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________________ चौथा उद्देशक १९२०. एगं व दो व दिवसे, संघाडट्ठाय सो पडिच्छेज्जा । असती एगागी तो जतणा उवही न उवहम्मे ॥ एक, दो दिन तक संघाटक की प्रतीक्षा करनी चाहिए। यदि न मिले तो एकाकी गमन करे। उसमें यतना करनी चाहिए। (वह निशीथ में बताई जा चुकी है।) उससे उपधि का उपहनन नहीं होता। १९२१. एसो पढ़मो भंगो, एवं सेसा कमेण जोएज्जा । आसन्नुज्जयठाणं, गच्छे दारा य तत्थ इमे ॥ (पूर्व में कथित चार भंगों में) यह पहला भंग है। इसी प्रकार शेष भंगों की भी क्रमशः संयोजना करनी चाहिए। इस प्रकार गमन करते समय आसन्न उद्यतविहारी मुनियों के स्थान पर जाए। वहां परीक्षा के लिए ये द्वार हैं१९२२. पारिच्छहाणि असती, आगमणं निग्गमो असंविग्गे । निवेदण जतण निसट्टं, दीहखद्धं परिच्छंति ॥ परीक्षा हानि, असति, आगमन, निर्गम, असंविग्न निवेदन, यतना, विसृष्ट, दीर्घखद्धं - दीर्घकाल तक प्रतीक्षा । (यह द्वार गाथा है। प्रत्येक शब्द की व्याख्या आगे की अनेक गाथाओं में १९२३ से १९८२ तक) । १९२३. पासत्थादिविरहितो, काहियमादीहि वावि दोसेहिं । संविग्गमपरितंतो, साहम्मियवच्छलो जो उ॥ १९२४. अब्भुज्जतेसु ठाणं, परिच्छिउं हायमाणए मोत्तुं । केसु पदेसुं हाणी, वुड्डी वा तं निसामेहि ॥ वह स्थान पार्श्वस्थ आदि से विरहित, काथिकत्व आदि दोषों से विप्रमुक्त, संविग्न, अपरित्रांत- अपरिश्रांत, साधर्मिकवात्सलयुक्त है या नहीं। इस प्रकार अभ्युद्यतविहारी मुनियों के स्थान की परीक्षा कर हीयमान स्थान को छोड़कर रहे। शिष्य ने पूछा- हानि-वृद्धि किन किन स्थानों में देखनी चाहिए? आचार्य ने कहा- मैं बताता हूं। सुनो। १९२५. तव नियम -संजमाणं, जहियं हाणी न कप्पते तत्थ | तिगवुड्डी तिगसोही, पंचविसुद्धी सुसिक्खा य ।। जहां तप, नियम तथा संयम की हानि हो वहां रहना नहीं कल्पता । जहां त्रिकवृद्धि-ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वृद्धि हो, जहां त्रिकशोधि- आहार, उपधि और शय्या की शोधि हो, जहां पंचविशोधि-पार्श्वस्थ आदि पांच स्थानों की विशुद्धि हो, जहां सुशिक्षा का वर्तन हो, वहां रहना चाहिए। १९२६. बारसविधे तवे तू, इंदिय-नोइंदिए य नियमे उ । संजमसत्तरसविधे, हाणी जहियं तहिं न वसे ॥ जहां बारह प्रकार के तप में, इंद्रिय-नो इंद्रिय विषयक नियमों में तथा सतरह प्रकार के संयम में हानि होती हो, वहां नहीं रहना चाहिए। Jain Education International १८३ १९२७. तव - नियम- संजमाणं, एतेसिं चेव तिह तिगवुड्डी । नाणादीण व तिन्हं, तिगसुद्धी उग्गमादीणं ॥ इन तीनों-तप, नियम और संयम - इस त्रिक की वृद्धि अथवा ज्ञान, दर्शन और चारित्र - इस त्रिक की वृद्धि तथा त्रिकशुद्ध अर्थात् उद्गम आदि की शुद्धि अर्थात् आहार, उपधि और शय्या की शुद्धि हो, वहां रहना चाहिए । १९२८. पासत्थे ओसण्णे, कुसीले संसत्त तह अहाछंदे । तेहि जो विरहितो, पंचविसुद्धो हवति सो उ ॥ पंचविशुद्ध अर्थात् जो स्थान पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त और यथाच्छंद से शून्य हो वह पंचविशुद्ध स्थान होता है । १९२९. पंच य महव्वयाइं, अहवा वी नाण- दंसण-चरितं । तव - विणओ विय पंच उ, पंचविधुवसंपदा वावि ।। पंचविशुद्ध-पांच महाव्रतों अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप तथा विनय-ये पांच अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप तथा वैयावृत्त्य के भेद से पांच प्रकार की उपसंपदा इन पंचकों से विशुद्ध । १९३०.सोभणसिक्खसुसिक्खा, सा पुण आसेवणे य गहणे य । दुविधाए वि न हाणी, जत्थ य तहियं निवासो उ ॥ शोभना शिक्षा सुशिक्षा- जो शिक्षा व्यक्ति को शोभित करती है, वह सुशिक्षा है। उसके दो प्रकार हैं- आसेवन शिक्षा और ग्रहण शिक्षा। जहां इन दोनों प्रकार की शिक्षाओं की हानि नहीं होती वहां निवास करना उचित है। १९३१. एतेसुं ठाणेसुं सीदंते चोदयंति आयरिया । हावेंति उदासीणा, न तं पसंसंति आयरिया ॥ जहां आचार्य इन स्थानों (तपः आदि के) में उदासीन रहने वाले शिष्यों को उनकी पालना के लिए प्रेरित करते हैं, वह निवासयोग्य होता है। जहां आचार्य उदासीन रहकर सामाचारी की उपेक्षा करते हैं, उस गण की आचार्य प्रशंसा नहीं करते। वह गण उपसंपदा ग्रहण करने योग्य नहीं होता। १९३२. आयरिय-उवज्झाया, नाणुण्णाता जिणेहि सिप्पट्ठा । नाणे चरणे जोगा, पावगा उ तो अणुण्णाता ॥ तीर्थंकरों ने शिल्पशिक्षा के लिए आचार्य और उपाध्याय को अनुज्ञा नहीं दी है। जो शिक्षा ज्ञानयोग और चरणयोग को प्राप्त कराने वाली हो, जो ज्ञान और चरण की वृद्धि करने वाली हो उस शिक्षा के लिए वे अनुज्ञात हैं। १९३३. नाण चरणे निउत्ता, जा पुव्व परूविया चरणसेढी । सुहसीलठाणविजढे, निच्चं सिक्खावणा कुसला ॥ जो आचार्य या मुनि ज्ञान और चारित्र में नियुक्त हैं- सतत For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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