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________________ चौथा उद्देशक २११ पर सुख-दुःख निमित्त से उपसंपदा देने के कारण वह क्षेत्र चातुर्मास स्थापित कर लिया। दूसरे वाचनाचार्य ने क्षेत्र प्रवाचक का होता है। अथवा शिष्यों के निर्गत हो जाने पर जो प्रतिलेखकों को अन्यत्र भेजा और कहा-तुम क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा अभी वाचना दे रहा है, श्रुतस्कंध के समाप्त हो जाने पर वह क्षेत्र कर आओ तब तक मैं इन आचार्यों को यह श्रुत और अर्थ उसका आभाव्य होता है। समझाता हूं। उनका वह श्रुत समाप्त हो गया। इतने में ही वर्षा २२३५. दोण्ह वि विणिग्गतेसुं, वाएंतो तत्थ खेत्तिओ होति। बरसने लगी। न तो प्रत्युपेक्षक लौटकर आए और न वाचनाचार्य तम्मि सुए असमत्ते, समत्त तस्सेव संकमति॥ वर्षा के कारण वहां से जाने में समर्थ हुए। वहां वे चातुर्मास तक सभी शिष्यों के निर्गमन कर देने पर केवल दो वहां रहते हैं आत्मगतलाभ प्राप्त करते हैं। श्रुत के व्यवच्छिन्न (समाप्त) होने तो जब तक श्रुत समाप्त नहीं होता तब तक प्रवाचक क्षेत्रिक होता पर वाचनाचार्य ग्लान हो गए तो ग्लान का ही आभवनव्यवहार है। श्रुत के समाप्त हो जाने पर वह क्षेत्र पूर्वस्थित मुनियों में होता है। दोनों आचार्यों के आत्मसमुत्थ लाभ होता है। संक्रांत हो जाता है। २२४२. अध पुण अच्छिण्णसुते, ते आया बेंतिमे न तुब्भे तु। २२३६. संथरे दो विन प्रिंति, तेहिं उववाइया तु जदि सीसा। अम्हे खेत्तं देमो, साधारण तम्मि तेसिं तु॥ ___लाभो नत्थि महं ति य, अहव समत्ते पधावेज्जा।। अथ श्रुतस्कंध आदि समाप्त नहीं हुआ है, वे प्रत्युपेक्षक भी दोनों (आगंतुक तथा पूर्वस्थित) के संस्तरणा होती है तो आ गए हैं तब वाचनाचार्य दूसरे आचार्य से कहते हैं-हम यहां से निर्गमन नहीं होता है। यदि पूर्वस्थित मुनियों ने अनेक शिष्यों का निर्गमन करना चाहते हैं। तब वे कहते हैं-तुम यहां से मत जाओ। उत्पादन किया है तो आगंतुक सोचता है मेरे कोई लाभ नहीं है, हम आपको क्षेत्र देंगे। ऐसा कहने पर वह क्षेत्र दोनों का होता है। यह सोचकर वह वहां से चला जाता है। अथवा श्रुत के समाप्त २२४३. असंथरण णितऽणिते,चउभंगो होति तत्थ वि तधेव। होने पर चला जाता है। ___ एवं ता खेत्तेसुं, इणमन्ना मग्गणविधादी॥ २२३७. जदि वायगो समत्ते, शिंतो तु पडिच्छितेहि रुंभेज्जा। असंस्तरण की स्थिति में निर्गमन करने वाले तथा निर्गमन असिवादिकारणे वा, न जिंत लाभो इमो होति॥ न करने वाले साधुओं की चतुर्भंगी होती है। इस चतुर्भंगी में यदि श्रुत के समाप्त होने पर वाचक निर्गमन करता है तब पूर्ववत् ही आभवनव्यवहार होता है। क्षेत्र संबंधी मार्गणा की प्रतीच्छक उसको रोकते हैं अथवा निर्गत होकर अशिव आदि जाती है। प्रस्तुत में यह अन्य मार्गणाविधि आदि है। आदि शब्द कारणों से निर्गमन नहीं करता तो उसको यह लाभ होता है- से दिगवारण का ग्रहण किया गया है। २२३८. आयसमुत्थं लाभ, सीसपडिच्छेहि सो लभति रुद्घो। २२४४. अद्धाणादिसु नट्ठा, अणुवट्ठविता तहा उवट्ठविया। एवं छिण्णुववाते, अछिण्ण सीसा गते दोण्हं।। अगविट्ठा य गविट्ठा, निप्फण्णा धारणदिसासु॥ प्रातीच्छिकों द्वारा निर्गमन अवरुद्ध किए जाने पर जो लाभ मार्ग आदि में गण से बिछड़ने वाले साधु दो प्रकार के होते स्वयं को होता है, शिष्य और प्रातीच्छिकों द्वारा लब्ध भी। हैं-अनुपस्थापित और उपस्थापित। इन दोनों के दो-दो प्रकार आत्मसमुत्थ लाभ स्वयं को मिलता है। इस प्रकार छिन्न-समाप्त हैं-गवेषित और अगवेषित। जो निष्पन्न और उपस्थापित हैं श्रुतस्कंध आदि में आभवन होता है। श्रुत के असमाप्त स्थिति में उनका दिग्वारण नहीं, दूसरों का दिग्वारण करना चाहिए। शिष्यों के ग्रामांतर जाने-आने पर दोनों के लाभ होता है। २२४५. संभममहंतसत्थे, भिक्खायरिया गता व ते नट्ठा। २२३९. एवं ता उडुबद्धे, वासासु इमो विधी हवति तत्थ । सिग्घगतिपरिरएण व, आउरतेणादिएसुं वा॥ खेत्तपडिलेहगा तू, पवट्टिया तेण अन्नत्थ। बिछड़ने के ये कारण हैं-संभ्रम हो जाने पर, महान् सार्थ के २२४०. जा तुब्भे पेहेहा, तातेसिं इमं तु सारेमि। साथ आगे पीछे रह जाने पर, सार्थ का साथ छोडकर भिक्षाचर्या तं च समत्ते तेसिं, वासं व पबद्धमालग्गं॥ के निमित्त इधर-उधर जाने पर पृथक् रह जाना, सार्थ के साथ २२४१. निग्गंतूण न तीरति, चउमासे तत्थ लाभमायगतं। शीघ्रगति से न चल सकने के कारण, मार्गगत नदी के परिरय-- लभते वोच्छिण्णेवं, कुव्वंति गिलाणगस्स वि य॥ थोड़े पानी में उतर कर पार करने की चिंता में सार्थ से पीछे रह _यह आभवन व्यवहार की विधि ऋतुबद्ध काल की है। जाना अथवा आतुर-पहले तथा दूसरे परीषह से बाधित होकर वर्षाकाल की विधि यह है-दो आचार्य साधारण क्षेत्र में स्थित थे। क्लांत हो जाना, चोर आदि के भय से पथच्युत हो जाना-इन एक आचार्य ने दूसरे के पास उपसंपदा ग्रहण कर ली। उसने वहीं सभी कारणों से साधु मार्ग में गणच्युत हो जाते हैं। १. १. वास्तव्य साधुओं का चतुर्भाग की विधि से निर्गमन, न वाचनाचार्य का। २. वाचनाचार्य का, न वास्तव्य का। ३. दोनों का ४. दोनों का नहीं। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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