SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 401
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६२ सानुवाद व्यवहारभाष्य धीरपुरुषों ने जैसे आगम व्यवहार की प्ररूपणा की है, वह हस्ती के समान हैं वे आगमतः परोक्ष व्यवहार से व्यवहार करते सुनो। आगम व्यवहार दो प्रकार का ज्ञातव्य है-प्रत्यक्ष और परोक्ष। प्रत्यक्ष भी दो प्रकार का है-इंद्रियज और नोइंद्रियज। ४०३८. किह आगमववहारी, जम्हा जीवादयो पयत्था उ। इंद्रियजप्रत्यक्ष पांच इंद्रिय विषयों में ज्ञातव्य है। नोइंद्रियप्रत्यक्ष उवलद्धा तेहिं तू, सव्वेहिं नयविगप्पेहिं॥ व्यवहार संक्षेप में तीन प्रकार का है-अवधिप्रत्यक्ष, मनःपर्यव श्रुतज्ञान से व्यवहार करने वाले आगमव्यवहारी कैसे? प्रत्यक्ष तथा केवलज्ञानप्रत्यक्ष। आचार्य कहते हैं-उन चतुर्दशपूर्वधर आदि श्रुतधरों ने सभी ४०३२. ओधीगुण-पच्चइए, जे वटुंते सुयंगवी धीरा।। नयविकल्पों से जीव आदि पदार्थों को उपलब्ध अर्थात् ज्ञात कर ओहिविसयनाणत्थे, जाणसु ववहारसोधिकरे।। लिया है, इसलिए उन्हें आगमव्यवहारी कहा जाता है। (अवधिज्ञान दो प्रकार का होता है-भवप्रत्ययिक और ४०३९. जह केवली वि जाणति, दव्वं खेत्तं च काल-भावं च। गुणप्रत्ययिक। संयमी के गुणप्रत्ययिक अवधिज्ञान ही होता है।) तह चउलक्खणमेतं, सुयनाणी वी विजाणाति ।। जो गुणप्रत्ययिक अवधिज्ञान में वर्तमान श्रुतांगविद् जैसे केवली केवलज्ञान से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को धीरपुरुष हैं, उन अवधिविषयज्ञान में स्थित पुरुषों को व्यवहार समग्रता से जानता है, वैसे ही श्रुतज्ञानी भी चतुर्लक्षण (द्रव्य, शोधिकर-शुद्धव्यवहार करने वाले जानो।। क्षेत्र, काल और भाव) को श्रुतज्ञान से जानता है। ४०३३. उज्जुमती विउलमती, जे वटुंती सुयंगवी धीरा।। ४०४०. पणगं मासविवड्डी, मासिगहाणी य पणगहाणी य। मणपज्जवनाणत्थे, जाणसु ववहारसोहिकरे।। एगाहे पंचाहं, पंचाहे चेव एगा। जो धीर श्रुतांगविद् ऋजुमति अथवा विपुलमति ४०४१. रागदोसविवडिं, हाणिं वा णाउ देति पच्चक्खी। मनःपर्यवज्ञान में वर्तमान हैं, उन मनःपर्यवज्ञानस्थ मुनियों को चोद्दसपुव्वादी वि हु, तह नाउं देंति हीणऽहियं ।। व्यवहार शोधिकर जानो। प्रत्यक्षज्ञानी राग-द्वेष की वृद्धि और हानि को जानकर ४०३४. आदिगरा धम्माणं चरित्तवर-नाण-दसण-समग्गा। प्रायश्चित्त देते हैं और चतुर्दशपूर्वी आदि परोक्षज्ञानी राग-द्वेष की सव्वत्तगनाणेणं, ववहारं ववहरंति जिणा॥ वृद्धि-हानि को जानकर न्यून या अधिक प्रायश्चित्त देते हैं। जो धर्म के आदिकर हैं, जो चारित्रवरज्ञानदर्शन से परिपूर्ण अपराध की समानता में भी किसी को पंचक का प्रायश्चित्त हैं, जिन-अर्हत् हैं, वे सर्वत्रगज्ञान-सर्वज्ञता से व्यवहार का देते हैं और राग-द्वेष की वृद्धि को उपलक्षित कर दूसरे को मास व्यवहरणं करते हैं। की विवृद्धि से प्रायश्चित्त देते हैं। राग-द्वेष की हानि के आधार पर ४०३५. पच्चक्खागमसरिसो, मास की हानि कर तप का प्रायश्चित्त देते हैं। किसी के मास होति परोक्खो वि आगमो जस्स। . प्रतिसेवना में राग-द्वेष की अल्प हानि को उपलक्षित कर पंचक चंदमुही विव सो वि हु, हानि (पचीस दिन) का प्रायश्चित्त देते हैं। तथा एकाहं-अभक्तार्थ आगमववहारवं होति॥ जितनी प्रतिसेवना पर पंचाहं जितना प्रायश्चित्त तथा पंचाहं जिनका आगम (चतुर्दशपूर्व आदि का ज्ञान) परोक्ष होने पर जितने प्रतिसेवना पर एकाहं जिनता प्रायश्चित्त देते हैं। भी प्रत्यक्ष आगम के सदृश है, वह भी आगम- व्यवहारवान् होता प्रत्यक्षज्ञानी और परोक्षज्ञानी दोनों राग-द्वेष की हानिहै, जैसे चंद्र सदृश मुखवाली कन्या को चंद्रमुखी कहा जाता है। वृद्धि को जानकर प्रायश्चित्त देते हैं। (यद्यपि पूर्वो का श्रुत आगमतुल्य नहीं है, फिर भी उनके आधार ४०४२. चोदगपुच्छा पच्चक्खनाणिणो थोव कह बहुं देंति। पर व्यवहार करने वाला आगम-व्यवहारवान् कहलाता है।) दिट्ठतो वाणियए, जिणचोद्दसपुब्विए धमए। ४०३६. नातं आगमियं ति य, एगटुं जस्स सो परायत्तो। जिज्ञासु की पृच्छा है कि प्रत्यक्षज्ञानी थोड़े अपराध में ___ सो पारोक्खो वुच्चति, तस्स पदेसा इमे होति॥ बहुत और अधिक अपराध में थोड़ा प्रायश्चित्त कैसे देते हैं ? यहां ज्ञान और आगम एकार्थक हैं। जिनके वह आगम वणिक् का दृष्टांत है। परायत्त-पराधीन होता है उसे परोक्ष कहा जाता है। उस परोक्ष ४०४३. जंजह मोल्लं रयणं, तं जाणति रयणवाणिओनिउणो। आगम (चौदह पूर्व आदि से समुत्थ) के ये प्रदेश-प्रतिभाग हैं। थोवं तु महल्लस्स वि, कासति अप्पस्स वि बहुं तु॥ ४०३७. पारोक्खं ववहारं, आगमतो सुतधरा ववहरंति। निपुण रत्नवणिक् जिस रत्न का जो मूल्य है, उसको चोद्दस-दसुपव्वधरा, नवपुब्वियगंधहत्थी य॥ जानता है। जानकर भी वह महद् रत्न का थोड़ा मूल्य और किसी जो श्रुतधर चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वधर, नौपूर्वी अथवा गंध- छोटे रत्न का भी बहुत मूल्य देता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy