SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 402
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दसवां उद्देशक ४०४४. अथवा कायमणिस्स, सुमहल्लस्स वि उ कागिणीमोल्लं । वइरस्स उ अप्पस्स वि, मोल्लं होती सयसहस्सं । अथवा रत्नवणिक बहुत बड़े काचमणि का भी काकिनी का मूल्य करता है और छोटे से भी वज्रमणि का शतसहस्र-लाख का मूल्य करता है। ४०४५. इय मासाण बहूण वि, रागद्दोसऽप्ययाय थोवं तु । रागद्दसोवचया, पणगे वि जिणा बहुं वैति ॥ इसी प्रकार अनेक मासों के योग्य अपराध में भी राग-द्वेष की अल्पता के कारण स्तोक प्रायश्चित्त देते हैं तथा राग-द्वेष के उपचय से पंचक योग्य अपराध में भी 'जिन' बहुत प्रायश्चित्त देते हैं। ४०४६. पच्चक्खी पच्चक्खं, पासति पडिसेवगस्स सो भावं । किह जाणति पारोक्खी, नातमिणं तत्थ धमरणं ॥ प्रत्यक्षी प्रत्यक्षज्ञानी प्रतिसेवक के भाव को प्रत्यक्षरूप से जान लेता है। परोक्षी चौदहपूर्वी आदि उसको कैसे जान पाते हैं ? आचार्य कहते हैं- इस विषय में धमक (शंख बजाने वाले) का दृष्टांत है। ४०४७, नालीघमएण जिणा, उवसंहारं करेंति पारोक्खे। जह सो कालं जाणति, सुतेण सोहिं तहा सोउं ॥ तीर्थंकर नालीधमक के उदाहरण से परोक्षज्ञानियों के जानने का उपसंहार करते हैं जैसे नाली (नाही) से गिरते हुए पानी के परिमाण के आधार पर कालज्ञान किया जाता है वैसे ही दूसरों को कालज्ञान कराने के लिए शंख बजाया जाता है। दूसरा व्यक्ति शंख के शब्द को सुनकर काल का ज्ञान कर लेता है। वैसे ही परोक्षज्ञानी भी आलोचना सुनकर व्यक्ति के यथावस्थित भाव जान लेते हैं। ४०४८. जेसिं जीवाजीवा, उबलब्द्धा सव्वभावपरिणामा । सव्वाहि नयविधीहिं, केण कतं आगमेण कयं ॥ जो अपने श्रुतबल से जीव अजीव पदार्थ जान लिए हैं तथा जो सभी भावों-पदार्थों के श्रुतज्ञान विषयक परिणाम - पर्याय जान लिए हैं, जिन्होंने सभी नयविकल्पों से पदार्थों का ज्ञान कर लिया है वे प्रत्यक्ष ज्ञानियों की भांति दूसरे की शोधि को जानते हैं। प्रश्न पूछा जाता है-किससे किया यह श्रुतज्ञान ? उत्तर हैआगम-अर्थात् केवलज्ञान से किया है। ४०४९ तं पुण कतं तू, सुतनाणं जेण जीवमादीया । नज्जति सव्वभावा, केवलनाणीण तं तु कतं ॥ श्रुतज्ञान को किसने किया, जिससे कि श्रुतज्ञानी जीव आदि सभी भाव जान लेते हैं ? श्रुतज्ञान को करने वाले हैं Jain Education International ३६३ केवलज्ञानी। ४०५०. आगमतो ववहारं, पर सोच्चा संकियम्मि उ चरित्ते । आलोहयम्मि आराहणा अणालोइए भयणा || आगमतः दूसरे को सुनकर व्यवहार करते हैं । चारित्र में शंकित होने पर आलोचना करने पर आराधना होती है। आलोचना न करने पर आराधना की भजना है (पूरी व्याख्या आगे की गाथाओं में) ४०५१. आगमववहारी छव्विहो वि आलोयणं निसामेत्ता । देति ततो पच्छितं, पडिवज्जति सारितो जइ य ॥ छहों प्रकार के आगमव्यवहारी आलोचना को सुनकर फिर प्रायश्चित्त देते है आलोचना करते समय वह आलोचक किसी अपराध को कहना भूल जाता है तो वे उसकी स्मृति कराते हैं। यदि वह उसे सम्यक् रूप से स्वीकार कर लेता है तो उसे आलोचना देते हैं, अन्यथा नहीं । ४०५२. आलोइयपडिकंतस्स, होति आराधणा तु नियमेण । अणालोयम्मि भयणा, किह पुण भयणा भवति तस्स ॥ जो अपराध की आलोचना कर लेता है तथा उससे प्रतिक्रांत हो जाता है-पुनः न करने से प्रतिनिवृत्त हो जाता है, उसके नियमतः आराधना होती है। अनालोचित अवस्था में आराधना की भजना है-होती भी है और नहीं भी होती प्रश्न है- उसके भजना कैसे होती है ? ४०५३. कालं कुव्वेज्ज सयं, अमुहो वा होज्ज अहव आयरिओ। अप्पत्ते पत्ते वा, आराधण तह वि भयणेवं ॥ मुनि आलोचना के परिणाम में परिणत है परंतु आलोचना करने से पूर्व ही स्वयं कालगत हो जाता है अथवा आलोचनाई के समीप जाकर भी अमुख आलोचना नहीं कर पाता अथवा आलोचक के पहुंचने से पूर्व ही आलोचनाई आचार्य कालगत हो जाता है, आलोचनाई आचार्य को प्राप्त करके भी आलोचना नहीं कर पाता - ऐसा आलोचक यदि आलोचना से पूर्व काल कर जाता है तब भी वह आराधक है। जो आलोचना परिणाम में अपरिणत है, वह अनाराधक होता है। इस प्रकार आलोचना करने या न करने पर आराधना की भजना कही गई है। ४०५४. अवराहं वियाणंति, तस्स सोधिं चजदपि । तधेवालोयणा वुत्ता, आलोपंते बहू गुणा ॥ यद्यपि आगमव्यवहारी आलोचक के अपराध को तथा शोधि प्रायश्चित्त को भी जानते हैं, फिर भी उनके समक्ष आलोचना करने की बात तीर्थंकरों ने कही है। आलोचना करने वाले में बहुत गुण निष्पन्न होते हैं। ४०५५. दव्वेहि पज्जवेहिं, कम खेत्ते काल - भावपरिसुद्धं । आलोयणं सुणेत्ता, तो ववहारं तो ववहारं पउंजंति ॥ www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy