________________
७८
सानुवाद व्यवहारभाष्य
जीव, अजीव और नो-जीव) यह प्ररूपणा की थी। यह हमारा सिद्धांत नहीं है। यदि परवादी स्वसिद्धांत से विनिगृहीत हो जाता है तो वह वादी परिषद् में वृषभ की तरह गर्जना करता है। ७१४. अणुमाणेउं रायं, सण्णातग गेण्हमाण विज्जादी।
पच्छाकडे चरित्ते, जधा तधा नेव सुद्धो उ॥
यदि राजा कहे-मेरे साथ वाद करो तब उसे अनुमानयेत्अनुकूल वचनों से प्रतिबोध दे। यदि न माने तो राजा के स्वजनों से कहकर वाद की वर्जना करे। यदि न माने तो विद्या आदि का प्रयोग कर उसका निग्रह करे। यह भी कारगर न हो तो चारित्र के विषय में स्वयं पश्चात्कृत होकर अर्थात् स्वलिंग का त्यागकर गृहलिंग को स्वीकार कर, ऐसा करे जिससे वह राजा वाद न करे। प्रवचन की रक्षा के लिए इतना करने पर भी वह शुद्ध है। ७१५. अत्थवतिणा निवतिणा, पक्खवता बलवया पयंडेण।
गुरुणा नीएण तवस्सिणा य सह तज्जए वादं।
अथवा राजा को कहे-अर्थपति, नृपति, नृपवर्गीय पक्षवाले, बलवान्, प्रचंड-तीव्ररोषवाले, गुरु, नीच, तपस्वी-इन सबके साथ वाद का वर्जन करे-(ऐसा नीतिकार कहते हैं।) ७१६. नंदे भोइय खण्णा, आरक्खिय घडण गेरु नलदामे।
मूतिंग गेह डहणा, ठवणा भत्ते सपुत्त सिरा॥
नंद राजा के भोजिकों-सैनिकों तथा स्वजनों को चाणक्य ने नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। तब वे चंद्रगुप्त के आरक्षिकों के साथ मिलकर नगर को उपद्रुत करने लगे। तब चाणक्य ने गेरुक वस्त्रधारी परिव्राजक का रूप बनाया और मकोड़ों के घर को जलाने में प्रवृत्त नलदाम जुलाहे को आरक्षक पद पर स्थापित किया। उसने नंद के सभी भोजिकों को भोजन के लिए आमंत्रित किया और जब वे सभी अपने पुत्रों के साथ वहां आ गए तब उन सबके सिर काट डाले। ७१७. समतीतम्मि तु कज्जे, परे वयंतम्मि एग दुविहं वा।
संवासो न निसिद्धो, तेण परं छेदपरिहारो॥
प्रयोजन की पूर्ति हो जाने पर उस मुनि को दूसरे कहते हैं कि एकरात्री अथवा दोरात्री का संवास निषिद्ध नहीं है। वह वहां यदि एक-दो रात से अधिक रहता है तो उसे छेद अथवा परिहारतप का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ७१८. सुत्तत्थपाडिपुच्छं, करेंति साधू तु तस्समीवम्मि।
आगाढम्मि य जोगे, तेसि गुरू होज्ज कालगतो।।
उस मुनि के पास साधु सूत्रार्थ की प्रतिपृच्छा करते हैं अथवा आगाढ़यांग में व्यवस्थित साधुओं के आचार्य अथवा अन्य निस्तारक कालगत हो गया हो तो उन साधुओं के आगाढयोग की परिसमाप्ति तक तथा सूत्रार्थ की प्रतिपृच्छा तक वहां रह
१. पूरे कथानक के लिए देखें-व्यवहारभाष्य, कथा परिशिष्ट, कथा नं.४०। Jain Education International
सकता है। ७१९. बंधाणुलोमयाए, उक्कमकरणं तु होति सुत्तस्स।
आगाढम्मि य कज्जे, दप्पेण वि ते भवे छेदो।।
सूत्र का बंधानुलोमता से उत्क्रमण भी होता है। यदि आगाढ़ कार्य के उपस्थित होने पर भी वह दर्प से नहीं जाता है तो उसे छेद प्रायश्चित्त ही आता है, परिहारतप नहीं। ७२०. आयरिए अभिसेगे, भिक्खू खड्डे तहेव थेरे य।
गहणं तेसिं इणमो, संजोगगमं तु वोच्छामि।
यदि वह प्रस्थित मुनि प्रद्विष्ट राजा से समस्त संघ का निस्तार नहीं कर सकता तो वह इन पांचों का निस्तार अवश्य करें-१. आचार्य-गच्छाधिपति।
२. अभिषेक-आचार्य पद के योग्य, सूत्रार्थ का ज्ञाता। ३. भिक्षु। ४. क्षुल्लका ५. स्थविर।
इन पांचों का ग्रहण संयोगगम (संयोगप्रकार) से है। वह मैं कहूंगा। यदि पांचों का निस्तरण न कर सके तो स्थविर को छोड़ कर चारों का, चारों का निस्तरण न कर सके तो स्थविर और क्षुल्लक को छोड़ कर तीन का, तीन का निस्तरण न कर सके तो आचार्य और अभिषेक इन दो का और दो का निस्तरण न कर सके तो आचार्य का करे। ७२१. तरुणे निप्फन्नपरिवारे, लद्धिजुत्ते तहेव अब्भासे।
अभिसेयम्मि य चउरो, सेसाणं पंच चेव गमा।।
आचार्य के ये पांच गम (विकल्प) हैं-अर्थात् निस्तरण के विकल्प हैं-तरुण, निष्पन्न, सपरिवार, लब्धिसंपन्न तथा निकट।
अभिषेक के निष्पन्न को छोड़कर शेष चार गम हैं। शेष अर्थात् भिक्षु, क्षुल्लक तथा स्थविर के आचार्यवत् पांच-पांच गम होते
७२२. तरुणे बहुपरिवारे, सलद्धिजुत्ते तधेव अब्भासे।
एते वसभस्स गमा, निप्फन्नो जेण सो नियमा।।
वृषभ के ये चार गम हैं-तरुण, बहुपरिवार, सलब्धियुक्त तथा निकट। वह नियमतः निष्पन्न ही होता है। ७२३. तरुणे निप्फन्ने या, बहुपरिवारे सलद्धि अब्भासे।
भिक्खू खुड्डा थेराण, होति एते गमा पंच॥
भिक्षु, क्षुल्लक और स्थविर के ये पांच गम होते हैं-तरुण, निष्पन्न, बहुपरिवार, सलब्धिक और निकट। ७२४. पवत्तिणि अभिसेगपत्त. थेरि तह भिक्खणी य खडी य।
गहणं तासिं इणमो, संजोगगमं तु वोच्छामि। साध्वियों के निस्तारण के विकल्प
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org