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पहला उद्देशक
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२. मनोज्ञों में भिक्षा कर अमनोज्ञों में रहना।
७०८. मोत्तूण भिक्खवेलं, जाणियं कज्जाइ पुव्वभाणियाई। ३. अमनोज्ञों में भिक्षा कर मनोज्ञों में रहना।
अप्पडिबद्धो वच्चति, कालं थामं च आसज्ज॥ ४. अमनोज्ञों में भिक्षा कर अमनोज्ञों में रहना।
वह प्रस्थित पारिहारिक मुनि भिक्षावेला को छोड़कर जो (गाथा के उत्तरार्ध में प्रथम भंग का पूर्वार्द्ध और अंतिम भंग संघकार्य पहले कहे गए हैं, उनकी संपन्नता के लिए कहीं भी का उत्तरार्द्ध लिया है।)
प्रतिबद्ध न होता हुआ विहारोचित काल और स्वयं के सामर्थ्य के ७०४. एमेव य संविग्गेऽसंविग्गे चेव एत्थ संजोगा। अनुसार परिवजन करता है।
पच्छाकड साभिग्गह, सावग-संविग्ग पक्खी य॥ ७०९. गंतूणं य सो तत्थ, पुव्वं संगेण्हते ततो परिसं। जिस प्रकार संविग्न सांभोगिक तथा असांभोगिक की चतुर्भंगी संगिण्हिऊणं परिसं, करेति वादं समं तेण ।। के आधार पर भिक्षावसति का निरूपण दिया गया है, इसी प्रकार वहां गंतव्य पर पहुंच कर वह मुनि सबसे पहले परिषद् को संविग्न अथवा असंविग्न सांभोगिक के प्रसंग में भिक्षावसति के आत्मीय करता है। परिषद् का संग्रहण कर वह वाद के इच्छुक संयोग जानने चाहिए। इसी प्रकार असंविग्न सांभोगिक पश्चात्कृत व्यक्ति के साथ वाद करता है। साभिग्रह और निरभिग्रह श्रावकों में, यदि उनमें भी संभव न हो ७१०. अबंभचारी एसो, किं नाहिति कोट्ठ एस उवगरणं। तो संविग्नपाक्षिक और असंविग्नपाक्षिक श्रावकों में प्रत्येक के वेसित्थीय पराजित, निविसयपरूवणा समए। चार-चार संयोग करने चाहिए। (यह गाथा का अक्षरार्थ है। विस्तार वाद करने से पूर्व वह निमित्तविद्या के बल से वादी के के लिए देखें वृत्ति पत्र ७३,७४।)
स्वरूप को जानकर उसके आने से पहले परिषद् में कहता है-यह ७०५. आहारोवहि-झाओ, सुंदरसेज्जा वि होति हु विहारो। वादी अब्रह्मचारी है। परिषद् में किसी ने पूछा-आपने यह कैसे ___ कारणतो तु वसेज्जा, इमे उ ते कारणा होति ।। जाना ? तब वह कहता है-यह वादी जिस कोष्ठक में ठहरा हुआ
यहां आहार और उपधि अच्छे प्राप्त होते हैं। यहां स्वाध्याय है वहां इसके उपकरण संगोपित हैं। यह अमुक वेश्या के साथ का निर्वहन सुखपूर्वक होता है। यहां की शय्या-वसति सुंदर द्यूतक्रीडा में पराजित हो गया था तब इसके वस्त्र उसने ग्रहण कर है-यदि इस प्रत्यय से विहार होता है, जाना होता है तो वहां लिये थे। सभ्य वहां गये और मुनि के कथनानुसार सारा यथार्थ रहना नहीं कल्पता। यदि कारणवश वहां रहना पड़े तो वे कारण देखा। राजा को कहने पर राजा द्वारा देश से निष्कासित करने की
प्ररूपणा और मुनि द्वारा स्वसिद्धांत की प्ररूपणा-इन दो तथ्यों ७०६. उभतो गेलण्णे वा, वास नदी सुत्त अत्थ पुच्छा वा। का निरूपण आगे के श्लोकों में।
विज्जानिमित्तगहणं, करेति आगाढपण्णे वा॥ ७११. जो पुण अतिसयनाणी, सो जंपती एस भिन्नचित्तो त्ति। वही पारिहारिक मुनि जाता हुआ ग्लान हो जाता है अथवा
को णेण समं वादो, द8 पि न जुज्जते एस॥ अन्य ग्लान की परिचर्या के लिए वहां रहना पड़े, वर्षा पड़ रही जो अतिशयज्ञानी होता है, वह कहता है-यह वादी भिन्नचित्त हो, बीच में नदी का पूर आ गया हो, या सूत्र और अर्थ की अथवा भिन्नव्रत है। इसके साथ कौन वाद करेगा? इसको देखना पृच्छादान के निमित्त, विद्या तथा निमित्तविद्या के ग्रहण के निमित्त भी उचित नहीं है। उतने दिन तक रहता है, कुछेक मुनि आगाढ़योग में प्रविष्ट हैं, ७१२. अज्जेण भव्वेण वियाणएण, उनके आचार्य कालगत हो गए हों, उनको वाचना देने तक वहां
धम्मप्पतिण्णण अलीयभीरुणा। रहे, या ऐसा कोई ग्रंथ प्राप्त हो गया जिसको पढ़ने से प्रज्ञावान् सीलंकुलायारसमन्नितेण, होता है इन कारणों से वह वहां रह सकता है।
तेणं समं वाद समायरेज्जा॥ ७०७. वहमाण अवहमाणो, संघाडेगेण वा असतिं एगो। जो आर्य है, भव्य है, विज्ञ है अर्थात् वाद का ज्ञाता है,
असती मूलसहाए, अन्ने वि सहायए देंति॥ धर्मप्रतिज्ञ है, अलीकभीरू अर्थात् सत्यवादी है, शीलाचार से
संघकार्य के लिए प्रस्थित पारिहारिक मुनि परिहारतप को युक्त है तथा कुलाचार से समन्वित है-ऐसे के साथ वाद करना वहन करता हुआ अथवा अवहन करता हुआ संघाटक के एक साधु के साथ जाए। यदि संघाटक का साधु न हो तो अकेला ७१३. परिभूयमति एतस्स, एतदुत्तं न एस णे समओ। जाए। मूल सहायक अर्थात् प्रारंभ से ही कोई सहायक न होने पर समएण विणिग्गहिते, गज्जति वसभोव्व परिसाए।। दूसरे आचार्य भी उसे सहायक देते हैं।
मैंने वादी की मति को पराभूत करने के लिए (तीन राशिJain Education International For Private & Personal Use Only
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