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________________ तीसरा उद्देशक १३७ १३७८. बुद्धिबलपरिहीणो, कुमार पच्चंतडमरकरणं तु। साथियों के साथ कुए में जा गिरा। इसी प्रकार अगीतार्थ भी स्वयं अप्पेणेव बलेणं, गेण्हावण सासणा रण्णा॥ नष्ट होकर दूसरों का भी विनाश करता है। एक राजकुमार बुद्धिबल से परिहीन था। देश के प्रत्यंत १३८३. नीलीराग खसढुम, हत्थी सरभा सियाल तरच्छा उ। भाग में डमर-विप्लव हुआ। शत्रु राजा ने अल्प सैनिकों को बहुपरिवार अगीते, विज्जुयणोभावणपरेहिं।। भेजकर राजकुमार को पकड़ लिया। उस पर अनुशासन कर एक सियार नीलीराग के कुंड में गिर पड़ा। वह नीले रंग का उसका विनाश कर डाला। हो गया। हाथी, शरभ, सियार, तरक्ष आदि के पूछने पर उसने १३७९. सुत्तत्थअणुववेतो, अगीतपरिवार गमणपच्चंतं। कहा-मैं खसद्रुम नामक मृगराज हूं। जब उसका असलीरूप परतित्थिगओभावण, सावग सेहादवण्णो उ॥ सामने आया तब वह मार डाला गया। इसी प्रकार बहुत जो भिक्षु सूत्र और अर्थ से असंपन्न है, अगीतार्थ मुनियों के परिवार वाले अगीतार्थ के साथ विहरण करता हुआ स्वयं को परिवार से युक्त है वह प्रत्यंत देश में गमन करता है, वहां बहुजन- विश्रुत ख्यापित करता है, वह भी दूसरों से तिरस्कृत परतीर्थिकों से पराजित होता है। श्रावक तब उसकी विडंबना होता है। करते हैं और शिष्य भी विपरिणत हो जाते हैं। इससे शासन का १३८४. सेहादी कज्जेसु व, कुलादिसमितीसु जंपउ अयं तु। अवर्णवाद होता है। गीतेहि विस्सुयं तो, निहोडणमपच्चतो सेहे|| १३८०. वणदवसत्तसमागम, विरए सीहस्स पुंछ डेवणया। शैक्षकादि कार्यों में तथा कुल, गण, संघ के समवाय में तं दिस्स जंबुगेण वि, विरए छुढा मिगादीया॥ श्रावक या सिद्धपुत्र कहते हैं-यही बहुश्रुत है। यही व्यवहार का एक बार अटवी में वनाग्नि लग गयी। सभी प्राणी एक निर्णय करे। जब गीतार्थ मुनियों ने यह सुना तो उन्होंने उसके वियरय (लघु स्रोत वाले जलाशय) के पास एकत्रित हो गए। वहां । निर्णय को बदल कर उसका तिरस्कार किया। शैक्ष आदि को भी एक सिंह भी आया था। सिंह ने अन्य वनचर प्राणियों से कहा- उसके प्रति अप्रत्यय-अविश्वास हो गया। सभी मेरी पूंछ पकड़ ले। सभी ने पूंछ पकड़ ली। वह सिंह कूदा। १३८५. एक्केक्के एगजाती, पतिदिणसम एव कूवपडिबिंबं । वियरय को लांघ गया। पुनः एक बार दवाग्नि का प्रकोप होने पर सीहे पुच्छण एज्जण, कूवम्मि य डेव उत्तरणं ।। वियरय के पास प्राणी एकत्रित हुए। एक सियार ने पहले सिंह को १३८६. एमेव जंबुगो वी, कूवे पडिबिंबमप्पणो दिस्स। कूदते देखा था। उसने भी सभी प्राणियों को पूंछ पकड़ने के लिए डेवणय तत्थ मरणं, समुयारो गीतऽगीताणं ।। कहा। सभी ने वैसा ही किया। उसने वियरय को लांघने के लिए सभी वन्य पशुओं ने मिलकर यह निर्णय किया कि अपनीछलांग लगाई। उसके साथ सभी मृग आदि प्राणी उस वियरय में अपनी वारी के अनुसार प्रतिदिन एक पशु सिंह के भक्ष्य के रूप गिरकर मर गए। में वहां चला जाए। आज एक शशक की वारी थी। वह देरी से १३८१. अद्धाणादिसु एवं, दटुं सव्वत्थ एव मण्णंतो। पहुंचा। सिंह के पूछने छर उसने कहा-रास्ते में एक कूप है। भवविरयं अग्गीतो, पाडेतऽन्ने वि पवडंतो॥ उसमें एक सिंह रहता है। उसने मुझे रोक लिया। यह सुनकर वह मार्ग आदि में अपवाद की प्रतिसेवना करते हुए गीतार्थ को सिंह उस कूप पर आया और गर्जना की। प्रतिध्वनि सुनकर वह देखकर अगीतार्थ मुनि मानता है कि सर्वत्र यही आचरणीय है। कूप में कूद पड़ा। वहां किसी सिंह को न देखकर पुनः छलांग वह अगीतार्थ स्वयं भवरूपी वियरय में गिरता है और दूसरों को लगाकर ऊपर आ गया। भी गिराता है, उनके पतन का हेतु बनता है। इसी प्रकार एक सियार कूप में अपना प्रतिबिम्ब देखकर १३८२. जंबुगकूवे चंदे, सीहेणुत्तारणाय पंतीए। उसमें कूद पड़ा। पुनः ऊपर आने में असमर्थ होकर वहीं मृत्यु को जंबुगसपंतिपडणं, एमेव अगीतगीताणं॥ प्राप्त हो गया। समवतार-उपनय यह है। सिंह के समान होता है रात्रि की वेला में एक कूपतट पर अनेक सियार एकत्रित गीतार्थ और सियार के समान होता है अगीतार्थ। हुए। उन्होंने कुए में झांक कर देखा। पानी में चंद्रमा का प्रतिबिम्ब १३८७. एते य उदाहरणा, दव्वे भावे अपलिच्छन्नम्मि। देखकर सिंह से कहा-कुएं से चंद्रमा को निकालो। सिंह बोला दव्वेणऽपलिच्छन्ने, भावेऽपलिछण्ण होति इमे॥ सभी पंक्तिबद्ध होकर मेरी पूंछ पकड़ लो। सभी सियार पूंछ के ये पांचों उदाहरण द्रव्य से और भाव से अपरिच्छद सहारे कुए में उतरे। सिंह ने एक ही झटके में सबको ऊपर ला आचार्य के विषय के हैं। (यह प्रथम भंगवर्ती आचार्य के हैं।) दूसरे दिया। इसी प्रकार एक सियार ने भी अन्य सियारों को पंक्तिबद्ध भंग में द्रव्य से अपरिच्छद और भाव से परिच्छद होते हैं तथा कर, अपनी पूंछ पकड़ाई। ज्यों ही वह कूदा, वह स्वयं अपने तीसरे भंग में द्रव्य से परिच्छद और भाव से अपरिच्छद होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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