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________________ २५८ सानुवाद व्यवहारभाष्य दोष प्राप्त होते हैं। कारण क्या हो सकता है ? त्वक्दोष आदि स्यन्दमान त्वक्दोष वाले के लिए पृथक् प्रस्रवण भूमी होनी कारण हो सकते हैं। चाहिए। उसके अभाव में राख से लक्षित कर प्रस्रवणभूमी का एक २७८३. संदंतमसंदंतं, अस्संदण चित्त मंडलपसुत्ती। भाग उस रोगग्रस्त के लिए निर्धारित करना चाहिए जिससे कि किमिपूयं लसिगा वा, पस्संदति तत्थिमा जतणा॥ उसके दूषित प्रस्रवण पर कोई पैर आदि न रखे। क्योंकि त्वक्दोष के दो प्रकार हैं-स्यन्दमान और अस्यन्दमान। चरणतल में प्रस्रवण लगने से यह व्याधि संक्रामित हो जाती है। अस्यन्दमान के दो प्रकार हैं-चित्रप्रसुप्ति और मंडलप्रसुप्ति। जो इसी प्रकार इस रोग से ग्रस्त व्यक्ति का निष्क्रमण और प्रवेश भी स्यन्दमान है वह कृमियों तथा मवाद को बाहर फेंकता है। उस राख आदि से चिह्नांकित कर देना चाहिए।' त्वगदोष संबंधी यह यतना है। २७९०. णिती वि सो काउ तली कमेसुं, २७८४. संदंते वक्खारो, अंतो बाहिं च सारणा तिण्णि। संथारओ दूर अदंसणे वि। ___ जत्थ विसीदेज्ज ततो, णाणादी उग्गमादी वा।। मा फासदोसेण कमेज्ज तेसिं, यदि स्यन्दमान त्वक्दोष का रोगी हो तो एक वक्खार में तत्थेक्कवत्थादि व परिहरंति॥ भीतर या बाहर पृथक् अपवरक में उसे रखें। उसके अभाव में एक स्यन्दमान त्वक्दोषी पैरों में जूते पहनकर बाहर जाता है निवेशन में अन्य वसति में उसे रखे। उसकी तीन सारणाएं करे, अथवा वसति में प्रवेश करता है। उसका संस्तारक अदृष्टिगत हो जिससे वह विषादग्रस्त न हो। वे तीन सार कौन से हैं-ज्ञान, उतना दूर किया जाता है। उसके स्पर्शदोष से व्याधि अन्य दर्शन, चारित्र संबंधी अथवा उद्गम, उत्पादन, एषणा संबंधी। साधुओं में संक्रामित न हो इसलिए उस रोगी द्वारा स्पृष्ट वस्त्रों २७८५. अहवा भत्ते पाणे, सामायारीय वा विसीदंतं। का भी अन्य साधु परिहार करते हैं। ___एतेसु तीसु सारे, तिण्णि वि काले गुरू पुच्छे ॥ २७९१. न य भुंजंतेगट्ठा, लालादोसेण संकमति वाही। अथवा तीन सार ये हैं-भक्त, पान और सामाचारी-इन सेओ से वज्जिज्जति, जल्लपडलंतरकप्पो य॥ तीन स्थानों में विषाद पाने वाले की आचार्य सार-संभाल करते उस त्वक्रोगी के साथ एकपात्र में साधु भोजन नहीं करते हैं। अथवा तीन सार अर्थात् आचार्य तीनों कालों में उसकी पृच्छा क्योंकि यह व्याधि लालादोष से संक्रामित होती है। उस रोगी के करते हैं। प्रस्वेद का वर्जन किया जाता है तथा उसके शरीर का मेल तथा २७८६. गोसे केरिसियं ति य, कतमकतं वा किं ति आवासं। पात्र, पटल और आंतरकल्प-इन सबका परिहार किया जाता है। भिक्खं लद्धमलद्धं किं दिज्जउ वा ते मज्झण्हे|| २७९२. एतेहि कमति वाही, एत्थं खलु सेउएण दिटुंतो। २७८७. पेहितमपेहितं वा, वट्टति ते केरिसं च अवरण्हे। कुट्ठक्खय कच्छुयऽसिवं, नयणामयकामलादीया।। निज्जूणम्मि गुरूगा, अविधी परियट्टणे वावि।। जल्ल आदि के कारण व्याधि संक्रामित होती है। यहां प्रातःकाल आचार्य पूछते हैं-तुम्हारा शरीर कैसा है? सेतुक (सिद्धक) का दृष्टांत है। इसी प्रकार कुष्टरोग में, खुजली तुमने आवश्यक किया या नहीं? मध्यान्ह में पूछते हैं-भिक्षा में, अशिव-शीतलिका रोग में, नयनदोष-कामल आदि में पूर्वोक्त मिली या नहीं? तुमको क्या देना है? अपरान्ह में पूछते यतना रखनी चाहिए। हैं-उपकरणों की किसी ने या तुमने प्रेक्षा की या नहीं? तुम्हारा २७९३. एस जतणा बहुस्सुत,ऽबहुस्सुय न कीरते तु वक्खारो। शरीर कैसा है? यदि आचार्य ये सार नहीं करते तो उनको चार ठावेंति एगपासे, अपरिभोगम्मि उ जतीणं व॥ गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि अविधि से परिवर्तन- यह कथित यतना बहुश्रुत मुनि के लिए है। अबहुश्रुत के परिपालन कराते हैं तो भी चार गुरुमास का प्रायश्चित्त विहित है। लिए भी यही यतना है। उसे सम्बद्धगृह के अपवरक में रखा २७८८. आणादिणो य दोसा, विराहणा होतिमेहि ठाणेहिं। जाता है। भिन्न वक्खार-अपवरक नहीं किया जाता। संबद्धगृह पासवण-फास-लाला, पस्सेए मरुयदिटुंतो॥ का अपवरक न हो तो वसति के एक भाग में उसे रखा जाता है। इन स्थानों में केवल प्रायश्चित्त ही नहीं, आज्ञा आदि दोष वह भाग साधुओं के अपरिभोगवाला हो। (बीच में चटाई का तथा विराधना होती है। स्यन्दमान त्वक्दोष प्रस्रवण के स्पर्श से पड़दा दे दिया जाता है।) (गावस्पर्श तथा रोगी के पीठफलक का उपभोग करने से) यह २७९४. विवज्जितो उट्ठविवज्जएहिं, व्याधि संक्रामित होती है। उसकी लाला और प्रस्वेद के स्पर्श से मा बाहिभावं अबहुस्सुतो उ। भी संक्रमण होता है। यहां मरुक का दृष्टांत है। कट्ठाए भूतीव तिरोकरेंति, २७८९. पासवण अन्नअसती, भूतीए लक्खि मा ह दूसियं मोयं । मा एक्कमेक्कं सहसा फुसेज्जा। चलणतलेसु कमज्जा, एमेव य निक्खमपवेसो॥ मैं उष्ट्रविवर्जकों (ऊंचा मुंह कर चलने वाले मुनियों) द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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