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________________ सातवां उद्देशक २६७ दो नए घर निर्मित हुए। एक था जंबूगृह और दूसरा था २८८७. दटुं साहण लहुओ, वीसु करेंताण लहुग आणादी। वटगृह। दोनों में कपोतों का प्रवेश हो गया। दोनों गृहस्वामियों ने अद्धाणनिग्गतादी, दोण्हं गणभंडणं चेव।। एक साथ नैमित्तिक से पूछा। नैमित्तिक ने कहा-इनके अशुभ जो केवल देखकर कारणों को न जानता हुआ, गुरु से निवारण का यही उपाय है कि तुम दोनों एक-दूसरे के घर में प्रवेश निवेदन करता है, उसे लघुमास का प्रायश्चित्त और जो बिना करो और कुछ समय तक वहां रहकर फिर अपने-अपने घर में आ चिंतन किए विसांभोजिक करते हैं उन गुरु को चार लघुमास का जाना। एक दिन प्राघूर्णक मुनि आ गए। जंबूगृह के वास्तव्य मुनि प्रायश्चित्त तथा आज्ञा आदि दोष का भाजन होना पड़ता है। वटगृह में प्रविष्ट स्वामी के घर से प्रातराश ले आए। उसका अध्वादि निर्गत मुनिगण का तथा विसांभोजिक करने वाले उपभोग कर लज्जावश गुरु को जाकर कहा। आचार्य यदि बिना आचार्य के गण का दोनों गणों का भंडन होता है। चिंतन किए उनको विसंभोज करते हैं तो यहां सत्र का विरोध २८८८. तं सोउ मणसंतावो, संततीए तिउट्टति । होता है। (यदि दोनों वे गृह-परिवर्त इत्वरिक किया है तो अण्णे वि ते विवज्जंती, वज्जिता अमुएहि तो॥ जम्बूगृहिक अशय्यातर है और यदि परिवर्त यावत्कथिक है तो किसी ने अकल्पिक का सेवन कर दिया। उसको सुनकर जम्बूगृहिक शय्यातर है।) मानसिक संताप होता है। वह संतति से टूट जाता है, पृथक् हो २८८३. धम्मिओ देउलं तस्स, पालेति जइ भद्दओ। जाता है। दूसरे संभोजिक भी उसका विवर्जन करते हैं। वे अवसन्न सो य संवड्डितं तत्थ, लद्धं देज्जा जतीण उ॥ हो गए, इसलिए अमुक आचार्य ने उनका विवर्जन कर डाला शय्यातर का एक देवकुल है। एक धार्मिक उसकी देख-रेख है-यह बात प्रचलित हो जाती है। करता है। वह यतियों का भद्रक है। वह शय्यातर के घर में बचा २८८९. ततो णं अन्नतो वावि, ते सोच्चा इह निग्गता। वज्जेता जं तु पावेंति, निज्जरंतो य हाविता॥ हुआ अग्रकूट स्वयं प्राप्त कर साधुओं को देता है। वे गण से विवर्जित मुनि अन्यत्र जाकर पुनः मूलस्थान पर २८८४. वाणियओ गुलं तत्थ, विक्किणंतो उ तं दए। आएं। वहां आने पर जिन मुनियों ने आचार्य के पास उनकी तत्थ मोव्वरिए हुज्जा, अडं कच्छउडेण वा॥ शिकायत की थी, उनसे तथा अन्य मुनियों से स्वयं को गण से शय्यातर के घर में एक गुडवणिक् रहता था। वह गुड का विवर्जित करने की बात सुनकर, वे गण का वर्जन कर देते हैं। विक्रय करता और साधुओं को भी गुड देता था। अथवा वह इससे आचार्य को अनालोच्य विसंभोज करने का प्रायश्चित्त अपना गुडभांड शय्यातर के अपवरक में रखता था। वह कच्छपुट आता है। गण से पृथक्कृत मुनियों का वैयावृत्त्य कर संघीय मुनि से गुड निकालकर यदा-कदा साधुओं को देता था। निर्जरा का लाभ प्राप्त कर सकते थे, उससे वे वंचित हो जाते हैं। २८८५. हरितोलित्ता कता सेज्जा, कारणे ते य संठिता। २८९०. तं कज्जतो अकज्जे, वा सेवितं जइ वि तमकज्जेण। पसज्झा वावि पालस्स, चेइयट्ठा गणे गते॥ न हु कीरति पारोक्खं, सहसा इति भंडणं होज्जा। २८८६. छिण्णाणि वावि हरिताणि, पविट्ठो दीवएण वा। इसलिए कार्य से अर्थात् कारण से अथवा अकारण से ___ कतकज्जस्स पम्हुढे, सो वि जाणे दिणे दिणे॥ अकल्पिक का सेवन किया है तो भी परोक्ष-सहसा उसे एक गृहस्वामी ने वसति में से हरियाली को ऊखाड़ कर विसांभोजिक नहीं किया जाता क्योंकि ऐसा करने पर दोनों गणों वसति को गोबर से लीप कर तैयार कर दिया। कुछ मुनि वहां का भंडन होता है। आकर कारणवश उसी वसति में ठहर गए। अथवा पूर्वस्थित २८९१. निस्संकियं व काउं, आसंक निवेदणा तहिं गमणं। मुनिगुण उस वसति से चैत्यवंदन के लिए चले गए। फिर सुद्धेहि कारणमणाभोग जाणया दप्पतो दोण्हं।। गृहस्वामी आया और वसतिपाल मुनि के मनाही करने पर भी गुरु को निवेदन करने वालों को पहले निःशंकित हो जाना उसने वसति को उपलिप्त कर हरियाली को उखाड़ फेंका। चाहिए। गुरु को निवेदन करने में आशंका व्यक्त करने पर गुरु को शय्यातर किसी प्रयोजन से उस वसति में दीपक के साथ चाहिए कि वे इसकी प्रामाणिक जानकारी के लिए संघाटक प्रविष्ट हुआ और प्रयोजन पूरा होने पर दीपक को वही भूल कर मुनियों को भेजे। संघाटक वहां जाए और फिर सारी बात आचार्य चला गया। उस दिन सांभोगिक मुनि वहां आया और उसने को निवेदित करे। ऐसा न करते पर दोनों गणों में भंडन हो सकता सोचा कि वसति स्वामी प्रतिदिन यहां दीपक रखता है। (गुरु के है। विसांभोजिक मुनि कहते हैं-हम शुद्ध हैं। अथवा कारण से, पास शिकायत पहुंची और गुरु ने गहराई से न सोचकर वसति में अनाभोग से अथवा पहले दो परिषहों के उदीर्ण होने के कारण रहने वाले मुनि को विसांभोगिक कर दिया।) जानते हुए दर्प से अकल्प का सेवन किया, फिर भी विसांभोजिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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