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________________ तीसरा उद्देशक १५१ सेनापतिपुत्र को प्रवर्तकपद पर स्थापित कर दिया। उसी दिन प्रवजित व्यक्ति को गण का भार कैसे दिया जाता एक दिन राजा, पुरोहित आदि ने आकर सूरी से माया- है? आचार्य कहते हैं-उसको स्थापित करने से ये प्रभूतगुण कपटपूर्वक वचन कहकर पांचों को अपने साथ ले गए। जब पांचों निष्पन्न होते है। जाने लगे तब सूरी ने उनको निकाचन-नियम दिलाते हुए कहा- १५५५. साधू विसीयमाणे, अज्जा गेलण्ण भिक्ख उवगरणे। सम्यक्त्वपूर्वक नियम में अप्रमत्त होकर रहना। पांचों पुत्रों को ववहारइत्थियाए, वादे य अकिंचणकरे य॥ उनके स्वजन साथ ले गए। शिष्य ने आचार्य से पूछा-पांचों के १५५६. एते गुणा भवंती, तज्जाताणं कुटुंबपरिखुड्डी । पुनः प्रवजित होने पर जिस दिन उन्होंने प्रव्रज्या ग्रहण की थी, ओहाणं पि य तेसिं, अणुलोमुवसग्गतुल्लं तु॥ उसी दिन उनको आचार्य आदि पद कैसे दे दिया? विषादग्रस्त साधु स्थिर हो जाते हैं। आर्यिकाएं भी स्थिर हो १५५०. पियरो व तावसादी, पव्वइउमणा उ ते फुरावेंति। जाती हैं। ग्लान को औषधप्राप्ति सुलभ हो जाती है। भिक्षा और ठविता रायादीसुं, ठाणेसुं ते जधाकमसो॥ उपकरणों की प्राप्ति सुलभ हो जाती है। स्त्रियों के अर्थात् (उनको ले जाने का प्रकारांतर) उन पांचों के माता-पिता साध्वियों के अपहृत होने पर व्यवहार-न्याय प्राप्त हो सकता है। तापस रूप में प्रवजित होना चाहते हैं-इस माया से उनके स्वजन । वाद में अपराजय होता है। साधुओं के प्रत्यनीक व्यक्ति उनका अपहरण कर लेते हैं और फिर राजा उनको यथाक्रम अकिंचित्कर हो जाते हैं। कुटुंब अर्थात् गण की परिवृद्धि होती है। अपने-अपने स्थान पर स्थापित कर देते हैं। (राजकुमार को राजा उन व्यक्तियों (राजपुत्र आदि) का अवधावन- उत्प्राव्रजन भी के रूप में, अमात्यपुत्र को अमात्य के रूप में आदि-आदि।) अनुलोमोपसर्ग तुल्य होता है। १५५१. नीता वि फासुभोजी, पोसधसालाए पोरिसीकरणं। १५५७. साहूणं अज्जाण य, विसीदमाणाण होति थिरकरणं। धुवलोयं च करेंती, लक्खणपाढे य पुच्छंती।। जदि एरिसा वि धम्म, करेंति अम्हं किमंग पुणो।। १५५२. जो तत्थऽमूढलक्खा, रितुकाले तीय एक्कमेक्कं तु। जो साधु और आर्यिकाएं विषादग्रस्त होती हैं, उनका उप्पाएऊण सुतं, ठावित ताधे पुणो एंति॥ स्थिरीकरण होता है। राजकुमार आदि को प्रव्रजित देखकर राजपुत्र आदि को घर ले जाने पर भी वे प्रासुकभोजी, अन्यान्य लोग सोचते हैं कि जब ऐसे ऐश्वर्य संपन्न लोग भी धर्म पौषधशाला में प्रतिदिन सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी करने वाले, करते हैं तो हमारे जैसे प्राणियों के लिए तो क्या? हमें सदा धर्म लोच अवश्य करने वाले, ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले थे। का समाचरण करना चाहिए। माता-पिता द्वारा पुत्रोत्पत्ति की प्रेरणा पाकर वे लक्षण-पाठकों को , १५५८. किं च भयं गोरव्वं, बहुमाणं चेव तत्थ कुव्वंति। पूछते कि किस महिला के ऋतुकाल में गर्भ रह सकता है? जो गेलण्णोसहिमादी, सुलभं उवकरण-भत्तादी। महिला ऋतुकाल में अमूढलक्षवाली अर्थात् ऋतुकाल की ज्ञात्री राजकुमार आदि के आचार्य बनने पर लोग उनका भय होती उस-उस अपनी महिला में एक-एक बार बीज वपन करते। मानते हैं तथा गौरव और बहुमान करते हैं। ग्लान के लिए औषध इस प्रकार अपना-अपना पुत्र उत्पादित कर, वे प्रव्रज्या के लिए आदि तथा उपकरण और भक्त सुलभ होते हैं। पुनः आचार्य के पास आ जाते हैं। (प्रव्रजित हो जाते हैं) १५५९. संजतिमादी गहणे, ववहारे होति दुप्पधंसो उ। १५५३. अब्भुज्जतमेगतरं, पडिवज्जिउकाम थेरऽसति अन्ने । तग्गोरवा उ वादे, हवंति अपराजिता एव।। तद्दिवसमागते ते, ठाणेसु ठवेंति तेसेवं ।। संयती आदि का अपहरण कर लेने पर व्यवहार- राजकार्य जिस दिन वे पांचों पुनः प्रवजित हुए उसी दिन स्थविर में राजकुमार आदि दुष्प्रधृष्य होते हैं। उनके गौरव के कारण आचार्य किसी एक अभ्युद्यत विहार-जिनकल्पिक अथवा अन्यान्य साधु वाद में अपराजित ही होते है। यथालंदिक को स्वीकार करने के इच्छुक होते हैं तथा दूसरा कोई १५६०. पडिणीय अकिंचकरा, होति अवत्तव्वअट्ठजाते य। समर्थ गणधर न होने के कारण उसी दिन आए हुए राजकुमार तज्जायदिक्खिएणं, होति विवड्डी वि य गणस्स। आदि को आचार्यत्व आदि के रूप में स्थापित करते हैं। तब - साधुओं के प्रत्यनीक व्यक्ति अकिंचित्कर होते हैं। प्रयोजन शिष्य पुनः वही पृच्छा करता है। होने पर अर्थ-धन की याचना करनी नहीं होती, वह अवक्तव्य १५५४. कह दिज्जति तस्स गणो,तद्दिवसं चेव पव्वतियगस्स। होती है, स्वतः पूरी हो जाती है। राजा आदि से संबंधित __भण्णति तम्मि य ठविते, होंती सुबहू गुणा उ इमे॥ (राजकुमार आदि) व्यक्ति के दीक्षित होने पर गण की विवृद्धि १. किसी व्यक्ति ने साधु के प्रति अनुकूल उपसर्ग उत्पन्न किया। साधु ने प्रतिसेवना करूं । वह तब अशठभाव से प्रतिसेवना में प्रवृत्त होता है। सोचा-इस उपसर्ग से मुक्त होने का एक ही मार्ग है कि मैं इसकी www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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