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सानुवाद व्यवहारभाष्य
आभाव्य क्षेत्र नहीं होता। २२२४. अण्णागते कहतो, उवसंपण्णो तहिं च ते सव्वे।
संकंतं तु कहंती, साधारण तस्स जो भागो॥ - कोई बहुश्रुत आचार्य पश्चात् आया है और वे सभी पूर्वस्थित उसके पास उपसंपन्न हो जाते हैं तब वह अवग्रह उस आचार्य में संक्रांत हो जाता है। पूर्वस्थित में से कोई एक उस आचार्य के पास उपसंपन्न होता है, तो अवग्रह का उसका भाग संक्रांत होता है, सबका नहीं। २२२५. निक्खित्तगणाणं वा, तेसिं वि य होति तं तु खेत्तं त।
खेत्तभया वा कोई माइट्ठाणेण सुण एवं ।। कोई आचार्य अपने गण का निक्षेप कर (गीतार्थ शिष्य को सौंप कर) आगंतुक के पास उपसंपन्न हो जाता है तब वह क्षेत्र निक्षिप्त गण वालों का होता है। क्षेत्र संक्रांत होने के भय से मातृस्थान-माया से कोई इस प्रकार सुनता है। २२२६. कुड्डेण चिलिमिणीए, अंतरितो सुणति कोई माणेणं।
अधवा चंकमणीयं, करेंत पुच्छागमो तत्थ॥ कोई भींत अथवा चिलिमिलिका से अंतरित होकर कोई मानपूर्वक-क्षेत्रगर्व से अथवा चंक्रमिका करता हुआ सुनता है अथवा कोई ऐसा न भी सुने फिर भी पृच्छागम तो हो ही सकता है, पृच्छा करनी चाहिए। २२२७. पुच्छाहि तीहि दिवसं,सत्तहि पुच्छाहि मासियं हरति ।
अधवा विसेसमन्नो, इमो तु तहियं अहिज्जते॥
तीन पृच्छाओं से एक दिन का और सात पृच्छाओं से एक मास के लाभ का अपहरण कर लिया जाता है अर्थात् इस कालावधि में जो लाभ होता है वह 'कथयन' (आगंतुक बहुश्रुत) का होता है, दूसरे का नहीं। अथवा यह अन्य विशेष उस अध्यापक का होता है। २२२८. जदि निक्खिविऊण गणं,उवसंपाएऽहवा वि सीसं तु।
तो तेसिं चिय खेत्तं, वायंतो लाभ खेत्तबहिं।।
यदि गीतार्थ को गण देकर उस आगंतुक के पास उपसंपदा ग्रहण करता है अथवा शिष्य को भेजता है तो पूर्वस्थित मुनियों का ही वह क्षेत्र आभाव्य होता है। वाचना देने वाले के लिए क्षेत्र के बाहिर् आभाव्य क्षेत्र होता है। २२२९. अह बेती वायंतो, लाभो णो नत्थि हं ति वच्चामो।
इतरेहि य सो रुद्धो, मा वच्चसु अम्ह साधारं
अथवा वाचक कहता है-यहां हमारे कोई लाभ नहीं है अतः हम अन्यत्र जाते हैं। यह सुनकर दूसरे मुनि उसे रोकते हुए कहते हैं-तुम यहां से मत जाओ। तुम्हारा और हमारा यह क्षेत्र साधारणरूप से होगा।
२२३०. निग्गमणे चउभंगो, निहित सुहदुक्खयं जदि करेंति।
निहित पधावितो वा, रुद्धो पच्छा य वाघातो।। निर्गमन संबंधी चतुर्भंगी, निष्ठित, सुखदुःख के निमित्त उपसंपन्न होते हैं, निष्ठित, प्रधावित अथवा रुद्ध, पश्चात् व्याघात। (यह द्वार गाथा है। इसकी व्याख्या आगे के श्लोकों में २२३१. वत्थव्व णेति न उ जे, ऊ पाहुण पाहुणाण इतरो वा।
उभयं च नोभयं वा, चउभयणा होति एवं तु॥ निर्गमन की चतुर्भगी१. आगंतुकभद्रक न वास्तव्यभद्रक। २. वास्तव्यभद्रक न आगंतुकभद्रक। ३. आगंतुकभद्रक तथा वास्तव्यभद्रक। ४. न आगंतुकभद्रक न वास्तव्यभद्रक।
प्रथम भंग के अनुसार वास्तव्य निर्गमन करते हैं, न प्राघूर्णक। दूसरे भंग के अनुसार प्राघूर्णक निर्गमन करते है, वास्तव्य नहीं। तीसरे भंग के अनुसार दोनों निर्गमन नहीं करते और चौथे भंग के अनुसार दोनों निर्गमन करते हैं। इस प्रकार चतुर्भजना-चतुभंगी होती है। २२३२. आगंतु भद्दगम्मी, पुव्वठिता गंतु जइ पुणो एज्जा।
तम्मि अपुण्णे मासे, संकमति पुणो वि सिं खेत्तं॥
यदि आगंतुक नियोक्ता हो और पूर्वस्थित मुनि वहां से विहार कर यदि उसी क्षेत्र में एक मास के पूर्ण होने से पहले ही वहां लौट आते हैं तो उनके वह क्षेत्र संक्रांत हो जाता है उनके लिए वह क्षेत्र आभाव्य हो जाता है। २२३३. वत्थव्वभद्दगम्मी, संघाडग जतण तह वि उ अलंभे।
आगंतुं ऐति ततो, अच्छति उ पवायगो नवरं।। वास्तव्यभद्रक यदि नियोक्ता हो और आगंतुकभद्रक को पर्याप्त न मिलता हो तो वास्तव्यभद्रक का एक संघाटक उनके साथ भिक्षा के लिए घूमता है। फिर भी अलाभ हो तो आगंतुकों का चतुर्भाग निर्गमन कर लेता है। उससे भी यदि संस्तरण न हो तो चतुर्भाग की विधि से आगंतुक तथा वास्तव्य मुनि निर्गमन करते हैं। केवल एक प्रवाचक वहां रहता है जो वास्तव्यों को वाचना देता है। उसका संस्तरण न होने पर वह भी अपने शिष्यों के साथ निर्गमन कर देता है। यदि उस समय वास्तव्य मुनि कहते हैं-मत जाओ। यह क्षेत्र दोनों का साधारण रूप से आभाव्य होगा। यदि जाकर वे एक मास के भीतर लौट आते हैं तो वह क्षेत्र उनमें आभाव्यतया संक्रमित हो जाता है। २२३४. सुहदुक्खितो समत्ते, वाएंतो निग्गतेसु सीसेसु।
वाइज्जंतो वि तधा, निग्गतसीसो समत्तम्मि।। शिष्यों के निर्गत हो जाने पर भी प्रवाचक श्रुत के पूर्ण होने
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