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________________ नौवां उद्देशक ३३९ नहीं? अवस्था में, मार्ग में, अवमौदर्य में उनका ग्रहण कथित है। अतः की मार्गणा होती है। प्रासुकभोजी श्रमण के लिए सचेतन द्रव्य सूत्र निरर्थक नहीं है। विषयक आधाकर्म आदि की मार्गणा नहीं होती, क्योंकि उसका ३७५३. अविरिक्कसारिपिंडो, सर्वथा अग्रहण है। विरिक्का वि सारि दिट्ठ न वि कप्पे। ३७५९. संजयहेउं छिन्नं, अत्तट्ठोवक्खडं तु तं कप्पे। अद्दिट्ठसारिएणं, अत्तट्ठा छिन्नं पि हु, समणट्ठा निट्ठियमकप्पं॥ कप्पंति तहिं व घेत्तुं जे॥ यहां भी चतुभंगी इस प्रकार हैअविभक्त होने पर (वे फल) सागारिक-शय्यातरपिंड हैं १. संयत के लिए छिन्न, संयत के लिए निष्ठित। अतः नहीं कल्पते। विभक्त होने पर भी यदि शय्यातर द्वारा दृष्ट हैं २. संयत के लिए छिन्न, अन्य के लिए निष्ठित। तो उनका ग्रहण नहीं कल्पता। शय्यातर द्वारा अदृष्ट ही ग्रहण ३. अन्य के लिए छिन्न, संयत के लिए निष्ठित। किए जा सकते हैं। ४. अन्य के लिए छिन्न, अन्य के लिए निष्ठित। ३७५४. एवं अत्तट्ठाए, सयं परूढाण वावि भणियमिणं। संयत के लिए छिन्न तथा आत्मार्थ उपस्कृत-यह दूसरा इणमन्नो आरंभो, समणट्ठा वाविए तम्मि।। भंग है। यह कल्पता है। जो आत्मार्थ छिन्न है परंतु श्रमण के लिए इस प्रकार आत्मार्थ आरोपित अथवा स्वयं द्वारा प्ररूढ़ वृक्ष निष्ठित है-यह तीसरा भंग अकल्प्य है। चौथा भंग सर्वथा शुद्ध संबंधी यह कथन है। अब श्रमण के लिए बोए गए वृक्ष संबंधी यह अन्य आरंभ है। ३७६०. बीयाणि च वावेज्जा, अगडं व खणेज्ज संजयट्ठाए। ३७५५. वल्लिं वा रुक्खं वा, कोई रोवेज्ज संजयट्ठाए। तेसि परिभोगकाले, समणाण तहिं कहं भणियं ॥ तेसि परिभोगकाले, समणाण तहिं कहं भणियं ।। कोई व्यक्ति श्रमण के लिए बीज बोए, कुआ खुदवाएकोई व्यक्ति श्रमण के लिए वल्ली अथवा वृक्ष को बो देता उनके परिभोगकाल में श्रमणों का कल्प-अकल्प क्या है? है। उनके फलपरिभोगमकाल में श्रमणों को वह कल्पता है अथवा ३७६१. दुच्छडणियं च उदयं, जइ हेउं निहितं च अत्तट्ठा। तं कप्पति अत्तट्ठा, कयं तु जइ निहितमकप्पं ।। ३७५६. तस्स कडनिट्ठियादी, चउरो भंगे विभावइत्ताण। (यहां भी पूर्ववत् चतुर्भंगी है। प्रथम भंग एकांत अशुद्ध तथा विसमेसु जाण विसम, नियमा तु समो समग्गहणे॥ चतुर्थभंग एकांत शुद्ध है।) दूसरे भंग के अनुसार किसी व्यक्ति ने इस विषयक चतुर्भंगी यह है श्रमणों के लिए तंदुल के दो-दो टुकड़े किए तथा श्रमणों के लिए १. संयत के लिए बोया और संयत के लिए ही अचित्त कुए से पानी मंगवाया, परंतु स्वयं के लिए दोनों को अचित्त किया। किया। यह कल्पता है। तीसरे भंग के अनुसार तंदुलों के दो-दो २. संयत के लिए बोया और दूसरे के लिए अचित्त किया। टुकड़े किए, कुएं से पानी मंगवाया-दोनों श्रमणों के लिए अचित्त ३. दूसरे के लिए बोया और संयत के लिए अचित्त किया। ४. दूसरे के लिए बोया दूसरे के लिए अचित्त किया। किया, अतः यह अकल्प्य है। इन चारों भंगों को जानकर विषम भंग (पहला तथा ३७६२. समणाण संजतीण व, दाहामी जो किणेज्ज अट्ठाए। तीसरा) में ग्रहण करना संयम को विषम करना है और समभंग गावी-महिसीमादी, समणाण तहिं कहं भणियं ।। (दूसरा तथा चौथा) में ग्रहण करना संयम को सम करना है-यह श्रमण, श्रमणियों को दूध आदि दूंगा, यह सोचकर कोई जानो। व्यक्ति उनके लिए गाय, भैंस आदि खरीदता है तो वहां श्रमण३७५७. कामं सो समणट्ठा, वुत्तो तह वि य न होति सो कम्म। श्रमणियों के कल्प्य-अकल्प्य की क्या मीमांसा है ? जं कम्मलक्खणं खलु, इह ई वुत्तं न पस्सामि॥ ३७६३. संजयहेउं दूढा, ण कप्पते कप्पते य सयमट्ठा। अनुमान कर लें कि वह वृक्ष श्रमण के लिए बोया गया है। पामिच्चिय-कीया वा, जदि वि य समणट्ठया घेणू।। फिर भी वह कर्म (आधाकर्म) नहीं होता, क्योंकि तीर्थंकरों ने जो श्रमणों के लिए गाय अथवा भैंस उधार लाई हो अथवा कर्म का लक्षण बताया है, वह यहां नहीं दिखाई देता। खरीदी हो और संयतों के लिए उनको दूहा हो तो वह दूध श्रमण३७५८. सच्चित्तभावविकलीकयम्मि दव्वम्मि मग्गणा होति। श्रमणियों को लेना नहीं कल्पता। कम्मगहणा उ दव्वे, सचेयणे फासुभोईणं॥ ३७६४. चेइयदव्वं विभज्ज, करेज्ज कोति नरो सयट्ठाए। सचित्तभाव से विकलीकृत-अर्थात् अचित्त किए हुए द्रव्य समणं वा सोवहियं, विक्केज्जा संजयट्ठाए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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