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________________ १८४ सानुवाद व्यवहारभाष्य दिया। उद्यमशील हैं, जो पूर्व अर्थात् कल्पाध्ययन में कृतिकर्म सूत्र में मिला, दूसरों को नहीं। प्ररूपित चरणश्रेणी में स्थित हैं, जिन्होंने सुखशील-पार्श्वस्थ १९३९. परबलपेल्लिउ नासति, आदि के स्थान को छोड़ दिया है तथा जो शिक्षापना में कुशल हैं बितिओ दाणं न देति तु भडाणं। जो ग्रहण और आसेवन शिक्षा देने में कुशल हैं-ऐसे आचार्यों के न वि जुज्जते ते ऊ, पास उपसंपदा ग्रहण करनी चाहिए। एते दो वी अणरिहाओ॥ १९३४. जेण वि पडिच्छिओ सो, . पहला राजकुमार शत्रुसेना से आक्रांत होकर राज्य से कालगतो सो वि होति आहच्च।। पलायन कर जाता है। दूसरा राजकुमार भटो को कुछ भी नहीं सो वि य सावेक्खो वा, देता। इस स्थिति में वे भट शत्रुसेना से युद्ध नहीं करते। ये दोनों निरवेक्खो वा गुरू आसी॥ राज्याधिकार के अयोग्य हैं। जिसके पास वह प्रतीच्छित हुआ है अर्थात् शिष्य परिवार १९४०. ततिओ रक्खति कोसं, सहित उपसंपन्न हुआ है, वह भी कदाचित् कालगत हो जाए, वह देति य भिच्चाण ते य जुज्झंति। गुरु भी सापेक्ष अथवा निरपेक्ष हो सकता है। पालेतव्वो अरिहो, १९३५. सावेक्खो सीसगणं, संगह कारेति आणुपुव्वीए। रज्जं तो तस्स तं दिण्णं ।। पाडिच्छ आगते त्ति व, एस वियाणे अह महल्लो॥ तीसरा राजकुमार कोश-भांडागार की रक्षा करता है, भटों सापेक्ष गुरु अपने शिष्यगण को नवस्थापित गणधर के को यथायोग्य देता है, अतः वे भट शत्रुसेना से युद्ध करते हैं। वह प्रति आनुपूर्वी के कथन से संग्राहित करता है। (उन्हें कहता राज्य के पालन में समर्थ है, यह सोचकर राजा ने उसको राज्य दे है-पहले सुधर्मा, फिर जंबू, फिर प्रभव...यावत् आज हम हैं।) गण महान् वृद्धिंगत हो गया है। अतः मैंने अमुक को गणधर १९४१. अभिसित्तो सट्ठाणं, अणुजाणे भडादि अहियदाणं च। स्थापित किया है। इसको मेरे स्थान पर जानें। ज्ञान, दर्शन आदि वीसुंभिय आयरिए, गच्छे वि तयाणुरूवं तु॥ की प्रतीच्छा के निमित्त आए हुए शिष्यों को भी यही बात कहता उसको युवराज के रूप में अभिषिक्त करने पर सभी सेवक उसके पास आकर अपने-अपने कार्य-स्थान का निवेदन करते १९३६. जह राया व कुमार, रज्जे ठावेउमिच्छते जंतु। हैं। वह राजा सभी को अपने-अपने स्थान की अनुज्ञा दे देता है। भड जोधे वेति तगं, सेवह तुब्मे कुमारं ति॥ वह भटों आदि को अधिकदान-पारितोषिक आदि देता है। १९३७. अहयं अतीमहल्लो, तेसिं वित्ती उ तेण दावेति।। आचार्य के कालगत हो जाने पर गच्छ में तृतीय राजकुमार के सो पुण परिक्खिऊणं, इमेण विहिणा उ ठावेति॥ अनुरूप आचार्य की स्थापना करता है। जैसे कोई राजा जिस कुमार को राज्य में स्थापित करना १९४२. दुविधेण संगहेणं, गच्छं संगिण्हते महाभागो। चाहता है, उसके प्रति भटों और योद्धाओं को कहता है-अब तुम तो विण्णवेंति ते वी, तं चेव ठाणयं अम्हं ।। अमुक कुमार की सेवा करना। मैं अत्यंत बूढा हो गया हूं। यह वह अभिनव स्थापित आचार्य गच्छ को दो प्रकार के कहकर वह कुमार से उनकी वृत्ति दिलाता है। उस कुमार की इस संग्रहों-द्रव्यसंग्रह और भावसंग्रह से संग्रहण-पुष्ट करता है। तब विधि से परीक्षा करने के पश्चात् उसे राज्य में स्थापित किया सभी मुनि उसे प्रार्थना करते हैं कि आप हमें हमारा स्थान दें। जाता है। १९४३. उवगरण बालवुड्डा, खमग गिलाणे य धम्मकधि वादी। १९३८. परमन्न भुंज सुणगा, छड्डण दंडेण वारणं बितिए। गुरुचिंत वायणा-पेसणेसु कितिकम्मकरणे य॥ भुंजति देति य ततिओ, तस्स उ दाणं न इतरेसिं॥ आचार्य द्वारा स्थान के विषय में पूछने पर एक साधु (एक राजा के तीन पुत्र थे। 'किसको युवराज बनाऊं' इस कहता है-मैं उपकरण उत्पादक था। दूसरा कहता है-मैं बाल - चिंतन से उसने परीक्षा करनी चाही। उसने तीनों को भोजन के और वृद्ध की वैयावृत्त्य करने वाला था। तीसरा कहता है-मैं लिए बुलाया।) तीनों के सामने तीन थालों में परमान्न परोसा। वे क्षपक का वैयावृत्त्यकर, चौथा कहता है-मैं ग्लान का खाने लगे। इतने में ही कुत्ते आ गए। कुत्तों को देख एक राजकुमार वैयावृत्त्यकर, कोई कहता है-मैं धर्मकथी था। अपर कहता है-मैं भय से पलायन कर गया। दूसरा राजकुमार दंडे से कुत्तों का वादी था। एक कहता है-गुरुचिंता अर्थात् गुरु के कार्य में नियुक्त वारण करता हुआ खाने लगा। तीसरा राजकुमार कुछ कुत्तों को था। एक कहता है-मैं वाचना देने में नियुक्त था। एक कहता है-मैं खाने के लिए डालता और स्वयं भी खाता। उसको राजदान यत्र-तत्र भेजा जाता था, एक कहता है-मैं कृतिकर्म करने में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org है। ता
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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