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________________ २७४ सानुवाद व्यवहारभाष्य २९६२. सुचिरं पि सारिया गच्छिहिती और ममकार करेगा, जिससे कोई प्रयोजन नहीं है ? ममता ण याति गच्छस्स। २९६९. कोसलवज्जा ते च्चिय,दोसा सविसेस भवविगिढे वि। सीदंतचोयणासु य, दुविधं पी वितिगिट्ठ, तम्का उ न उदिसेज्जाहिं।। परिभूया मि त्ति मन्नेज्जा।। कोशलवयं जो दोष क्षेत्रविकृष्ट संबंधी कहे गए हैं, वे जो गच्छ यह मानता है कि चिरकाल तक शिक्षिता वह विशेषरूप से भावविकृष्ट में होते हैं। इसलिए दोनों प्रकार के श्रमणी जाएगी तो उसके विषय में कोई ममत्व नहीं होता। वह विकृष्ट क्षेत्रविकृष्ट और भावविकृष्ट-को उद्दिष्ट न करे। श्रमणी संयम योगों में शिथिल होती है तथा शिक्षा, प्रेरणा देने पर २९७०. बितियं तिव्वऽणुरागा, संबंधी वा न ते य सीदति। स्वयं को पराजित मानती है। (उसका भी गच्छ पर ममत्व नहीं इत्तरदिसा उ नयणं, अप्पाहं एव दूरम्मि॥ होता।) अपवादपद के आधार पर क्षेत्रविकृष्ट उद्दिष्ट करे। दीक्षित २९६३. गमणुस्सुएण चित्तेण, सिक्खा दो वि न गेण्हती। श्रमणी आचार्य के प्रति तीव्र अनुरागवाली है। आचार्य उसके वारिज्जंती वि गच्छेज्जा, पंथदोसे इमे लभे॥ संबंधी हैं। वे आचार्य संयमयोगों में अवसादग्रस्त नहीं हैं अर्थात् गमनोत्सुक व्यक्ति का चित्त शिक्षाओं को ग्रहण नहीं कर वे उद्यतविहारी हैं। उस श्रमणी को इत्वरदिशा की अनुबंधिनी कर सकता है। प्रतिषेध करने पर भी वह अन्य आचार्य के पास जाती आचार्य के पास ले जाएं। आचार्य दूर हों तो संदेश कहलाए कि है। वह मार्गगत इन दोषों को प्राप्त होती है। आपकी धर्मशैक्षा हमारे पास दीक्षित है। आप उसे अपने साथ २९६४. मिच्छत्त-सोहि-सागारियादि पासंड तेण सच्छंदा। लें। खेत्तविगिढे दोसा, अमंगलं भवविगिटुं पि॥ २९७१. भवविगिढे वि एमेव, समुग्धातो त्ति वा न वा। मिथ्यात्व, शोधि, सागारिकादि, पाषंड, स्तेन, स्वच्छंद तत्थ आसंकिते बंधो, निस्संके तु न बज्झति॥ ये क्षेत्रविकृष्ट के दोष हैं। भावविकृष्ट में अमंगल दोष होता है। २९७२. अधवा तस्स सीसं तु, जदि सा उ समुद्दिसे। (यह द्वारगाथा है। विवरण आगे की गाथाओं में।) विप्पकढे तहिं खेत्ते, जतणा जा तु सा भवे॥ २९६५. उवदेसो न सिं अत्थि, जेणेगागी उ हिंडती। भावविकृष्ट में भी ऐसा ही अपवादपद है। क्या समुद्घात इति मिच्छं जणो गच्छे, कत्थ सोधिं च कुव्वउ॥ जीवितव्य कालगत हो गया या नहीं, इस आशंका से उसको उन श्रमणियों के लिए ऐसा कोई उपदेश (आज्ञा) नहीं है अनुबंधित किया जाता है। निःशंकित होने पर भावविकृष्ट में कि वे एकाकी घूमें। उपदेश के अभाव में स्त्रीजन मिथ्यात्व को उसका अनुबंध नहीं होता अथवा वह उसके शिष्य को समुद्दिष्ट प्राप्त हो जाती हैं। एकाकिनी कहां शोधि करे, कहीं नहीं। करती है, कहती है-मेरे वे ही आचार्य हैं। मैं तो उनके शिष्य के २९६६. सागारमसागारे, एगीय उवस्सए भवे दोसा।। पास रहूंगी। तब भावविकृष्ट होने पर भी उसको अनुबंधित कर चरगादि विपरिणामण, सपक्ख-परपक्ख-निण्हादी॥ दिया जाता है। जो यतना विकृष्ट क्षेत्र संबंधी कही गई है, वही सागार-अगारसहित अथवा असागार-अगाररहित यहां ज्ञातव्य है।। उपाश्रय में एकाकिनी श्रमणी के ये दोष होते हैं-सागार में दीप २९७३. निग्गंथाण विगिढे, दोसा ते चेव मोत्तु कोसलयं। आदि का स्पर्श तथा असागार में कुलटा, जार आदि का प्रवेश। सुत्तनिवातोऽभिगते, संविग्गे सेस इत्तरिए॥ स्वपक्ष में निन्हवादि से विपरिणमन तथा परपक्ष में चरक आदि निग्रंथियों के विकृष्ट संबंधी जो दोष कहे गए हैं वे सारे दोष से विपरिणमन हो सकता है। विकृष्ट निग्रंथों के लिए भी हैं। दोनों में कोशलक के दोष को छोड़ा २९६७. तेणेहि वावि हिज्जति, सच्छंदुट्ठाण गमणमादीया। गया है। शिष्य कहता है-यदि ऐसा है तो सूत्र अनर्थक है। दोसा भवंति एते, किं व न पावेज्ज सच्छंदा॥ आचार्य कहते हैं-सूत्रनिपात अभिगत और संविग्न संबंधी है। जो स्तेन आदि अपहर्ताओं द्वारा उसका अपहरण कर लिया शेष है, उसे इत्वरिक दिग्बंध होता है। जाता है। स्वच्छंद उत्थान, गमन आदि ये दोष एकाकिनी के होते २९७४. सहो व पुराणो वा, जदि लिंगं घेत्तु वयति अन्नत्थ। हैं। स्वच्छंद होकर वह क्या क्या प्राप्त नहीं करती? तस्स वितिगिट्ठबंधो, जा अच्छति ताव इत्तरिओ।। २९६८. गोरव-भय-ममकारा, अवि दूरत्थे वि होति जीवंते। श्राद्ध-श्रावक तथा पुराण-पश्चात्कृत यदि लिंग को ग्रहण को दाणि समुग्घातस्स कुणति न य तेण जं किच्चं॥ कर अन्यत्र क्षेत्रविकृष्ट मूल आचार्य के पास जाता है तो उसके दूरस्थ भी जीवित व्यक्ति के प्रति गौरव, भय और विकृष्टदिग्बंध होता है, जब तक वहीं रहता है तब तक इत्वरिक ममकार-ये होते हैं। कौन अब उस शरीर के प्रति गौरव, भय दिग्बंध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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