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हैं। तब मंडली में संभोजन किया जाता है। ४६५०. अधव अणाभोगेणं, सहसक्कारेण व होज्ज संभुत्तो।
ओमम्मि व मा हु ततो, विप्परिणामं तु गच्छेज्जा। अथवा अनाभोग-अज्ञात अवस्था में, सहसाकार से मंडली में उसका संभोजन होता है। दुर्भिक्ष के समय वह विपरिणत होकर संयम छोड़कर चला न जाए इसलिए उसके साथ भोजन होता है। ४६५१. अदिक्खायंति वोमे मं, इमे पच्छन्नभोजिणो।
परोऽहमिति भावेज्जा, तेणावि सह भुंजते॥
ये मुनि प्रच्छन्नभोजी हैं। दुर्भिक्षकाल में ये मुझे अदीक्षित करना अर्थात् दीक्षा से बाहर कर देना चाहते हैं। मैं इनके लिए दूसरा हूं-यह भावना उसके मन में आ सकती है, इसलिए उसको (उपस्थापित कर) उसके साथ भोजन करते हैं। ४६५२. लेहऽट्ठट्ठमवरिसे उवठ्ठामो पसंगतो।
उद्दिसे सेससुत्तं पि, सुत्तस्सेस उवक्कमो॥ रेखास्थ अष्टम वर्ष अर्थात् परिपूर्ण अष्टम वर्ष वाले बालक को उपस्थापित किया जाता है। इस प्रसंग से शेष सूत्रों का भी उसे उद्देश न दे दिया जाए-यह प्रस्तुत सूत्र का उपक्रम है, संबंध
४६५३. अहियऽट्ठमवरिसस्स वि,
आयारे वि पढितेण तु पकप्पं । देति अवंजणजातस्स,
वंजणाणं परूवणा॥ ४६५४. जधा चरित्त धारेउं, ऊणट्ठो तु अपच्चलो।
तहाविऽपक्कबुद्धी उ, अववायस्स नो सहू॥ . जो आठ वर्ष से अधिक वय वाला है, जिसने आचारांग पढ़ लिया है फिर भी यदि वह अव्यंजनजात है अर्थात् जिसके व्यंजन-उपस्थरोम नहीं उगे हैं, तो उसे आचार्य आचारप्रकल्प की वाचना नहीं देते। व्यंजनों की प्ररूपणा सूत्र की व्याख्या में की जा चुकी है। जैसे-चारित्र को धारण करने में ऊनाष्टवर्षीय बालक असमर्थ होता है वैसे ही अपरिपक्वबुद्धि वाला मुनि अपवादपदों को धारण करने में असमर्थ होता है, उनको सहन नहीं कर सकता। ४६५५. चउवासे सूतगडं, कप्पव्ववहार पंचवासस्स।
विगट्ठठाण समवाओ, दसवरिस वियाहपण्णत्ती॥
चार वर्ष के संयम-पर्याय वाले को सूत्रकृत, पांच वर्ष वाले को कल्प और व्यवहार, विकृष्ट अर्थात् छह वर्ष से नौ वर्ष वाले को ठाणं और समवाय, दस वर्ष वाले को विवाहप्रज्ञप्ति (व्याख्याप्रज्ञप्ति) की वाचना दी जा सकती है। ४६५६. चउवासो गाढमती, न कुसमएहिं तु हीरते सो उ।
पंचवरिसो उ जोग्गो, अववायस्स त्ति तो देति॥
सानुवाद व्यवहारभाष्य ४६५७. पंचण्हुवरि विगट्ठो, सुतथेरा जेण तेण उ विगट्ठो।
ठाणं महिड्ढियं ति य, तेण दसवासपरियाए।
चार वर्ष की संयमपर्याय वाला मुनि धर्म में गाढ़मतिवाला होता है। अतः वह कुसमय-कुतीर्थिकों के सिद्धांतों से अपहृत नहीं होता। पांच वर्ष की संयम पर्यायवाला मुनि अपवादों को धारण करने योग्य होता है इसलिए उसे दशा-कल्प और व्यवहार की वाचना दी जाती है। पांच वर्षों से ऊपर का संयमपर्याय विकृष्ट कहलाता है। स्थानांग और समवायांग के अध्ययन के बिना कोई श्रुतस्थविर नहीं होता। इस विकृष्ट पर्याय (छह से नौ) के बिना उनका अध्ययन नहीं होता। अतः उसका यहां निर्देश है तथा स्थानांग और समवायांग महर्धिक है, इसलिए इनसे परिकर्मित मतिवाले को दस वर्ष की संयमपर्याय में व्याख्याप्रज्ञप्ति की वाचना दी जा सकती है। ४६५८. एक्कारसवासस्सा, खुड्डि-महल्ली-विमाणपविभत्ती।
कप्पति य अंगुवंगे, वीयाहे चेव चूलीओ। ४६५९. अंगाणमंगचूली, महकप्पसुतस्स वग्गचूलीओ।
वीयाहचूलिया पुण, पण्णत्तीए मुणेयव्वा।। / ग्यारह वर्ष की संयमपर्याय वाले मुनि को क्षुल्लिका और महती विमानप्रविभक्ति (जिनमें कल्पस्थित विमानों का संक्षिप्त और विस्तृत वर्णन है) तथा अंग और वर्ग चूलिकाओं की वाचना दी जा सकती है।
(अंगों की चूलिका अंगचूली-अर्थात् पांच अंग उपासकदशा आदि की चूलिका (निरयावलिका) तथा महाकल्पश्रुत की चूलिका-वर्गचूलिका तथा व्याख्याप्रज्ञप्ति की व्याख्या चूलिका जाननी चाहिए। ४६६०. बारसवासे अरुणोववाय वरुणो य गरुलवेलंधरो।
वेसमणुववाए य तधा, एते कप्पंति उद्दिसिउं।' .../ बारह वर्ष की संयम-पर्याय वाले मुनि को इनकी उद्देशना देना कल्पता है-अरुणोपपात, वरुणोपपात, गरुडोपपात, वेलंधरोपपात तथा वैश्रमणोपपात। ४६६१. तेसिं सरिनामा खलु, परियटुंती य एंति देवा उ।
अंजलिमउलियहत्था, उज्जोवेंता दसदिसा उ॥ ४६६२. नामा वरुणा वासं, अरुणा गरुला सुवण्णगं देति।
आगंतूण य बेंती, संदिसह उ किं करेमो त्ति॥
जब इन ग्रंथों का (तद्-तद् देवताओं का मन में प्रणिधान कर) परावर्तन करते हैं तब अध्ययनों के सदृश नामवाले देवता अंजलि को मुकुलित किए हुए अर्थात् हाथ जोडे. हुए दशों दिशाओं को उद्योतित करते हुए वहां आते हैं। वरुण देवता गंधोदक की वर्षा करते है। अरुण और गरुड़ देवता सुवर्ण देते हैं। वे निकट आकर कहते हैं आप आज्ञा करें कि हम क्या करें ?
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