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सानुवाद व्यवहारभाष्य ३७३८. गोरस-गुल-तेल्ल-घतादि,
शय्यातर के अवग्रह के वृक्ष की शाखाएं दूसरे व्यक्ति के ओसहीओ व होति जा आण्णा। अवग्रह में प्रसूत हो जाती हैं। यदि वह कहे कि मैं शाखा को सूयस्स कट्ठलेण तु,
काढूंगा तो उस विषय का व्यवहार-विग्रह होता है। ता संथडऽसंथडा होति॥ ३७४६. सागारियस्स तहियं, केवतिओ उग्गहो मुणेतव्वो। सूपकार के काष्ठगृह (इन्धनगृह) में गोरस, गुड, तैल, घृत
ववहार तिहा छिन्नो, पासायऽगडे बिती तिरियं ।। आदि तथा अन्य औषधियां होती हैं। वे दो प्रकार की है-संस्कृत शय्यातर का कितना अवग्रह ज्ञातव्य होता है-इस प्रश्न के और असंस्कृत।
चिंतन में व्यवहारकारी (न्यायकारी) ने सोचा और अवग्रह को ३७३९. धुव आवाह विवाहे, जण्णे सड्ढे य करडुयछणे य। तीन भागों में विभक्त कर दिया-ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् ।
विविहाओ ओसहीतो, उवणीया भत्त सूयस्स॥ प्रासाद जितना बड़ा होता है उतना ऊर्ध्व अवग्रह, कूप जितना ३७४०. जो जं दड्ड विदई जो वा तहि भत्तसेसमुव्वारे। ऊंडा होता है उतना अधः अवग्रह तथा तिर्यग्वृत्ति अवग्रह यह
लभति जदि सूवकारो, अविरिक्कं तं पि हुन लभइ॥ है-जितना घर का घेरा होता है।
सूपकार ने आवाह (वरपक्ष का भोज), विवाह (वधूपक्ष का ३७४७. उहुं अधे य तिरियं, परिमाणं तु वत्थुणं। भोज), यज्ञ, श्राद्ध आदि, करडुक-मृतभोज, उत्सव-आदि से ___ खायमूसियमीसं वा, तं वत्थूणं तिधोदितं। विविध प्रकार की औषधियां प्रस्तुत की। उसके द्वारा आनीत वास्तु-गृह, प्रासाद आदि का परिमाण तीन प्रकार से होता भक्त में जो दग्ध (थोड़ा जला हुआ), विदग्ध (प्रभूतरूप में दग्ध) है-ऊर्ध्व, अधः और तिर्यग्। अथवा वास्तु के तीन प्रकार अथवा शेष बचा हुआ भोजन, यदि सूपकार को प्राप्त होता है तो हैं-खात, उच्छ्रित तथा खातोच्छ्रित। वह लेना कल्पता है। दग्ध, विदग्ध आदि यदि विभाजित नहीं हुए ३७४८. अट्ठसतं चक्कीणं, चोवट्ठी चेव वासुदेवाणं। हों, उसे प्राप्त नहीं हुए हों तो उससे वह लेना नहीं कल्पता।
बत्तीसं मंडलिए, सोलसहत्था उ पागतिए॥ ३७४१. अविरिक्को खलु पिंडो, सो चेव विरेइतो अपिंडो उ। चक्रवर्ती का प्रासाद १०८ हाथ ऊंचा, वासुदेव का ६४
। भद्दगपंतादीया, धुवा उ दोसा विरक्के वी॥ हाथ, मांडलिक राजाओं का ३२ हाथ तथा सामन्य जनता का १६
अविरिक्त-अविभक्त भक्तपान सागारिकपिंड ही है। वह हाथ ऊंचा होता है। विभाजित हो जाने पर अपिंड हो जाता है अर्थात् शय्यातर का ३७४९. भवणुज्जाणादीणं, एसुस्सेहो उ वत्थुविज्जाए। पिंड नहीं रहता। इस विभाजित पिंड में भी ध्रुव (भद्रक, प्रांत)
भणितो सिप्पिनिधिम्मि उ, चक्कीमादीण सव्वेसिं॥ आदि दोष होते हैं।
शिल्पनिधि तथा वास्तुविद्या में सभी चक्रवर्ती आदि के ३७४२. जा ऊ संथडियाओ सागारियसंतिया न खलु कप्पे। भवन तथा उद्यान आदि का यही उत्सेध कहा गया है।
जा उ असंथडियाओ, सूवस्स य ताउ कप्पंति॥ __ ३७५०. एवं छिन्ने तु ववहारे, परो भणति सारियं। जो शय्यातर की वस्तुएं अशय्यातर की वस्तुओं के साथ
कप्पेमि हं ते सालादी, ततो णं आह सारिओ।। संस्कारित हैं, उन वस्तुओं को लेना नहीं कल्पता। परंतु जो सूप- ३७५१. मा मे कप्पेहि सालादि, दाहिंति फलनिक्कयं। कार के अधिकार में असंस्कृत वस्तुएं हैं उनको लेना कल्पता है।
तत्थ छिन्ने अछिन्ने वा, सुत्तसाफल्लमाहितं ।। ३७४३. वल्ली वा रुक्खो वा, सागारियसंतिओ भएज्ज परं। न्यायिक द्वारा इस प्रकार विग्रह का निबटारा करने पर
तेसि परिभोगकाले, समणाण तहिं कहं भणियं॥ प्रतिवादी शय्यातर को कहता है-मैं तुम्हारे वृक्ष की शाखाओं को वल्ली अथवा वृक्ष जो शय्यातर के अवग्रह में हैं, उनके काटता हूं। यह सुनकर शय्यातर कहता है-मेरे वृक्ष की शाखाओं फलपरिभोगकाल में श्रमणों के लिए क्यों कहा गया कि उनका को मत काटो। मैं तुम्हें फल बिना मूल्य दे दूंगा। 'इतने फल देने ग्रहण कल्पता है अथवा नहीं?
होंगे' इस वादे के साथ वह व्यवहार छिन्न हो गया। सामान्य रूप ३७४४. फणसंच चिंच तल-नालिएरिमादी हवंति फलरुक्खा। से यदि कहा जाता-'फल दातव्य हैं'-तो वह अच्छिन्न होता।
लोमसिय-तउसि-मुद्दिय, तंबोलादी य वल्लीओ॥ यथायोग दो सूत्रों का साफल्य बताया गया है। फलवृक्ष ये हैं-पनस, इमली, ताल, नालिकेर आदि। ३७५२. साधूणं वा न कप्पंति, सुत्तमाहु निरत्थयं। वल्ली ये हैं-ककड़ी, खीरे की बेल, ताम्बूलिका।
गेलण्णऽद्धाणओमेसु, गहणं तेसि देसियं। ३७४५. परोग्गहं तु सालेणं, अक्कमेज्ज महीरुहो। जिज्ञासु ने कहा-साधुओं को सचित्त फल लेना नहीं
छिंदामि त्ति य तेणुत्ते, ववहारो तहिं भवे॥ कल्पता, अतः दोनों सूत्र निरर्थक हैं। आचार्य कहते हैं-ग्लान
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