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________________ आठवां उद्देशक ३२५ जिनसे पहले वस्त्र परिष्ठापित कर दिए और पश्चात् उसकी की तपस्या करते हैं। पारणक के दिन एक मुनि एक पात्र लेकर उपधि जल गई, अपहृत हो गई, पानी से प्रवाहित हो गई, विस्मृति घूमे। इस प्रकार एक-एक व्यक्ति पारणक करे। इस प्रकार संघट्टन से छूट गई तो वह दूसरे उपकरणों की याचना करे। उनके लिए आदि दोष भी नहीं होते। उनके दोनों प्रकार का अवमौदर्य होता प्रयत्न करने पर भी न मिलने पर, अशठभाव से उन परिष्ठापित है-द्रव्य अवमौदर्य तथा भाव अवमौदर्य। (एक पात्र होने से द्रव्य उपकरणों को स्वयं ग्रहण करता है तो भी वह शुद्ध है। अवमौदर्य तथा दशम-दशम के क्रम से पारणा करने के कारण ३५९३. उवधी दूरद्धाणे, साहम्मियतेण्णरक्खणा चेव। भाव अवमौदर्य होता है।) अणुवत्तंते उ इमं, अतिरेगपडिग्गहे सुत्तं॥ ३५९९. आहारे उवगरणे, दुविधं ओमं च होति तेसिं तु। पूर्वसूत्र में यह कहा गया था कि पतित उपधि दूर के मार्ग से सुत्ताभिहियं च कतं, वेहारियलक्खणं चेव॥ भी लाकर देना चाहिए अन्यथा साधर्मिक चोरिका होती है। उनके दो प्रकार का अवम होता है-आहारविषयक (भाव साधर्मिक स्तैन्यरक्षण का अनुवर्तन है। प्रस्तुत सूत्र में भी अवम) तथा उपकरणविषयक (द्रव्य अवम)। सूत्राभिहित वैहारिक अतिरेकपात्रविषयक है। यही सूत्रसंबंध है। लक्षण (अल्पोपधिता तथा अल्पाहारता) का आचरण होता है। ३५९४. साधम्मिय उद्देसो, निद्देसो होती इत्थि-पुरिसाणं। ३६००. वेहारुगाण मन्ने, जध सिं जल्लेण मइलियं अंगं। गणिवायग उद्देसो, अमुगगणी वायए इतरो॥ मइला य चोलपट्टा, एगं पादं च सव्वेसिं॥ साधर्मिक यह उद्देश्य है। स्त्री-पुरुषों का अभिधान निर्देश मैं मानता हूं कि इन वैहारिकों का शरीर जल्ल और मल से है अथवा गणी, वाचक यह उद्देश है। अमुक गणी, अमुक युक्त होता है। उनके चोलपट्टे (वस्त्र) मलिन होते हैं। सबके एक वाचक-यह इतर निर्देश है। ही पात्र होता है। ३५९५. ऊणातिरित्तधरणे, चउरो मासा हवंति उग्घाता। ३६०१. जेसिं एसुवदेसो, तित्थयराणं तु कोविया आणा। आणादिणो य दोसा, संघट्टणमादि पलिमंथो॥ चउरो य अणुग्घाता, णेगे दोसा इमे होती॥ . प्रमाण से न्यून अथवा अतिरिक्त उपकरणों को धारण करने आचार्य कहते हैं-जिनका ऐसा उपदेश है उन्होंने तीर्थंकरों पर चार मास उद्घात अर्थात् लघु चारमास का प्रायश्चित्त आता की आज्ञा को कुपित कर डाला, उसका भंग कर दिया। उनको है तथा आज्ञाभंग आदि दोष और संघट्टन आदि का अतिरिक्त चार अनुद्घात मास (गुरुमास) का प्रायश्चित्त आता है तथा ये प्रायश्चित्त और परिमंथ-सूत्रार्थ का व्याघात होता है। अनेक दोष होते हैं। ३५९६. दो पायाणुण्णाया, अतिरेगं ततियपत्त माणातो। ३६०२. अद्धाणे गेलण्णे, अप्प पर चता य भिन्नमायरिए। धारंत पाणघट्टण, भारे पडिलेह पलिमंथो।। दो पात्र अनुज्ञात हैं-एक पात्र और एक मात्रक। तीसरा पात्र आदेस-बाल-वुड्ढा, सेहा खमगा य परिचत्ता। रखने पर गणना से अतिरेक होता है। पात्र का जो प्रमाण है उससे पात्र एक ही है। यदि अध्वनिर्गत अथवा ग्लान को वह पात्र दे देता है तो स्वयं त्यक्त हो जाता है। पात्र के अभाव में भिक्षाटन बृहद् पात्र ग्रहण करने से वह प्रमाण से अतिरेक होता है। जो गणना और प्रमाण से अतिरेक पात्र रखता है, वह प्राणियों का कैसे ? यदि नहीं देता है तो अध्वनिर्गत और ग्लान त्यक्त हो जाते परितापन और अपद्रावन करता है। उसको वहन करने में भार की हैं। एक पात्र के कारण व्रत भी त्यक्त हो जाते हैं। उसके टूट आने अनुभूति होती है तथा उनका प्रतिलेखन करने से सूत्रार्थ का पर दूसरा पात्र प्राप्त करने तक परिमंथ होता है तथा एक पात्र होने परिमंथ होता है। पर आचार्य, प्राघूर्णक, बाल, वृद्ध, शैक्ष, तपस्वी ये सारे परित्यक्त ३५९७. चोदेती अतिरेगे, जदि दोसा तो धरेतु ओमं तु। हो जाते हैं क्योंकि एक पात्र में उतना ही लाया जा सकता है एक्कं बहूण कप्पति हिंडंतु य चक्कवालेण।। जितना एक साधु के लिए पर्याप्त होता है। शिष्य कहता है-यदि अतिरेक पात्र धारण करने में दोष है ३६०३. दिंते तेसिं अप्पा, जढो उद्घाण ते जढा जं च। तो गणना से कम पात्र धारण करना चाहिए। एक-एक पात्र बहुत कुज्जा कुलालगहणं, वया जढा पाणगहणम्मी।। मुनियों को कल्पता है। वे चक्रवाल पद्धति से गोचरचर्या आदि में पात्र देने पर स्वयं परित्यक्त होता है और न देने पर वे घूमें। (जैसे एक दिन में एक, दूसरे दिन में दूसरा आदि।) अर्थात् अध्वनिर्गत, ग्लान आदि परित्यक्त होते हैं। पात्र देकर ३५९८. पंचण्हमेगपायं, दसमेणं एक्कमेक्क पारेउ। स्वयं कुलाल से मिट्टी का भांड ग्रहण करता है। उसके भी अनेक संघट्टणादि एवं, न होंति दुविधं च सिं ओमं॥ दोष होते हैं। संसक्त अन्नपान ग्रहण करने से व्रत भी परित्यक्त हो पांच मुनियों के पास एक पात्र हो। वे दशम अर्थात् चोले जाते हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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