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सानुवाद व्यवहारभाष्य
तप का प्रायश्चित्त दिया जाता है। तप से अदम्यमान तथा धृति अध्येता ने पूछा क्या इस सूत्र का भी कोई अर्थ है। उसने और शरीर से दुर्बल होने के कारण संवत्सर तप यावत् उसके कहां-हां, इसका भी अर्थ है तथा समस्त नमस्कार आदि सूत्र का आचार्यत्व का हरण कर लिया जाता है।
भी अर्थ है। अध्येता ने पूछा-इसका अर्थ क्या है ? उसने २०६१. एते दो आदेसा, मीसगसुत्ते हवंति नायव्वा। कहा-सुनो। फिर वह यथावस्थित सूत्र का उच्चारण करता है
पढमबितीएसुं पुण, सुत्तेसु इमं तु नाणत्तं॥ अट्टे लोऐ परिनुण्णे। इसकी व्याख्या इस प्रकार हैमिश्रकसूत्र विषयक ये दो आदेश ज्ञातव्य हैं। प्रथम और २०६७. अट्टे चउव्विधे खलु, दव्वे नदिमादि जत्थ तणकट्ठा। द्वितीय सूत्र में यह नानात्व है।
आवत्तंते पडिया, अहव सुवण्णादियाव?।। २०६२. चउरो य पंच दिवसा चउगुरू छ एव होति छेदो वि।
आर्त्त के चार प्रकार हैं-नामार्त्त, स्थापनार्त्त, द्रव्यार्त्त और . तत्तो मूलं नवमं, चरम पि य एगसरगं तु॥
भावार्त। द्रव्यात है नदी आदि। उसमें गिरे हुए तृण काष्ठ आदि प्रथम आदेश के अनुसार विवक्षित कल्पाक हो जाने पर
आवर्तन करते हैं। अथवा सुवर्ण आदि आवर्तन करते हैं। यदि चार दिनों का अतिक्रम होता है तो चार गुरुमास का तथा
२०६८. अहवा अत्तीभूतो, सच्चित्तादीहि होति दव्वेहिं। आगे चार-चार दिन के अतिक्रम में छह लघु, छह गुरु। इसी
भावे कोहादीहिं, अभिभूतो होति अट्टो उ॥ प्रकार प्राप्त छेद भी वक्तव्य है। फिर एक-एक दिन के अतिक्रम से
अथवा जो सचित्त आदि द्रव्यों से आर्तीभूत है, वह द्रव्यात मूल फिर नौवां अनवस्थाप्य और चरम पारांचित प्रायश्चित्त है।
है। जो क्रोध आदि से अभिभूत होता है, वह भावार्त्त है। दूसरे आदेश के अनुसार पांच दिन के अतिक्रम से उपरोक्त
२०६९ परिजुण्णो उ दरिद्दो, दव्वे धणरयणसारपरिहीणो। प्रायश्चित्त का विधान है।
भावे नाणादीहि, परिजुण्णो एस लोगो उ। २०६३. कीस गणो में गुरुणो,
जो धन, रत्न, सार आदि से परिहीन दरिद्र है वह द्रव्यतः हितो त्ति इति भिक्खु अन्नहिं गच्छे।
परिजीर्ण है और जो ज्ञान आदि से परिजीर्ण होता है वह भावतः गणहरणेण कलुसितो,
परिजीर्ण है। यह सारा लोक ऐसा ही है। स एव भिक्खू वए अण्णं।।
२०७०. एवं सिद्धे अत्थे, सो बेती कत्थ मे अधीयं ति। 'मेरे गुरु के गण का हरण क्यों किया गया, यह सोचकर
अमुगस्स सन्निगासे, अहगं पी तत्थ वच्चामि॥ कोई भिक्षु अन्य गण में चला जाए।' अथवा जिसके गण का हरण
२०७१. सो तत्थ गतोऽधिज्जति, कर लिया गया है वह भिक्षु गणहरण से कलुषित मन वाला होकर अन्य गण की उपसंपदा स्वीकार कर ले।
मिलितो सज्झंतिएहि उब्भामे।
पुट्ठो सुत्तत्था ते, २०६४. पव्वावितोऽगीतेहि, अन्नहि गंतूण उभयनिम्मातो।
सरंति निस्साय कं विहरे॥ आगम्म सेससाहण, ततो य साधू गतोऽण्णत्थ ।।
इस प्रकार अर्थ सिद्ध हो जाने पर उसने पूछा-भंते! आपने २०६५. तत्थ वि य अन्नसाधु, अटे त्ती अहिज्जमाण साधूणं। बेती मा पढ एवं, किं तिय अत्थो न होएवं।
यह कहां पढ़ा है। उसने कहा-मैंने अमुक आचार्य के पास कोई अगीतार्थ आचार्य से प्रताजित हुआ। वह अन्यत्र गण
अध्ययन किया है। तब उस अध्येता ने कहा-मैं भी वहां जाऊं। में जाकर उभयतः-सूत्र और अर्थ से निर्मित हो गया। फिर वह
वह वहां गया और अध्ययन करने लगा। एक बार वह उद्भ्रामक स्वगण में आकर सूत्रार्थ को हस्तगत करने के लिए बिखरे हुए
भिक्षा के निमित्त गांव में गया। वहां कुछ सहाध्यायी मिले। साधुओं को पुनः आचार्य के.समीप ले आता है और उनको
उन्होंने पूछा-जहां तुम हो क्या वहां सूत्रार्थों का स्मरण होता है ? सूत्रार्थ से परिपूर्ण कर देता है। वहां से एक मुनि किसी कारणवश
तुम किसकी निश्रा में विहरण कर रहे हो? अन्य गच्छ में गया। वहां उसने एक अन्य मुनि को आचारांग का
२०७२. अमुगं निस्साऽगीतो,विहरति कप्पेण गीतसिस्सस्स। पाठ 'अट्टे लोए परिजुण्णे' पाठ में आए हुए अट्टे शब्द के स्थान पर
अहमवि य तस्स कप्पा, जं वा भगवं उवदिसंति॥ 'अटे' शब्द को पढ़ते सुनकर उसको कहा-ऐसे मत पढ़ो। उसने
वह कहता है-मैं अमुक अगीतार्थ आचार्य की निश्रा में पूछा-क्यों? तब इसने कहा-इसका कोई अर्थ नहीं होता। इस रहता हूं। फिर वे पूछते हैं-तुम किस गीतार्थ शिष्य की निश्रा में प्रकार यह विसंवाद होता है।
रह रहे हो ? उसने कहा-वहां जो गीतार्थ है, उसके कल्प में सारा २०६६. अत्थो वि अत्थि एवं, आम नमोक्कारमादि सव्वस्स। गण विहरण करता है। मैं भी उसी के कल्प में रह रहा है। जैसे वे
केरिस पुण अत्थो ती, बेती सुण सुत्तमट्ट ति॥ आज्ञा देते हैं, वैसे मै करता हूं। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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