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________________ ९४ सानुवाद व्यवहारभाष्य मोतिहाता है। जो कौतुक, भूतिकर्म, प्रश्नाप्रश्न, निमित्त, आजीवी-जाति आदि से जीविका चलानेवाला, कल्क, कुरुक, लक्षणविद्या तथा मंत्र और विद्या से जीवन यापन करता है वह मुनि चरणकुशील होता है। ८८०. जाती कुले गणे या, कम्मे सिप्पे तवे सुते चेव। सत्तविधं आजीवं, उवजीवति जो कुसीलो सो॥ जो जाति, कुल, गण, कर्म, शिल्प, तप तथा श्रुत-इन सात प्रकार के आजीव के आधार पर जीवन चलाता है वह कुशील होता है। ८८१. भूतीकम्मे लहुओ, लहु गुरुग निमित्त सेसए इमं तु। लहुगा य सयंकरणे, परकरणे होतऽणुग्घाता।। भूतिकर्म का प्रायश्चित्त है एक लघुमास, अतीत निमित्त कथन का चार लघुमास, वर्तमाननिमित्त कथन का चार गुरुमास का प्रायश्चित्त है। शेष कौतुक आदि का यह प्रायश्चित्त है-स्वयं करने पर चार लघुमास, दूसरों से कराने पर अनुद्घात चार गुरुमास। मूलकर्म का प्रायश्चित्त है मूल।। . ८८२. दुविधो खलु ओसण्णे, देसे सव्वे य होति नायव्वो। देसासण्णो तहियं, आवासादी इमो होति॥ अवसन्न के दो प्रकार हैं-देशतः और सर्वतः। देशावसन्न आवश्यक आदि के प्रसंग में इस प्रकार है। ८८३. आवस्सग-सज्झाए पडिलेहण-झाण-भिक्ख भत्तढे। आगमणे निग्गमणे, ठाणे य निसीयण तुयट्टे॥ ८८४. आवस्सगं अणियतं, करेति हीणातिरित्तविवरीयं। गुरुवयणे य नियोगो, वलाति इणमो उ ओसन्नो॥ आवश्यक, स्वाध्याय, प्रतिलेखन, ध्यान, भिक्षा, भक्तार्थ, आगमन, निर्गमन, स्थान, निषीदन, त्वग्वर्तन (शयन) आदि क्रियाएं विधिपूर्वक नहीं करता तथा जो आवश्यक अनियतकाल में तथा हीन, अतिरिक्त या विपरीतरूप में करता है, जो गुरु के कथन के अनुसार प्रवृत्ति न कर अंटसंट बोलकर उससे प्रतिकूल क्रिया करता है, वह देशावसन्न होता है। ८८५. जध उ बइल्लो बलवं, भंजति समिलं तु सो वि एमेव। गुरुवयणं अकरेंतो, वलाति कुणती च उस्सोढं। जैसे बलवान बैल जुए को तोड़ देता है, वैसे ही वह शिष्य गुरुवचन के अनुसार प्रवृत्ति न कर, उनको अंटसंट बोलकर रुष्टहोकर प्रवृत्ति करता है, वह देशावसन्न होता है। ८८६. उउबद्धपीढफलगं, ओसन्नं संजयं वियाणाहि। ठवियग-रइयगभोई, एमेया पडिवत्तिओ। जो पीढफलक के बंधनों को खोलकर प्रतिलेखन नहीं करता अथवा अपने बिछौने को सदा बिछाए रखता है, उस मुनि को सर्वतः अवसन्न जानना चाहिए तथा जो स्थापित और रचित आहार का उपभोग करता है, ये सर्वतो अवसन्न की प्रतिपत्तियां हैं, पहचान हैं। ८८७. सामायारी वितह, कुणमाणो जं च पावए जत्थ। संसत्तो च अलंदो, नडरूवी एलगो चेव।। अवसन्न मुनि सामाचारी को अन्यथा करता है। उसे स्वस्थान निष्पन्न प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। संसक्त मुनि अलिंद, नट तथा एडक की भांति होता है। ८८८. गोभत्तालंदो विव, बहुरूवनडोव्व एलगो चेव। संसत्तो सो दुविधो, असंकिलिट्ठो व इतरो य॥ संसक्त मुनि गोभक्तयुक्त अलिंद की भांति, बहुरूपी नट की भांति तथा एडक की भांति होता है। उसके दो प्रकार हैं-असंक्लिष्ट तथा संक्लिष्ट। ८८९. पासत्थ-अधाछंदे, कुसील-ओसण्णमेव संसत्ते। पियधम्मो पियधम्मे, असंकिलिट्ठो उ संसत्तो।। वह संसक्त मुनि पार्श्वस्थ में मिलकर पार्श्वस्थ, यथाच्छंद में यथाच्छंद, कुशील में कुशील, अवसन्न में अवसन्न तथा संसक्त में संसक्त बन जाता है। वह प्रियधर्मा में मिलकर प्रियधर्मा बन जाता है। यह असंक्लिष्ट संसक्त का स्वरूप है। ८९०. पंचासवप्पवत्तो, जो खलु तिहि गारवेहि पडिबद्धो। इत्थि-गिहिसंकिलिट्ठो, संसत्तो सो य नायव्वो।। जो पांच आस्रवों में प्रवृत्त है, तीन गौरवों में तथा स्त्रियों और गृहस्थों में प्रतिबद्ध है-वह संक्लिष्ट संसक्त होता है। ८९१. देसेण अवक्कंता, सव्वेणं चेव भावलिंगा उ। इति समुदिता तु सुत्ता, इणमन्नं दव्वतो विगते॥ भावलिंग के प्रसंग में देश से अपक्रांत अथवा सर्वतः अपक्रांत-इनका समुदित सूत्रों में प्रतिपादन किया जा चुका है। १. कौतुक-इंद्रजाल , जादू आदि। भूतिकर्म-ज्वर आदि में राख आदि मिला दिया जाता है, वह संसक्त कहलाता है। इसी प्रकार संसक्त मंत्रित कर देना। प्रश्नाप्रश्न-स्वप्नविद्या से फल बताना। मुनि पार्श्वस्थ में पार्श्वस्थ की भांति और संविग्न में संविग्न की भांति निमित्त-अतीत का कथन करना। आजीवी (देखें गाथा ८८०)। एकरूप हो जाता है। वह संसक्त नट की भांति बहुरूपी होता है, अनेक रूप धारण कर लेता है। जैसे एडक लाक्षा रस में निमग्न होकर कल्क-प्रसूति आदि रोगों में क्षारपातन अथवा शरीर पर लोध्र आदि लालवर्ण वाला तथा गुलिकाकुंड में निमग्न होकर नीले वर्ण वाला हो का उद्वर्तन। कुरुक-अर्धस्नान अथवा पूर्णस्नान। लक्षण जाता है, वैसे ही संसक्त पार्श्वस्थ के संसर्ग से पार्श्वस्थ. संविग्न के विद्या-पुरुषलक्षण, स्त्रीलक्षण आदि का ज्ञान। संसर्ग से संविग्न जैसा बन जाता है। २. जैसे अलिंद-बड़े बर्तन में गोभक्त अर्थात् कुक्कुस, ओदन आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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