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सानुवाद व्यवहारभाष्य
है-सूतक के घर का दस दिन तक वर्जन करना। यावत्कथित है-चर्मकार, डोंब, छिपा आदि यावज्जीवन वय॑ हैं। (लोकोत्तर वयं परिहार के भी दो प्रकार हैं-इत्वरिक-दान में अभिगम श्राद्ध वयं है। यावत्कथिक-पुरुषों में १८, स्त्रियों में बीस तथा नपुंसकों में दस वर्ण्य है।) २१२. खोडादिभंगणुग्गह, भावे आवण्णसुद्धपरिहारो।
मासादी आवण्णे, तेण तु पगतं न अन्नेहिं ।।
खोटादि का भंग' अनुग्रह परिहार है। भाव परिहार के दो। प्रकार हैं-आपन्न परिहार तथा शुद्ध परिहार। प्रस्तुत में मासिकादिक जो प्रायश्चित्त आपन्न है उसी का यहां प्रसंग है। अन्य परिहार का नहीं। २१३. नाम ठवणा दविए, खेत्तऽद्धा, उड्ड वसहि विरती य।
संजम-पग्गह-जोहे, अचल-गणण-संधणा भावे ।। स्थान शब्द के निक्षेप १५ हैं१. नामस्थान
९. संयमस्थान २. स्थापनास्थान १०. प्रग्रहस्थान ३. द्रव्यस्थान
११. योधस्थान ४. क्षेत्रस्थान
१२. अचलस्थान ५. अद्धा-कालस्थान १३. गणनास्थान ६.उर्ध्वस्थान
१४. संधनास्थान ७. वसतिस्थान १५. भावस्थान।
८. विरतिस्थान २१४. सच्चित्तादी दव्वे, खेत्ते गामादि अद्ध-दुविहा उ।
सुर-नारग भवठाणं, सेसाणं काय-भवठाणं ।। द्रव्यस्थान के सचित्त आदि तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र। क्षेत्र-ग्राम, नगर आदि का स्थान। अद्धास्थान (कालस्थान) के दो प्रकार है-जीवविषयक, अजीवविषयक। अजीव की जितनी स्थिति है वह उसका कालस्थान है। जीवों की कालस्थिति दो प्रकार की है-कायस्थिति, भवस्थिति। देवता और नारक का एकभवावस्थान भवस्थिति है। शेष जीवों-तिर्यंच और मनुष्यों का कायभवस्थान होता है। कायस्थिति और भवस्थिति-यह उनका कालस्थान है।
२१५. ठाण-निसीय-तुयट्टण, उड्डादी वसहि निवसए जत्थ ।
विरती देसे सव्वे, संजमठाणा असंखा उ।।
ऊ दि स्थान से स्थान, निषीदन और त्वग्वर्तन (शयन)-ये तीनों गृहीत हैं। स्थान का अर्थ है-कायोत्सर्ग। गृहस्थ अथवा मुनि जहां रहते हैं वह है-वसति स्थान। विरति के दो प्रकार हैं-देशविरति और सर्वविरति। यह है-देशविरति स्थान और सर्वविरति स्थान। सयंमस्थान अर्थात् ज्ञानदर्शनचारित्र का परिणामात्मक अध्यवसाय। ये असंख्य होते हैं। २१६. पग्गह लोइय इतरे, एक्केक्को तत्थ होइ पंचविहो ।
राय-जुवरायऽमच्चे, सेट्ठी पुरोहिय लोगम्मि ।।
प्रग्रह का अर्थ है-लोकमान्य पुरुष। प्रग्रह के दो प्रकार हैं-लौकिक और लोकोत्तर। प्रत्येक के पांच-पांच प्रकार हैं। लौकिक प्रग्रह के पांच प्रकार हैं-राजा, युवराज, अमात्य, श्रेष्ठी
और पुरोहित। २१७. आयरिय उवज्झाए, पवत्ति-थेरे तहेव गणवच्छे ।
एसो लोगुत्तरिओ, पंचविहो पग्गहो होति ।।
लोकोत्तर प्रग्रह के पांच प्रकार हैं-आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणावच्छेदक। २१८. आलीढ-पच्चलीढे, वेसाहे मंडले य समपाए।
अचले निरेयकाले, गणणे एक्कादि जा कोडी ।।
योधास्थान के पांच प्रकार हैं-आलीढ, प्रत्यानीढ, वैशाख, मंडल और समपाद।
अचलस्थान का अर्थ है-निरेजन काल।
गणनास्थान है-एक से कोटि पर्यंत संख्या। २१९. रज्जुयमादि अछिन्नं, कंचुयमादीण छिन्नसंधणया।
सेढिदुगं अच्छिन्नं, अपुव्वगहणं तु भावम्मि ।। संधना के दो प्रकार हैं-द्रव्यसंधना और भावसंधना। द्रव्यसंधना-के दो प्रकार हैं-अछिन्नसंधना-रज्जुक आदि। छिन्नसंधना-कंचुकी आदि।
भावसंधना के भी दो प्रकार हैं-छिन्नसंधना और अछिन्नसंधना। इसमें श्रेणीद्वय-उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी तथा जो अपूर्वभाव का संधान करता है। यह भी अछिन्न भाव
१. खोटभंग, उक्कोडभंग, अक्षोटभंग-ये एकार्थक हैं। राजकुल में जो ३. जो उपशमश्रेणी में प्रविष्ट होता है वह अनंतानुबंधि आदि मोहनीयकर्म हिरण्य आदि देना होता है, वेठ करनी पड़ती है, चारभटों आदि के की प्रकृतियों का उपशमन करने का ऐसा प्रयत्न करता है कि संपूर्ण भोजन की व्यवस्था करनी होती है-यह खोटभंग है । राजा के अनुग्रह मोहनीय कर्म उपशांत हो जाता है। यह होती है उपशमश्रेणी की से यह न करना पड़े तो वह अनुग्रह परिहार है।
अछिन्न संधना। क्षपकश्रेणी में भी दर्शन ससक के क्षय के पश्चात् २. आपन्न अर्थात् प्राप्त प्रायश्चित्त का परिहार-परित्याग। अथवा कषाय अष्टक का क्षय करने के लिए प्रवृत्त साधक कैवल्य प्राप्ति से प्रायश्चित्त की प्राप्ति आपन्न परिहार है।
पूर्व निवृत्त नहीं होता। अतः क्षपक श्रेणी भी अछिन्न संधना होती है। शुद्ध परिहार-अनुत्तर धर्मों का परिहार-परिपालन।
(वृ. पत्र १३) (परिहार शब्दस्य परिभोगेऽपि वर्तमानत्वात्।) Jain Education International For Private & Personal Use Only
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