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________________ दूसरा उद्देशक १२६८. लहुगा य दोसु दोसु य, गुरुगा छम्मास लहु-गुरुच्छेदो । निक्खिवणम्मिय मूलं, जं चन्नं सेवते दुविधं ॥ १२६९. पुरिसे उ नालबद्धे, अणुव्वतोवासए य चउलहुगा । एयासुं चिय थीसुं, अनालसम्मे य चउगुरुगा ॥ १२७०. अणालदंसणित्थीसु, दिट्ठाभट्ठपुरिसे य छल्लहुगा । दिट्ठत्ति पुम अदिट्ठो, मेहुणभोईय छग्गुरुगा ॥ १२७१. अदिट्ठआभट्ठासुं थीसुं संभोइ संजती छेदो। अणुण्णसंजती, मूलं थीफाससंबंधो ॥ यदि वह नालबद्ध मिथ्यादृष्टि तथा अणुव्रतोपासक इन दो पुरुषों के साथ भोजन करता है तो प्रायश्चित्त है-चार लघुमास और यदि वह नालबद्ध मिथ्यादृष्टि तथा अणुव्रतोपासिका - इन दो स्त्रियों के साथ भोजन करता है तो प्रायश्चित्त है-चार गुरुमास । अनालबद्ध मिथ्यादृष्टि पुरुष और अणुव्रतोपासक पुरुष के साथ भोजन करता है तो प्रायश्चित्त है-चार गुरुमास । अनालबद्ध दर्शनमात्र श्राविका तथा पूर्वदृष्ट आभाषित पुरुष के साथ भोजन करने पर षट्लघु तथा पूर्वदृष्ट आभाषित स्त्री और अदृष्ट आभाषित पुरुष के साथ और वेश्या, भार्या - इन चारों के साथ भोजन करने पर षट्गुरु का प्रायश्चित्त आता है अदृष्ट तथा आभाषित स्त्रियों के साथ तथा सांभोजिक साध्वी के साथ भोजन करने पर छेद और असांभोजिक साध्वी के साथ भोजन करने तथा स्त्रीस्पर्श में मूल प्रायश्चित्त का विधान है। १२७२. अधवा वि पुव्वसंधुत, पुरिसेहिं सद्धि चउलहू होंति । पुरसंथुतइत्थीए, पुरिसेतर दोसु वी गुरुगा ॥ १२७३. पच्छासंधुतइत्थीए, छल्लहु मेहुणिया छग्गुरुगा । समणेतर संजति, छेदो मूलं जधाकमसो ॥ अथवा पूर्व संस्तुत पुरुष तथा पूर्वसंस्तुत स्त्री के साथ भोजन करने पर चार लघुमास का और पुरुषेतर पुरुष तथा स्त्री के साथ भोजन करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। पश्चात्संस्तुत स्त्री के साथ भोजन करने पर छह लघुमास का तथा वेश्या के साथ भोजन करने पर छह गुरुमास का, समनोज्ञ संयती के साथ भोजन करने पर छेद तथा अमनोज्ञ संयती के साथ भोजन करने पर मूल का प्रायश्चित्त आता है।. १२७४. अहव पुरसंधुतेतर, पुरिसित्थीओ य सोयवादीसु । समणुण्णेतरसंजति, अड्डोकंतीय मूलं तु॥ अथवा पूर्वसंस्तुत तथा पश्चात् संस्तुत पुरुष तथा स्त्रियों के साथ, शौचवादियों के साथ, मनोज्ञ तथा अमनोज्ञ संयतियों के साथ भोजन करने से अर्द्ध- अपक्रांति की विधि से उसे मूल प्रायश्चित्त आता है । Jain Education International १२७ १२७५. थीविग्गह- किलिबं वा, मेधुणकम्मं च चेतणमचेतं । मूलोत्तरकोडिदुगं, परित्तऽणतं च एमादी ॥ स्त्रीविग्रह - स्त्री शरीर तथा नपुंसक के साथ प्रतिसेवना करने पर, हस्तकर्म करने पर, सचित्त अथवा अचित्त की प्रतिसेवना करने पर, मूलगुण की प्रतिसेवना अथवा उत्तरगुण की प्रतिसेवना करने पर, उद्गमकोटि अथवा विशुद्धकोटिक की प्रतिसेवना अथवा परित्तकाय अथवा अनंतकाय । अथवा तिर्यग्योनिक, मानुषिक के साथ मैथुन प्रतिसेवना की हो ये सारे द्विक हैं। १२७६. एतेसिं तु पदाणं, जं सेवति पावती तमारुवणं । अन्नं च जमावज्जे, पावति तं तत्थ तहियं तु ॥ उपरोक्त पदों के साथ प्रतिसेवना करने पर आरोपणा निष्पन्न प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसके साथ-साथ संयमविराधनाप्रत्ययिक प्रायश्चित्त भी वहां प्राप्त होता है। १२७७. तत्तो य पडिनियत्ते, सुहुमं परिनिव्ववेंति आयरिया । भरितं महातलागं, तलफलदिट्टंतचरणम्मि ॥ जब वह मुनि लौट आता है तब आचार्य सूक्ष्म- कोमल उपाय से उसे सांत्वना देते हुए शांत करते हैं। चारित्र के विषय में भारत महातडाग, तालफल का दृष्टांत । (देखें १२८५ गाथा) १२७८. अमिलायमल्लदामा, अणिमिसनयणाय नीरजसरीरा । चउरंगुलेण भूमि, न छिवंति सुरा जिणो कहति ।। जिनेश्वर कहते हैं कि देवताओं की पुष्पमालाएं म्लान नहीं होतीं । उनके नेत्र अनिमेष होते हैं-वे पलके नहीं झपकाते। उनका शरीर निर्मल होता है। उनके चरण भूमि का स्पर्श नहीं करते, वे भूमि से चार अंगुल ऊपर रहते हैं। १२७९. सुहुमा य कारणा खलु, लोए एमादि उत्तरे इणमो । मिच्छद्दिट्ठीहि कता, किण्णु हु भे तत्थ उवसग्गा ॥ इस प्रकार की सूक्ष्म कारण यातनाएं हैं। लोकोत्तर में ये यातनाएं इस प्रकार हैं-क्या मिथ्यादृष्टि लोगों ने वहां तुम्हें उपसर्ग किए थे ? १२८०. अवि सिं धरति सिणेहो, पोराणो आओ निप्पिवासाए । इति गारवमारुहितो, कधेति सव्वं जहावत्तं ॥ मैं संभावना करता हूं कि वहां के लोगों का तुम्हारे प्र पुराना स्नेह है। मेरी सेवा करने की उनकी पिपासा आज भी वैसे ही है। इस प्रकार गौरवत्व आरोपित होने पर वह जो-जो हुआ वह सारा बता देता है, कह देता है। १२८१. एवं भणितो संतो, उत्तइओ सो कधेति सव्वं तु । जं णेण समणुभूतं, जं वा से तं. कयं तेहिं ॥ इस प्रकार कहने पर वह गर्वित होकर सारी बात कह देता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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