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________________ १३८ १३८८. दमगे वइया खीर घड़ि, खट्ट चिंता य कुक्कुडिप्पसवो । धणपिंडण, समणेरिं ऊसीसग भिंदण घडीए । एक द्रमक - भिखारी था। व्रजिका - गोकुल में गया। वहां उसको दूध से भरा घड़ा मिला। वह घर गया और अपने मंचक के सिरहाने उसे रखकर सो गया। वह अब चिंतन करने लगा-दूध को बेचकर मुर्गियां खरीदूंगा। उनके प्रसव से अनेक मुर्गियां होंगी। उन्हें बेचूंगा। मेरे पास पर्याप्त धन होने पर समानकुल अथवा अन्य कुल की कन्या से विवाह करूंगा। जब वह मेरे सिरहाने से मंचक पर चढ़ेगी तब मैं पैर से प्रहार करूंगा। उसने उस समय सचमुच प्रहार किया और वह दूध का घड़ा फूट गया । १३८९. पव्वावइत्ताण बहू य सिस्से, पच्छा करिस्सामि गणाहिवच्चं । इच्छाविगप्पेहि विसूरमाणो, सज्झायमेवं न करेति मंदो ।। अनेक शिष्यों को प्रवाजित कर कोई भिक्षु यह सोचता है कि मैं पश्चात् गणाधिपतित्व करूंगा, इस प्रकार वह मंद भिक्षु इच्छा विकल्पों के वशीभूत होकर स्वाध्याय न करता हुआ पूर्वगृहीत सूत्रार्थों को विस्मृत कर देता है। १३९०. गावीओ रक्खंतो, घेच्छं भत्तीय पड्डिया तत्तो । बहुंतो गोवग्गो, होहिंति य वच्छिगा तत्थ ॥ १३९१. तेसिं तु दामगाई करेमि मोरंगचूलियाओ य । एवं तु ततियभंगे, वत्थादी पिंडणमगीतो ॥ एक वाला गायों को चराता था। उसने सोचा- गायों को चराने से जो धन मिलेगा उससे नई ब्याई हुई गाय खरीदूंगा । उसका परिवार बढ़ेगा। मेरे पास बड़ा गोवर्ग हो जाएगा। उसमें अनेक बछड़े होंगे। मैं उनके लिए दामक तथा मयूरांगचूलिका आमरण विशेष बनाऊंगा। यह सोचकर उसने सारा धन खर्च कर आभूषण बना डाले। इस प्रकार तृतीय भंगवर्ती अगीतार्थ आचार्य का वस्त्र आदि का पिंडन ( एकत्रीकरण) जानना चाहिए। १३९२. ताणिं बहूणं पडिलेहयंतो, अद्वाणमादीसु य संवहंतो । एमेव वासं मतिरित्तगं से, वातादी खोभो य सुते य हाणी ॥ वह द्रव्यतः परिच्छन्न आचार्य उन अत्यधिक वस्त्रों का प्रतिलेखन करता हुआ, मार्ग आदि में उनको वहन करता हुआ क्लांत होता है तथा अत्यधिक श्रम के कारण उसके वायु आदि का क्षोभ होता है तथा सूत्रार्थ की हानि होती है। १३९३. चोवेति न पिंडेति य, कज्जे गेण्डति य जो सलद्धीओ। तस्स न दिज्जति किं गणो, भावेउ जो व संच्छनी ॥ शिष्य प्रश्न करता है कि वह भिक्षु लब्धिसंपन्न है परंतु भाव Jain Education International सानुवाद व्यवहारभाष्य से परिच्छद रहित है। वह वस्त्रों को पहले एकत्रित नहीं करता किंतु प्रयोजन होने पर वस्त्र ग्रहण करता है तो उसे गण का भार क्यों नहीं दिया जाता ? १३९४. चोदग अप्पमु असती, प्यापडिसेच निज्जरतलाए । सतं से अणुजाणाति, पव्यविते तिण्णि इच्छा से | हे शिष्य ! भावतः अपरिच्छन्न अप्रभु होता है। उसके गण नहीं होता। पूजा के लिए गणधारण का प्रतिषेध । निर्जरा के लिए गणधारण । तालाब का दृष्टांत । सौ शिष्य का परिवार। उनमें से कितने ? जघन्यतः प्रव्राजित तीन शिष्य आचार्य की इच्छा। (पूरी व्याख्या अगले श्लोकों में ।) १३९५. मण्णति अविगीतस्स हु, उवगरणादीहि जदि वि संपत्ती । तह विन सो पज्जत्तो, करीलकाउव्व वोढव्वो । आचार्य शिष्य के आक्षेप का उत्तर देते हुए कहते हैंविशिष्ट गीतार्थ मुनि के बिना उस नूतन आचार्य के पास उपकरण आदि की पर्याप्त संपत्ति होने पर भी वह गणभार को वहन करने में वैसे ही समर्थ नहीं होता जैसे करील (बांस विशेष) की कापोती भार वहन करने में असमर्थ होती है। १३९६. न य जाणति वेणइयं कारावेउं न यावि कुब्वंति। ततियस्स परिभवेणं, सुत्तत्थेसुं अपडिबद्धा ।। वह न दूसरों से विनय करा सकता है और न स्वयं विनय करता है। उसके शिष्य सूत्रार्थ से अप्रतिबद्ध होकर अपना परिभव ही मानते हैं। तीसरा भंगवर्ती ऐसा आचार्य गणधारण करने योग्य नहीं होता। १३९७. बियभंगे पडिसेहो, जं पुच्छसि तत्थ कारणं सुणसु । जई से होज्ज धरेज्जं तदभावे किण्णु धारेउं ॥ १३९८. तंपि यहु दव्वसंगहपरिहीणं परिहरति सेहादी । संगहरिते य सगलं, गणधारितं कहं होति १ ॥ आचार्य कहते हैं-वत्स! तुम पूछते हो कि द्वितीय भंगवर्ती गणधारण का प्रतिषेध क्यों ? तुम उसका कारण सुनो। यदि उसके पास गण ( शिष्य संपदा) न हो तो वह गण के अभाव में क्या धारण करेगा ? जो द्रव्यसंग्रह से परिहीन है वह निश्चित ही शैक्ष आदि . मुनियों द्वारा त्यक्त हो जाता है। संग्रह के बिना परिपूर्ण गणधारित्व कैसे हो सकता है ? १३९९. आहारवत्थादिसु लद्विजत्तं, आदेज्जवक्कं च अहीणदेहं । सक्कारभज्जम्मि इमम्मि लोए, पूयंति सेडा य पिहुज्जणाय ॥ जो भिक्षु आहार, वस्त्र आदि की लब्धि से युक्त है, जो For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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