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________________ १७० सानुवाद व्यवहारभाष्य ९. निचय-धान्यों की प्रचुर उत्पत्ति। १७७३. वसहीय संकुडाए, विरल्ल अविरल्लणे भवे दोसा। १०. राजा अनुकूल हो। वाघातेण व अण्णाऽसतीय दोसा उ वच्चंते॥ ११. पाषण्डों की अल्पता। संकडी वसति में यदि भीगे वस्त्र फैलाए जाते हैं तो अनेक १२. भिक्षा की सुलभता। दोष उत्पन्न होते हैं और न फैलाने पर भी अनेक दोष होते हैं। यदि १३. स्वाध्याय का प्रचुर अवकाश। वसति एक ही हो, दूसरी न हो तो वसति का व्याघात होने पर १७६९. पाणा थंडिल वसधी, अन्यत्र जाना पड़ता है। क्षेत्र संक्रमण से संयम तथा अधिपति पासंड भिक्ख-सज्झाए। आत्मविराधना का दोष होता है। लहुगा सेसे लहुगो, १७७४. अतरंत बालवुड्डा, अभाविता चेव गोरसस्सऽसती। केसिंची सव्वहिं लहुगा॥ जं पाविहिंति दोसं, आहारमएसु पाणेसु'। इन गुणों से विरहित क्षेत्र में वर्षावास करने पर प्रायश्चित्त असहाय और अभावित बाल और वृद्ध दूध के अभाव में आता है। जहां अत्यधिक सम्मूर्छनज प्राणियों की उत्पत्ति हो, अपने आहारमय प्राणों को धारण करने में असमर्थ होते हैं। उन्हें जहां स्थंडिल भूमी सुलभ न हो, जहां अनेक वसतियां न हों, जहां (आगाढ़, अनागाढ़ परितापनादिक) दोष प्राप्त होता है। (उसका का राजा अनुकूल न हो, जहां पाषंड अधिक रहते हों, जहां भिक्षा सारा प्रायश्चित्त आचार्य को आता है।) सुलभ न हो, जहां स्वाध्याय बाधित होता हो-ऐसे स्थान में १७७५. नणु भणिय रसच्चाओ, पणीयरसभोयणे य दोसा उ। वर्षावास करने पर प्रत्येक दोष के लिए चार-चार लघुमास का किं गोरसेण भंते ! भण्णति सुण चोयग ! इमं तु॥ प्रायश्चित्त है। शेष कीचड़ आदि प्रत्येक के लिए एक-एक सूत्र में रसत्याग की बात कही है तथा प्रणीतरस- भोजन लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। कुछ आचार्य मानते हैं कि सभी के दोष बताए हैं। अतः भंते! दूध की बात क्यों की जाती है? दोषों में प्रत्येक के लिए चार-चार लघुमास का प्रायश्चित्त है। शिष्य के यह पूछने पर आचार्य ने कहा-शिष्य ! तुम सुनो मैं जो १७७०. नीसिरण कुच्छणागार, कंटका सिग्ग आयभेदो य। कहता हूं। __ संजमतो पाणादी, आगाह निमज्जणादीया।। १७७६. कामं तु रसच्चागो, चतुत्थमंगं तु बाहिरतवस्स। कीचड़युक्त प्रदेश से होने वाले दोष-वह वहां फिसल सकता है। पैरों की अंगुलियों के बीच वाले भाग सड़ सकते हैं, सो पुण सहूण जुज्जति, असहूण य सज्जवावत्ती।। रसत्याग का सिद्धांत अनुमत है तथा यह बाह्यतप का कीचड़ में रहे हुए कंकड़ तथा शूलें चुभ सकती हैं। अतिश्रम हो चौथा भेद है। जो समर्थ हैं उनके लिए यह उपयुक्त है और जो सकता है ये सारे आत्मभेद-आत्मविराधना के कारण हैं। प्राणियों का हनन होता है तथा अगाध कीचड़ में निमज्जन आदि असमर्थ हैं उनके लिए यह रसत्याग व्यापत्ति-मृत्यु का कारण हो सकता है। बनता है। १७७१. धुवणे वि होंति दोसा, उप्पीलणादि य बाउसत्तं च। १७७७. अगिलाय तवोकम्म, परक्कमे संजतो त्ति इति वुत्तं। सेधादीणमवण्णा, अधोवणे चीरनासो वा। तम्हा उ रसच्चाओ, नियमातो होति सव्वस्स। शरीर और उपकरणों पर लगे कर्दम को धोने से प्राणियों आगमों में कहा गया है कि संयतमुनि अग्लान भाव से का उत्पीड़न तथा बाकुशिकत्व-ये दोष होते हैं। न धोने से तपःकर्म में पराक्रम करे। इसलिए सभी के लिए रसत्याग का शैक्षमुनियों की अवज्ञा तथा वस्त्र का नाश होता है। नियम नहीं होता। १७७२. मूइंगविच्छुगादिसु, दो दोसा संजमे य सेसेस। १७७८. जस्स उ सरीरजवणा, रिते पणीयं न होति साहुस्स। नियमा दोस दुगुंछिय, अथंडिल निसग्ग धरणे य॥ सो वि य हु भिण्णपिंडं, भुंजउ अहवा जधसमाधी॥ प्राणियों की उत्पत्ति वाले प्रदेश से होने वाले दोष- जिस मुनि का शरीर-यापन प्रणीतरस के सेवन के बिना चींटियों तथा बिच्छओं और शेष प्राणियों (सम्मळुनज) की नहीं होता वह भिन्नपिंड अर्थात् घृतमिश्रित गलितपिंड खाए उत्पत्ति वाले क्षेत्र से दो दोष संभव हैं-आत्मविराधना और अथवा जिससे समाधि हो वह भोजन करे। संयमविराधना। स्थंडिल के अभाव में अस्थंडिल में अथवा १७७९. चउभंगो अजणाउल, कुलाउले चेव ततियतो भंगो। जुगुप्सित स्थंडिल में मल-मूत्र विसर्जित करने पर नियमतः भोइयमादि जणाउल, कुलाउलमडंबमादीसु।। संयमविराधना आदि दोष होते हैं। उनको विसर्जित न करने पर जनाकुल और कुलाकुल की चतुर्भंगी में तीसरा भंग है-न आत्मविराधना आदि दोष होते हैं। जनाकुल-कुलाकुल। भोजिक आदि से जनाकुल और कुलाकुल For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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