________________
१६२
श्रमण संघ आश्वास है-आश्वासनकारी है, विश्वास है, शीतगृह के समान है, माता-पिता के समान है। वह सबके लिए शरण है। तुम भयभीत मत होओ।
१६८२. सीसो पडिच्छओ वा, आयरिओ वा न सोग्गती नेति । जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोति ॥ शिष्य, प्रतीच्छक अथवा आचार्य सुगति को प्राप्त नहीं कराते। जो सत्यकरणयोग-संयमानुकूल प्रवृत्ति करने वाले हैं वे संसार से विमुक्त करते हैं।
१६८३. सीसो पडिच्छओ वा, आयरिओ वावि एते इहलोए ।
जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोएंति ॥ शिष्य, प्रतीच्छक अथवा आचार्य-ये सारे इहलोक के लिए हैं। परलोक के लिए सत्यकरणयोगयुक्त व्यक्ति होते हैं। वे संसार से विमुक्त करते हैं।
१६८४. सीसो पडिच्छओ वा,
जे सच्चकरणजोगा,
ते संसारा विमोएंति ॥ शिष्य, प्रतीच्छक अथवा कुल गण, संघ-ये सुगति को प्राप्त नहीं कराते । जो सत्यकरणयोगयुक्त होते हैं, वे संसार से विमुक्त करते हैं।
१६८५. सीसो पङिच्छओ वा, कुल-गण-संघो व एते इधलोए ।
जे सच्चकरणजोगा, ते संसारा विमोएंति ॥ शिष्य, प्रतीच्छक अथवा कुल, गण, संघ-ये इहलोक के लिए हैं। जो सत्यकरणयोगयुक्त होते हैं, वे संसार से विमुक्त करते हैं ।
कुल - गण - संघो न सोग्गतिं नेति ।
१६८६. सीसे कुलव्विए व गणव्विय संघव्विए य समदरिसी ।
ववहारसंथवेसु य, सो सीतघरोवमो संघो ॥ शिष्यों, कुल-गण-संघ संबंधी मुनियों-इनमें से किसी के व्यवहार उपस्थित होने पर सबके प्रति संघ समदर्शी होता है। इसी प्रकार पूर्वसंस्तुत अथवा पश्चात्संस्तुत मुनियों का दूसरों के साथ व्यवहार उपस्थित होने पर संघ समदर्शी होता है। अतः वह संघ शीतगृहतुल्य होता है।
१६८७. गिहिसंघातं जहितुं, संजमसंघातगं उवगए णं ।
णाण-चरण- संघातं, संघायंतो हवति संघो ॥ गृहस्थों के संघात का परित्याग कर संयमियों के संघात को प्राप्त होकर व्यक्ति ज्ञान और चारित्र के संघात को संघातित करता है, आत्मसात् करता है। संघ ज्ञान और चारित्र का संघात करने के कारण संघ कहलाता है।
१६८८. नाण- चरणसंघातं, रागद्दोसेहि जो सो संघाते अबुहो, गिहिसंघातम्मि
Jain Education International
विसंघाए । अप्पाणं ॥
सानुवाद व्यवहारभाष्य जो ज्ञान और चारित्र के संघात को राग-द्वेष से विसंघात करता है, उसका विघटन करता है वह मूर्ख गृहस्थों के संघात में स्वयं को मिलाता है। परमार्थतः वह संघ नहीं है। १६८९. नाण चरणसंघातं
रागद्दोसेहि जो विसंघाते । सो भमिही संसारे, चउरंगंतं अणवदग्गं ॥ जो ज्ञान और चारित्र के संघात को राग-द्वेष से विसंघात करता है, विघटित करता है, वह चातुरंत संसार में अनंतकाल तक परिभ्रमण करता है।
१६९०. दुक्खेण लभति बोधिं, बुद्धो वि य न लभते चरित्तं तु । उम्मग्गदेसणाए, तित्थगरासायणाए य ॥
उन्मार्ग देशना तथा तीर्थंकर की आशातना के कारण उसे बोधि की प्रामि दुःखपूर्वक होती है, कष्टसाध्य होती है। उसको बोधि प्राप्त हो जाने पर भी उसे चारित्र का लाभ नहीं होता । १६९१. उम्मग्गदेसणाए, संतस्स य छायणाय मग्गस्स ।
बंधिति कम्मरयमलं, जरमरणमणंतकं घोरं ॥ उन्मार्ग की देशना के कारण सन्मार्ग का आच्छादन होता है। उससे अनंत जन्म-मरण का कारणभूत घोर कर्मरजोमल का बंधन होता है। (इसीलिए बोधि तथा ज्ञान चारित्र की प्राप्ति नहीं होती ।)
१६९२. पंचविधं उवसंपय, नाऊणं खेत्तकालपव्वज्जं ।
तो संघमज्झयारे, ववहरियव्वं अणिस्साए || पांच प्रकार की उपसंपदाओं (ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप तथा वैयावृत्त्य) को तथा क्षेत्र, काल और प्रव्रज्या को जानकर मध्यस्थभाव से संघ में व्यवहार करना चाहिए। १६९३. उस्सुत्त ववहरंतो, तु वारितो नेव होति ववहारो । दि बहुस्सु, कतो त्ति तो भण्णती इणमो ॥
कोई उत्सूत्र व्यवहार की स्थापना करता है और कोई भी उसका निवारण इसलिए नहीं करता कि वह बहुश्रुत द्वारा कृत है तो यह कहा जाता है
१६९४. तगराए नगरीए, एगायरियस्स पास निप्फण्णा । सोलस सीसा तेसिं, अव्ववहारी उ अट्ठ इमे ॥
तगरा नगरी में एक आचार्य अपने सोलह निष्पन्न शिष्यों के साथ थे। उनमें आठ शिष्य व्यवहारी और आठ अव्यवहारी थे। वे अव्यवहारी आठ शिष्य ये थे । (इस गाथा में उनके नामों का उल्लेख नहीं है, उनके दोषों का निरूपण है ।)
१६९५. मा कित्ते कंकडुकं, कुणिमं पक्कुत्तरं च चव्वाइं ।
बहिरं च गुंठसमणं, अंबिलसमणं च निद्धम्मं ॥ इनकी प्रशंसा मत करो। वे दोष ये हैं-कांकटुक, कुणय, पक्व, उत्तर, चार्वाक, बधिर, गुंठ के समान, अम्ल के समान, निर्धर्मा (इनकी व्याख्या अगली गाथाओं में।)
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org