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________________ ३७२ सानुवाद व्यवहारभाष्य था। क्या प्राकृतजन-सामान्य राजा भी वैसे प्रासाद (महल) नहीं और स्नातक। इनके प्रायश्चित्तों का यथाक्रम निरूपण करूंगा। बनवाते ? (बनवाते ही हैं, चाहे वे उतने सुंदर न हों।) ४१८५. आलोयण पडिकमणे, मीस विवेगे तहा विउस्सग्गे। ४१७८. जह रूवादिविसेसा, परिहीणा होति पागयजणस्स। तत्तो तवे य छ8, पच्छित्त पुलाग छप्पेते। ण य ते ण होति गेहा, एमेव इमं पि पासामो॥ पुलाक निर्ग्रथ के छह प्रायश्चित्त ज्ञातव्य है-आलोचना, यद्यपि प्राकृतजन के प्रासाद रूप आदि से विशेष नहीं होते प्रतिक्रमण, मिश्र, विवेक, तप और व्युत्सर्ग। (चक्रवर्ती के प्रासाद जैसे सुंदर और विशाल नहीं होते) फिर भी ४१८६. बकुसपडिसेवगाणं, पायच्छित्ता हवंति सव्वे वि। क्या वे गृह नहीं होते ? इसी प्रकार हम प्रायश्चित्त को भी उसी थेराण भवे कप्पे, जिणकप्पे अट्ठहा होति॥ दृष्टि से देखते हैं। बकुश और प्रतिसेवना कुशील-दोनों के सभी दस ४१७९. एमेव य पारोक्खी , तयाणुरूवं तु सो वि ववहरति। प्रायश्चित्त होते हैं। उनके स्थविर, जो जिनकल्प और किं पुण ववहरियव्वं, पायच्छित्तं इमं दसहा॥ यथालंदकल्प में स्थित हैं, उनके आठ (अंतिम दो रहित) इसी प्रकार वह परोक्षज्ञानी भी तदनुरूप अर्थात् प्रायश्चित्त होते हैं। प्रत्यक्षागमव्यवहारानुरूप व्यवहार का प्रयोग करता है। क्या ४१८७. आलोयणा विवेगो य, नियंठस्स दुवे भवे। व्यवहर्तव्य है इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया यह दश प्रकार का विवेगो य सिणातस्स, एमेया पडिवत्तिओ॥ प्रायश्चित्त व्यवहर्त्तव्य है। .. निग्रंथ के दो प्रायश्चित्त हैं-आचोलना और विवेक। ४१८०. आलोयण पडिकमणे, मीस विवेगे तहा विउस्सग्गे। स्नातकनिग्रंथ के केवल एक ही प्रायश्चित्त है-विवेक। ये पुलाक . तव-छेद-मूल अणवट्ठया य पारंचिए चेव॥ आदि की प्रतिपत्तियां हैं। दश प्रकार का प्रायश्चित्त-आलोचना, प्रतिक्रमण, मिश्र- ४१८८. पंचव संजता खलु, नातसुतेणं कधिय जिणवरेणं । आलोचना-प्रतिक्रमण दोनों, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, तेसिं पायच्छित्तं, अहक्कम कित्तइस्सामि॥ अनवस्थाप्य तथा पारांचित। ज्ञातपुत्र जिनवर ने पांच प्रकार के ही संयत बताए हैं। उनके ४१८१. दस ता अणुसज्जंती, जा चोद्दसपुव्वि पढमसंघयणं। प्रायश्चित्तों का निरूपण यथाक्रम करूंगा। तेण परेणऽट्ठविधं, जा तित्थं ताव बोधव्वं॥ ४१८९. सामाइसंजताणं, पच्छित्ता छेदमूलरहितऽट्ठा जब तक प्रथम संहनन और चतुर्दशपूर्वधरों का अस्तित्व है थेराण जिणाणं पुण, तवमंतं छव्विधं होति। तब तक दशों प्रायश्चित्तों का अनुवर्तन होता है। उसके बाद जब स्थविरकल्पी सामायिकसंयतों के छेद और मूल रहित तक तीर्थ का अस्तित्व रहता है तब तक आठ प्रायश्चित्तों आठ प्रायश्चित्त तथा जिनकल्पिकों, सामायिकसंयतों के तप (अनवस्थाप्य और पारांचित को छोड़कर) का अनुवर्तन ज्ञातव्य पर्यंत छह प्रायश्चित्त होते हैं। ४१९०. छेदोवठ्ठावणिए, पायच्छित्ता हवंति सव्वे वि। ४१८२. दोसु तु वोच्छिन्नेसुं, अट्ठविधं देंतया करेंता य। थेराण जिणाणं पुण, मूलंतं अट्ठहा होति।। न वि केई दीसंती, वदमाणे भारिया चउरो॥ छेदोपस्थापनीय स्थविरकल्पी मुनियों के सभी प्रायश्चित्त दो प्रकार के प्रायश्चित्तों का व्यवच्छेद हो जाने पर आठ होते हैं। छेदोपस्थापनीय जिनकल्पिक के मूल प्रायश्चित्त पर्यंत प्रकार के प्रायश्चित्तों को देने वाले और करने वाले (लेने वाले) आठ प्रायश्चित्त होते हैं। कोई दिखाई नहीं देते। इस प्रकार कहने वाले को चार गुरुमास ४१९१. परिहारविसुद्धीए, मूलंता अठ्ठ होति पच्छित्ता। का प्रायश्चित्त आता है। थेराण जिणाणं पुण, छविध छेदादिवज्जं वा॥ ४१८३. दोसु वि वोच्छिन्नेसुं, अट्ठविधं देंतया करेंता य। परिहारविशुद्धि संयम में प्रवर्तमान स्थविरों के मूलांत आठ पच्चक्खं दीसंते, जधा तधा मे निसामेहि॥ प्रायश्चित्त तथा जिनकल्पिकों के छेद आदि वयं छह प्रकार का आचार्य कहते हैं-अंतिम दोनों प्रायश्चित्तों का व्यवच्छेद प्रायश्चित्त है। हो जाने पर आठ प्रकार के प्रायश्चित्तदाता और ग्रहीता-दोनों ४१९२. आलोयणा विवेगे य, तइयं तु न विज्जती। देखे जाते हैं। मैं जैसे कहता हूं, वैसे तुम सुनो। सुहमे य संपराए अधक्खाए तधेव य॥ ४१८४. पंचेव नियंठा खलु, पुलाग-बकुसा कुसीलनिग्गंथा। सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात चारित्र में आलोचना और तह य सिणाया तेसिं, पच्छित्त जधक्कम वोच्छ॥ विवेक-ये दो ही प्रायश्चित्त होते हैं। तीसरा कोई प्रायश्चित्त नहीं पांच प्रकार के निग्रंथ हैं-पुलाक, बकुश, कुशील, निग्रंथ होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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