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चौथा उद्देशक
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वह कदाचित् ग्लान हो जाए। अनिवेदम के कारण कुपित वहां रहने वाले मुनियों से वह कुछ भी ग्लानकृत्य नहीं पा सकता। इसलिए इस यतना से निवेदन करना चाहिए। १९६५. तुब्भं अहेसि दारं, उस्सूरो त्ती जुताए एवं तु।
नय नज्जति सत्थो वी, चलिहिति किं केत्तियं वेलं ।।
जब मैं आया तब तुम्हारे उपाश्रय का द्वार बंद था। तब मैंने सोचा, अभी सूर्योदय नहीं हुआ है इसलिए मैं पृथक् उपाश्रय में ठहर गया। मैं नहीं जानता कि सार्थवाह भी कब किस वेला में चलेगा। १९६६. साहुसगासे वसिउं, अतिप्पियं मज्झ किं करेमि त्ति।
सत्थवसो हं भंते!, गोसे मे वहेज्जह उदंतं ।। भंते ! साधुओं के पास रहना मुझे अत्यंतप्रिय है परंतु क्या करूं, मैं सार्थ के वशवर्ती हूं, इसलिए प्रातः मेरा संरक्षण वहन करे। १९६७. एवं न ऊ दुरुस्से, अह बाहिं होज्ज पच्चवाता उ।
ताधे सुण्णघरादिसु, वसति निवेदेज्ज तह चेव।।
इस प्रकार यतना से निवेदन कर ग्राम के बाहर अतिदूर न रहे। दूर रहने से विपत्तियां हो सकती हैं। उसी प्रकार विधि से निवेदन कर शून्यगृह आदि में रहता है। १९६८. अधुणुव्वासिय सकवाड
निब्बिलं निच्चलं वसति सुण्णे। तस्साऽसति सण्णिघरे,
इत्थीरहिते वसेज्जा वा॥ शून्यगृह (वसति) वह है जो अभी-अभी उजड़ा है जो सकपाट है, जो बिलों से रहित और निश्चल है। उसके न मिलने पर जो श्रावक स्त्रीरहित हो तो उसके घर में निवास करे। १९६९. सहिते वा अंतो बहि, बहि अंतो वीसु घरकुडीए वा।
तस्साऽसति नितियादिसु, वसेज्ज उइमाए जतणाए॥
यदि श्रावक स्त्रीसहित हो तो उसके घर के अंदर या बाहर एकांत में रहे। उस गृहस्थ के घर की कुटीर में रहे। उसके अभाव में नैत्यिक आदि के उपाश्रयों में इस यतना से निवास करे। १९७०. नितियादि उवहि भत्ते, सेज्जा सुद्धा य उत्तरे मूले।
संजतिरहिते कालेऽकाले सज्झायऽभिक्खं च॥
जो नैत्यिक आदि उत्तरगुणों-मूलगणों से शुद्ध शय्या, शुद्ध उपधि, शुद्ध भक्तपान की गवेषणा करते हैं उनके साथ रहे। वह स्थान संयतियों (साध्वियों) से रहित हो। वे दो प्रकार की हैं कालचारिणी तथा अकालचारिणी। कालचारिणी वे हैं जो १. शय्याशुद्ध, उपधिशुद्ध, भक्तशुद्ध तथा संयतिरहित-यह पहला भंग
है। शय्याशुद्ध, उपधिशुद्ध, भक्तयुद्ध तथा संयतिसहित-यह दूसरा भंग है। इस प्रकार सोलह भंग करने चाहिए। जहां-जहां संयति का
पाक्षिक आदि में आती हैं और अकालचारिणी वे हैं जो बार-बार स्वाध्याय के निमित्त आती हैं। (यदि रहना ही पड़े तो कालचारिणी संयतियों वाले उपाश्रय में रहे।) १९७१. सेज्जुवधि-भत्तसुद्धे, संजतिरहिते य भंग सोलसओ।
संजति अकालचारिणि, सहिते बहुदोसला वसधी॥
शय्याशुद्ध, उपधिशुद्ध, भक्तशुद्ध और संयतिरहित- इन चार पदों के प्रतिपक्षी पदों के साथ सोलह भंग होते हैं। अकालचारिणी संयतियों की वसति बहुत दोष वाली होती है। १९७२. सागारि-तेणा-हिम-वास दोसा,
दुसोहिता तत्थ उ होज्ज सेज्जा। वत्थण्णपाणाणिव तत्थ ठिच्चा,
गिण्हंति जोग्गाणुवभुंजते वा।। वसति के बिना सागारिक और चोरों का भय रहता है। हिमपात और वर्षा से संयम और आत्मविराधना के दोषों का प्रसंग रहता है। अतः शय्या, उपधि और भक्त इन तीनों में शय्या दुःशोध्य होती है, कष्ट से प्राप्त होती है। शय्या में स्थित मुनि योग्य वस्त्र, अन्न, पान ग्रहण करते हैं और उनका उपभोग करते हैं। १९७३. आहारोवधिसेज्जा, उत्तरमूले असुद्ध सुद्धे य।
अप्पतरदोसपुव्विं, असतीय महंतदोसे वि॥
उत्तरगुण तथा मूलगुण विषय में आहार, उपधि और शय्या शुद्ध है अथवा अशुद्ध-इनकी विकल्प-चिंता में प्रागुक्त सोलह भंगों में जो अल्पतर दोष वाला है पहले उसमें रहना चाहिए। उसके अभाव में महान् दोष वाले में रहा जा सकता है। १९७४. पढमाऽसति बितियम्मि वि,
तहियं पुण ठाति कालचारीसु। एमेव सेसएसु वि,
उक्कमकरणं पि पूएमो॥ पूर्वोक्त सोलह भंगों में यदि प्रथम भंग का अभाव हो तो दूसरे विकल्प में कालचारिणी संयतिसहित वसति में रहे। इसी प्रकार शेष भंगों में जहां-जहां संयतिसहितपद हो वहां-वहां कालचारिणी संयतिसहित वसति में रहे। इसमें उत्क्रमकरणअकालचारिणी संयतिसहित वसति की भी उपादेयता के कारण पूजा करते हैं-प्रशंसा करते हैं। १९७५. सेज्जं सोहे उवधिं, भत्तं सोहेति संजतीरहिते।
पढमो बितिओ संजतिसहितो पुण कालचारिणिओ।। शय्या, उपधि और भक्त का शोधन तथा संयतिरहित यह भंग है वहां-वहां कालचारिणी संयति सहित उपाश्रय में रहा जा सकता है, अकालचारिणी संयति सहित उपाश्रय में नहीं।
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