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दसवां उद्देशक
निर्यापक दो प्रकार के हैं- आत्मनिर्यापक तथा परनिर्यापक । ४२२१. पादोवगमे इंगिणि, दुविधा खलु होति आयनिज्जवगा।
निज्जवणा य परेण व, भत्तपरिण्णाय बोधव्वा ॥ आत्मनिर्यापक दो प्रकार के होते हैं-प्रायोगमन तथा इंगिनी अनशन करने वाले । परनिर्यापक भक्तपरिज्ञा अनशन में होते हैं। ४२२२. पादोवगमे इंगिणी, दोन्नि व चिद्वंतु ताव मरणाई । भत्तपरिणाय विधि, वुच्छामि अहाणुपुव्वीए ॥ प्रायोपगमन और हंगिनी ये दोनों भावमरण है अब मैं पहले भक्तपरिज्ञा के विषय में यथानुपूर्वरूप में कहूंगा। ४२२३. पव्वज्जादी काउं, नेयव्वं ताव जाव वोच्छित्ती
पंच तुलेऊणऽप्पा, भत्तपरिण्णं परिणतो उ ॥ प्रव्रज्या से लेकर जीवन की अव्यवच्छित्ति- मरणकाल तक साधना ले जाए ।' अंत समय में अपनी आत्मा को पांच तुलाओं से तोलकर भक्तपरिज्ञा अनशन के प्रति परिणत हो । ४२२४. सपरक्कमे य अपरक्कमे य वाघाय आणुपुव्वीए ।
सुत्तत्यजाणपणं, समाहिमरणं तु कायव्वं ॥ भक्तपरिज्ञामरण के दो प्रकार हैं- सपराक्रम और अपराक्रम | सपराक्रम के दो प्रकार हैं-व्याघातिम और निर्व्याघातिम। व्याघात उपस्थित होने पर अथवा न होने पर सूत्रार्थ के ज्ञाता मुनि को अनुपूर्वी से (देखें ४२२८-३०) समाधिमरण का वरण करना चाहिए। ४२२५. भिक्ख वियारसमत्थो, जो अन्नगणं च गंतु वाएति । एस सपरक्कमो खलु, तव्विवरीतो भवे इतरो ॥ जो भिक्षाचर्या करने में तथा विचारभूमी में जाने में समर्थ हो तथा जो अन्य गण में जाकर वाचना देता हो, उसका सपराक्रम भक्तप्रत्याख्यान अनशन होता है। इससे विपरीत जो भिक्षा आदि में असमर्थ होता है, वह अपराक्रम भक्तप्रत्याख्यान अनशन कहलाता है।
४२२६. एक्केक्कं तं दुविधं निव्वाघातं तधेव वाघातं ।
वाघातो वि य दुविहो, कालऽतियारो य इतरो वा ।। प्रत्येक के दो-दो भेद हैं-निर्व्याघात और व्याघात । व्याघात के भी दो प्रकार हैं-कालातिचार तथा काल अनतिचार | (कालातिचार अर्थात् जो काल का अतिक्रमण कर देता है, काल को सहता है। काल अनतिचार अर्थात् जो कालसह नहीं होता, तत्काल मरण की वांछा करता है ।) ४२२७ तं पुण अणुगंतव्वं, दारेहि इमेहि आणुपुव्वीए । गणनिसरणाविएहिं तेसि विभागं तु बुच्छामि ॥ उनका गणनिःसरण आदि द्वारों से क्रमशः अनुगमन करना १. प्रव्रज्या के पश्चात् ग्रहण- आसेवन शिक्षा, पश्चात् पांच महाव्रतों की साधना, सूत्र और अर्थ का ग्रहण, नियतवास, गच्छ की
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चाहिए। उनके विभाग मैं कहूंगा।
४२२८. गणनिसरणे परगणे, सिति संलेहो अगीतऽसंविग्गे । एगाभोगण अन्ने, अणपुच्छ परिच्छ आलोए ॥ ४२२९. ठाण वसधीपसत्थे, निज्जवगा दव्वदावणं चरिमे। हाणऽपरितंत निज्जर, संथारुव्वत्तणादीणि ॥ ४२३०, सारेऊण य कवयं निव्वाघातेण चिंधकरणं व । अंतोबहिवाघातो, भत्तपरिण्णाय कायव्वो ॥
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गणनिःसरण, परगणगमन, सिति-निःश्रेणी, संलेखना, अगीतार्थ, असंबिस एक निर्यापक, आभोजन, अन्य, अनापृच्छा, परीक्षा, आलोचना, स्थान, वसति, निर्यापक, द्रव्यदर्शन, चरमकाल, हानि, अपरिश्रांत, निर्जरा, संस्तारक, उद्वर्तना आदि, स्मारणा, कवच, निर्व्याघात, चिन्हकरण, अंतर् - बहि व्याघात, भक्तपरिज्ञा उपाय करना चाहिए। (इन तीनों गाथाओं का विवरण आगे की गाथाओं में।) ४२३१. गणनिसरणम्मि उ विधी,
जो कप्पे वण्णितो उ सत्तविहो ।
सो चेव निरवसेसो,
भत्तपरिण्णाय दसमम्मि ॥ गणनिःसरण की (सात प्रकार की) जो विधि कल्पाध्ययन में संक्षेप में वर्णित है, वही व्यवहार के दसवें उद्देशक में निरवशेषरूप में ज्ञातव्य है ।
४२३२. किं कारणऽवक्कमणं, थेराण इहं तवो किलंताणं । अब्भुज्जयम्मि मरणे, कालुणिया झाणवाघातो ॥ ४२३३. सगणे आणाहाणी, अप्पत्तिय होति एवमादीयं ।
परगणे गुरुकुलवासो, अप्यत्तियवज्जितो होति ॥ परगण के आचार्य ने पूछा- आप स्थविर हैं। आप संलेखनातप आदि से क्लांत तथा अपने गण में अभ्युद्यतमरणभक्तपरिज्ञा को स्वीकार कर चुके हैं। फिर इस गण में आने का क्या कारण है? आचार्य ने कहा- (मेरे अनशन स्वीकार कर लेने के कारण शिष्यों का रुदन और अश्रुपात देखकर) मेरे मन में शिष्यों के प्रति करुणा उत्पन्न होती है। इससे ध्यान में व्याघात होता है। इसलिए परगणगमन किया है तथा अपने गण में आचार्य की आज्ञा की हानि (भंग) तथा मुनियों में अप्रीति आदि को देखकर, उसे ध्यान का व्याघात समझकर गणापक्रमण किया है। परगण के गुरुकुलवास से अप्रीति का परिहार हो जाता है। (परगण का गुरुकुलवास अप्रीतिवर्जित होता है।) ४२३४. उवगरणगणनिमित्तं तु वुग्गहं दिस्स वावि गणभेदं । बालादी थेराणं व उचियाकरणम्मि वाघातो ॥ निष्यति इतना करने के पश्चात् अनशनपूर्वक मृत्यु ।
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