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________________ १०६ काय की विराधना होती है। ग्लान का शरीर कहीं-कहीं व्यापन्नकुथित हो जाने पर अयतना से जीवों की विराधना हो सकती है। १०१८. गोण निवे साणेसु य, गुरुगा सेसेसु चउलहू हौति । उड्डाहो ति च काउं, निववज्जेसुं भवे लघुगा ॥ बैल, राजा आदि के द्वारा मुनि के मृत कलेवर को निष्कासित करने तथा श्वान द्वारा ग्लान के वमन को खाने से चार गुरुमास का और शेष सभी स्थानों में चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। नृप का वर्जन कर शेष स्थानों में उड्डाह हो पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १०१९. बिंति यमिच्छाविट्टी, कत्तो धम्मो तवो व एतेसिं। इहलोगे फलमेयं, परलोए मंगलतरागं ॥ उहाह इस प्रकार होता है-मिध्यादृष्टि पुरुष कहते हैं-इनके धर्म और तप कहां हैं? इस प्रकार का निष्कासन इहलोक का फल है तो परलोक में तो इससे भी अशुभतर फल होगा। १०२०. जदि एरिसाणि पावंति, दिक्खिया खु अम्ह दिखाए। पव्वज्जाभिमुहाणं, पुणरावत्ती पुणरावत्ती भवे भवे दुविधा ॥ (इस प्रकार विडंबना होते देखकर लोग सोचते हैं-यदि दीक्षित व्यक्ति भी इस प्रकार की विडंबना पाते हैं तो फिर हमें दीक्षा से क्या प्रयोजन - इस प्रकार प्रव्रज्याभिमुख - दीक्षित होने के अभिलाषी व्यक्तियों की भावना बदल जाती है। यह बदलाव द्रव्यतः और भावतः दो प्रकार से होता है । १०२१. वालेण विप्परद्धे, सल्ले वाघातमरणभीतस्स । एवं दुग्गतिभीते, वाघातो सल्लामोक्खट्टा ॥ एक सर्प ने पुरुष का पीछा किया। वह मरणभय से भीत होकर दौड़ा। एक कांटा चुभा । उसके दौड़ने में व्याघात आ गया। वहां रुका। सर्प ने आकर डस लिया। इसी प्रकार दुर्गति गमन से भीत के लिए तथा मोक्ष के प्रयोजन से चलने वाले पुरुष के लिए शल्य अपराध एक व्याघात है। १०२२. मरिडं ससल्लमरणं, संसाराडविमहाकडिल्लम्मि | सुचिरं भमंति जीवा अणोरपारम्मि मोतिण्णा ॥ जो सशल्यमरण मरता है वह अत्यंत गहन तथा आर-पार से रहित संसाररूपी अटवी में चिरकाल तक भ्रमण करता है । १०२३. जम्हा एते दोसा, तम्हा दोण्हं न कप्पति विहारो । एयं सुत्तं अफलं, अह सफलं निरत्थओ अत्थो । दो के विहार करने पर ये दोष उत्पन्न होते हैं, इसलिए दो को विहार करना नहीं कल्पता। शिष्य ने पूछा- दो का विहार असंभव होने पर यह प्रस्तुत सूत्र अफल-व्यर्थ है । यदि सफल है तो अर्थतः प्रतिषेध करने पर अर्थ निरर्थक हो जाएगा। १०२४ मा वद सुत्तनिरत्थं, न निरत्थगवादिणो भवे थेरा । कारणियं पुण सुत्तं इमे य ते कारणा होंति । , Jain Education International सानुवाद व्यवहारभाष्य आचार्य बोले- शिष्य ! यह मत कहो कि सूत्र निरर्थक है क्योंकि स्थविर निरर्थकवादी नहीं होते। यह सूत्र कारणिकअर्थात कारणों के प्रसंग में प्रवृत्त है वे कारण ये होते हैं। १०२५. असिवे ओमोदरिए, रायासंदेसणे जतंता वा । अज्जाण गुरुनियोगा, पव्वज्जा णातिवग्ग दुवे || अशिव-देवकृत उपद्रव, अवमौदर्य दुर्भिक्ष, राजा के प्रद्विष्ट होने पर, आचार्य के द्वारा भेजे जाने पर, यतमान- ज्ञान-दर्शन के निमित्त, आचार्य को एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाने, गुरु के नियोग से अथवा प्रव्रज्याभिमुख को स्थिर करने के लिए, ज्ञातिवर्ग के लिए दो का विहार अनुज्ञात है। १०२६. समगं भिक्खग्गहणं, निक्खमण-पवेसणं अणुण्णवणं । एगो कधमावण्णो, एगोत्थ कहं न आवण्णो ॥ दो विहार करते हैं और दोनों एक साथ भिक्षाग्रहण, निष्क्रमण, प्रवेश और अनुज्ञापन करते हैं तो फिर एक प्रायश्चित्तस्थान को प्राप्त होता है और एक नहीं ऐसा क्यों ? १०२७. एगस्स खमणभाणस्स, धोवणं बहिय इंदियत्येहिं । एतेहिं कारणेहि आवण्णो वा अणावण्णो ॥ आचार्य कहते हैं- एक के उपवास है, वह उपाश्रय में रहता है और एक भिक्षा के निमित्त जाता है। एक पात्र धोने के लिए उपाश्रय से बाहर गया है और एक उपाश्रय में है। वे दोनों एकाकी हैं। वे इंद्रिय विषयों में राग-द्वेष के कारण प्रायश्चित्तस्थान को प्राप्त हो सकते हैं। इन कारणों से एक प्रायश्चित्तस्थान को प्राप्त होता है और एक नहीं। १०२८. तुल्ले वि इंदियत्थे, सज्जति एगो विरज्जती बितिओ । अज्झत्थं खु पमाणं, न इंदियत्था जिणा बेंति ॥ दोनों के इंद्रियार्थ विषयक राग-द्वेष तुल्य होने पर भी एक उनमें आसक्त होता है और एक उनमें विरक्त होता है। जिनेश्वर कहते हैं प्रायश्चित्त की प्राप्ति अप्राप्ति में अध्यात्म - आंतरिक परिणाम प्रमाण है. इंद्रियार्थ नहीं , १०२९. मणसा उवेति विसए, मणसेव य सन्नियत्तसतेसु । इति विह अज्झत्थसमो, बंधो विसया न उ पमाणं ॥ प्राणी मन से, अंतःकरण से विषयों को प्राप्त करता है, आसक्त होता है और मन से ही उनसे विरक्त होता है। इस प्रकार अध्यात्मानुरूप बंध होता है। इसमें विषय प्रमाण नहीं है। १०३०. एवं खलु आवण्णे, तक्खण आलोयणा तु गीतम्मि | ठवणिज्जं ठवइत्ता, वेयावडियं करे बितिओ ॥ इस प्रकार जिस एक मुनि को प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, वह तत्काल गीतार्थ के पास आलोचना करे। दोनों यदि गीतार्थ हो तो एक स्थापनीय को स्थापित कर जिसको प्रायश्चित्तस्थान प्राप्त हुआ हो वह परिहारतप स्वीकार करे और दूसरा उसकी वैयावृत्त्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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