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पीठिका
निरनुकंपा से दिये गये प्रायश्चित्त से विशोधि भी नहीं होती । " १७३. अहवा कजाकज्जे, जयाजयं ते य कोविदो गीतो । दप्पाऽजतो निसेवं, अणुरूवं पावए दोसं ॥ अथवा कारण अकारण तथा यतना अयतना को जानने वाला कोविद गीतार्थ यदि दर्प से अयतनापूर्वक प्रतिसेवना करता है तो वह भी उसके अनुरूप (दर्प अयतना निष्पन्न ) प्रायश्चित्त का भागी होता है।
१७४ कम्पम्मि अकप्पम्मि य
।
जो पुण अविणिच्छितो अकज्जं पि कज्जमिति सेवमाणो,
अदोसवं सो असढभावो ॥
जो कल्प्य अथवा अकल्प्य का निश्चय नहीं कर पाता, सेवन करता है तो वह दोष का उसका अशठभाव है। उसे
वह अकल्प्य का कल्प्य बुद्धि से भागी नहीं होता। इसका हेतु प्रायश्चित्त नहीं आता । १७५. जं वा दोसमजाणतो,
हेहंभूतो
।
निसेवती । तमायरं ॥
होज्ज निद्दोसवं केण, विजाणतो
जो 'भूत' - गुण और दोष के परिज्ञान से विकल है तथा जो दोष को न जानता हुआ अशठभाव से प्रतिसेवना करता है, वह निर्दोष है। परन्तु जो जानता हुआ भी उस दोष का सेवन करता है वह निर्दोष कैसे हो सकता है? १७६. एमेव य तुल्लम्मि वि, अवराहपयम्मि वट्टिता दो वि । तत्थ वि जहाणुरूवं, क्लंति दंडं दुवेहं पि ॥ दो मुनि समान अपराध करते हैं फिर भी दोनों के प्रायश्चित में भेद रहता है उन दोनों को यथानुरूप अर्थात् गीतार्थ, अगीतार्थ, संहनन, धृति के अनुरूप प्रायश्चित्त दिया जाता है।
१७७. एसेव यदितो, तिविधे गीतम्मिं सोधिनाणत्तं । वत्थुसरिसो उ दंडो, दिज्जति लोए वि पुव्वत्तं ॥ गीतार्थ के तीन प्रकार हैं-बाल, तरुण और वृद्ध । इन तीनों के शोधिनानात्व-प्रायश्चित्त में नानात्व होता है। इस विषय में भी पूर्वोक्त दृष्टांत घटित होता है। समान अपराध होने पर भी तरुण गीतार्थ को प्रभूत प्रायश्चित्त और बाल तथा वृद्ध गीतार्थ को अल्प प्रायश्चित्त दिया जाता है। इसका हेतु है- असामर्थ्य | लोक में भी वस्तुसदृश अर्थात् पुरुषानुरूप दंड दिया जाता है। यह पहले कहा जा चुका है।
१. कहा है 'अप्पच्छित्ते य देइ पच्छित्तं, पच्छित्ते अइमत्तं आसायणा तस्स महती उ'-जो अप्रायश्चित्त में प्रायश्चित्त देता है अथवा प्रास
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१७८. तिविधे तेगिच्छम्मी, उज्जुग वाउलण - साहुणा चेव । पण्णवणमणिच्छते, विनंती भंदिपोतेहिं ॥ आचार्य, उपाध्याय और गीतार्थ भिक्षु की चिकित्सा चल रही हो, उस चिकित्सा में व्यापृत सेवाभावी साधु को स्पष्ट बतलाना चाहिए कि यह पथ्य अथवा औषधि एषणीय है, कल्प्य है अथवा अनेषणीय है, अकल्प्य है। जो भिक्षु उस चिकित्साकाल में भी अनेषणीय-अकल्प्य ग्रहण करना नहीं चाहता तब सेवारत भिक्षु यह प्रज्ञापना करे कि ग्लान अवस्था में मुनि
अकल्प्य का सेवन कर सकता है। (फिर प्रायश्चित्त ग्रहण कर विशोधि को प्राप्त हो सकता है।) यहां भंडी (गंत्री-शंकट) और पोत (नौका) का दृष्टांत हैं।
१७९. सुद्धालंभि अगीते, अजतण करण कहणे भवे गुरुगा। कुज्जा व अतिपसंगं, असेवमाणे व असमाधी ॥ चिकित्साकाल में अगीतार्थ भिक्षु के लिए शुद्ध भिक्षा आदि प्राप्त न होने पर जो परिचारक अयतना करता है और अगीतार्थ को उसके बारे में कहता है तो उसे चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है । चिकित्सा का निषेध आदि होने पर अतिप्रसंग कर सकता है अथवा अशुद्धइ-सेवन का प्रतिषेध करने पर रोग वृद्धि के कारण असमाधि हो सकती है (इसलिए चिकित्सा यतना से करनी चाहिए और कहना नहीं चाहिए।) १८०. जा एगदेसे अददा उ भंडी,
सीलप्पए सा तु करेति कज्जं । जा दुब्बला संठविया वि संती,
न तं तु सीलंति विसण्णदारुं ॥ मंत्री का दृष्टांत - किसी गाड़ी का एक भाग अदृढ़ है, कमजोर है। उस भाग का परिशीलन-मरम्मत करने पर वह गाड़ी कार्य करने लग जाती है। जो गाड़ी सुसंस्थापित होने पर भी यदि दुर्बल है, कार्य करने में अक्षम है, उस जीर्ण काठवाली गाड़ी का परिशीलन नहीं किया जाता। १८१. जो एगदेसे अदढो उ पोतो,
सीलप्पए सो उ करेति कज्जं । जो दुब्बलो संठवितो वि संतो,
न तं तु सीलंति विसण्णदासं ॥ जिस नौका का एक भाग अदृढ़ है, मजबूत नहीं है, उसका परिशीलन ( मरम्मत करने पर यह नौका कार्यकर हो जाती है। जो नौका संस्थापित करने पर भी दुर्बल है, अक्षम है तो उस
प्रायश्चित्त से अधिक प्रायश्चित्त देता है तो वह प्रवचन की महान् आशातना करता है। ( वृत्ति पत्र २९ )
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