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________________ २१६ सानुवाद व्यवहारभाष्य यदि ग्लान की प्रतिचर्या करनी हो अथवा स्वयं ग्लान हो २२९६. थेरे निस्साणेणं, कारणजातेण एत्तिओ कालो। गया हो तो वृद्धावास होता है। उस स्थिति में भी वही (क्षेत्र, अज्जाणं पणगं पुण, नवगग्गहणं तु सेसाणं॥ काल, वसति, संस्तारक संबंधी) यतना है। संविग्न मुनियों द्वारा स्थविर आचार्य अनेक कारणों की निश्रा से एकत्रस्थान पर भावित कुलों में वह सहायहीन रहता है। यदि वह विहरण करता इतने उत्कृष्ट काल तक रह सकते हैं, वृद्धावास कर सकते हैं। है तो अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। वृद्धावास करने वाली आर्यिकाओं के क्षेत्रपंचक होता है-दो भाग २२९०. ओमादी तवसा वा, अचायतो दुब्बलो वि एमेव। बाहर, दो भाग अंतर तथा पांचवां वर्षारातयोग्य क्षेत्रविभाग। एक संतासंतसतीए, बलकरदव्वे य जतणा उ॥ एक में दो-दो मास तथा वर्षारातयोग्य-क्षेत्र में चार मास। शेष अवम-दुर्भिक्ष आदि के कारण, तपस्या आदि से दुर्बल हो साधुओं के कारणवश एकत्र रहने पर क्षेत्र के नौ विभाग होते हैं। जाने पर, इसी प्रकार भिक्षा का सद्भाव-अंत-प्रांत होने के २२९७. जे गण्हिउं धारइउंच जोग्गा, कारण तथा असद्भाव-भिक्षा का सर्वथा अभाव हो जाने पर थेराण देंति सहायए तु। दुर्बलता के कारण विहार न कर सकने पर, क्षीणजंघाबल होने पर गेण्हंति ते ठाणठिता सुहेणं, एक स्थान पर रहता है। उसकी यतना है-बल बढ़ाने वाले द्रव्यों किच्चं च थेराण करेंति सव्वं॥ की प्राप्ति कराना। स्थविरों को सहायकरूप में वे मुनि दिए जाते हैं जो सूत्रार्थ २२९१. पडिवण्ण उत्तमढे, पडियरगा वा वसंति तन्निस्सा। ग्रहण करने और धारण करने में योग्य हों। वे एकस्थानस्थित आयपरे निप्फत्ती, कुणमाणो वावि अच्छेज्जा॥ मुनि सुखपूर्वक सूत्रार्थ ग्रहण करते हैं तथा स्थविरों का सारा कृत्य करते हैं। जिसने उत्तमार्थ-अनशन स्वीकार कर लिया है, उसकी निश्रा में प्रतिचारक रहते हैं। (यह भी एकत्र लंबे समय तक रहने २२९८. आसज्ज खेत्त-काले, बहुपाउग्गा न संति खेत्ता वा। निच्चं च विभत्ताणं, सच्छंदादी बहू दोसा।। का कारण है।) स्वयं और पर की सूत्रार्थतदुभय से निष्पत्ति करते वृद्धावास करने के अन्य कारण-दूसरा क्षेत्र और काल हुए वृद्धावास में रह सकता है। उपयुक्त न हो, महान् गच्छ के प्रायोग्य क्षेत्र न हो, गण को विभक्त २२९२. संवच्छरं च झरए, बारसवासाइ कालियसुतम्मि। करने पर स्वच्छंदता आदि अनेक दोष नित्य-अवश्य होते हैं, यह सोलस य दिट्ठिवाए, एसो उक्कोसतो कालो। सोचकर एक क्षेत्र में लंबे समय तक भी रहा जा सकता है। कालिकश्रुत का ग्रहणकाल है-बारह वर्ष और परावर्तन २२९९. जध चेव उत्तमढे, कतसंलेहम्मि ठंति तध चेव। काल है-एक वर्ष। दृष्टिवाद का ग्रहणकाल है-सोलह वर्ष। यह तरुणप्पडिकम्मं पुण, रोगविमुक्के बलविवड्डी।। एकत्रावस्थान का उत्कृष्टकाल है। जैसे उत्तमार्थ-अनशन स्वीकार कर एक स्थान पर रहा जा २२९३. बारसवासे गहिते, उ कालियं झरति वरिसमेगं तु। सकता है वैसे ही संलेखना में भी रहा जा सकता है। सोलस उ दिट्ठिवाए, गहणं झरणं दसदुवे य॥ तरुणप्रतिकर्म अर्थात् रोगविमुक्त की बलवृद्धि के लिए लंबे समय बारह वर्षों में परिपूर्णरूप से गृहीत कालिक श्रुत का तक एकत्रवास किया जा सकता है। परावर्तन काल है एक वर्ष। दृष्टिवाद के ग्रहण में सोलह वर्ष लगते २३००. वुड्ढावासातीते, कालातीते न उग्गहो तिविधो। हैं और उसके परावर्तन में बारह वर्ष लगते हैं। ___ आलंबणे विसुद्धे, उग्गह तक्कज्जवुच्छेदो।। २२९४. झरए य कालियसुते, पुव्वगते य जइ एत्तिओ कालो। वृद्धावास पूर्ण होने पर तथा काल के बीत जाने पर अर्थात् आयारपकप्पनामे, कालच्छेदे उ कयरेसिं॥ ऋतुबद्धकाल, मासाधिककाल तथा चातुर्मासिक काल बीत जाने प्रश्न होता है-कालिकश्रुत तथा पूर्वगतश्रुत के ग्रहण और पर तीनों प्रकार का अवग्रह-सचित्त, अचित्त और मिश्र नहीं परावर्तन में इतना समय लगता है तो आचारप्रकल्प-निशीथ के होता। विशुद्ध आलंबन अर्थात् वृद्धावास के समाप्त हो जाने पर अध्ययन में जो कालच्छेद (ऋतुबद्ध काल में एक मास और उसके कार्यभूत अवग्रह का भी व्यवच्छेद हो जाता है। वर्षाकाल में चार मास) यह किसके लिए है? २३०१. आगास कुच्छिपूरो,उग्गह पडिसेधितम्मि जो कालो। २२९५. सुत्तत्थतदुभएहिं, जे उ समत्ता महिड्डिया थेरा। न हु होति उग्गहो सो, कालदुगे वा अणुण्णातो।। एतेसिं तु पकप्पे, भणितो कालो नितियसुते॥ । २३०२. गिम्हाण चरिममासो, आचारप्रकल्प नैत्यिक सूत्र का जो कालच्छेद कहा गया है जहिं कतो तत्थ जदि पुणो वासं। वह सूत्र, अर्थ और तदुभय को सम्यग्रुप से प्राप्त करने वाले ठायंति अन्नखेत्ताऽसतीय महर्द्धिक स्थविर मुनियों का है। दोसुं पि तो लाभो॥ Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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