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________________ १९४ सानुवाद व्यवहारभाष्य २०४१. अणधिगतपुण्णपावं, उवट्ठवेंतस्स चउगुरू होति। २०४६. पिय-पुत्त खुड्ड थेरे, खुड्डगथेरे अपावमाणम्मि। आणादिणो य दोसा, मालाए होति दिटुंतो॥ सिक्खावण पण्णवणा, दिÉतो दंडियादीहिं।। पुण्य और पाप के अजानकार को उपस्थापना देने वाले को पिता-पुत्र दोनों सूत्रार्थ प्राप्त हैं तो दोनों को युगपद चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। आज्ञा आदि दोष होते हैं। उपस्थापित कर देना चाहिए। पुत्र यदि अप्राप्त है और पिता प्राप्त यहां माला का दृष्टांत है-(एक लकड़ी में शलों का प्रक्षेप कर है तो स्थविर की उपस्थापना करनी चाहिए। यदि पुत्र सूत्रादि से सुगंधित फूलों की माला को आरोपित करने पर लोग उसकी प्राप्त है और पिता सूत्रादिक को अभी प्राप्त नहीं है तो स्थविर का निंदा करते हैं। वैसे ही पुण्य-पाप के अज्ञाता में व्रतारोपण भी प्रयत्नपूर्वक शिक्षापण करना चाहिए। शिक्षापण न होने पर निंदा का कारण बनता है।) उसको प्रज्ञापना देते हुए दंडिक-राजा आदि का दृष्टांत कहना २०४२. उदउल्लादि परिच्छा, अहिगय नाऊण तो वते देति। चाहिए। एक्केक्कं तिक्खुत्तो,जो न कुणति तस्स चउगुरुगा। (एक राजा राज्यभ्रष्ट हो गया। वह अपने पुत्र के साथ दूसरे उदका आदि से परीक्षा। वृषभ उस उपसंपन्न मुनि के राज्य में चला गया। वह राजा इस पुत्र से संतुष्ट होकर उसको साथ गोचराग्र के लिए जाते हैं और स्वयं जल से आई हाथों से राजा बनाना चाहा। क्या पिता उसका अनुमोदन नहीं करेगा? या पात्र से भिक्षा ग्रहण करते हैं तब वह यदि कहता है-यह सूत्र वैसे ही हे स्थविर! तुम्हारा यह पुत्र महाव्रतों को प्राप्त करना में निषिद्ध है, आप कैसे ले रहे हैं? तब मानना चाहिए कि यह चाहता है। क्या तुम इसको मान्य नहीं करोगे?) सूत्रार्थ से परिणत है। यह जानकर गुरु उसे व्रत देते हैं। एक-एक २०४७. थेरेण अणुण्णाते उवट्ठऽणिच्छे व ठंति पंचाहं। व्रत का तीन-तीन बार उच्चारण करते हैं। जो ऐसा नहीं करता ति पणमणिच्छे उवरिं, वत्थुसहावेण जाहीयं॥ उसको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। स्थविर द्वारा अनुज्ञात होने पर पुत्र की उपस्थापना कर देनी २०४३. उच्चारादि अथंडिल, वोसिर ठाणादि वावि पुढवीए। चाहिए। यदि स्थविर की अनुज्ञा न हो तो पांच दिन तक रुक जाना चाहिए। यदि स्थविर तीन दिनपंचक तक अनुज्ञा न दे तो नदिमादि दगसमीवे, सागणि निक्खित्त तेउम्मि। क्षुल्लक को उपस्थापना दे दे। अथवा उस क्षुल्लक को और २०४४. वियणऽभिधारण वाते, हरिए जह पुढविए तसेसुं च। प्रतीक्षा कराए। वस्तु का स्वभाव है कि क्षुल्लक की उपस्थापना एमेव गोयरगते, होति परिच्छा उ काएहिं॥ हो जाने पर स्थविर अहंकार से ग्रस्त होकर उत्निष्क्रमण कर दे। षट्काय की यतना विषयक परीक्षा-उच्चार आदि का २०४८. दो थेर खुड्ड थेरे, खुड्डग वोच्चत्थ मग्गणा होति। अस्थंडिल में व्युत्सर्जन, कायोत्सर्ग आदि सचित्त पृथ्वी पर रणो अमच्चमादी, संजतिमज्झे महादेवी॥ करना, नदी तथा उदक के समीप और अग्निप्रदेश में उच्चार दो स्थविर अपने पुत्रों के साथ प्रव्रजित हुए। दोनों स्थविर आदि करना, वात विषय में बीजन (पंखे) को धारण करना, सूत्रार्थ को प्राप्त हो गए, पुत्र नहीं हुए। दोनों स्थविरों को हरितकाय पर उठना-बैठना, त्रसकायिक जीवों पर व्युत्सर्ग । उपस्थापना दे दी जाती है। यदि दोनों क्षुल्लक सूत्रार्थ को प्राप्त हो करना, बैठना आदि-इसी गोचराग्र पर गए हुए की षट्काय गए और स्थविर नहीं हुए तो पूर्वकथित विधि के अनुसार पंद्रह विषयक परीक्षा होती है। इन सबका यदि वह वारण करता है तो दिन तक प्रतीक्षा आदि करनी चाहिए। कदाचित् दोनों स्थविर मानना चाहिए कि उसमें सूत्रार्थ परिणत हुआ है। और एक क्षुल्लक सूत्रार्थ को प्राप्त हो जाएं तो उपस्थापना में २०४५. दव्वादिपसत्थवया, - विपर्यय होता है। अतः मार्गणा करनी होती है। राजा ओर अमात्य एक्केक्क तिगं तु उवरिमं हेट्ठा। आदि साथ-साथ प्रव्रजित हुए और सूत्रार्थ को प्राप्त हो गए हों तो दुविधा तिविधा य दिसा, दोनों को साथ उपस्थापना दी जाती है। यदि राजा प्राप्त है और आयंबिल निव्विगितिया वा॥ अमात्य नहीं है तो राजा को उपस्थापना दी जाती है। यदि अमात्य व्रता का आरोपण प्रशस्त द्रव्य आदि के निकट करना प्राप्त और राजा नहीं है तो पूर्ववत् प्रतीक्षा तथा शिक्षापना। चाहिए। व्रतों का उच्चारण तीन-तीन बार करना चाहिए। मूल से इसी प्रकार माता और पुत्री तथा महादेवी और अमात्यआरंभ कर उपरितन तक व्रत का उच्चार करे। साधु की दो पत्नी के विषय में जानना चाहिए। विस्तार के लिए टीका द्रष्टव्य दिशाएं हैं-आचार्य और उपाध्याय। साध्वी की तीन दिशाएं हैं-आचार्य, उपाध्याय और प्रवर्तिनी। उपस्थापना के पश्चात् २०४९. दो पत्त पिता-पुत्ता, एगस्स उ पुत्त पत्त न उ थेरा। तप कराया जाता है-आचाम्ल अथवा निर्विकृतिक। गहितो व सयं वितरति, राइणिओ होतु एस वि य॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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