________________
तीसरा उद्देशक
१६१
१६७४. आयारे वर्सेतो, आयारपरूवणा असंकियओ।
आयारपरिब्भट्ठो, सुद्धचरणदेसणे भइओ।। जो आचार के पालन में वर्तमान है, उसकी आचार विषयक प्ररूपणा अशंकनीय होती है। जो आचारभ्रष्ट है उसकी शुद्धचरणप्ररूपणा में विकल्प होता है-वह शुद्ध भी हो सकती है और अशुद्ध भी। १६७५. तित्थगरे भगवंते, जगजीववियाणए तिलोगगरू।
जो न करेति पमाणं, न सो पमाणं सुतधराणं॥ १६७६. तित्थगरे भगवंते, जगजीववियाणए तिलोगगुरू।
जो उ करेति पमाणं, सो उ पमाणं सुतधारणं॥
जो जगज्जीवविज्ञापक (सर्वज्ञ), त्रिलोकगुरु तीर्थंकर भगवान् को प्रमाण नहीं मानता, वह श्रुतधरों के लिए प्रमाण नहीं होता। जो तीर्थंकर भगवान् को प्रमाण मानता है, वह श्रुतधरों के लिए प्रमाण होता है। १६७७. संघो गुणसंघातो, संघायविमोयगो य कम्माणं।
रागद्दोसविमुक्को, होति समो सव्वजीवाणं॥ संघ गुणसंघात्मक होता है। वह कर्म-संघात का विमोचक है। जो राग-द्वेष से मुक्त होता है वह सभी जीवों के प्रति सम होता
है।
यदि कहे कि दूसरा भी है। तब उसे कहा जाता है-तुम जो जानते हो वह कहो। इस प्रकार कहने पर वह परिषद् को अनुमान्य कर अर्थात् सम्यक्प से क्षमायाचना कर न्यायपूर्वक वह कहता है१६६७. संघो महाणुभागो, अहं च वेदेसिओ इहं भयवं। ___ संघसमितिं न जाणं, तं मे सव्वं खमावेमि॥
संघ महान् अनुभाग अर्थात् अचिन्त्यशक्ति संपन्न होता है। भगवन् ! मैं यहां वैदेशिक हूं। मैं संघसमिति-संघ-मर्यादा को नहीं जानता। अतः मैं सर्वरूपेण आप से क्षमायाचना करता हूं। १६६८. देसे देसे ठवणा, अण्णऽण्णा अत्थ होति समितीणं।
गीयत्थेहाइण्णा, अदेसिओ तं न जाणामि॥
गीतार्थ मुनियों द्वारा संघमर्यादाओं की स्थापना देश-देश में भिन्न-भिन्न होती है। मैं अदेशिक हं। मैं उस संघमर्यादा को नहीं जानता। १६६९. अणुमाणेउं संघं, परिसग्गहणं करेति तो पच्छा।
किह पुण गेण्हति परिसं, इमेणुवायेण सो कुसलो॥
इस प्रकार वह संघ को अनुमान्य कर-सम्यग् क्षमायाचना कर फिर वह परिषद् का ग्रहण करता है। शिष्य ने पूछा-वह पर्षद् को ग्रहण कैसे करता है? आचार्य कहते हैं-वह कुशल होता है। इस उपाय से वह परिषद् को ग्रहण करता है। १६७०. पारिसा ववहारी या, मज्झत्था रागदोसनीहूया।
जइ होति दो वि पक्खा , ववहरिउं तो सुहं होति॥
जो परिषद् व्यवहार्य है उसमें दोनों पक्ष राग-द्वेष के अकरण से मध्यस्थ होती है। वहां व्यवहार का प्रवर्तन सुखपूर्वक होता है। १६७१. ओसन्नचरणकरणे, सच्चव्ववहारया दुसद्दहिया।
चरणकरणं जहंतो, सच्चव्ववहारयं पि जहे।
जो मुनि चरण-करण में शिथिल हो गया है, उसकी सत्यव्यवहारकारिता दुःश्रद्धेय बन जाती है। जो चरण-करण का त्याग कर देता है, वह सत्यव्यवहारिता को छोड़ देता है। १६७२. जइया णेणं चत्तं, अप्पणतो नाण-दसण-चरित्तं।
ताधे तस्स परेसुं, अणुकंपा नत्थि जीवेसु॥ जिसने जब अपने ज्ञान-दर्शन और चारित्र का त्याग कर डाला तब उसके मन में दूसरे जीवों के प्रति अनुकंपा नहीं होती। १६७३. भवसतसहस्सलद्धं जिणवयणं भावतो जहंतस्स।
जस्स न जातं दुक्खं, न तस्स दुक्खं परे दुहिते॥ जिसके लाखों जन्मों के पश्चात् प्राप्त जिनवचन को भावतः--यथार्थरूप में छोड़ने पर भी दुःख नहीं होता, उसको दूसरों के दुःखी होने पर दुःख नहीं होता।
१६७८. परिणामियबुद्धीए उववेतो होति समणसंघो उ।
__ कज्जे निच्छयकारी, सुपरिच्छियकारगो संघो॥
श्रमणसंघ पारिणामिक बुद्धि से युक्त होता है। संघ कार्य करने में निश्चयकारी होता है। संघ परीक्षितकारी होता है। १६७९. किह सुपरिच्छियकारी,
एक्कसि दो तिण्णि वावि पेसविते। न वि उक्खिवए सहसा,
को जाणति नागतो केणं॥ संघ सुपरीक्षितकारी कैसे होता है ? संघ समवाय प्रत्यर्थी को बुलाता है। किसी कारणवश उसके न आने पर संघ एक बार, दो बार, तीन बार पुरुष को भेजकर उसे बुलाता है। उसके न आने पर सहसा संघ उसको संघबाह्य नहीं कर देता क्योंकि संघ सोचता है कि पता नहीं वह क्यों नहीं आया? १६८०. नाऊण परिभवेणं, नागच्छंते ततो उ निज्जुहणा।
आउट्टे ववहारो, एवं सुविणिच्छकारी उ॥ यह जानकर कि वह परिभव के भय से नहीं आ रहा है तो उसका संघ से निष्कासन कर देना चाहिए। यदि वह पुनः आवृत्त (संघ में आता है) होता है तो उसे व्यवहार-प्रायश्चित्त देना चाहिए। इस प्रकार संघ सुनिश्चितकारी होता है। १६८१. आसासो वीसासो, सीतघरसमो य होति मा भाहि।
अम्मापितीसमाणो, संघो सरणं तु सव्वेसिं॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org