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________________ सानुवाद व्यवहारभाष्य ३२८ पात्र को अधोमुख कर प्राण आदि को झटक कर यतनापूर्वक भूमी पर डाल देना चाहिए। पात्र को ग्रहण करने के पश्चात् उनको प्रकाशमुख वाले करना चाहिए तथा दोनों कालों-प्रातः और सायं उनका प्रतिलेखन करना चाहिए। ३६२८. आणीतेसु तु गुरुणा, दोसुं गहितेसु तो जधावुहूं। गेण्हंति उग्गहे खलु, ओमादी मत्त सेसेवं॥ लाए हुए पात्रों में से आचार्य दो-एक पात्र, एक मात्रक-अपने लिए रख ले। शेष बचे पात्रों को जितने मुनियों को देना है उतने विभाग करे और यथावृद्ध-यथारात्निक के क्रम से पात्र ग्रहण करे। फिर अवम रत्नाधिक तथा शेष साधु मात्रक को ग्रहण करे। ३६२९. एमेव अछिन्नेसु वि, गहिते गहणे य मोत्तु अतिरेगं। एत्तो पुराणगहणं, वोच्छामि इमेहि तु पदेहिं।। इसी प्रकार अच्छिन्न गृहीत और ग्रहण के विषय में ज्ञातव्य है, अतिरिक्त पात्र को छोड़कर अर्थात् वहां अतिरिक्त पात्र संभव नहीं होता। अब इन पदों से पुरातन ग्रहण के विषय में कहूंगा। ३६३०. आगमगम कालगते, दुल्लभ तहि कारणेहि एतेहिं। दुविधा एगमणेगा, अणेगनिद्दिट्ठ निद्दिट्ठा। आगम, गम, कालगत तथा दुर्लभ-इन कारणों से पुराणग्रहण संभव है। जो पात्र देते हैं, वे दो प्रकार के हैं-एक अथवा अनेक। अनेक दो प्रकार हैं-निर्दिष्ट अथवा अनिर्दिष्ट। ३६३१. भायणदेसा एंतो, पाए घेत्तूण एति दाहंति। दाऊणऽवरो गच्छति, भायणदेसं तहिं घेच्छं। पात्र निर्माण वाले देश से कोई व्यक्ति साधुओं को पात्र दूंगा, इस बुद्धि से पात्र लेकर आता है। (यह आगम द्वार है।) कोई दूसरा साधु पात्र-प्राप्ति वाले देश में इस बुद्धि से जाता है कि मैं वहां भाजन ले लूंगा। (यह गम द्वार है।) ३६३२. कालगयम्मि सहाए, भग्गे वण्णस्स होति अतिरेगं। पत्ते लंबऽतिरेगे, दुल्लभपाए विमे पंच।। किसी साधु का सहायक साधु कालगत हो गया अथवा उससे टूट गया, तब उसका पात्र अतिरिक्त हो गया। इस प्रकार दूसरे साधु का अतिरिक्त पुराण पात्र होता है। (यह कालगत द्वार है।) जिस देश में पात्र-प्राप्ति दुर्लभ होती है, वहां ये पांच पात्र धारण किए जा सकते हैं३६३३. नंदि-पडिग्गह-विपडिग्गहे य तह कमढगं विमत्तो य। पासवणमत्तओ वि य, तक्कज्ज परूवणा चेव॥ पांच पात्र ये हैं-नंदी पतग्रह, विपतद्ग्रह, कमढक, विमात्रक १. नंदी-यह बहुत बड़ा पात्र होता है। अवमौदर्य आदि में यह कार्यकर होता है। विपतद्ग्रह-मूल पात्र से कुछ छोटा पात्र । मूलपात्र के टूट जाने पर इसका उपयोग होता है। तथा प्रस्रवणमात्रक। उन पात्रों के कार्यों की यह प्ररूपणा है।' ३६३४. एगो निद्दिस एगं, एगो गो अणेग एगं वा। ___णेगो णेगे ते पुण, गणि वसभे भिक्खु खुड्डे य॥ (जो पात्र देते हैं वे दो प्रकार के हैं-एक और अनेक। जिनको पात्र दिया जाता है वे भी दो प्रकार के हैं-एक अथवा अनेक) एक नियमतः निर्दिष्ट होता है और अनेक विकल्पतः निर्दिष्ट होते हैं। चतुर्भगी इस प्रकार है १. एक दाता एक का निर्देश-अर्थात् अमुक को देना है। २. एक अनेक को निर्दिष्ट करता है। ३. अनेक एक को निर्दिष्ट करते हैं। ४. अनेक-अनेक को निर्दिष्ट करते हैं। ये निर्देश्य होते हैं-गणी (आचार्य तथा उपाध्याय) वृषभ, भिक्षु तथा क्षुल्लक। ३६३५. एमेव इत्थिवग्गे, पंचगमा अधव निद्दिसति मीसे। दाउं वच्चति पेसे, वावी णिते पुण विसेसा।। इसी प्रकार स्त्रीवर्ग में भी पांच गम होते हैं (प्रवर्तिनी, अभिसेच्या, भिक्षुकी, स्थविरा और क्षुल्लकी)। अथवा जहां अनेक का निर्देश होता है, वहां मिश्र होते हैं-संयत और संयती दोनों होते हैं। वह वहां पात्र देकर जाता है तथा दूसरों के साथ भेजता है। स्वयं ले जाता है तो उसमें यह विशेष है। वह नीत भाजनों को समानवर्ग में अथवा असमान वर्ग में निर्दिष्ट करता है। संयत का समानवर्ग है संयतवर्ग और असमानवर्ग है संयतीवर्ग। ३६३६. सच्छंदमणिद्दिढे, पावण निद्दिट्ठमंतरा देति। चउलहु आदेसो वा, लहगा य इमेसि अदाणे॥ अनिर्दिष्ट होने पर देने में स्वच्छंदता होती है। निर्दिष्ट होने पर उनको देना यह निर्दिष्ट प्रापण है। निर्दिष्ट व्यक्ति यदि अंतरा-दूसरों को देता है तो उसे चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसमें आदेश अर्थात् मतनांतर भी है। इनके अनुसार दूसरों को देने पर अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त आता है। अध्वाननिर्गत आदि को न देने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। (देखें आगे का श्लोक) ३६३७. अद्धाण बालवुड्ढे, गेलन्ने जुंगिते सरीरेण। पायच्छि-नास-कर-कन्न, संजतीणं पि एमेव ॥ अध्वनिर्गत, बाल, वृद्ध, ग्लान, शरीर से जुंगिल (हीनांग)-जैसे पाद, आंख, नासिका, हाथ, कान आदि से हीन तथा इसी प्रकार संयतियों को न देने से प्रायश्चित्त (चार लघुमास कमढक-सागारिक की जुगुप्सा से रक्षा करने के लिए पात्र विशेष। विमात्रक-मात्रक से कुछ न्यून अथवा अधिक। प्रस्रवणमात्रक-विशेषरूप से प्रस्रवण के काम आने वाला, ग्लान अथवा आचर्य के लिए प्रयोजनीय। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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