SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पीठिका गुरु प्रायश्चित तथा जीवों का अतिपातन विनाश होने पर मूल प्रायश्चित्त आता है । " १३६. पडिसेवणं विणा खलु, संजोगारोवणा न विज्जंति । माया चिय पहिसेवा, अप्पसंगो य इति एक्कं ॥ प्रतिसेवना के बिना संयोजना और आरोपणा प्रायश्चित्त नहीं होते । माया भी प्रतिसेवना है। संयोजना, आरोपणा और प्रतिकुंचना (माया) इन्हें पृथक् पृथक् मानने पर अतिप्रसंग दोष आता है, अतः एक ही प्रायश्चित्त है प्रतिसेवना (ऐसी जिज्ञासा करने पर आचार्य कहते हैं-) १३७. एगाधिगारिगाण व नाणतं केत्तिया व दिज्जति । आलोयणाविही वि य, इय नाणत्तं चउन्हं पि ॥ एक ही व्यक्ति अनेक प्रकार के दोषों का आसवेन कर लेता है, वह अनेक प्रकार के प्रायश्चित्तों का भागी होता है। एक अधिकारी होने मात्र से एक ही प्रायश्चित्त नहीं आता। इसी प्रकार चारों-प्रतिसेवना, संयोजना, आरोपणा और प्रतिकुंचना की आलोचना विधि में भी नानात्व है। इसलिए इनका पृथक् ग्रहण किया गया है। १३८. सेज्जायरपिंडे या, उदउल्ले खलु तहा अभिहडे य । आहाकम्मे य तहा, सत्त उ सागारिए मासा ॥ एक ही मुनि शय्यातरपिंड, उदकार्य, अभिहत तथा आधाकर्मिक इन चारों का सेवन करता है तो सभी दोषों का पृथक्-पृथक् प्रायश्चित्त आता है। एक शय्यातरपिंड सेवन में सबका अंतर्भाव नहीं होता। सभी का संयुक्त सात मास का संयोजना प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १३९. रण्णो आधाकम्मे, उदउल्ले खलु तहा अभिहडे य दसमास रायपिंडे, उम्गमदोसादिणा चैव ॥ एक ही मुनि पहले राजपिंड का उपभोग कर लेता है। उसकी आलोचना किये बिना ही आधाकर्म, उदकार्ड, अभिहत आदि का उपभोग करता है, तो प्रत्येक का भिन्न भिन्न प्रायश्चित्त विहित है। राजपिंड में उद्गम आदि दोषों की संयोजना होने पर दस मास का प्रायश्चित्त आता है। १. पृथ्वीकाय आदि का संघट्टन होने पर मास लघु, परितापन होने पर मासगुरु तथा अपद्रावण (प्राण-वियोजन) होने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त आता है। यह एक दिवस के अपराध का प्रायश्चित्त है। दो दिन तक निरंतर संघट्टन, परितापन और अपद्रावण होने पर क्रमशः मासगुरु, चतुर्लघु और चतुर्गुरु प्रायश्चित्त आता है। निरंतर तीन दिन तक संघट्टन में चतुर्लघु, परितापन में चतुर्गुरु और अपद्रावण में षड्लघु । निरंतर चार दिन तक संघट्टन में चतुर्गुरु, परितापन, में षट्लघु और अपद्रावण में षट्गुरु। निरंतर पांच दिन तक संघट्टन में षट्लघु, परितापन में षट्गुरु और अपद्रावण में मासिक छेद। छह दिनों तक Jain Education International १५ १४०. पंचादी आरोवण, नेयव्वा जाव होति छम्मासा । तेण पणगादियाणं छण्हुवरिं झोसणं कुज्जा ॥ पांच अहोरात्र के प्रायश्चित्त से लेकर छह मास पर्यंत आरोपणा प्रायश्चित्त जानना चाहिए। छह मास से पांच अहोरात्र आदि अधिक हों तो वे सब त्याज्य हैं (चूर्णि में कहा हैछम्मासण परं जं आवज्जई तं सव्वं छंडिज्नई ।) १४१. किं कारणं न दिज्जति, छम्मासाण परतो उ आरुवणा । भणति गुरु पुण इमणो, जं कारण झोसिया सेसा ॥ शिष्य ने पूछा-भंते! छह मास से अधिक की आरोपणा क्यों नहीं दी जाती? इसका कारण क्या है? आचार्य ने कहाजिस कारण से छह मास से अधिक का सारा प्रायश्चित्त छोड़ना होता है वह कारण यह है। १४२. आरोवणनिष्फण्णं छउमत्ये जं जिणेहिं उक्कोसं । तं तस्स उ तित्यम्मी ववहरणं धन्नपिडगं वा ॥ जो तीर्थंकर छद्मस्थकाल में जितना उत्कृष्ट तप करते हैं, उनके तीर्थ में उतने की प्रमाण में आरोपणा निष्पन्न तपःकर्म का व्यवहार होता है, उससे अधिक का नहीं धान्यपिटक - धान्यप्रस्थक की भांति । १४३. जो जया पत्थियो होति, सो तथा धन्नपत्थगं । ठावितेऽन्नं पुरिल्लेणं, ववहरंते य दंडए । जो जब राजा होता है वह तब अपने राज्य में धान्यप्रस्थक स्थापित करता है। उसके स्थापित हो जाने पर यदि कोई पुरातन धान्य- प्रस्थक से व्यवहार करता है तो वह दंडित होता है। १४४. संवच्छरं तु पढमे, मज्झिमगाणऽट्ठमासियं होति । छम्मास पच्छिमस्स उ, माणं भणियं तु उक्कोसं ॥ प्रथम तीर्थंकर के समय में उत्कृष्ट तप बारह मास का, मध्यम तीर्थंकरों के समय में आठ मास का और चरम तीर्थंकर के समय में वह तप छह मास का होता है। १४५. पुणरवि चोएति ततो, पुरिमा चरमा य विसमसोहीया । किह सुज्झंती ते ऊ, चोदग! इणमो सुणसु वोच्छं ॥ शिष्य ने पुनः पूछा- भंते! यदि ऐसा होता है तब तो प्रथम निरंतर संघट्टन में षट्गुरु, परितापन में मासिक छेद, अपद्रावण में चतुर्मासिक छेद । निरंतर सात दिन संघट्टन में मासिक छेद, परितापन में चतुर्मासिक छेद, अपद्रावण में षण्मासिक छेद । निरंतर आठ दिन तक संघटन में चतुर्मासिक छेद, परितापन में षण्मासिक छेद और अपद्रावण में मूल । (वृत्ति पत्र ४६ ) २. प्रायश्चितं सर्वमुत्पद्यते प्रतिसेवनातो न खलु मूलगुणप्रतिसेवना मुत्तरगुण- प्रतिसेवनां वा विना क्वापि प्रायश्चित्तसंभवः- (पडिसेवियंमि दिज्जइ पच्छित्तं इहरहा उ पडिसेहो ) इति वचनात् । 3 (वृ. पत्र ४७) www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy