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शैक्ष मुनि द्वारा वंदना, आलोचना तथा सचित्त आदि का निवेदन करने के पश्चात् रत्नाधिक मुनि भी वंदना आदि करता है।
४००६. सुत - सुह- दुक्खे खेत्ते, मग्गे विणओवसंपयाए । बावीसपुव्वसंधु, वयंसदिट्ठे य भट्टे यः ।। श्रुतोपसंपद् में उपसंपन्न होने वाले के ये बावीस आभाव्य हैं- (छह अमिश्र वल्ली के माता, पिता, भाई, भगिनी, पुत्र और पुत्री | सोलह मिश्र वल्ली के माता और पिता की माता, पिता, भाई और भगिनी तथा इन चारों के पुत्र और पुत्री ।) सुख-दुःख उपसंपद् में उपसंपन्न होने वाले के पूर्वसंस्तुत आभाव्य होते हैं। क्षेत्र उपसंपद् में वयस्य आदि आभाव्य होते हैं। मार्ग उपसंपद में दृष्ट और आभाषित अर्थात् वल्लीद्विक तथा मित्र आभाव्य होते हैं। और विनयोपसंपद् में सभी आभाव्य होते हैं।
४००७. खेत्ते मित्तादीया, सुतोवसंपन्नतो उ छल्लभते ।
अम्मापि संबद्धो, सुह- दुक्खी एतरो दिट्ठो ॥ क्षेत्रोपसंपद् में मित्र आदि का, श्रुतोपसंपन्न वाला मातापिता आदि छह का, सुख-दुःख उपसंपद् में माता-पिता से संबद्ध का लाभ तथा मार्गोपसंपद् में दृष्ट तथा आभाषित का लाभ होता है।
४००८. इच्चेयं पंचविधं, जिणाण आणाए कुणति सट्ठाणे । पावत धुवमाराहं, तव्विवरीए विवच्चासं ॥ जो इस पांच प्रकार के आभवद् व्यवहार (श्रुत, क्षेत्र आदि) का प्रयोग जिनाज्ञा के अनुसार स्व-स्व स्थान में करता है वह निश्चितरूप में अंत में आराधक पद को प्राप्त होता है। आभवद् व्यवहार में विपरीत आचरण करने वाला विपर्यास को प्राप्त होता है अर्थात् वह आराधक नहीं होता ।
४००९. इच्चेसो पंचविहो, ववहारो आभवंतिओ नाम । पच्छित्ते ववहारं, सुण वच्छ ! समासतो वुच्छं ॥ यह पांच प्रकार का 'आभवतिक' (आभाव्य) व्यवहार है। वत्स ! अब आगे मैं प्रायश्चित्त व्यवहार का संक्षेप में कथन करूंगा, उसे तुम सुनो।
४०१०. सो पुण चउव्विहो दव्व-खेत्त- काले य होति भावे य ।
सच्चित्ते अच्चित्ते, दुविधो पुण होति दव्वम्मि || प्रायश्चित्त व्यवहार के चार प्रकार हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से संबंधित । द्रव्यतः वह दो प्रकार है-सचित्त और अचित्त ।
४०११. पुढवि - दग - अगणि मारुय वणस्सति
अचित्ते पिंड उवधी,
१. अध्यवपूरक का मिश्र में समावेश हो जाता है इसलिए पंद्रह ।
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तसेसु होति सच्चित्ते ।
दस पन्नरसेव सोलसगं ॥
सानुवाद व्यवहारभाष्य ४०१२. संघट्टण परितावण उद्दवणा वज्जणा य सट्ठाणं । दाणं तु चउत्थादी, तत्तियमित्ता व कल्लाणे ॥ सचित्त ये हैं- पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और स। अचित्त हैं- पिंड, उपधि । अचित्त से संबंधित दस एषणा के दोष, पंद्रह उद्गम के दोष', सोलह उत्पादन के दोष युक्त ग्रहण करने से प्रायश्चित्त आता है।
पृथ्वी आदि के संघट्टन, परितापन और उद्रवण तथा वर्जना में यथापत्ति प्रायश्चित्त को स्वस्थान कहा जाता है। प्रस्तुत में दान प्रायश्चित्त का कथन है। पृथ्वी आदि स्थावर जीव - निकाय के अपद्रावण में अभक्तार्थ प्रायश्चित्त आता है । द्वीन्द्रिय के अपद्रावण में बेला, त्रीन्द्रिय में तेला, चतुरिन्द्रिय में चोला और पंचेन्द्रिय में पंचोला - यह प्रायश्चित्त है। जिस प्राणी के जितनी इंद्रिया हैं, उस प्राणी के संघट्टन, परितापन से उतने ही कल्याणकों का प्रायश्चित्त आता है।
४०१३. अधवा अट्ठारसगं, पुरिसे इत्थीसु वज्जिया वीसा । दसगं च नपुंसेसुं, आरोवण वण्णिया तत्थ ॥ वर्जना का अर्थ है प्रव्राजना के लिए निषेध । अठारह प्रकार के पुरुष, बीस प्रकार की स्त्रियां और दस प्रकार के नपुंसक - इनको प्रव्रजित करने का निषेध है। अथवा कल्पाध्ययन में आरोपणा प्रायश्चित्त का कथन किया गया है। वहां से उसे जान लेना चाहिए।
४०१४. जणवयऽद्बाणरोधए, मग्गादीए य होति खेत्तम्मि । दुभिक्खे य सुभिक्खे, दिया व रातो व कालम्मि ॥ जनपद, मार्ग, रोधक (सेना का घेरा) तथा मार्गातीत- इन विषयों में जो प्रायश्चित्त आता है, वह क्षेत्रविषयक प्रायश्चित्त है तथा दुर्भिक्ष, सुभिक्ष, दिन और रात संबंधी प्रायश्चित्त काल विषयक प्रायश्चित्त है।
४०१५. वसिमे वि अविहिकरणं, संथरमाणम्मि खेत्तपच्छित्तं । उद्घाणे उ अजयणं, पवण्णे चेव दप्पेणं ॥ ४०१६. कालम्मि उ संथरणे, पडिसेवति अजयणा व ओमंसि । दिय-निसिमेराऽकरणं, ऊणधियं वावि कालेण ॥ वसिम - जनपद जहां संस्तरण होता है वहां भी अविधि करना, यह क्षेत्र प्रायश्चित्त है। मार्ग में अयतनापूर्वक अथवा दर्प से प्रव्रजन करना मार्गगत प्रायश्चित्त है। सुभिक्षकाल में संस्तरण होने पर भी दुर्भिक्षकल्प का समाचरण करना अथवा दुर्भिक्षकाल
अतना करना, दिन और रात की मर्यादा का अकरण अर्थात् दिन के कल्प का रात्री में और रात्री के कल्प का दिन में समाचरण करना अथवा दिन और रात्री के कल्प में न्यून या अधिक करना कालविषयक प्रायश्चित्त है ।
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