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दसवां उद्देशक
पूर्वोक्त पुरुषजात अर्थतः बताए गए थे, ग्रंथतः नहीं उनकी प्ररूपणा के लिए यह पुरुषजातसूत्र प्राप्त है। ४५५५. पुरिसज्जाया चउरो, विभासितव्वा उ आणुपुब्बीए । अट्ठकरे माणकरे, उभयकरे नोभयकरे य ॥ अर्थकर, मानकर, उभयकर तथा नो- उभयकर- इन चारों पुरुषों की अनुक्रम से व्याख्या करनी चाहिए। ४५५६. पढमत्ततिया एत्थं, तू सफला निष्फला दुवे इतरे। दिट्ठतो सगणा, सेवंता अण्णरायाणं ॥ इन चारों में प्रथम और तृतीय सफल होते है तथा द्वितीय और चतुर्थ निष्फल होते हैं। यहां दृष्टांत है-अन्य राजा की सेवा करने वाले शकजाति के चोरों का
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४५५७. उज्जेणी सगरायाऽऽणीया गव्वा न सुठु सेवंति । वित्तिअदाणं चोज्जं निव्विसया अण्णनिवसेवा ॥ ४५५८. धावति पुरतो तह मग्गतो य सेवति य आसणं नीयं । भूमीए वि निसीयति, इंगियकारी य पढमो उ॥ ४५५९. चिक्खल्ले - अन्नया पुरतो, गतो से एगो नवरि सेवतो ।
तुद्वेण तस्स रण्णा, वित्ती उ सुपुक्खला दिन्ना ॥ उज्जयिनी में शक राजा था। कालकाचार्य शकों को लाए। राजा की सेवा में चारों शक थे। उन्होंने सोचा- यह राजा तो हमारी जाति का ही है। इस गर्व से वे राजा की उचित सेवा नहीं करते थे। राजा ने तब उनको वृत्ति - जीविका देना बंद कर दिया । अब वे चोरी करने लगे। राजा ने उनको देश से निकाल दिया। वे अन्यत्र जाकर अन्य राजा की सेवा करने लगे। प्रथम पुरुष (अर्थकर) इंगित और आकार को जानने वाला था। वह राजा के गमन - आगमन पर आगे जाकर सम्मान करता था। दोनों पार्श्वो में भी वह सेवा करता था। वह नीचे आसन पर बैठता और कभी भूमी पर भी बैठ जाता था। एक बार राजा कीचड़मय मार्ग से चला। शेष सारे लोग उस पंकिल मार्ग को छोड़कर दूसरे मार्ग से गए। केवल वह अकेला शक-सेवक राजा की सेवा में उसी पंकिल मार्ग से आगे-आगे चलता रहा। राजा ने संतुष्ट होकर उसे अत्यधिक वृत्ति दी ।
४५६०. बितिओ न करेतऽहं माणं च करेति जातिकुलमाणी । न निवेसति भूमीए, न य धावति तस्स पुरतो उ॥ दूसरा सेवक राजा का अर्थकर प्रयोजनसिद्ध करने वाला नहीं था। वह मानी था। उसमें जाति और कुल का अभिमान था । वह न भूमी पर बैठता था और न राजा के आगे-आगे चलता था । ४५६१. सेवति ठितो विदिण्णे,
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वि आसणे पेसितो कुणति अट्ठ । इति उभयकरो ततिओ,
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जुज्झति य रणे समाभट्ठो ॥
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तीसरा व्यक्ति आसन दिए जाने पर भी राजा की सेवा खड़ा खड़ा करता था। राजा द्वारा भेजे जाने पर वह प्रयोजन सिद्ध करता था, अन्यथा नहीं। वह उभयकर था । 'यह राजपुत्र है' यह कहे जाने पर रण में युद्ध करने जाता था । ४५६२. उभयनिसेध चउत्थे,
बितिय चउत्थेहि तत्थ न तु लद्धा । वित्ती इतरेहि लद्धा,
दिवंतस्स उवणओ उ ॥ चौथा पुरुष न अर्थकर था और न मानकर । दूसरे और चौथे पुरुष को आजीविका का लाभ नहीं हुआ। पहले और तीसरे को यह लाभ मिला। इस दृष्टांत का यह उपनय है४५६३. एमेवायरियस्स वि, कोई अहं करेति न य माणं ।
अट्ठो उ वुच्चमाणो, वेयावच्चं दसविधं तु ॥ ४५६४. अथवा अन्मुद्वाणं, आसण किति मत्तए य संयारे ।
उववाया य बहुविधा, इच्चादि हवंति अट्ठा उ ॥ आचार्य का कोई शिष्य अर्थकर होता है, मानकर नहीं । आचार्य का अर्थ अर्थात् प्रयोजन यह है-दस प्रकार का वैयावृत्त्य । अथवा आचार्य के आने पर उठना, आचार्य को आसन देना, कृतिकर्म करना, मात्रक प्रस्तुत करना, संस्तारक बिछाना, अनेक प्रकार के उपपात - समीप होने के लक्षण वाले को क्रियान्वित करना इत्यादि अर्थ होते हैं।
४५६५. बितिओ माणकरो तू,
'माणो हवेज्ज तस्स इमो ।
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को पुण
अभ्युद्वाणऽन्मत्यण,
होति पसंसा य एमादी ।
दूसरा है मानकर उसके क्या मान होता है ? मेरे आने पर वह उठा नहीं। उसने मुझसे अभ्यर्थना नहीं की। उसने मेरी प्रशंसा नहीं की, इत्यादि ये सारे उसके मान के विषय है। ४५६६. ततिओभय नोभयतो,
चउत्थओ तत्थ दोन्नि निष्फलगा।
सुत्तत्थोभयनिज्जरलाभो
दोण्हं भवे तत्थ ॥
तीसरा उभयकर है- अर्थकर और मानकर दोनों हैं। चौथा उभयकर नहीं है-न अर्थकर है और न मानकर। दो निष्फल हैं- उन्हें निर्जरा का लाभ भी नहीं होता और सूत्रार्थ का लाभ भी नहीं होता। प्रथम और तृतीय- इन दोनों को सूत्रार्थ तथा उभय निर्जरा लाभ होता है। दोनों अर्थकर होते हैं। ४५६७. एमेव होंति भंगा, चत्तारि गणट्टकारिणो जतिणो । रण्णो सारूविय देवचिंतगा तत्थ आहरणं ॥ इसी प्रकार गणार्थकारी यतियों के चार भंग होते हैं- १. गणार्थंकर मानकर नहीं २. मानकर गणार्थंकर नहीं। ३.
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