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पहला उद्देशक यह अन्य सूत्र द्रव्य लिंग से वियुक्त के विषय का है।
आच्छादित रखकर वे क्षीराश्रवलब्धि आदि से संपन्न मुनि राजा ८९२. कंदप्पा परलिंगे, मूलं गुरुगा य गरुलपक्खम्मि। को उपशांत कर देते हैं।
सुत्तं तु भिक्खुगादी, कालक्खेवो व गमणं वा॥ ८९६. कलासु सव्वासु सवित्थरासु, कंदर्प के कारण परलिंग करने पर मूल, गरुडादिरूप परलिंग
आगाढपण्हेसु य संथवेसु। करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। (शिष्य ने
जो जत्थ सत्तो तमणुप्पविस्से, कहा-सूत्र में परलिंगकरण अनुज्ञात है और नियुक्ति में उसका
अव्वाहतो तस्स स एव पंथा॥ प्रायश्चित्त है। यह क्यों? आचार्य कहते हैं-नियुक्ति के अनुसार सभी कलाओं का विस्तृत ज्ञान रखने वाला, आगाढ़ प्रश्नकंदर्प के कारण परलिंगकरण निषिद्ध है।) सूत्र में कालक्षेप करने अत्यंत गूढ़ प्रश्नों का ज्ञाता तथा अनेक परिचयों से सम्पन्न मुनि तथा गमन के प्रसंग में भिक्षुक, परिव्राजक आदि परलिंग करने राजा जिस कला आदि में अत्यंत अनुरक्त हो, उसमें राजा को की अनुज्ञा है।
प्रवेश कराए, उसके समक्ष उसका प्रवेदन करे। यही उसके उपशमन ८९२/१. कंदप्पा लिंगदुगं, जो कुणइ तस्स होइ मूलं तु।। का अव्याहत मार्ग है।
गुरुगा उ गरुलपक्खे, असे चोलपट्टे य॥ ८९७. अणुवसमते निग्गम, लिंगविवेगेण होति आगाढे। ८९२/२. लहुगा संजतिपाते, सीसदुवारी य लहुयतो खंधे। देसंतरसंकमणं, भिक्खुगमादी कुलिंगेण॥
चोदेत फलं सुत्ते, सुत्तनिवातो उ कारणितो॥ यदि राजा उपशांत न हो तो लिंग का परित्याग कर गृहस्थकंदर्पवश जो मुनि दो प्रकार का लिंग करता है उसे मूल लिंग में देश से निर्गमन कर दे। अत्यंत रोष के कारण यदि राजा प्रायश्चित्त तथा गरुडादिरूप परलिंग करने पर उसे चार गुरुमास न छोड़े तो भिक्षुक आदि का वेश बनाकर देशांतर संक्रमण कर का प्रायश्चित्त आता है। मुनि गृहस्थ की भांति वस्त्र आधे कंधे दे। पर रखता है तो उसे एक लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। ८९८. आरियसंकमणे परिहरेंति दिट्ठम्मि जा तु पडिवत्ती। शिष्य प्रश्न करता है सूत्र में परलिंगकरण अनुज्ञात है। नियुक्तिकार
असतीय पविसणं थूभियम्मि गहियम्मि जा जतणा।। ने उसका प्रतिषेध किया है। यहां सूत्र का निपात कारणिक है।
आर्यदश में संक्रमण, लिंगियों के आश्रयस्थानों का परिहार, ८९३. खंधे दुवार संजति, गरुलद्धंसे य पट्ट लिंगदुवे। किसी द्वारा देखे जाने पर अधिकृत लिंगानुशासन की प्रतिपत्ति,
लहुओ लहुओ लहुया, तिसु चउगुरु दोसु मूलं तु॥ स्वतंत्र स्थान के अभाव वे आश्रम में प्रवेश, स्तूप आदि, अभक्ष्य
यदि कंदर्प के कारण परलिंग करके मुनि वस्त्र को गृहस्थ गृहीत होने पर यतना का निर्देश। (इस गाथा की विस्तृत व्याख्या की भांति कंधे पर रखता है तो एक लघुमास, दुवार-गोपुच्छिका गाथा ८९९ से ९०४ तक)। की भांति धोती की लांग लगाता है तो एक लघुमास, संयती की ८९९. आरिय-देसारियलिंगसंकमो एत्थ होति चउभंगो। तरह प्रावृत होता है तो चार लघुमास, गरुड आदि रूप बनाता है बितिचरमेसुं अन्नं, असिवादिगतो करे लिंगं॥ तो चार गुरुमास, यदि स्कंधार्ध पर वस्त्र रखता है तो चार आर्यदेश में संक्रमण करना पड़े तो स्वलिंग में करे। गुरुमास, गृहस्थ की भांति कटिपट्ट बांधता है तो चार गुरुमास उसके चार विकल्प हैंका प्रायश्चित्त आता है तथा कंदर्प से लिंगद्विक अर्थात् गृहलिंग १.आर्यदेश में आर्यदश के मध्य से गमन। और परपाषंडलिंग करने पर प्रत्येक में मूल प्रायश्चित्त आता है। २. आर्यदेश में अनार्यदश के मध्य से गमन। ८९४. असिवादिकारणेहिं, रायपदुढे व होज्ज परलिंगं। ३. अनार्यदेश में आर्यदेश के मध्य से गमन।
कालक्खेवनिमित्तं, पण्णवणट्ठा व गमणट्ठा॥ ४. अनार्यदेश में अनार्यदेश के मध्य से गमन।
अशिव आदि कारणों के उपस्थित होने पर तथा राजा के अशिवादि के कारण संक्रमण करे तो दूसरे, तीसरे तथा कुपित हो जाने पर कालक्षेप करने के निमित्त, प्रज्ञापनार्थ तथा चौथे विकल्प में गृहस्थलिंग में अथवा जिस देश के मध्य से अनार्य आदि देश के मध्य में गमन के निमित्त परलिंग किया जा गमन करता है वहां जो लिंग प्रसिद्ध हो उस लिंग में गमन करे। सकता है।
९००. परिहरति उग्गमादी, विहारठाणा य तेसि लिंगीणं। ८९५. जं जस्स अच्चितं तस्स, पूयणिज्जं तमस्सिया लिंगं। अप्पुव्वेसा गमितो, आयरियत्तेतरो इमं तु॥
खीरादिलद्धिजुत्ता, गति तं छन्नसामत्था ।। वह परलिंग वेशधारी मुनि उद्गम आदि दोषों का तथा उन जिस राजा का जो पूजनीय लिंग है, उसका आश्रय लेकर लिंगियों के स्थान का परिहार करे। अपूर्वस्थानों में गया हुआ अर्थात् वैसा लिंग धारण कर अपने सामर्थ्य-स्वरूप को मुनि आचार्यत्व-उन लिंगियों के ग्रंथों की व्याख्या करता है अथवा
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