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________________ सानुवाद व्यवहारभाष्य था। राजा ने उसको निष्कासित कर दिया। इसी प्रकार जो करने वाला। निषद्या नहीं करता वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। दूसरा ९. क्रोष्टानुग आचार्य के पास क्रोष्टानुग होकर आलोचना नापित रखा गया। वह सातवें-सातवें दिन राजा के पास आता। करने वाला। राजा ने उसको वृत्ति दी, संतुष्ट किया। इसी प्रकार जो निषद्या इनके प्रायश्चित्त का विधान क्रमशः इस प्रकार हैकरता है वह विनीतरूप से ख्यात होता है। प्रथमभंग मासलघु, दूसरा-तीसरा भंग-मासगुरु, चौथा ५८७. सट्ठाणाणुग केई, परठाणाणुग य केइ गुरुमादी। भंग चार लघुमास, पांचवा भंग मासलघु, छठा भंग गुरुमास, स निसिज्जाए कप्पो, पुच्छ निसेज्जा च उक्कुडुओ॥ सातवां भंग चार गुरुमास, आठवां भंग चार लघुमास तथा नौवां कुछ गुरु आदि अर्थात् गुरु, वृषभ और भिक्षु स्वस्थानानुग भंग एक लघुमास। होते हैं और कुछ परस्थानानुग होते हैं। सुंदर निषद्या में स्थित ५८९. दोहि वि गुरुगा एते, गुरुम्मि नियमा तवेण कालेणं। आचार्य, कल्प पर स्थित वृषभ तथा पादपोंछनक निषद्या में वसभम्मि य तवगुरुगा, कालगुरू होंति भिक्खुम्मि॥ स्थित अथवा रजोहरण निषद्या में स्थित अथवा उत्कटुक आसन नौ भंगों में आलोचक आचार्य के लिए कथित प्रायश्चित्त में स्थित भिक्षु ये सब स्वस्थानानुगत होते हैं। दो प्रकार से गुरु होते हैं-तप से तथा काल से। आलोचक वृषभों ५८७/१. सीहाणुगस्स गुरुणो, के लिए ये ही प्रायश्चित्त तप से गुरु और काल से लघु होते हैं। सीहाणुग-वसभ-कोल्हुगाणूए। आलोचक भिक्षुओं के लिए ये ही प्रायश्चित्त काल से गुरु और वसभाणुयस्स सीहे, तप से लघु होते हैं। वसभाणुय कोल्हुयाणूए॥ ५९०. लहुगा लहुगो सुद्धो, गुरुगा लहुगो य अंतिमो सुद्धो। ५८७/२. अधवा वि कोल्हुयस्सा, छल्लहु चउलहु लहुओ, वसभस्स तु नवसु ठाणेसु।। सीहाणुग वसभ-कोल्लुए चेव। सिंहानुग आदि तीन प्रकार के आलोचनाह वृषभ के समक्ष आलोयंताऽऽयरिए, पूर्वोक्त नौ प्रकार के आलोचक आचार्यों के यथाक्रम यह वसहे भिक्खुम्मि चारुवणा॥ प्रायश्चित्त है५८८. मासो दोन्नि उ सुद्धो, चउलहु लहुआ य अंतिमो सुद्धो। सिंहानुग वृषभ के समक्ष सिंहानुगता से आलोचना करने गरुया लहुया लहुओ, भेदा गणिणो नवगणिम्मि॥ वाले आचार्य को चार लघुमास, वृषभ की तरह आलोचना करने आलोचनार्ह आचार्य के पास आलोचना करने वाले वाले को लघुमास तथा क्रोष्टानुग की तरह आलोचना करने वाले आचार्य के नौ भेद हैं-(वृषभ और भिक्षु के भी ये ही नौ प्रकार । को केवल तप। वृषभानुग के समक्ष सिंहानुगता से आलोचना करने वाले आचार्य को चार गुरुमास, वृषभानुगता से आलोचना १. सिंहानुग आचार्य के पास सिंहानुग बनकर आलोचना करने वाले को लघुमास तथा क्रोष्टानुगता से आलोचना करने करने वाला। वाले को केवल तप। क्रोष्टानुगत वृषभ के समक्ष सिंहानुगता से २. सिंहानुग आचार्य के पास वृषभानुग बनकर आलोचना । आलोचना करने वाले आचार्य को छह लघुमास, वृषभानुगता से करने वाला। आलोचना करने वाले को चार लघुमास तथा कोष्टानुगता से ३. सिंहानुग आचार्य के पास कोष्टानुग बनकर आलोचना आलोचना करने वाले को एक लघुमास। करने वाला। ५९१. दोहि वि गुरुगा एते, गुरुम्मि नियमा तवेण कालेणं । ४. वृषभानुग आचार्य के पास सिंहानुग बनकर आलोचना वसभम्मि य तवगुरुगा, कालगुरू होति भिक्खुम्मि।। करने वाला। आलोचना करने वाले आचार्य के लिए ये प्रायश्चित्त दो ५. वृषभानुग आचार्य के पास वृषभ होकर आलोचना स्थानों से गुरु होते हैं-तप तथा काल से। आलोचक वृषभ के करने वाला। लिए तप से गुरु और काल से लघु तथा आलोचक भिक्षु के लिए ६. वृषभानुग आचार्य के पास क्रोष्टानुग बनकर आलोचना काल से गुरु और तप से लघु होते हैं। करने वाला। ५९२. चउगुरु चउलहु सुद्धो, ७. क्रोष्टानुग आचार्य के पास सिंहानुग होकर आलोचना छल्लहु चउगुरुग अंतिमो सुद्धो। करने वाला। छग्गुरु चउलहु लहुओ, ८. क्रोष्टानुग आचार्य के पास वृषभानुग होकर आलोचना भिक्खुस्स तु नवसु ठाणेसुं॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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