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पांचवां उद्देशक
पीड़ित हो तो अनुज्ञा लेकर निषद्या में बैठकर आलोचना कर सकता है।
२३७४. दिट्ठीय होंति गुरुगा,
सविकारा ओसर त्ति सा भणिता । तस्स विवहित रागे,
तिगिच्छ जतणाय कातव्वा ॥ यदि श्रमण-श्रमणी सविकार दृष्टि से देखते हैं तो चार गुरुक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। सुंदर श्रमणी को देखकर आलोचनाचार्य उसे कहे-चली जाओ और वह वहां से चली जाती है, फिर भी यदि आलोचनाचार्य का उसके प्रति रागभाव विवर्द्धित हो तो उसकी यतनापूर्वक चिकित्सा करती चाहिए। २३७५. अण्णेहि पगारेहि, जाहे नियत्तेउ सो न तीरति उ । घेत्तूणाभरणाई, तिगिच्छ जतणाय कातव्वा ॥ यदि वह अन्य प्रकार से उस रागभाव को निवर्तित न कर सके तो उस श्रमणी के आभरण-वस्त्रों को लेकर यतनापूर्वक चिकित्सा करनी चाहिए।
२३७६. जारिसिसिचएहि ठिया, तारिसएहिं तमस्सणी वरिया। संभलि विणोयकेतण, विलेवणं चिहुरगंडेहिं ॥ जिन वस्त्रों में वह श्रमणी प्रावृत थी, उन्हीं वस्त्रों में एक तरुण मुनि को प्रावृत करे और अंधेरी रात में एक निर्जन स्थान में बिठाकर एक संभली- दूती को भेजकर केतन - संकेत दिया जाता है। वह वाचनाचार्य वहां आता है और स्त्रीवेशधारिणी के गंडस्थल तथा केशों के साथ विलपन-क्रीडन करता हैं। २३७७. अधवा वि सिद्धपुत्तिं, पुव्वं गमिऊण तीय सिचएहिं । आवरिय कालियाए, सुण्णागारादि संमेलो ॥ अथवा सिद्धपुत्री से पहले मिलकर उस श्रमणी जैसे वस्त्र पहनाकर कालरात्रि में शून्यगृह आदि में उस मुनि के साथ संगम कराया जाता है।
२३७८. गीतत्था कयकरणा, पोढा परिणामिया य गंभीरा ।
चिरदिक्खिया य वुड्डा, जतीण आलोयणा जोग्गा ।। आलोचनार्ह कौन ? जो गीतार्थ है, कृतकरण-अनेक बार आलोचना में सहायक बना हो, प्रौढ़ तथा पारिणामिक है, गंभीर है, चिरदीक्षित है, श्रुत और पर्याय से वृद्ध है - इस प्रकार के व्यक्ति मुनियों (तथा साध्वियों) को आलोचना देने के लिए योग्य होते हैं।
२३७९. आलोयणाय दोसा, वेयावच्चे वि होंति ते चेव ।
नवरं पुण नाणत्तं, बितियपदे होति कायव्वं ॥ विपक्ष से आलोचना करने में जो दोष हैं वे ही दोष वैयावृत्त्य करने में हैं। जो नानात्व है वह द्वितीयपद - अपवाद में करणीय होता है।
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सभावाणुलोमभुंजेहिं । कढणयियाण व मणं, वंकंतऽचिरेण कइतविया ॥
२३८०. उडुभयमाणसुहेहिं, देह
प्रत्येक ऋतु में जिनका सेवन सुखदायी होता है और जिनके देह का स्वभाव अर्थात् स्वरूप अनुलोम है अर्थात् सभी इंद्रियां पूर्ण जागृत हैं, ऐसी संयतियां मुनि के वैयावृत्त्य में व्यापृत हैं तथा उनके द्वारा लाए गए आहार का श्रमण उपभोग करते हैं, उन कठोर हृदयवाले श्रमणों का भी मन शीघ्र ही बाधित हो जाता है। क्योंकि स्त्रियां कपटपटु होती हैं।
२३८१. जह चैव य बितियपदे, दलंति आलोयणं तु जतणाए । एमेव य बितियपदे, वेयावच्चं तु अण्णोणे ॥ जैसे द्वितीयपद - अपवाद पद में विपक्ष में भी यतना से श्रमणियां श्रमणों से आलोचना प्राप्त करती हैं, इसी प्रकार अपवाद पद में परस्पर वैयावृत्त्य भी कर सकती हैं। २३८२. भिक्खू मयणच्छेवग, एतेहि गणो उ होज्ज आवण्णो ।
वायपराइओ वा से, संखडिकरणं च वित्थिण्णं ॥ कोई भिक्षूपासक (बौद्ध) विषमिश्रित आहार दे दे अथवा मदनकोद्रवक्रूर दे दे अथवा छेवरा-मारि का प्रकोप हो जाए-इन कारणों से गण आपद्ग्रस्त हो जाता है । अथवा वाद में पराजित होकर कोई द्विष्ट हो जाता है। वह आकर कहता है-मैंने साधुओं के लिए अत्यधिक परमान्न का भोजन उपस्कृत किया। (व्याख्या. आगे)
२३८३. कइतवधम्मकधाए, आउट्टो बेति भिक्खुगाणट्ठा । परमण्णमुवक्खडियं, मा जातु असंजयमुहाई ॥ २३८४. तं कुणहऽणुग्गहं मे, साहूजोग्गेण एसणिज्जेण । पडिलाभणाविसेणं, पडिता पडिती य सव्वेसिं ॥ धर्मकथा को सुनकर कोइ प्रभावित होने का बहाना बनाकर कपटपूर्वक कहता है-भंते! मैंने (बौद्ध) भिक्षुओं के लिए प्रभूत परमान्न उपस्कृत करवाया है। वह भोजन असंयतों के मुख में न जाए, इसलिए आप मेरे पर अनुग्रह करें और साधुयोग्य एषणीय आहार ग्रहण करें। उसने वह विषमिश्रित भोजन साधुओं को दिया। साधुओं ने उसे खाया। सभी की पतिति - मृत्यु हो गई अर्थात् सभी रोगग्रस्त हो गए।
२३८५. आयंबिल खमगाऽसति, लद्वाण चरंतएण उ विसेण ।
बितियपदे जतणाए, कुणमाणि इमा तु निद्दोसा | (ऐसी स्थित में वहां ) आचाम्ल ( आचाम्ल करने वाले ?) अथवा क्षपक (तपस्वी) के अभाव में उस संचरिष्णु विष से ग्रस्त साधुओं की अपवाद पद में यतनापूर्वक वैयावृत्त्य करने वाली ये साध्वियां निर्दोष होती हैं
२३८६. संबंधिणि गीतत्था, ववसायि थिरत्तेण य कतकरणा । चिरपव्वइया य बहुस्सुता परीणामिया जाव ॥
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