SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पहला उद्देशक ५८०. पलिउंचण चउभंगो, वाहे गोणी य पढमतो सुद्धो । तं चैव य मच्छरिते सहसा पलिउंचमाणे उ॥ ५८१. खरंटणभीतो रुद्रो, सक्कारं देति ततियए सेसं भिक्खुणि वाधि चउत्थे, सहसा पलिउंचमाणो उ ॥ प्रतिकुंचन के प्रसंग में चतुभंगी । व्याध, गोणी और भिक्षुकी का दृष्टांत । व्याध का दृष्टांत जो प्रथम भंग में दिया था, वही दूसरे मंग में, किंतु स्वामी का सहसा मत्सरित होना व्याध का मांस दान में प्रतिकुंचना करना । इसका स्पष्टार्थ यह हैप्रतिकुंचन के चार भंग ये हैं . 7 १. अप्रतिकुंचित में अप्रतिकुंचन । २. अप्रतिकुंचित में प्रतिकुंचन । ३. प्रतिकुंचित में अप्रतिकुंचन । ४. प्रतिकुंचित में प्रतिकुंचन । | व्याध का दृष्टांत एक वेतनभोगी व्याध मांस लेकर यह सोचकर चला कि सारा मांस स्वामी को देना है जाते ही स्वामी ने उसका आदर-सत्कार किया और बैठने के लिए कहा। उसने सारा मांस दे दिया । इसी प्रकार कोई प्रतिसेवी अपने समस्त अपराधों की आलोचना करने का चिंतन कर आचार्य के पास आता है और यदि आचार्य उसका आदर-सत्कार करते हैं और अच्छे शब्दों से व्यवहार करते हुए कहते हैं-तुम धन्य हो, संपुण्य हो । प्रतिसेवना दुष्कर नहीं है, किंतु उसकी सम्यक् आलोचना करना दुष्कर है। वह प्रतिसेवी संतुष्ट होकर अपना पूरा अपराध आचार्य के समक्ष प्रकट कर देता है। यह प्रथम भंग शुद्ध है। क्योंकि चिंतनवेला में भी अप्रतिकुंचनभाव था और आलोचना के समय भी अप्रति कुंचन भाव था। दूसरे भंग में भी व्याध अप्रतिकुंचनभाव से अर्थात् सारा मांस स्वामी को देने की भावना से आया। स्वामी ने पूर्वापर का विचार किये बिना ही अंटसंट कह कर ब्याध में मत्सरभाव पैदा कर दिया। खरंटना से भयभीत होकर व्याध रुष्ट हो गया। उसने मांस को छुपा लिया। सारा मांस स्वामी को नहीं दिया। यह दूसरे भंग का उपनय है। इसी प्रकार आचार्य यदि आलोचक की आलोचना से पूर्व खरंटना करता है तो आलोचक अपना पूरा अपराध नहीं बताता। तीसरे भंग में स्वामी व्याध को सत्कार देता है तब वह व्याध सारा मांस स्वामी को दे देता है। इसी प्रकार प्रतिसेवी भी सत्कार सम्मानपूर्वक पूछे जाने पर सारा दोष बता देता है। चौथा भंग-व्याध यह सोचकर निकला कि सारा मांस नहीं देना है। स्वामी ने उसकी खरंटना की। उसने मांस को छुपा लिया। इसी प्रकार आलोचक भी पूरी आलोचना न कर माया Jain Education International ६५ करता है। ५८२. अपलिउंचिय पनिउंचियम्मि व चउरो हवंति भंगा उ । वाहे य गोणि भिक्खुणि, चउसु वि भंगेसु दिट्ठतो ॥ अप्रतिकुंचित प्रतिकुंचित के चार भंग होते हैं- (देखें गाथा ५८०) । व्याध, गोणी और भिक्षुणी - ये तीनों दृष्टांत चारों भंगों में होते हैं। ५८३. पढम-ततिएसु पूया, खिसा इतरेसु पिसिय-पय-खोरे । एमेव उवणओ खलु, चउसु वि भंगेसु वियडेंते ॥ प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त पिसिय शब्द मांस के लिए, पय शब्द दूध के लिए तथा खोर शब्द खोरक-गोल भाजन विशेष के वाचक हैं। ये तीनों व्याध, गोणी और भिक्षुणी से क्रमशः संबंधित हैं। पहले और तीसरे भंग में पूजा और दूसरे तथा चौथे भंग में खिसा खरंटना इसी प्रकार चारों भंगों को आलोचना करने वालों के साथ संबंधित करना चाहिए। ५८४. इस्सरसरिसो उ गुरू, वाघो साधू पढिसेवणा मंसं । णूमणता पलिउंचणं, सक्कारो वीलणा होति ॥ स्वामी के सदृश हैं गुरु, व्याध सदृश हैं साधु, प्रतिसवेना सदृश है मांस, स्थगन सदृश है प्रतिकुंचना, सत्कार सदृश है बीडना लज्जापावन । ५८५. आलोयण सि य पुणो, जा एसाऽकुंचिया उभयतो वि सच्चेव होति सोही, तत्थ य मेरा हमा होति ॥ जो आलोचना उभयतः अर्थात् संकल्पकाल में तथा आलोचनाकाल में अप्रतिकुंचित होती है वही तात्विकी शुद्धि होती है। उसमें आचार्य और शिष्य की यह मर्यादा -सामाचारी है। ५८६. आयरिए कह सोधी, सीहाणुग-वसभ कोल्हुगाणूए। अधवा वि सभावेणं, निमंसुगे मासिगा तिण्णि । 'आचार्य के पास जब आलोचक शिष्य आलोचना करता है तब शुद्धि कैसे होती है? आलोचनाई आचार्य के तीन प्रकार हैं-सिंहानुग, वृषभानुग तथा क्रोष्टानुग। (आचार्य के अभाव में वृषभ और गीतार्थ भिक्षु से भी आलोचना ली जा सकती है। ये तीनों - आचार्य, वृषभ और भिक्षु स्वभावतः सिंहानुग, वृषभानुग अथवा क्रोष्टानुग हो सकते हैं। उनकी यथायोग्य निषद्या न करने पर तीन प्रकार के प्रायश्चित्त प्राप्त होते हैं। जैसे-सिंहानुग आचार्य की यथायोग्य निषद्या न करने पर एक मासिक, वृषभानुग आचार्य की यथायोग्य निषद्या न करने पर द्विमासिक तथा क्रोष्टानुग आचार्य की यथायोग्य निषद्या न करने पर त्रैमासिक प्रायश्चित्त आता है। यहां निःश्मश्रुक राजा का दृष्टांत है एक निःश्मश्रुक राजा था। एक नापित उसके पास वेतन पर रहता था। राजा को निःश्मश्रुक समझकर वह काम नहीं करता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy