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________________ २२४ सानुवाद व्यवहारभाष्य २३६४. वंदत वा उढे वा, गच्छो तध लहुसगत्त आणयणे। (अतःश्रमणों के समक्ष ही आलोचना करनी चाहिए।) विगडेंत पंजलिउडं, दट्ठणुड्डाह कुवियं तू॥ २३६९. असती कडजोगी पुण, मोत्तूणं संकिताई ठाणाई। विपक्ष से आलोचना लेने पर ये दोष भी होते आइण्णे धुवकम्मिय, तरुणी थेरस्स दिट्ठिपधे।। हैं-अविश्वास, निर्भयता, प्रायश्चित्त की प्रेरणा-जैसे यदि आचार्य आर्यरक्षित के काल में भी श्रमणियां मूलनिग्रंथी महत् प्रायश्चित्त देती है तो वह निग्रंथ कहता है-इसका गुणापराध की आलोचना श्रमणियों के पास करती थीं। उनके इतना प्रायश्चित्त नहीं आता, इतना मात्र आता है। ये दोष निग्रंथ अभाव में कृतयोगी-छेदग्रंथधर स्थविर के समक्ष शंकित स्थानों में निग्रंथी से आलोचना लेने पर होते हैं। निग्रंथी निग्रंथ के पास का वर्जन करती हुई उचित प्रदेश में श्रमणी आचीर्ण अपराध की अपने दोष प्रकाशित करती हुई गम्य हो जाती है-निग्रंथ कहता आलोचना करती है। ध्रुवकर्मिक दृष्टिपथ में हो, दीख रहा हो तो है-तुम भी मेरे साथ यह दोष सेवन करो, फिर प्रायश्चित्त (यवनिका से अंतरित होकर) तरुणी श्रमणी स्थविर के पास, देंगे.....। (स्थविरा श्रमणी स्थविर के पास, स्थविरा तरुण के पास, तरुणी वंदना करते हुए, उठते हुए, जाते हुए, अपना तुच्छ दोष तरुण के पास) आलोचना कर सकती है। बतलाते हुए, आलोचना करते हुए, हाथ जोड़ते हुए साध्वियों को २३७०. सुण्णघर देउलुज्जाण-रण्ण पच्छण्णुवस्सयस्संतो। देखकर लोग उड्डाह करते हैं, .....? एय विवज्जे ठायंति, तिण्णि चउरोऽहवा पंच॥ २३६५. तो जाव अज्जरक्खित, आगमववहारतो वियाणेना। शंकित स्थान ये हैं-शून्यगृह, देवकुल, उद्यान, अरण्य, न भविस्सति दोसो त्ती, तो वायंती उ छेदसुतं। प्रच्छन्नस्थान, उपाश्रय का अंतर। इन स्थानों को छोड़कर ' आचार्य आर्यरक्षित तक आगमव्यवहारी थे। आगम- आलोचना के निमित्त तीन, चार अथवा पांच मुनि रहते हैं। व्यवहार से यह जानकर कि श्रमणियों को छेदसूत्र की वाचना देने २३७१. थेरतरुणेसु भंगा, चउरो सव्वत्थ परिहरे दिडिं। में कोई दोष नहीं है, वे छेदसूत्र की वाचना भी देते थे। दोण्हं पुण तरुणाणं, थेरे थेरी य पच्चुरसिं॥ २३६६. आरेणागमरहिया, मा विद्दाहिंति तो न वाएंति। स्थविर-तरुण संबंधी चार भंग पहले (६९ में) कहे जा तेण कधं कुव्वंतं, सोधिं तु अयाणमाणीओ॥ चुके हैं। उन सब में यवनिका का अवकाश न हो तो दृष्टि का उसके पश्चात् आगमव्यवहारी नहीं रहे। उन्होंने अवश्य परिहार करे। (श्रमणी भूमिगत दृष्टि रखकर आचोलना सोचा-छेदसूत्र के अध्ययन से निग्रंथीयां विनष्ट न हों, इसलिए करे।) यदि दोनों तरुण हों तो स्थविर तथा स्थविरा ये दो प्रत्युरस उनको छेदसूत्र की वाचना नहीं दी जाती। यहां प्रश्न होता है कि अर्थात् प्रत्यासन्न सहायक दिए जाते है (इस प्रकार इस चौथे भंग श्रुत के अध्ययन के अभाव में, उसको नहीं जानती हुई श्रमणियां में चार हो जाते हैं।) प्रायश्चित्त-शोधी कैसे करती हैं? २३७२. थेरो पुण असहायो, निग्गंथी थेरिया वि ससहाया। २३६७. तो जाव अज्जरक्खिय,सट्ठाण पगासयंसु वतिणीओ। सरिसवयं च विवज्जे, असती पंचम पहुं कुज्जा। असतीय विवक्खम्मि वि, एमेव य होति समणा वि ॥ तीसरे भंग में स्थविर असहायक हो किंतु तरुणी श्रमणी आचार्य आर्यरक्षित के समय तक श्रमणियां स्वस्थान- को सहायक के रूप में एक स्थविरा दी जाती है। दूसरे भंग में स्वपक्ष में आलोचना प्रकाशित करती थीं। स्वपक्ष के अभाव में निग्रंथी स्थविरा को भी ससहाया करनी चाहिए। आलोचनार्ह विपक्ष अर्थात् श्रमणों के समक्ष आलोचना करती थीं। इसी प्रकार तरुण मुनि के पास सहायक हो या न हो, कोई दोष नहीं है। सदृश श्रमण भी स्वपक्ष में आलोचना करते थे। स्वपक्ष के अभाव में वयवालों को सहायक बनाने का वर्जन करे। यदि यह संभव न हो विपक्ष अर्थात् श्रमणियों से भी आलोचना ग्रहण करते थे। तो सदृशवय को भी सहायक बनाया जा सकता है। प्रथम और २३६८. मेहुणवज्जं आरेण, केइ समणेसु ता पगासेंति। चौथे भंग में (पटु) क्षुल्लक अथवा क्षुल्लकी को पांचवें रूप में तं तु न जुज्जति जम्हा, लहुसगदोसा सपक्खे वि॥ दें। आचार्य आर्यरक्षित के पश्चात् श्रमणियां श्रमणों के पास २३७३. ईसिं ओणा उद्धट्ठिया उ आलोयणा विवक्खम्मि। मैथुनसंबंधी अतिचारों को छोड़कर शेष अतिचारों की आलोचना सरिपक्खे उक्कुडुओ, पंजलिविट्ठो वणुण्णातो।। करती थीं। श्रमणियां मैथुनसंबंधी अतिचार की आलोचना विपक्ष में अर्थात् श्रमण के पास श्रमणी आलोचना करे तो श्रमणियों से ही करती थीं। यह कुछेक आचार्यों का अभिमत है। वह खड़ी-खड़ी कुछ अवनत होकर आलोचना करे। सपक्ष में यह उपयुक्त नहीं है, क्योंकि अपना तुच्छ दोष स्वपक्ष के समक्ष अर्थात् श्रमण श्रमण के पास आलोचना करे तो वह उत्कटुक अभिव्यक्त करने पर स्वपक्ष उनका परिभव कर सकता है। आसन में हाथ जोड़कर आलोचना करे। यदि वह व्याधि से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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