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________________ है। ४०० सानुवाद व्यवहारभाष्य गणार्थकर भी मानकर भी। ४. न गणार्थकर और न मानकर। ४५७५. एवं गणसोधिकरे, चउरो पुरिसा हवंति विण्णेया। इनमें जो सारूपिक तथा देवचिंतक होते हैं, उनका यहां दृष्टांत किह पुण गणस्स सोधिं, करेज्ज सो कारणेमेहिं।। इसी प्रकार गणशोधिकर पुरुष भी चार प्रकार के होते हैं। ४५६८. पुट्ठापुट्ठो पढमो, उ साहती न उ करेति माणं तु। प्रश्न है-गण की शोधि कैसे करते हैं। आचार्य कहते हैं-गण की बितिओ माणं करेति, पुट्ठो वि न साहती किंचि॥ शोधि इन कारणों से की जाती है। ४५६९. ततिओ पुट्ठो साहति, नोऽपुट्ठ चउत्थमेव सेवति तु। ४५७६. एगं दव्वेगघरे, णेगा आलोयणाय संका तु। दो सफला दो अफला, एवं गच्छे वि नातव्वा॥ ओयस्सि सम्मतो संथुतो य तं दुप्पवेसं च॥ पहला पुरुष राजा को पूछने-अपूछने पर शुभाशुभ कहता मुनियों के कुछ संघाटक एक ही घर से एक ही प्रकार का है, मान नहीं करता। दूसरा पुरुष मान के वशीभूत होकर पूछने द्रव्य लेकर आए। गुरु के समक्ष आलोचना के समय सभी को पर भी कुछ नहीं कहता। तीसरा पुरुष पूछने पर कहता है, बिना शंका हुई। उस घर में प्रवेश निषिद्ध हो गया। ऐसी स्थिति में जो पूछे नहीं। चौथा राजा की केवल सेवा करता है। इनमें दो-पहला मुनि ओजस्वी है, उस गृह के पारिवारिकजनों से संस्तुत है, उस और तीसरा सफल है तथा दो-दूसरा और चौथा असफल है। घर में आने-जाने में सम्मत है, वह उस दुःप्रवेश वाले घर में इसी प्रकार गच्छ में भी सफल-असफल ज्ञातव्य है। जाता है और सबको निःशंकित कर देता है। यह प्रथम पुरुष है। ४५७०. आहारोवहि-सयणाइएहि गच्छस्सुवग्गहं कुणती। पूर्ववत् चतुर्भंगी विवेचनीय है। बितिओ माणं उभयं, व ततियओ नोभय-चउत्थो॥ ४५७७. हेट्ठाणंतरसुत्ते, गणसोधी एस सुत्तसंबंधो। प्रथम व्यक्ति आहार, उपधि, शयन आदि से गच्छ का सोहि त्ति व धम्मो त्ति व, एगटुं सो दुहा होति॥ उपग्रह करता है। दूसरा मान के कारण कुछ नहीं करता। तीसरा पूर्वसूत्र में गणशोधि का कथन किया गया। यह प्रस्तुत सूत्र गच्छ का उपग्रह और मान करता है। चौथा दोनों नहीं करता। से सूत्रसंबंध है। शोधि तथा धर्म एकार्थक हैं। धर्म दो प्रकार का ५४७१. सो पुण गणस्स अट्ठो, संगहकर तत्थ संगहो दुविधो। होता है। दव्वे भावे तियगा, उ दोन्नि आहारनाणादी। ४५७८. रूवं होति सलिंगं, धम्मो नाणादियं तिगं होति। प्रस्तुत सूत्र में गण का अर्थ संग्रह विषयक है। संग्रह के दो रूवेण य धम्मेण य, जढमजढे भंगचत्तारि॥ प्रकार हैं-द्रव्यसंग्रह और भावसंग्रह। द्रव्यसंग्रह आहार आदि का रूप का अर्थ है-स्वलिंग और धर्म का अर्थ है-ज्ञान आदि और भावसंग्रह ज्ञान आदि का। त्रिपदी। रूप और धर्म के व्यक्त-अव्यक्त के आधार पर चार अंग ५४७२. आहारोवहिसेज्जादिएहि दव्वम्मि संगहं कुणति। होते हैं सीस-पडिच्छे वाए, भावे न तरंति जाधि गुरू॥ ४५७९. रूवजढमण्णलिंगे, धम्मजढे खलु तथा सलिंगम्मि। आहार, उपधि, शय्या आदि का द्रव्य संग्रह करता है तथा उभयजढो गिहिलिंगे, दुहओ सहितो सलिंगेणं॥ जब गुरु वाचना देने में असमर्थ होते हैं तब वह वाचना देता है। १. एक ने रूप-स्वलिंग को छोड़ा है, प्रयोजनवश यह प्रथम पुरुष है। अन्यलिंग में स्थित है परंतु धर्म को नहीं छोड़ा २. दूसरे ने धर्म ४५७३. एवं गणसोभम्मि वि, चउरो पुरिसा हवंति नातव्वा।। को छोड़ा है, स्वलिंग को नहीं। ३. उभयत्यक्त होता है गृहिलिंग __ सोभावेति गणं खलु, इमेहि ते कारणेहिं तु॥ ४. उभयसहित होता है-स्वलिंग सहित तथा ज्ञानादिक धर्म इसी प्रकार चार पुरुष गणशोभाकर ज्ञातव्य हैं। वे गण को । सहित। इन कारणों से शोभा प्राप्त कराते हैं। ४५८०. तस्स पंडियमाणस्स, बुद्धिलस्स दुरप्पणो। ४५७४. गणसोभी खलु वादी, उद्देसे सो उ पढमए भणितो। मुद्धं पाएण अक्कम्म, वादी वायुरिवागतो।। धम्मकहि निमित्ती वा, विज्जातिसएण वा जुत्तो।। एक राजा नास्तिक था। वह पंडितमानी और बुद्धिल था वादी गणशोभी होता है। इस विषयक चर्चा प्रथम उद्देशक अर्थात् दूसरों की बुद्धि पर जीवन चलाता था। वह दूसरों से वाद में की जा चुकी है। इसी प्रकार धर्मकथी, नैमित्ती तथा विद्यातिशय की आयोजना कर, उनकी अवहेलना करता था। एक बार वह से युक्त व्यक्ति भी संघ की शोभा को बढ़ाते हैं। निग्रंथ मुनियों को वाद के लिए ललकारा और उनको उपद्रुत १.सारूपिक-मुनि के समानरूपधारी, मुंडितशिरवाले तथा १. गणसंग्रहकर होता है, मानकर नहीं। भिक्षाटनशील। २. मानकर होता है, गणसंग्रहकर नहीं। २. देवचिंतक-जो राजा को शुभाशुभ बताते हैं। ३. दोनों होता है। ३. चार प्रकार के पुरुष ४. दोनों नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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