाभिणं बेति देहि संथारं। विभाजित कर दे। __ अमुगं तु तिन्निवारा, पडिसेधेऊण तं मज्झं। ३४२१. णेगाण तु णाणत्तं, सगणेतरऽभिग्गहीण वन्नगणे। प्रथम मुनि को गुरु के समक्ष संस्तारक विषयक आलोचना दिट्ठोभासण लद्धे, सण्णातुड्ढे पभू चेव॥ करते हुए सुनकर अथवा प्रथम मुनि को गोचरी जाते हुए अन्य स्वगण तथा इतर अनेक आभिग्रहिकों का अन्य गणवाले मुनि से यह कहते सुनकर कि मैंने अमुक स्थान पर फलक संस्तारक मुनियों के साथ जो नानात्व है उसके छह द्वार हैं-दृष्ट, अवभाषण, देखा है, वह तीसरा मुनि उस स्थान पर जाकर संस्तारक के लब्ध, संज्ञा, ऊर्ध्व तथा प्रभु। स्वामी से संस्तारक की याचना कर उसे प्राप्त कर फलक-स्वामी ३४२२. दिट्ठादिएसु एत्थं, एक्केक्के होंतिमे उ छब्मेदा। को विपरिणत करने के लिए कहता है-हमारी यह विधि (आचार) दट्ठण अधाभावेण, वावि सोउं च तस्सेव॥ है कि अन्य द्वारा दृष्ट वस्तु दूसरे को नहीं कल्पती। अमुक मुनि ने ३४२३. विप्परिणामणकधणा, वोच्छिन्ने चेव विपडिसिद्धे य। इस संस्तारक को देखा है। तुम उसको मत देना। यदि तुम प्रतिषेध एतेसिं तु विसेसं, वोच्छामि अधाणुपुव्वीए॥ करोगे तो यह मेरा हो जाएगा। (दाता को विपरिणत करने का यहां दृष्ट आदि प्रत्येक के छह-छह भेद होते हैं- दृष्टा, दूसरा प्रकार यह है) दूसरा मुनि उस संस्तारक के स्वामी को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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