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दसवां उद्देशक
३९७ ४५२४. संघयणं संठाणं, च पढमगं जो य पुव्वउवओगो। मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानीजिन, चौदहपूर्वी, दशपूर्वी तथा
ववहारे चउक्कं पि, चोद्दसपुव्वम्मि वोच्छिन्नं॥ नौपूर्वी। जो कल्पव्यवहारी धीरपुरुष हैं वे कल्प-व्यवहारसूत्र से
कोई कहता है-तीसरे पुरुषयुग अर्थात् जंबूस्वामी के साथ व्यवहार करते हैं। जो छेदसूत्र के अर्थधर हैं वे आज्ञाव्यवहार और सिद्धिपथ का व्यवच्छेद हो गया। तीनों चारित्र-परिहारविशुद्धि, धारणाव्यवहार से व्यवहार करते हैं। यह जो कहा कि चौदहपूर्वी सूक्ष्मसंपराय तथा यथाख्यात इनका भी व्यवच्छेद हो गया। के व्यवच्छेद हो जाने पर व्यवहारचतुष्क का व्यवच्छेद हो अब जीतकल्प से ही व्यवहार होता है। प्रथम संहनन, प्रथम गया-यह मिथ्या है। क्योंकि छेदसूत्रों के सूत्रधर और अर्थधर संस्थान तथा पूर्वो का उपयोग अर्थात् एक अंतमुहूर्त में उनकी आज भी विद्यमान हैं। अनुप्रेक्षा, आगमव्यवहार आदि चारों प्रकार के व्यवहार-इन ४५३२. तित्थोगाली एत्थं, वत्तव्वा होति आणुपुव्वीए। सबका व्यवच्छेद चतुर्दशपूर्वी के व्यवच्छेद के साथ-साथ हो
जो जस्स उ अंगस्सा बुच्छेदो जहि विणिद्दिट्ठो॥ गया।
जिस अंग का व्यवच्छेद जहां निर्दिष्ट है, उसको जानने के ४५२५. आहायरिओ एवं, ववहारचउक्क जे उ वोच्छिन्नं। लिए 'तित्थोगाली' ग्रंथ क्रमशः वक्तव्य है।
चउदसपुव्वधरम्मी, घोसंती तेसऽणुग्घाता॥ ४५३३. जो आगमे य सुत्ते य सुन्नतो आणधारणाए य। आचार्य कहते हैं-जो यह घोषणा करते हैं कि चौदह पूर्वी के
सो ववहारं जीएण, कुणति वुत्ताणुवत्तेण॥ साथ-साथ चारों प्रकार के व्यवहारों का व्यवच्छेद हो गया उन्हें जो श्रमण आगम, सूत्र, आज्ञा तथा धारणा से शून्य होता अनुद्घात (गुरु) चार मास का प्रायश्चित्त आता है।
है, वह वृत्त, अनुवृत्त रूप में जीतव्यवहार से व्यवहार करता है। ४५२६. जे भावा जहियं पुण, चोद्दसपुव्विम्मि जंबुनामे य। ४५३४. अमुगो अमुगत्थ कतो, अमुयस्स अमुएण ववहारो। ___ वोच्छिन्ना ते इणमो, सुणसु समासेण सीसंते॥
अमुगस्स वि य तह कतो, अमुगो अमुगेण ववहारो॥ जो भाव चतुर्दशपूर्वी के साथ-साथ तथा जंबूस्वामी के ४५३५. तं चेवऽणुमज्जंते, ववहारविधिं पउंजति जहुत्तं। साथ-साथ व्युच्छिन्न हुए हैं इनको मैं कह रहा हूं। इन्हें तुम सुनो।
जीतेण एस भणितो, ववहारो धीरपुरिसेहिं। ४५२७. मणपरमोहिपुलाए, आहारग-खवग-उवसमे कप्पे। अमुक व्यक्ति के अमुक प्रायश्चित्तार्ह कार्य होने पर अमुक
__ संजम तिय केवलिसिज्झणा य जंबुम्मि वोच्छिन्ना॥ आचार्य ने अमुक व्यवहार का प्रयोग किया-यह वृत्त है तथा
जंबूस्वामी के बाद ये व्युच्छिन्न हो गए-मनःपर्यवज्ञानी, अमुक व्यक्ति के वैसा ही कार्य समुपस्थित होने पर अमुक परमअवधिज्ञानी, पुलाकलब्धिधारक, आहारकशरीरलब्धि- आचार्य ने वही व्यवहार किया-यह अनुवृत्त है। इस वृत्तानुवृत्त धारी, क्षपक तथा उपशमश्रेणी, जिनकल्प, चारित्रत्रिक- जीतव्यवहार का अनुमज्जन-आश्रय लेता हुआ जो यथोक्त परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात, केवलज्ञानी तथा व्यवहारविधि का प्रयोग करता है-इसी को धीरपुरुषों ने सिद्धिगमन।
जीतव्यवहार कहा है। यह है जीतविधि से व्यवहार करना। ४५२८. संघयणं संठाणं, च पढमगं जो य पुव्वउवओगो। ४५३६. धीरपुरिसपण्णत्तो, पंचमगो आगमो विदुपसत्थो। एते तिन्नि वि अत्था, चोद्दसपविम्मि वोच्छिन्नो।
पियधम्मऽवज्जभीरू, पुरिसज्जायाऽणुचिण्णो य॥ प्रथम संहनन, प्रथम संस्थान तथा पूर्व-उपयोग-अंतमुहूर्त धीरपुरुषों द्वारा प्रज्ञप्त तथा श्रुतज्ञानियों द्वारा प्रशंसित यह में समस्त पूर्वो की अनुप्रेक्षणशक्ति-ये तीनों अर्थ (यथार्थताएं) पांच प्रकार का व्यवहार है-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और अंतिम चतुर्दशपूर्वी (भद्रबाहु) के साथ व्युच्छिन्न हो गईं। जीत। जीतव्यवहार पांचवां है। प्रियधर्मा और पापभीरू पुरुषों ४५२९. केवल-मणपज्जवनाणिणो य
द्वारा यह आचीर्ण है। __ तत्तो य ओहिनाणजिणा। ४५३७. सो जह कालादीणं, अप्पडिकंतस्स निव्विगइयं तु। चोद्देस-दस-नवपुव्वी,
__मुहणंत फिडिय पाणग, ऽसंवरणे एवमादीसु॥
आगमववहारिणो धीरा॥ वह जीत व्यवहार है जैसे काल आदि का अप्रतिक्रांत करने, ४५३०. सुत्तेण ववहरते, कप्पव्ववहारधारिणा धीरा। मुख पर पोतिका स्फिटित हो जाने-न रखने तथा पानक का
अत्थधरववहरंते, आणाए धारणाए य॥ प्रत्याख्यान न करने पर निर्विकृत का प्रायश्चित्त है। ४५३१. ववहारचउक्कस्सा, चोद्दसपुव्विम्मि छेदो जं भणियं। ४५३८. एगिदिऽणंत वज्जे, घट्टण तावेऽणगाढ य गाढ उद्दवणे। तं ते मिच्छा जम्हा, सुत्तं अत्थो य धरए उ॥
निविगितयमादीयं, जा आयामं तु उद्दवणे॥ ये छह धीरपुरुष आगमव्यवहारी होते हैं-केवलज्ञानी, अनंतकायवर्जित एकेंद्रिय प्राणियों के घट्टन, अनागाढ़Jain Education International
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