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पहला उद्देशक
२०१. अभिवतिकरणं पुण ठाविय रासि इमं तु कायव्वं । उणयालीससताई, पणट्ठाई २०२. एतस्स भागहरणं, चउवीसेणं सत्तेण कायव्यं ।
जे लद्धा ते दिवसा, सेसा भागा मुणेयव्वा ।। अभिवर्धित मास के दिनों को ज्ञात करने का यह गणित है-३९६५ की राशि को स्थापित कर उसे १२४ का भाग देने पर जो अंक आता है वे मास के दिन होते हैं। जो शेष अंक बचता है वह अहोरात्र का १२४वां भाग है।
जैसे ३९६५ = १२४ = ३१२ । (अभिवर्धित संवत्सर के दिन होगे-३८३१३
२०३. अहवा वि तीसतिगुणे, सेसे तेणेव भागहारेणं ।
भइयम्मि जं तु लब्भति, ते उ मुहुत्ता मुणेयव्वा ।। अथवा जो शेष बचा है, उसको तीस से गुणा कर उसी में १२४ का भाग देने पर जो प्राप्त होता है, वह मुहूर्तों की संख्या है। २०४ तस्स वि जं अवसेसं, बावट्ठीए उ तस्स गुणकारो ।
गुणकार भागहारे, बावट्ठीए उ अवट्टो || उस मुहूर्त्त संबंधी जो अवशेष रहा है उसको बासठ से गुणन करना होता है । फिर गुणकार और भागहार में ६२ की अपवर्तना की जाती है।
२०५. दोहिं तु हिते भागे, जे लद्धा ते बिसट्टिभागा उ ।
एते समागयफलं, रिक्खादीणं कमेण इमं ॥ भागहार १२४ है। उसको ६२ की अपवर्तना करने पर २ हुए। दो का १२४ में भाग देने पर ६२ आये । यह मुहूर्त्त संख्या है। इन नक्षत्र आदि मासों का दिन परिमाण जानने के लिए जो भागहार है अर्थात् जो आगतफल है, वह क्रमशः इस प्रकार है।
२०६. अहरत्त
सत्तवीसं
तिसत्तसत्तद्विभागनक्खत्ते । चंदो उ अगुणतीसं, बिसट्ठिभागा य बत्तीसं ।। युगराशि १८३० को ६७ से भाग देने पर नक्षत्रमास का दिन प्रमाण २७ प्राप्त होता है। चांद्रमास का दिन प्रमाण है - २९२२३ । उसी युगराशि को ६२ से भाजित करने पर यह संख्या प्राप्त होती है ।
२०७. उडुमासे तीस दिणा, आइच्चो तीस होति अब्द्धं च । अभिवड्ढितेक्कतीसा, इगवीससतं च भागाणं || ऋतुमास तीस दिन का, आदित्यमास साढ़े तीस दिन का तथा अभिवर्धित मास ३१ दिन प्रमाण का होता है। २
१२४
१००
१. अभिवर्धित मास के दिन का परिमाण है -३१ २९ । इसको १२४ से गुणा करने पर (३८४४+१२१) ३९६५ की संख्या आती है ।
२. ऋतुमास में युगराशि १८३० को ६१ से, आदित्यमास में ६० से तथा
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२०८. एक्कत्तीस च दिणा, इगुतीसमुहुत्त सत्तरसभागा। एत्थं पुण अधिगारो, नायव्वो कम्ममासेणं ।। अभिवर्धित मास ३१ दिन २९६३ मुहूर्त्त का होता है। प्रस्तुत में कर्ममास (ऋतुमास) का अधिकार है, प्रसंग है। २०९. मूलादिवेदगो खलु भावे जो वावि जाणओ तस्स ।
न हि अग्गिनाणतोऽम्गीणाणं भावे ततोऽणण्णो ।। भावमास के दो प्रकार हैं-आगमतः भावमास और नोआगमतः भावमास । नोआगमतः भावमास जो मास का जीव- धान्यमाष का जीव मूल, कंद, कांड पत्र, पुष्प और फलरूप में धान्यमाष की भावायु का वेदन करता है वह है आगमतः...... .. वह जो माष या मास का ज्ञाता है वह है आगमतः भावमास । प्रश्न होता है यदि मास का ज्ञाता भावमास है तो अग्रि ज्ञान से अग्नि का भाव हो जाना चाहिए। किंतु ऐसा नहीं होता। आचार्य ने कहा- मास का ज्ञान भी मास शब्द वाच्य है। ज्ञान भावात्मक है । भाव आत्मा से अनन्य है । इसलिए मासज्ञानोपयुक्त भावमास है ।
२१०. नाम ठवणा दविए, परिरय परिहरण वज्जणुग्गडता । भावावण्णेऽसुद्धे, नव परिहारस्स नामाई || परिहार नौ प्रकार का है
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१. नाम परिहार
२. स्थापना परिहार ३. द्रव्य परिहार ४. परिरय परिहार ५. परिहरण परिहार
२११. कंटगमादी दव्वे, गिरि-नदिमादीण परिरयो होति । परिहरण-धरण भोगे, लोउत्तर वज्ज इत्तरिए ।। द्रव्य परिहार-कंटक, सर्प, विष आदि द्रव्यों का परिहार । परिस्य परिहार - परिरय का अर्थ है-परिधि । पर्वत, नदी, समुद्र, अटवी आदि का परिरय होता है।
परिहरण परिहार- इसके दो प्रकार हैं-लौकिक और लोकोत्तर । लौकिक परिहरण है-जैसे माता पुत्र को, भाई को छोड़ती है। लोकोत्तर के दो प्रकार हैं-धरण और भोग धरण परिहरण-जिन उपकरणों का संगोपन करता है, प्रतिलेखन करता है, परंतु उनका परिभोग नहीं करता। परिभोग परिहरणसौत्रिक कल्प आदि का परिभोग करता है, ओढ़ता है।
वर्ज्यपरिहरण के दो प्रकार है-लौकिक और लोकोत्तर | लौकिक के दो भेद हैं- इत्वरिक और यावत्कथित। इत्वरिक अभिवर्धित मास में ३९६५ को १२४ से भाजित करने पर ऊपरोक्त दिन प्रमाण आते हैं (देखें श्लोक २०१ / २०२) ।
६. वर्जन परिहार
७. अनुग्रह परिहार
८. आपन्न परिहार ९. शुद्ध परिहार
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