SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूवभव चला सानुवाद व्यवहारभाष्य ११३६. तद्दव्वस्स दुगुंछण, दिट्ठतो भावणा असरिसेण। भी क्षिप्त-दीप्तसूत्र के अंतर्गत है-यह पूर्व सूत्र से अन्य संबंध पगयम्मि पण्णवेत्ता, विज्जादिविसोहि जा कम्मं॥ प्रज्ञापित करता है। जो उत्कृष्ट द्रव्य की प्राप्ति से दीप्तचित्त हुआ है, उसके ११४२. पुव्वभवियवेरेणं, अहवा रागेण रंगितो संतो। सामने उस द्रव्य की जुगुप्सा करनी चाहिए अथवा असदृश से एतेहि जक्खविट्ठो, सेट्ठी सज्झिलग वेसादी॥ उसके दृष्टांत की भावना करनी चाहिए। प्रकृत की प्रज्ञापना, विद्या पूर्वभव के वैर अथवा राग से रंजित होने पर व्यक्ति यक्ष से आदि का प्रयोग, विशोधि तथा कार्मण का प्रयोग। (इस गाथा की ___आविष्ट होता है। इन दो कारणों से यक्षाविष्ट, जैसे-श्रेष्ठी, भाई, व्याख्या अगले श्लोकों में।) द्वेष्या पत्नी। (विवरण आगे) ११३७. उक्कोस बहुविधीयं, आहारोवगरणफलगमादीयं। ११४३. सेट्ठिस्स दोन्नि महिला, खुड्डेणोमतरेणं, आणीतोभामितो पउणो।। पिया य वेस्सा य वंतरी जाता। उत्कृष्ट आहार बहुत प्रकार का होता है। उपकरण, फलक सामन्नम्मि पमत्तं, आदि के भी अनेक भेद-प्रभेद हैं। (इन सबकी श्रावक को प्रज्ञापित छलेति तं पुव्ववेरेणं॥ कर अथवा विद्या आदि के प्रयोग से संपादित कर) इन सब एक सेठ के दो पत्नियां थीं। एक प्रिय थी और दूसरी अप्रिय। वस्तुओं को क्षुद्र क्षुल्लक मुनि लाया है, ऐसा दिखाकर उस । अप्रिय पत्नी मरकर व्यंतरी हुई। सेठ प्रव्रजित हो गया। वह व्यंतरी दीप्तचित्त मुनि की अपभ्राजना करनी चाहिए। वह स्वस्थ हो जाता । छिद्र देखने लगी। एक बार मुनि श्रामण्य में प्रमत्त हुआ। व्यंतरी ने पूर्वभव के वैर से उसको ठग लिया। ११३८. आदिट्ठ सड्डकहणं, आउट्टा अभिणवो य पासादो। ११४४. जेट्ठगभाउगमहिला, अज्झोवण्णाउ होति खुड्डलए। कतमेत्ते य विवाहे, सिद्धादिसुता कइतवेणं॥ धरमाण मारितम्मी, पडिसेहे वंतरी जाया। उस दीप्तचित्त के समक्ष उसके द्वारा अदृष्टपूर्व श्रावक का एक गांव में दो भाई रहते थे। बड़े भाई की पत्नी छोटेभाई कथन करना। वैसे श्रावक एकत्रित होकर उसके सामने आकर के प्रति आसक्त हो गई। वह बोला-जब तक बड़े भाई जीवित हैं, कहते हैं-इस क्षुल्लक मुनि ने हमें प्रज्ञापित किया, इसलिए हमने ____ मैं कुछ नहीं कर सकता। पत्नी ने पति को मार डाला। छोटे भाई यह अभिनव प्रासाद इसको दिया है। कपट से सिद्धपुत्र आदि के ने प्रतिषेध कर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। वह पत्नी मर कर व्यंतरी पुत्र को लाकर कहना चाहिए-इसका सद्य विवाह हुआ है, यह व्रत हुई। स्वीकार करना चाहता है। इससे उस दीप्तचित्त मुनि की अपभ्राजना ११४५. भतिया कुटुंबिएणं, पडिसिद्धा वाणमंतरी जाया। होती है। सामन्नम्मि पमत्तं, छलेति तं पुव्ववेरेणं॥ ११३९. चरगाादि पण्णवेडं, पुव्वं तस्स पुरतो जिणावेंति। एक भृतिका कर्मकरी कौटुम्बिक के प्रति आसक्त हो गई। ओमतरागेण ततो, पगुणति ओभामितो एवं॥ कौटुम्बिक ने प्रतिषेध कर डाला। वह कर्मकरी मरकर व्यंतरी चरक आदि परवादी को पहले ही प्रज्ञापित कर उस बनी। कौटुम्बिक प्रवजित हो गया। श्रामण्य में उसको प्रमत्त वादाभिमानी मुनि के पास लाकर अवमतर मुनि से वाद में चरक देखकर, पूर्वभविक वैर के कारण उसको छल लिया। पर विजय कराते हैं। फिर अन्य मुनि उस चरक की अपभ्राजना ११४६. तस्स य भूततिगिच्छा, भूतरवावेसणं सयं वावि। करते हैं। यह देखकर वह दीप्तचित्त मुनि स्वस्थ हो जाता है। ____णीउत्तमं तु भावं, नाउं किरिया जधापुव्वं ॥ ११४०. पोग्गलअसुभसमुदओ, एस अणागंतुको दुवेण्हं पि। भूत से आविष्ट मुनि के भूत की भावना नीच है अथवा उत्तम जक्खावेसेणं पुण, नियमा आगंतुगो होति॥ यह स्वयं जानकर अथवा पूर्व अभिहित कायोत्सर्ग के द्वारा देवता दोनों अर्थात् क्षिप्तचित्त तथा दीप्तचित्त मुनि के जो पीड़ा का की आराधना कर उसके कथनानुसार क्रिया करे-भूत- चिकित्सा हेतु अशुभपुद्गलों का समुदाय है वह आगंतुक नहीं है, करे। स्वशरीरसंभवी है किंतु जो यक्षावेश के कारण पीड़ा होती है वह ११४७. उम्माओ खलु दुविधो, जक्खावेसोय मोहणिज्जो य। अशुभ पुद्गल समूह नियमतः आगंतुक होता है। जक्खावेसो वुत्तो, मोहण इमं तु वोच्छामि। ११४१. अहवा भयसोगजुतो,चिंतद्दण्णो व अतिहरिसितो वा। उन्माद दो प्रकार का होता है-यक्षावेश (यक्षावेशहेतुक) आविस्सति जक्खेहिं, अयमन्नो होति संबंधो॥ तथा मोहनीय (मोहनीय कर्मोदय हेतुक)। यक्षावेश हेतुक उन्माद अथवा भय और शोकयुक्त तथा चिंता से पीड़ित व्यक्ति का कथन किया जा चुका है। मोहोदय से होने वाले उन्माद का क्षिप्तचित्त होता है। अतिहर्ष से दीप्तचित्त होता है। यक्षाविष्ट सूत्र कथन करूंगा। जवखामा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy