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________________ पहला उद्देशक १८४. दुहओ भिन्नपलंबे, मासियसोही उ वणिया कप्पे। समस्त सावद्ययोगों से ऊपरत भिक्षु । तस्स पुण इमं दाणं, भणियं आलोयणविधी य।। १८९. भिक्खणसीलो भिक्खू अण्णे विन ते अणण्णवित्तित्ता। कल्पाध्ययन में द्विधाभिन्न-द्रव्यतः भिन्न तथा भावतः भिन्न निप्पिसितेणं णातं, पिसितालंभेण सेसा उ।। ताडफल के लिए मासिक प्रायश्चित्त प्रतिपादित है । इस व्यवहार 'भिक्षणशीलो भिक्षुः'-जो भिक्षा से जीवन चलाता है वह सूत्र में उसी प्रायश्चित्त की दानविधि और आलोचनाविधि कही भिक्षु है, यदि भिक्षु की यह परिभाषा मानी जाये तो अन्यान्य गयी है। (पुनः शब्द का तात्पर्य है कि केवल इसी मासिक भिक्षाजीवी भी इसके अंतर्गत आ जाते हैं। वे यथार्थ में भिक्षु नहीं प्रायश्चित्त की दानविधि और आलोचना विधि प्रतिपादित नहीं। है, क्योंकि वे अनन्यवृत्ति वाले नहीं होते अर्थात् वे केवल भिक्षाहै, किंतु अन्यान्य मासिक प्रायश्चित्तों की भी दानविधि और वृत्ति वाले नहीं होते। यहां एक उदाहरण है | जब तक मांस नहीं आलोचनाविधि व्यवहाराध्ययन में प्रतिपादित है।) मिलता तब तक मैं निःपिशित-पिशितव्रती हूं। (यह अन्यान्य १८५. एमेव सेसएसु वि, सुत्तेसुं कप्पनामअज्झयणे। भिक्षाजीवियों पर लागू होता है।) जहि मासिय आवत्ती, तीसे दाणं इहं भणियं ।। १९०. अविहिंस बंभचारी, पोसाहिय अमज्जमंसियाऽचोरा। इसी प्रकार कल्पाध्ययन के शेष सूत्रों में भी जहां मासिक सति लंभ परिच्चाई, होति तदक्खा न सेसा उ ।। आपत्ति-प्रायश्चित्त का विधान है, उसकी यहां दानविधि और कोई कहता है-मैं अहिंसक वृत्ति हूं, जब तक मैं मृग आदि आलोचनाविधि प्रतिपादित है। को नहीं देख लेता। कोई कहे-मैं ब्रह्मचारी हूं, जब तक मुझे स्त्री १८६. छट्ठअपच्छिमसुत्ते, जिण-थेराणं ठिती समक्खाया। नहीं मिल जाती। कोई कहे-मैं आहारपोषधी हूं, जब तक मुझे तधियं पि होति मासो, अमेरतो सो तु निप्फण्णो ।। आहार प्राप्त न हो। कोई कहे-मैं अमद्यमांसाशी हूं, जब तक मुझे छठे उद्देशक के अंतिम सूत्र में जिनकल्पिक मुनियों की। मद्य और मांस प्राप्त न हो जाये। मैं अचोर हूं, जब तक मुझे चोरी तथा स्थविरकल्पिक मुनियों की स्थिति आख्यात है। उसमें का अवसर नहीं मिलता। (ये सारे पूर्व श्लोकों-मांस की अप्राप्ति अपनी-अपनी कल्पस्थिति की मर्यादा का अतिक्रमण होने पर में पिशितक़्ती के तुल्य हैं।) जो वस्तु की प्राप्ति होने पर भी मासलघु प्रायश्चित्त का विधान है। उसका परित्याग करते हैं वे ही वास्तव में तदाख्या-अहिंसक, १८७. जे त्ति व से त्ति व के त्ति व, निद्देसा होंति एवमादीया। ब्रह्मचारी आदि कहलाने के योग्य होते हैं। शेष नहीं, क्योंकि भिक्खुस्स परूवणया, जे त्ति कओ होति निद्देसो।। इनमें प्रवृत्तिनिमित्त का अभाव है। 'जे', 'से', 'के' आदि शब्द निर्देशवाची हैं । 'जे भिक्खु' १९१. अधवा एसणासुद्धं, जधा गिण्हंति साधुणो। कहने पर भिक्षु की प्ररूपणा में निर्दिष्ट भिक्षु का ग्रहण होता है। भिक्खं नेव कुलिंगत्था, भिक्खजीवी वि ते जदि ।। १८८. नामं ठवणाभिक्खू, दव्वभिक्खू य भावभिक्खू य। अथवा जैसे साधु एषणादोषों (तथा उद्गम-उत्पादन दव्वे सरीरभविओ, भावेण तु संजतो भिक्खू ।। दोषों) से रहित शुद्ध भिक्षा ग्रहण करते हैं वैसे अन्यान्य वेशधारी भिक्षु शब्द के चार निक्षेप हैं-नामभिक्षु, स्थापनाभिक्षु, मुनि भिक्षाजीवी होने पर भी उनकी भिक्षा इन दोषों से रहित नहीं द्रव्यभिक्षु और भावभिक्षु । द्रव्यभिक्षु के दो भेद परिगृहीत होती। हैं-ज्ञशरीर और भव्य शरीर। भावभिक्षु होता है-संयत भिक्षु, १. शब्द के दो निमित्त होते हैं-व्युत्पत्तिनिमित्त और प्रवृत्तिनिमित्त । भिक्षु अवस्थाओं में प्रवृत्तिनिमित्त वर्तमान रहता है। वह है जो इहलोक का व्युत्पत्तिनिमित्त अर्थ है-जो भिक्षा लेता है वह भिक्षु है । उसका और परलोक की आशंसा से मुक्त है, यम-नियम में व्यवस्थित प्रवृत्तिनिमित्त अर्थ है-वह भिक्षु जो भिक्षणशील है अथवा नहीं। दोनों है-यह प्रवृत्तिनिमित्त है। (वृत्ति. पत्र ४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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