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________________ दूसरा उद्देशक स्थविर कहते हैं यह प्रतिसेवी है। वह कहता है-मैंने प्रतिसेवना नहीं की। इस प्रकार स्थविरों के साथ विवाद हो जाता है प्रतिसेवना के विषय में भी वही मुनि प्रमाण होता है, प्रतिसेवना नहीं । १२९५. मज्जण गंधपरियारणादी जह नेच्छत्तो अदोसा य । अणुलोमा उवसग्गा एमेव इमं पि पासामो॥ अनुलोम-- अनुकूल उपसर्ग जैसे मज्जन, गंधवास, परिचारणा आदि हैं, उनका बलात्कार से उपभोग करने वाला दोष का भागी नहीं होता, वैसे ही अवधावित मुनि के मज्जन आदि को हम मानते हैं, वह निर्दोष है। १२९६. जघ चैव व पहिलोमा, अपदुस्संतस्स होतऽदोसा य एमेव य अणुलोमा, होंति असातिज्जणे अफला ॥ इसी प्रकार प्रतिलोम प्रतिकूल उपसर्गों के प्रति अद्विष्टभाव वाले मुनि के वे अदोष के लिए होते हैं। इसी प्रकार अनुम अनुकूल उपसर्ग भी अफल होते हैं। १२९७. साहीणभोगचाई, अवि महती निज्जरा उ एयस्स सुहुमो वि कम्मबंधो, न होति तु नियत्तभावस्स ॥ जो अपने स्वाधीन भोगों का त्याग करता है उसके महान् निर्जरा होती है। अवधावन से प्रतिनिवृत्त भाव वाले मुनि के सूक्ष्म कर्मबंध भी नहीं होता। १२९८. निक्खित्तम्मि उ लिंगे, मूलं सातिज्जणे य ण्हाणादी । दिसु य होति दिसा दुविधा वि वतेसु संबंधो ॥ यदि मुनिलिंग निक्षिप्त-परित्यक्त हो जाता है तो उसे मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तथा जो स्नान आदि का अनुमोदन करता है उसको भी मूल प्रायश्चित्त आता है। उनको व्रत दे देने पर दोनों दिशा - आचार्यत्व तथा उपाध्यायत्व दिया जा सकता है। यह प्रस्तुत सूत्र का पूर्व सूत्र से संबंध है। १२९९. दुविहो य एगपक्खी, पव्वज्जसुते य होति नायव्वो । सुत्तम्मि एगवायण, पव्वज्जाए कुलिव्वादी ॥ एक पाक्षिक के दो प्रकार हैं-प्रव्रज्या एकपाक्षिक तथा श्रुत एकपाक्षिक। श्रुतविषयक एकपाक्षिक वाचना-समान वाचना । प्रव्रज्या एकपाक्षिक- एक कुलवर्ती। १३००. सकुलिव्वओ पव्वज्जाओ, पक्खिओ एगवायणसुतम्मि । मोहे रोगे व इत्तरिओ ॥ अब्भुज्जयपरिकम्मे, १. (१) प्रव्रज्या से एक पाक्षिक श्रुत से भी । (२) प्रव्रज्या से एक पाक्षिक न श्रुत से (३) प्रव्रज्या से नहीं, श्रुत से । (४) न प्रव्रज्या से और न श्रुत से । इसी प्रकार कुल, गण, संघ के साथ श्रुत की भंगचतुष्टयी करनी Jain Education International १२९ प्रव्रज्यापाक्षिक है- स्वकुलसंभवी । श्रुतपाक्षिक है- एक वाचना वाला। अभ्युद्यत विहार तथा परिकर्म (संलेखना )अभ्युद्यत मरण स्वीकार करने के इच्छुक आचार्य - उपाध्याय-ये यावत्कथिक दिक् हैं और मोहचिकित्सा तथा रोग चिकित्सा करने के इच्छुक आचार्य उपाध्याय इत्वरिक विक हैं। १३०१. दिट्ठतो जध राया, सावेक्खो खलु तधेव निरवेक्खो । सावेक्खो जुगनरिंद, ठवेति इय गच्छुवज्झायं ॥ वृष्टांत जैसे राजा राजा दो प्रकार का होता है-सापेक्ष और निरपेक्ष सापेक्ष राजा युवराज को अपने जीवनकाल में ही स्थापित कर देता है । निरपेक्ष राजा युवराज की स्थापना नहीं करता। इसी प्रकार जो आचार्य गच्छोपाध्याय (गच्छनायक) की स्थापना अपने जीवनकाल में कर देता है, वह गच्छसापेक्ष आचार्य है। '१३०२. गणधरपाउम्गाऽसति पभादअद्वावि एव कालगते। थेराण पगासेंति, जावऽन्नो ण ठावितो तत्थ ।। गच्छ में गणधर प्रायोग्य मुनि के न होने पर अथवा प्रमादवश गणधर की स्थापना न करने पर आचार्य कालगत हो जाए तो इत्वर आचार्य तथा उपाध्याय की स्थापना की जाती है। स्थविरों को यह प्रकाशित करते हैं कि जैब तक मूल आचार्य अथवा उपाध्याय के पद पर अन्य की स्थापना न की जाए तब तक ही ये तुम्हारे आचार्य और उपाध्याय रहेंगे। १३०३. पव्वज्जाय कुलस्स य, गणस्स संघस्स चेव पत्तेयं । समयं सुतेण भंगा, कुज्जा कमसो दिसाबंधो ॥ दिशाबंध अर्थात् आचार्यपद पर अथवा उपाध्यायपद पर स्थापित करते समय प्रव्रज्या, कुल, गण, संघ-इन प्रत्येक का श्रुत के साथ क्रमशः भंग करें। " १३०४. आणाविणो य दोसा, विराहणा होति हमेहि ठाणेहिं । संकित अभिणवगहणे, तस्स व दीहेण कालेण ॥ स्थापित करने वाले को आज्ञाभंग आदि दोष लगते हैं तथा इन स्थानों से संघ की विराधना होती है, भेद होता है। सूत्र और अर्थ के प्रति शंकित होने पर तथा अभिनव मुनि का ग्रहण करने पर तथा स्थापित करने वाला दीर्घकाल से आने पर शंका होने पर। (व्याख्या आगे ।) १३०५. परिकम्मं कुणमाणो, मरणस्सऽम्मुज्जयस्स व विहारो। मोहे रोगचिमिच्छा, ओहावेंते य आयरिए । चाहिए। इन भंगों में प्रथम भंगवर्ती को इत्वर अथवा यावत्कथिक रूप में स्थापित किया जा सकता है। उसके अभाव में तृतीय भंगवर्ती को । यदि द्वितीय और चतुर्थ भंगवर्ती को स्थापित किया जाता है तो स्थापित करने वाले को चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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