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________________ ७६ सानुवाद व्यवहारभाष्य गच्छ में पारिहारिकतप वहन करने वाला एक मुनि सूत्रार्थ- को निक्षिप्त कर अन्यत्र कैसे भेज सकते हैं? क्यों भेजते हैं? विशारद तथा अनेक लब्धियों से सम्पन्न है। उसको अन्य गच्छों आचार्य कहते हैं-वत्स ! तुम इसका कारण सुनो। में सूत्रार्थ की प्रतिपच्छा के निमित्त अथवा ये प्रयोजन उपस्थित ६९९. तिक्खेसु तिक्खकज्जं, सहमाणेसु य कमेण कायव्वं । हो जाने पर भेजा जाता है। वे प्रयोजन ये हैं न य नाम न कायव्वं कायव्वं वा उवादाए॥ १. अक्रियावादी वाद करना चाहता है। अनेक प्रकार के तीक्ष्ण-प्रधान कार्यों में जो तीक्ष्णतर२. राजा प्रद्विष्ट हो गया है। प्रधानतर कार्य है उसको पहले करना चाहिए। जो शेष सहमान ३. साधुओं की पिटाई होती है। कार्य हैं उनको क्रमशः करना चाहिए। उनको करना ही नहीं, यह ४. संयम से च्युत करता है। बात नहीं है, किंतु उनकी प्राथमिकता-अप्राथमिकता को सोच ५. साधुओं को बंधन में डाल देता है। कर उनका संपादन करना चाहिए। ६. साधुओं को वहां भक्त-पान का लाभ होता भी है, नहीं ७००. वणकिरियाए जा होति, वावडा जर-धणुग्गहादीया। भी होता? काउमुवद्दवकिरियं, समेंति तो तं वणं वेज्जा। ७. किसी मुनि ने भक्तप्रत्याख्यान कर लिया है। ७०१. जह आरोग्गे पगतं, एमेव इमं पि कम्मखवणेणं। ८. कोई आचार्य आदि ग्लान हो गये हैं। इहरा उ अवच्छल्लं, ओभावण तित्थहाणी य॥ ९. कई मुनि संयमातीत-उत्प्रवजित हो गये हैं। चिकित्सक व्रणक्रिया प्रारंभ करते है, परंतु बीच में यदि १०. प्रबल वादी प्रस्तुत हुआ है। ज्वर, धनुग्रह (वातविशेष) आदि का उपद्रव सामने आ जाते हैं ६९६. न वि य समत्थो वन्नो,अहयं गच्छामि निक्खिवय भूमि।। तो चिकित्सक पहले इन उपद्रवों को शांत करने की क्रिया करते सरमाणेहि य भणियं, आयरिया जाणगा तुज्झं। हैं और तदंतर मूल व्रण का शमन करते हैं। जैसे वैद्यक्रिया में वादी के निग्रह के प्रसंग में अथवा अन्य प्रयोजनों के प्रसंग जिससे आरोग्य होता है उसको पहले करते हैं, शेष का शमन में आचार्य सोचते हैं-इस पारिहारिक मुनि के अतिरिक्त कोई बाद में किया जाता है। इसी प्रकार मोक्षानुष्ठान में जिस क्रिया से दूसरा मुनि प्रयोजन को सिद्ध करने में समर्थ नहीं है, अथवा वह कर्मक्षय शीघ्र होता है, उसको पहले किया जाता है। परिहारतप पारिहारिक स्वयं कहता है-मैं ही उस प्रयोजन को सिद्ध करने में का निक्षेप कर परिहारी पहले संघकार्य करता है अन्यथा समर्थ हूं, अतः मैं वहां जाता हूं। तब आचार्य-'यह मुनि परिहारतप अवात्सल्य प्रत्ययिक, अवधावन या अपभ्राजन प्रत्ययिक तथा का वहन कर रहा है यह स्मरण कर उसे कहते हैं-मुने! तुम तीर्थहानि प्रत्ययिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। अपनी पारिहारकतप की भूमिका को, प्रयोजन को सिद्ध कर लौट ७०२. अप्परिहारी गच्छति, तस्सऽसतीए व जो उ परिहारी। कर आने तक, निक्षिप्त करो-स्थगित करो।' यदि वह स्थगित उभयम्मि वि अविरुद्धे, आयरहेतुं तु तग्गहणं ।। करता है तो स्थगित कराए और यदि वह कहे-'मैं यह प्रायश्चित्त यदि प्रयोजन सिद्ध करने में अपारिहारिक मुनि समर्थ हो भी वहन कर लूंगा और साथ ही साथ प्रयोजन भी सिद्ध कर तो वह जाता है। उसके अभाव में पारिहारिक मुनि जाता है। दोनों लूंगा' तब आचार्य उसको कहे-जहां तुम जा रहे हो, वहां के का जाना अविरुद्ध है। सूत्र में जो पारिहीरक का ग्रहण किया आचार्य जो कहे वह करो। गया है वह आदरसूचित करने के हेतु से है। जहां पारिहारिक ६९७. जाणता माहप्पं, कहेंति सो वा सयं परिकधेति।। जाते हैं वहां सदा अपारिहारिक को भी जाना चाहिए, यह इससे तत्थ स वादी हु मए, वादेसु पराजितो बहुसो॥ ख्यापित होता है। आचार्य उस पारिहारिक मुनि का माहात्म्य-शक्ति को जान ७०३. संविग्गणुण्णजुतो, असती अमणुण्णमीसपंथेण । कर स्वयं कहते हैं-उस वादी का निग्रह करने में तुम ही समर्थ हो, समणुण्णेसुं भिक्खं, काउं वसतेऽमणुण्णेसुं॥ दूसरा कोई नहीं, अथवा वह पारिहारिक स्वयं यह बात कहते हुए पारिहारिक मुनि जब प्रस्थित होता है तब उसके साथ एक बताता है कि मैंने उस वादी को अनेक बार वादों में पराजित किया संविग्न मुनि और एक मनोज्ञ मुनि को सहायक के रूप में देना चाहिए। मनोज्ञ मुनि के अभाव में अमनोज्ञ मुनि भी सहायक हो ६९८. चोएति कहं तुन्भे, परिहारतवं गतं पवण्णं तु। सकता है। इस प्रकार वह मिश्र-साधर्मिक-असाधर्मिक से युक्त निक्खिविउं पेसेहा, चोदग! सुण कारणमिणं तु॥ पथ से जाए। वह पारिहारिक समनोज्ञों में भिक्षा कर समनोज्ञों में शिष्य आचार्य से पूछता है-भंते ! जिस मुनि ने परिहारतप रहता है। यहां इस विषयक चार भंग हैंस्वीकार किया है, जो उसका वहन कर रहा है, उसको परिहारतप १. मनोज्ञों में भिक्षा कर मनोज्ञों में रहना। उभ .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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