Book Title: Aagam 44 NANDISOOTRA Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४४] नन्दी (चूलिका)सूत्रम् नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित- सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः “नन्दीसूत्रं" मूलं एवं वृत्तिः [मूलं + मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः] [आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. 1 (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह ) पुनः संकलनकर्ता→ मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) 23/04/2015, गुरुवार, २०७१ वैशाख सुद ५ jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [४४], चूलिका सूत्र- [१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि रचिता वृत्तिः ~0~ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [-] ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत GORNARIAANAANAANAANARNARIAANAANAANARNAANAANAANAANAS श्रीमन्मलयगिर्याचार्यप्रणीतवृत्तियुतं श्रीमदार्यमहागिर्यावलिकागतश्रीमद्देष्यगणिशिष्याचार्यनर्यश्रीमदेववाचकक्षमाश्रमणनिर्मित ॥ श्रीमन्नन्दीसूत्रम् ॥ सुत्राक दीप DANARTARNATARNMARWARIAN प्रकाशकः-शाह वेणीचंद सुरचंद, कार्यवाहकः श्रीमती आगमोदयसमिति NAANNARWARINANTARWAD अनुक्रम इदं पुस्तकं मुम्बय्यां शाह० वेणीचंद सुरचंद इत्यनेन, निर्णयसागरमुद्रणालये कोलभाटवीभ्यां २३ तमे गृहे रामचंद्र येसु शेडगेद्वारा मुद्रथित्वा प्रकाशितम् । प्रति ७५.] वीरसंवत् २४५०, विक्रमसंवत् १९८०, सन १९२४. [पण्यं ०२-४-० DUNYAVUNMAVUMNMNMNMNMNMNMNMNMN नन्दी-सूत्रस्य मूल “टाइटल पेज" Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाका: नन्दी चूलिका-सूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: पृष्ठांक | मलांक: ००४ । | विषयः → मतिश्रुत ज्ञान वर्णनं → अङ्गप्रविष्ठसूत्र वर्णनं मूलांक: | विषय: ००१-१६३ | नन्दी-सूत्रं → वीरस्तुति →संघस्तुति | → जिनवंदना, गणधरवंदना → स्थविरावली मूलांक: | विषय: |→ श्रोता, पर्षदा → ज्ञानस्य भेदा: |→ अवधिज्ञान वर्णनं |→ मन:पर्यवज्ञान-वर्णनं → केवलज्ञान-वर्णनं | पृष्ठांक: १११ १३२ १५५ पृष्ठांक: २८२ ४२० ०८७ ०९७ २०१ | ०१- ०४ | अनुज्ञानन्दी - परिशिष्ठं १ | योगनन्दी- परिशिष्ठं २ ५०४ ५०९ ०९९ २२५ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४४], चूलिकासूत्र - [१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: ~ 2~ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नन्दीसूत्र- मूलं एवं वृत्तिः] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले "नन्दीसूत्र" के नामसे सन १९२४ (विक्रम संवत १९८०) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर अपने नामसे 'जिनशासन आराधना ट्रस्ट' की तरफ से आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवाके, ऊपर अपना नाम एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. यह स्पष्ट रूपसे एक प्रकारसे अदत्तादान ही है, ऐसी अनेक प्रतो के अगले दो पेज पलटकर या नए डालकर उन्होंने अपने नामसे छपवाइ है, इस तरह वो अपने आपको बड़ा आगम संरक्षक साबित करनेकी अनुचित चेष्टा कर चुके है। इसी नन्दीसूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से दुसरोने भी भी प्रकाशित करवाई है, किसीने पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराजश्री का नाम बड़ी इज्जत के साथ अपनी जगह पे ही रखा है, और खुदका नाम पुन: संपादक रूप से पेश किया है तो किसीने अपना नाम आगे कर दिया है और पूज्य सागरानंदसूरीश्वरजीका नाम गौण कर दिया है या उड़ा दिया है। * हमारा ये प्रयास क्यों? : आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर सूत्र आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके | बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस 1 दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-1| ऐसी दो लाइन खींची या 'गाथा' शब्द लिखा है। हर पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट दी है । अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसिको मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर. ~ 3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................................... मूलं - गाथा|| || ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक AscoCOCCAक ॐ अहम् । श्रीमन्मलयगिर्याचार्यप्रणीतवृत्तियुतं श्रीमदार्यमहागिर्यावलिकागतश्रीमदृष्यगणिशिष्याचार्यवर्यश्रीमद्देववाचकक्षमाश्रमणनिर्मित श्रीमत् नन्दीसूत्रम्। - pokesजयति भुवनैकभानुः सर्वत्राविहतकेवलालोकः । नित्योदितः स्थिरस्तापवर्जितो वर्धमानजिनः॥१॥ जयति जगदेकमङ्गलमपहतनिःशेषदुरितघनतिमिरमारविबिम्बमिव यथास्थितवस्तुविकाशं जिनेशवचः HI इह सर्वेणय संसारमध्यमध्यासीनेन जन्तुना नारकतिर्यग्नरामरगतिनिबन्धनविविधशारीरमानसानेकदुःखोपनिपात पीडितेन पीडानिर्वेदतः संसारपरिजिहीर्षया जन्मजरामरणरोगशोकाद्यशेषोपद्रवासंस्पृश्यपरमानन्दरूपनिःश्रेयसपद६ मधिरोटुकामेन तदवाप्तये खपरसममानसीभूय स्वपरोपकाराय यतितव्यम्, तत्रापि महत्यामाशयविशुद्धौ परोपकृतिः कर्तुं शक्यते इत्याशयविशुद्धिप्रकर्षसम्पादनाय विशेषतः परोपकारे यत्न आस्थेयः, परोपकारश्च द्विधा-द्रव्यतो भा-3 दीप अनुक्रम [-] वृत्तिकार-कृत् मांगलिकम् एवं प्रस्तावना ~ 4~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ......................... मूलं -1/ गाथा|| || ................. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम श्रीमलय- वतश्च, तत्र द्रव्यतो विविधानपानकाञ्चनादिप्रदानजनितः, स च नैकान्तिकः, कदाचित्ततो विसूचिकादिदोषसम्म- प्रस्तावना. गिरीया वतः उपकारासम्भवात्, नाप्यात्यन्तिकः कियत्कालमात्रभावित्वात्, भावतो जिनप्रणीतधर्मसम्पादनजनितः, सब चैकान्तिकः, कदाचिदपि ततो दोषासम्भवात्, आत्यन्तिकश्च, परम्परया शाश्वतिकमोक्षसौख्यसम्पादकत्वात् ।। ॥१॥ है जिनप्रणीतोऽपि च धर्मो द्विधा-श्रुतधर्मश्चारित्रधर्मश्च, तत्र श्रुतधर्मः खाध्यायः, चारित्रधर्मः क्षान्त्यादिरूपो द-15 शधा श्रमणधर्मः, उक्तं च-'सुयधम्मो सज्झाओ चरित्तधम्मो समणधम्मों' तत्र श्रुतधर्मसम्पत्समन्विता एव प्रायश्चारित्रधर्माभ्युपगमयथावत्परिपालनसमर्था भवन्तीति प्रथमतस्तत्प्रदानमेव न्याय्यं, तत्र परमार्हन्त्यमहिमो-2 दोपशोभितभगवर्द्धमानखामिनिवेदितमर्थमवधार्य गणभृत्सुधर्माखामिना तत्सन्तानवर्तिभिश्चान्यैरपि सूत्रप्रदानमकारि, है न च सूत्रादविज्ञातार्थादभिलषितार्थावाप्तिरुपजायते ततः प्रारम्भणीयः प्रवचनानुयोगः, स च परमपदप्राप्तिहेतु वाच्छ्योभूतः, श्रेयांसि च बहुविघ्नानि भवन्ति, यत उक्तम्-"श्रेयांसि बहुविघ्नानि, भवन्ति महतामपि । अश्रेयसि। प्रवृत्तानां, कापि यान्ति विनायकाः ॥१॥” इति, ततोऽस्य प्रारम्भ एव सकलप्रत्यूहोपशमनाय मङ्गलाधिकारे नहन्दिर्वक्तव्यः । अथ नन्दिरिति कः शब्दार्थः ?, उच्यते, 'टुनदु समृद्धा वित्यस्य 'धातोरुदितो न' मिति नमि विहिते ॥१॥ नन्दनं नन्दिः प्रमोदो हर्ष इत्यर्थः, नन्दिहेतुत्वात् ज्ञानपञ्चकाभिधायकमध्ययनमपि नन्दिः, नन्दन्ति प्राणिनोऽने-13 नास्मिन्वेति वा नन्दिः-इदमेव प्रस्तुतमध्ययनम्, आविष्टलिङ्गत्वाचाध्ययनेऽपि प्रवर्त्तमानस्य नन्दिशब्दस्य पुंस्त्वम्, 'इ: [-] AJuristurary.com ~5~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ....................... मूल - गाथा|| || .............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक सर्वधातुभ्यः' इत्यौणादिक इप्रत्ययः, अपरे तु नन्दीति पठन्ति, ते च 'इक् कृष्यादिभ्य' इति सूत्रादिक्प्रत्ययं समानीय । स्त्रीत्वेऽपि वर्तयन्ति, ततश्च 'इतोऽक्त्यर्थादि' ति ङीप्रत्ययः, स च नन्दिश्चतु , तद्यथा-नामनन्दिः स्थापनानन्दिः द्रव्यनन्दिः भावनन्दिश्च, तत्र नामनन्दिर्यस्य कस्यचिजीवस्याजीव(स्योभयस्य)स्य वा नन्दिशब्दार्थरहितस्य नन्दिरिति नाम क्रियते स नाम्ना नन्दि मनन्दिः, यद्वा नामनामवतोरभेदोपचारान्नाम चासौ नन्दिश्च नामनन्दिः, नन्दिरिति नामवान्नामनन्दिः, तथा सद्भावमाश्रित्य लेप्यकादिष्वसद्भाव चाश्रित्याक्षवराटकादिषु भावनन्दिमतः साध्वादेया स्थापना स स्थापनानन्दिः,अथवा द्वादशविधतूर्यरूपद्रव्यनन्दिस्थापना स्थापनानन्दिः,द्रव्यनन्दिर्बिंधा-आगमतो नोआ| गमतश्च, तत्रागमतो नन्दिपदार्थस्य ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, 'अनुपयोगो द्रव्य'मिति वचनात्, नोआगमतस्तु त्रिधा, तद्यथा-ज्ञशरीरद्रव्यनन्दिर्भच्यशरीरद्रव्यनन्दिशिरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यनन्दिश्च,तत्र यन्नन्दिपदार्थज्ञस्य व्यपगतजीवितस्य शरीरं सिद्धशिलातलादिगतं तद् भूतभावतया ज्ञशरीरद्रव्यनन्दिः, यस्तु बालको नेदानी नन्दिशब्दार्थमवबुध्यते अथ चावश्यमायत्सां तेनैव शरीरसमुच्छूयेण भोत्स्यते स भाविभावनिवन्धनत्याद्भव्यशरीरद्रव्यनन्दिः, इह हि यद् भूतभावं भाविभावं वा (योग्य) वस्तु तद्यथाक्रमं विवक्षितभूतभाधिभावापेक्षया द्रन्यमिति तत्त्ववेदिनां प्रसिद्धिमुपागमत, उक्तं च-"भूतस्य भाषिनो वा भावस्य हि कारणं तु यलोके । तद्रव्यं तत्वज्ञैः सचेतनाचेतनं कथितम् ॥ १॥" ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तस्तु द्रव्यनन्दिः क्रियाऽऽविष्टो द्वादशविधतूर्यसमुदायः, उक्तं च दीप अनुक्रम [-] -%95 ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-/ गाथा||१|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ॥२॥ ||१|| दीप अनुक्रम "देवे तूरसमूदओ" तानि च द्वादश तूर्याण्यमूनि-“भ'भा मुकुंदै मद्दलै कडचं झलेरि हुर्द्धक्क कंसाला। काहल त-I नन्दीनिलिमा बसो संखो पणदो य बारसमो ॥ १॥" भावनन्दिधिा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतो नन्दिपदार्थस्य क्षेपाः ज्ञाता तत्र चोपयुक्तः, 'उपयोगो भावनिक्षेप' इति वचनात्, नोआगमतः पञ्चप्रकारज्ञानसमुदयः, 'भावम्मि य पञ्चनामाई' इति वचनात्, अथवा पञ्चप्रकारज्ञानखरूपमात्रप्रतिपादकोऽध्ययनविशेषो भावनन्दिः, नोशब्दस्सैकदेशवचनत्वात, अस्स चाध्ययनस्य सर्वश्रुतैकदेशत्वात्, तथाहि-अयमध्ययनविशेषः सर्वश्रुताभ्यन्तरभूतो वर्तते, तत एकदेशः, अत एव चायं सर्वश्रुतस्कन्धारम्भेषु सकलप्रत्यूहनिवृत्तये मङ्गलार्थमादौ तत्त्ववेदिभिरभिधीयते, अस्य च मझलस्थानप्राप्तस्य व्याख्याप्रक्रमे पूर्वसूरयो विनयानां सूत्रार्थगौरवोत्पादनार्थमविच्छेदेन तीर्थकराद्यावलिका आचक्षते, तत आचार्योऽपि देववाचकनामा ज्ञानपञ्चकं व्याचिख्यासुः प्रथमत आवलिका अभिधित्सुरविलेन अध्यापकश्रावकपाठकचिन्तकानामभिलषितार्थसिद्धये 'अनादिमन्तस्तीर्थकरा' इतिज्ञापनार्थ सामान्यतो भगवत्तीर्थकृतस्तुतिमभिधातुमाहजयइ जगजीवजोणीवियाणओ जगगुरू जगाणंदो। जगणाहो जगबंधू जयइ जगप्पियामहो भयवं ॥१॥ इह स्तुतिर्द्विधा-प्रणामरूपा असाधारणगुणोत्कीर्तनरूपा च, तत्र प्रणामरूपा सामर्थ्यगम्या, यथा च सामर्थ्य| १ द्रव्ये तूर्यसमुदयः। - [१] रद For P OW भगवत् तिर्थकर (सामान्य) स्तुति Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [-] /गाथा ||१|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४४], चूलिका सूत्र [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः गम्या तथाऽनन्तरमेव वक्ष्यते, असाधारणगुणोत्कीर्त्तनरूपा च द्विधा-खार्थसम्पदभिधायिनी परार्थसम्पदभिधायिनी च, तत्र स्वार्थसम्पन्नः परार्थ प्रति समर्थों भवतीति प्रथमतः खार्थसम्पदमाह - 'जयति' इन्द्रियविषयकषायघातिकर्म्मपरिषहोपसर्गादिशत्रुगणपरिजयात् सर्वानप्यतिशेते, इत्थं सर्वातिशायी च भगवान् प्रेक्षावतामवश्यं प्रणामाईः ततो जयतीति, किमुक्तं भवति ? - तं प्रति प्रणतोऽस्मीति, किंविशिष्टो जयतीत्याह- 'जगज्जीवयोनिविज्ञायकः' जगद्-धर्माधर्म्माकाशपुद्गलास्तिकायरूपं 'जगद् ज्ञेयं चराचर' मिति वचनात् 'जीवा' इति जीवन्ति - प्राणान् धारयन्तीति जीवाः, कः प्राणान् धारयतीति ? चेत्, उच्यते, यो मिथ्यात्वादिकलुषिततया वेदनीयादिकर्मणामभिनिर्वर्त्तकस्तत्फलस्य च सुखदुःखादेरुपभोक्ता नारकादिभवेषु च यथाकर्म्मविपाकोदयं संसती सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयाभ्यासप्रकर्षवशाञ्चाशेषकम्र्म्माशापगमतः परिनिर्वाता स प्राणान् धारयति स एव चात्मेत्यभिधीयते, उक्तं च--"यः कर्त्ता कर्म्मभेदानां भोक्ता कर्म्मफलस्य च । संसर्त्ता परिनिर्माता, स ह्यात्मा नान्यलक्षणः ॥ १ ॥” कथमेतत्सि - द्विरिति चेत् ?, उच्यते, प्रतिप्राणि स्वसंवेदनप्रमाणसिद्धचैतन्यान्यथाऽनुपपत्तितः, तथाहि —न चैतन्यमिदं भूतानां धर्म्मः, तद्धर्म्मत्वे सति पृथिव्याः काठिन्यस्येव सर्वत्र सर्वदा चोपलम्भप्रसङ्गात् न च सर्वत्र सर्वदा चोपलभ्यते, लोष्ठादी मृतावस्थायां चानुपलम्भात्, अथात्रापि चैतन्यमस्ति केवलं शक्तिरूपेण ततो नोपलभ्यते, तदयुक्तं, विकल्पद्वयानतिक्रमात्, तथाहि - सा शक्तिश्चैतन्याद्विलक्षणा उत चैतन्यमेव १, यदि विलक्षणा तर्हि कथमारव्यते Eaton Internation For Pasta Lise Only ~8~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ...................... मूल [-]/गाथा ||१|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: गिरीया खंडनच. प्रत सूत्रांक ||१|| दीप अनुक्रम श्रीमलय शक्तिरूपेण चैतन्यमस्ति ?, न हि घटे विद्यमाने पटरूपेण घटस्तिष्ठतीति वक्तुं शक्यम्, आह च प्रज्ञाकरगुप्तोऽपि-"0-11जीवसत्ता पान्तरेण यदि तत्तदेवास्तीति मा रटीः । चैतन्यादन्यरूपस्य, भावे तद्विद्यते कथम् ॥१॥" अथ द्वितीय पक्षस्तर्हि नन्दीवृत्तिः चैतन्यमेव सा कथमनुपलम्भः ?, आवृतत्त्वादनुपलम्भ इति चेत्, नन्वावृतिरावरणं, तच्चावरणं किं विवक्षितपरिणा चार्वाकमाभावः उत परिणामान्तरमाहोखिदन्यदेव भूतातिरिक्तं किञ्चित् १, तत्र न तावद्विवक्षितपरिणामाभावः, [एकान्ततुच्छतया तस्यावारकत्यायोगात, अन्यथा तस्याप्यतुच्छरूपतया भावरूपताऽऽपत्तिः, भावत्वे च पृथिव्यादीनामन्यतमो भावो भवेत, 'पृथिव्यादीन्येव भूतानि तत्त्वमिति वचनात्, पृथिव्यादीनि च भूतानि चैतन्यस्य व्यअकानि नावारकाणीति कथमावारकत्वं तस्योपपत्तिमत् ?, अथ परिणामान्तरम्, तदप्ययुक्तं, परिणामान्तरस्यापि भूतखभायतया भूतपयक्षकत्वस्यैवोपपत्तेनावारकत्वस्थ, अथान्यदेव भूतातिरिक्तं किञ्चित्, तदतीवासमीचीनं, भूतातिरिक्ताभ्युपगमे चत्वार्येव पृथिव्यादीनि भूतानि तत्वमिति तत्त्वसङ्ख्याव्याघातप्रसङ्गात्, अपि चेदं चैतन्य प्रत्येकं वा भूतानां धर्मः समुदायस्व बा?, न तावत्प्रत्येकमनुपलम्भात्, न हि प्रतिपरमाणु संवेदनमुपलभ्यते, | यदि च प्रतिपरमाणु भवेत्तर्हि पुरुषसहस्रचैतन्यवृन्दमिव परस्परं विभिन्नस्वभावमिति नैकरूपं भवेत, अथ चैकरू-1 तापमुपलभ्यते, अहं पश्यामि अहं करोमीत्येवं सकलशरीराधिष्ठातृकैकरूपतयाऽनुभवात, अथ समुदायस्य धर्मः, तदप्यसत्, प्रत्येकमभावात, प्रत्येकं हि यदसत्तत्समुदायेऽपि न भवति, यथा रेणुषु तैलं, स्वादतेत्-मद्यानेषु प्रत्येक ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||१|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१|| मदशक्तिरदृष्टाऽपि समुदाये भवतीति दृश्यते तद्वचैतन्यमपि भविष्यति को दोषः ?, तदयुक्तं, प्रत्येकमपि मद्याङ्गेषु प्रत्येकं मदशक्त्यनुयायिमाधुर्यादिगुणदर्शनात् , तथाहि-दृश्यते माधुर्यमिक्षुरसे धातकीपुष्पेषु च मनाक् विकलतोत्पादकतेत्यादि, न चैवं चैतन्यं सामान्यतो भूतेषु प्रत्येकमुपलभ्यते, ततः कथं समुदाये तद् भवितुमर्हति , मा प्रापत् सर्वस्य सर्वत्र भावप्रसक्त्याऽतिप्रसङ्गः । किञ्च-यदि चैतन्यं धर्मत्वेन प्रतिपन्नं ततोऽवश्यमस्थानुरूपो धर्मी प्रतिपत्तव्यः, आनुरूप्पाभावे जलकाठिन्ययोरिख धर्मिधर्मभावानुपपत्तेः, न च भूतान्यनुरूपो धर्मी, लक्षण्यात्, तथाहि-चैतन्यं वोधस्वरूपममूर्त च, भूतानि च तद्विलक्षणानि, तत्कथमेतेषां परस्परं धर्मम्मिभावः ? । नापि चैतन्यमिद्रं भूतानां कार्यम्, अत्यन्तवैलक्षण्यादेव कार्यकारणभावस्थाप्ययोगात्, उक्तं च-"काठिन्याबोधरूपाणि, भूतान्यध्यक्षसिद्धितः । चेतना च न तद्रूपा, सा कथं तत्फलं भवेत् ? ॥१॥" अपिच-यदि भूतकार्य चेतना तर्हि किं न सकलमपि जगत्प्राणिमयं भवति ?, परिणतिविशेषसद्भावाभावादिति चेत् ननु सोऽपि परिणतिविशेषसद्भावः सर्वत्रापि कस्मान्न भवति ?, सोपि हि भूतमात्रनिमित्तक एव ततः कथं तस्यापि कचित्कदाचिद्भावः ?, अन्यच्चस किंरूपः परिणतिविशेष इति वाच्यम्, कठिनत्वादिरूप इति चेत्, तथाहि-काष्ठादिषु दृश्यन्ते घुणादिजन्तवो जायमानास्ततो यत्र कठिनत्वादिविशेषस्तत्प्राणिमयं न शेष इति, तदप्यसत्, व्यभिचारदर्शनात् , तथाहि-अविशिप्टेऽपि कठिनत्वादिविशेषे कचिद्भवन्ति कचिन्न कचिच कठिनत्वादिविशेषमन्तरेणापि संस्खेदजा नभसि च संमूछिमा दीप अनुक्रम Miurvastaram.org ~ 10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||१|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: नन्दीवृत्तिः जीवसत्तासिद्धि चार्वाकखंडन प्रत सूत्रांक ||१|| AN दीप अनुक्रम श्रीमलय-1 18|जायन्ते, किञ्च-समानयोनिका अपि विचित्रवर्णसंस्थाना दृश्यन्ते प्राणिनः, तथाहि-गोमयायेकयोनिसम्भवि- गिरीया नोऽपि केचिन्नीलतनवोऽपरे पीतकाया अन्ये विचित्रवर्णाः, संस्थानमप्येतेषां परस्परं विभिन्नमेव, तद्यदि भूतमात्र निमित्तं चैतन्यं तत एकयोनिकाः सर्वेऽप्येकवर्णसंस्थाना भवेयुः, न च भवन्ति, तस्मादात्मान एव तत्तत्क॥४॥ मर्मवशात्तथोत्पद्यन्ते इति प्रतिपत्तव्यं । स्यादेतत्-तदाऽऽगच्छन् गच्छन् वा नात्मोपलभ्यते, केवलं देहे सति संवेदन|मुपलभ्यते, देहाभावे च भरमावस्थायां न, तस्मान्नास्त्यात्मा, किन्तु संवेदनमात्रमेवैकमस्ति, तच देहकार्य, देहे एव च समाश्रितं, कुड्ये चित्रवत्, न चित्रं कुड्यविरहितमवतिष्ठति, नापि कुड्यान्तरं सङ्कामति, नागतं वा कुड्यान्तरात, किन्तु कुड्ये एव उत्पन्नं कुड्ये एव च विलीयते, एवं संवेदनमपि, तदप्यसत, आत्मा हि खरूपेणामूर्तः, आन्तरमपि शरीरमतिसूक्ष्मत्वान्न चक्षुर्विषयः, तदुक्तम्-“अन्तरा भवदेहोऽपि, सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यते । निष्क्रामन् प्रविशन्नात्मा, नाभावोऽनीक्षणादपि ॥१॥" तत आन्तरशरीरयुक्तोऽप्यात्मा आगच्छन् गच्छन् वा नोपलभ्यते, लिङ्गतस्तूपलभ्यते एप, तथाहि-कृमेरपि जन्तोसत्कालोत्पन्नस्थाप्यस्ति निजशरीरविषयः प्रतिबन्धः, उपघातकमुपलभ्य पलायनदर्शनात, यश्च यद्विषयः प्रतिबन्धः स तद्विषयपरिशीलनाभ्यासपूर्वकः, तथादर्शनात्, न खल्वत्यन्तापरिज्ञातगुणदोषवस्तुविषये कस्याप्याग्रह उपजायते, ततो जन्मादौ शरीराग्रहः शरीरपरिशीलनाभ्यासजनितसंस्कारनिवन्धन इति सिद्धमात्मनो जन्मान्तरादागमनम्, उक्तं च-"शरीराग्रहरूपस्य, चेतसः सम्भवो यदा । जन्मादौ ~ 11~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||१|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१|| दीप अनुक्रम दहिनां दृष्टः, किन जन्मान्तरागतिः १ ॥१॥" अथागतिः प्रत्यक्षतो नोपलभ्यते ततः कथमनुमानादवसीयते ?, नैष दोषः, अनुमेयविषये प्रत्यक्षवृत्तेरनभ्युपगमात्, परस्परविषयपरिहारेण हि प्रत्यक्षानुमानयोः प्रवर्तनमिष्यते ततः कथं स एव दोषः, आह च-"अनुमेयेऽस्ति नाध्यक्षमिति कैवात्र दुष्टता ? । अध्यक्षस्थानुमानस्य, विषयो विषयो न हि ॥१॥" अथ तजातीयेऽपि प्रत्यक्षवृत्तिमन्तरेण कथमनुमानमुदयितुमुत्सहते ?, न खलु यस्याग्निविषया प्रत्यक्षवृत्तिर्महानसेऽपि नासीत् तस्यान्यत्र क्षितिधरादौ धूमामध्वजानुमानं, तदप्ययुक्तम्, अत्रापि तज्जातीये प्रत्यक्षत्तिभावात्, तथाहि-आग्रहोऽन्यत्र परिशीलनाभ्यासात् प्रवृत्तः प्रत्यक्षत एवोपलब्धः, तदुपष्टम्भेनेहाप्यनुमान प्रवर्तते, उक्तं च-"आग्रहस्तावदभ्यासात, प्रवृत्त उपलभ्यते । अन्यत्राध्यक्षतः साक्षात्ततो देहेऽनुमा न किम् ? ॥१॥" योऽपि |चित्रदृष्टान्तः प्रागुपन्यस्तः सोऽप्ययुक्तो, वैषम्यात् , तथाहि-चित्रमचेतनं गमनस्वभावरहितं च, आत्मा च चेतनः कर्मवशाद् गन्यागती च कुरुते, ततः कथं दृष्टान्तदान्तिकयोः साम्यम् ?, ततो यथा कश्चिद् देवदत्तो विवक्षिते ग्रामे कतिपयदिनानि गृहीभूत्वा ग्रामान्तरे गृहान्तरमास्थायावतिष्ठते तद्वद् आत्माऽपि विवक्षिते भवे देहं परिहाय भवान्तरे देहान्तरमारचय्यावतिष्ठते, यच्चोक्तं-'संवेदनं देहकार्यमिति, तत्र चाक्षुषादिकं संवेदनं देहाश्रितमपि कथ|ञ्चिद् भवतु, चक्षुरादीन्द्रियद्वारेण तस्योत्पत्तिसम्भवात्, यत्तु मानसं तत्कथम् ? न हि तद्देहकार्य घटते, युक्त्ययो|गात, तथाहि-तन्मानसं ज्ञानं देहादुत्पद्यमानमिन्द्रियरूपाद्वा समुत्पद्यते अनिन्द्रियरूपाहा केशनखादिलक्षणात् ?, ~ 12 ~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||१|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: जीवसत्तासिद्धिः चाबोक खंडनच. प्रत सूत्रांक ||१|| दीप अनुक्रम श्रीमलय- तत्र न तावदाधः पक्षः, इन्द्रियरूपात् तदुत्पत्ताविन्द्रियबुद्धिबद् वर्तमानार्थग्रहणप्रसक्तः, इन्द्रियं हि वार्तमानिक गिरीयाएवार्थे व्याप्रियते ततस्तत्सामर्थ्यादुपजायमानं मानसमपि ज्ञानमिन्द्रियज्ञानमिव वर्तमानार्थग्रहणपर्यवसितसत्ताकनन्दाबातमेव भवेत् , अथ यदा चक्षु रूपविषये व्याप्रियते तदा रूपविज्ञानमुत्पादयति न शेषकालं, ततः तद्रूपविज्ञानं वर्तमानार्थविषय, वर्तमाने एवार्थे चक्षुषो व्यापारात, रूपविषयव्यावृत्त्यभावे च मनोज्ञानं, ततो न तत्प्रतिनियतकालविषयं, एवं शेषेष्वपीन्द्रियेषु वाच्यं, ततः कथमिव मनोज्ञानस्य वर्तमानार्थग्रहणप्रसक्तिः, तदसाधीयो, यत इन्द्रियाश्रितं तदुच्यते यदिन्द्रियब्यापारमनुसृत्योपजायते, इन्द्रियाणां च व्यापारः प्रतिनियत एव वातैमानिके खखविषये, ततो मनोज्ञानमपि यदिन्द्रियव्यापाराश्रितं तत ऐन्द्रियज्ञानमिव वार्तमानिकार्थग्राहकमेव भवेद्, अन्यथा इन्द्रियाश्रितमेव तद् न स्यात्, उक्तं च-"अक्षव्यापारमाश्रित्य, भवदक्षजमिष्यते । तद्यापारो न तत्रेति, कथमक्षभवं भवेत् ? ॥१॥" अथानिन्द्रियरूपादिति पक्षः, तदप्ययुक्तं, तस्याचेतनत्वात् , नन्वचेतनत्वादिति कोऽर्थः, यदि इन्द्रियविज्ञानविरहादिति तदिष्यत एव, यदि नामेन्द्रियविज्ञानं ततो न भवति मनोज्ञानं तु कस्मात् न भवति ?, अथ मनोविज्ञानं नोत्पादयतीति अचेतनत्वं, तदा तदेव विचार्यमाणं इति प्रतिज्ञार्थंकदेशासिद्धो हेतुः, तदप्यसत्, अचेतनत्वादिति किमुक्तं भवति ?-खनिमित्तविज्ञानैः स्फुरच्चिद्रूपतयाऽनुपलब्धेः, स्पर्शादयो हि खस्खनिमित्तवि-14 ज्ञानैः स्फुरचिद्रूपा उपलभ्यन्ते ततस्तेभ्यो ज्ञानमुत्पद्यते इति युक्तम्, केशनखादयस्तु न मनोज्ञानेन तथा स्फुरचि VI SAREaratunniafraternal Pranaamsamucom ~ 13~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||१|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: टस प्रत सूत्रांक 4%85%25E5% ||१|| द्रूपा उपलभ्यन्ते ततः कथं तेभ्यो मनोज्ञानं भवतीति प्रतीमः ?, आह च-"चेतयन्तो न दृश्यन्ते, केशश्मश्रुनखादयः । ततस्तेभ्यो मनोज्ञानं, भवतीत्यतिसाहसम् ॥१॥" अपि च-यदि केशनखादिप्रतिबद्धं मनोज्ञानं ततः तदुच्छेदे मूलत एव न स्यात्, तदुपधाते चोपहतं भवेत्, न च भवति, तस्मात् नायमपि पक्षः क्षोदक्षमः, किश्च-मनोज्ञानस्य सूक्ष्मार्थभे(वे)त्तृत्वस्मृतिपाटवादयो विशेषा अन्वयव्यतिरेकाभ्यामभ्यासपूर्वका दृष्टाः, तथाहि-तदेव शास्त्रमूहापोहादि-IN प्रकारेण यदि पुनः पुनः परिभाव्यते ततः सूक्ष्मसूक्ष्मतरार्थावबोध उल्लसति स्मृतिपाटवं चापूर्वमुज्जृम्भते, एवं चैकत्र शास्त्रेऽभ्यासतः सूक्ष्मार्थभे(वे)त्तृत्वशक्तौ स्मृतिपाटवशक्ती चोपजातायामन्येष्वपि शास्त्रान्तरेष्वनायासेनैव सूक्ष्मा-14 र्थावबोधः स्मृतिपाटवं चोलसति, तदेवमभ्यासहेतुकाः सूक्ष्मार्थभे(वे)त्तृत्वादयो मनोज्ञानस्य विशेषा दृष्टाः, अथ कस्यचिदिहजन्माभ्यासव्यतिरेकेणापि दृश्यन्ते ततोऽवश्यं ते पारलौकिकाभ्यासहेतुका इति प्रतिपत्तव्यम्, कारणेन सह कार्यस्यान्यथाऽनुपपन्नत्वप्रतिबन्धतोऽदृष्टतत्कारणस्यापि तत्कार्यत्वविनिश्चितेः, ततः सिद्धः परलोकयायी जीवः, ६ सिद्धे च तस्मिन् परलोकयायिनि यदि कथश्चिदुपकारी चाक्षुषादेर्विज्ञानस्य देहो भवेत् भवतु न कश्चिद् दोषः, क्षदियोपशमहेतुतया देहस्यापि कथञ्चिदुपकारित्वाभ्युपगमात्, न चैतावता तन्निवृत्ती सर्वथा तन्निवृत्तिः, न हि वढेरासा दितविशेषो घटो वह्निनिवृत्तौ समूलोच्छेदं निवर्त्तते, केवलं विशेष एवं कश्चनापि, यथा सुवर्णस्य द्रवत्ता, एवमिहापि देहनिवृत्ती ज्ञानविशेष एच कोऽपि तत्प्रतिबद्धो निवर्ततां, न पुनः समूलं ज्ञानमपि, यदि पुनर्देहमात्रनिमित्तकमेव दीप अनुक्रम Mardiaram.org ~ 14~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ....................... मूलं [-]/गाथा ||१|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१|| खंडनच दीप अनुक्रम श्रीमलय- विज्ञानमिष्येत देहनिवृत्तौ च निवृत्तिमत् तर्हि देहस्य भस्मावस्थायां मा भूत् देहे तु तथाभूते एवावतिष्ठमाने जीवसत्तागिरीया मृतावस्थायां कस्मात् न भवति ?, प्राणापानयोरपि हेतुत्वात् तदभावान्न भवतीति चेत्, न, प्राणापानयोर्ज्ञानहेतु- सिद्धि नन्दीतिः वायोगात, ज्ञानादेव तयोरपि प्रवृत्तेः,तथाहि-यदि मन्दौ प्राणापानौ निःस्रष्टुमिष्यते ततो मन्दौ भवतः दीपों चेहि | चावोंकदीर्धाविति, यदि पुनर्देहमात्रनिमित्तौ प्राणापानौ प्राणापाननिमित्तं च विज्ञानं तर्हि नेत्थमिच्छावशात् प्राणापानप्रवर्त्तनं भवेत्, न हि देहमात्रनिमित्ता गौरता श्यामता या इच्छायशात् प्रवर्तमाना दृष्टा, प्राणापाननिमित्तं च यदि विज्ञान ततः प्राणापाननिहांसातिशयसम्भवे विज्ञानस्यापि निहाँसातिशयो स्याताम्, अवश्यं हि कारणे परिहीयमानेऽभि वर्द्धमाने च कार्यस्यापि हानिरुपचयश्च भवति, यथा महति मृत्पिण्डे महान् घटोऽल्पे चाल्पीयान्, अन्यथा कारप्रणमेव तद् न स्याद्, न च भवतः प्राणापाननिहोसातिशयसम्भवे विज्ञानस्यापि निहांसातिशयौ, विपर्ययस्यापि भावात्, मरणावस्थायां प्राणापानातिशयसम्भवेऽपि विज्ञानस्य निहाँसदर्शनात्, स्यादेतत्-तदानीं पातपित्तादिभि-11 दोपैदेहस्य विगुणीकृतत्वात् न प्राणापानातिशयसम्भवेऽपि चैतन्यस्यातिशयसम्भवः, अत एव मृतावस्थायामपि नी चैतन्यं, देहस्य विगुणीभूतत्वात्, तदसमीचीनतरम्, एवं सति मृतस्यापि पुनरुज्जीवनप्रसक्तेः, तथाहि-मृतस्य दोपाः ॥६ समीभवन्ति, समीभवनं च दोषाणामवसीयते ज्वरादिविकारादर्शनात्, समत्वं चारोग्यं, 'तेषां समत्वमारोग्य, क्षयवृद्धी विपर्यये' इति वचनात्, आरोग्यलाभात् खदेहस्य पुनरुज्जीवनं भवेत् , अन्यथा देहः कारणमेव न स्यात्, चेतसः SAREauratonintinnational ~ 15~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||१|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१|| मातविकारभावाभावाननुविधानात् , एवं हि देहकारणता विज्ञानस्य श्रद्धेया स्यात् यदि पुनरुज्जीवनं भवेत् , स्यादेतद् अयुक्तमिदं पुनरुज्जीवनप्रसङ्गापादनं, यतो यद्यपि दोषा देहस्य वैगुण्यमाधाय निवृत्ताः तथापि न तत्कृतस्य वैगु-1 पाण्यस्य निवृत्तिः, न हि दहनकृतो विकारः काठे दहननिवृत्तौ निवर्तमानो दृष्टः, तदयुक्तम्, इह हि किञ्चित् कचि-15 दनिवयविकारारम्भकं यथा वह्निः काष्ठे, न हि श्यामतामात्रमपि वहिना कृतं का? वहिनिवृत्ती निवर्तते, किधि-4 कात्पुनः क्वचित् निवर्त्यविकारारम्भकं यथा स एवाग्निः सुवर्णे, तथाहि-अभिकृता सुवर्णे द्रवताऽमिनिवृत्ती 31निवर्तते, तथा वाय्वादयो दोषा निवर्त्यविकारारम्भकाः, चिकित्साप्रयोगदर्शनाद्, यदि पुनरनिवर्त्यविकारारम्भका ला भवेयुः तर्हि न तद्विकारनिवर्तनाय चिकित्सा विधीयेत, वैफल्यप्रसङ्गात्, न च वाच्यम्-मरणात् प्राग् दोषा निवर्त्यविकारारम्भका मरणकाले त्वनिवर्त्यविकारारम्भका इति, एकस्यैकत्रैव निवत्यानिवत्यै विकारारम्भकत्वा योगातू, न हि एकमेव तत्रैव निवर्त्यविकारारम्भकमनिवर्त्य विकारम्भकं च भवितुमर्हति, तथाऽदर्शनात, नन ६ द्विविधो हि व्याधिः-साध्योऽसाध्यश्च, तत्र साध्यो नियत्यखभावः, तमेवाधिकृत्य चिकित्सा फलपती, असाध्यो-1 है। निवर्तनीयः, न च साध्यासाध्यभेदेन व्याधिद्वैविध्यमप्रतीतम्, सकललोकप्रसिद्धत्वाद् , व्याधिश्च दोपवैषम्यकृतः, ततः कथं दोषाणां निवानिवर्त्य विकारारम्भकत्वमनुपपन्नमिति, तदप्यसत्, भवन्मतेनासाध्यन्याधेरेवानुपपत्तेः । तथाहि-असाध्यता व्याधेः कचिदायुःक्षयात्, यतः तस्मिन्नेव व्याधी समानीषधवेद्यसम्पर्केऽपि कश्चिन्प्रियास दीप अनुक्रम ~16~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१] श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः || 61 || “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ - ]/गाथा ||१|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४४], चूलिका सूत्र [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः कश्चित् न, कचित्पुनः प्रतिकूलकम्मोदयात्, प्रतिकूलकमदयजनितो हि वित्रादिव्याधिरौषधसहस्रैरपि कश्चिदसाध्यो भवति, एतथ द्विविधमप्यसाध्यत्वं व्याधेः परमेश्वरप्रवचनवेदिनामेव मते सङ्गच्छते, न भवतो भूतमात्रतत्ववादिनः कचित्पुनरसाध्यो व्याधिर्दोषकृतविकारनिवर्त्तनसमर्थस्योपधस्याभावाद् वैद्यस्य वा, वैद्योपधसम्पर्काभावे हि व्याधिः सर्पन् सकलमप्यायुरुपक्रमते, ननु वैद्योपधसम्पर्काभावादेवास्माकमपि पुनरुज्जीवनं न भविष्यति, नहि तदस्ति किञ्चिदौषधं वैद्यो वा यत्पुनरुज्जीवयति, तदप्ययुक्तं, वैद्यौषधे हि दोषकृतविकारनिवर्त्तनार्थमिष्येते, न पुनरत्यन्तासत चैतन्यस्योत्पादनार्थं, तथाऽनभ्युपगमात्, दोषकृताश्च विकारा मृतावस्थायां स्वयमेव निवृत्ताः, ज्वरादेरदर्शनात्, ततः किं वैद्योपधान्वेषणेनेति तदवस्थ एव पुनरुज्जीवनप्रसङ्गः । अपि च कश्चिद दोषाणामुपशमेऽप्यकस्मादेव म्रियते कश्चिचातिदोषदुष्टत्वेऽपि जीवति, तदेतद् भवन्मते कथं व्यवतिष्ठते?, आह च - "दोषस्योपशमेऽप्यस्ति, मरणं कस्यचित्पुनः । जीवनं दोषदुष्टत्वेऽप्येतन्न स्याद् भवन्मते ॥ १ ॥ " अस्माकं तु मतेन यावदायुः कर्म विजृम्भते सायद् दोषैरतिपीडितोऽपि जीवति, आयुःकर्मक्षये च दोषाणामविकृतावपि म्रियते तन्न देहमात्रनिमित्तं संवेदनम् । अन्यच - देहः कारणं संवेदनस्य सहकारिभूतं भवेदुपादानभूतं वा ?, यदि सहकारिभूतं तदिष्यत एव, देहस्यापि क्षयोपशमहेतुतया कथञ्चिद् विज्ञानहेतुत्वाभ्युपगमात्, अथोपादानभूतं तदयुक्तम्, उपादानं हि तत् तस्य यद्विकारेणैव यस्य विकारो, यथा मृद् घटस्य, न च देहविकारेणैव विकारः संवेदनस्य, देहविकाराभावेऽपि भय Eucation Internationa For Parts Only ~ 17~ जीवसचा. .१५ २० ॥७॥ २६ nary or Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||१|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: SECSI प्रत सूत्रांक ||१|| शोकादिना तद्विकारदर्शनात् , तन्न देह उपादानं संवेदनस्य, उक्तंच-"अविकृत्य हि यद्वस्तु, यः पदार्थो विकार्यते । | उपदानं न तत्तस्य, युक्तं गोगवयादिवत् ॥१॥" एतेन यदुच्यते-'मातापितृचैतन्यं सुतचैतन्यस्योपादान'मिति, त-| दपि प्रतिक्षिप्तमवगन्तव्यं, तत्रापि तद्विकारे विकारित्वं तदविकारे चाविकारित्वमिति नियमादर्शनात, अन्यच-यद्य|स्योपादानं तत्तस्मादभेदेन व्यवस्थितं, यथा मृदो घटः, मातापितृचैतन्यं च चेत्सुतचैतन्यस्योपादानं ततः सुतचैतन्यं मातापितॄचैतन्यादभेदेन व्यवतिष्ठेत्, तस्माद् यत्किञ्चिदेतत् , तन्न भूतधर्मो भूतकार्य वा चैतन्यम्, अथ चास्ति प्रतिप्राणि खसंवेदनप्रमाणसिद्धमतो यस्येदं स यथोक्तलक्षणो जीवः ॥ 'योनय' इति 'युक् मिश्रणे' युवन्ति-तैजसकामर्मणशरीरवन्तः सन्त औदारिकशरीरेण वैक्रियशरीरेण वाऽऽखिति योनयो-जीवानामेवोत्पत्तिस्थानानि ताश्च सचिचादिभेदभिन्ना अनेकप्रकाराः, उक्तं च-सचित्तशीतसंवृत्तेतरमिश्रास्तद्योनयः, [सचित्तशीतसंवृत्ताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः] (तत्वा० अ०२ सू०३२) इति, जगच जीवाश्च योनयश्च जगजीवयोनयः तासां विविधम्-अनेकप्रकारमुत्पादाद्यनन्तधात्मकतया जानातीति विज्ञायको जगजीवयोनिविज्ञायकः, अनेनं केवलज्ञानप्रतिपादनात् खार्थसम्पदमाह । तथा जगद् गृणाति-यथावस्थितं प्रतिपादयति शिष्येभ्य इति जगद्गुरुः, यथावस्थितसकलपदार्थप्रतिपादक इत्यर्थः, एतेन यत्कैश्चित् शब्दस्य बहिरथ प्रति प्रामाण्यमपाक्रियते तदपास्तं द्रष्टव्यं, तथाहि ते एवमाहुः-प्रमेयं वस्तु परिच्छिन्नं प्रापयत्प्रमाणमुच्यते, प्रमेयं च विषयः प्रमाणस्येति प्रामाण्यं विषयवत्तया व्याप्तं, ततो यद्विषय-13 दीप अनुक्रम [१] ~ 18~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ...................... मूल [-]/गाथा ||१|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलयगिरीया १५ प्रत सूत्रांक ||१|| STS दीप अनुक्रम वन भवति न तत्प्रमाणं, यथा गगनेन्दीघरज्ञानं, न भवति च विषयवत् शाब्दं ज्ञानमिति, न चायमसिद्धो हेतुः, यतोत्री द्विविधो विषयः-प्रत्यक्षः परोक्षश्च, तत्र न प्रत्यक्षः शाब्दज्ञानस्य विषयो, यस्य हि ज्ञानस्य प्रतिभासेन स्फुटामनीलाद्या- प्रामाण्य. नन्दीवृत्तिः काररूपेण योऽर्थोऽनुकृतान्वयव्यतिरेकः स तस्य प्रत्यक्षः, तस्य च प्रत्यक्षस्यार्थस्यायमेव प्रतिपत्तिप्रकारः सम्भवदशामश्नते, नापरः, तद्विषयं च तदन्वयव्यतिरेकानुविधायि स्फुटप्रतिभासं ज्ञानं प्रत्यक्षं, प्रत्यक्षज्ञेयत्वात्, तद्न प्रत्यक्षोऽथोंनेकप्रकारप्रतिपत्तिविषयो यः शाब्दप्रमाणस्यापि विषयो भवेत् , नापि परोक्षः, तस्यापि हि निश्चिततदन्वयव्यक्तिरेकनान्तरीयकदर्शनात् प्रतिपत्तिः यथा धूमदर्शनाबढे, अन्यथाऽतिप्रसङ्गातू, न च शब्दस्यार्थेन सह निश्चितान्वयव्यतिरकता, प्रतिबन्धाभावात् , तादात्म्यतदुत्पत्त्यनुपपत्तेः, तथाहि-न बायोऽों रूपं शब्दानां नापि शब्दो रूपमर्थानां, तथाप्रतीतेरभावात्, तत्कथमेषां तादात्म्यं ? येन व्यावृत्तिकृतव्यवस्थाभेदेऽपि नान्तरीयकता स्यात्, कृतकत्वानित्यत्ववद, अपि च-यदि तादात्म्यमेषां भवेत् ततोऽनलाचलचरिकादिशब्दोचारणे वदनदहनपूरणपाटनादिदोषः प्रसज्येत, न चैवमस्ति, तद् न तादात्म्यं, नापि तदुत्पत्तिः, तत्रापि विकल्पद्वयप्रसक्तेः, तथाहि-वस्तुनः किं शब्द-12 स्योत्पत्तिरुत शब्दाद्वस्तुनः १, तंत्र वस्तुनः शब्दोत्पत्तावकृतसङ्केतस्यापि पुंसः प्रथमपनसदर्शने तच्छब्दोचारणप्रसङ्गः, शब्दाद्वस्तृत्पत्तौ विश्वस्यादरिद्रताप्रसक्तिः, तत एव कटककुण्डलायुत्पत्तेः, तदेवं प्रतिबन्धाभावात् न शब्दस्यार्थेन दासह नान्तरीयकतानिधयः, तदभावाच न शब्दादू निश्चितस्यार्थस्य प्रतिपत्तिः, अपि त्वनिवर्तितशतयाऽस्ति न वेति २६ । ॥८ ॥ 42 ~ 19~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) (४४) ....................... मूलं [-]/गाथा ||१|| .............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१|| |विकल्पितस्य, न च विकल्पितमुभयरूपं वस्त्वस्ति यत्प्राप्यं सद्विषयः स्यात्, प्रवर्त्तमानस्य तु पुरुषस्य तस्य तस्वार्थस्य । पृथिव्याममज्जनादवश्यमन्यदू ज्ञानान्तरं प्राप्तिनिमित्तमुपजायते यतः किञ्चिदवाप्यत इति शाब्दज्ञानस्य विषयवत्त्वा-13 भावः, तदसत्, विषयवत्त्वाभावासिद्धेः, परोक्षस्य तद्विषयत्वाभ्युपगमात्, यत्पुनरुक्तं-'न शब्दस्वार्थेन सह निश्चितान्वयव्यतिरेकता, प्रतिबन्धाभावादिति, तदसमीचीनं, वाच्यवाचकभावलक्षणेन प्रतिबन्धान्तरेण नान्तरीयकतानिश्चयात. शब्दो हि बाह्यवस्तुवाचकखभावतया तन्नान्तरीयकः, ततस्तन्नान्तरीयकतायां निश्चितायां शब्दादू निश्चितस्यैवार्थस्य । प्रतिपत्तिन विकल्पितरूपस्य, निश्चितं च प्रापयत् विषयवदेव शाब्दं ज्ञानमिति । स्यादेतद्-यदि वास्तवसंवन्धपरिक-15 रितमूर्तयः शब्दाः तर्हि समाश्रयतु निरर्थकतामिदानी सङ्केतः, स खलु संवन्धो यतोऽर्थप्रतीतिः,स चे वास्तवो निरर्थकः सतः, तत एवार्थप्रतीतिसिद्धे, तदेतदत्यन्तप्रमाणमार्गानभिज्ञत्वसूचकं, यतो न विद्यमान इत्येव सम्बन्धोऽर्थप्रतीतिनिवन्धनं, किन्तु खात्मज्ञानसहकारी, यथा प्रदीपः, तथाहि-प्रदीपो रूपप्रकाशनखभायोऽपि यदि खात्मज्ञानसहकारिकृतसाहायकः ततो रूपं प्रकाशयति, नान्यथा, ज्ञापकत्वात् , न खलु धूमादिकमपि लिहं वस्तुवृत्त्या वयादि-12 प्रतिबद्धमपि सत्तामात्रेण वह्नयादेर्गमकमुपजायते, यदुक्तमन्यैरपि-"ज्ञापकत्वाद्धि सम्बन्धः, खात्मज्ञानमपेक्षते । तेनासौ विद्यमानोऽपि, नागृहीतः प्रकाशकः ॥१॥" सम्बन्धस्य च परिज्ञानं तदावरणकर्मक्षयक्षयोपशमाभ्यां, तौ च सङ्केततपश्चरणभावनाद्यनेकसाधनसाध्यौ, ततः तपश्चरणभावनासङ्केतादिभ्यः समुत्पन्नतदावरणकर्मक्षयक्षयो दीप अनुक्रम AM LKaruna ~ 20~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [-] /गाथा ||१|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः श्रीमलय पशमानां शब्दादर्थाच केवलादप्यवैपरीत्येन वाच्यवाचकभावलक्षणः सम्बन्धोऽवगमपथसृच्छति, तथाहि सर्वे एव सर्वगिरीमा 4 वेदिनः सुमेरुजम्बूद्वीपा दीनर्थानगृहीतसङ्केता अपि तत्सच्छच्दवाच्यानेव प्रतिपद्यन्ते तैरेव तथाप्ररूपणात्, कल्पान्तरवर्त्तिनन्दीवृत्तिः ॐ भिरन्यैरेवं प्ररूपिता इति तैरपि तथा प्ररूपिता इति चेत्, ननु तेषामपि कल्पान्तरवर्त्तिनां तथाप्ररूपणे को हेतुरिति ॥ ९ ॥ वाच्यम्, तदन्यैरेवं प्ररूपणादिति चेत् अत्रापि स एव प्रसङ्गः, समाधिरपि स एवेति चेत्, ननु तर्हि सिद्धः सुमेर्वाद्यर्थानां तदभिधायकानां च वास्तवः सम्बन्धः, सर्वकल्पवर्त्तिभिरपि सर्ववेदिभिस्तेषां सुमेर्वादिशब्दवाच्यतया प्ररूपणात्, अना|दित्वात्संसारस्य कदाचित्कैश्चिदन्यथापि सा प्ररूपणा कृता भविष्यतीति चेत्, न, अतीन्द्रियत्वेनात्र प्रमाणाभावात्, सर्वैरपि तथैव सा प्ररूपणा कृतेत्यत्रापि न प्रमाणमिति चेत्, न, अत्र प्रमाणोपपत्तेः, तथाहि शाक्यमुनिना सम्प्रति सुमेर्वादिकोऽर्थः सुमेर्वादिशब्देन प्ररूपितः, स च सुमेर्वादौ सुमेर्वादिशब्दप्रयोगः सङ्केतद्वारेणाप्यतत्खभावतायां तयोर्नोपपद्यते, तत्स्वभावत्वाभ्युपगमे च सिद्धं नः समीहितम्, अनादावपि काले तयोः तत्स्वभावत्वात्, तत्समानपरिणामस्य प्रवाहतो नित्यत्वात् तत्र सम्बन्धाभ्युपगमाद् इत्थं चैतदङ्गीकर्त्तव्यमन्यथाऽनादित्वात्संसारस्य कदाचिदन्यतोऽपि धूमादेर्भावो भविष्यतीत्येवं व्यभिचारशङ्का धूमधूमध्वजादिषु प्रसरन्ती दुर्निवारेत्यलं दुर्मतिविस्पन्दितेषु प्रयासेन, ननु यदि पारमा|र्थिकसम्बन्धनिवद्धखरूपत्वादिमे शब्दाः तात्त्विकार्थाभिधानप्रभविष्णवः तर्हि दर्शनान्तरनिवेशिपुरुषपरिकल्पितेषु वाच्येष्येतेषां प्रवृतिर्नोपपद्येत परस्परविरुद्धत्वेन तेषामर्थानां खरूपतोऽभावात् यदपि च विनष्टमनुत्पन्नं वा Education Th For Palata Use Only ~ 21~ शाब्द प्रामाण्यं. १५ २० ॥ ९ ॥ २ andrary org Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||१|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१|| तदपि खरूपेण न समस्तीति तत्रापि वाचो न प्रवर्तेरन्, अपिच-यदि वाचां सद्भूतार्थमन्तरेण न प्रवृत्तिः तर्हि न कस्याश्चिदपि वाचोऽलीकता भवेत्, न चैतत् दृश्यते, तस्मात्सर्वमपि पूर्वोक्तं मिथ्या, तदप्ययुक्तम्, इह द्विधा शब्दाः-मृषाभाषावर्गणोपादानाः सत्यभाषावर्गणोपादानाच, तत्र ये मृषाभाषावर्गणोपादानास्ते तु तीर्यान्तरीयपरिकल्पिताः कुशास्त्रसम्पर्कवंशसमुत्थवासनासम्पादितसत्ताकाः प्रधानरूपं जगत् ईश्वरकृतं विश्वम् इत्येवमाकाराः तेऽनर्थका एवाभ्युपगम्यन्ते, ते हि बन्ध्याऽबला इव तदर्थप्राप्त्यादिप्रसवविकलाः, केवलं तथाविधसंवेदनमोगफला इति न तैर्व्यभिचारः, अथ तेऽपि सत्याभिमतशब्दा इति प्रतिभासन्ते तत्कथमयं सत्यासत्यविवेको निर्धारणीयः १, ननु प्रत्यक्षाभासमपि प्रत्यक्षमिवाभासते ततः तत्रापि कथं सत्यासत्यप्रत्यक्षविवेकनिर्धारणम् ?, खरूपविषयपर्यालोचनये|ति चेत् , तथाहि-अभ्यासदशामापन्नाः स्वरूपदर्शनमात्रादेव प्रत्यक्षस्य सत्यासत्यत्वमवधारयन्ति, यथा मणिपरीक्षका मणः, अनभ्यासदशामापन्नास्तु विषयपर्यालोचनया, यथा-किमयं विषयः सत्य उताहो नेति, तत्रार्थक्रियासंवाददर्शनतः तद्वतखभावलिङ्गदर्शनतो वा सत्यत्वमवगच्छन्ति अन्यथा त्वसत्यत्वमिति,तदेतत्खरूपविषयपर्यालोचनया सत्या-1 सत्यत्वविवेकनिर्धारणमिहापि समानं, तथाहि-दृश्यन्त एव केचित् प्रज्ञातिशयसमन्विताः शब्दश्रवणमात्रादेव पुरुषाणां मिथ्याभाषित्वममिथ्याभाषित्वं वा सम्यगवधारयन्तः, विषयसत्यासत्यत्वपर्यालोचनायां तु किमेष वका यथावदास दीप अनुक्रम REA nand ~ 22 ~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) (४४) ..................... मूलं [-]/गाथा ||१|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रामाण्यं. नन्दीवृत्ति प्रत सूत्रांक ||१|| दीप अनुक्रम श्रीमलय-18|उत नेति ?, तत्र यदि यथावदाप्त इति निश्चितं ततो विषयसत्यत्वमितरथा त्वसत्यत्वम्, आसेतरवियेकोऽपि परि-181 गिरीयाशीलनेन लिङ्गतो वा कुतश्चिदवसेयो, निपुणेन हि प्रतिपत्रा भवितव्यं, यदप्युक्तं 'यदपि च विनष्टमनुत्पन्नं वा तदपि न खरूपेण समस्तीत्यादि' तत्रापि यदि विनष्टानुत्पन्नयोतिमानिकविद्यमानरूपाभिधायकः शब्दः प्रवर्तते तर्हि स ॥१०॥ निरर्थकोऽभ्युपगम्यत एव,ततो न तेन व्यभिचारः, यदा तु ते अपि विनष्टानुत्पन्ने विनष्टानुत्पन्नतयाऽभिधचे शब्दः तदा तद्विषयसर्वज्ञज्ञानमिव सद्भूतार्थविषयत्वास प्रमाणम्, इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम्, अन्यथाऽतीतकल्पान्तरवर्तिपार्थादिसर्वज्ञदेशना भविष्यच्छङ्खचक्रवादिदेशना च सर्वथा नोपपद्येत, तद्विषयज्ञाने शब्दप्रवृत्त्यभावात, अथोच्येत-अनलेऽनलशब्दः तदभिधानखभावतया यमभिधेयपरिणाममाश्रित्य प्रवर्तते स जले नास्ति, जलानलयोरभेदप्रसाद, अथ च प्रवर्तते सङ्केतवशाजलेऽप्यनलशब्दः तत्कथं शब्दार्थयोर्वास्तवः सम्बन्धः?, तदसत्, शब्दस्यानेकशक्तिसमन्वितत्वेनोक्तदोषानुपपत्तेः, तथाहि-नानलशब्दस्यानलवस्तुगताभिधेयपरिणामापेक्षी तदभिधानविषय एवैकः खभा-14 वः, अपि तु समयाधानतत्स्मरणपूर्वकतया विलम्वितादिप्रतीतिनिबन्धनत्वेन जलवस्तुगताभिधेयपरिणामापेक्षी तदभिधानस्वभावोऽपि, तथा तस्यापि प्रतीतेः, अन्यथा निर्हेतुकत्वेन तत्प्रतीत्यभावप्रसङ्गात्, ननु कथमेते शब्दा वस्तु-enen विषयाः प्रतिज्ञायन्ते ?, चक्षुरादीन्द्रियसमुत्थबुद्धाविव शाब्दे ज्ञाने वस्तुनोऽप्रतिभासनात् , यदेव चक्षुरादीन्द्रियबुद्धो प्रतिभासते व्यक्त्यन्तराननुयायि प्रतिनियतदेशकालं तदेव वस्तु, तस्यैवार्थक्रियासमर्थत्वात्, नेतरत्परपरिकल्पितं 11 FaPaumaan unconm ~ 23~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ....................... मूल [-]/गाथा ||१|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१|| सामान्य, विपर्ययात्, न च तदर्थक्रियासमर्थ वस्तु शाब्दे ज्ञाने प्रतिभासते, तस्मादवस्तुविषया एते शब्दाः, तथा |चात्र प्रमाणं-योऽर्थः शाब्दे ज्ञाने येन शब्देन सह संस्पृष्टो नावभासते न स तस्य शब्दस्य विषयः, यथा गोशब्द-18 स्थाश्चा, नावभासते चेन्द्रियगम्योऽर्थः शान्दे ज्ञाने शब्देन संस्पृष्ट इति, यो हि यस्य शब्दस्यार्थः स तेन सह संस्पृष्टः शाब्दे ज्ञाने प्रतिभासते, यथा गोशब्देन गोपिण्डः, एतावन्मात्रनिवन्धनत्वाद् वाच्यत्वस्येति, तदेतदसमीचीनम्, इन्द्रियगम्यार्थस्य शाब्दे ज्ञाने शब्देन सहानवमासासिद्धेः, तथाहि-कृष्णं महान्तमखण्ड मसृणमपूर्वमप-2 वरकात् घटमानयेत्युक्तः कश्चित् तज्ज्ञानायरणक्षयोपशमयुक्तः तमय तथैव प्रत्यक्षमिव शाब्दे ज्ञाने प्रतिपद्यते, तदन्यघटमध्ये तदानयनाय तं प्रति भेदेन प्रवर्तनात् , तथैव च तत्प्राप्तेः, अथ तत्राप्यस्फुटरूप एव वस्तुनः प्रतिभासोऽनुभूयते, स्कुटाभं च प्रत्यक्ष, तत्कथं प्रत्यक्षगम्यं वस्तु शाब्दज्ञानस्य विषयः, नैष दोषः, स्फुटास्फुटरूपप्रतिभासभेदमात्रेण प्रस्तुभेदायोगात्, तथाहि-एकस्मिन्नेव नीलवस्तुनि दूरासन्नवर्तिप्रतिपत्तृज्ञाने स्फुटास्फुटप्रतिभासे उपलभ्येते, न च तत्र वस्तुभेदाभ्युपगमः, द्वयोरपि प्रत्यक्षप्रमाणतयाऽभ्युपगमात, तोहाप्येकस्मिन्नपि वस्तुनीन्द्रियजशा-14 ब्दज्ञाने स्फुटास्फुटप्रतिभासे भविष्यतो, न च तद्गोचरवस्तुभेदः, अथ वस्त्वभावेऽपि शाब्दज्ञानप्रतिभासाविशेषात् सत्यपि वस्तुनि शाब्दज्ञानं न तद्याधात्म्यसंस्पर्शि, तभावाभावयोरननुविधानात्, यस्य हि ज्ञानस्य प्रतिभासो यस्य भावाभावावनुविधत्ते तत्तस्य परिच्छेदकं, न च शाब्दज्ञानप्रतिभासो वस्तुनो भावाभावावनु दीप अनुक्रम १३ I shanana ~ 24~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||१|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१|| ॥११॥ दीप अनुक्रम विधत्ते, वस्त्वभावेऽपि तदविशेषात् , तन्न वस्तुनः परिच्छेदकं शाब्दज्ञानं रसज्ञानमिव गन्धस्य, प्रमाणं चात्र-यज्ज्ञानं यदन्वयव्यतिरेकानुविधायि न भवति न तत्तद्विषयं, यथा रूपज्ञानं रसविषयं, न भवति चे-14 प्रामाण्य. न्द्रियगम्यान्वयव्यतिरेकानुविधायि शाब्दं ज्ञानमिति व्यापकानुपलब्धेः प्रतिनियतवस्तुविषयवत्त्वं हि ज्ञानस्य निमित्तवत्तया व्याप्तं, अन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावे च निमित्तवत्त्वाभावः स्यात्, निमित्तान्तरासम्भवात् , तेन तद्विषयवत्वं निमित्तवत्त्वाभावाद्विपक्षाद्यापकानुपलब्ध्या व्यावर्त्तमानमन्वयव्यतिरेकानुविधानेन व्याप्यते इति प्रतिबन्धसिद्धेः, तदयुक्तम्, प्रत्यक्षज्ञानेऽप्येवमविषयत्वप्रसक्तेः, तथाहि-यथा जलवस्तुनि जलोलेखि प्रत्यक्षमुदयपदची-1 मासादयति तथा जलाभावेऽपि मरौ मध्याह्नमार्तण्डमरीचिकाखक्षुण्णजलप्रतिभासमुदयमानमुपलभ्यते ततो जलाभावेऽपि जलज्ञानप्रतिभासाविशेषात् सत्यपि जले जलप्रत्यक्ष प्रादुर्भवन्न तद्याथात्म्यसंस्पर्शि, तद्भावाभावयोरननुकारादित्यादि सर्वं समानमेव, अत्र देशकालखरूपपर्यालोचनया तत्त्राप्यभावादिना च मरुमरीचिकासु जलोल्लेखिनः प्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वमवसीयते, भ्रान्तं चाप्रमाणं, ततो न तेन व्यभिचारः, प्रमाणभूतस्य च वस्त्वन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वाद् व्यभिचार एव, तदेतदन्यत्रापि समानं, तथाहि-यथार्थदर्शनादिगुणयुक्तः पुरुप आप्तः, तत्प्रणीतशब्दस- 2 ॥११॥ मुत्थं च ज्ञानं प्रमाणं, न च तस्य वस्त्वन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वब्यभिचारसम्भवः, यत्पुनरनाप्तप्रणीतशब्दसमुत्थं ज्ञानं तदप्रमाणं, अप्रमाणत्वाच न तेन व्यभिचारः, यदपि च प्रमाणमुपन्वस्तं तदपि हेतोरसिद्धत्वान्न साध्यसाधना ~ 25~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||१|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१|| यालं, असिद्धता च हेतोराप्तप्रणीतशब्दस्य वस्तुव्यतिरेकेण प्रवृत्त्यसम्भवात् , यत्पुनरिदमुच्यते-शब्दः श्रूयमाणो वभिप्रायविषयं विकल्पप्रतिबिम्ब तत्कार्यतया धूम इच वह्निमनुमापयति, तत्र स एव वक्ता विशिष्टार्थाभिप्रायशब्दयोराश्रयो धर्मी, अभिप्रायविशेषः साध्यः, शब्दः साधनमिति, तदाह-वक्तुरभिप्रेतं तु सूचयेयुरिति स एव तथा प्रतिपद्यमान आश्रयोऽस्त्विति, तत्पापात्पापीयः, तथाप्रतीतेरभावाद्, न खलु कश्चिदिह धूमादिव बहिं तत्काहै। यतया शब्दादभिप्रायविषयं विकल्पप्रतिबिम्बमनुमिमीते, अपि तु वाचकत्वेन बाह्यमा प्रत्येति, देशान्तरे कालान्तरे च तथाप्रवृत्त्यादिदर्शनात् , न च देशान्तरादावपि तथा प्रतीतावन्यथा परिकल्पनं श्रेयः, अतिप्रसङ्गप्राप्तः, नामि॰मं जनयति किन्वदृष्टः पिशाचादिरित्यस्सा अपि कल्पनायाः प्रसङ्गात् , अपिच-अर्थक्रियार्थी प्रेक्षावान् प्रमाणमन्वे४पयति, न चाभिप्रायविषयं विकल्पप्रतिविम्ब विवक्षितार्थक्रियासमथे,किन्तु वायमेव वस्तु,न च वाच्यम्-अभिप्रायविपर्य विकल्पप्रतिविम्वं ज्ञात्वा बाये वस्तुनि प्रवर्तिष्यते तेनायमदोष इति, अन्यस्मिन् ज्ञाते अन्यत्र प्रवत्यनुपपत्तेः, न हि घटे परिच्छिन्ने पटे प्रवृत्तियुक्ता, एतेन विकल्पप्रतिविम्बकं शब्दवाच्यमिति यत्प्रतिपन्नं तदपि प्रतिक्षिप्तमवसेयं, तत्रापि विकल्पप्रतिबिम्बके शब्देन प्रतिपन्ने वस्तुनि प्रवृत्त्यनुपपत्तेः, दृश्यविकल्पाववेकीकृत्य वस्तुनि प्रवर्तते इति चेत्, तथाहि-तदेव विकल्पप्रतिबिम्बकं बहीरूपतयाऽध्यवस्यति ततो बहिः प्रवर्त्तते तेनायमदोष इति, न तयोरेकीकर- दीप अनुक्रम [१] SKAR १२ marana Janaurary.org ~ 26~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||१|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: शाब्दप्रामाण्य प्रत सूत्रांक ||१|| दीप अनुक्रम श्रीमलय- णासिद्धेः, अत्यन्तवैलक्षण्येन साधायोगात, साधर्म्य चैकीकरणनिमित्तम्, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् , अपि च-कश्चैतागिरीया वेकीकरोतीति वाच्यम्, स एव विकल्प इति चेत्, तद्न, तत्र बाबस्वरूपलक्षणानवभासात्, अन्यथा विकल्पत्वायोदाहातगाद, अनवभासितेन चैकीकरणासम्भयाद्, अतिप्रसक्तेः, अब विकल्पादन्य एव कश्चिद्विकल्प्यमेवार्थ दृश्यमित्यध्यव॥ स्थति, हन्त तर्हि खदर्शनपरित्यागप्रसङ्गः, एवमभ्युपगमे सति बलादात्मास्तित्वप्रसक्तेः तथाहि-निर्विकल्पकं न विकल्प्यमर्थ साक्षात्करोति, तदगोचरत्वात्, ततो न तत् रश्यमर्थ विकल्पेन सहकीकर्तुमलं, न च देशकालखभावव्यवहितार्थविषयेषु शाब्दविकल्पेषु तद्विषये निर्विकल्पकसम्भवः, तत्कथं तत्र तेन दृश्यविकल्यार्थैकीकरणम्, ततो विकल्पादन्यः सर्वत्र दृश्यविकल्पावर्थावेकीकुर्वन् बलादात्मैवोपपद्यते न च सोऽभ्युपगम्यते, तस्माच्छन्दो वाह्यस्यायस्य वाचक इत्यकामेनापि प्रतिपत्तव्यम्, इतश्च प्रतिपत्तव्यम्, अन्यथा सङ्केतस्यापि कर्जुमशक्यत्वात्, तथाहियेन शब्देन इदं तदित्यादिना सङ्केतो विधेयः तेन किं सङ्केतितेन उतासङ्केतितेन १, न तावत्सङ्केतितेन, अनवस्थाप्रसङ्गात्, तस्यापि हि येन शब्देन सङ्केतः कार्यः तेन किं सङ्केतितेन उतासङ्केतितेनेत्यादि तदेवावर्तते, अथासङ्केतितेन सिद्धः तर्हि शब्दार्थयोस्तियः सम्बन्ध इति । तथा 'जगदानन्दः' इह जगच्छन्देन संज्ञिपञ्चेन्द्रियपरिग्रहः तेषामेव भगवदर्शनदेशनादित आनन्दसम्भवात्, ततश्च जगतां-संक्षिपञ्चेन्द्रियाणाममृतस्पन्दिमूर्तिदर्शनमात्रतो निःश्रेयसाभ्युदयसाधकधर्मोपदेशद्वारेण चानन्दहेतुत्वादैहिकामुष्मिकप्रमोदकारणत्वाजगदानन्दः, अनेन ~ 27~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ....................... मूलं [-]/गाथा ||१|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक DSCAD ||१|| दोपरार्थसम्पदमाह। तथा 'जगन्नाथ' इह जगच्छब्देनसकलचराचरपरिग्रहः, नाथशब्देन च योगक्षेमकृदभिधीयते, योगक्षे मकृत् नाथ' इति विद्वत्प्रवादात् , ततश्च जगतः-सकलचराचररूपस्य यथावस्थितखरूपप्ररूपणद्वारेण वितथप्ररूपणा पायेभ्यः पालनाच नाथ इव नाथो जगन्नाथः, अनेनापि परार्थसम्पदमाह। तथा 'जगद्वन्धुः इह जगच्छब्देन सकलपाहणिगणपरिग्रहः, प्राणिन एवाधिकृत्य बन्धुत्वोपपत्तेः, ततश्च जगतः-सकलप्राणिसमुदायरूपस्याव्यापादनोपदेशप्रणयनेन है सुखस्थापकत्वाद्वन्धुरिव बन्धुर्जगद्वन्धुः, सकलजगदव्यापादनोपदेशप्रणयनं च भगवतः सुप्रतीतम् , तथा चाचारसूत्र "सव्ये पाणा सव्वे भूया सब्बे जीवा सब्वे सचा न हंतवा न अज्जावेयवा न परिघेतवा न उवद्दवेयबा, एस धम्मे सुद्धे धुवे नीए सासए समेञ्च लोयं खेयन्नेहिं पबेइए" इत्यादि, एतेन संसारमोचकानां व्यापायोपकृतये दुःखितसत्त्वव्यापादनमुपदिशतामकुशलमार्गप्रवृत्तत्वमायेदितं द्रष्टव्यं, यतस्ते एवमाहुः-यत्परिणामसुन्दरं तदापातकटुकमपि परेषामाधेयं, यथा रोगोपशमनमौषधं, परिणामसुन्दरं च दुःखितसत्वानां व्यापादनमिति, तथाहि-कृमिकीटपतङ्गमशकलावकचटककुष्टिकमहादरिद्रान्धपङ्ग्वादयो दुःखितजन्तवः पापकर्मोदयवशात्संसारसागरमभिप्लवन्ते, ततस्तेऽवश्यं तत्पापक्षपणाय परोपकारकरणैकरसिकमानसेन व्यापादनीयाः, तेषां हि व्यापादने महादुःखमतीवो १ सर्व प्राणाः सर्वं भूताः सर्वे जीवाः सर्वे सत्ता न हन्दच्या नाकापयितव्या न परिग्रहीतल्या नोपदोतव्याः, एष धर्मः शुदो भुमो नीतियुक्तः (नियः मैखिका)। शाश्वतः समेत्य छोकं खेद प्रवेदितः दीप अनुक्रम [१] १३ SAREnication inglinonal ~ 28~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ....................... मूलं [-]/गाथा ||१|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलय- गिरीया प्रत नन्दीवृत्तिः संसारमोचकानां १५ सूत्रांक ||१|| २० दीप अनुक्रम पजायते, तीप्रदुःखवेदनाभिभववशाच प्रायवद्धं पापकर्मोदीर्योदीर्यानुभवन्तः प्रतिक्षिपन्ति, स्यादेतत्-किमत्र प्रमाणं यत्ते व्यापाद्यमानाः तीनवेदनाऽनुभवतः प्राग्वद्धं पापकर्मोदीर्योदीर्य परिक्षिपन्ति न पुनरातरौद्रध्यानोपगमतः प्रभूततरं पापमावर्जयन्तीति ?, उच्यते, युष्मसिद्धान्तानुगतमेव नारकखरूपोपदर्शकं वचः, तथाहि-नारका निरन्तरं परमाधार्मिकसुरैः ताडनभेदनोत्कर्त्तनशूल्यारोपणाधनेकप्रकारमुपहन्यमानाः परमाधार्मिकसुराभावे परस्परोदीरिततीव्रवेदना रौद्रध्यानोपगता अपि प्राग्बद्धमेव कर्म क्षपयन्ति, नापूर्व पापमधिकतरमुपार्जयन्ति, नारकायुबन्धासम्भवात् , तदसम्भवश्चानन्तरं भूयः तत्रैवोत्पादाभावाद् । अपि च-यत एव रौद्रध्यानोपगता अत एव तेषां प्रभूततरप्रा- ग्बद्धपापकर्मपरिक्षयः,तीव्रसङ्क्लेशभावात् ,न खलु तीव्रसक्लेशाभावे परमाधार्मिकसुरा अपि तेषां कर्मक्षपयितुं शक्ताः, ततो रौद्रादिध्यानमुपजनयन्तोऽपि व्यापादका ब्यापाद्यानामुपकारका एव, इत्थं च व्यापादनतः तेषामुपकारसम्भवे ये तथापादनमुपेक्षन्ते प्रतिषेधन्ति वा ते महापापकारिणः, ये पुनः प्रागुपात्तपुण्यकर्मोदयवशतः मुखासिकामनुभ-1 वन्तोऽयतिष्ठन्ते न ते व्यापादनीयाः, तेषां व्यापादने सुखानुभववियोगभावतोऽवकारसम्भवात् , न च परहितनिरताः परापकृतये संरम्भमातन्वन्ति, तदेतदयुक्तम् , परोपकारो हि स एव सुधिया विधेयो य आत्मन उपकारको, न च परेषां | व्यापादनेनोपकृतिकरणे भवतः कमप्युपकारमीक्षामहे, तथाहि-परेषां व्यापादने को भवतः उपकारः, कि पुण्यवन्धः उत कर्मक्षयः, तत्र न तावत्पुण्यबन्धः, परेपामन्तरायकरणात् , ते हि परे यदि भवता न ब्यापाये [१] ॥१३॥ ~ 29~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ...................... मूल [-]/गाथा ||१|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१|| रस्ततः ते परान् सत्त्वान् व्यापाद्य पुण्यमुपार्जयेयुः, व्यापादिताश्च परवधे अप्रसक्ता इति व्यापादनं पुण्योपार्जना-1 न्तरायकरणं, न च पुण्योपार्जनान्तरायकृत् पुण्यमुपार्जयति, विरोधात् सर्वस्य पुण्यवन्धप्रसक्तेश्च एतेन यदुक्तं-परि-18 |णामसुन्दरं च दुःखितसत्त्वानां व्यापादन मिति तदसिद्धं द्रष्टव्यम् , पुण्योपार्जनान्तरायकरणेन परिणामसुन्दरत्वा योगात् , अथ कर्मक्षय इति पक्षः, ननु तत्कर्म किं सहेतुकमुताहेतुकं ?, सहेतुकमपि किमज्ञानहेतुकमुताहिंसाजन्य| मुताहो वधजन्यं ?, तत्र न तावदज्ञानहेतुकम् , अज्ञानहेतुकतायां हिंसातो निवृत्त्यसम्भवात् , यो हि यन्निमित्तो दोषः स तत्प्रतिपक्षस्यैवासेवायां निवर्त्तते, यथा हिमजनितं शीतमनलासेवनेन, न चाज्ञानस्य हिंसा प्रतिपक्षभूता, किन्तु सम्यग्ज्ञानं, तत्कथमज्ञानहेतुकं कर्म हिंसातो विनिवर्त्तते ?, अथाहिंसाजन्यमिति वदेत् , तदपि न युक्तम् , एवं |सति मुक्तानामपि कर्मबन्धप्रसक्तेः, तेषामहिंसकत्वात् , अध हिंसाजन्यं, यद्येवं तर्हि कथं हिंसात एव । तस्य निवृत्तिः, न हि यत एव यस्य प्रादुर्भावः तत एव तस्य निवृत्तिभवितुमर्हति, विरोधात्, न खल्वजीर्णप्रभवो रोगो मुहुरजीर्णकरणात निवर्त्तते, ततः प्राणिहिंसोत्पादितकर्मनिवृत्त्यर्थमवश्यमाहिंसाऽऽसेवनीया, १० उक्तं च-"तम्हा पाणिवहोयजियस्स कम्मस्स खवणहेऊओ। वहविरई कायचा संवररूवत्ति नियमेणं ॥१॥" अथाहेतुकं, न तर्हि तदस्ति, खरविपाणवत्, तत्कथं तदपगमाय प्राणिवधोद्यमो भवतः?, अथाहेतुकमप्यस्ति | कायथाऽऽकाशं, ताकाशस्येव तस्यापि न कथञ्चन विनाश इत्यफलत्वात् न कार्यः प्राणिवधः, यदप्युक्तं-ये, १२स्मात्प्राणिवथोपार्जितस्य कर्मणः क्षपणहेतुतः । वधवि रतिः कर्तव्या संवररूपेति नियमेन ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम ~ 30~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||१|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: १५ प्रत सूत्रांक ||१|| दीप अनुक्रम श्रीमलय- 1तु प्रागुपात्तपुण्यकर्मवशतः सुखासिकामनुभवन्तोऽवतिष्ठन्ते न ते व्यापादनीया' इत्यादि, तदप्ययुक्तं, यतः पुण्यपाप- संसारमोगिरीया क्षयान्मुक्तिः, ततो यथा परेषां पापक्षपणाय ब्यापादने भवतः प्रवृत्तिः तथा पुण्यक्षपणायापि भवति, अथ पापं चकमतनन्दीवृत्तिः दुःखानुभवफलं ततो व्यापादनेन दुःखोत्पादनतः पापं क्षपयितुं शक्यं, पुण्यं तु सातानुभवफलं तत्कथं दुःखोत्पादनेन खंडनम्, ॥१४॥ क्षपयितुं शक्यम् ?, सातानुभवफलं हि कर्म सातानुभवोत्पादनेनैव क्षपयितुं शक्यम् , नान्यथा, तदपि न समीचीनं, यतो यत्पुण्यं विशिष्टं देवभवे वेदनीयं तन्मनुष्यादिभवव्यापादनेन प्रत्यासन्नीक्रियते, प्रत्यासन्नीकृतं च प्रायः खल्पकालवेद्यं भवति, तत एवं पुण्यक्षपणस्थापि सम्भवात् कथं न व्यापादनेन पुण्यपरिक्षयः ?,अथ व्यापादनानन्तरं विशिष्टदेव-14 भववेदनीयः पुण्योदयः सन्दिग्धः, कस्यचित्पापोदयस्यापि सम्भवात् , ततोन व्यापादनं पुण्यमनुभवतः कर्तुमुचितम् , २० यद्येवमितरत्र कथं निश्चयः १, इतरत्रापि हि संदेह एच, तथाविधदुःखितोऽपि यदि मार्यते तर्हि नरकदुःखानुभवभागीभवति, अमारितश्च सन् कदाचनापि प्रभूतसत्त्वव्यापादनेन पुण्यमुपाज्य विशिष्टदेवादिभवभागीभवेत् , ततो दुः-18 खितानामपि व्यापादनं न भवतो युक्तम् , एवं च सति सन्दिग्धानकान्तिकोऽपि हेतुः, व्यापादनस्य परिणामसुन्दरत्वसन्देहात्, यदप्युक्तं-'युष्मसिद्धान्तानुगतं नारकखरूपोपदर्शकं वचः' इत्यादि, तदप्यसमीक्षिताभिधानं, सम्यगस्मत्सिद्धान्तापरिज्ञानादू, अस्मसिद्धान्ते ह्येवं नारकखरूपन्यावर्णना-नारकाणां परमाधार्मिकसुरोदीरितदुःखानां .परस्परोदीरितदुःखानां वा वेदनातिशयभावतः सम्मोहमुपागतानां नातीव परत्र संक्लेशो यथाऽत्रैक केषाञ्चिन्मानवानां २६ 28 ~31~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||१|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||१|| दीप अनुक्रम Pासम्मूढानां, यथा हि मानया लकुटादिप्रहारजर्जरीकृतशिरःप्रभृत्यवयवा वेदनातिशयभावतः सम्मूढचेतना नातीच | परत्र संक्लिश्यमाना उपलभ्यन्ते, तथा नारका अपि सदैव द्रष्टव्याः, ततः तथाविधतीत्रसंक्लेशाभावात् नारकाणां नाभिनवप्रभूततरपापोपचयः, यद्येवं तर्हि सम्मोहो महोपकारी, तथाहि-सम्मोहवशान्न परत्रातीव संक्लेशः, तीवेदनाभावतश्च प्राग्वद्धपापकर्मपरिक्षयः, सम्मोहश्च हिंस्रब्यापारादुपजायते, ततो हिंसका महोपकारिण इति सिमस्मत्समीहितं, तदयुक्तस्, हिंसकानां परपीडोत्पादनतः क्लिष्टकर्मवन्धप्रसक्तेः, न खलु पापस्य परपीडामतिरिच्यान्यन्निवन्धनमीक्षामहे, यदि स्वात्तर्हि मुक्तानामपि पापबन्धप्रसङ्गः, तेषामाहंसकत्वात् , ततः कथमिव सचेतनो मनसाऽपि परं व्यापादयितुमुत्सहते ? इत्यलं पापचेतोभिः सह प्रसङ्गेन । तथा 'जयति जगत्पितामहः' इति (ग्रन्थानं ५३७) इह जगच्छब्देन सकलसत्त्वपरिग्रहः, ततश्च जगतां-सकलसत्त्वानां नरकादिकुगतिविनिपातभयापायरक्ष&णात् पितेव पिता-सम्यग्दर्शनमूलोत्तरगुणसंहतिखरूपो धर्मः, स हि दुर्गती प्रयततो जन्तून् रक्षति शुभे च निःश्रेय सादौ स्थाने स्थापयति, तथा चोक्तं निरुक्तिशास्त्रवेदिभिः- "दुर्गतिप्रसृतान् जन्तून् , यस्माद्धारयते ततः। धत्ते चैतान MIशुभे स्थाने, तस्माद्धर्म इति स्मृतः॥१॥" ततः सकलस्थापि प्राणिगणस्य पितृतुल्यः, तस्यापि च पिता भगवान् ,अर्थतः तेन प्रणीतत्वात् , ततो भगवान् जगत्पितामहः, जयतीति पुनः क्रियाभिधानं स्तवाधिकाराददुष्टम् , उक्तं च-"सज्झायझाण१ खाध्यागण्यानतपऔषधेषु उपदेशरस्तुतिप्रदानेषु । सङ्कलोत्कीर्तनेषु च न भवन्ति पुनर कोषातु ॥ १॥ [१] SAREaramwlational ~ 32 ~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||२|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: सर्वश्रुताः नां भगवतो मूलत्वं. प्रत नन्दीवृत्तिः सूत्रांक ||२|| श्रीमलय- तव ओसहेसु उवएसथुइपयाणेसुं। संतगुणकित्तणेसु य न होंति पुणरुत्तदोसा उ॥१॥" अनेनापि परार्थसम्पदमाह, 'भग- गिरीया दिवानिति' भगः-समग्रैश्चर्यादिलक्षणः, आह च-“ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्साथ प्रयत्नस्य, षण्णां भग इतीझना ॥१॥" भगोऽस्यास्तीति भंगवान् , अनेन खपरार्थसम्पदमाह, खपरोपकारित्वादैश्वर्यादेः । तदेवमना॥१५॥ |दिमन्तोऽनन्तास्तीर्थकृत इति ज्ञापनार्थ सामान्यतस्तीर्थकुन्नमस्कारमभिधाय साम्प्रतं सकलसांसारिकदुःखातङ्कस18 मुच्छेदाप्रतिहतशक्तिपरमौषधकल्पप्रवचनप्रतिपादकतयाऽऽसन्नोपकारित्वाद्वर्त्तमानतीर्थाधिपतेर्भगवद्वद्धमानस्वामिनो नमस्कारमभिधित्सुराहजयइ सुआणं पभवो तित्थराणं अपच्छिमो जयइ । जयइ गुरू लोगाणं जयइ महप्पा महावीरो॥२॥ जयतीति पूर्ववत् , श्रुताना-खदर्शनानुगतसकलशास्त्राणां प्रभवन्ति सर्वाणि शास्त्राण्यस्मादिति प्रभवः-प्रथममुत्पत्तिकारणं, तदुपदिष्टमर्थमुपजीव्य सर्वेषां शास्त्राणां प्रवर्तनात् , परदर्शनशास्त्रेष्वपि हि यः कश्चित्समीचीनोऽर्थः संसारासार ताखर्गापवर्गादिहेतुः प्राण्यहिंसादिरूपः स भगवत्प्रणीतशास्त्रेभ्य एव ससुद्धृतो वेदितव्यो, न खल्वतीन्द्रियार्थपरिज्ञानम६न्तरेणातीन्द्रियः प्रमाणाबाधितोऽर्थः पुरुषमात्रेणोपदेष्टुं शक्यते, अविषयत्वात् , नचातीन्द्रियार्थपरिज्ञानं परतीर्थिकानाहै मस्तीत्येतदग्रे वक्ष्यामः, ततस्ते भगवत्प्रणीतशास्त्रेभ्यो मौलं समीचीनमर्थलेशमुपादाय पश्चादभिनिवेशवशतः खखमत्यनु दीप अनुक्रम [२] C२५ Giaramera | भगवत् वर्धमानस्वामीन: स्तुति ~33~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ...................... मूल [-]/गाथा ||२|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२|| सारेण तास्ताः खस्वप्रक्रियाः अपश्चितवन्तः, उक्तं च स्तुतिकारेण-"सुनिश्चितं नः परतत्रयुक्तिषु, स्फुरन्ति याः काश्चन सूक्तिसम्पदः। तवैव ताः पूर्वमहार्णवोत्थिता, जगत्प्रमाणं जिनवाक्यविग्रुषः॥१॥"शाकटायनोऽपि यापनीययतिग्रामाग्रणीः खोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तावादी भगवतः स्तुतिमेवमाह-'श्रीवीरममृतं ज्योतिर्नत्वाऽऽदि सर्ववेदसाम्' अत्र च न्यास कृता व्याख्या सर्ववेदसा' सर्वज्ञानानां खपरदर्शनसम्बन्धिसकलशास्त्रानुगतपरिज्ञानानाम् 'आदि प्रभवं प्रथममुत्पत्तिकारणमिति । अत एव चेह श्रुतानामित्यत्र बहुवचनम् , अन्यथैकवचनमेव प्रयुज्यते, प्रायः श्रुतशब्दस्य केवलद्वादशाङ्गमात्रयाचिनः सर्वत्रापि सिद्धान्ते एकवचनान्ततया प्रयोगदर्शनात् , सर्वश्रुतकारणत्वेन च भगवतः स्तुतिप्रतिपादने इदमप्यावेदितं द्रष्टव्यम्-सर्वाण्यपि श्रुतानि पौरुषेयाण्येव, न किमप्यपौरुषेयमस्ति, असम्भवात् , तथाहि-शास्त्रं वचनात्मकं, वचनं ताखोष्टपुटपरिस्पन्दादिरूपपुरुषव्यापारान्वयव्यतिरेकानुविधायि, ततस्तदभावे कथं भवति ?, न खलु पुरुषव्यापारमन्तरेण वचनमाकाशे ध्वनदुपलभ्यते, अपि च-तदपौरुषेयं वचनमकारणत्वान्नित्यमभ्युपगम्यते, 'सदकारणवन्नित्यमिति वचनप्रामाण्यात् , ततश्च अत्र विकल्पयुगलमवतेतीर्यते, तदपौरुषेयं वचः किमुपलभ्यस्वभावमुतानुपलभ्यखभावं?, तत्र यद्यनुपलभ्यखभावं तर्हि तस्य नित्यत्वेनाभ्युपगमात् कदाचिदपि खभावाप्रच्युतेः सर्वदेवोपलम्भाभावप्रसङ्गः, अथोपलम्भखभावं तर्हि सर्वदानुपरमेनोपलभ्येत, अन्यथा तत्खभावता दीप अनुक्रम ON Saintaman n al X m arary.org ~34 ~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||२|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२|| दीप अनुक्रम श्रीमलय-15 हानिप्रसङ्गाद् , अथोपलभ्यखभावमपि सहकारिप्रत्ययमपेक्ष्योपलम्भमुपजनयति तेन न सर्वदोपलम्भप्रसङ्गः, तदयुक्तम् , वचनस्यागिरीया एकान्तनित्यस्य सहकार्यपेक्षाया अयोगात् , ततो विशेषप्रतिलम्भलक्षणा हि तस्स तत्रापेक्षा, यदाह धर्मकीर्तिः पौरुषेयत्वनन्दीवृत्तिः खंडनम्. वृित्तिः अपेक्षाया विशेषप्रतिलम्भलक्षणत्वादिति, न च नित्यस्य विशेषप्रतिलम्भोऽस्ति, अनित्यत्वापत्तेः, तथाहि-स विशे |१५ ॥१६॥ षप्रतिलम्भः तस्यात्मभूतः, ततो विशेषे जायमाने स एव पदार्थः तेन रूपेण जातो भवति, प्राक्तनं विशिष्टाव स्थाल क्षणं रूपं विनष्टमित्यनित्यत्वापत्तिः, अयोध्येत-स-विशेषप्रतिलम्भो न तस्यात्मभूतः किन्तु व्यतिरिक्तः कथमनित्यत्यापत्तिः, यद्येवं तर्हि कथं स तस्य सहकारी ?, न हि तेन सहकारिणा तस्य वचनस्य किमप्युपक्रियते, भिन्नविशेषकरणात् , अथ भिन्नोऽपि विशेषः तस्य सम्बन्धी तेन तत्सम्बन्धिविशेषकरणात् तस्याप्युपकारी द्रष्टव्य इति सहकारी व्यपदिश्यते, ननु विशेषेणापि सह तस्य वचनस्य कः सम्बन्धो?, न तावत्तादात्म्य, भिन्नत्वेनाभ्युपगमात्, नापि तदुत्पत्तिः, विकल्पद्वयानतिकमात्, तथाहि-किं वचनेन विशेषो जन्यते ? उत विशेषेण वचनम् !, तत्र न तावदायः पक्षो, विशेषस्य सहकारिणोऽभावात् , नापि द्वितीयो, वचनस्य नित्यतया कर्तुमशक्यत्वाद् , अथ मा भूद् बचनविशेषयोर्जन्यजनकभावः, आधाराधेयभावो भविष्यति, तदप्यसमीचीनम् , आधाराधेयभावस्यापि परस्परोपकार्योपकारकभावापेक्षत्वात् , तथाहि-बदरं पतनधर्मकं सत् कुण्डेन खानन्तरदेशस्थायितया परिणामि जन्यते, तस्यान्यतोऽभावात् , ततः कथमनयोराधाराधेयभाव ?, अथ तेन विशेषेण वचनस्योपकारः कचिकि-IX [२] ~35~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||२|| .............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत SANSLG सूत्रांक ||२|| दीप अनुक्रम 18 यते ततः स तस्य सम्बन्धी, ननु स उपकारः ततो भिन्नोऽभिन्नो वेत्यादि तदेवावर्त्तते इत्यनवस्था । अपि च-कुतः प्रमाणाद्वचनस्थापौरुषेयत्वाभ्युपगमः ?, कर्तुरस्मरणादिति चेत्, न, तस्याप्यसिद्धत्वात् , तथाहि-स्मरन्ति जिनप्रणीतागमतत्त्ववेदिनो वेदख कर्तृन् पिप्पलादप्रभृतीन् , स कर्तृस्मरणवादः तेषां मिथ्यारूप इति चेत्, क इदानी| मेवं सति पौरुषेयः, सर्वस्याप्यपौरुषेयत्वप्रसक्तेः, तथाहि कालिदासादयोऽपि कुमारसम्भवादिष्वात्मानमन्यं वा प्रणेतारमुपदिशन्त एवं प्रतिक्षेप्तुं शक्यन्ते, मिथ्या त्वमात्मानमन्यं वा कुमारसम्भवादिषु प्रणेतारमुपदिश सीति, ततः कुमारसम्भवादयोऽपि अन्याः सर्वेऽप्यपौरुषेयाः भवेयुः, तथा च का प्रतिविशेषो वेदे ? येन स एव प्रमाणहै तथाऽभ्युपगम्यते न शेषागमाः, अपि च-यौष्माकीणैरपि पूर्वमहर्षिभिः सकर्तृत्वं वेदस्याभ्युपगतमेव, तथा च तद्वन्धः ऋगगिरावृचश्चक्रुः सामानि सामगिरा'विति, अथ तत्र करोतिः स्मरणे वर्तते न निष्पादने, दृष्टश्च करोतिरान्तरेऽपि वर्तमानो, यथा संस्कारे, तथा च लोके वक्तारः-पृष्ठं मे कुरु पादौ मे कुर्विति, अत्र हि संस्कारे एवं करोतिवर्तते, नापूर्वनिवर्त्तने, सम्भवति, अशक्यक्रियत्वात् , ततोऽन्यथानुपपत्या संस्कारे एवं करोतिर्वर्त्तते, वेदक्षिये तु नान्यथाऽनुपपन्नं किमपि निवन्धनमस्ति, ततः कथं तत्र स्मरणे वर्चयितुं शक्यते ?, स्वादेतद्-पदि वेदविषये करोतिः स्मरणे न वयेत तर्हि वेदस्य प्रामाण्यं न स्याद्, अथ च प्रामाण्यमभ्युपगम्यते, तचापौरुषेयत्वादेव, अन्यथा सर्वागमानामपि प्रामाण्यप्रसक्तेः, तत्तोत्रापि करोतिः प्रामाण्यान्यथानुपपत्त्या स्मरणे वर्स इति, तदे [२] SARERaintamatara ~36~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक ||२|| दीप अनुक्रम [२] श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ॥ १७ ॥ “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [-]/गाथा ||२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४४], चूलिका सूत्र [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः तदसत्, इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात्, तथाहि प्रामाण्ये सिद्धे सति तदन्यथानुपपत्या करोतेः स्मरणे वर्त्तनं करोतेः स्मरणे वृत्ती चापौरुषेयत्वसिद्धितः प्रामाण्यमित्येकासिद्धावन्यतरासिद्धिः, अनैकान्तिकं च कर्तुरस्मरणं, 'वटे वटे वैश्रवण' इत्यादिशब्दानां पौरुषेयाणामपि कर्त्तुरस्मृतेः, यलवान् तत्कर्त्तारमुपलभते एवेति चेत्, न अवश्यं तदुपलम्भसम्भवः, नियमाभावात्, किंच- अपौरुषेयत्वेनाभ्युपगतस्य वेदस्य कर्त्ता नैवास्ति कश्चित् पौरुषेयत्वेनाभ्युपगतस्य च वटे वटे वैश्रवण इत्यादेरस्तीति न प्रमाणात् कुतश्विद्विनिश्चयः, किन्तु परोपदेशात्, स च भवतो न प्रमाणं, परस्य रागादिपरीतत्वेन यथावद्वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात् ततः कर्त्तृभावसन्देह इति सन्दिग्धासिद्धोऽप्ययं हेतुः, एतेन यदन्यदपि साधनमवादीद् वेदवादी - वेदाध्ययनं सर्व्वे गुर्व्वध्ययनपूर्वकं वेदाध्ययनत्वाद्, अधुनातनवेदा- ६ २० ध्ययनवदिति, तदपि निरस्तमवसेयं, एवमपौरुषेयत्वसाधने सर्वस्याप्यपौरुषेयत्वप्रसक्तेः तथाहि - कुमारसम्भवाध्ययनं सधै गुर्वध्ययनपूर्वकं, कुमारसम्भवाध्ययनत्वाद्, इदानीन्तनकुमारसम्भवाध्ययनवदिति कुमारसम्भवादीनामध्ययनानादितासिद्धेरपौरुषेयत्वं दुर्निवारं, न च तेषामपौरुपयत्वं, स्वयंकरणपूर्वकत्वेनापि तदध्ययनस्य भावाद्, एवं वेदाध्ययनमपि किञ्चित्स्वयंकरणपूर्वकमपि भविष्यतीति वेदाध्ययनत्वादिति व्यभिचारी हेतुः, स्थादेतत्-वेदाध्ययनं ३ ॥ १७ ॥ स्वयंकरणपूर्वकं न भवति, वेदानां स्वयं कर्तुमशक्तेः, तथा चात्र प्रयोगः- पूर्वेषां वेदरचनायामशक्तिः, पुरुषत्वाद्, १ कारण अपर यक्षः प्राप्त व्याप्तत्वेन । Education International For Parts Only ~37~ वचनस्यापौरुषेयत्व खंडनम्. १५. २६ nary org Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||२|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२|| इदानीन्तनपुरुषवदिति, तदप्ययुक्तम् , अत्रापि हेतोयभिचारात्, तथाहि-भारतादिष्विदानीन्तनपुरुषाणामशक्तावपि । कस्यचित्पुरुषस्य व्यासादेः शक्तिः श्रूयते, एवं वेदविषयेऽपि सम्प्रति पुरुषाणां कर्तुमशक्तावपि कस्यचित्प्राक्तनस्य पुरुषविशेषस्य शक्तिर्भविष्यतीति । अपि च-यथाऽग्निसामान्यस्य ज्वालाप्रभवत्वमरणिनिर्मथनप्रभवत्वं च परस्परमवाध्यवाधकत्वान्न विरुध्यते, को बत्र विरोधः अग्निश्च स्यात् कदाचिदरणिनिर्मथनपूर्वकः कदाचिज्ज्वालान्तरपूर्वकश्च, ततो यथाऽऽद्योऽपि पथिककृतोऽग्निः ज्वालान्तरपूर्वको नारणिनिर्मथनपूर्वकः, पथिकाग्नित्याद्, आद्यानन्तरामिवदित्ययं हेतुळभिचारी, विपक्षे वृत्तिसम्भवात् , तथा वेदाध्ययनमपि विपक्षे वृत्तिसम्भवात् व्यभिचार्येव, तथाहि-वेदाध्ययने स्वयंकरणपूर्वकत्वमध्ययनान्तरपूर्वकत्वं च परस्परमबाध्यबाधकत्वादविरुद्धम् , ततश्च वेदाध्ययनमपि स्यात् किञ्चित्वयंकरणपूर्वकमपीति, यदा त्येवं विशिष्यते-यस्तु तथाविधः स्वयं कृत्वाऽध्येतुमसमर्थः तस्य वेदाध्ययनमध्ययनान्तरपूर्वकमिति, तदा न कश्चिदोषः, यथा यादशोऽग्निालाप्रभयो दृष्टः तादृशः सर्वोऽपि ज्वालाप्रभव इति, अस्तु वा सर्व वेदाध्ययनमध्ययनान्तरपूर्वकं, तथाऽप्येवमनादिता सिद्ध्येद् वेदस्य, नापौरुषेयत्वं, अथात एवानादितामात्रादपौरुषेयत्वसिद्धिरिष्यते तर्हि डिम्भकपांशुक्रीडादेरपि पुरुषव्यवहारस्यापौरुषेयतापत्तिः, तस्यापि पूर्वपूर्वदर्शनप्रवृत्तित्वेनानादित्वात् , अपि च-स्युरपौरुषेया वेदा यदि पुरुषाणामादिः स्याद् वेदाध्ययनं चानादि, तदाप्याद्यपुरुषस्थाध्ययनमध्ययनान्तरपूर्वकं न सिक्ष्यति, अध्यापयतुरभावात्, न च पुरुषस्य ताल्वादिकरणग्रामव्यापाराभा- १३ दीप अनुक्रम MERadimana ~ 38~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||२|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: वचनस्यापारुषेयत्व प्रत खंडनम्. सूत्रांक ||२|| दीप अनुक्रम श्रीमलय-दवात् खयं शब्दा धनन्ति, ततो वेदस्य प्रथमोऽध्येता कतैव वेदितव्यः, अपि च-यद्वस्तु यद्धेतुकमन्वयव्यतिरेकाभ्यां प्रसिद्ध तजातीयमन्यदप्यदृष्टहेतुकं ततो हेतोर्भवतीति सम्प्रतीयते, यथेन्धनादेको वह्निदृष्टः ततः तत्समानखभावोऽप- रोऽप्यदृष्टहेतुकः तत्समानहेतुकः सम्प्रतीयते, लौकिकेन च शब्देन समानधर्मा सर्वोऽपि वैदिकः शब्दराशिः ततो | ॥१८॥हलौकिकवद्वैदिकोऽपि शब्दराशिः पौरुषेयः सम्प्रतीयता, स्वादेतद्-वैदिकेषु शब्देषु यद्यपि न पुरुषो हेतुः, तथापि पौरुषेयाभिमतशब्दसमानाविशिष्टपदवाक्यरचना भविष्यति ततः कथं तत्समानधर्मतामवलोक्य पुरुषहेतुकथा तेषामनुमीयते, तदेतद्वालिशजल्पितं, पदवाक्यरचना हि यदि हेतुमन्तरेणापीप्यते तत आकस्मिकी सा भवेत् , ततश्चाकाशादावपि सा सर्वत्र सम्भवेत् , अहेतुकस्य देशादिनियमायोगात्, न च सा सर्वत्रापि सम्भवति, तस्मात्पुरुष एव तस्या हेतुरित्यवश्यं प्रतिपत्तव्यम् । अन्यच्च-पुरुषस्य रागादिपरीतत्वेन यथावद्वस्तुपरिज्ञानाभावात् तत्प्रणीतं वाक्यमयथार्थमपि सम्भाव्यते इति संशयहेतुः पुरुषोपकीर्णः, स च संशयोऽपौरुषेयत्वाभ्युगमेऽपि वेदवाक्यानां तदवस्थ एव, तथाहि-खयं तावत्पुरुषो वेदस्यार्थ नावबुध्यते, रागादिपरीतत्वात् , नाप्यन्यतः पुरुषान्तरात्, तस्यापि रागादिपरीतत्वेन यथातत्त्वमपरिज्ञानाद्, अथ जैमनिश्चिरतरपूर्वकालभावी पटुप्रज्ञः सम्यग्वेदार्थख परिज्ञाताऽऽसीत् ततः परिज्ञानमभूदिति, न हि सर्वेऽपि पुरुषाः समानप्रज्ञामेधादिगुणा इति वक्तुं शक्यम् , सम्प्रत्यपि प्रतिपुरुषं प्रज्ञादेस्तारतम्यस्य दर्शनात्, ननु स जैमनिः पुरुषो वेदसाथै यथावस्थितमवगच्छति स्मेति कुतो निश्चयः १, प्रमाणेन COLORSCO ॥१८॥ २५ Moonamura ~ 39~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||२|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत | विचार.. सूत्रांक ||२|| दीप अनुक्रम संवादादिति चेत् नन्वतीन्द्रियेष्वर्थेषु न प्रमाणस्यावतारो, यथा अग्निहोत्रहवनस्य खर्गसाधनत्वे, बहवश्चातीन्द्रिया अग्निहोत्र' अर्था वेदे व्यावय॑न्ते, तत्कथं तत्र संवादः १, अथ येष्वर्थेष्वस्मादृशां प्रमाणसम्भवः तद्विषये प्रमाणसंवाददर्शनादती-1BI इति वा४/न्द्रियाणामप्यर्थानां स सम्यक् परिज्ञाताऽभ्युपगम्यते, तदप्ययुक्तम् , रागादिकलुषिततया तस्यातीन्द्रियार्थपरिज्ञा- क्यार्थहनासम्भवादू, अन्यथा सर्वेषामप्यतीन्द्रियार्थप्रदर्शित्वप्रसक्तिस्ततः तत्कृतातीन्द्रियार्थव्याख्या मिध्यैव, अपि च आगमोऽर्थतः परिज्ञातः सन् प्रेक्षावतामुपयोगविषयो भवति, नापरिज्ञातार्थ शब्दगडमात्रं, ततोऽर्थः प्रधानः, स चेत्पुरुषप्रणीतः किं शब्दमात्रस्यापौरुषेयत्वपरिकल्पनेन ?, निरर्थकत्वात् , तन्नान्यतोऽपि वेदार्थस्य सम्यगवगमः, नापि वेदः खकीयमर्थमुपदेशमन्तरेण स्वयमेव साक्षादुपदर्शयति, ततो वेद स्पेष्टार्थप्रतिपस्युपायाभावाद् 'अग्निहोत्रं जुहुयात्वर्गकाम' इति श्रुतौ यथा वेदप्रामाणिकैरयमर्थः परिकल्प्यते-'घृताद्याहुतिं परिक्षिपेत् स्वर्गकाम' इति, तथाऽयमप्यर्थः तैः किं न कल्प्यते ?-खादेत्स्वमांसं खर्गकाम इति, नियामकाभावाद, उक्तं च-"वयं रागादि-11 समानार्थ, वेत्ति वेदस्य नान्यतः । न वेदयति वेदोऽपि, वेदार्थस्य कुतो गतिः? ॥१॥ तेनाग्निहोत्रं जुहुयात् | खर्गकाम इति श्रुतौ । खादेत्खमांसमित्येष, नार्थ इत्यत्र का प्रमा ? ॥२॥" अथ य एव शाब्दो व्यवहारो लोके दिप्रसिद्धः स एव घेदवाक्यार्थनिश्चयनिबन्धनं, न च लोकेऽग्निहोत्रशब्दस्य स्वमांसं वाच्यम् , नापि जुहुयादित्यस्य । भक्षणं, तत्कथमयमर्थः परिकल्प्यते ?, तदयुक्तम् , नानार्था हि लोके शब्दा रूढाः, यथा गोशब्दः, अपि च सर्वे | २] ~ 40~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||२|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलय गिरीया प्रत नन्दीवृत्तिः सूत्रांक ||२|| ला क्या दीप अनुक्रम शब्दाः प्रायः सर्वार्थानां वाचकाः, देशादिभेदतो द्रुतविलम्वितादिभेदेन तथाप्रतीतिदर्शनात् , तथाहि-द्रविडस्यार्य- वनसादेशमुपागतस्य मारिशब्दात् झटिति वर्षविषया प्रतीतिरुपजायते, विलम्बिता चोपसर्गविषया, यद्वा आर्यदेशोत्पन्नस्य पौरुषेयत्व दाखंडनम्. द्रविडदेशमधिगतस्य शीघ्रमुपसर्गविषया प्रतीतिः विलम्बिता च वर्षविषया, एवमनया दिशा सर्वेषामपि शब्दानां स-1 वार्थवाचकत्वं परिभावनीयं, न च वाच्यम्-एवं सति घटशब्दमात्रश्रवणादखिलार्थप्रतीतिप्रसङ्गो, यथा क्षयोपशममवबोधप्रवृत्तेः, क्षयोपशमश्च सङ्केताद्यपेक्ष इति तदभावे न भवति, ततोऽग्निहोत्रादिशब्दस्य खमांसादिवाचकत्वेऽप्य- 'अमिहोत्र' विरोध इति लौकिकशाब्दव्यवहारानुसरणेऽपि न वैदिकवाक्यानामभिलषितनियतार्थप्रतिपत्तिः। किंच-लोकप्रसिद्धे- इति वानैव शाब्देन व्यवहारेण वयं वेदवाक्यानां प्रतिनियतमर्थ निश्चेतुमुधुक्ताः, लौकिकश्च शाब्दो व्यवहारोऽनेकधा BI परिप्लवमानो दृष्टः, सङ्केतवशतः प्रायः सर्वेषामपि शब्दानां सर्वार्थप्रतिपादनशक्तिसम्भवात् , ततो लौकिकेनैव शा विचार ब्देन व्यवहारेणास्माकमाशङ्कोदपादि-कोऽत्रार्थः स्यात् ?, किं घृताहुर्ति प्रक्षिपेत् खर्गकाम इति उताहो खमांसं | खादेदिति ?, तत्कथं तत एव निश्चयः कत्तुं बुध्यते ?, न हि यो यत्र संशयहेतुः स तत्र निश्चयमुत्पादयितुं शक्त इति, अपि च-नैकान्तेन वेदे लौकिकशाब्दव्यवहारानुसरणं, खगोर्बश्यादिशब्दानामरूढार्थानामपि तत्र व्याख्यानात , यथा वर्गः-सुखविशेषः उर्वशी तु-अरणिरिति, तथा शब्दान्तरेष्वप्यरूढार्थकल्पना किं न सम्भविनी !, उक्तं च१ गति कुबमाणः। IC२० [२] REaratimhimlaland ~ 41~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||२|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२|| "खर्गावश्यादिशब्दश्च, दृष्टोऽरूढार्थवाचकः । शब्दान्तरेषु ताक्षु, तारश्येवास्तु कल्पना ॥१॥" स्यादेतद्-अग्नि होत्रादेर्वाक्यस्य स्खमांसभक्षणप्रसङ्गो न युक्तो, वेदेनैवान्यत्र तस्यान्यथा व्याख्यानात्, तदयुक्तम् , तत्रापि वाक्यापर्थस्य निर्णयाभावात् , यथोक्तं प्राक्-न हि अप्रसिद्धार्थस्य वाक्यस्य अप्रसिद्धार्थमेव याक्यान्तरं नियतार्थप्रसाधना यालं, तुल्यदोषत्वात् , अत्थमाचक्षीथाः यत्रार्थे न काचित्प्रमाणबाधा सोऽर्थी ग्राह्यो, न चाग्निहोत्रादिवाक्यस्य घृताहुतिप्रक्षेपरूपेऽर्थे प्रमाणबाधामुत्पश्यामः, तत्कथं तमर्थ न गृह्णीमः , तदेतत् स्खमांसभक्षणलक्षणेऽप्यर्थे समानं, न हि तत्रापि कांचित्प्रमाणवाधामीक्षामहे, अपि च-यदि प्रमाणवलात्प्रवृत्तिमीहसे तर्हि पौरुषेयमेव वचस्त्वयोपादेयं, तस्य लोकप्रतीत्यनुसारितया सम्प्रदायतोऽधिगतार्थतया च प्रायो युक्तिविषयत्वात् , नापौरुषेयं, विपरीततया तत्र युक्तरसम्भवात् , तथाहि-काऽत्र युक्तिः? यया खमांसभक्षणात् खर्गप्राप्तिर्वाध्यते, न घृताहुतिप्रक्षेपादिति ?, घृताद्याहुतिप्रक्षेपादीनां खर्गप्रापणादिशक्तेरतीन्द्रियत्वेन प्रत्यक्षाद्यगोचरत्वात् , सम्प्रदायस्य चार्थनयत्यकारिणोऽसम्भवाद्, एतच्चानन्तरमेव वक्ष्यामः, अथागमार्थाश्रया युक्तिः स्वमांसभक्षणतः खर्गप्राप्तेर्वाधिका भविष्यति, तदयुक्तम्, आगमार्थस्याद्याप्यनिश्चयात् अनिश्चितार्थस्य च वाधकत्वायोगात् , अथ सम्प्रदायादर्थनिश्चयो भविष्यति, तथाहिप्रथमतो वेदेन जैमनये खार्थ उपदर्शितः पश्चात्तेनास्मभ्यमुपदिष्ट इति, तदप्यसत्, वेदस्य हि यदि खार्थोपदर्शने शक्तिः ततोऽस्मभ्यमपि स्वार्थ किं नोपदर्शयति ?, तस्माजैमनयेऽपि न तेन खार्थो दर्शितः, किन्तु स वेदमुखेनात्मा दीप अनुक्रम । Saintamata o nal ~ 42 ~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||२|| .............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: गिरीया । प्रत खंडनम्. सूत्रांक ||२|| दीप अनुक्रम श्रीमलय- नमेवार्थनियमस्रष्टारमुपदर्शितवान् , यथा कश्चित्केनचित्पृष्टः-को मार्गः पाटलिपुत्रस्य ?, स प्राह-एष स्थाणुर्टश्य-18 वचनस्थामाणो वक्ति-अयं मार्गः पाटलिपुत्रस्य, तत्र न स्थाणोर्वचनशक्तिः, केवलं स्थाणुमुखेन स एवात्मानं मार्गोपदेष्टारं पारुषेयल नन्दीवृत्तिः कथयति, एवं वेदस्यापि न खार्थोपदर्शनशक्तिः, ततस्तन्मुखेन जैमनिरात्मानमेवार्थनियमस्रष्टारमुपदर्शितवान् , तन्न | 21 ॥२०॥ लौकिकशब्दव्यवहारानुसरणान्नापि युक्तेनापि च सम्प्रदायाद् वेदस्वार्थनिश्चयो, नापि तस्यापौरुषेयत्वसाधकं किमपि प्रमाणमित्यसम्भव्यपौरुषेयम् , उक्तं च-"वान्ध्येयखरविषाणतुल्यमपौरुषेय"मिति, ननु यदि वान्ध्येयखरविपाणतुल्यमपौरुषेयं भवेत् तर्हि न वेदवचोऽपौरुषेयतया शिष्टाः प्रतिगृह्णीयुः, अथ च सर्वेष्वपि देशेषु शिष्टाः प्रतिगृह्णन्तो किं नाम शिष्टत्वदृश्यन्ते, तस्मानासम्भव्यपौरुषेयम् , तदत्र पृच्छामः-के शिष्टाः ?, ननु किमत्र प्रष्टव्यम् ?, ये ब्राह्मणीयोनिसम्भविनोशी वेदोक्तविधिसंस्कृता वेदप्रणीताचारपरिपालनैकनिषण्णचेतसः ते शिष्टाः, तदेतदयुक्तं, विचाराक्षमत्वात् , तथाहि- चारा. किमिदं नाम ब्राह्मणत्वं यद्योनिसम्भवाच्छिष्टत्वं भवेत् ?, ब्रह्मणोऽपत्यत्वमिति चेत् तथाहि-ब्रह्मणोऽपत्यं ब्राह्मण २० इति व्यपदिशन्ति पूर्वर्षयः, न, एवं सति चाण्डालस्यापि ब्राह्मणत्वासक्तिः, तस्यापि ब्रह्मतनोरुत्पन्नत्वात् , उक्तं चहै| "ब्रह्मणोऽपत्यतामात्राद्, ब्राह्मणोऽतिप्रसज्यते। न कश्चिदब्रह्मतनोरुत्पन्नः कचिदिप्यते" ॥१॥ यदप्युक्तम्-'वेदोक्तविधि-12॥२०॥ संस्कृता वेदप्रणीताचारपरिपालनकनिषण्णचेतसः' इति, तदप्ययुक्तम् , इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात् , तथाहि-वेदस्य 81 प्रामाण्ये सिद्धे सति तदुक्तविधिसंस्कृताः तदर्थसमाचरणाच्छिष्टा भवेयुः, शिष्टत्वे च तेषां सिद्धे सति तत्परिग्रहा-18|२६ CROCEDERABCCIRC ~ 43~ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||२|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२|| वेदप्रामाण्यमित्येकाभावेऽन्यतरस्याप्यभावः, आह च-"शिष्टैः परिगृहीतत्वाचेदन्योऽन्यसमाश्रयः । वेदार्थाचरणा च्छिष्टास्तदाचाराच स प्रमा ॥१॥" स्यादेतत्-भवतोऽपि तत्त्वतोऽपौरुषेयं वचनमिष्टमेव, तथाहि-सर्वोऽपि दि सर्वज्ञो वचनपूर्वक एवेष्यते, "तप्पुचिया अरिहया" इति वचनप्रामाण्यात् , ततोऽनादित्वात् सिद्धं वचनस्थापौरुषे यत्वमिति, तदयुक्तम्, अनादितायामप्यपौरुषेयत्वायोगात्, तथाहि-सर्वज्ञपरम्पराऽप्येषाऽनादिरिष्यते, ततः पूर्वः पूर्वः सर्वज्ञः प्राक्तनसर्वज्ञप्रणीतवचनपूर्वको भवन्न विरुध्यते, किं च-बचनं द्विधा-शब्दरूपमर्थरूपं च, तत्र शब्ददारूपवचनापेक्षया नायमस्माकं सगरो, यदुत-सर्वोऽपि सर्वज्ञो वचनपूर्वक इति, मरुदेव्यादीनां तदन्तरेणापि सर्वदज्ञत्वश्रुतेः, किन्त्वर्थरूपापेक्षया, ततः कथं शब्दापौरुषेयत्वाभ्युपगमप्रसङ्गः, नन्वर्थपरिज्ञानमपि शब्दमन्तरेण नो-12 पपद्यते, तत्कथं न शब्दरूपापेक्षयाऽपि सारः, तदसत , शब्दमन्तरेणापि विशिष्टक्षयोपशमादिभावतोऽर्थपरिज्ञानसम्भ वात् , तथाहि-दृश्यन्ते तथाविधक्षयोपशमभावतो मार्गानुसारिबुद्धेर्वचनमन्तरेणापि तदर्थप्रतिपत्तिरिति कृतं प्रसदान, प्रकृतं प्रस्तुमः । तत्र सर्वश्रुतप्रभवा ऋषभादयोऽप्यासीरन् न च ते सम्प्रति स्तोतुं प्रस्तुता इति तद्यवच्छेदार्थ वि शेषणान्तरमाह-तीर्थकराणामपश्चिमो जयति, तत्र जन्मजरामरणसलिलसम्भृतं मिथ्यादर्शनाविरतिगम्भीरं महाभीमकपायपातालं दुरवगाहमहामोहाप-भीषणं रागद्वेषपवनविक्षोभितं विविधानिष्टेष्टसंयोगवियोगवीचीनिचयसलं उ-13 दीप अनुक्रम [२] १तपूर्षिका अर्हता। CAMERAMMorona For P OW Amlanaurary.org ~ 44 ~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||२|| .............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२|| श्रीमलय-14 स्तरमनोरथसहस्रवेलाकलितं संसारसागरं तरन्ति येन तत्तीर्थ, तच सकलजीवाजीवादिपदार्थसार्थप्ररूपकं अत्यन्तानवयं अपश्चिमराया. शेषतीर्थान्तरीयाविज्ञातचरणकरणक्रियाधारं सकलत्रैलोक्यान्तर्गतविशुद्धधर्मसम्पत्समन्वितमहापुरुषाश्रयमविसंवादि | | वीतरागनन्दीवृत्तिः प्रवचनं तत्करणशीलाः तीर्थकराः तेषां-तीर्थकराणाम् अस्मिन् भारते वर्षेऽधिकृतायामवसर्पिण्यां न विद्यते पश्चि- I 4 स्तुतिः ॥२१॥ 18 मोऽस्मादित्यपश्चिमः-सर्वान्तिमः, पश्चिम इति नोक्तम् , अधिक्षेपसूचकत्वात्पश्चिमशब्दस्य, ननु सर्वोऽपि प्रेक्षावान् फ-11 लार्थी प्रवर्तते, अन्यथा प्रेक्षावत्ताक्षितिप्रसङ्गात् , ततोऽसौ तीर्थं कुर्वन्नवश्यं फलमपेक्षते, फलं चापेक्षमाणोऽस्मा- दश इव व्यक्तमवीतरागः, तदयुक्तम् , यतः तीर्थकरनामकर्मोदयसमन्विताः सर्वेऽपि भगवन्तो वीतरागाः तीर्थप्रवर्त्त-13 सर्वज्ञस्य नाय प्रवर्तन्ते, तीर्थकरनामकर्म च तीर्थप्रवर्तनफलं, ततो भगवान् वीतरागोऽपि तीर्थकरनामकर्मोदयतः तीर्थप्रवर्त्त-11 नखभावः सवितेव प्रकाशमुपकार्योपकारानपेक्षं तीर्थ प्रवर्तयतीति न कश्चिद्दोषः, उक्तं च-'तीर्थप्रवर्त्तनफलं यत्प्रोक्तं अधिक्षेपः, कर्म तीर्थकरनाम । तस्योदयात् कृतार्थोऽप्यहस्तीर्थ प्रवर्त्तयति ॥१॥ तत्खाभाब्यादेव प्रकाशयति भास्करो यथा| २० लोकम् । तीर्थप्रवर्तनाय प्रवर्तते तीर्थकर एवम् ॥२॥" ननु तीर्थप्रवर्तनं नाम प्रवचनार्थप्रतिपादनं, प्रवचनार्थ चेद्भगवान् प्रतिपादयति तर्हि नियमादसर्वज्ञः, सर्वस्यापि वक्तरसर्वज्ञतयोपलम्भात् , तथा चात्र प्रयोगः-विवक्षितः121॥२१॥ पुरुषः सर्वज्ञो न भवति, वक्तृत्वाद, रध्यापुरुषवदिति, तदसत्, सन्दिग्धव्यतिरेकतया हेतोरनैकान्तिकत्वात् , तथाहि-न वचनं सर्ववेदनेन सह विरुध्यते, अतीन्द्रियेण सह विरोधानिश्चयात् , द्विविधो हि विरोध:-परस्परपरि- २५ SAGES दीप अनुक्रम ~ 45~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक ||२|| दीप अनुक्रम [२] Educat “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [-]/गाथा ||२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः | हारलक्षणः सहानवस्थानलक्षणश्च तत्र परस्परपरिहारलक्षणः तादात्म्यप्रतिषेधे यथा घटपटयोः, न खलु घटः पटात्मको भवति नापि पटो घटात्मकः, 'न सत्ता सदन्तरमुपैती'ति वचनात् ततोऽनयोः परस्परपरिहारलक्षणो विरोधः, एवं सर्वेषामपि वस्तूनां भावनीयम्, अन्यथा वस्तुसाङ्कर्यप्रसक्तेः, यस्तु सहानवस्थानलक्षणो विरोधः स परस्परं बाध्यबाधकभावसिद्धी सिद्ध्यति, नान्यथा, यथा वह्निशीतयोः, तथाहि विवक्षिते प्रदेशे मन्दं मन्दमभिज्वलित| वति वहाँ शीतस्यापि मन्दं मन्दं भावः, यदा पुनरत्यर्थमभिज्वाला विमुञ्चति वहिः तदा सर्वथा शीतस्याभाव इति भवत्यनयोर्विरोधः, उक्तं च- "अविकलकारणमेकं तदपरभावे यदा भवन्न भवेत् । भवति विरोधः स तयोः शीतहुताशात्मनोर्दृष्टः ॥ १ ॥” न चैवं वचनसंवेदनयोः परस्परं वाध्यबाधकभावो न हि संवेदने तारतम्येनोत्कर्षमा| सादयति वचस्थितायाः तारतम्येनापकर्ष उपलभ्यते, तत्कथमनयोः सहानवस्थानलक्षणो विरोधः १, अथ सर्ववेदी वक्ता नोपलब्ध इति विरोध उद्घुष्यते, तदयुक्तम्, अत्यन्तपरोक्षो हि भगवान्, ततः कथमनुपलम्भमात्रेण तस्याभावनिश्वयः ?, अदृश्यविषयस्यानुपलम्भस्याभावनिश्चयकत्वायोगात्, आह च प्रज्ञाकरगुप्तः- “बाध्यबाधकभावः कः, स्यातां यद्युक्तिसंविदौ । ताशोऽनुपलब्धिश्चेदुच्यतां सैव साधनम् ॥ १॥ अनिश्चयकरं प्रोक्तमीदृक्षानुपलम्भनम् । तन्नात्यन्तपरोक्षेषु, सदसत्ताविनिश्चयो ||२||” अथ वचनं विवक्षाधीनं विवक्षा च वक्तुकामता सा च रागो रागादिमतश्च सर्वज्ञत्वाभावो वीतरागस्य सर्वज्ञत्वाभ्युपगमात्, ततः कथमिव वक्तृत्वात् नासर्वज्ञत्वानुमानमिति ?, तदसद्, वक्कुकाम For Parks Use Only ~46~ १० १३ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||२|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: सर्वज्ञस्य वकृत्वस्थापनम्. प्रत सूत्रांक ||२|| श्रीमलय- ताया रागवायोगाद्, अभिष्वङ्गलक्षणो हि रागो, न च भगवतः कापि अभिष्यङ्गः, किमर्थं तर्हि देशनेति चेत् ननूक्तं गिरीया तीर्थकरनामकर्मोदयात् , अमूढलक्षो हि भगवान् ततो यत्कर्म यथा वेद्यं तत्तथैवाभिष्वङ्गाद्यभावेऽपि वेदयते, तथा नन्दीवृत्तिः चाद्यापि दृश्यन्ते परमौचित्यवेदिनः क्वचित्प्रयोजनेऽवश्यकर्त्तव्यतामवेत्याभिष्वङ्गाद्यभावेऽपि प्रवर्त्तमानाः, तीर्थकर-12 ॥२२॥ नामकर्म च देशनाविधानेन वेद्यम् , "तं च कहं वेइजइ ?, अगिलाए धम्मदेसणाईहिं" इति वचनात् , ततो न कश्चि-4 हैदोषः, स्थादेतत् , मा भूद्रागादिकार्यतया वचनादसर्वज्ञतासिद्धिः, रागादिसहचरिततया तु भविष्यति, तथाहि रागादिसहचरितं सदैव वचनमुपलभ्यते, ततो वचनाद्रागादिप्रतीतावसर्वज्ञत्वसिद्धिः, तदयुक्तम् , सहदर्शनमात्रस्यागमकत्वाद, अन्यथा क्वचिद्वक्तरि गौरत्वेन सह बचनमुपलब्धमिति गौरत्याभावे कृष्णे वक्तरि न स्यात्, अथ च तत्राप्युपलभ्यते, तन्न सहदर्शनमात्रं गमकं, ततो विपक्षे व्यावृत्तिसन्देहाद्वक्तत्वादिति सन्दिग्धानकान्तिको हेतुः, अथवा विरुद्धोऽपि, विपक्षेण सह प्रतिबन्धनिश्चयात् , तथाहि-वचनं संवेदनादेवोपजायते, अन्वयव्यतिरेकाभ्यां तथानिश्चयात् , कथमन्वयव्यतिरेको प्रतीताविति चेत् ?, उच्यते, इह यथा यथा संवेदनमुत्कर्षमासादयति तथा| तथा वचखिताया अप्युत्कर्ष उपलभ्यते, संवेदनोत्कर्षाभावे च वचखिताया अपकर्षा, मूर्खाणां स्थूलभाषितयोपल- म्भात् , ततो यथा वृष्टितारतम्येन गिरिनदीपूरस्य तारतम्यदर्शनात् सर्वोत्कृष्टपूरदर्शने सर्वोत्कृष्टवृष्टयनुमानं तथेहापि दीप अनुक्रम २० [२] ॥२२ मा२५ । १ तच कथं चैयते ?, अग्लान्या धर्मदेशनादिभिः । Audioraman ~ 47~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||२|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत थनम्. सूत्रांक ||२|| दीप अनुक्रम भगवतः सर्वोत्कृष्टवक्तृत्वदर्शनात् सर्वोत्कृष्टं संवेदनमनुमीयते, अपरस्त्वाह-वचनं बितर्कविचारपुरस्सरं, तथोपल- सर्वदिनो म्भात् , वितर्कषिचारौ च विकल्पात्मको, विकल्पस्त्वस्पष्टप्रतिभासः, ततो भगवतोऽपि देशनां कुर्वतोऽस्पष्टप्रतिभासं भ्रान्ताधा न्तत्वकवैकल्पिकं ज्ञानं प्रसक्तं, तच्च प्रान्तमिति कथमभ्रान्तः सर्ववेदी ?, तदसद्, यतो वितर्कविचारावन्तरेणापि केवलज्ञानेन । यथावस्थितं वस्तूपलभ्य भगवान् वचनं परावबोधाय प्रयुक्ते, यथा शब्दव्यवहारनिष्णातः प्रत्यक्षतः स्तम्भमुपलभ्य स्तम्भशब्द, न च तस्य तथा स्तम्भशब्दं प्रयुञानस्य वितर्कविचारी, नापि ज्ञानस्यास्पष्टप्रतिभासता, तथाऽननुभ-IX वाद्, एवं भगवतोऽपि द्रष्टव्यम् , उक्तं चान्यैरपि-"न चास्पष्टावभासित्वादेव शब्दः प्रवर्तते । प्रत्यक्षदृष्टे स्तम्भादावपि शब्दप्रवर्त्तनात् ॥१॥ अयं स्तम्भ इति प्राप्तमन्यथाऽस्याप्रवर्तनम् । न चास्पष्टावभासित्वमत्र ज्ञानस्य लक्ष्यते ॥२॥ तथाऽन्यत्रापि शब्दानां, प्रवृत्तिन विरुध्यते" ॥ इति । तदेवं यतो भगवान् सर्वश्रुतानां प्रभवः सर्वतीर्थकृतां चापश्चिमस्तीर्थकरः ततः सकलसत्त्वानां गुरुः, तथा चाह-'जयति गुरुलोंकाना मिति लोकानां-सत्त्वानां गृणाति प्रवचनार्थमिति गुरुः, प्रवचनार्थप्रतिपादकतया पूज्य इत्यर्थः । तथा 'जयति महात्मा महावीरः' महान्-अविचिन्त्यशक्त्युपेत आत्मा- स्तु खभावो यस्य स महात्मा, 'शूर वीर विक्रान्ती' वीरयति स्मेति वीरो-विक्रान्तः, महान्-कषायोपसर्गपरिषहेन्द्रियादिशत्रुगणजयादतिशायी विक्रान्तो महावीरः अथवा ईर गतिप्रेरणयोः' विशेषेण ईरयति-गमयति स्फेटयति कर्म प्रापयति वा शिवमिति वीरः, अथवा (क)रि गतौ' विशेषेण-अपुनर्भावेन इयति स्म-याति स्म शिवमिति वीरः महांश्चासौ वी-||१३ २] सहार C hima ~ 48~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||३|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलय- गिरीया तिशयद्वारण प्रत नन्दीवृत्तिः ॥२३॥ सूत्रांक ||३|| रच महावीरः । जयतीति पूर्वयद, भूयोऽस्याभिधानं च स्तवाधिकाराददुष्टम् ॥ पुनरप्यस्यैव भगवतो महावीरस्थातिशयद्वारेण स्तुतिमभिधित्सुराह भदं सव्वजगुज्जोयगस्स भदं जिणस्स वीरस्स । भदं सुरासुरनमंसियस्स भदं धुयरयस्स ॥३॥ | 'भद्र' कल्याणं भवतु, कस्य ?-'सर्वजगदुद्योतकस्य' सर्व-समस्तं जगत्-लोकालोकात्मकमुद्योतयति-प्रकाशयति केव | भगवतो लज्ञानदर्शनाभ्यामिति सर्वजगदुद्योतकः, तस्स 'भद्रायुष्यक्षेमसुखहितार्थहितैराशिपीति विकल्पेन चतुर्थीविधानात् । कथं जगदुपठ्यपि भवति, यथा आयुष्यं देवदत्ताय आयुष्यं देवदत्तस्य, अनेन ज्ञानातिशयमाह । ननु विशेषणं तदुपादीयते यत्स- | द्योतकत्व|म्भवति, 'सम्भवे व्यभिचारे च विशेपण मिति वचनात् , न च सर्वजगदुद्योतकत्वं सम्भवति, प्रमाणेनाग्रहणात् । मिति! तथाहि-सर्वजगदुद्योतकत्वं भगवतः किं प्रत्यक्षेण प्रतीयते ? उतानुमानेन आहोश्विदागमेन उताहो उपमानेन गा. ३ अथवा अर्थापत्त्या ?, तत्र न तावत्प्रत्यक्षेण, भगवतश्विरातीतत्वात् , अपिच-परविज्ञानं सदैव प्रत्यक्षाविषयः, अतीन्द्रियत्वात् , ततस्तदात्वेऽपि न प्रत्यक्षेण ग्रहणं, नाप्यनुमानेन, तद्धि लिङ्गलिङ्गिसम्बन्धग्रहणपुरस्सरमेव प्रवर्तते, |लिकलिङ्गिसम्बन्धग्रहणं च किं प्रत्यक्षेण उतानुमानेन ?, तत्र न प्रत्यक्षेण, सर्ववेदनस्यात्यन्तपरोक्षतया प्रत्यक्षेण तस्मिन्नगृहीते तेन सह लिङ्गस्याविनाभावनिश्चयायोगात्, न चानिश्चिताविनाभावं लिङ्गं लिङ्गिनो गमकम् , अतिप्रसङ्गात् , यतः कुतश्चिद्यस्य तस्य वा प्रतिपत्तिप्रसक्तेः, नाप्यनुमानेन लिङ्गलिङ्गिसम्बन्धग्रहणम्, अनवस्थाप्रसङ्गात् , २६ दीप अनुक्रम [३] K unduranorm | भगवत् महावीरस्य (अतिशय आश्रिता) स्तुति ~ 49~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक ||3|| दीप अनुक्रम [3] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [-] /गाथा ||३|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः तथाहि तदप्यनुमानं लिङ्गलिङ्गि सम्बन्धग्रहणतो भवेत्, ततस्तत्रापि लिङ्ग लिङ्गिसम्बन्धग्रहणमनुमानान्तरात्कर्त्तव्यम्, तत्रापि चेयमेव वार्त्तेत्यनवस्था, नाप्यागमतः सर्ववेदनविनिश्चयः, स हि पौरुषेयो वा स्यादपौरुषेयो वा ?, पौरुषेयोऽपि सर्वज्ञकृतो रथ्यापुरुषकृतो वा ?, तत्र न तावत् सर्वज्ञकृतः, सर्वज्ञासिद्धी सर्वज्ञकृतत्वस्यैवाविनिश्चयात्, अपि च-एवमभ्युपगमे सतीतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गः तथाहि सर्वज्ञसिद्धौ तत्कृतागमसिद्धिः, तत्कृतागमसिद्धौ च सर्वज्ञसिद्धिः, अथ | रथ्यापुरुषप्रणीत इति पक्षस्तर्हि न स प्रमाणमुन्मत्तकप्रणीतशाखवत्, अप्रमाणाच तस्मान्न सुनिश्चितसर्वज्ञसिद्धिः, अ प्रमाणात्प्रमेयासिद्धेः, अन्यथा प्रमाणपर्येषणं विशीर्येत, अथापौरुषेय इति पक्षस्तर्हि ऋषभः सर्वज्ञो वर्द्धमानखामी | सर्वज्ञ इत्यादिरर्थवादः प्राप्नोति, ऋषभाद्यभावेऽपि भावात् तथाहि सर्व्वकल्पस्थायी आगमः, ऋषभादयस्त्वधुनातनकल्पवर्त्तिनः, तत ऋषभाद्यभावेऽपि पूर्व्वमप्यस्यागमस्यैवमेव भावात्कथमेतेषामृषभादीनामभिधानं तत्र परमार्थसत् ?, तस्मादर्थवाद एपः, न सर्व्वज्ञ प्रतिपादनमिति । अपि च-यद्य पौरुषेयागमाभ्युपगमस्तर्हि किमिदानीं सर्वज्ञेन ?, आगमादेव धर्माधर्मादिव्यवस्थासिद्धेः, तस्मात् नागमगम्यः सर्ववेदी, नाप्युपमानगम्यः, तस्य प्रत्यक्षपूर्वकत्वात्, तथाहि--प्रत्यक्षप्रसिद्धगोपिण्डस्य यथा गौः तथा गवय इत्यागमाहितसंस्कारस्याटव्यां पर्यटतो गवयदर्शनानन्तरं तन्नामप्रतिपत्तिरुपमानं प्रमाणं वर्ण्यते, न चैकोऽपि सर्वज्ञः प्रत्यक्षसिद्धो येन तत्सादृश्यावष्टम्भेनान्यस्य विवक्षितपुरुपस्योपमानप्रमाणतः सर्वज्ञ इति प्रतीतिर्भवेत्, नाप्यर्थापत्तिगम्यः, सा हि प्रत्यक्षादिप्रमाण गोचरीकृतार्थान्यथानु For Parts Only ~50~ पौरुषेयापौरुषेयत्वविचार. ५. १० १३ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................................... मूल [-]/गाथा ||३|| .............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलयगिरीया प्रत नन्दीत्तिः सूत्रांक ॥ २४ ॥ ||३|| दीप अनुक्रम पपत्त्या प्रवर्तते, न च कोऽप्यर्थः सर्वज्ञमन्तरेण नोपपद्यते, तत्कथमर्थापत्तिगम्यः ?, तदेवं प्रमाणपञ्चकावृत्तरेभावप्र- सर्वज्ञत्वेमाणमेव सर्वज्ञं क्रोडीकरोति, उक्तं च-"प्रमाणपञ्चकं यत्र, वस्तुरूपे न जायते । वस्त्वसत्तावबोधार्थ, तत्राभावप्रमा- निष्टापत्तिः णता ॥१॥" अपि च-सर्व वस्तु जानाति भगवान् केन प्रमाणेन ?, किं प्रत्यक्षेण उत यथासम्भव सर्वैरेव प्रमाणैः, तत्र न । ४ा खंडनश्च. तावत्प्रत्यक्षेण, देशकालविप्रकृष्टेषु सूक्ष्मेष्वमूर्तेषु च तस्याप्रवृत्तेः, इन्द्रियाणामगोचरत्वात् , यदि पुनस्तत्रापीन्द्रियं ब्या-18 प्रियेत तर्हि सर्वः सर्वज्ञो भवेत् , अथेन्द्रियप्रत्यक्षादन्यदतीन्द्रियं प्रत्यक्षं तस्सास्ति तेन सच जानातीति मन्येथाः, तदप्ययुक्तम् , तस्यास्तित्वे प्रमाणाभावात् , न च प्रमाणमन्तरेण प्रमेयसिद्धिः, सर्वस्य सर्वेष्टार्थसिद्धिप्रसक्तेः, अथवा अस्तु तदपि तथापि सर्वमेतावदेव जगति वस्तु इति न निश्चयः, न खल्वतीन्द्रियमप्यवधिज्ञानं सर्ववस्तुविषयं सिद्धं, तदपरिच्छिन्नानामपि धर्माधर्मास्तिकायादीनां सम्भवाद्, एवं केवलज्ञानापरिच्छिन्नमपि किमपि वस्तु भविष्यतीत्याश- २० काऽनतिवृत्तेने सर्व विषयं केवलज्ञानं वक्तुं शक्यं, तथा च कुतः सर्वज्ञस्यापि खयमात्मनः सर्वज्ञत्वविनिश्चयः?, अथ यथायथं सर्वरेव प्रमाणः सर्व वस्तु जानातीति पक्षः, नन्वेवं सति य एवागमे कृतपरिश्रमः स एव सर्वज्ञत्वं प्राप्नोति, आगमस्य M॥२४॥ प्रायः सर्वार्थविषयत्वात् , तथा च कः प्रतिविशेषो बर्द्धमानखाम्यादौ ? येन स एव प्रमाणमिष्यते न जैमिनिरिति । अन्यच्च-यथाऽवस्थितसकलवस्तुवेदी सर्वज्ञ इष्यते, ततोऽशुच्यादिरसानामपि यथावस्थिततया संवेदनादशुच्यादिरसास्वादप्रसङ्गः, आह च-"अशुच्यादिरसाखादप्रसङ्गश्चानिवारितः" किं च-कालतोऽनाद्यनन्तः संसारो, जगति च, २५ RCCESSOX ~514 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||३|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३|| दीप अनुक्रम सर्वदा विद्यमानान्यपि वस्तून्यनन्तानि, ततः संसारं वस्तूनि च क्रमेण विदन् कथमनन्तेनापि कालेन सर्ववेदी भविष्यति', उक्तं च-'क्रमेण वेदनं कथमिति, अत्र प्रतिविधीयते-तत्र यत्तावदुक्तं 'सर्वजगदुद्योतकत्वं भगवतः केन प्रमाणेन प्रतीयते ? इत्यादि तत्रागमप्रमाणादिति ब्रूमः, स चागमः कथञ्चिन्नित्यः प्रवाहतोऽनादित्वात्, तथाहि-यामेव द्वादशाङ्गी कल्पलताकल्पां भगवान् ऋषभखामी पूर्वभवेऽधीतवान् , अधीत्य च पूर्वभवे इहभवे च यथावत्पर्युपास्य फलभूतं केवलज्ञानमवाप्तवान् , तामेवोत्पन्नकेवलज्ञानः सन् शिष्येभ्य उपदिशति, एवं सर्वतीर्थकरेष्वपि । द्रष्टव्यम् , ततोऽसावागमोऽधैरूपापेक्षया नित्यः, तथा च वक्ष्यति-"एसा दुवालसझी न कयावि नासी न कयाविना भवइ न कयावि न भविस्सइ, धुवा नीया सासया अक्खया अन्वया अब्वाबाहा अवढ़िया निचा" इति, अस्मिंश्चागमे यथा संसारी संसारं पर्यटति यथा कर्मणामभिसमागमो यथा च तपःसंयमादिना कर्मणामपगमे केवलाभिव्यक्ति तथा सर्व प्रतिपाद्यते, इति सिद्ध आगमात्सर्वज्ञः । यदप्युक्तम्-'स पौरुषेयो वा' इत्यादि, तत्रार्थतोऽपौरुषेयः, स च न सर्वज्ञप्रकाशितत्वादेव प्रमाणं, किन्तु कथञ्चित् खतोऽपि निश्चिताविपरीतप्रत्ययोत्पादकत्वात् , ततो नेतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गः, सर्वज्ञप्रणीतत्वावगमाभावेऽपि निश्चिताविपरीतप्रत्ययोत्पादकतया तस्य प्रामाण्यनिश्चयात्, ततः। सर्वज्ञसिद्धिः, अथैवमागमात् सर्वज्ञः सामान्यतः सिद्धयति न विशेषनिर्देशेन यथाऽयं सर्वज्ञ इति, ततः कथं सर्वज्ञकालेऽपि सर्वज्ञोऽयमिति व्यवहारः१, उच्यते, पृष्टचिन्तितसकलपदार्थप्रकाशनात् , तथाहि-यद् यद् भगवान् पृ ~52~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||३|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३|| श्रीमलय- च्छयते यच यच खचेतसि प्रष्टा चिन्तयति तत्तत्सर्वं प्रत्ययपूर्वमुपदिशति, ततोऽसौ ज्ञायते यथा सर्वज्ञ इति, तेन य-15) गिरीया | दुच्यते भट्टेन-'सर्वज्ञोऽसाविति तत् , तत्कालेऽपि बुभुत्सुभिः । तज्ज्ञानज्ञेयविज्ञानरहितैर्गम्यते कथम् ॥१॥ ॥२५॥ इति, तदपासं द्रष्टव्यम् , पृष्टचिन्तितसकलपदार्थप्रकाशनेन तस्य सर्वज्ञत्वनिश्चयात् , नन्वे व्यवहारतो निश्चयो न निश्चयतो, निश्चयतो हि तदा सर्ववेदी विदितो भवति यदा तज्ज्ञेयं सर्च विदित्वा सर्वत्र संवादो गृह्यते, न चै-४ तत्कंतु शक्यम्, अथैकत्र संवाददर्शनादन्यत्रापि संवादी द्रष्टव्यः, एवं तर्हि मायावी बहुजल्पाकः सर्वोऽपि सर्वज्ञः साप्रामोति, तस्याप्येकदेशसंवाददर्शनाद्, आह च-"एकदेशपरिज्ञानं, कस्य नाम न विद्यते ? । न बेकं नास्ति सत्यार्थ, पुरुषे बहुजल्पिनि ॥१॥" तदयुक्तम् , व्यवहारतोऽपि निश्चयस्य सम्यगनिश्चयत्वात् , वैयाकरणादिनिश्चयवत् , २० तथाहि-वैयाकरणः कतिपयपृष्टशब्दव्याकरणादयं सम्यग्वैयाकरण इति निधीयते, एवं पृष्टचिन्तितार्थप्रकाशनात् स-18 वैज्ञोऽपि, न चैवं मायाविनोऽपि सर्वज्ञत्वप्रसङ्गः, मायाविनि सर्वेषु पृष्टेषु चिन्तितेपु चार्थेषु संवादायोगात, नि-13 पुणेन च प्रतिपत्रा भवितव्यम् , अथ वैयाकरणोऽन्येन वैयाकरणेन सकलब्याकरणशास्त्रार्थसंवादनिश्चयतोऽपि ज्ञातुंग शक्यते, ननु सर्वज्ञोऽप्यन्येन सर्वज्ञेन यथावत् ज्ञातुं शक्य एवेति समानम्, अथ तदानीमन्येन सर्वज्ञेन निश्चयतो [विज्ञायताम् इदानीं तु स कथं ज्ञायते ?, उच्यते, इदानीं तु सम्प्रदायादब्याहतप्रवचनार्थप्रकाशनाच, यदप्यवादीत्-18 'ऋषभः सर्वज्ञो वर्द्धमानखामी सर्वज्ञ इत्यादिरर्थवादः प्रामोतीत्यादि' तदप्यसारम् , आगमे वयं कल्पो यो यः सर्वज्ञ २६ दीप अनुक्रम ~534 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||३|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३|| उत्पद्यते तेन तेन तत्तत्कल्पवर्त्तिनां तीर्थकृतां सर्वेषामप्ययश्यं चरितानि वक्तव्यानि, ततो न ऋषभायभिधानमर्थवादः, दियदप्यभिहितं-'नाप्युपमानप्रमाणगम्य इत्यादि, तदप्ययुक्तम् , एकं सर्वशं यदा व्यवहारतो यथावद्विनिश्चित्सान्यमपि सर्व व्यवहारतः परिज्ञाय एषोऽपि सर्वज्ञ इति व्यवहरति तदा कथं नोपमानप्रमाणविषयः?, अर्थापत्तिगम्योऽपि भगवान् , अन्यथाऽऽगमार्थस्य परिज्ञानासम्भवात् , न खल्वतीन्द्रियार्थदर्शनमन्तरेणागमस्वार्थोऽतीन्द्रियः पुरुषमात्रेण यथावदवगन्तुं शक्यते, तत आगमार्थपरिज्ञानान्यथानुपपत्त्या सर्वज्ञोऽवश्यमभ्युपगन्तव्यः, एतेन यदुक्तं प्राक्-किमिदानी सर्वज्ञेन ?; आगमादेव धर्माधर्मव्यवस्थासिद्धेरिति, तत्प्रतिक्षिप्तमवसेयं, सर्वज्ञमन्तरेणागमार्थस्यैव सम्यक् । परिज्ञानासम्भवात् , यचोक्तम्-'सर्व वस्तु जानाति भगवान् केन प्रमाणेने त्यादि, तत्र प्रत्यक्षेणेति पक्षः, तदपि च प्रत्यक्षमतीन्द्रियमवसेयम् , ननु तत्राप्युक्तम्-तस्यास्तित्वे प्रमाणाभावादिति, उक्तमिदमयुक्तं तूक्तम् , तदस्तित्वेऽनुमानप्रमाणसद्भावाद, तच्चानुमानमिदं-यत्तारतम्यवत् तत्सर्वान्तिमप्रकर्षभाक्, यथा परिमाणं, तारतम्यवच्चेदं ज्ञानमिति, न चायमसिद्धो हेतुः, तथाहि-दृश्यते प्रतिप्राणि प्रज्ञामेधादिगुणपाटवतारतम्यं ज्ञानस्य, ततोऽवश्यमस्य | सर्वान्तिमप्रकर्षण भवितव्यम् , यथा परिमाणस्याकाशे, सर्वान्तिमप्रकर्षश्च ज्ञानस्य सकलवस्तुस्तोमप्रकाशकत्वं, अथ यद्विषयः तरतमभावः सर्वान्तिमप्रकर्षोऽपि तद्विषय एव युक्तः, तरतमभावश्चेन्द्रियाश्रितस्य ज्ञानस्योपलब्धः, ततः सर्यान्तिमप्रकर्षोऽपि तस्यैवेति कथमतीन्द्रियज्ञानसम्भवः, इन्द्रियाश्रितस्य च ज्ञानस्य प्रकर्षभावेऽपि न सर्वेविषयता, दीप अनुक्रम 25E0%25 ~ 54~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक ||3|| दीप अनुक्रम [3] श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ।। २६ ।। Eitical “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ - ]/गाथा ||३|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः तस्य सूक्ष्मादावप्रवृत्तेः अथोच्येत मनोज्ञानमप्यतीन्द्रियज्ञानमुच्यते, तस्य च तरतमभावः शास्त्रादौ दृट एव, तथाहि तदेव शास्त्रं कश्चित् झटित्येव पठति अवधारयति च, अपरस्तु मन्दं, बोधतोऽपि कश्चिन्मुकुलितार्थाववोधमपरो विशिष्टावबोधं, एवमन्याखपि कलासु यथायोगं मनोविज्ञानस्य तारतम्यं परिभाव्यते, ततः तस्य सर्वान्तिमः प्रकर्षः सर्वविषयो भविष्यति, तदसद्, यतो मनोविज्ञानस्यापि तरतमभावः शास्त्राद्यालम्बन एवोपलब्धः ततः प्रकर्षभावोऽपि तस्य शास्त्राद्यालम्बन एव युक्तत्योपपद्यते, न सर्वविषयः, न खल्वन्यविषयोऽभ्यासोऽन्यविषयं प्रकर्षभावमुपजनयति, तथाऽनुपलब्धेः उक्तं च- "शास्त्राद्यभ्यासतः शास्त्रप्रभृत्येवावगच्छतः । साकल्यवेदनं तस्य, कुत एवागमिष्यति १ ॥१॥" अत्रोच्यते, इह तावदिन्द्रियज्ञानाश्रितः तरतमभावो न ग्रासः, अतीन्द्रियप्रत्यक्षसाधनाय हेतोरुपन्यासात्, तथाहिसकलवस्तुविषयमतीन्द्रियप्रत्यक्षमिदानीं साधयितुमिष्टं ततः तरतमभावोऽपि हेतुत्वेनोपन्यस्तोऽतीन्द्रियज्ञानस्यैव वेदितव्यः, अन्यथा भिन्नाधिकरणस्य हेतोः पक्षधर्मत्वायोगात्, साक्षाचातीन्द्रियग्रहणं न कृतं, प्रस्तावादेव लब्धत्वात्, अतीन्द्रियं च ज्ञानमिन्द्रियानाश्रितं सामान्येन द्रष्टव्यम्, तेन मनोज्ञानमपि गृह्यते, यदप्युक्तम्- 'मनोज्ञानस्यापि तरतमभावः शाखाद्यालम्बन एवेति प्रकर्षभावोऽपि तद्विषय एव युक्त' इति, तदप्यसमीचीनं, शास्त्राद्यतिक्रान्तस्यापि तरतमभावस्य सम्भवात्, तथाहि — योगिनः परमयोगमिच्छन्तः प्रथमतः शास्त्रमभ्यसितुमुद्यतन्ते, यथाशक्ति च शास्त्रा- नुसारेण सकलमप्यनुष्ठानमनुतिष्ठन्ति मा भूत्किमपि क्रियावैगुण्यं प्रमादाद्योगाभ्यासयोग्यताहानिर्वेतिकृत्वा ततो For Parts Only ~ 55~ सर्वज्ञ सिद्धिः. १५ २० ॥ २६ ॥ २५ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................................... मूल [-]/गाथा ||३|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३|| निरन्तरमेव यथोक्तानुष्ठानपुरस्सरं शास्त्रमभ्यस्थतां शुद्धचेतसां प्रतिदिवसमभिवर्द्धन्ते प्रज्ञामेधादिगुणाः, ते चाभ्यासा दभिवर्द्धमाना अद्यापि खसंवेदनप्रमाणेनानुभूयन्ते ततो नासिद्धाः, ततः शनैः शनैरभ्यासप्रकर्षे जायमाने शास्त्रसन्द-18 दर्शितोपायाः वचनगोचरातीताः शेषप्राणिगणसंवेदनागम्याः सिद्धिपदसम्पद्धतवः सूक्ष्मसूक्ष्मतरार्थविषया मनाक् समुल सत्स्फुटप्रतिभासा ज्ञानविशेषा उत्पद्यन्ते, ततः किञ्चिदूनात्यन्तप्रकर्षसम्भवे मनसोऽपि निरपेक्षमत्यादिज्ञानप्रकर्षपर्यतोत्तरकालभावि केवलज्ञानादक्तिनं सवितुरुदयात् प्राक् तदालोककल्पमशेषरूपादिवस्तुविषयं प्रातिभं ज्ञानमुदयते, तच स्पष्टाभतयेन्द्रियप्रत्यक्षादधिकतरं, न चेदमसिद्धं, सर्वदर्शनेष्वप्यध्यात्मशास्त्रेषु तस्याभिधानात् , अथ प्रथमतो मनःसापेक्षमभ्यासमारब्धवान् , अभ्यासप्रकर्षे तूपजायमाने कथं मनोऽपि नालम्बते ?, उच्यते, अत्यन्ताभ्यासप्रकर्षवशतो | मनोनिरपेक्षमपि शक्तत्वात् , तथाहि-तरणं शिक्षितुकामः प्रथमं तरण्डमपेक्षते, ततोऽभ्यासप्रकर्षयोगतः तरणनिष्णात| स्तरण्डमपि परित्यजति, एवं योग्यपि वेदितव्यः, ततः सर्वोत्कृष्टप्रकर्षसम्भवेऽतीव स्फुटप्रतिभासं सकललोकालोकविषयमनुपममवाध्य केवलज्ञानमुदयते, ततो यदुक्तं 'शास्त्राद्यभ्यासतः शास्त्रप्रभृत्वेवावगच्छत' इत्यादि, तदत्यन्तमध्यात्मशास्त्रयाथात्म्यवेदिगुरुसम्पर्कबहिर्भूतत्वसूचकमवसेयं, स्वादेतत् , तारतम्यदर्शनादस्तु ज्ञानस्य प्रकर्षसम्भवानुमान, स तु प्रकर्षः सकलवस्तुविषय इति कथं श्रद्धेयम् ?, न खलु लङ्कनमभ्यासतः तारतम्यवदप्युपलभ्यमानं सकललोकविषयम-13 पलभ्यते, तदसद् , दृष्टान्तदान्तिकयोवैषम्यात् , तथाहि-न लखनमभ्यासादुपजायते, किन्तु बलविशेषतः, तथाहि- SC-CGSOMCNORA दीप अनुक्रम १३ ~56~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||३|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: सा प्रत १५ सूत्रांक ||३|| दीप अनुक्रम श्रीमलय-14समानेऽपि गरुत्मच्छाखामृगशावकयोरभ्यासे न समानं लवनम् , उक्तं च-"गरुत्मच्छाखामृगयोलहनाभ्याससम्भवे । गिरीया.INसमानेऽपि समानत्वं, लङ्घनस्य न विद्यते ॥१॥" अपि च-पुरुषयोरपि द्वयोः समानप्रथमयौवनयोरपि सिद्धि नन्दीवृत्तिः समानेऽप्यभ्यासे एकः प्रभूतं लवयितुं शक्नोति अपरस्तु स्तोकं, तस्मालसापेक्षं लकनं नाभ्यासमानहेतुकम् , ॥ २७॥ अभ्यासस्तु केवलं देहवैगुण्यमात्रमपनयति, तच बलं वीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमात्, क्षयोपशमश्च जातिभे दापेक्षी द्रव्यक्षेत्राद्यपेक्षी च, ततो यस्य यावलं तस्य तावदेव लानमिति तन्न सकललोकविषयं, जीवस्तु शशाङ्क | इव खरूपेण सकलजगत्प्रकाशनखभावः, केवलमावरणघनपटलतिरस्कृतप्रभावत्वात् न तथा प्रकाशते, उक्तं च"स्थितः शीतांशुवज्जीवः, प्रकृत्या भावशुद्धया । चन्द्रिकावच विज्ञानं, तदावरणमभवत् ॥१॥" ततो यथा प्रच| ण्डनैर्ऋतपवनप्रहता धनपटलपरमाणवः शनैः शनैर्निःस्नेहीभूयापगच्छन्ति, तदपगमनानुसारेण च चन्द्रस्य प्रकाशो जगति वितनुते, तथा जीवस्यापि रागादिभ्यः चित्तं विनिवर्त्य कायवाक्चेष्टासु संयतस्य सम्यकशास्त्रानुसारेण च यथावस्थितं वस्तु परिभावयतो ज्ञानादिभावनाप्रभावतो ज्ञानावरणीयादिकर्मपरमाणवः शनैः शनैर्निःस्नेहीभूयात्मनः प्रच्यवन्ते, कथमेतत्प्रत्येयमिति चेत् ?, उच्यते, इहाज्ञानादिनिमित्तकं ज्ञानावरणीयादि कर्म, ततः तत्प्रतिपक्षज्ञाना-13 चासेवनेऽवश्यं तदात्मनः प्रच्यवते, उक्तं च-"बंधइ जहेव कम्म अन्नाणाईहिं कलुसियमणो उ । तह चेव तबि.. वनाति गर्थव की महानादिभिः कलषितमनास्तु । तथैव तद्विपक्षे खभावतो मुच्यते येन ॥१॥ [3] २६ SAREnatan na ~57~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||३|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३|| दीप अनुक्रम यक्खे सहावओ मुचई जेणं ॥१॥" ज्ञानावरणीयकर्मपरमाणुप्रच्यवनानुसारेण चात्मनः शनैः शनैनिमधिकमधिक-2 तरमुलसति, यदा तु ज्ञानादिभावनाप्रकवशेनाशेषज्ञानावरणीयादिकर्मपरमाण्वपगमः तदा सकलानपटलविनिर्मुक्त-18 शशाङ्क इव आत्मा लब्धयधावस्थितात्मस्वरूपः सकलस्यापि जगतोऽवभासकः, ततो ज्ञानस्य प्रकर्षः सकललोकविषयः, अथवा सर्व वस्तु सामान्येन शास्त्रेऽपि प्रतिपाद्यते यथा पञ्चास्तिकायात्मको लोकः आकाशास्तिकायात्मकचालोकः, किञ्चिद्विशेषतश्च ऊधिस्तिर्यगलोकाकाशानां सविस्तरं तत्राभिधानात्, शास्त्रानुसारेण च ज्ञानाभ्यासः, ततः तरतमभावोऽपि ज्ञानस्य सकलवस्तुविषय एवेति प्रकर्षभावः तद्विषयो न विरुध्यते, लानं तु सामान्यतोऽपि न सक-४ ललोकविषयमिति कथमभ्यासतः तत्प्रकर्षः सकललोकविषयो भवेत् ?, स्पादेतद्-यद्यपि सामान्यतः शास्त्रानुसारेण सकलवस्तुविषयं ज्ञानमुपजायते तथाऽप्यभ्यासतः तत्प्रकर्षः सकलवस्तुगताशेषविशेषविषय इति कथं ज्ञायते ?, न पत्र किञ्चित् प्रमाणमस्ति, न चाप्रमाणकं वचो विपश्चितः प्रतिपद्यन्ते, विपश्चित्ताक्षितिप्रसङ्गात्, तदसत् , अनुमानप्रमाणसद्भावात् , तचानुमानमिदं-जलधिजलपलप्रमाणादयो विशेषाः कस्यचित्प्रत्यक्षाः, ज्ञेय-1 त्वात् , घटादिगतरूपादिविशेषवत् , ज्ञेयत्वं हि ज्ञानवियतया व्याप्तं, न च जलधिजलपलप्रमाणादिरूपेषु है। विशेषेषु प्रत्यक्षमन्तरेण शेषानुमानादिज्ञानसम्भवः, तथाहि-न ते विशेषा अनुमानप्रमाणगम्याः, लिकाभावात् , नाप्यागमगम्याः, तस्य विधिप्रतिषेधमात्रविषयत्वात्, नाप्युपमानगम्याः, तस्य प्रत्यक्षपुरस्सरत्वाद्, उक्तं च-" न १३ ~58~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ...................... मूल [-]/गाथा ||३|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३|| दीप अनुक्रम श्रीमलय-द्राचागमेन यदसी, विध्यादिप्रतिपादकः । अप्रत्यक्षत्वतो नैवोपमानस्यापि सम्भवः ॥१॥" नाप्यर्थापत्तिविषयाः, सा हि | गिरीया दृष्टः श्रुतो वाऽर्थो यदन्तरेण नोपपद्यते यथा काष्ठस्य भस्मविकारोऽग्नेर्दाहकशक्तिमन्तरेण तद्विषया वर्ण्यते, न च | नन्दीवृत्तिः दृष्टः श्रुतो या कोऽप्यर्थः तान् विशेषानन्तरेण नोपपद्यते, ततो नापत्तिगम्याः, न चैते विशेषाः खरूपेण न सन्ति, ॥२८॥ विशेषान् विना सामान्यस्यैवासम्भवात् , न च वाच्यमत एव सामान्यस्यान्यथानुपपत्तेरापत्तिगम्याः,नियतरूपतयाऽन वगमात् , प्रातिनैयत्यमेव च विशेषाणां खखरूपं, अन्यथा विशेषहानेः सामान्यरूपताप्रसङ्गात्, न च तेषां ज्ञेयत्वमे-1 वासिद्धमिति वाच्यम्, अभावप्रमाणव्यभिचारप्रसङ्गात् , तथाहि-यदि केनापि प्रमाणेन न ज्ञायन्ते तर्हि 'प्रमाणपञ्चक यत्र, वस्तुरूपे न जायते । वस्त्वसत्तावबोधार्थ, तत्राभावप्रमाणता ॥१॥' इति वचनादभावप्रमाणविषयाः स्युः, अभावाख्यं च प्रमाणमभावसाधनमिष्यते, अथ च ते विशेषाः खरूपेणैवावतिष्ठन्ते, ततोऽभावप्रमाणव्यभिचारप्रसङ्गः, तस्माद्विपक्षव्यापकानुपलब्ध्या विशेषाणां ज्ञेयत्वं,प्रत्यक्षविषयतया व्याप्यत इति प्रतिवन्धसिद्धिः, स्यादेतत्-ज्ञेयत्वादिति हेतुर्विशेषविरुद्धः, तथाहि-घटादिगता रूपादिविशेषा इन्द्रियप्रत्यक्षेण प्रत्यक्षा उपलब्धाः, ततः तज्ज्ञेयत्वमिन्द्रियप्रत्यक्ष[विषयतया प्रत्यक्षत्वेन ब्याप्तं निश्चितं सत् जलधिजलपलप्रमाणादिष्यपि विशेषेषु प्रत्यक्षत्वमिन्द्रियप्रत्यक्षविषयतां साध- ॥२८ यति, तथानिष्टमिति, तदयुक्तम् , विरुद्धलक्षणासम्भवात् , तथाहि-विरुद्धो हेतुः तदा भवति यदा बाधकं नोपजा-3 है यते, 'विरुद्धोऽसति बाधके' इति वचनाद्, अत्र च बाधकं विद्यते, यदि हि इन्द्रियप्रत्यक्षविषयतया प्रत्यक्षत्वं भवेत् २५ SAMROSCRI ~59~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||३|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: सिद्धिा. प्रत सूत्रांक ||३|| ततोऽस्मादृशामपि ते प्रत्यक्षा भवेयुः, न च भवन्ति, तस्मादस्मारशैः प्रत्यक्षवेनासंवेदनमेव तेषामिन्द्रियप्रत्यक्षवि-18 पयत्वसाधने बाधकमिति न विशेषविरुद्धः, अन्यः प्राह-न विशेषविरुद्धता हेतोर्दूषणम्, अन्यथा सकलानुमानो-16 च्छेदप्रसङ्गात् , तथाहि-यथा धूमोऽग्निं साधयति, अग्निप्रतिबद्धतया महानसे निश्चितत्वात् , तथा तस्मिन् सा-IPI ध्यधर्मिण्यत्यभायमपि साधयति, तेनापि सह महानसे प्रतिबन्धनिश्चयात् , तद्यथा-नात्रत्येनाग्निना अग्निमान् पर्वतो,81 धूमयत्त्वात् , महानसवत् , ततश्चैवं न कश्चिदपि हेतुः स्यात् , तस्मात् न विशेषविरुद्धता हेतोर्दोषः, आह च प्रज्ञाकरगु सोऽपि-“यदि विशेषविरुद्धतया क्षितिर्ननु न हेतुरिहास्ति न दूषितः । निखिलहेतुपराक्रमरोधिनी, न हि न सा कासकलेन विरुद्धता ॥१॥" यच्चोक्तम्-'अथवा अस्तु तदपि तथापि समेतावदेव जगति वस्त्विति न निश्चय इत्यादि। तदप्यसारं, यतोऽवधिज्ञानं तदावरणकर्मदेशक्षयोत्थं ततोऽतीन्द्रियमपि तन्न सकलवस्तुविषयं, केवलज्ञानं तु निमूलसकलज्ञानावरणकर्मपरमाण्वपगमसमुत्थं ततः कथमिव तन्न सकलवस्तुविषयं भवेत् १, न बतीन्द्रियस्य देशादिवि-18 प्रकर्षाः प्रतिबन्धकाः, न च केवलप्रार्दुभावे आवरणदेशस्थापि सम्भवः, ततो यद्वस्तु तत्सर्वं भगवतः प्रत्यक्षमेवेति भवति सर्वज्ञस्येवमात्मनो निश्चयः-एतावदेव जगति स्त्विति, यदप्युक्तम्-'अशुच्यादिरसाखादप्रसङ्ग' इति, तदपि दुरन्तदीर्घपापोदयविजृम्भितम् , अज्ञानतो भगवत्यधिक्षेपकरणात् , यो हि यादगभूतोऽशुच्यादिरसो येषां च प्राणिनां | यारग्भूतां प्रीतिमुत्पादयति येषां च विद्विषं तत्सर्वं तद्वस्थतया भगवान् वेत्ति, ततः कथमशुच्यादिरसास्वादप्रसङ्गः 2,131 |अथ यदि तटस्थतया वेत्ति तर्हि न सम्यक्, सम्यक् चेत् यथाखरूपं वेत्ता तर्हि नियमात् तदाखादप्रसक्तिः, उक्त |१४ दीप अनुक्रम MERana For P OW ~ 60 ~ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक ||3|| दीप अनुक्रम [3] श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ।। २९ ।। “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ - ]/गाथा ||३|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४४], चूलिका सूत्र [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः च - " तटस्थत्वेन वेद्यत्वे, तत्त्वेनावेदनं भवेत् । तदात्मना तु वेद्यत्वेऽशुच्याखादः प्रसज्यते ॥ १ ॥ तदसत् भ वान् हि सकर्म्मा करणाधीनज्ञानः ततो रसं यथावस्थितमवश्यं जिह्वेन्द्रियव्यापारपुरस्सरमाखादत एव जानाति, भ गवांस्तु करणव्यापारनिरपेक्षोऽतीन्द्रियज्ञानी ततो जिह्वेन्द्रियव्यापारसम्पाद्याखादमन्तरेणैव रसं यथावस्थितं तटस्थतया सम्यग वेत्तीति न कश्विदोषः । एतेन पररागादिवेदने रागित्वादिप्रसङ्गापादनमप्यपास्तमवसेयं, पररागादीनामपि यथावस्थिततया तटस्थेन सत्तावेदनात् यदप्युक्तं- 'कालतोऽनादिरनन्तः संसार इत्यादि तदप्यसम्यग् युगपत्सवेदनाद, न च युगपद् सर्ववेदनमसम्भवि, दृष्टत्वात्, तथाहि - सम्यग्रजिनागमाभ्यासप्रवृत्तस्य बहुशो विचारितधर्म्माधर्मास्तिकायादिखरूपस्य सामान्यतः पञ्चास्तिकायविज्ञानं युगपदपि जायमानमुपलभ्यते, एवमशेषविशेषकलितपञ्चास्तिकायविज्ञानमपि भविष्यति, तथा चायमर्थोऽन्यैरप्युक्तो - "यथा सकलशास्त्रार्थः, स्वभ्यस्तः प्रतिभासते । मनस्येकक्षणेनैव तथाऽनन्तादिवेदनम् ॥ १ ॥” यदप्युच्यते- 'कथमतीतं भावि वा वेत्ति?, विनष्टानुत्पन्नत्वेन तयोरभावादिति तदपि न सम्यक्, यतो यद्यपीदानीन्तनकालापेक्षया ते असती, तथापि यथाऽतीतमतीते कालेऽवर्त्तिष्ट यथा च भावि(वर्त्स्यति ) वर्त्तिष्यते तथा ते साक्षात्करोति ततो न कश्चिद्दोपः स्यादेतत्-यथा भवद्भिर्ज्ञानस्य तारतम्यदर्शनात्प्रकर्षसम्भयोऽनुमीयते तथा तीर्थान्तरीयैरपि ततो यथा भवत्सम्मततीर्थकरो पदर्शिताः पदार्थराशयः सत्यतामनुवते तथा तीर्थाअन्तरीयसम्मततीर्थकरोपदर्शिता अपि सत्यतामञ्जवीरन्, विशेषाभावाद्, अन्यथा भवत्सम्मततीर्थकरोपदर्शिता अपि Education International For Personal Use Only ~61~ सर्वज्ञ सिद्धि:. १५ २० || RS || २६ Contrary org Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक ||3|| दीप अनुक्रम [3] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ - ]/गाथा ||३|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४४], चूलिका सूत्र [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः असत्यतामक्षुवीरन्, अथ तीर्थान्तरीयसम्मत तीर्थकरोपदिष्टाः पदार्थराशयोऽनुमानप्रमाणेन वाध्यन्ते ततो न ते सत्याः, तदयुक्तम्, अनुमानप्रमाणेनातीन्द्रियज्ञानस्य बाधितुमशक्यत्वात्, आह च- “अतीन्द्रियानसंवेद्यान् पश्यन्त्या - र्येण चक्षुषा । ये भावान् वचनं तेषां नानुमानेन वाध्यते ॥ १ ॥ अथ सम्भवंति जगति प्रज्ञालवोन्मेषदुर्विदग्धाः कुतर्कशास्त्राभ्याससम्पर्कतो वाचालाः तथाविधाद्भुतेन्द्रजाल कौशलवशेन दर्शितदेवागमन भोयान चामरादिविभूतयः कीर्तिपूजादिलन्धुकामाः स्वयमसर्वज्ञा अपि सर्वज्ञा वयमिति ब्रुवाणाः, तत एतावदेव न ज्ञायते यदुत-तेषां सर्वो| तमप्रकर्षरूपमतीन्द्रियज्ञानमभूत्, यदि पुनर्यथोक्तखरूपमतीन्द्रियज्ञानमभविष्यत् तर्हि वचनमपि तेषां नावाधिष्यत, अथ च दृश्यते बाधा ततस्ते तचभूमयो न सर्वज्ञा इति प्रतिपत्तव्यम्, तदेतदर्हत्यपि समानं, न समानम्, अर्हद्वचसि प्रमासंवाददर्शनात् उक्तं च- "जैनेश्वरे हि वचसि प्रमासंवाद इष्यते । प्रमाणबाधा त्वन्येषामतो द्रष्टा जिनेश्वरः ॥ १ ॥" अथ पुरुषमात्रसमुत्थं प्रमाणमतीन्द्रियविषये न साधकं नापि बाधकमविषयत्वात्, समानकक्षतायां हि बाध्यबाधकभावः, तथा चोक्तम्- "समानविपया यस्माद्वाध्यवाधकसंस्थितिः । अतीन्द्रिये च संसारिप्रमाणं न प्रवर्त्तते ॥१॥" ततः कथमुच्यते - अर्हतो वचसि प्रमासंवाददर्शनं प्रमाणवाध्यत्वमन्येपामिति १, तदपि न सम्यक्, यतो न भगवान् केवलमतीन्द्रियमस्मादृशामशक्यपरिच्छेद मेवोपदिशति, यदि पुनः तथाभूतमुपदिशेत् तर्हि न कोऽपि तद्वचनतः प्रवर्तेत, अतीन्द्रियार्थं वचः सर्वेषामेव विद्यते परस्परविरुद्धं च ततः कथं तद्वचनतः प्रेक्षावतां प्रवृत्तिः ?, For Pernal Use Only ~62~ सर्वज्ञसिद्धिः. १० १३ Whelandrary org Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||३|| .............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलय- गिरीया नन्दीवृत्तिः प्रत सूत्रांक ||३|| दीप अनुक्रम ततोऽवश्यं परान् प्रतिपादयता भगवता परैः शक्यपरिच्छेदमप्युपदेष्टव्यं, शक्यपरिच्छेदेषु चार्थेषु भगवदुक्तेषु यत्तथाप्रमाणेन संवेदनं तत्तद्विषयं साधकं प्रमाणमुच्यते, विपरीतं तु वाधकं, अस्ति च भगवदुक्तेषु शक्यपरिच्छेदेष्वर्थेषु प्रमासंवादः, तथाहि-घटादयः पदार्था अनेकान्तात्मका उक्ताः, ते च तथैव प्रत्यक्षतोऽनुमानतो वा निश्चीयन्ते, मोक्षोऽपि च परमानन्दरूपशाश्वतिकसौख्यात्यक उक्तः, ततः सोऽपि युक्त्या सङ्गतिमुपपद्यते, यतः संसारप्रतिपक्षभूतो मोक्षः संसारे जन्मजरामरणादिदुःखहेतवो रागादयः ते च निर्मूलमपगता मोक्षावस्थायामिति न मोक्षे दुःखलेशस्थापि सम्भवः, न च निर्मूलमपगता रागादयो भूयोऽपि जायन्ते, ततः तत्सौख्यं शावतिकमुपवण्यते, ननु यदि न तत्र रागादयस्तर्हि न तत्र मत्तकामिनीगाढालिङ्गनपीनस्तनापीडनवदनचुम्बनकराधातादिप्रभवं रागनिवन्धनं सुखं नापि द्वेषनिवन्धनं प्रबलवैरितिरस्कारापादनप्रभवं नापि मोहनिवन्धनमहङ्कारसमुत्थमात्मीयविनीतपुत्रभ्रातृप्रभृतिबन्धुवर्गसहवाससम्भवं च, ततः कथमिव स मोक्षो जन्मिनामुपादेयो भवति !, आह च-“वीतरागस्य न सुखं, योपिदालिङ्गानादिजम् । बीतद्वेषस्य च कुतः, शत्रुसेनाविमईजम् ॥१॥ वीतमोहस्य न मुखमात्मीयाभिनिवेशजम् ।। | ततः किं ताशा तेन, कृत्यं मोक्षेण जन्मिनाम् ? ॥२॥" अपि च-चदादयोऽपि तत्र सर्वथा निवृत्ता इष्यन्ते, ततोअत्यन्तबुभुक्षाक्षामकुक्षेयद् विशिष्टाहारभोजनेन यद्वा ग्रीष्मादौ पिपासापीडितस्य पाटलाकुसुमादिवासितसुगन्धिशीतसलिलपानेनोपजायते सुखं तदपि तत्र दूरतोऽपास्तप्रसरमिति किं कार्य तेन, तदेतदतीवासमीचीनं, यतो यद्यपि वायरल [३] FREE २५ ~634 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||३|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: * प्रत 4955045625 सूत्रांक ||३|| दीप अनुक्रम रागादयः प्रथमतः क्षणमात्रसुखदायितया रमणीयाः प्रतिभासन्ते तथापि ते परिणामपरम्परयाऽनन्तदुःखसह-IN बसविषयाणां नरकादिदुःखसम्पातहेतवः, ततः पर्यन्तदारुणतया विषान्नभोजनसमुत्थमिव न रागादिप्रभवं सुखमुपादेयं प्रेक्षावतां|8| यता. भवति, प्रेक्षावन्तो हि बहुदुःखमपहाय यदेव बहुसुखं तदेव प्रतिपद्यन्ते, यस्तु स्तोकसुखनिमित्तं बहुदुःखमा|द्रियते स प्रेक्षावानेव न भवति, किन्तु कुबुद्धिः, रागादिप्रभवमपि च सुखमुक्तनीत्या बहुदुःखहेतुकम्, अप-14 वर्गसुखं चैकान्तिकात्यन्तिकपरमानन्दरूपं, ततः तदेव तत्त्ववेदिनामुपादेयं, न रागादिप्रभवमिति, यदि पुनर्यदपि तदपि सुखमभिलपणीयं भवतः तर्हि पानशौण्डानां यत् मद्यपानप्रभवं यच गर्त्ताशूकराणां पुरीषमक्षणसमुत्थं यञ्च रक्षसां मानुषमांसाभ्यवहारसम्भवं यथ दासस्य सतः खामिप्रसादादिहेतुकं यदपि च पारसीकदेशवासिनो मात्रादिश्रोणीसङ्गमनिवन्धनं तत्सर्वं भवतो द्विजातिभवे सति न सम्पद्यते इति पानशौण्डायप्यभिलपणीयम् , अपिच-नरकदुःखमप्राप्तस्य न तद्वियोगसम्भवं सुखमुपजायते ततो नरकदुःखमप्यभिलषणीयं, अथ विशिष्टमेव सुखमभिलपणीयं न यत्किञ्चित् तर्हि विशिष्टमेकान्तेन सुखं मोक्ष एव विद्यते न रागादौ क्षुदादी वा तस्मात्तदेवाभिलपणीयं न शेपमिति । योऽपि च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपो मोक्षमार्ग उक्तः सोऽपि युक्त्या विचार्यमाणः प्रेक्षावतामुपादेयतामश्नुते, तथाहि-सकलमपि कर्मजालं मिथ्यात्वाज्ञानप्राणिहिंसादिहेतुकं ततः सकलकर्मनिर्मूलनायक सम्यग्दर्शनाद्यभ्यास एव घटते, नान्यत् , तदेवं भगवदुपदिष्टेषु शक्यपरिच्छेदेष्यनुमेयेषु च यथाक्रमं प्रत्यक्षानुमान-18 RRC ~64~ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||३|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलय- गिरीया प्रत ॥३१॥ सूत्रांक करागक्षय ||३|| संवाददर्शनात् मोक्षादिषु च युक्त्योपपद्यमानत्वाद्भगवानेव सर्वज्ञो न सुगतादिरिति स्थितम् ॥ तथा 'भद्रं जिनस्य वीरस्य' जयति रागादिशत्रुगणमिति जिनः, औणादिको नक्प्रत्ययः, तस्य भद्रं भवतु, अनेनापायातिशयमाह, अपायो-विश्लेषः तस्यातिशयः-प्रकर्षभावोऽपायातिशयो, रागादिभिः सहासन्तिको वियोग इत्यर्थः, ननु रागादिभिःआत्यन्तिसहात्यन्तिको वियोगोऽसम्भवी, प्रमाणवाधनात् , तच्च प्रमाणमिदं-यदनादिमत् न तद्विनाशमाविशति, यथाऽऽकाशं, अनादिमन्तश्च रागादय इति, किञ्च-रागादयो धर्माः, ते च धर्मिणो भिन्ना अभिन्ना वा ?, यदि भिन्नाः तर्हि सर्वेपामविशेषेण वीतरागत्वप्रसङ्गः, रागादिभ्यो भिन्नत्वाद्, विवक्षितपुरुषवत् , अथाभिन्नाः तर्हि तत्क्षये धर्मिणोऽप्यात्मनः क्षयः, तदभिन्नत्वात् , तत्खरूपवत् , तथा च कुतस्तस्य वीतरागत्वं ?, तस्यैवाभावादिति, अत्रोच्यते, इह यद्यपि | रागादयो दोषा जन्तोरनादिमन्तः तथापि कस्यचित् स्त्रीशरीरादिषु यथावस्थितवस्तुतत्त्वावगमेन तेषां रागादीनां प्रतिपक्षभावनातः प्रतिक्षणमपचयो दृश्यते, ततः सम्भाव्यते विशिष्टकालादिसामग्रीसद्भावे भावनाप्रकर्षविशेषभावतो निर्मूलमपि क्षयः, अथ यद्यपि प्रतिपक्षभावनातः प्रतिक्षणमपचयो एस्तथापि तेषामात्यन्तिकोऽपि क्षयः M ॥३१॥ हा सम्भवतीति कथमवसेयम् ?, उच्यते, अन्यत्र तथाविधप्रतिवन्धग्रहणात् , तथाहि-शीतस्पर्शसम्पाया रोमहोदयः शीतप्रतिपक्षस्य वहेमन्दतायां मन्दा उपलब्धाः उत्कर्षे च निरन्वयविनाशधर्माणः, ततोऽन्यत्रापि बाधकस्य मन्दतायां बाध्यस्य मन्दतादर्शनाद् बाधकोत्कर्षेऽवश्यं बाध्यस्य निरन्वयविनाशो वेदितव्यः, अन्यथा बाधकमन्दतायां २० दीप अनुक्रम २६ ~65M Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||३|| .............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत भावता. सूत्रांक ||३|| |मन्दताऽपि न स्यात् , अथास्ति ज्ञानस्य ज्ञानावरणीयं कर्म बाधक, ज्ञानावरणीयकर्ममन्दतायां च ज्ञानस्यापि मनाक मन्दता, अथ च प्रबलज्ञानावरणीयकर्मोदयोत्कर्षेऽपि न ज्ञानस्य निरन्वयो विनाशः, एवं प्रतिपक्षभावनोत्कऽपि न ज्ञानस सहभूखरागादीनामत्यन्ततयोच्छेदो भविष्यतीति, तदयुक्तम् , द्विविधं हि बाध्य-सहभूखभावभूतं सहकारिसम्पाद्य-18 खभावभूतं च, तत्र यत्सहभूखभावभूतं तन्न कदाचिदपि निरन्वयं विनाशमाविशति, ज्ञानं चात्मनः सहभूख-13 भावभूतम् , आत्मा च परिणामिनित्यः, ततोऽत्यन्तप्रकर्षवत्सपि ज्ञानावरणीयकम्र्मोदये न निरन्वयविनाशो ज्ञानस्य, रागादयस्तु लोभादिकर्मविपाकोदयसम्पादितसत्ताकाः, ततः कर्मणो निर्मूलापगमे तेऽपि निर्मूलम-131 पगच्छन्ति, नन्वासतां कर्मसम्पाद्या रागादयः तथापि कर्मनिवृत्ती ते निवर्तन्ते इति नावश्यं नियमो, न हि दहननिवृत्तौ तत्कृता काष्ठेऽङ्गारता निवर्त्तते, तदसत् , यत इह किश्चित् कचिन्निवर्त्य विकारमापादयति, यथाऽग्निः सुवर्णे द्रवतां, तथाहि-अग्निनिवृत्ती तत्कृता सुवर्णे द्रवता निवर्त्तते, किञ्चित्पुनः कचिदनिवर्त्यविकारारम्भकं, दियथा स एवाग्निः काष्ठे, न खलु श्यामतामात्रमपि काष्ठे दहनकृतं तन्निवृत्ती निवर्त्तते, कर्म चात्मनि निवर्त्यविका-1 रारम्भकं, यदि पुनरनिवर्त्यविकारारम्भकं भवेत्तर्हि यदपि तदपि कर्मणा कृतं न कर्मनिवृत्ती निवत, यथाऽग्निना श्यामतामात्रमपि काष्ठकृतमग्निनिवृत्ती, ततश्च यदेकदा कर्मणाऽऽपादितं मनुष्यत्वममरत्वं कृमिकीटत्वं अज्ञत्वं शिरोवेदनादि तत्सर्वकालं तथैवावतिष्ठेत, न चैतदृश्यते, तस्मान्निवर्त्यविकारारम्भकं कर्म, ततः कर्मनिवृत्ती रागादी- १२ 554-564545 दीप अनुक्रम %2554- 5 REA marana FImamurary.com ~66~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||३|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत १५ सूत्रांक ||३|| दीप अनुक्रम श्रीमलय- 18नामपि निवृत्तिः । अनाहुः बार्हस्पत्याः-नैते रागादयो लोभादिकर्मविपाकोदयनिवन्धनाः, किन्तु कफादिप्रकृतिगिरीया हेतुकाः, तथाहि-कफहेतुको रागः पित्तहेतुको द्वेषो वातहेतुकश्च मोहः, कफादयश्च सदैव संनिहिताः, शरीरस्य नन्दीवृत्तिः हेतुकता| तदात्मकत्वात् , ततो न वीतरागत्वसम्भवः, तदयुक्तम् , रागादीनां कफादिहेतुकत्यायोगात् , तथाहि-स तहेतुको खण्डनं. ॥३२॥ | यो यं न व्यभिचरति, यथा धूमोऽग्निम् , अन्यथा प्रतिनियतकार्यकारणभावव्यवस्थानुऽपपत्तेः, न च रागादयः कफादीन् | न व्यभिचरन्ति, व्यभिचारदर्शनात् , तथाहि-यातप्रकृतेरपि दृश्येते रागद्वेषौ कफप्रकृतेरपि द्वेपमोही पित्तप्रकृदातेरपि मोहरागी, ततः कथं रागादयः कफादिहेतुकाः?, अथ मन्येथाः-एकैकाऽपि प्रकृतिः सर्वेषामपि दोषाणां पृथक पृथग्जनिका तेनायमदोष इति, तदयुक्तम् , एवं सति सर्वेषामपि जन्तूनां समरागादिदोषप्रसक्तेः, अवश्यं हि प्राणिनामेकतमया कयाचित्प्रकृत्या भवितव्यम् , सा चाविशेषेण रागादिदोषाणामुत्पादिकेति सर्वेषामपि समानरागादि-18120 ताप्रसक्तिः, अथास्ति प्रतिप्राणि पृथक् पृथगवान्तरः कफादीनां परिणतिविशेषः तेन न सर्वेषां समरागादिताप्रसङ्गः, तदपि न साधीयो, विकल्पयुगलानतिक्रमात् , तथाहि-सोऽप्यवान्तरः कफादीनां परिणतिविशेषः सर्वेपामपि रागादीनामुत्पादक आहोखिदेकतमस्यैव कस्यचित् , तत्र यद्याद्यः पक्षस्तर्हि यावत् स परिणतिविशेषस्तावदे- ॥३२॥ ककालं सर्वेषामपि रागादीनामुत्पादप्रसङ्गः, न चैककालमुत्पद्यमाना रागादयः संवेद्यन्ते, क्रमेण तेषां संवेदनात्, न खलु रागाध्यवसायकाले द्वेषाध्यवसायो मोहाध्यवसायो वा संवेद्यते, अथ द्वितीयपक्षः तत्रापि यावत् स कफादि ~67~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||३|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३|| परिणतिविशेषः तावदेक एव कश्चिदोषः प्राप्नोति, अथ च तदवस्थ एव कफादिपरिणतिविशेष सर्वेऽपि दोषाः क्रमेण परावृत्त्य परावृत्त्योपजायमाना उपलभ्यन्ते, अथादृश्यमान एव केवलकार्यविशेषदर्शनोनीयमानसत्ताकः तदा तदा तत्तद्रागादिदोषहेतुः कफादिपरिणतिविशेषो जायते तेन न पूर्वोक्तदोषावकाशः, ननु यदि स परिणतिविशेषः सर्वथा-1 |ऽननुभूयमानखरूपोऽपि परिकल्प्यते तर्हि कम्मैव किं नाभ्युपगम्यते ?, एवं हि लोकशास्त्रमार्गोऽप्याराधितो भवति, अपिच-स कफादिपरिणतिविशेषः कुतः तदा तदाऽन्योऽन्यरूपेणोपजायते इति वक्तव्यम् ?, देहादिति चेत् ननु तदवस्थेऽपि देहे भवद्भिः कार्यविशेषदर्शनतः तस्यान्यथाऽन्यथा भवनमिष्यते, तत्कथं तद् देहनिमित्तं, न हि | यदविशेषेऽपि यद्विक्रियते स विकारः तद्धेतुक इति वक्तुं शक्यम् , नाप्यन्यो हेतुरुपलभ्यते, तस्मात्तदप्यन्यथाsन्यथाभवनं कर्महेतुकमेष्टव्यम् , तथा च सति कम्मैवैकमभ्युपगम्यतां किमन्तगेंडुना तहेतुतया कफादिपरिणतिविशेषाभ्युपगमेन ? । किञ्च-अभ्यासजनितप्रसराः प्रायो रागादयः, तथाहि-यथा यथा रागादयः || रागादीसेन्यन्ते तथा तथाऽभिवृद्धिरेव तेषामुपजायते, न प्रहाणिः, तेन समानेऽपि कफादिपरिणतिविशेष नामभ्यासतदवस्थेऽपि च देहे यह जन्मनि परत्र वा यस्मिन् दोषेऽभ्यासः स तस्य प्राचुर्येण प्रवर्तते, शेषतु। जन्यता, मन्दतया, ततोऽभ्याससम्पाद्यकर्मोपचयहेतुका एव रागादयो न कफादिहेतुका इति प्रतिपत्तव्यम् । अन्यच-यदि | दीप अनुक्रम निरर्थकेन । १३ FrParaanaaPaneOm ~68~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक ||3|| दीप अनुक्रम [3] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [ - ]/गाथा ||३|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ॥ ३३ ॥ कफहेतुको रागः स्यात् ततः कफवृद्धी रागवृद्धिर्भवेत् पित्तप्रकर्षे तापप्रकर्षवत् न च भवति, तदुत्कर्षोत्थपीडाबाधिततया द्वेषस्यैव दर्शनात्, अथ पक्षान्तरं गृहीथा यदुत न कफहेतुको रागः किन्तु कफादिदोषसाम्यहेतुकः, तथाहि - कफादिदोषसाम्ये विरुद्धव्याध्यभावतो रागोद्भवो दृश्यते इति, तदपि न समीचीनं, व्यभिचारदर्शनात्, न ॐ हि यावत् कफादिदोषसाम्यं तावत् सर्वदेव रागोद्भवोऽनुभूयते, द्वेषाद्युद्भवस्याप्यनुभवात् न च यद्भावेऽपि यन्न भवति तत्तद्धेतुकं सचेतसा वक्तुं शक्यम् । अपिच एवमभ्युपगमे ये विषमदोषास्ते रागिणो न प्राप्नुवन्ति, अथ च तेऽपि रागिणो दृश्यन्ते । स्यादेतद् अलं चसूर्या तत्त्वं निर्वच्मि शुक्रोपचयहेतुको रागो नान्यहेतुक इति, तदपि न युक्तम् एवं ह्यत्यन्त स्त्रीसेवापरतया शुक्रक्षयतः क्षरत्क्षतजानां रागिता न स्याद्, अथ चैतेऽपि तस्या| मप्यवस्थायां निकामं रागिणो दृश्यन्ते, किञ्च यदि शुक्रस्य रागहेतुता तर्हि तस्य सर्वत्रीषु साधारणत्वान्नैकखीनियतो रागः कस्यापि भवेत्, दृश्यते च कस्याप्येकस्त्रीनियतो रागः, अथोच्येत-रूपस्यापि कारणत्वाद्रूपातिशयलुब्धः तस्यामेव रूपवत्यामभिरज्यते, न योषिदन्तरे, उक्तं च- "रूपातिशयपाशेन, विवशीकृतमानसाः । खां योषितं परित्यज्य, रमन्ते योषिदन्तरे ॥ १॥” तदपि न मनोरमं रूपरहितायामपि क्वापि रागदर्शनात्, अथ तत्रोपचार| विशेषः समीचीनो भविष्यति तेन तत्राभिरज्यते, उपचारोऽपि च रागहेतुर्न रूपमेव केवलं तेनायमदोष इति, तदपि Education Internation For Peony ~69~ १५ शुक्रहेतुकताखंडनं. ॥ ३३ ॥ २५ andra org Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||३|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३|| X .' शव्यभिचारि, द्वयेनापि विमुक्तायां कचिद्रागदर्शनात् , तस्मादभ्यासजनितोपचयपरिपाकं कम्मैव विचित्रखभावतया तदा तदा तत्तत्कारणापेक्षं तत्र तत्र रागादिहेतुरिति कर्महेतुका रागादयः । एतेन यदपि कश्चिदाह-पृथिव्यादिभूतानां धर्मा एते रागादयः, तथाहि-पृथिव्यम्बुभूयस्त्वे रागः तेजोवायुभूयस्त्वे द्वेषो जलवायुभूयस्त्वे मोह इति, तदपि निराकृतमवसेयं, व्यभिचारात्, तथाहि-यस्थामेवावस्थायां रागः सम्मतः तस्यामेवावस्थायां द्वेषो मोहोऽपि च दृश्यते, |तत एतदपि यत्किञ्चित् , तस्मात् कर्महेतुका रागादयतकर्मनिवृत्तौ निवर्तन्ते, प्रयोगश्चात्र-ये सहकारिसम्पाद्या./५ | यदुपधानादपकर्षिणः ते तदत्यन्तवृद्धौ निरन्वयविनाशधर्माणो, यथा रोमहर्षादयो वहिवृद्धी, भावनोपधानादपकर्षिणश्च सहकारिसम्पाद्या रागादय इति, अत्र सहकारिसम्पाद्या इति विशेषणं सहभूखभाववोधादिव्यवच्छेदार्थ, यदपि च प्रागुपन्यसं प्रमाणं-यदनादिमत् न तद्विनाशमाविशति यथाऽऽकाशमिति, तदध्यप्रमाणं, हेतोरनैकान्तिकत्वात् , प्रागभावन व्यभिचारात् , तथाहि-प्रागभावोऽनादिमानपि विनाशमाविशति, अन्यथा कार्यानुत्पत्तेः, भाव- भावनाजनाधिकारी च सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयसम्पत्समन्वितो वेदितव्यः, इतरस्य तदनुष्ठानप्रवृत्त्यभावेन तस्य मिथ्यारूप|त्वात् , आह च-"नाणी तवंमि निरओ चारित्ती भावणाएँ जोगोत्ति" सा च रागादिदोषनिदानखरूपविषय| मानी तपसि निरतश्चारित्री भावनाया योग्य इति । दीप अनुक्रम ~ 70~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||३|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलय- गिरीया नन्दीवृत्तिः ॥३४॥ 25*5* प्रत सूत्रांक * ||३|| 3456055555 फलगोचरा यथाऽऽगममेवमवसेया-"ज कुच्छियाणुयोगो पयइविसुद्धस्स होइ जीवस्स । एएसि मो नियाण बुहाण न य सुंदरं एयं ॥१॥ रूबंपि संकिलेसोऽभिस्संगो पीइमाइलिङ्गो उ । परमसुहपचणीओ एयपि असोहणं चेव & ॥२॥ विसओ य भंगुरो खलु गुणरहिओ तह य तहतहारूवो । संपत्ति निष्फलो केवलं तु मूलं अणत्थाणं ॥३॥ जम्मजरामरणाई विचित्तरूवो फलं तु संसारो । बुहजणनिवेयकरो एसोऽवि तहाविहो चेव ॥४॥" अपि चसूत्रानुसारेण ज्ञानादिषु यो नैरन्तर्येणाभ्यासः तद्रूपाऽपि भावना वेदितव्या, तस्यापि रागादिप्रतिपक्षभूतत्वात्, न हि तत्त्ववृत्त्या सम्यग्ज्ञानाद्यभ्यासे व्यापृतमनस्कस्य स्त्रीशरीररामणीयकादिविषये चेतः प्रवृत्तिमातनोति, तथाऽनुपलम्भात् । शौद्धोदनीयाः पुनरेवमाहुः-नैरात्म्यादिभावना रागादिक्लेशप्रहाणिहेतुः, नैरात्म्यादिभावनायाः सकलरागादि | नैरात्म्यविपक्षभूतत्वात् , तथाहि-नैरात्म्यावगतौ नात्माभिनिवेशः, आत्मनोऽवगमाभावाद्, आत्माभिनिवेशाभावाच न पुत्र-3 भ्रातृकलत्रादिष्वात्मीयाभिनिवेशः, आत्मनो हि य उपकारी स आत्मीयो, यश्च प्रतिघातकः स द्वेष्यः, यदा त्वात्मैव न विद्यते किन्तु पूर्वापरक्षणत्रुटितानुसन्धानाः पूर्वपूर्वहेतुप्रतिबद्धा ज्ञानक्षणा एव तथा तथोत्पद्यन्ते तदा कः का॥३४॥ १ यत् कुत्सितेऽनुयोगः प्रकृति विशुद्धस्य भवति जीवस्य । एतस्य ( एतत् ) निदान बुधानां न च सुन्दरमेतत् ॥१॥ रूपमपि संशः अभिष्वाः प्रोल्याका विलिमस्तु । परमसुखमयनीक एषोऽप्यशोभन एष ॥ २ ॥ विषया अपि भट्टराः खल गुणरहिताः तथा च तथा तयारूपा । प्राप्तिनिष्फला: केवलं मूलं | वनानाम् ॥३॥ जन्मजरामरणादिविचित्ररूपः फलंतु संसारः । बुधजननिदकर एषोऽपि तथाविध एवं ॥४॥ २५ दीप अनुक्रम * * * ~71~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [-]/गाथा ||३|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत RESS सूत्रांक ||३|| *TREASURRORS कस्योपकर्ता उपधातको वा?, ज्ञानक्षणानां च क्षणमात्रावस्थायितया परमार्थत उपकर्तुमपकर्तुं वा अशक्यत्वात् , तन्न दतत्त्ववेदिनः पुत्रादिष्वात्मीयाभिनिवेशो नापि वैरिषु द्वेषो, यस्तु लोकानामात्मात्मीयाद्यभिनिवेशः सोऽनादिवासना परिपाकोपनीतो वेदितव्यः, अतत्त्वमूलत्वात् , ननु यदि न परमार्थतः कश्चिदुपकार्योपकारकभावः तर्हि कथमुच्यते-भगवान् सुगतः करुणया सकलसत्त्वोपकाराय देशनां कृतवानिति, क्षणिकत्वमपि च यद्येकान्तेन तर्हि तत्त्ववेदी क्षणानन्तरं विनष्टः सन् न कदाचनाप्येवं भूयो भविष्यामीति जानानः किमर्थं मोक्षाय यत्नमारभते ?, तदयुक्तम् , अभिप्रायापरिज्ञानात् , भगवान् हि प्राचीनायामवस्थायामयस्थितः सकलमपि जगद् रागद्वेषादिदुःखसङ्कुलमभिजानानः कथमिदं सकलमपि जगत् मया दुःखादुद्धर्तव्यमिति समुत्पत्रकृपाविशेषो नैराम्यक्षणिकत्वादिकमवगच्छन्नपि तेषामुपकार्यसत्त्वानां निक्लेशक्षणोत्पादनाय प्रजाहितो राजेब खसन्ततिशुद्धबै सक| लजगत्साक्षात्करणसमर्थः खसन्ततिगतविशिष्टक्षणोत्पत्तये यत्नमारभते, सकलजगत्साक्षात्कारमन्तरेण सर्वेषामसूण-18 विधानमुपकर्तुमशक्यत्वात् , ततः समुत्पन्नकेवलज्ञानः पूर्वाहितकृपाविशेषसंस्कारवशात् कृतार्थोऽपि देशनायां प्रवर्त्तते । इति, तदेवं श्रुतमप्यात्मप्रज्ञया निर्दोष नैरात्म्यादि वस्तुतत्त्वं परिभाव्य भावतः तथैव भावयतो जन्तोर्भावनाप्रकर्ष-12 विशेषतो वैराग्यमुपजायते, ततो मुक्तिलाभः, यस्त्वात्मानमभिमन्यते न तस्य मुक्तिमम्भवो, यत आत्मनि परमा-3 थतया विद्यमाने तत्र स्नेहः प्रवर्तते, तत्स्नेहवशाच तत्सुखेषु परितर्षवान् भवति, तृष्णावशाच सुखसाधनेषु दोषान् दीप अनुक्रम RECENTharana ~ 72 ~ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||३|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३|| 2 श्रीमलय- सतोऽपि तिरस्कुरुते, गुणांस्त्वभूतानपि पश्यति, ततो गुणदर्शी सन् तानि ममत्वविषयीकरोति, तस्माद्यावदात्माNIRभिनिवेशः तायत् संसारः, आह च--"यः पश्यत्यात्मानं तत्रास्थाहमिति शाश्वतः स्नेहः । स्नेहात् सुखेषु तृष्यति तृष्णा दोषांस्तिरस्कुरुते ॥१॥ गुणदर्शी परितृष्यन् ममेति तत्साधनान्युपादत्ते । तेनात्माभिनिवेशो यावत् तावत्स संसारे ॥ ३५ ॥२॥" तदेतत् सर्वमन्तःकरणकृतावासमहामोहमहीयस्ताबिलसितम्, आत्माभावे बन्धमोक्षायेकाधिकरणत्वा योगात् , तथाहि-यदि नात्माभ्युपगम्यते किन्तु पूर्वापरक्षणत्रुटितानुसन्धाना ज्ञानक्षणा एव, तथा सत्यन्यस्य वन्धोऽन्यस्य मुक्तिः अन्यस्य क्षुद् अन्यस तृप्तिरन्योऽनुभविता अन्यः स्मर्ता अन्यश्चिकित्सादुःखमनुभवति अन्यो व्याधिरहितो जायते अन्यस्तपःपरिक्लेशमधिसहते अपरः खर्गमुखमनुभवति अपरः शास्त्रमभ्यसितुमारभते अन्योमाधिगतशास्त्रार्थो भवति, न चैतद्युक्तम् , अतिप्रसङ्गात्, सन्तानापेक्षया बन्धमोक्षादेरेकाधिकरण्यमिमि चेत्, न, सन्तानस्यापि भवन्मतेनानुपपद्यमानत्वात्, सन्तानो हि सन्तानिभ्यो भिन्नो वा स्यादभिन्नो वा, यदि भिन्नः151 तर्हि पुनरपि विकल्पयुगलमुपढौकते, स किं नित्यः क्षणिको बा ?, यदि नित्यस्ततो न तस्य बन्धमोक्षादिसम्भवः, आकालमेकखभावतया तस्यावस्थावैचित्र्यानुपपत्तेः, न च नित्यं किमप्यभ्युपगम्यते, 'सबै क्षणिक मिति वचनात्, अथ क्षणिकः तर्हि तदेव प्राचीनं बन्धमोक्षादिवैयधिकरण्यं प्रसक्तम् , अथाभिन्न इति पक्षस्तहि सन्तानिन एव दिन सन्तानः, तदभिन्नत्वात् , तत्खरूपयत् , तथा च सति तदवस्थमेव प्राक्तनं दूषणमिति । स्यादेतत्-न कश्चिदन्यः दीप अनुक्रम २० संतान [२] खंडनं. ॥३५॥ ~73~ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ....................... मूलं [-]/गाथा ||३|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३|| क्षणेभ्यः सन्तानः, किन्तु य एव कार्यकारणभावप्रबन्धेन क्षणानां भावः स एव सन्तानः, ततो न कश्चिद्दोषः, तदप्य-18 आयुक्तम् , भयन्मते कार्यकारणभावस्याप्यघटमानत्वात् , तथाहि-प्रतीत्यसमुत्पादमात्रं कार्यकारणभावः, ततो यथा विवक्षितघटक्षणानन्तरं घटक्षणः तथा पटादिक्षणोऽपि, यथा च घटक्षणात् प्रागनन्तरो विवक्षितो घटक्षणः तथा पटा&ादिक्षणा अपि, ततः कथं प्रतिनियतकार्यकारणभावावगमः ?, किञ्च कारणादुपजायमानं कार्य सतो वा जायेत असतो वा ?, यदि सतः तर्हि कार्योत्पत्तिकालेऽपि कारणं सदिति कार्यकारणयोः समकालताप्रसङ्गः, न च समकामलयोः कार्यकारणभाव इष्यते, मात्रपत्याद्यविशेषाद्, घटपटादीनामयि परस्परं कार्यकारणभावप्रसङ्गः, अथासत इति पक्षः, तदप्ययुक्तम् , असतः कार्योत्पादायोगाद्, अन्यथा खरविपाणादपि तदुत्पत्तिप्रसक्तेः, न चासन्ताभावप्रध्वंसाभावयोः कोऽपि विशेपः, उभयत्रापि वस्तुसत्त्वाभावात् , प्रध्वंसाभावे वस्त्वासीत् तेन हेतुरिति चेत् यदाऽऽसीत् तदा न हेतुः अन्यदाच हेतुरिति साध्वी तत्त्वव्यवस्थितिः, अन्यञ्च-तद्भावे भाव इत्यवगमे कार्यकारणभावावगमः, स च तद्भावे भावः किं प्रत्यक्षेण प्रतीयते उतानुमानेन ?, न तावत्प्रत्यक्षेण, पूर्ववस्तुगतेन हि प्रत्यक्षेण पूर्व वस्तु परिच्छिन्न-13 मुत्तरवस्तुगतेन तूत्तरं, न चैते परस्परखरूपमवगच्छतो, नाप्यन्योऽनुसन्धाता कश्चिदेकोऽभ्युपगम्यते, तत एतदनन्तरमेतस्य भाव इति कथमवगमः?, नाप्यनुमानेन, तस्य प्रत्यक्षपूर्वकत्वात् , तद्धि लिङ्कलिङ्गिसम्बन्धग्रहणपूर्वकं प्रवत्तंते, लिङ्गलिङ्गिसम्बन्धश्च प्रत्यक्षेण प्रायो नानुमानेन, अनुमानेन ग्रहणेऽनवस्थाप्रसक्तेः, न च कार्यकारणभावविषये दीप अनुक्रम % A5% SAREa r nama ForPranaamymucom ~ 74~ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............. मूलं [-]/गाथा ||३|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत । सूत्रांक ||३|| वास्थवासकभावखंडन. दीप अनुक्रम श्रीमलय-1 प्रत्यक्षं प्रावर्तिष्ट ततः कथं तत्रानुमानप्रवृत्तिः ?, एवं ज्ञानक्षणयोरपि परस्परं कार्यकारणभावावगमः प्रत्यस्तो वेदिगिरीया तव्यः, तत्रापि खेन खेन संवेदनेन खस्य खस्य रूपस्य ग्रहणे परस्परखरूपानवधारणादेतदनन्तरमहमुत्पन्नमेतस्स चाहं जनकमित्यनवगतः, तन्न भवन्मतेन कार्यकारणभावो, नापि तदवगमः, ततो याचितकमण्डनमेतद्-एकसन्ततिपति॥ ३६॥ तत्वादेकाधिकरणं वन्धमोक्षादिकमिति । एतेन यदुच्यते-उपादेयोपादानक्षणानां परस्परं वास्तवासकभावादुत्तरोत्तर विशिष्टविशिष्टतरक्षणोत्पत्तेः मुक्तिसम्भव इति, तदपि प्रतिक्षिप्तमवसेयम् , उपादानोपादेयभावस्यैवोक्तनीत्याऽनुपपद्यमानत्वात् , योऽपि च वास्यवासकभाव उक्तः सोऽपि युगपद्धाविनामेवोपलभ्यते, यथा तिलकुसुमानां, उक्तं चान्यैरपि-"अवस्थिता हि वास्यन्ते, भावा भावैरवस्थितैः” तत् कथमुपादेयोपादानक्षणयोर्वास्यवासकभावः ?, पर|स्परमसाहित्यात् , उक्तं च-"वास्यवासकयोश्चैवमसाहित्यान्न वासना । पूर्वक्षणैरनुत्पन्नो, वास्यते नोत्तरः क्षणः॥१॥ उत्तरेण विनष्टत्वान्न च पूर्वस्य वासना ॥" अपि च-वासना वासकाद्भिन्ना वा स्यादभिन्ना बा ?, यदि भिन्ना तर्हि तया शून्यत्वात् नैवान्यं वासयति, वस्त्वन्तरवद् , अथाभिन्ना तर्हि न वास्ये वासनायाः सङ्क्रान्तिः, तदभिन्नत्वात् , तत्स्वरूपवत् , सङ्क्रान्तिश्चेत्तर्हि अन्वयप्रसङ्ग इति यत्किञ्चिदेतत् । यदप्युक्तं-सकलमपि जगद्रागद्वेषादिदुःखसङ्कल-| मभिजानानः कथमिदं सकलमपि जगत् मया दुःखादुद्धर्तव्यमित्यादि, तदपि पूर्वापरासम्बद्धवन्धुकीभाषितमिव केवलधार्यसूचकं, यतो भवन्मतेन क्षणा एव पूर्वापरक्षणत्रुटितानुगमाः परमार्थसन्तः, क्षणानां चावस्थानकालमानमे ~ 75~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ...................... मूल [-]/गाथा ||३|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३|| कपरमाणुव्यतिक्रममात्रम् , अत एवोत्पत्तिव्यतिरेकेण नान्या तेषां क्रिया सङ्गतिमुपपद्यते, 'भूतिर्येषां क्रिया सैव,I कारकं सेव चोच्यते' इतिवचनात् , ततो ज्ञानक्षणानामुत्पत्त्यनन्तरं न मनागव्यवस्थानं, नापि पूर्वापरक्षणाभ्या-13 मनुगमः, तस्मान्न तेषां परस्परखरूपावधारणं, नाप्युत्पत्त्यनन्तरं कोऽपि व्यापारः, ततः कथमर्थोऽयं मे पुरः दिसाक्षात्प्रतिभासते इत्येवमर्थनिश्चयमात्रमप्यनेकक्षणसम्भवि अनुस्यूतमुपपद्यते ?, तदभावाच कुतः सकलजगतो रागद्वेषादिदुःखसङ्कलतया परिभायनं ?, कुतो वा दीर्घतरकालानुसन्धानेन शास्त्रार्थचिन्तनं ?, यत्प्रभावतः सम्यगुपायमभिज्ञाय कृपाविशेषात् मोक्षाय घटनं भवेदिति । ननु सर्वोऽयं व्यवहारो ज्ञानक्षणसन्तत्यपेक्षया, नैकक्षणम|धिकृत्य, तत्के यमनुपपत्तिरुद्भाव्यते ?, उच्यते, सुकुमारप्रज्ञो देवानांप्रियः, सदैव सप्तघटिकामध्यमिष्टान्न भो६ जनमनोज्ञशयनीयशयनाभ्यासेन सुखैधितो न वस्तुयाथात्म्यावगमे चित्तपरिक्लेशमधिसहते, तेनास्माभिरुक्तमपि न सम्यगवधारयसि, ननु ज्ञानक्षणसन्ततावपि तदवस्वैवानुपपत्तिः, तथाहि-वैकल्पिका अवैकल्पिका वा ज्ञानक्षणाः |परस्परमनुगमाभावादविदितपरस्परखरूपाः, न च क्षणादूर्द्धमवतिष्ठन्ते, ततः कथमेष पूर्वापरानुसन्धानरूपो दीर्घकालिकः सकलजगहुःखितापरिभाषनशास्त्रविमर्शादिरूपो व्यवहार उपपद्यते ?, अक्षिणी निमील्य परिभाव्यतामे-14 तत् , यदप्युच्यते स्वग्रन्थेषु-निर्विकल्पकमकारमुत्पन्नं पूर्वदर्शनाहितवासनाप्रबोधात्तं विकल्पं जनयति येन पूर्वाअपरानुसन्धानात्मकोऽर्थनिश्चयादिव्यवहारः प्रवर्त्तते, तदप्येतेनापाकृतमवसेयं, यतो विकल्पोऽप्यनेकक्षणात्मकः, ततो131 CONCECR45-454 दीप अनुक्रम [३] ~ 76~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||३|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: अन्वयिज्ञा प्रत १७ सूत्रांक ||३|| श्रीमलय-1 विकल्पेऽपि यत्पूर्वक्षणे वृत्तं तदपरक्षणो न येत्ति, यच्चापरक्षणे वृत्तं न तत्पूर्वक्षणः, ततः कथमेष दीर्घकालिकोऽनु- गिरीया नन्दीपतिः स्यूतकरूपतया प्रतीयमानोऽर्थनिश्चयादिव्यवहारो घटते ? । अपि च-भवन्मतेन ज्ञानस्यार्थपरिच्छेदव्यवस्थाऽपि नोप पद्यते, अर्थाभाचे ज्ञानस्योत्पादाद, अर्थकार्यतया तस्याभ्युपगमात्, 'नाकारणं विषय' इति वचनात् , न च वाच्यं तत ॥३७॥ दि उत्पन्नमिति तस्य परिच्छेदकम्, इन्द्रियस्याप्यर्थवत्परिच्छेदप्रसक्तेः, ततोऽप्युत्पादात्, तदभावेऽभावात्, नापि सारूप्यात् , तस्यापि सर्वदेशविकल्पाभ्यामयोगात्, तथाहि-न सर्वात्मनाऽर्थेन सह सारूप्यं, सर्वात्मनाऽर्थेन सह सारूप्ये ज्ञानस्य जडरूपताप्रसक्तेः, अन्यथा सर्वात्मना सारूप्यायोगात् , नाप्येकदेशेन, सर्वस्य सर्वार्थपरिच्छेदकत्वप्रसङ्गात् , सर्वस्यापि ज्ञानस्य सर्वैरपि वस्तुभिः सह केनचिदंशेनान्ततः प्रमेयत्वादिना सारूप्यसम्भवात् , आह च भवदाचार्योऽपि धर्मकीर्तिनिनयप्रस्थाने-"सर्वात्मना हि सारूप्ये, ज्ञानमज्ञानतां ब्रजेत् । साम्ये केनचिदंशेन, सर्वं सर्वस्य वेदनम् ॥ १॥" न च सारूप्यादर्थपरिच्छेदव्यवस्थितावर्थसाक्षात्कारो भवति, परमार्थतोऽर्थस्य परोक्षत्वात् , ततो योऽयं प्रतिप्राणि प्रसिद्धः सकलैरपीन्द्रियैर्यथायोगमर्थसाक्षात्कारो यच्च गुरूपदेशश्रवणं शास्त्रनिरीक्षणं वा यवशात्तत्त्वं ज्ञात्वा मोक्षाय प्रवृत्तिः तत्सर्वमेकान्तिकक्षणिकपक्षाभ्युपगमे विरुध्यते, स्यादेतत्-परमार्थत एतदेव, तथाहि न ज्ञानं कस्यचित् परिच्छेदकम् , उक्तनीत्या ग्राहकत्वायोगात्, नापि तत् कस्यचित्परिच्छेद्य, तत्रापि ग्राह्यग्राहकत्वायोगात् , ततो ग्राखग्राहकाकारातिरिक्तं ज्ञानमेव केवलं खसंविदितरूपत्वात् वयं प्रकाशते, तेनाद्वैत SANSKRESCSC-SAX दीप अनुक्रम ॥३७॥ ~ 77~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||३|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत NAGAR सूत्रांक ||३|| दीप अनुक्रम ६ मेव तत्त्वं, यस्तु तथार्थनिश्चयादिको व्यवहारः सोऽनादिकालसंलीनवासनापरिपाकसम्पादितो द्रष्टव्यः, तदप्ययुक्तम् , तवासनाया अपि विचार्यमाणाया अघटमानत्वात् , तथाहि-सा वासना असती सती वा?, न तावदसती, असतः खर-14 विषाणस्येव सकलोपाख्याविकलतया तथा तथाऽर्थप्रतिभासहेतुत्वायोगाद्, अथ सती तर्हि सा ज्ञानाद् व्यत्यरैक्षीत् न वा?, व्यत्यरेक्षीचेदद्वैतहानिः, द्वयस्याभ्युपगमाद्, अपि च-सा ज्ञानाद् व्यतिरिक्ता सती एकरूपा वा स्वाद-12 |नेकरूपा वा?, न तावदेकरूपा एकरूपत्वे तस्या नीलपीताद्यनेकप्रतिभासहेतुत्वायोगात्, खभावभेदेन विना भिन्न-114 टाभिन्नार्थक्रियाकरणविरोधात , अधानेका तर्हि नामान्तरेणार्थ एव प्रतिपन्नः, तथाहि-सा वासना ज्ञानादू व्यतिसारिक्ता अनेकरूपा च, अर्थोऽप्येवंरूप एवेति, अथाव्यतिरिक्ता साऽपि च पूर्वविज्ञानजनिता विशिष्टज्ञानान्तरोत्पादन समर्था शक्तिः, आह च प्रज्ञाकरगुप्तः-“वासनेति हि पूर्वविज्ञानजनितां शक्तिमामनन्ति वासनाखरूपविदः" एवं द्रातर्हि पूर्वपूर्वविज्ञानजनिताः कालभेदेन तत्तद्विशिष्टविशिष्टतरज्ञानोत्पादनसमर्थाः शक्तयोऽनेकाः प्रबन्धेनानुवर्तमानाः[81 तिष्ठन्ति, तत एकस्मिन्नपि ज्ञानक्षणेऽनेका वासनाः सन्ति, शक्तीनामेव वासनात्वेनाभ्युपगमात् , तासां च ज्ञानक्ष-1K कणादव्यतिरेकादेकस्याः प्रबोधे सर्वासामपि प्रबोधः प्रामोति, अन्यथाऽव्यतिरेकायोगात् , ततो युगपदनन्तविज्ञाना४नामुदयप्रसङ्गः, स चायुक्तः, प्रत्यक्षबाधितत्वात् । अन्यथ-ज्ञाने विनश्यति तदव्यतिरेकाचा अपि निरन्वयमेव 3 |विनष्टाः, ततः कथं तत्सामर्थ्यात्कालभेदेन तत्तद्विशिष्टविशिष्टतरज्ञानान्तरप्रसूतिः, स्वादेतत्-पूर्वमेव विज्ञानं १३ (३y ~ 78~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||३|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: निसिद्धि प्रत सूत्रांक ||३|| श्रीमलय- पाटवाधिष्ठितं, वासना तजनिता शक्तिः, उक्तदोपप्रसङ्गात्, तच पूर्व विज्ञानं किञ्चिदनन्तरं तथा तथा विशिष्टं ज्ञानं अन्वयितागिरीया जनयति, किञ्चित् कालान्तरे, यथा जाग्रद्दशाभावि ज्ञानं खप्रज्ञानं, न च व्यवहितादुत्पत्तिरसम्भाव्या, रष्टत्वात्, नन्दीवृत्तिः द तथाहि-अनुभवाचिरकालातीतादपि स्मृतिरुदयमासादयन्ती दृश्यते, तदप्ययुक्तम् , तत्राप्युक्तदोपानतिक्रमात्, ३८॥ यद्धि पूर्वविज्ञानं निरन्वयमेव विनष्टं न तस्य कोऽपि धर्मः क्षणान्तरेऽनुगच्छति, ततः कथं ततोऽनन्तरं कालान्तरे १७ वा विशिष्ट ज्ञानमुदयते ?, एवं हि तन्निर्हेतुकमेव परमार्थतो भवेत् , अथ पूर्व विज्ञानं प्रतीत्य तदुत्पद्यते तत्कथं तन्निर्हेतुकं ?, क्रीडनशीलो देवानांप्रियो यदेवमेयास्मान् पुनः पुनरायासयति, ननु यदा यत्पूर्व विज्ञानं न तदा तद्वि|शिष्टं ज्ञानमुपजायते यदा च तदुपजायते न तदा पूर्वविज्ञानस्य लेशोऽपि तत्कथं तन्न निर्हेतुकम् ?, यदप्युक्तम् 'किश्चित्कालान्तरे' इति, तदपि न्यायवाद्यं, चिरविनष्टस्य कार्यकरणायोगाद्, अन्यथा चिरविनष्टेऽपि शिखिनि केका४ायितं भवेत् , ननु चिरविनष्टादप्यनुभवात् स्मृतिरुदयमासादयन्ती दृश्यते, न च दृष्टेऽनुपपन्नता, तद्वत् ज्ञानान्तरमपि C२२ तभविष्यति को दोषः?, उच्यते, दृश्यते चिरविनष्टादप्यनुभवात् स्मृतिः, केवलं साऽपि भवन्मते नोपपद्यते, तत्राप्युक्त दोषप्रसङ्गात्, ततोऽयमपरो भवतो दोषः, न च दृष्टमित्येव यथाकथञ्चित्परिकल्पनामधिसहते, किन्तु प्रमाणो- ॥३८ पपन्नं, तत्र यथा भवत्परिकल्पना तथा न किमप्युपपद्यते, ततोऽवश्यमन्वयि ज्ञानमभ्युपगन्तव्यम् , तथा च सति न कश्चिद्दोषः, सर्वस्यापि स्मृत्यादेरुपपद्यमानत्वात् , तथाहि-अनुभवेन पटीयसाऽविच्युतिरूपधारणासहितेनात्मनि २६ दीप अनुक्रम Hamarary.orm ~ 79~ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक ||3|| दीप अनुक्रम [3] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [ - ]/गाथा ||३|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः वासनाऽपरपर्यायः संस्कार आधीयते स च यावदवतिष्ठते तावत्सादृशार्थदर्शनादाभोगतो वा स्मृतिरुदयते, संस्काराभावे तुन, ततोऽन्वविज्ञानाभ्युपगमे परमार्थतोऽनुसन्धातुरे कस्याभ्युपगमात्कार्यकारण भावावगमो निखिलजगदुःखितापरिभावनं शास्त्रपौर्वापर्यालोचनेन मोक्षोपायसमीचीनताविवेचनमित्यादि सर्वमुपपद्यते तन्न नैरात्म्यादिभावना रागादिक्लेशप्रहाणिहेतुः, तस्या मिथ्यारूपत्वात् । यदपि च उक्तम् आत्मनि परमार्थतया विद्यमाने तत्र स्नेहः प्रतत्र्त्तत इति तत्राव चीनावस्थायामेतदिष्यत एव, अन्यथा मोक्षायापि प्रवृत्त्यनुपपत्तेः तथाहि यत एवात्मनि सेहः तत एव प्रेक्षावतामात्मनो दुःखपरिजिहीर्षया सुखमुपादातुं यत्तः, तत्र संसारे सर्वत्रापि दुःखमेव केवलं, तथाहिनरकगतौ कुन्ताप्रभेदकरपत्रशिरः पाटनशूलारोपकुम्भिपाकासिपत्रवनकृत कर्ण नासिकादिच्छेदं कदम्बवालुकापथगमनादिरूपमनेकप्रकारं दुःखमेव निरन्तरं नाक्षिनिमीलनमात्रमपि तत्र सुखं तिर्यग्गतावपि अङ्कुशकशाभिघातप्राजनकतोदनवधबन्धरोगक्षुत्पिपासादिप्रभवमनेकं दुःखं, मनुष्यगतावपि परप्रेषगुप्तिगृह प्रवेशधन बन्धुवियोगानिष्टसम्प्रयोगरोगादिजनितं विविधमनेकं दुःखं, देवगतावपि च परगतविशिष्टद्युतिविभवदर्शनात् मात्सर्यमात्मनि तद्विहीने विषादः च्युतिसमये चातिरमणीयविमानवनवापीस्तूपदेवाङ्गना वियोगजमनिष्टजन्मसन्तापं वाऽयेक्षमाणस्य तप्तायोभाजननिक्षिप्तशफरादप्यधिकतरं दुःखं, यदपि च--मनुष्यगतौ देवगतौ वा किमप्यापातरमणीयं कियत्कालभावि विषयोपभोगसुखं तदपि विषसम्मिश्र भोजनसुखमिव पर्यन्तदारुणत्वादतीव विदुषामनुपादेयम्, तन्न संस्तौ कापि For Parts Only ~80~ ५ १३ org Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||३|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलयगिरीया नरात्म्यनिराकरणं. प्रत सूत्रांक ||३|| नन्दीवृत्तिः ॥३९॥ दीप अनुक्रम विदुषामास्थोपनिबन्धो युक्तः, यत्तु निःश्रेयसपदमधिरूढस्य सुखं तत्परमानन्दरूपमपर्यवसानं च, तच प्रायो युक्ति- लेशेन प्रागेवोपदर्शितम् , आगमतो वाऽनुसतव्यम् , आगमप्रमाणवलाद्धि सकलमपि परलोकादिखरूपं यथावदवग- न म्यते, नान्यतः, तेन यदुच्यते प्रज्ञाकरगुप्तेन-दीर्घकालसुखादृष्टाविच्छा तत्र कथं भवेदिति, तदपास्तमवसेयम् , आगमतो दीर्घकालसुखस्य दर्शनात्, न चागमस्य न प्रामाण्यं, तदप्रामाण्ये सकलपरलोकानुष्ठानप्रवृत्त्यनुपपत्तेः, |उपायान्तराभावात् , तत आगमबलादुक्तस्वरूपमोक्षसुखमवेत्य तत्रागमे सर्वात्मना निषण्णमानसः संसाराद्विरको यद्यत्संसारहेतुः तत्तत्परिजिहीपुररक्तद्विष्टः सर्वकर्मनिमूलनाय प्रकर्षेण यतते, तस्य चैवं प्रयतमानस्य कालक्रमेण विशिष्टकालादिसामग्रीसम्बासी प्रतनुभूतकर्मणः सकलमोहविकारप्रादुर्भावविनिवृत्तेरणिमाद्यैश्चर्यलब्धावपि नौत्सुक्यमुपजायते, अत एव च तस्य मोक्षेऽपि न स्पृहाऽभिष्वङ्गापरपर्याया, तस्या अपि मोहविकारत्वात् , केवलं सा संसाराद्विरक्तिहेतुः खयमपि च परम्परानिरनुबन्धिनीत्यर्वाचीनावस्थायां प्रशस्यते, ननु यदि मोक्षेऽपि न स्पृहा कथं तर्हि तदर्थं प्रवृत्युपपत्तिः, न, लोकेऽपि स्पृहाव्यतिरेकेणापि तत्तत्कार्यकरणाय प्रवृत्तिदर्शनात् , तथाहि-दृश्यन्ते ४/ केचित् गम्भीराशया अभिष्वङ्गात्मिका स्पृहामन्तरेणापि यथाकालं भोजनाद्यनुतिष्ठन्तः, तथाविधौत्सुक्यलाम्पट्याद्य| दर्शनाद्, अपि च-यथा न मोक्षे स्पृहा तथा न संसारेऽपि, संसारादत्यन्तं विरक्तत्वात् , ततः सकलमपि संसारहेतुं परित्यजन्तः कथमिव संसारपरिक्षये मोक्षस्पृहाव्यतिरेकेणापि न मुक्तिभाजः, तदेवं सर्वत्र स्पृहारहितस्य सूत्रोक्त- - २६ ~81~ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||३|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३|| ACCASAGACCOCOCCAS नीत्या ज्ञानादिषु यतमानस्य भावनाप्रकर्षे सत्यशेषरागादिक परिक्षयतो भवति मुक्तिः, एतेन यदुक्तम्-'तत्स्नेहव-12 शाच तत्सुखेषु परितर्षवान् भवती'त्यादि, तदपि निर्विषयमगन्तव्यम् , उक्तनीत्या तस्ववेदिनः परितर्षाद्यभावा-18I दिति स्थितं । सायाः पुनराहु:-प्रकृतिपुरुषान्तरपरिज्ञानान्मुक्तिः, तथाहि-"शुद्धचैतन्यरूपोऽयं, पुरुषः परमा सांख्यमुर्थतः । प्रकृत्यन्तरमज्ञात्वा, मोहात्संसारमाश्रितः॥१॥” ततः प्रकृतेः सुखादिखभावाया यावत् न विवेकेन ग्रहणं तावन्न मुक्तिः, केवलज्ञानोदये तु मुक्तिः, तदप्यसद्, आत्मा खेकान्तनित्यः, सुखादयस्तूत्पादव्ययधर्माणः, ततो विरुद्धधर्मसंसर्गादात्मनः प्रकृतेर्भेदः प्रतीत एव, किं न मुक्तिः?, अथैतदेव संसारी न पर्यालोचयति ततो न मुक्तिः, यद्येवं 8 तर्हि सर्वदाऽप्यमुक्तिरेव, प्राप्तविवेकाध्यवसायस्थासम्भवात् , तथाहि-यावत्संसारी तावन्न विवेकपरिभावनं, अथ च विवेकपरिभायने संसारित्वव्यपगमः, ततो विवेकाध्यवसायासम्भवात् न कदाचिदपि संसाराद्विप्रमुक्तिः, अपि च-11 8 सृष्टेरपि प्रागात्मा केवल इष्यते, ततस्तस्य कथं संसारः?, कथं वा मुक्तस्य सतो न भूयोऽपि, अथ सृष्टेः प्रागात्मनो दिक्षा ततो दिक्षावशात्प्रधानेन सहेकतामात्मनि पश्यतः संसारः, मुक्तिस्तु प्रकृतेदुष्टतामवधार्य प्रकृतेविरागतो भवति, ततो न पुनः प्रकृतिविषया दिदृक्षेति न भूयः संसारः, तदप्ययुक्तम् , स्वकृतान्तविरोधात्, तथाहि-दिदृक्षा नाम द्रष्टुमभिलाषः, स च पूर्वदृष्टेष्वर्थेषु तथास्मरणतो भवति, न च प्रकृतिः पूर्वं कदाचनापि दृष्टा, तत्कथं तद्वि६षयो स्मरणाभिलाषी ?, अपि च-स्मरणाभिलाषौ प्रकृतिविकारत्वात् प्रकृते विनी, स्मरणाभिलाषाभ्यां च प्रकृत्य दीप अनुक्रम १. SAREA marana Samsunmurary.org ~82~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक ||3|| दीप अनुक्रम [3] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ - ]/गाथा ||३|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ॥ ४० ॥ नुगम इत्यन्योऽन्याश्रयः, आह च - "अभिलाषस्मरणयोः, प्रकृतेरेव वृत्तितः । अभिलाषाच तद्वृत्तिरित्यन्योऽन्यसमाश्रयः ॥ १ ॥” अथानादिवासनावशात्प्रकृतिविषयौ स्मरणाभिलाषी, तदद्भ्यसत्, वासनाया अपि प्रकृतिविकार★ तया प्रकृतेः पूर्वमभावात्, अथात्मखभावरूपा सा वासना तर्हि तस्याः कदाचनाप्यात्मन इवोपरमासम्भवात्सर्वदाऽप्यमुक्तिरेवेति यत्किञ्चिदेतत् । यदप्युक्तम्- 'रागादयो धर्माः, ते च किं धर्मिणो भिन्ना अभिन्ना वा' इत्यादि, तदप्ययुक्तं, भेदाभेदपक्षस्य जात्यन्तरस्याभ्युपगमात् केवलभेदाभेदपक्षे धर्मधर्मिभावस्यानुपपद्यमानत्वात्, तथाहिधर्मधर्मिणोरेकान्तेन भेदेऽभ्युपगम्यमाने धर्मिणो निःखभावतापत्तिः खभावस्य धर्मत्वात्तस्य च ततोऽन्यत्वात्, खो भावः स्वभावः तस्यैवात्मीया सत्ता, न तु तदर्थान्तरं धर्म्मरूपं ततो न निःखभावतापत्तिरिति चेत्, न, इत्थं स्वरूपसत्ताऽभ्युपगमे तदपरसत्तासामान्ययोगकल्पनाया वैयर्थ्याप्रसङ्गात् अपि च-- यद्येकान्तेन धर्मधर्मिणोर्भेदः ततो धर्मिणो ज्ञेयत्वादिभिः धम्मैरननुवेधात् तस्य सर्वथाऽनवगमप्रसङ्गो, न ह्यज्ञेयस्वभावं ज्ञातुं शक्यत इति, तथा च सति तदभावप्रसङ्गः कदाचिदप्यवगमाभावात्, तथापि तत्सत्त्वाभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गः, अन्यस्यापि यस्य कस्यचित् कदाचिदप्यनवगतस्य पष्ठभूतादेर्भावापत्तेः एवं च धर्म्यभावे धर्माणामपि ज्ञेयत्वप्रमेयत्वादीनां निराश्रयत्वादभावापत्तिः, न हि धर्म्याधाररहिताः कापि धर्म्माः सम्भवन्ति, तथाऽनुपलब्धेः, अन्यच - परस्परमपि तेषां धर्म्माणामेकान्तेन भेदाभ्युपगमे सत्त्वाद्यननुवेधात् कथं भावाभ्युपगमः १, तदन्यसत्यादिधर्म्माभ्युपगमे च धर्मित्वप्रस Education International For Pernal Use Only ~83~ सांख्यमुक्ति निरासः १५ २० ॥ ४० ॥ २६ Manerary.org Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||३|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३|| दीप अनुक्रम |क्तिरनवस्था च, तन्नैकान्तभेदपक्षे धर्मिधर्मभावः, नाप्येकान्ताभेदपक्षे, यतस्त स्मिन्नभ्युपगम्यमाने धर्ममात्रं वा स्याद्ध|म्मिमात्रं वा, अन्यथै कान्ताभेदानुपपत्तेः, अन्यतराभावे चान्यतरस्याप्यभावः, परस्परनान्तरीयकत्वाद्, धर्मनान्तरी-1 यको हि धर्मी, धर्मिनान्तरीयकाश्च धाः, ततः कथमेकाभावेऽपरस्थावस्थानमिति?, कल्पितो धर्मधमिभावः ततो न दूषणमिति चेत् तर्हि वस्त्वभावप्रसङ्गः, न हि धर्मम्मिखभावरहितं किञ्चिद्वस्वस्ति, धर्मधमिभावश्च | कल्पित इति तदभावप्रसङ्गः, धर्मा एव कल्पिता न धर्मी तत्कथमभावप्रसङ्ग इति चेत्, न, धर्माणां कल्पनामात्रदि त्वाभ्युपगमेन परमार्थतोऽसत्त्वाभ्युपगमात् , तदभावे च धर्मिणोऽप्यभावापत्तेः, अथ तदेवैकं खलक्षणं सकलसजाहै। तीयविजातीयव्यावृत्त्येकखभावं, धमिव्यावृत्तिनिबन्धनाश्च या व्यावृत्तयो भिन्ना इव कल्पितास्ता धर्माः, ततो न क|श्चिन्नो दोषः, तदप्ययुक्तम् , एवं कल्पनायां वस्तुतोऽनैकान्तात्मकताप्रसक्तेः, अन्यथा सकलसजातीयविजातीयव्यावृत्त्ययोगात्, न हि येनैव स्वभावेन घटादू व्यावर्त्तते पटः तेनैव स्तम्भादपि, स्तम्भस्य घटरूपताप्रसक्तेः, तथाहि-घटाद् व्यावर्तते पटो घटव्यावृत्तिखभावतया स्तम्भादपि चेद् घटव्यावृत्तिखभावतयैव व्यावर्त्तते तर्हि बलात् स्तम्भस्य घटरूपताप्रसक्तिः, अन्यथा तत्वभावतया व्यावृत्त्ययोगात् , तस्माद्यतो यतो व्यावर्त्तते तत्तद्व्यावृत्तिनिमित्तभूताः खभाषा अवश्यमभ्युपगन्तव्याः, ते च नैकान्तेन धर्मिणोऽभिन्नाः, तदभावप्रसङ्गात् , तथा च तदवस्थ एव पूर्वोक्तो दोषः, तस्माद् भिन्नाभिन्नाः, भेदाभेदोऽपि धर्मधर्मिमणोः कथमिति चेत्, उच्यते, इह यद्यपि तादात्म्यतो धमिणां ~84~ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ....................... मूलं [-]/गाथा ||३|| .............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३|| दीप अनुक्रम श्रीमलय-18 धर्माः सर्वेऽपि लोलीभावेन व्यासाः तथाऽप्ययं धर्मी एते धर्मा इति परस्परं भेदोऽप्यस्ति, अन्यथा तद्भावानु-1Bधर्मिगिरीयादा पपत्तिः, तथा च सति प्रतीतिबाधा, मिथो भेदेऽपि च विशिष्टान्योऽन्यानुवेघेन सर्वधर्माणां धम्मिणा व्याप्तत्वानन्दीवृत्तिः भेदाभेददभेदोऽप्यस्ति, अन्यथा तस्य धर्मा इति सङ्गानुपपत्तेः, ततश्च न सर्वेषां वीतरागत्वप्रसङ्गः, केवलभेदस्थानभ्युपगमात् ,IEL सिद्धि ॥४१॥ नापि दोषक्षयवदात्मनोऽपि क्षयः, केवलाभेद स्थानभ्युपगमादिति सर्व सुस्थम् । ननु येनैव क्रमेण भगवतोऽतिशयलाभः तेनैव क्रमेण तदभिधानं युक्तिमत् नान्यथा, भगवतश्च प्रथमतोऽपायापगमातिशयस्य लाभः पश्चात् ज्ञानातिशयस्य तकिमर्थ व्युत्क्रमनिर्देशः?, उच्यते, "फलप्रधानाः समारम्भा" इति ज्ञापनाथें । तथा 'भद्र' कल्याणं भवत, सुरैःशक्रादिभिः असुरैः-चमरादिभिर्नमस्कृतस्य, अनेन पूजातिशयमाह, न हि विभवानुरूपां भगवतः पूजामकृत्वा सुरासुरा नमस्कृतिक्रियायां प्रवृत्तिमातेनुः, तथाकल्पत्वात् , पूजां च ते कृतवन्तोऽष्टमहापातिहार्यलक्षणां, तानि च महाप्रातिहार्याण्यमूनि-"अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिर्दिव्यो ध्वनिश्चामरमासनं च। भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं, सत्प्रातिहार्याणि |जिनेश्वराणाम् ॥ १॥" पूजातिशयश्चान्यथानुपपत्त्या वागतिशयमाक्षिपति, न हि वागतिशयमन्तरेण तथा पूजाति शयो भवति, सामान्यकेवलिनामदर्शनात् , तदेवं ज्ञानातिशयादयश्चत्वारो मूलातिशया उक्ताः, एते च देहसौगन्ध्यादीनामतिशयानामुपलक्षणम्, एतेषु सत्सु तेषामवश्यं भावात् । तथा 'भद्रं' कल्याणं भवतु 'धूतरजसः' धूर्त-कम्पितं ४ है स्फोटितं रजो-बध्यमानं कर्म येन स धूतरजाः तस्य, अनेन सकलसांसारिकक्लेशविनिर्मुक्तावस्थामाह, यतो वध्यमा २० 4555 ॥४१॥ SAREairahana ~85~ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||३|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३|| नकं कर्म रजो भण्यते, बध्यमानकर्माभावश्चायोगिसिद्धावस्थां गतस्य, नार्वाचीनावस्थायां, यत उक्तं सूत्रे"जावणं एस जीवे एयइ वेयइ चलइ फंदइ घट्टइ खुम्भइ उदीरइ तं तं (भाव) परिणमइ ताव णं अट्ठविहवन्धए वा सत्तविहवंधए वा छधिहबन्धए वा एगविहवंधए वा, नो चेवणं अवन्धए सिआ" तत्र मिथ्यारश्यादयो मिश्रवर्जिता अप्रमत्तान्ता आयुर्वन्धकालेऽष्टानामपि कर्मणां बन्धकाः, शेषकाले त्वायुर्वजानां सप्तानां, एतेषामेव सप्तकर्मणां मिश्रापूर्वकरणानिवृत्तिवादरा अपि बन्धकाः, सूक्ष्मसम्पराया मोहायुर्वजानां पण्णां कर्मणाम् , उपशान्तमो४ाहक्षीणमोहसयोगिकेवलिनः सातवेदनीयस्यैवैकस्य, तच सातवेदनीयं तेषां द्विसामयिक, तृतीयसमयेऽवस्थानाभावात् , शैलेशीप्रतिपत्तेरारभ्य पुनर्योगाभावादवन्धकाः, उक्तं च-"सत्तविहवंधगा होति पाणिणो आउवजगाणं तु । तह | सुहुमसंपराया छबिहबंधा विणिहिट्ठा ॥१॥ मोहाउयवजाणं पयडीणं ते उ बन्धगा भणिया । उवसंतखीणमोहा केवलिणो एगविहवन्धा ॥२॥ तं पुण दुसमयठिइयस्स बंधगा न उण संपरायस्स । सेलेसीपडियन्ना अबंधगा होंति विण्णेया ॥३॥" अथ भगवान् संसारातीतत्वात् सदैव परमकल्याणरूपः तत्किमेवमुच्यते तस्य भद्रं भवतु?, न च १ यावद् एष जीव एजते पेजते चलति स्पन्दते घटते क्षुभ्यति उदीरयति तं तं भावं परिणमति तावद् अविषबन्धको वा सप्तबधबन्धको या विधान न्धको वा एकविधयन्धको चा; नो और अबन्धकः स्यात् । २ सप्तविधबन्धका भवन्ति प्राचिन आयुकानां तु तथा सूक्ष्मपरायाः पविधबन्धा विनिर्दिष्टाः ॥१॥ | मोहायुधानी प्रकृतीमा ते तु बम्धका भगिताः । पशाम्तक्षीणमोही केवलिन एकविधबन्धाः ॥२॥ ते पुनईिसमयस्थितिकस्य बन्धध न पुनः संपरायख। शलेशीप्रतिपना भवन्धका भवन्ति विज्ञेयाः ॥३॥ SEXDESCRCE 4560564345616 दीप अनुक्रम SAREnlidkinatand ~86~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||४|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत संघस्य सूत्रांक ASSORS श्रीमलय-16 सोत्रा भणितं सर्वमेवं तथा भवति, अन्यत्र तथाऽदर्शनात् , अत्रोच्यते, सत्यमेतत्, तथाप्येवमभिधानं कर्तृश्रोतॄणां कुशल गिरीया लमनोवाकायप्रवृत्तिकारणमतो न दोषः ॥ तदेयं वर्तमानतीर्थाधिपतित्वेनासनोपकारित्वावर्द्धमानखामिनो नमस्कानन्दात्तिा रमभिधाय सम्प्रति तीर्थकरानन्तरं सद्यः पूज्य इति परिभावयन् सहस्य नगररूपकेण स्तवमाह॥४२॥ नगररूपेण गुणभवणगहण सुयरयणभरिय दसणविसुद्धरत्यागा। संघनगर भदं ते अक्खंडचारित्तपागारा॥४॥ गुणा इह उत्तरगुणा गृह्यन्ते, मूलगुणानामने चारित्रशब्देन गृह्यमाणत्वात् । ते चोत्तरगुणाः पिण्डविशुद्ध्यादयो, यत उक्तम्-"पिंडस्स जा विसोही समिईओ भावणा तवो दुबिहो । पडिमा अभिग्गहावि य उत्तरगुण मो पियाणाहि ॥१॥" त एव भवनानि तैर्गहन-गुपिलं प्रचुरत्वादुत्तरगुणानां गुणभवनगहनं, सङ्घनगरमभिसम्बध्यते, तस्यामन्त्रणं हे गुणभवनगहन !, तथा 'श्रुतरत्नभृत' श्रुतान्येव-आचारादीनि निरुपमसुखहेतुत्वाद्रलानि श्रुतरत्नानि तैर्भूत-पूरितं | है तस्यामन्त्रणं हे श्रुतरत्नभृत! तथा 'दर्शनविशुद्धरथ्याक'! इह दर्शन-प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्यलिङ्गगम्यमात्म परिणामरूपं सम्यग्दर्शनमिति गृह्यते, तच क्षायिकादिभेदात् त्रिधा, तद्यथा-क्षायिक क्षायोपशमिकमीपशमिकं च, ४ उक्तं च-“सम्मपि य तिविहं खओवसमियं तहोयसमियं च । खइयं चे"ति, तत्र त्रिविधस्थापि दर्शनमोहनीयस्य पिण्डस्य या विशुद्धिः समितयो भावना तपो द्विविधम् । प्रतिमा अभिप्रहा अपि च उत्तरगुणा (इति) विजानीहि ॥१॥२ सम्बक्तमपि च त्रिविधं क्षायोपयामिक तथौषशनिक थ । क्षामिक चेति । ||४|| २२ दीप अनुक्रम [४] २७ विविध-रूपेण “संघ"स्य स्तवना ~87~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [8] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४४], चूलिका सूत्र [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः क्षयेण निर्मूलमपगमेन निर्वृत्तं क्षायिकं, उदयावलिकाप्रविष्टस्यांशस्य क्षयेण शेषस्य तूपशमेन निर्वृत्तं क्षायोपशमिकं, | उदयावलिकाप्रविष्टस्यांशस्य क्षये सति शेषस्य भस्मच्छन्नान्नेरिवानुद्रेकावस्था उपशमः तेन निर्वृत्तमोपशमिकम्, आहऔपशमिकक्षायोपशमिकयोः कः प्रतिविशेषः ?, उच्यते, क्षायोपशमिके तदावारकस्य कर्म्मणः प्रदेशतोऽनुभवोऽस्ति न त्वौपशमिके इति । दर्शनमेवासारमिध्यात्वादिकचवररहिता विशद्धरध्या यस्य तत्तथा तस्यामन्त्रणं हे दर्शनविशुद्धरथ्याक ! 'सेर्लोपः सम्बोधने हखो वेति प्राकृतलक्षणसूत्रे वाशब्दस्य लक्ष्यानुसारेण दीर्घत्वसूचना (र्थत्वा) त् दीर्घनिर्देशो, यथा गोयमा इत्यत्र, सङ्घः- चातुर्वर्णः श्रमणादिसङ्घातः स नगरमिव सङ्घनगरं 'व्याघ्रादिभिगणिस्तदनुक्ता'विति समासो, यथा पुरुषो व्याघ्र इव पुरुषव्याघ्रः, तस्यामन्त्रणं हे सङ्घनगर ! 'भद्रं कल्याणं 'ते' तव भवतु अखण्डचारित्रप्राकार ! चारित्रं मूलगुणाः अखण्डम् — अविराधितं चारित्रमेव प्राकारो यस्य तत्तथा 'मांसादिषु चेति' प्राकृतलक्षणात् चारित्रशब्दस्यादी म्हखः तस्यामन्त्रणं हे अखण्डचारित्रप्राकार!, दीर्घत्वं प्रागिव ॥ भूयोऽपि सङ्घस्यैव संसारोच्छेदकारित्वाचक्ररूपकेण स्तवमाह संजमतवतुंबारयस्स नमो सम्मत्तपारियलस्स । अप्पडिचकस्स जओ होउ सया संघचकस्स ॥५॥ संयमः - सप्तदशप्रकारः यदुक्तम्- “पञ्चाश्रवाद्विरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः । दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः || १||” तपो द्विधा - वायमाभ्यन्तरं च तत्र वासं पविधं, यदुक्तम्- "अनशनमूनोदरता वृत्तेः संक्षेपणं For Park Use Only ~88~ ५ १० १३ www.ncbrary org Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक ||५|| दीप अनुक्रम [4] श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ॥ ४३ ॥ Education T “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ - ] / गाथा ||५|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः रसत्यागः । कायक्लेशः संलीनतेति वाह्मं तपः प्रोक्तम् ॥ १ ॥” आभ्यन्तरमपि षोढा, यत उक्तम् - " प्रायश्चित्तध्याने वैयावृत्त्यविनयावथोत्सर्गः । स्वाध्याय इति तपः पट्प्रकारमाभ्यन्तरं भवति ॥ २ ॥” संयमश्च तपांसि च संयमतपांसि तुम्बं च अराश्च – अरकाः तुम्बाराः संयमतपांस्येव यथासंख्यं तुम्हारा यस्य तत्तथा तस्मै संयमतपस्तुम्बाराय नमः, सूत्रे षष्ठी प्राकृतलक्षणाचतुर्थ्यर्थे वेदितव्या, उक्तं च- 'छंडिविहत्तीऍ भन्नइ चउत्थी' तथा 'सम्मत्तपारियलस्स' सम्यक्त्वमेव पारियलं - बाह्यपृष्ठस्य बाह्या भ्रमिर्यस्य तत्तथा तस्मै नमः गाथार्द्ध व्याख्यातं, तथा न विद्यते प्रति-अनुरूपं समानं चक्रं यस्य तदप्रतिचक्रं, चरकादिचक्ररसमानमित्यर्थः, तस्य जयो भवतु 'सदा' सर्वकालं, सङ्घचक्रमित्र सङ्घचक्रं तस्य ॥ सम्प्रति सङ्घस्यैव मार्गगामितया रथरूपकेण स्तवमभिधित्सुराह- भदं सीलपडागूसियस्स तवनियमतुरयजुत्तस्स । संघरहस्स भगवओ सज्झायसुनंदिघोसस्स ॥ ६ ॥ 'भद्र' कल्याणं सङ्घरथस्य भगवतो भवत्विति योगः, किंविशिष्टस्य सतः इत्याह- 'शीलोच्छ्रितपताकस्य' शीलमेव - अष्टादशशीलाङ्गसहस्ररूपमुच्छ्रिता पताका यस्य स तथा भार्योढादेराकृतिगणतया तन्मध्यपाठाभ्युपगमादुच्छ्रितशब्दस्य परनिपातः, प्राकृतशैल्या वा, न हि प्राकृते विशेषणपूर्वापरनिपातनियमोऽस्ति, यथाकथञ्चित्पूर्वर्षिप्रणीतेषु वाक्येषु विशेषणनिपातदर्शनात्, 'तपोनियमतुरङ्गयुक्तस्य' तपःसंयमाश्वयुक्तस्य, तथा स्वाध्यायः - पञ्च १ विभवा भण्यते चतुर्थी । For Pasta Use Only ~89~ संघस्य चऋरथाम्या मौपम्यं. गाः ५-६ २० ॥ ४३ ॥ २६ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||६|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||६|| संघख पद् | विधः, तद्यथा-वाचना प्रच्छना परावर्त्तना अनुप्रेक्षा धर्मकथा च, स्वाध्याय एव सन्-शोभनो नन्दिघोषो-द्वादश-12 |विधतूर्यनिनादो यस्य स तथा तस्य, 'सज्झायसुनेमिघोसस्से' ति कचित्पाठः, तत्र स्वाध्याय एव शोभनो नेमिघोषो| यस्येति द्रष्टव्यम् , इह शीलाङ्गप्ररूपणे सत्यपि तपोनियमनरूपणं तयोः प्रधानपरलोकाङ्गत्वख्यापनार्थ, अस्ति चायं न्यायो यदुत-सामान्योक्तावपि प्राधान्यख्यापनार्थ विशेषाभिधानं क्रियते, यथा ब्राह्मणा आयाता वशिष्टोऽप्यायात इति, एवमन्यत्रापि यथायोगं परिभावनीयम् ॥ सङ्घस्यैव लोकमध्यवर्त्तिनोऽपि लोकधर्मासंश्लेषतः पद्मरूपकेण स्तवं| प्रतिपादयितुमाहकम्मरयजलोहविणिग्गयस्स सुयरयणदीहनालस्स । पंचमहत्वयथिरकन्नियस्स गुणकेसरालस्स ॥७॥ सावगजणमहुअरिपरिवुडस्स जिणसूरतेयबुद्धस्स । संघपउमस्स भई समणगणसहस्सपत्तस्स ॥ ८॥ | कर्म-ज्ञानावरणाद्यष्टप्रकारं तदेव जीवस्य गुण्डनेन मालिन्यापादनाद्रजो भण्यते कर्मरज एव जन्मकारणत्वाहै जलौघः तस्माद्विनिर्गत इव विनिर्गतः कर्मरजोजलौघविनिर्गतः तस्य, इह पद्मं जलौघाद्विनिर्गतं सुप्रतीतं, जलौघ स्वोपरि तस्य व्यवस्थितत्वात् , सङ्घस्तु कम्मरजोजलौघाद्विनिर्गतोऽल्पसंसारत्वादबसेयः, तथा च अविरतसम्यग्| दृष्टेरप्यपार्द्धपुद्गलपरावर्त्तमान एव संसारः, अत एव विनिर्गत इवेति व्याख्यातं, न तु साक्षाद्विनिरर्गतः, अद्यापि दिसंसारित्वात्, तथा श्रुतरत्नमेव दीर्घो नालो यस्य स तथा तस्य, दीर्घनालतया च श्रुतरत्नस्य रूपणं कम्मरजो दीप अनुक्रम गा.७-८ [६] * * Ramanand Damanarary orm ~ 90 ~ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [-]/गाथा ||८|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलय सवस्य पद गिरीया | | मा. ७-८ प्रत सूत्रांक ||८|| ॥४४॥ जलौघतः तद्बलाद्विनिर्गतेः, तथा पञ्च महाव्रतान्येव-प्राणातिपातादिविरमणलक्षणानि स्थिरा-दृढा कर्णिकालमध्य-12 गण्डिका यस्य तत्तथा तस्य, तथा गुणाः-उत्तरगुणाः त एवं पञ्चमहाव्रतरूपकर्णिकापरिकरभूतत्वात् केसरा इव मेनौ पम्यं, गुणकेसराः ते विद्यन्ते यस्य तत्तथा तस्य, अन 'मतुवत्थंमि मुणिजह आलं इलं मणं तह य इति प्राकृतलक्षणात मत्वर्थे आलप्रत्ययः । तथा ये अभ्युपेतसम्यक्त्वाः प्रतिपन्नाणुव्रता अपि प्रतिदिवसं यतिभ्यः साधूनामगारिणां चोत्त-11 रोत्तरविशिष्टगुणप्रतिपत्तिहेतोः सामाचारी शृण्वन्ति ते श्रावकाः, उक्तं च-“संपत्तदंसणाई पयदियह जइजणा सुणेई य। सामायारिं परमं जो खलु तं सावगं बिति ॥१॥" श्रावकाश्च ते जनाश्च श्रावकजनाः त एव मधुकर्यः ताभिः परिवृतस्य तस्य, तथा 'जिनसूर्यतेजोबुद्धस्य' जिन एव सकलजगत्प्रकाशकतया सूर्य इव-भास्कर इव जिनसूर्यस्तस्य तेजो-विशिष्टसंवेदनप्रभवा धर्मदेशना तेन बुद्धस्य, तथा श्राम्यन्तीति श्रमणा 'नन्द्यादिभ्योऽन' इति कर्यनप्रत्ययः, श्राम्यन्ति-तपस्यन्ति, किमुक्तं भवति?-प्रव्रज्याऽऽरम्भदिवसादारभ्य सकलसावधयोगविरता गुरूपदेशादाप्राणोपरमाद्यथाशक्त्यनशनादि तपश्चरन्ति, उक्तं च-"यः समः सर्वभूतेषु, त्रसेषु स्थावरेषु च । तपश्चरति शुद्धात्मा, N|२२ श्रमणोऽसौ प्रकीर्तितः॥१॥" श्रमणानां गणः श्रमणगणः स एव सहस्रं पत्राणां यस्य तत् श्रमणगणसहस्रपत्रं तस्य (श्रीसपद्मस्य भद्रं भवतु)॥ भूयोऽपि सङ्घखैव सोमतया चन्द्ररूपकेण स्तवमभिधित्सुराह दीप अनुक्रम H ॥४४॥ १ संप्राप्तदर्शनादि: प्रतिदिवस यतिबनाद गुजोति च । सामाचारी परमां यः स तं धावक भुवते ॥१॥ amera ~91~ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||२|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: संधूप चंद्र प्रत | पम्यं. गा. ९-१० सूत्रांक ||९|| नवसंजममयलंछण अकिरियराहमुहदुद्धरिस निच्च । जय संघचंद!निम्मलसम्मत्तविसुद्धजोण्हाया !॥९॥ । तपश्च संयमश्च तपःसंयम, समाहारो द्वन्द्वः, तपःसंयममेव मृगलाञ्छनं-मृगरूपं चिहं यस्य तस्यामन्त्रणं| ६हे तपःसंयममृगलाञ्छन!, तथा न विद्यन्तेऽनभ्युपगमात् परलोकविषया क्रिया येषां ते अक्रिया-नास्तिकाः त एव जिनप्रवचनशशाङ्कासनपरायणत्वाद्राहुमुखमिवाक्रियराहुमुखं तेन दुष्प्रधृष्यः-अनभिभवनीयः तस्याम त्रणं हे अक्रियराहुमुखदुष्प्रधृष्य !, सङ्घश्चन्द्र इव सङ्घचन्द्रः तस्यामन्त्रणं हे सङ्घचन्द्र !, तथा निर्मलं-मिथ्यात्वमल४/रहितं यत्सम्यक्त्वं तदेव विशुद्धा ज्योत्स्ना यस्य स तथा, 'शेषाद्वेति का प्रत्ययः, तस्यामन्त्रणं हे निर्मलसम्यक्त्वहै| विशुद्धज्योत्लाक !, दीर्घत्वं प्रागिय प्राकृतलक्षणादवसेयम् , 'नित्यं' सर्वकालं 'जय' सकलपरदर्शनतारकेभ्योऽतिशयवान् भय, यद्यपि भगवान् सङ्घचन्द्रः सदैव जयन् वर्तते तथाऽपीत्थं स्तोतुरभिधानं कुशलमनोवाकायप्रवृत्तिकारणमित्यदुष्टम् ॥ पुनरपि सङ्घस्यैव प्रकाशकतया सूर्यरूपकेण स्तवमाह परतिस्थियगहपहनासगस्स तवतेयदित्तलेसस्स । नाणुजोयस्स जए भदं दमसंघसूरस्स ॥१०॥ परतीथिकाः-कपिलकणभक्षाक्षपादसुगतादिमतावलम्विनः त एव ग्रहाः तेषां या प्रभा-एकैकदुर्नयाभ्युपगमपरिस्फूर्तिलक्षणा तामनन्तनयसङ्कुलप्रवचनसमुत्वविशिष्टज्ञानभास्करप्रभावितानेन नाशयति-अपनयतीति |परतीर्थिकग्रहममानाशकः तस्य, तथा तपस्तेज एवं दीप्ता-उज्वला लेश्या-भाखरता यस्य स तथा तस्य 545605605 दीप अनुक्रम R P Humurary.orm ~ 92 ~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||१०|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलय- गिरीया नन्दीवृत्तिः ॥४५॥ प्रत सूत्रांक ||१०|| तपस्तेजोदीसलेश्यस्य, तथा ज्ञानमेवोद्योतो-वस्तुविषयः प्रकाशो यस्य स तथा तस्य ज्ञानोद्योतस्य, 'जगति लोके 'भद्रं' कल्याणं, भवत्विति शेषः, दमः-उपशमः तत्प्रधानः सङ्कः सूर्य इस सङ्घसूर्यः तस्य दमसबसूर्यस्य ||१५ सम्प्रति सङ्घस्यैवाक्षोभ्यतया समुद्ररूपकेण स्तवं चिकीर्षुराहभई धिइवेलापरिगयस्स सज्झायजोगमगरस्स । अक्खोहस्स भगवओ संघसमुदस्स रुंदस्स ॥११॥ (संघ एव समुद्रः) सङ्घसमुद्रः तस्य भद्रं भवत्विति क्रिया शेषः, किंविशिष्टस्य सत इत्याह-'धृतिबेलापरि मुद्रेणौपम्यं गतस्य' धृतिः-मूलोत्तरगुणविषयः प्रतिदिवसमुत्सहमान आत्मपरिणामविशेषः सैव वेला-जलवृद्धिलक्षणा तया परि- गा. गतस्य, तथा खाध्याययोग एव कम्मेविदारणक्षमशक्तिसमन्विततया मकर इव मकरो यस्मिन् स तथा तस्य, तथा २० 'अक्षोभ्यस्य परीपहोपसर्गसम्भवेऽपि निष्प्रकम्पस्य - 'भगवतः' समग्रैश्चर्यरूपयशोधर्मप्रयत्नश्रीसम्भारसमन्वितस्य | 'रुन्दस्य' विस्तीर्णस्य ॥ भूयोऽपि सङ्घस्यैव सदास्थायितया मेरुरूपकेण स्तवमाहसम्मदंसणवरवइरदढरूढगाढावगाढपेढस्स । धम्मवररयणमंडिअचामीयरमेहलागस्स ॥ १२ ॥ नियमूसियकणयसिलायलुजलजलंतचित्तकूडस्स । नंदणवणमणहरसुरभिसीलगंधुद्धमायस्स ॥१३॥ जीवदयासुंदरकंदरुद्दरियमुणिवरमइंदइन्नस्स । हेउसयधाउपगलंतरयणदित्तोसहिगुहस्स ॥१४॥ दीप अनुक्रम [१०] मा॥४५॥ Humstaram.org ~93~ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [-]/गाथा ||१५|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: संघस्स म 446 प्रत पम्यं. गा. १२-१७ सूत्रांक ||१५|| संवरवरजलपगलियउज्झरपविरायमाणहारस्स । सावगजणपउररवंतमोरनच्चंतकुहरस्स ॥१५॥ विणयनयपवरमुणिवरफुरतविजुजलंतसिहरस्स।विविहगुणकप्परुक्खगफलभरकुसुमाउलवणस्स ॥१६|| नाणवररयणदिप्पंतकंतवेरुलियविमलचूलस्स । वंदामि विणयपणओ संघमहामंदरगिरिस्स ॥ १७॥ | गाथापट्केन सम्बन्धः, सम्यक्-अविपरीतं दर्शनं–तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं तदेव प्रथमं मोक्षाङ्गतया सारत्वादरवजमिव सम्यग्दर्शनवरवणं तदेव दृढं-निष्पकम्पं रूढं-चिरप्ररूढं गाढं-निविडमवगाढं-निमन पीठ-प्रथम| भूमिका यस्य स तथा, इह मन्दरगिरिपक्षे वज्रमयं पीठं दृढादिविशेषणं सुप्रतीतं, सङ्घमन्दरगिरिपक्षे तु सम्यग्दर्शनवरवज्रमयं पीठं रहें शङ्कादिशुषिररहिततया परतीर्थिकवासनाजलेनान्तःप्रवेशाभावतश्चालयितुमशक्यम् , रूढं प्रतिसमयं विशुद्धयमानतया प्रशस्ताध्यवसायेषु चिरकालं वर्तनात्, गाढं तीव्रतत्त्व विषयरुच्यात्मकत्वाद्, अवगाढं | जीवादिषु पदार्थेपु सम्यगवबोधरूपतया प्रविष्टं, तं बन्दे, सूत्रे प्राकृतत्वात् द्वितीयार्थे षष्ठी, यदाह पाणिनिः खग्राकृतलक्षणे-द्वितीयार्थे पष्ठी', अथवा सम्बन्धविवक्षया पष्ठी, यथा माषाणामश्नीयादित्यत्र, यद्वा इत्थंभूतस्य सङ्घम|न्दरगिरेयत् माहात्म्यं तद् वन्दे इति माहात्म्यशब्दाध्याहारापेक्षया षष्ठी, तथा दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धार१ नगरह एक पउमे चंदे सूरे समुहमेरेमि । जो उवमिजद समय संघ गुणायर वंदे ॥१॥ गुणरयानलकंडम सीलसुगंधितवमंदिउदेस । वदामि विणयपणओ संघमहामंदरगिरिस्स ॥ २॥ (अधिकमिदं युग्ममन्यत्र) दीप अनुक्रम [१५] १३ SARERSAAmatural F RImurary.org ~94~ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [-]/गाथा ||१७|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ॥ ६ ॥ सूत्रांक १५ ||१७|| श्रीमलय- दायतीति धर्मः स एव बररत्वमण्डिता चामीकरमेखला यस्य स धर्मवररसमण्डितचामीकरमेखलाकः 'शेषाद्वेति || संघस्य मगिरीया #कप्रत्ययः तस्य, इह धर्मो द्विधा-मूलगुणरूप उत्तरगुणरूपश्च, तत्रोत्तरगुणरूपो रत्नानि मूलगुणरूपस्तु मेखला, न। नन्दीवृत्तिः न्दरेणी खलु मूलगुणरूपधात्मकचामीकरमेखला विशिष्टोत्तरगुणरूपवररत्नविभूषणविकला शोभते ॥ इहोच्छूितशब्दस्य " व्यवहितः प्रयोगः, ततश्चायमर्थः-नियमा एव इन्द्रियनोइन्द्रियदमरूपाः कनकशिलातलानि तेषु उच्छ्रितानि उज्वलानि ज्वलन्ति चित्तान्ये(त्राण्ये)व कूटानि यस्मिन् स तथा तस्य, इह मन्दरगिरी कूटानामुच्छ्रि-13 तत्वमुज्ज्वलत्वं भासुरत्वं च सुप्रतीतं, सङ्घमन्दरगिरिपक्षे तु चित्तरूपाणि कूटान्युच्छ्रितानि अशुभाध्यवसायपरित्यागादुजबलानि प्रतिसमयं कर्ममलविगमात् जलन्ति उत्तरोत्तरसूत्रार्थस्मरणेन भासुरत्वात् , तथा नन्दन्ति सुरासुरविद्याधरादयो यत्र तन्नन्दनं वनम्-अशोकसहकारादिपादपवृन्दं नन्दनं च तद्वनं च नन्दनयनं लतावितानग तविविधफलपुष्पप्रवालसङ्घलतया मनो हरतीति मनोहरं, 'लिहादिभ्यः' इत्यच् प्रत्ययः, नन्दनवनं च तन्मनोहरं Pच तस्य सुरभिखभावो यो गन्धस्तेन 'उडुमायः' आपूर्णः, उद्धमायशब्द आपूर्णपर्यायः, यत उक्तमभि मानचिह्नन-“पडिहत्यमुद्धमायं अहिरे(य)इयं च जाण आउण्णो" तस्य, सङ्घमन्दरगिरिपक्षे तु नन्दनं-सन्तोषः, तथा हि तत्र स्थिताः साधवो नन्दन्ति, तच्च विविधामापध्यादिलब्धिसङ्कलतया मनोहरं, तस्य सुरविः है शीलमेव गन्धः तेन व्याप्तख, अथवा मनोहरत्वं सुरभिशीलगन्धविशेषणं द्रष्टव्यम् ॥ जीवदया एव दीप अनुक्रम [१] M unmitrary.org ~ 95~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक |१७|| दीप अनुक्रम [१] ७ “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [-] / गाथा ||१७|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४४], चूलिका सूत्र [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः सुन्दराणि खपरनिर्वृतिहेतुतया कन्दराणि तपखिनामावासभूतत्वात् तथा च लोकेऽपि प्रतीतम् 'अहिंसाव्यवस्थितः तपखी'ति जीवदयासुन्दरकन्दराणि तेषु ये उत्-प्राबल्येन कर्मशत्रुजयं प्रति दर्पिता उदर्पिता मुनिवरा एव | शाक्यादिमृगपराजयात् मृगेन्द्राः तैराकीपण - व्याप्तस्तस्य, तथा मन्दरगिरेर्गुहासु निष्यन्दवन्ति चन्द्रकान्तादीनि रत्नानि भवन्ति कनकादिधातवो दीप्तार्थौषधयः, सङ्घमन्दरगिरिपक्षे तु अन्वयव्यतिरेकलक्षणा ये हेतवस्तेषां शतानि हेतुशतानि तान्येव धातवः, कुयुक्तिव्युदासेन तेषां खरूपेण भाखरत्वात्, तथा प्रगलन्ति - निष्यन्दमा - नानि क्षायोपशमिकभावस्यन्दित्वात् श्रुतरत्नानि दीप्ताः - जाज्वल्यमाना ओषधयः- आमशषध्यादयो गुहासुव्याख्यानशालारूपासु यस्य स तथा तस्य ॥ संवरः प्राणातिपातादिरूपपञ्चाश्रव प्रत्याख्यानं तदेव कर्ममलप्रक्षालनात् सांसारिकतृडपनोदकारित्वात् परिणामसुन्दरत्वाच्च वरजलमिव संवरवरजलं तस्य प्रगलितः - सातत्येन व्यूढः उज्झरः- प्रवाहः स एव प्रविराजमानो हारो यस्य स तथा श्रावकजना एव स्तुतिस्तोत्रस्वाध्यायविधानमुखरतया प्रचुरा रवन्तो मयूराः तैर्नृत्यन्तीव कुहराणि -जिनमण्डपादिरूपाणि यस्य स तथा तस्य ॥ विनयेन नता विनयनता ये प्रवरमुनिवराः त एव स्फुरन्त्यो विद्युतो विनयनतप्रवरमुनिवरस्फुरद्विद्युतः ताभिर्ज्वलन्ति भासमानानि शिखराणि यस्य स तथा तस्य इह शिखरस्थानीयाः प्रावचनिका विशिष्टा आचार्यादयो द्रष्टव्याः, विनयनतानां च प्रवरमुनिवराणां विद्युता रूपणं विनयादिरूपेण तपसा तेषां भासुरत्वात्, तथा विविधा गुणा येषां ते For Pernal Use On ~96~ संघer मन्दरेणी पम्यं. ५ १० १३ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) .............. मूलं [-/गाथा ||१७|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलय- नन्दीपतिः गिरीया प्रत सूत्रांक ॥४७॥ ||१७|| दीप अनुक्रम [१] विविधगुणाः, विशेषणान्यथानुपपत्त्या साधयो गृह्यन्ते, त एव विशिष्टकुलोत्पन्नत्वात् परमानन्दरूपसुखहेतुधर्मफल-17 दानाच कल्पवृक्षा इव विविधगुणकल्पवृक्षकाः, प्राकृतत्वात् खार्थे कप्रत्ययः, तेषां च यः फलभरो यानि च कुसुमानि तैराकुलानि बनानि यस्य स तथा तस्य, इह फलभरस्थानीयो मूलोत्तरगुणरूपो धर्मः, कुसुमानि नानाप्रकारा | ऋद्धयः, वनानि तु गच्छाः ॥ तथा-ज्ञानमेव परमनिवृतिहेतुत्वावरं रत्नं ज्ञानवररतं तदेव दीप्यमाना कान्ता विमला वैडूर्यमयी चूडा यस्य स तथा, तत्र मन्दरपक्षे वैडूर्यमयी चूडा कान्ता विमला च सुप्रतीता, संघमन्दरपक्षे त कान्ता भव्यजनमनोहारित्वाद्विमला यथावस्थितजीवादिपदार्थखरूपोपलम्भात्मकत्वात. तस्य इत्थंभूतस्य । सहमहामन्दरगिरर्यन्माहात्म्यं तद्विनयप्रणतो वन्दे ॥ तदेवं संघस्थानेकधा सवोऽभिहितः, सम्प्रत्याबलिकाः प्रतिपाद-४२० नीयाः, ताश्च तिस्रः, तद्यथा-तीर्थकरावलिका गणधरावलिका स्थविरावलिका च, तत्र प्रथमतः तीर्थकरावलिकामाह- तीर्थकराउसभं अजियं संभवमभिनंदण सुमइ सुप्पभ सुपासं । ससि पुप्फदंत सीयल सिजंसं वासुपुजं च॥१॥ वलिक थनं. गा. विमलमणंतय धम्म सन्ति कुथु अरंच मल्लिं च। मुनिसुव्वय नमि नेमि पासं तह वद्धमाणं च ॥ १९॥ गाथाद्वयं निगदसिद्धं ॥ गणधरावलिका तु या यस्य तीर्थकृतः सा तस्य प्रथमानुयोगतो द्रष्टव्या, भगवद्वर्द्ध- ॥४७॥ मानखामिन आह अथ चतुर्विंशतिः तिर्थंकराणां नामोच्चारणं. ~97~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [-]/गाथा ||२०|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२०|| 55453 दीप अनुक्रम [२०] पढमित्य इंदभूई बीए पुण होइ अग्गिभूइत्ति । तइए य वाउभूई तओ वियत्ते सुहम्मे य ॥२०॥ मंडिअ मोरियपुत्ते अकंपिए चेव अयलभाया य । मेअज्जे य पहासे गणहरा इंति वीरस्स ॥ २१॥ वलिः शा सनस्तुतिगाथाद्वयमेतदपि निगदसिद्धं ॥ एते च गणभृतः सर्वेऽपि तथाकल्पत्वाद्भगवदुपदिष्टं 'उप्पन्ने इत्यादि मातृकापद-IRT.गा. त्रयमधिगम्य सूत्रतः सकलमपि प्रवचनं दृब्धवन्तः, तच प्रवचनं सकलसत्त्वानामुपकारकं, विशेषत इदानीन्तनजना- २०२२ नामतः तदेव सम्प्रत्यभिष्टुवन्नाहनिवडपहसासणयं जयइ सया सव्वभावदेसणयं। कुसमयमयनासणयं जिणिंदवरवीरसासणयं ॥२२॥1॥ | नितेः-मोक्षस्य पन्थाः-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि, तथा चाह भगवानुमाखातिवाचकः-'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इति, निर्वृतिपथः 'ऋक्पूःपथ्यपोऽदिति समासान्तोऽत् प्रत्ययः, यद्यपि निवृतिपथशब्देन ज्ञानादित्रयमभिधीयते तथाऽपीह सम्यग्दर्शनचारित्रयोरेव परिग्रहो, ज्ञानस्योत्तरत्र विशेषेणाभिधानात् , नितिपथस्य शासनं शिष्यतेऽनेनेति शासन-प्रतिपादकं निवृतिपथशासनं, ततः कश्चेति प्राकृतलक्षणात् खार्थे कात्ययः, निवृतिपथशासनकम् , एवमन्यत्रापि यथायोगं कप्रत्ययभावना कार्या, 'सदा' सर्वकालं 'जयति' सर्वाण्यपि प्रवचनानि प्रभावातिशयेनातिक्रम्यातिशायि वर्त्तते, कथंभूतं सदित्याह-'सर्वभावदेशनकं' सर्वे च ते ४|१२ ********* A ntonioranorm वीर भगवत: एकादश गणधराणां नामोच्चारणं एवं शासनस्य स्तुतिः ~ 98~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [-]/गाथा ||२२|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२२|| 4***** श्रीमलय-14भावाश्च सर्वभावाः तेषां देशनं-प्ररूपकं सर्वभावदेशनं, ततः खार्थिकः कप्रत्ययः, सर्वभावदेशनकम् , अत गिरीया एव 'कुसमयमदनाशनकं' कुत्सितः समयाः-परतीर्थिकप्रवचनानि तेषां मदः-अवलेपस्तस्य नाशनं ततः नन्दाष्टात्तः। खार्थिककप्रत्यये कुसमयमदनाशनकं, कुसमयमदनाशनं च कुसमयानां यथोक्तसर्वभावदेशकत्वायोगात्, इत्थं-131१५ ॥४८॥ भूतं जिनेन्द्रवरवीरशासनकं जयति ॥ सम्प्रति यैरिदमविच्छेदेन स्थविरैः क्रमेणैदंयुगीनजन्तूनामुपकारार्थमानीतं तेषामावलिकामभिधित्सुराहसुहम्मं अग्गिवेसाणं, जंबूनामं च कासवं । पभवं कच्चायणं वंदे, वच्छं सिजंभवं तहा ॥ २३ ॥ सुधर्मादि स्थविरावइह स्थविरावलिका सुधर्मखामिनः प्रवृत्ता, शेषगणधराणां सन्तानप्रवृत्तेरभावात् , उक्तं च-"तित्थं च सुह लिकथनं. म्माओ निरवचा गणहरा सेसा" ततस्तमेवादी कृत्वा तामभिधत्ते-सुधर्म सुधर्मखामिनं पञ्चमगणधरं 'अग्गि- गा. २३ वेसाण'मिति अग्निवेशस्थापत्यं वृद्धं आग्निवेश्यो 'गर्गादेर्यमिति यञ् प्रत्ययः तस्याप्यपत्यमाग्निवेश्यायनः तं आग्निवेश्यायनं, वन्दे इति क्रियाभिसम्बन्धः, तथा तस्य शिष्यं जम्बूनामानं, चः समुच्चये, कश्यपस्थापत्यं काश्यपः ॥४८॥ 'विदादेवेद्ध' इत्याप्रत्ययः, तं काश्यपगोत्रं वन्दे, तस्यापि जम्बूस्खामिनः शिष्यं प्रभवनामानं कात्यायनं कतस्थापत्यं XEXSSSSOCTOR दीप अनुक्रम [२२] १ तीर्थ च सुधर्म निरपला गणधराः शेषाः । ** Baitaram.org अथ सुधर्मास्वामी आदि स्थविरावलि-वर्णनं ~99~ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) (४४) ...................... मूल [-]/गाथा ||२३|| ........... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत N सूत्रांक ||२३|| दीप अनुक्रम [२३] कात्यः 'गर्गादेर्यनिति यत् प्रत्ययः, तस्याप्यपत्यं कात्यायनस्तं कात्यायनं-कात्यायनगोत्रं वन्दे, तस्व शिष्यं शय्य-IN म्भवं वात्स्य-वत्सस्थापत्यं वात्स्यो 'गर्गादेर्यनिति यञ् प्रत्ययस्तै वन्दे तथेति समुच्चये ॥ जसभदं तुंगियं वंदे, संभूयं चेव माढरं । भद्दबाई च पाइन्नं, थूलभदं च गोयमं ॥ २४॥ | शय्यम्भवशिष्यं यशोभद्रं 'तुङ्गिक तुझिकगणं व्याघापत्यगोत्रं वन्दे, तस्य च द्वौ प्रधानशिष्यावभूतास् , तद्यथा-1 सम्भूतविजयो माढरगोत्रो भद्रबाहुश्च प्राचीनगोत्रः, तो द्वावपि नमस्कुरुते सम्भूतं चेव माढरं । भद्दवाढुंच पाइन्न मिति, तत्र सम्भूतविजयस्य विनेयः स्थूलभद्रो गौतम आसीत्, तमाह-स्थूलभद्रं, चः समुचये, गौतम गौतमस्थापत्यं गौतमः 'ऋषिवृष्ण्यन्धककुरुभ्य' इति अण् प्रत्ययः तं, वन्दे इति क्रियायोगः, स्थूलभद्रस्यापि द्वौ टू प्रधानशिष्यो बभूवतुः, तद्यथा-एलापत्यगोत्रो महागिरिवशिष्ठगोत्रः सुहस्ती । तो द्वावपि प्रणिणंसुराह एलावच्चसगोत्तं वंदामि महागिरिं सुहत्थिं च । तत्तो कोसिअगोत्तं बहुलस्स सरिव्वयं वन्दे ॥२५॥ इह यः खापत्यसन्तानस्य खव्यपदेशकारणमाद्यः प्रकाशकः पुरुषः तदपत्यसन्तानो गोत्रं, इलापतेरपत्यं एलापत्यः, 'पत्युत्तरपदयमादित्यदित्यदितेर्योऽणपवादे वा खे' इति यञ् प्रत्ययः, एलापत्येन सह गोत्रेण वर्त्तते यः स एलापत्यसगोत्रः तं वन्दे महागिरि, सुहस्तिनं च प्रागुक्तगोत्रं, तत्र सुहस्तिन आरभ्य सुस्थितसुप्रतिबुद्धादिक्रमेणापलिका विनिर्गता सा यथा दशाश्रुतस्कन्धे तथैव द्रष्टव्या, न च तयेहाधिकारः, तखामावलिकायां प्रस्तुताध्ययनकारकस्य P rasandharary.org ~ 100~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [-]/गाथा ||२५|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२५|| दीप अनुक्रम [२५] श्रीमलय-पद देववाचकस्वाभावात् , तत इह महागिर्यावलिकयाऽधिकारः, तत्र महामिरेद्वौं प्रधानशिष्यावभूताम्, तद्यथा-बहुलो खविराव बलिस्सहश्च, तौ च द्वावपि यमलभातरी कौशिकगोत्री च, तयोरपि मध्ये बलिस्सहः प्रवचनप्रधान आसीत् , ततस्त-लिका. गा. नन्दीवृत्तिः मेव निनंसुराह-'ततो' महागिरेरनन्तरं कौशिकगोत्रं बहुलस्य 'सदृशवयसं' समानवयसं, द्वयोरपि यमलभातृत्वात् , २४-२७ ॥४९॥ 'वन्दे' नमस्करोमीति । हारियगुत्तं साई च वंदिमो हारियं च सामजं । वंदे कोसियगोत्तं संडिल्लं अजजोयधरं ॥ २६ ॥ बलिस्सहस्यापि शिष्य हारीतगोत्रं 'खाति'खातिनामानं, चः समुच्चये बन्दे, तथा खातिशिष्यं 'हारीतं' हारीतगोत्रं चः समुपये स च भिन्नक्रमः श्यामार्यशब्दानन्तरं द्रष्टव्यः, श्यामार्य बन्दे, तथा श्यामार्यशिष्यं कौशिकगोत्रं 'शाण्डिल्यं' शाण्डिल्यनामानं वन्दे, किम्भूतमित्याह-'आर्यजीतधरं' आरात्-सर्वहेयधर्मेभ्योऽर्वाक् यातं आर्य 'जीत'मिति सूत्रमुच्यते, जीतं स्थितिः कल्पो मर्यादा व्यवस्थेति हि पर्यायाः, मर्यादाकारणं च सूत्रमुच्यते, तथा 'धृ धारणे' प्रियते धारयतीति धरः 'लिहादिभ्यः' इत्यच् प्रत्ययः आर्यजीतस्य धर आर्यजीतधरः तम्, अन्ये तु व्याचक्षतेशाण्डिलस्यापि शिष्य आर्यगोत्रो जीतधरनामा सूरिरासीत् तं वन्दे इति ॥ ॥४९॥ तिसमुदखायकित्तिं दीवसमुद्देसु गहियपेयालं । वंदे अजसमुई अक्खुभियसमुद्दगंभीरं ॥२७॥ शाण्डिलशिष्यमार्यसमुद्रनामानं वन्दे, कथंभूतमित्याह-'त्रिसमुद्रख्यातकीर्त' पूर्वदक्षिणापरदिग्यिभागव्यवस्थि- २६ anditaram.org ~ 101~ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [-]/गाथा ||२७|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२७|| तत्वात् पूर्वापरदक्षिणास्त्रयः समुद्रास्त्रिसमुद्रम् , उत्तरतस्तु हिमवान् वैताब्यो वा, त्रिसमुद्रे ख्याता कीर्तिर्यस्यासी त्रिसमुद्रख्यातकीर्तिस्तं, तथा 'द्वीपसमुद्रेषु' द्वीपेषु समुद्रेषु च गृहीतं पेयालं-प्रमाणं येन स गृहीतपेयालस्तम्,४ अतिशयेन द्वीपसागरप्रज्ञसिविज्ञायकमिति भावः, तथा अक्षुभितसमुद्रवद्गम्भीरम् ॥ भणगं करगं झरगं पभावगं णाणदंसणगुणाणं । वदामि अजमंगुं सुयसागरपारगं धीरं ॥२८॥ आर्यसमुद्रस्यापि शिष्यमार्यमगुंबन्दे,किंभूतमित्याह-'भणकं कालिकादिसूत्रार्थमनवरतं भणति-प्रतिपादयतीति |भणः भण एव भणकः 'कश्चेति प्राकृतलक्षणसूत्रात् खार्थे का प्रत्ययः तं, तथा 'कारकं' कालिकादिसूत्रोक्तमेवो-14 पधिप्रत्युपेक्षणादिरूपं क्रियाकलापं करोति कारयतीति वा कारकस्तं, तथा धर्मध्यानं ध्यायतीति ध्याता तं ध्या| तारं, इह यद्यपि सामान्यतः कारकमिति वचनाद् ध्यातारमिति विशेषणं गतार्थ तथापि तस्य विशेषतोऽभिधानं 8 ध्यानस्य प्रधानपरलोकाङ्गताख्यापनार्थ, तथा यत एव भणकं कारकं ध्यातारं वा अत एव प्रभावकं ज्ञानदर्शनगुणा| नाम् 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणमिति' न्यायाचरणगुणानामपि परिग्रहः, तथा धिया राजते इति धीरस्तं, तथा | श्रुतसागरपारग ।।नाणमि दंसणंमि अ तबविणए णिच्चकालमुज्जतं । अजं नंदिलखमणं सिरसा वंदे पसन्नमणं ॥२९॥ आर्यमकोरपि शिष्यमार्यनन्दिलक्षपणं प्रसन्नमनसम्-अरक्तद्विष्टान्तःकरणं शिरसा वन्दे, कथम्भूतमित्याह-'ज्ञाने दीप अनुक्रम [२७] DOREASSSS RECismational अब वे प्रक्षेपे गाथे वर्तते. ते गाथे मत्संपादित "आगमसुत्ताणि" मूलं एवं सटीकं द्वयो: अपि पुस्तके मुद्रिते | ~ 102~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-]/गाथा ||२९|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||२९|| दीप अनुक्रम श्रीमलय-18श्रुतज्ञाने 'दर्शने' सम्यक्त्वे, चशब्दाचारित्रे च, तथा तपसि-यथायोगमनशनादिरूपे विनये-ज्ञानविनयादिरूपे स्थविरावगिरीया टू नित्यकालं' सर्वकालम् 'उद्युक्तम्' अप्रमादिनं ॥ लिका. गा. नन्दीवृत्तिः है। वडउ वायगवंसो जसवंसो अजनागहत्थीणं । वागरणकरणभंगियकम्मपयडीपहाणाणं ॥३०॥ ॥५०॥ पूर्वगतं सूत्रमन्यच्च विनेयान् वाचयन्तीति वाचकाः तेषां वंशः-क्रमभाविपुरुषपर्वप्रवाहः स 'बर्द्धता' वृद्धिसुप यातु, मा कदाचिदपि तस्य वृद्धिमुपगच्छतो विच्छेदो भूयादितियावत् , बर्द्धतामित्यत्राशंसायां पञ्चमी, कथम्भूतो वाच-12 |कवंश इत्याह-'यशोवंधों' मूर्ती यशसो वंश इव-पर्वप्रवाह इव यशोवंशः, अनेनापयशःप्रधानपुरुषवंशव्यवच्छेदमाह, तथाहि-अपयशःप्रधानानामपारसंसारसरित्पतिश्रोतःपतितानां परममुनिजनोपधृतलिङ्गविडम्बकानामलं सन्तानपरिवृोति, केषां सम्बन्धी वाचकवंशः परिवर्द्धतामित्याह-आर्यनागहस्तिनामार्यनन्दिल क्षपणशिष्याणां, कथम्भूतानामित्याह-व्याकरणकरणभङ्गीकर्मप्रकृतिप्रधानानां तत्र व्याकरण-संस्कृतशब्दव्याकरणं प्राकृतशब्दव्याकरणं च प्रश्न-18 २२ व्याकरणं वा करणं-पिण्डविशुद्धादि, उक्तं च-"पिडेविसोही समिई भावण पडिमा य इंदियनिरोहो । पडिलेहण गुत्तीओ अभिग्गहा चेव करणं तु ॥१॥" भङ्गी-भङ्गबहुलं श्रुतं कर्मप्रकृतिः-प्रतीता, एतेषु प्ररूप-2॥५॥ णामधिकृत्य प्रधानानाम् ॥ पिण्डविधिक समिविभीनना प्रतिमाव इन्द्रियनिरोधः । प्रतिलेखना गुप्तयः अभिप्रदायव करणं तु ॥१॥ [३१] ~ 103~ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक ||38|| दीप अनुक्रम [३३] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [-]/गाथा ||३१|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः जयंजणधा उसमप्पहाण मुद्दियकुवलयनिहाणं । वड्डउ वायगवंसो रेवइनक्खत्तनामाणं ॥ ३१ ॥ आर्यनागहस्तिनामपि शिष्याणां रेवतीनक्षत्रनाम्नां वाचकानां वाचकवंशो वर्द्धतां कथम्भूतानामित्याह - 'जात्याअनधातुसमप्रभाणां जात्यश्चासावअनधातुश्च तेन समा-सदृशा प्रभा देहकान्तिर्येषां ते तथा तेषां मा भूदत्यन्तकालिन सम्प्रत्यय इति विशेषणान्तरमाह - 'मुद्रिकाकुवलयनिभानां' परिपाकागतरसद्राक्षया नीलोत्पलेन च समप्रभाणां, अपरे पुनराहुः कुवलयमिति मणिविशेषः तत्राप्यविरोधः ॥ - • अयलपुरा णिक्खते कालियसुयआणुओगिए धीरे । वंभदीवगसीहे वायगपयमुत्तमं पत्ते ॥ ३२ ॥ रेवती नक्षत्रनामक वाचकानां शिष्यान् श्रसद्वीपिकसिंहान्' त्रह्मद्वीपिकशाखोपलक्षितान् सिंहनामकानाचार्यान् 'अचलपुरात् निष्क्रान्तान्' अचलपुरे गृहीतदीक्षान् 'कालिकश्रुतानुयोगिकान्' कालिकश्रुतानुयोगे - व्याख्याने नियुक्ताः कालिकयुतानुयोगिकास्तान् अथवा कालिकश्रुतानुयोग एषां विद्यते इति कालिकश्रुतानुयोगिनः ततः खार्थिककप्रत्ययविधानात् कालिकश्रुतानुयोगिकाः तान्, धिया राजन्ते इति धीराः तान् तथा तत्कालापेक्षया उत्तमं - प्रधानं वाचकपदं प्राप्तान् ॥ - जेसि इमो अणुओगो पयरइ अज्जावि अड्डभरहम्मि । बहुनयरनिग्गयजसे ते वंदे खंदिलायरिए ॥ ३३ ॥ येषामयं श्रवणप्रत्यक्षत उपलभ्यमानोऽनुयोगोऽद्यापि अर्द्ध भरतवैताढ्यादर्वाक् 'प्रचरति' व्याप्रियते तान् स्कन्दि ternationa For Palata Use Only ~ 104~ १० १३ inary or Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक ||33|| दीप अनुक्रम [३५] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [-]/गाथा ||३३|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः श्रीमलयगिरीया ३१-३४ १५ ॥ ५१ ॥ लाचार्यान् सिंहवाचकसूरिशिष्यान् बहुषु नगरेषु निर्गतं प्रसृतं यशो येषां ते बहुनगरनिर्गतयशसस्तान् बन्दे । अथास्थविरावयमनुयोगोऽर्द्धभरते व्याप्रियमाणः कथं तेषां स्कन्दिलनाम्नामाचार्याणां सम्बन्धी ?, उच्यते, इह स्कन्दिलाचार्यप्र- ८लिका, गा. नन्दीवृत्तिः ॐ तिपत्तौ दुप्पमसुषमाप्रतिपन्थिन्याः तद्गतसकलशुभभावग्रसनैक समारम्भायाः दुष्पमायाः साहायकमाधातुं परमसुद - दिव द्वादशवार्षिकं दुर्भिक्षसुदपादि, तत्र चैवंरूपे महति दुर्भिक्षे भिक्षालाभस्यासम्भवादवसीदतां साधूनामपूर्वार्थग्रहणपूर्वार्थ स्मरणश्रुतपरावर्त्तनानि मूलत एवापजग्मुः, श्रुतमपि चातिशायि प्रभूतमनेशत्, अङ्गोपाङ्गादिगतमपि भावतो विप्रनष्टम्, तत्परावर्त्तनादेरभावात्, ततो द्वादशवर्षानन्तरमुत्पन्ने सुभिक्षे मथुरापुरि स्कन्दिलाचार्यप्रमुखश्रमणसङ्घनैकत्र मिलित्वा यो यत्स्मरति स तत्कथयतीत्येवं कालिकश्रुतं पूर्वगतं च किञ्चिदनुसन्धाय घटितं यतश्चैतन्मथुरापुरि सङ्घट्टितमत इयं वाचना माथुरीत्यभिधीयते सा च तत्कालयुगप्रधानानां स्कन्दिलाचार्याणामभिमता तैरेव चार्थतः शिष्यबुद्धिं प्रापितेति तदनुयोगः तेषामाचार्याणां सम्बन्धीति व्यपदिश्यते । अपरे पुनरेवमाहुः -न किमपि श्रुतं दुर्भिक्षवशात् अनेशत्, किन्तु तावदेव तत्काले श्रुतमनुवर्त्तते स्व, केवलमन्ये प्रधाना येऽनुयोगधराः ते | सर्वेऽपि दुर्भिक्षकालकवलीकृताः, एक एव स्कन्दिलसूरयो विद्यन्ते स्म ततस्तैर्दुर्भिक्षापगमे मथुरापुरि पुनरनुयोगः प्रवर्त्तित इति वाचना माथुरीति व्यपदिश्यते, अनुयोगश्च तेषामाचार्याणामिति ॥ - ततो हिमवन्तमविधिइपरक्कममणंते । सज्झायमणंतधरे हिमवंते वंदिमो सिरसा ॥ ३४ ॥ Education Internationa For Pale Only ~ 105~ २० ॥ ५१ ॥ २५ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक ||38|| दीप अनुक्रम [३६] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [-] /गाथा ||३४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः 'ततः' स्कन्दिलाचार्यानन्तरं तच्छिष्यान् हिमवतो - हिमवन्नामकान् 'हिमवन्महाविक्रमान् हिमवत इव महान् विक्रमो-विहारक्रमेण प्रभूतक्षेत्र व्याप्तिरूपो येषां ते तथा तान्, 'धिइपरकममणंते' इति अनन्तधृतिपराक्रमान्, प्राकृतशैल्याऽनन्तशब्दस्यान्यथोपन्यासः सूत्रे, अनन्तः - अपरिमितो धृतिप्रधानः पराक्रमः कर्मशत्रून् प्रति येषां ते तथाविधास्तान्, तथा - 'सज्झायमणंतधरे 'ति अत्रापि प्राकृतशैल्याऽनन्तशब्दस्य परनिपातो मकारस्त्वलाक्षणिकः, तत एवं तात्त्विको निर्देश: 'अनन्तस्वाध्यायधरान्' तत्रानन्तगमपर्यायात्मकत्वादनन्तं सूत्रं तस्य स्वाध्यायं धरन्तीति धराः अनन्तखाध्यायस्य घरा अनन्तखाध्यायघराखान् ॥ भूयोऽपि हिमवदाचार्याणां स्तुतिमाह कालियसुय अणुओगस्स धारए धारए य पुव्वाणं । हिमवंतखमासमणे वंदे णागज्जुणायरिए ॥३५॥ oranger arrai 'धारकांथ पूर्वाणाम्' उत्पादादीनां धारकान् हिमवतः क्षमाश्रमणान् वन्दे । ततः तच्छिष्यान् वन्दे नागार्जुनाचार्यान्, कथम्भूतानित्याह विपन्ने अणु वायगत्तणं पत्ते । ओहसुयसमायारे नागज्जुणवायए वंदे ॥ ३६ ॥ 'मृदुमार्दवसम्पन्नान्' मृदु-कोमलं मनोज्ञं सकलभव्यजनमनः सन्तोषहेतुत्वात् यत् मार्दवं तेन सम्पन्नान्, मार्दवं चोपलक्षणं तेन क्षान्तिमार्दवार्जवसन्तोपसम्पन्नानिति द्रष्टव्यम्, तथा 'आनुपूर्व्या' वयःपर्यायपरिपाट्या वाचकत्वं १ सरापाठाः For Park Use On ~ 106~ १० १३ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [-]/गाथा ||३६|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः प्रत सूत्रांक ||३६|| प्राप्तान , इदं च विशेषणमैदंयुगीनसूरीणां सामाचारीप्रदर्शनपरमवसेयम्, तथाहि-अपवादपदमपुष्टमयलम्ब्य नैवेद साखविराव युगीनसाधूनामपि युज्यते कालोचितानुपूर्वीमपहाय गणधरपदाध्यारोपणम् , मा प्रापत् महापुरुषगौतमादीनामाशा- लिका. गा. तनाप्रसङ्गः, तेषां चाशातना खल्पीयस्यपि प्रकृष्टदुस्तरसंसारोपनिपातकारणम् , यदुक्तम्-"बूढो गणहरसद्दो गो PI ३५-३९ यममाईहिं धीरपुरिसेहिं । जो तं ठवह अपचे जाणतो सो महापावो ॥१॥" तत एतत् परिभाव्य संसारभीरुणा कथञ्चिद् विनयादिना समावर्जितेनापि खशिष्ये गुणवति कालोचितवयःपर्यायानुपूर्वीसम्पन्ने गणधरपदाध्यारोपः कर्तव्यो, न यत्र कुत्रचिदिति स्थितम् , तथा 'ओघश्रुतसमाचारकान्' ओपथुतमुत्सर्गश्रुतमुच्यते तत्समाचरन्ति येते ओघश्रुतसमाचारकाः तान् नागार्जुनवाचकान् वन्दे ॥ ३६॥ वरकणगतवियचंपगविमउलवरकमलगब्भसरिवन्ने। भविअजणहिययदइए दयागुणविसारए धीरे ॥३७ अड्ढभरहप्पहाणे बहुविहसज्झायसुमुणियपहाणे । अणुओगियवरवसभे नाइलकुलवंसनंदिकरे ॥३८॥ जगभूयहिअपगब्भे वंदेऽहं भूयदिन्नमायरिए । भवभयवुच्छेयकरे सीसे नागज्जुणरिसीणं ॥ ३९ ॥ ॥५२॥ वर-प्रधानं सार्द्धपोडशवर्णिणकारूपं तापितं यत्कनक-यत्वणे यच वरचम्पर्क-सुवर्णचम्पकपुष्पं तथा यच वि१ व्यूबो गणधरणग्यो गीतमादिमिधारपुरुषैः । यस्तं स्थापयत्यपाने आनानः स महापापः ॥ १ ॥अपात्रे विनीतेन अनुकूलितेन. दीप अनुक्रम [३८] -56 4 For P OW aantaram.org ~ 107~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [-1/गाथा ||३९|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||३९|| 18 मुकुलं-विकसितं वर-प्रधान कमलम्-अम्भोज तस्स यो गर्भः तत्सदशवर्णान-तत्समदेहकान्तीन् , तथा 'भव्यजनहदादयदयितान्' भव्यजनहृदयवल्लभान् , तथा 'दयागुणविशारदान्' सकलजगज्जन्तुदयाविधिविधापनयोरतीय कुशलान्, तथा धिया राजन्ते-शोभन्ते इति धीरास्तान् । तथा 'अर्द्धभरतप्रधानान्' तत्कालापेक्षया सकलार्द्धभरतमध्ये युगप्रधानान् तथा 'सुविज्ञातबहुविधखाध्यायप्रधानान्' बहुविध आचारादिभेदात् खाध्यायः ततः सुविज्ञातो बहुविधः खा-2 ध्यायो यैस्ते तथोक्ताः तेषां मध्ये प्रधानान-उत्तमान् , तथा अनुयोजिताः-प्रवर्त्तिता यथोचिते वैयावृत्त्यादौ वरवृषभाःहै सुसाधवो यैस्ते तथोक्तास्तान् , तथा नागेन्द्रकुलवंशस्य नन्दिकरान् , प्रमोदकरानित्यर्थः। तथा 'जगद्भूतहितप्रगल्भान्' अनेकधासकलसत्त्वहितोपदेशदानसमर्थान् भवभयव्यवच्छेदकरान्' सदुपदेशादिना संसारभयव्यवच्छेदकरणशीलान् , 'नागार्जुनऋषीणां' नागार्जुनमहर्षिसूरीणां शिष्यान् , भूतदिननामकान् आचार्यानहं वन्दे । सूत्रे च भूतदिन्नशब्दात् मकारोऽलाक्षणिकः ॥| सुमुणियनिच्चानिच्चं सुमुणियसुत्तत्थधारयं वंदे । सम्भावुब्भावणयातत्थं लोहिचणामाणं ॥४०॥ सुष्टु-यथावस्थिततया मुणितं-ज्ञातं, 'जो जाणमुणा'विति प्राकृतलक्षणाजानातेर्मुण आदेशः, नित्यानित्यं सामास्त्विति गम्यते, येन स सुज्ञातनित्यानित्यः तं, यथा च वस्तुनो नित्यानित्यता तथा धर्मसंग्रहणिटीकायां सविस्तरमभिहितमिति नेह भूयोऽभिधीयते, मा भूद्रन्थगौरवमितिकृत्या, एतेन न्यायवेदिता तस्यावेदिता, तथा दीप अनुक्रम [४१] १३ SANELIAN Pirajastaram.org ~ 108~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [-]/गाथा ||४०|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: का गिरीया श्रीमलय नन्दीपतिः ॥५३॥ प्रत सूत्रांक ||४०|| सुष्टु-अतिशयेन ज्ञातं यत्सूत्रमर्षश्च तस्य धारकम् , अनेन सदैवाभ्यस्तसूत्रार्थता तस्यावेद्यते, तथा सन्तो-यथाव- स्थविरावस्थिता विद्यमाना भावाः-सद्भावाः तेषामुद्भावना-प्रकाशनं सद्भावोभावना तस्यां तथ्यम्-अविसंवादिनं सद्भावोद्-1 लिका. गा. | ४०-४१ भावनातथ्यम् , एतेन तस्य सम्यक्प्ररूपकत्वमुक्तम् , इत्थम्भूतं भूतदिन्नाचार्यशिष्यं लोहित्यनामानमहं वन्दे ॥ १५ अत्यमहत्थक्खाणिं सुसमणवक्खाणकहणनिवाणि। पयईइ महुरवाणि पयओ पणमामि दूसगणिं ॥४१ तत्र भाषाभिधेया अर्धा विभाषाचार्तिकाभिधेया महार्थाः तेषामर्थमहार्थानां खानिरिव अर्थमहार्थखानिः तं, एतेन भाषाविभाषावार्तिकरूपानुयोगविधावतीय पटीयस्त्वमावेदयति, तथा सुश्रमणानां-विशिष्टमूलोत्तरगुणकलितसंयताना-15 मपूर्वशास्त्रार्थव्याख्याने पृष्टार्थकथने च निवृतिः-समाधिर्यस्य स तथा तं, तथा प्रकृत्या-खभावेन मधुरवाचं-मधुर-14 गिरं न शिष्यगतमनाप्रमादादिरूपकोपहेतुसम्पत्तावपि कोपोदयवशतो निठुरभापणम्, एतेन शिष्यानुवर्तनायामतिकौशलमाह, तथाहि-गुणसम्पद्योग्यान् कथञ्चित् प्रमादिनोऽपि दृष्ट्वा धर्मानुगतैः मधुरवचोभिराचार्यस्तान् शिक्ष-12 येत् यथा तेषां मनःप्रसादमेव विशिष्टगुणप्रतिपत्त्यभिमुखमश्नुते, न कोपं प्रतिपन्नगुणभ्रंशकारणमिति, उक्तं च-18 "धम्ममइएहि अइसुन्दरोहिं कारणगुणोवणीएहिं । पल्हायन्तो य मणं सीसं चोएइ आयरिओ ॥ १॥" तत इत्थं दीप अनुक्रम [४२] FI धर्ममयैरति सुन्दरैः गुणकारणोपनीतैः । प्रह्लादयंश्च मनः शिष्य नोदयत्याचार्यः ॥१॥ SAREmirathi ahilona ~ 109~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं -1/गाथा ||४१|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: 643 प्रत सूत्रांक ||४१|| शिष्यानुवर्तनाकौशल्यख्यापनार्थमुक्तं 'प्रकृत्या मधुरवाच'मिति, तं दुष्यगणिनं 'प्रयतः' प्रयत्नपरः प्रणमामि । पुनरपि दृष्यगणिन एव स्तुतिमाहसुकुमालकोमलतले तेसिं पणमामि लक्खणपसत्थे। पाए पावयणीणं पडिच्छयसएहि पणिवइए ॥४२॥ तेषां दूष्यगणिनां 'प्रावचनिकानां' प्रवचने-प्रवचनार्थकथने नियुक्ताः प्रावचनिकास्तेषां, तत्कालापेक्षया युगप्रधानानामित्यर्थः, पादान् लक्षणैः-शङ्खचक्रादिभिः प्रशस्तान्-श्रेष्ठान् , तथा सुकुमारम्-अकर्कश कोमल-मनोजं तलं येषां तान्, पुनः किम्भूतानित्याह-प्रातीच्छिकशतैः प्रणिपतितान् , इह ये गच्छान्तरवासिनः खाचार्य पृष्ट्वा गच्छान्तरेऽनुयोगश्रवणाय समागच्छन्ति अनुयोगाचार्येण च प्रतीच्छ्यन्ते-अनुमन्यन्ते ते प्रातीच्छिका उच्यन्ते, खाचार्यानुज्ञापुर:सरमनुयोगाचार्यप्रतीच्छया चरन्तीति प्रातीच्छिका इति व्युत्पत्तेः, तेपां शतैः प्रणिपतितान्-नमस्कृतान् 'प्रणिपतामि' नमस्करोमि ॥ तदेवमावलिकाक्रमेण महापुरुषाणां स्तवमभिधाय सम्प्रति सामान्येन श्रुतधरनमस्कारमाह जे अन्ने भगवंते कालिअसुयआणुओगिए धीरे।तेपणमिऊण सिरसा नाणस्स परूवणं वोच्छं ॥४३॥81. ये अन्येऽतीता भाविनश्च भगवन्तः श्रुतरत्ननिकरपूरितत्वात् समप्रैश्वर्यादिमन्तः कालिकश्रुतानुयोगिनो धीरा-15 विशिष्टधिया राजमानाः तान् 'शिरसा' उत्तमाङ्गेन प्रणम्य 'ज्ञानस्य' आभिनिबोधिकादेः 'प्ररूपणां' प्ररूपणाका१ तवनियमसयसजमनिणयजनसंतिमदरियाणं । सील गुणगरिमाणं गणुभोगगुगप्पदाणा ॥ १ ॥ (प्र.) ESH दीप अनुक्रम [४३] Jaintain l ond areltrary.com | सामान्येन श्रुतधरमहर्षीणां नमस्कारम् ~110~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............. मूलं -/गाथा ||४३|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४३|| श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ॥५४॥ दीप अनुक्रम [४५] रकमध्ययनं वक्ष्ये, क एवमाह ?, उच्यते-दुष्यगणिशिष्यो देववाचकः ॥ इह ज्ञानस्य प्ररूपणां वक्ष्य इत्युक्तम् , सा चल स्थविरावप्ररूपणा शिष्यानधिकृत्य कर्त्तव्या, शिष्याश्च द्विधा-योग्या अयोग्याश्च, तत्र योग्यानधिकृत्य कर्तव्या नायोग्यानिति लिका. गा. ४२-४४ प्रथमतो योग्यायोग्यविभागोपदर्शनार्थ तावदिदमाहसेलघण १ कुडग २ चालणि ३ परिपूणग ४ हंस ५ महिस मेसे य ७। मसग ८ जलूग ९ विराली १० जाहग ११ गो १२ भेरि १३ आभीरी १४ ॥४४॥ अत्र पर आह-ननु ये देववाचकनामानः सूरयस्ते महापुरुषाः सदैव समभावव्यवस्थिताः कृपालवः अत एव सकलसत्त्वहितसम्पादनाय कृतोद्यमाः तत्कथमिदमध्ययनं दातुमुद्यता योग्यायोग्यविभागनिरीक्षणमारभन्ते ?, न हि परहितकरणप्रवृत्तमनसो महीयांसो महादानं दातुकामा मार्गणकगुणमपेक्ष्य दानक्रियायां प्रवर्तन्ते दयालयः, किन्तु प्रावृषेण्यजलभृत इवाविशेषेण, अत्रोच्यते, यत एव देववाचकसूरयः समभावव्यवस्थिताः सकलसत्त्वहितसम्पादनाय कृतोद्यमा महीयांसः कृपालवश्च अत एव शुभमिदमध्ययनं दातुमुद्यता योग्यायोग्यविनेयजनविभागोपदर्शनमारभन्ते, मा भूदयोग्येभ्यः प्रदाने तेषामनर्थोपनिपात इतिकृत्वा, अथ कथं तेषामेतदध्ययनप्रदाने महानर्थोपनिपातः, उच्यते, ते हि तथाखाभाव्यादेव अचिन्त्यचिन्तामणिकल्पमज्ञानतमःसमूहभास्करमनेकभवशतसहस्रपर- म्परासङ्कलितकर्मराशिविच्छेदकमपीदमध्ययनमवाप्य न विधिवदासेवन्ते, नापि मनसा बहुमन्यन्ते, लाघवमपि चास्य २५ ज्ञानप्ररुपणा संबंधे शिष्याणां योग्यायोग्य विभाग-दर्शनार्थे १४ दृष्टान्ता: ~111~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं -]/गाथा ||४४|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: *ब्द प्रत सूत्रांक ||४३|| है। यथाशक्ति सम्पादयन्ति परेषामपि च यथायोगं बुद्धी दयन्ति, ततो विधिसमासेवकाः कल्याणमिव ते महदकल्या णमासादयन्ति, उक्तं च-"आमे घडे निहत्तं जहा जलं तं घर्ड विणासेइ । इय सिद्धतरहस्सं अप्पाहारं विणासेइ5 Ju१॥" ततोऽयोग्येभ्यः प्रकृताध्ययनप्रदाने तेषामनर्थोपनिपातः, स च वस्तुतो दातृकृत एवेति कृतं प्रसङ्गेन प्रकृतं प्रस्तुमः । तत्राधिकृतगाथायां प्रथममयोग्यशिष्यविषये मुद्गशैलघनदृष्टान्त उपात्तः, स च काल्पनिकः, मुद्गशैलधनयोबक्ष्यमाणप्रकारोऽहङ्कारादिन सम्भवति, तयोरचेतनत्वात् , केवलं शिष्यमतिवितानाय तो तथा कल्पयित्वा दृष्टान्तत्वेनोपात्ती, न चैतदनुपपन्नं, आर्षेऽपि काल्पनिकदृष्टान्तस्याभ्यनुज्ञानात् , यदाह भगवान् भद्रबाहुखामी-"चरियं च कप्पियं वा आहरणं दुविहमेव पन्नत्तं । अत्थस्स साहणट्ठा इंधणमिव ओयणढाए ॥१॥" ततो नानुपपन्नः शैलघनष्टान्तः, तद्भावना चेयं-वह कचिद् गोष्पदायामरण्यान्यां मुद्गप्रमाणः क्षितिधरो मुदशैलाभिधो वर्तते, इतश्च जम्बूद्वीपप्रमाणः पुष्करावाभिधानो महामेघः, तत्र महर्षिनारदस्थानीयः कोऽपि कलहाभिनन्दी तयोः कलह- दृष्टान्तः.१ माधातुं प्रथमतो मुद्गशैलस्योपकण्ठमगमत् , गत्वा च तमेवमभाषिष्ट-भो मुद्गशैल ! कचिदवसरे महापुरुषस दसि जलेन भत्तुमशक्यो मुद्गशैल इति मया त्वगुणवर्णनायां क्रियमाणायां नामापि तव पुष्करावर्तों न सहते स्म, यथा आमे घटे निहितं यथा जलं पटं विनाशयति । इति सिद्धान्तरहस्यमत्वाधार विनाशयति ॥१॥२ चरितं च कल्पितं वा आदरणं द्विवियमेव प्रामम् । अर्थस्य साधनार्थ इन्धनमिबौदनार्थम् ॥ C दीप अनुक्रम [४५] S ~112~ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [-]/गाथा ||४४|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलय- गिरीया नन्दीवृत्तिः 4% अयोग्येमुद्गल दृष्टान्तः.१ प्रत सूत्रांक ||४४|| अलमनेनालीकप्रशंसावचनेन, ये हि शिखरसहस्राप्रभागोल्लिखितनभोमण्डलतलाः कुलाचलादयः शिखरिणः तेऽपि मदाऽऽसारोपनिपातेन भिद्यमानाः शतशो भेदमुपयान्ति, किं पुनः स वराको यो मदेकधारोपनिपातमात्रमपि न सहते ?, तदेवमुत्पासितो मुद्गशैलः समुज्वलितकोपानलोऽहङ्कारपुरस्सरं तमेवमवादीत्-भो नारदमहर्षे! किमत्र प्रति परोक्षे बहुजल्पितेन ?, शृणु मे भाषितमेक-यदि तेन दुरात्मना सप्ताहोरात्रवर्षिणाऽपि मे तिलतुषसहस्रांशमात्रमपि भिद्यते ततोऽहं मुद्गशैलनामापि नोद्वहामि, ततः स पुरुषोऽमूनि मुद्गशैलवचांसि चेतस्थवधार्य कलहोस्थानाय पुष्करावर्त्तमेघसमीपमुपागमत् , मुद्गशैलवचनानि सर्वाण्यपि सोत्कर्ष तस्य पुरतोऽन्ववादीत् , स च श्रुत्वा तानि वचनानि कोपमतीवाशिश्रियत् सच खरपरुषाणि वचनानि वक्तुं प्रावर्तिष्ट, यथा-हादुष्टःस बराकोऽनात्मज्ञो मामप्येवमविक्षिपतीति, ततः सर्वादरेण ससाहोरात्रान् यावत् निरन्तरं मुशलप्रमाणधारोपनिपातेन वर्षितुमयतिष्ट, सप्ताहोरात्रनिरन्तरघृष्ट्या च सकलमपि विश्वम्भरामण्डलं जलप्लावितमासीत् , तत एकार्णवकल्पं विश्वमालोक्य चिन्तितवान्हतः समूलघातं स बराक इति, ततः प्रतिनिवृत्तो वर्षात् , क्रमेण चापसृते जलसङ्घाते सहर्षे पुष्करावर्तों नारद| मेवमवादीत्-भो नारद ! स बराकः सम्प्रति कामवस्थामुपागतो वर्त्तते इति सहैव निरीक्ष्यतां, ततः ती सहभूय मुद्गशैलस्य पार्थमगमतां, स च मुद्गशैलः पूर्व धूलीधूसरशरीरत्वात् मन्दं मन्दमकाशिष्ट, सम्प्रति तु तस्यापि धूलेरपनयनादधिकतरमवभासमानो वर्तते, ततः स चाकचिक्यमादधानो हसन्निव नारदपुष्करावत्तौ समागच्छन्तावेव दीप अनुक्रम [४६] इस R का॥५५ AS-08 २६ Janmitaram.org ~ 113~ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................................. मूल -1/गाथा ||४४|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत योप सूत्रांक ACADSAUCAR ||४४|| |मभाषिष्ट-समागच्छत २ खागतं युष्माकम् , अहो कृतकल्याणा वयं यदतर्कितोपनीतकाञ्चनवृष्टिरिव युष्मदर्शन र मकाण्ड एव मन्मनोमोदाधायि संवृत्तमिति, तत एवमुक्त भ्रष्टप्रतिज़मात्मानमवबुध्य लजावनतकन्धराशिरोनयनः पुष्करावर्तों यत्किञ्चिदाभाष्य खस्थानं गतः, एष दृष्टान्तः, उपनयस्त्वयम्कोऽपि शिष्यो मुद्गशैलसमानधर्मा निरन्तरं यत्नतः पाठयमानोऽपि पदमप्येकं भावतो नावगाहते, ततोऽयोग्योऽयमितिकृत्वा खाचार्यैरुपेक्षितः, तं च तथोपेक्षितमवबुध्य कोऽप्यन्य आचार्योऽभिनवतरुणिमावेगवशोज्जृम्भितमहावलपराक्रमः अत एवागणितव्याख्याविधिपरिश्रमो यौवनिकमदवशतोऽपरिभावितगुणागुणविवेको वक्तुमेवं प्रवृत्तो-यथैनमहं पाठयिष्यामि, पठति च लोकानां पुरतः सुभाषितम्-"आचार्यस्खैव तजाड्यं, यच्छिष्यो नावबुध्यते । गावो गोपालकेनेव, कुतीर्थेनावतारिताः॥१॥" ततः तं सर्वादरेण पाठयितुं लग्नः, स च मुद्गशैल इव दृढप्रतिज्ञो न भावतः पदमप्येकं खचेतसि परिणमयति, ततः खिन्नशक्तिराचार्यों भ्रष्टप्रतिज्ञमात्मानं जानानो लजितो यत्किमप्युत्तरं कृत्वा तत्स्थानादपसृत्य गतः, ततः एवंविधाय नेदमध्ययनं दातव्यम् , यतो न खलु बन्ध्या गौः शिरःशृङ्गबदनपृष्ठपुच्छोदरादौ सस्नेहं स्पृष्टाऽपि सती दुग्ध-18 प्रदायिनी भवति, तथाखाभाव्याद्, एवमेपोऽपि सम्यक् पाठ्यमानोऽपि पदमप्येकं नावगाहते, ततो न तस्य तायदुपकारः, आस्तां तस्योपकाराभावः प्रत्युत आचार्ये सूत्रे चापकीर्तिरुपजायते, यथा न सम्यकौशलमाचार्यस्य व्याख्यायामिदं वाऽध्ययनं न समीचीनं, कथमयमन्यथा नावबुध्यते इति ?, अपि च-तथाविधकुशिष्यपाठने तस्या दीप अनुक्रम [४६]] १३ SARETRImatana ~114~ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [-1/गाथा ||४४|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: गिरीया प्रत सूत्रांक 484 ||४४|| श्रीमलयवयोधाभावात् उत्तरोत्तरसूत्रार्थानवगाहने सूरेः सकलावपि शास्त्रान्तरगतौ सूत्रार्थों भ्रंशमाविशतः, अन्येषामपि च | योन्ये - बापटुश्रोतॄणामुत्तरोत्तरसूत्रार्थावगाहनहानिप्रसङ्गः,उक्तं च भाष्यकारेण-"आयरिए सुत्तमि य परिवाओ सुत्तमत्थपलि-1 ष्णभूमिहनन्दीवृत्तिः मन्थो । अन्नेसिपि य हाणी पुट्ठावि न दुद्धया वंझा ॥१॥"१॥ मुद्गशैलप्रतिपक्षभूतो योग्यशिष्यविषयो दृष्टान्तः कृष्ण ष्टान्तनभूमिप्रदेशः, तत्र हि प्रभूतमपि जलं निपतितं तत्रैवान्तः परिणमति, न पुनः किञ्चिदपि ततो बहिरपगच्छति,एवं यो वादिघटहविनेयः सकलसूत्रार्थग्रहणधारणासमर्थः स कृष्णभूमिप्रदेशतुल्यः, स च योग्यः, ततस्तस्मै दातव्यमिदमध्ययनमिति, आह अष्टान्तश्च.३ |च भाष्यकृत्-"बुढेऽपि दोणमेहे न कण्हभोमाउ लोहए उदयं । गहणधरणासमत्थे इय देयमछित्तिकारंमि ॥१॥"२॥ सम्प्रति कुटदृष्टान्तभावना क्रियते-कुटा घटाः, ते द्विधा-नवीना जीर्णाश्च, तत्र नवीना नाम ये सम्प्रत्येवाऽऽपाकतः समानीता, जीर्णा द्विधा-भाविता अभाविताश्च, भाविता द्विधा-प्रशस्तद्रव्यभाविता अप्रशस्तद्रव्यभाविताश्च, तत्र ये कर्पूरागुरुचन्दनादिभिः प्रशस्तैव्यैर्भाविताः ते प्रशस्तद्रव्यभाविताः, ये पुनः पलाण्डलशुनसुरातैलादिभिर्भाविताः। ला॥५६॥ तेऽप्रशस्तद्रव्यभाविताः, प्रशस्तद्रव्यभाविता अपि द्विधा-वाम्या अवाम्याश्च, अभाविता नाम ये केनापि द्रव्येण न | शिष्ये उवासिताः, एवं शिष्या अपि प्रथमतो द्विधा-नवीना जीर्णाश्व, तत्र प्रथमतो ये बालभाव एवाद्यापि वर्तन्ते अज्ञा पनया. + २२ + दीप अनुक्रम [४६]] S V२६ १ आचार्य सूत्रे च परिवादः सूत्रार्थपलिमन्धः । अन्येषामपि च हानिः स्मृाऽपि न दुम्बा बन्ध्या ॥१॥२ पटेऽपि दोममेथेन कृष्णभूमात छत्युदकम् । मगधारणसमर्थे इति देयमच्छित्तिकरे ॥१॥ ~115~ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [-]/गाथा ||४४|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४४|| घटदृष्टा निनः सम्प्रत्येव च बोधयितुमारब्धास्ते नवीनाः, जीर्णा द्विधा-भाविता अभाविताच, तत्राभाविता ये केनापिन दर्शनेन न बासिताः, भाविता द्विधा-कुप्रावचनिकपाास्थादिभिः संविनेश्व, कुप्रावचनिकपार्थस्थादिभिरपि भाविता। द्विधा-बाम्या अवाम्याच, संविनैरपि भाविता द्विधा-चाम्या अवाम्पाश्च, तत्र ये नवीना ये जीपर्णा अभाविता ये। च कुमावचनिकादिभाविता अपि वाम्याः ये च संविप्रभाविता अवाम्याः ते सर्वेऽपि योग्याः, शेषाः अयोग्याः। अथवा अन्यथा कुटदृष्टान्तभावना-इह चत्वारः कुटाः, तद्यथा-छिद्रकुटः कण्ठहीनकुटः खण्डकुटः सम्पूर्णकुटश्च, छिद्रादितत्र यस्याधो बुध्ने छिद्रं स छिद्रकुटः, यस्य पुनरोष्ठपरिमण्डलाभावः स कण्ठहीनकुटः, यस्य पुनरेकपाधै खण्डेन | हीनः स खण्डकुटः, यः पुनः सम्पूर्णावयवः स सम्पूर्णकुटः, एवं शिष्या अपि चत्वारो वेदितव्याः, तत्र यो। न्तभावना, व्याख्यानमण्डल्यामुपविष्टः सर्वमवबुध्यते व्याख्यानादुस्थितश्च न किमपि स्परति स छिद्रकुटसमानो, यथा विशिष्योप|छिद्रकुटो यावत्तदवस्थ एव गाढवमवनितलसंलमोऽवतिष्ठते तावत् न किमपि जलं ततः स्रवति, स्तोकं वा किञ्चि-1बनयक्ष, दिति, एचमेषोऽपि यावदाचार्यः पूर्वापरानुसन्धानेन सूत्रार्थमुपदिशति तावदवबुध्यते, उत्थितचे व्याख्यानमण्डल्याः तर्हि स्वयं पूर्वापरानुसन्धानशक्तिविकलत्वात् न किमप्यनुस्मरतीति, यस्तु व्याख्यानमण्डल्यामप्युपविष्टोऽईमात्रं त्रिभागं चतुर्भागं हीनं वा सूत्रार्थमवधारयति यथाऽवधारितं च स्मरति स खण्डकुटसमानः,यस्तु किञ्चिदूनं सूत्राथेमवधारयति पश्चादपि तथैव स्मरति स कण्ठहीनकुटसमानः, यस्तु सकलमपि सूत्रार्थमाचार्योक्तं यथावदवधारयति|१३ दीप अनुक्रम [४६]] H Irelanditurary.org ~116~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [-]/गाथा ||४४|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलय- गिरीया प्रत धान्तः उ. |पनयश्च.४ सूत्रांक १५ ||४४|| पश्चादपि तथैव स्मृतिपथमवतारयति स सम्पूर्णकुटसमानः, अत्र छिद्रकुटसमान एकान्तेनायोग्या, शेषास्तु योग्याः, यथोत्तरं च प्रधानाः प्रधानतरा इति ३॥ सम्प्रति चालनीदृष्टान्तभावना-चालनी लोकप्रसिद्धा यया कणिकादि चाल्यते, यथा चालन्यामुदकं प्रक्षिप्यमाणं तत्क्षणादेवाधो गच्छति न पुनः कियन्तमपि कालमवतिष्ठते तथा यस्य सूत्रार्थः प्रदीयमानो यदैव कर्णे विशति तदैव विस्मृतिपथमुपैति स चालनीसमानः ४॥ तथा मुद्गशैलच्छिद्र कुटचालनीसमानशिष्यभेदप्रदर्शनार्थमुक्तं भाष्यकृता-"सेलेयछिड्डचालणि मिहो कहा सोउमुटियाणं तु । छिद्दाऽऽह तत्थ विट्ठो सुमरिंसु समरामि नेयाणिं ॥१॥ एगेण विसइ बीएण नीइ कपणेण चालणी आह । धन्नोऽस्थ आह सेलो जं पविसइ नीद वा तुझं ॥२॥” तत एषोऽपि चालनीसमानो न योग्यः चालनीप्रतिपक्षभूतं च वंशदलनिर्मापि|तं तापसभाजनं, ततो हि बिन्दुमात्रमपि जलं न स्रवति, उक्तं च-"तावंसखउरकढिणयं चालणिपडिवक्ख न सवइ | दवपि ।" ततः तत्समानो योग्य इति ५॥ सम्प्रति परिपूर्णकदृष्टान्तो भाव्यते-परिपूर्णको नाम घृतक्षीरगालनकं | सुगृहाभिधचटिकाकुलालयो वा, तेन धाभीयों घृतं गालयन्ति, ततो यथा स परिपूर्णकः कचवरं धारयति घृतमुज्झति तथा शिष्योऽपि यो व्याख्यावाचनादौ दोषानभिगृह्णाति गुणांस्तु मुश्चति स परिपूर्णकसमानः, स चायोग्यः, दीप अनुक्रम [४६]] तापसभाजनपरिपूदृष्टान्तो पनयौ.५-६ 1 पीलेयरिचालनीना मिथः कथा श्रुत्वोत्थिताना तु । छिद्र आह तत्रोपविष्टोऽस्मार्ष साराम नेदानीम् ॥१॥ एकेन विशति द्वितीयेन निर्गच्छति चाहनी आह । धन्योऽत्राहीलेयो यत्रविशति निर्गच्छति वा तव ॥१॥ तापसकमठकं चालनीप्रतिपक्षान सबति दयमपि। NA ॥ ५७ ॥ २५ ~117~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक ॥४४॥ दीप अनुक्रम [४६] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [-] /गाथा ||४४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४४], चूलिका सूत्र [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः आह च आवश्यकचूर्णिकृत् “वक्खणाइस दोसे हिययंमि उवेइ मुयह गुणजालं । सो सीसो उ अजोग्गो भणिओ परिपूणगसमाणो ॥ १ ॥" आह-सर्वज्ञमतेऽपि दोषाः सम्भवन्तीत्यश्रद्धेयमेतत् सत्यम्, उक्तमत्र भाष्यकृता - "संहण्णुप्पामण्णा दोसा हु न संति जिणमए केऽवि । जं अणुवत्तवकहणं अपत्तमासज्ज व हवंति ॥ १॥ ६ ॥ सम्प्रति हंस दृष्टान्तभावना, यथा हंसः क्षीरमुदकमिश्रितमप्युदकमपहाय क्षीरमापिवति तथा शिष्योऽपि यो गुरोरनुपयोगसम्भवान् दोषानवधूय गुणानेव केवलानादत्ते स हंससमानः, स चैकान्तेन योग्यः । ननु हंसः क्षीरमुदकमिश्रितमपि कथं विभक्तीकरोति १, येन क्षीरमेव केवलमापिवति न तूदकमिति, उच्यते, तजिह्वाया अम्लत्वेन क्षीरस्य कूर्चिकी - भूय पृथगभवनात् उक्तं च- "अम्बत्तणेण जीहाऍ कूचिया होइ खीरमुदयंमि । हंसो मोत्तूण जलं आवियइ पय तह सुसीसो ॥ १ ॥ मोचूण दढं दोसे गुरुणोऽणुवउत्तभासियाईपि । गिन्हइ गुणे उ जो सो जोग्गो समयत्थसारस्स ॥ २ ॥ ७॥ इदानीं महिषदृष्टान्तभावना -यथा महिषो निपातस्थानमवाप्तः सन् उदकमध्ये प्रविश्य तदुदकं | मुहुर्मुदुः शृङ्गाभ्यां ताडयन्नवगाहमानश्च सकलमपि कलुषीकरोति, ततो न स्वयं पातुं शक्नोति नापि यूथं, तद्वत् १] व्याख्यानादिषु दोषान् हृदये स्थापयति मुञ्चति गुणजालम् । स शिष्यस्तु अयोग्यो भणितः परिपूर्णकसमानः ॥ १॥ २ सर्वज्ञप्रामाण्यात् दोषा नैत्र सन्ति जनमते केऽपि । वदनुपयुक्तकथनं अपात्रमासाथ वा भवन्ति ॥ १ ॥ ३ अम्लत्वेन जिह्वायाः कूर्चिका भवति क्षीरमुदके । सो मुक्खा जलमापिवति पयः तथा सुशिष्यः ॥ १ ॥ ४ मुक्त्वा दर्द दोषान् गुरोरनुपयुक्त भाषितादोनपि गृहाति गुणान् तु यः स योग्यः समयार्थसारस्य २ ॥ Smationd For Penal Use Only ~ 118~ हंसदृष्टान्त उपनयश्च ७ ५ महिषटान्त उ । पनयश्च. ८ १३ wor Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [-]/गाथा ||४४|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॥४४|| श्रीमलय-|शिष्योऽपि यो व्याख्यानप्रबन्धावसरेऽकाण्ड एव क्षुद्रपृच्छादिभिः कलहपिकवादिभिर्वाऽऽत्मनः परेषां चानुयोगगिरीया श्रवणविघातमाधत्ते स महिषसमानः, स चैकान्तेनायोग्यः, उक्तं च-"तयमविन पियइ महिसो न य जूहं पिबति नन्दीवृत्तिः लोलियं उदयं । विग्महविकहाहि तहा अथकपुच्छाहि य कुसीसो ॥१॥"८॥ मेषोदाहरणभावना-यथा मेपो वदनस्य ॥५८॥ तनुत्वात् खयं च निभृतात्मा गोपदमात्रस्थितमपि जलमकलुषीकुर्वन् पिवति तथा शिष्योऽपि यः पदमात्रमपि विनयपुरस्सरमाचायचित्तं प्रसादयन् पृच्छति स मेषसमानः, स चैकान्तेन योग्यः ९॥ मसकदृष्टान्तभावना-यः शिष्यो मसक इव जात्यादिदोषानुद्घट्टयन् गुरोमनसि व्यथामुत्पादयति स मसकसमानः, स चायोग्यः १०॥ जलौकारष्टामन्तभावना-यथा जलौकाः शरीरमदुन्वती गघिरमाकर्षति तथा शिष्योऽपि यो गुरुमदुन्वन् श्रुतज्ञानं पिबति स जली६कासमानः, उक्तं च-"जलुगा व अदूर्मितो पियद सुसीसोऽवि सुयनाणं।" ११॥ विडालीदृष्टान्त भावना-पथा विडाली है।भाजनसंस्थं क्षीरं भूमौ विनिपात्य पिबति,तथादुष्ट स्वभावत्वाद्, एवं शिष्योऽपि यो विनयकरणादिहीनतया न साक्षादू गुरुसमीपे गत्वा शृणोति, किन्तु व्याख्यानादुत्थितेभ्यः केभ्यश्चित्, स विडालीसमानः, स चायोग्यः १२ ॥ तथा जाहका-तियेगविशेषः, तत्र रटान्तभावना-प्रथा जाहकः स्तोकं २ क्षीरं पीत्वा पार्थाणि लेढि तथा शिष्योऽपि यः पूर्व १ खयमपि न पिवति महिषो न च यूध पिचति लोडितमुदकम् । विप्रहत्विकवादिभिस्तयाकाण्डपृच्छादिमिव कृशिष्यः ॥१॥ २ जलौका इव अदुन्वन् पिबति शिष्योऽपि श्रुतज्ञानम् ॥ | मेषमसक जलौकाविडालीजाहकदृष्टा|न्ता: उपनयाथ.१३ २० दीप अनुक्रम [४६]] २५ ~119~ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक ॥४४॥ दीप अनुक्रम [४६] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [-] /गाथा ||४४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः गृहीतं सूत्रमर्थ वाऽतिपरिचितं कृत्वाऽन्यत्पृच्छति स जाहकसमानः, स च योग्यः १३ ॥ सम्प्रति गोटान्तभावना क्रियते यथा केनापि कौटुम्बिकेन कस्मिंश्चित् पर्वणि चतुर्भ्यश्वतुर्वेदपारगामिकेभ्यो विप्रेभ्यो गौर्दत्ता, ततः ते परस्परमेवं चिन्तयामासुः - यथेयमेका गौश्चतुर्णामस्माकं ततः कथं कर्त्तव्या ?, तत्रैकेनोकं परिपाट्या दुद्यतामिति, तथ समीचीनं प्रतिभातमिति सर्वैः प्रतिपन्नं, ततो यस्य प्रथमदिवसे गौरागता तेन चिन्तितं यथाऽहमद्यैव घोक्ष्यामि, कल्ये पुनरन्यो घोक्ष्यति, ततः किं निरर्थिकामस्याश्वारिं वहामि, ततो न किञ्चिदपि तस्यै तेन दत्तं, एवं शेवैरपि ततः सा श्रपाककुलनिपतितेव तृणसलिलादिविरहिता गतासुरभूत्, ततः समुत्थितः तेषां धिग्जातीयानामवर्णवादो लोके शेषगोदानादिलाभव्यवच्छेदश्थ, एवं शिष्या अपि ये चिन्तयन्ति न खलु केवलानामस्माकमाचार्यो व्याख्यानयति, किन्तु प्रातीच्छिकानामपि ततस्त एव विनयादिकं करिष्यन्ति, किमस्माकमिति ?, | प्रातीच्छिका अप्येवं चिन्तयन्ति - निजशिष्याः सर्व करिष्यन्ति, किमस्माकं कियत्कालावस्थाविनामिति ?, ततस्तेपामेवं चिन्तयतामपान्तराल एवाचार्योऽवसीदति, लोके च तेषामवर्णवादो जायते, अन्यवापि च गच्छान्तरे दुर्लभौ तेषां सूत्रार्थी, ततस्ते गोप्रतिग्राहकचतुर्द्विजातय इवायोग्याः द्रष्टव्याः, उक्तं च- “अन्नो दुजिहि कलं निरत्ययं से बहामि किं चारिं । चउचरणगविउ मया अवण्ण हाणी उ बहुजणं ॥ १॥ सीसा पडिच्छिगाणं भरोति तेऽवि १ अन्य घोषयति करने निरर्षिको अस्था महामि किं चारिम् । चतुवरणा भौता अवर्णे हा निस्तु बटु हानाम् ॥१॥ शिष्याः प्रती व्कान भर इति च ॥ For Park Use Only ~ 120~ तः १४ गोष्ट - भावना. १० १३ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [-/गाथा ||४४|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४४|| श्रीमलय- हु सीसगभरोत्ति । न करेंति सुत्तहाणी अन्नत्थवि दुलहं तेसिं ॥२॥" एप एव गोदृष्टान्तः प्रतिपक्षेऽपि योजनीयःोडा गिरीया नन्दीवृत्तिः तयथा कश्चित् कौटुम्बिको धर्मश्रद्धया चतुर्थ्यश्चतुर्वेदपारगामिभ्यो गां दत्तवान् , तेऽपि च पूर्ववत्परिपाट्या दोग्धु|मारब्धाः, तत्र यस्य प्रथमदिवसे सा गौरागता स चिन्तितवान्-पद्यहमस्याश्चारिं न दास्यामि ततः क्षुधा धातुक्षयादेपा प्राणानपहास्थति, ततो लोकेषु मे गोहत्याऽवर्णवादो भविष्यति, पुनरपि चास्मभ्यं न कोऽपि गवादिकं दास्थति, अपिच-यदि मदीयचारिचरणेन पुष्टा सती शेषैरपि ब्राह्मणैधोक्ष्यते ततो मे महाननुग्रहो भविष्यति, अहमपि |च परिपाट्या पुनरप्येनां धोक्ष्यामि, ततोऽवश्यमस्यै दातव्या चारिरिति ददौ चारिं, एवं शेषा अपि ददुः, ततः | सर्वेऽपि चिरकालं दुग्धाभ्यवहारभागिनो जाताः, लोकेऽपि समुच्छलितः साधुवादो, लभन्ते च प्रभूतमन्यदपि गवादिकं, एवं येऽपि विनेयाश्चिन्तयन्ति-यदि वयमाचार्यस्य न किमपि विनयादिकं विधातारः तत एषोऽवसीदन्नवश्यमपगतासुभविष्यति लोके च कुशिष्या एते इत्यवर्णवादो विजृम्भिष्यते, ततो गच्छान्तरेऽपि न वयमयकाशं लप्स्यामहे, अपिच-अस्माकमेष प्रव्रज्याशिक्षाप्रतारोपणादिविधानतो महानुपकारी, सम्प्रति च जगति दुर्लभं श्रुतरनमुपयच्छन् वर्त्तते, ततोऽवश्यमेतस्य विनयादिकमस्माभिः कर्तव्यम् , अन्यच-यद्यस्मदीयविनयादिसहायकवलेन ॥ ५९॥ प्रातीच्छिकानामप्याचार्यत उपकारः किमस्माभिर्न लब्धम् ?, द्विगुणतरपुण्यलाभश्चास्माकं भवेत् , प्रातीच्छिका अपि पिध्यकभर इति । न कुर्वन्ति सूत्रार्थहानिरन्यत्रापि दुर्लभी तेषाम् ॥ २ ॥ दीप अनुक्रम [४६]] भावना 4504 ~121~ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक ॥४४॥ दीप अनुक्रम [४६] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [-] /गाथा ||४४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ये चिन्तयन्ति - अनुपकृतोपकारी भगवानाचार्योऽस्माकं, को नामान्यो महान्तमेवं व्याख्याप्रया समस्मन्निमित्तं विदधाति ?, ततः किमेतेषां वयं प्रत्युपकर्त्तुं शक्ताः ?, तथापि यत् कुर्मः सोऽस्माकं महान् लाभ इति परनिरपेक्षं विनयादिकमादधते, तेषां नावसीदत्याचार्यः अव्यवच्छिन्ना सूत्रार्थप्रवृत्तिः समुच्छलति च सर्वत्र साधुवादः गच्छान्तरे च तेषां सुलभं श्रुतज्ञानं परलोके च सुगत्यादिलाभ इति १४ ॥ सम्प्रति मेरीदृष्टान्तभावना - इह शक्रादेशेन वैश्रवणयक्षनिर्मापितायां काञ्चनमयप्राकारादिपरिकरितायां पुरि द्वारवत्यां त्रिखण्डभरतार्द्धाधिपत्वमनुभवति केशवे कदाचि दशिवमुपतस्थौ । इतश्च द्वात्रिंशद्विमानशतसहस्रसङ्कुले सौधर्म्मकल्पे सुधर्माभिधसभोपविष्टः सर्वतो दिवौकः पर्युपा| स्वमानः शक्राभिधानो मघवा पुरुषगुणविचारणाधिकारे केशवमिहावस्थितमवधिना समधिगम्य सामान्यतः तत्| प्रशंसामकार्षीत्-अहो महानुभावा विष्णवो यद्दोषबहुलेऽपि वस्तुनि स्वभावतो गुणमेव गृह्णन्ति, न दोषलेशमपि, न च नीचयुद्धेन युध्यन्ते इति, इत्थं च मघवता केशवस्तुतिमभिधीयमानामसहमानः कोऽपि दिवौकाः परीक्षार्थमिहावतीर्यं येन पथा भगवदरिष्टनेमिनमस्करणाय केशवो यास्यति तस्मिन् पथि अपान्तराले कचित् प्रदेशे समु | त्रासित सकलजनम हा दुरभिगन्धसङ्कुलमतीव दीप्यमानमहा कालिमकलितं विवृतमुखमुत्पादितश्वेतदन्तपतिं गतप्राणमिव शुनो रूपं विधाय प्रातरवतस्थे, केशवोऽपि चोज्जयन्तगिरिसमवसृत भगवदरिष्टनेमिनमस्कृतये तेन पथा गन्तुं प्रववृते पुरोयायी च पदात्यादिवर्गः समस्तोऽपि तद्गन्धसमुत्रासितो वस्त्राञ्चलपिहितनासिकस्त्वरितमितस्ततो गन्तु For Park Use Only ~122~ मेरीदृष्टान्तः. १५ ५ १३ wandra.org Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [-]/गाथा ||४४|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: मेरीदृष्टान्तः, १५ प्रत सूत्रांक ||४४|| श्रीमलय मारेभे, ततः पृष्टं केशवेन-किमिति पुरोयायिनः सर्वे पिहितनासिकाः समुत्रासमादधते ?, ततः कोऽपि विदितवेद्यो गिरीया विज्ञपयामास-देव ! पुरो महापूतिगन्धिः श्वा मृतो वर्तते, तद्गन्धमसहनानः सर्वोऽपि त्रासमगमत् ,केशवो महोत्तनन्दातमतया तद्न्धादनुत्रस्यन् तेन पथा गन्तुं प्रवृत्तः, वैक्षिष्ट च तं मृतं श्वानं, परिभाषयामास च सकलमपि तस्य रूपं, ततो गुणप्रशंसामकर्तृमशक्नुवन् प्रशंसितुमारभते स्म-अहो जात्यमरकतमवभाजनविनिवेशितमुक्तामणिश्रेभिरिव शोभते अस्य वपुषि कालिमकलिते श्वेतदन्तपद्धतिरिति, तां च प्रशंसां श्रुत्वा सविस्मयं सुरसमजन्मा चिन्तयामास-अहो यथोक्तं मघवता तथैवेति । ततो दूरं गते केशये तद्रूपसुपसंहृत्य कियत्कालं स्थित्वा गृहमागते केशवे युद्धपरीक्षानिमित्तं मन्दुरागतमेकमश्वरत्नं सकललोकसमक्षमपहृतवान् , धावितश्च मार्गतः सर्वोऽप्युद्गीपणखाकुन्तादिरअरक्षकादिपदातिवर्गः, समुच्छलितश्च महान् कोलाहलो, ज्ञातश्चार्य व्यतिकरः केशवेन, प्रधाषिताश्च सकोपं दिशोदिशं सर्वेऽपि कुमाराः, मुश्चन्ति च यथाशक्ति प्रहारान् , परं सुरो दिव्यशक्त्या तान् सर्वानपि लीलया विजित्य मन्दं मन्दं गन्तुं प्रवृत्तः, ततः प्रासः केशवः, पृष्टश्च तेनावापहारी-भोः किं मदीयमश्वरलमपहरसि ?, तेनोक्त-शकोम्यपहतु, यदि पुनरस्ति ते काऽपि शक्तिस्तहि मां युद्धे विनिर्जित्य परिगृहाण, ततः केशवः तत्पौरुषरजितमनस्कः सहर्पमेवमवादीत्-भो महापुरुष! येन युद्धेन ब्रूषे तेन युक्षेऽहं, ततः सर्वाष्यपि युद्धानि केशवो नाममाहं वक्तुं प्रवृत्तः, प्रतिषेधति च सर्वाग्यपि सुरसमजन्मा, ततो भूयः केशवो वदति-कथय केन युद्धेन युक्से ऽहमिति ?, ततः दीप अनुक्रम [४६] GRASSAGE २५ ~123~ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [-]/गाथा ||४४|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: शिष्यपण प्रत सूत्रांक ||४४|| दीप अनुक्रम [४६]] दास प्राह-पुतयुद्धेन, ततः कर्णों पिधाय शल्पितहृदय इव हाशब्दव्याहारपुरस्सरं तं प्रत्येवमयादीत-गच्छ गच्छा-1 श्वरत्नमपि गृहीत्या, नाहं नीचयुद्धेन युओ इति, तत एतत् श्रुत्वा हवशोज्जृम्भितपुलकमालोशपोभितं वपुरादधानः | धायां मेसविस्मयं सुरसमजन्मा सचेतसि चिन्तयामास-अहो महोत्तमता केशवानाम् , अत एव शतसहस्रसङ्गधनमदमरकिरीट- |रीदृष्टाताकोटीसहर्पमसृणीकृतपादपीठानां मघवतामप्यते प्रशंसार्हाः, तत एवं चिन्तयित्वा सानन्दमवेक्षमाणो वक्तुं प्रवृत्तो न्त.१४ |भोः केशव! नाहमश्चापहारी, किन्तु त्वगुणपरीक्षानिमित्तमेवं कृतवान् , ततः सकलमपि शक्रप्रशंसादिकं पूर्ववृत्तान्तमचकथत् , ततः खगुणप्रशंसाश्रवणलजितोऽवनतमनाकन्धरः कुड्मलितकरसम्पुटो जनाईनः तमुदन्तपर्यन्ते मुत्कलयामास खस्थाने, सुरोऽपि च सकलविश्वासाधारणकेशवगुणदर्शनतो दृष्टमनास्तं प्रत्येवमवादीत्-महापुरुष ! देवदर्शनममोघं है मनुजजन्मनामिति प्रबादो जगति प्रसिद्धो मा विफलतामापदिति बद किञ्चिदभीष्टं येन करोमीति, ततः केशयोज-IN चीद्-वर्तते सम्प्रति द्वारवत्यामशिवं ततस्तत् प्रतिविधानमातिष्ठ येन भूयोऽपि न भवति, ततो गोशीर्षचन्दनमयीमशियोपशमिनी देवो भेरीमदात्, कल्पं चास्याः कथयामास-यथा षण्मासषण्मासपर्यन्ते निजाऽऽस्थानमण्डपे वाथैषा-141 भेरी, शब्दश्चास्याः सर्वतो द्वादशयोजनव्यापी जलभृतमेघध्वनिरिव गम्भीरो विजृम्भिप्यते, यश्च शब्दं श्रोष्यति तस्य प्राक्तनो व्याधिनियमतोऽपयास्यति, भावी च भूयः षण्मासादाक् न भविष्यति, ततः एवमुक्त्वा देवः खस्थानमगमत् । वासुदेवोऽपि तां भेरी सदैव भेरीताडननियुक्ताय समर्पितवान् , शिक्षां चास्मै ददौ यथा-पण्मासपण्मासपर्यन्ते MULmational ~124~ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [-]/गाथा ||४४|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलय- गिरीया प्रत नन्दीचिः सूत्रांक ||४४|| दीप अनुक्रम [४६]] GOSORRORS ममास्थानमण्डप याद्येषा त्वया भेरी, यत्नतश्चावनीया, ततः सकलखलोकसामन्तादिवलसमन्विता निजप्रासादमा-8 यासीत् , मुत्कलितश्च प्रतीहारेण सर्वोऽपि लोकः, ततो द्वितीयदिवसे मुकुटोपशोभितानेकपार्थिवसहस्रपर्युपास्यमानो क्षायां भे रीरयानिजास्थानमण्डपे विशिष्टसिंहासनोपविष्टः शक्र इव देवैः परिवृतो विराजमानस्तां भेरीमताडयत्, भेरीशब्दश्रवण- |न्त.१४ समनन्तरमेव च दिनपतिकरनिकरताडितमन्धकारमिव द्वारवतीपुरि सकलमपि रोगजालं विध्वंसमुपागमत् , ततः १५ प्रमुदितः सर्वोऽपि पौरलोकः, आशास्ते च सदेवाधिपतित्वेन जनाईनं, तत एवं व्याधिविकले गच्छति काले कोऽपि दूरदेशान्तरवर्ती धनाढ्यो महारोगाभिभूतो मेरीशब्दमाहात्म्यमाकर्ण्य द्वारवतीमगमत् , स दैवविनियोगा रीताडनदिवसातिक्रमे प्राप्तः, ततोऽचिन्तयत्-कथमिदानीमहं भविष्यामि?, यतो भूयो भेरीताडनं पण्मासातिक्रमे, पडूनिश्च मासे(अन्धा २०००) रेप प्रवर्द्धमानो व्याधिरसूनपि नियमात् कवलयिष्यति, ततः किं करोमीति?, ततः इत्थं कतिपयदिनानि चिन्ताशोकसागरनिमनः कथमपि शेमुषीपोतमासाद्योन्मङ्कलनो-यथा यदि तस्याः शब्दतोऽपि रोगोऽपयाति ततः तदेकदेशस्य घर्षित्वा पाने सुतरामपयास्यति, प्रभूतं च मे खं, ततः प्रलोभयामि धनेन ढाक्किकं, येन तच्छकलमेकं मे समर्पयति, ततः प्रलोभितो धनेन ढाकिको, नीचसत्वा हि दुष्टदारा इब निरन्तरं X ॥ १॥ धनादिभिः सन्मान्यमाना अपि व्यभिचरन्ति निजपतेः, ततस्तेन तच्छकलमेकं तस्मै व्यतिरिष्ट, तत्स्थाने च तस्या१ गुद्धिः, २ उन्मन्ननगर्नु. ~125~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-1/गाथा ||४४|| .............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४४|| | मन्यच्छकलं योजितम्, एवमन्यान्यदेशान्तरायातरोगिजनेभ्यो धनलुब्धतया खण्डखण्डप्रदाने सकलापि भेरीस शिष्यपुरीकन्थेव खण्डसङ्घातात्मिका कृता, ततोऽपगतो दिव्यप्रभावः, ततस्तदयस्थमेवाशिवं प्रावर्त्तिष्ट, समुत्थितश्च रावोऽशिव-181 रीदृष्टाप्रादुर्भावविषयः पौरजनानां, विज्ञप्तश्च महत्तरैर्जनाईनो-देव ! भूयोऽपि विजृम्भते वासु कृष्णशर्वर्यामन्धकारमिव | सन्तः , १४ पुरि द्वारवत्यां महदशिवं, ततः प्रातरास्थानमण्डपे सिंहासने समुपविश्याकारितो भेरीताइननियुक्तः पुमान् , दत्- | श्चादेशोऽस्मै भेरीताडने, ततस्ताडिता तेन भेरी, साऽपगतदिव्यप्रभावा न भाङ्कारशब्देनास्थानमण्डपमात्रमपि [पूरयति, ततो विस्मितो जनाईनो-यथा किमेषा नास्थानमण्डपमपि भाङ्कारशब्देन पूरयितुं शक्तवती?, ततः स्वयं | निभालयामास तां भेरी, दृष्टा च सा महादरिद्रकन्थेव लघुलघुतरशकलसहस्रसङ्घातात्मिका, ततधुकोप तस्मै जनाहेनो-रे दुष्टाधम ! किमिदमकार्षीः?, ततः स प्राणभयात् सकलमपि यथावस्थितमचीकथत् , ततो महानर्थकारित्वात् स तत्कालमेव निरोपितो विनाशाय, ततो भूयोऽपि जनाईनो जनानुकम्पया पौषधशालामुपगम्याटमभक्तविधानतस्तं देवमाराधयामास, ततः प्रत्यक्षीवभूव देवः, कथितवांश्च जनार्दनः प्रयोजनं, ततो भूयोऽपि दत्तवान् अशिवोपशमनी भेरी, तां च आसत्वेन सुनिश्चिताय कृष्णः समर्पयामास । एष दृष्टान्तः, अयमोंपनयः-यथा भेरी तथा प्रवचनावगतौ सूत्रार्थों, यथा भेरीशब्दश्रवणतो रोगापगमः तथा सिद्धान्तस्य प्रभावश्रवणतो जन्तूनां कर्मविनाशः, ततो यः सूत्रार्थावपान्तराले विस्मृत्य विस्मृत्यान्यतः सूत्रमर्थ वा सं दीप अनुक्रम [४६]] FarPranaamsamundom ~ 126~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [-1/गाथा ||४४|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: गिरीया प्रत सूत्रांक ||४४|| दीप अनुक्रम [४६]] श्रीमलय- योज्य कन्यासमानौ करोति स भेरीताडननियुक्तप्रथमपुरुषसमानः, स चैकान्तेनायोग्यः, यस्त्वाचार्यप्रणीती। शिष्यपरीसूत्रार्थों यथावदवधारयति स भेरीताडननियुक्तपाश्चात्यपुरुष इव कल्याणसम्पदे योग्यः १४॥ सम्प्रत्याभीरीनन्दीवृत्तिः क्षायामादृष्टान्तभावना-कश्चिदाभीरो निजभार्यया सह विक्रयाय घृतं गच्या गृहीत्वा पत्तनमवतीर्णः, चतुष्पथे समागत्य भीरीदृष्टा॥ ६२ वणिगापणेषु पणायितुं प्रवृत्तो, घटितश्च पणाय संटङ्कः, ततः समारब्धे घृतमापे गठ्या अधस्तादवस्थिता आभीरी, घृतं भी वारकेण समर्प्यमाणं प्रतीच्छतीति, ततः कथमप्यर्पणे ग्रहणे वाऽनुपयोगतोऽपान्तराले वारकापरपर्यायो लघुघुद्रिातघटो भूमौ निपत्य खण्डशो भग्नः, ततो घृतहानिदूनमनाः पतिरुलपितुं खरपरुषवाक्यानि प्रावर्त्तत, यथा हा पापीहै यसि ! दुःशीले कामविडम्बितमानसा तरुणतरुणिमाभिरमणीयं पुरुषान्तरमवलोकसे न सम्यग् घृतघटमभिगृह्णासि-श ततः सा खरपरुषवाक्यश्रवणतः समुद्भतकोपावेशवशोच्छ लितकम्पकम्पितपीनपयोधरा स्फुरदधरबिम्बोष्ठी दूरोल्पा, [टितभूरेखाधनुरवष्टम्भतो नाराचश्रेणिमिव कृष्णकटाक्षसन्त तिमविरतं प्रतिक्षिपन्ती प्रत्युवाच-हा ग्रामेयकाधम !||२२ घृतघटमप्यवगणय्य विदग्धमत्तकामिनीनां मुखारविन्दान्यवलोकसे, न चैतावताऽवतिष्ठसे, ततः खरपरुषवाक्यामप्यधिक्षिपसि, ततः स एवं प्रत्युक्तोऽतीव ज्वलित कोपानलोऽपि यत् किञ्चिदसम्बद्ध भाषितुं लमः, साऽप्येवं, ततः समभूत्तयोः केशाकेशि, ततो विसंस्थुलपादादिन्यासतः सकलमपि प्रायो गत्रीघृतं भूमी पतितं, तब किञ्चिच्छोषमुपगतमवशेष चावलीदं श्वभिः, गत्रीघृतमपि शेपीभूतमपटतं पश्यतोहरैः, सार्थिका अपि खं खं घृतं विक्रीय २६ ~127~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [-]/गाथा ||४४|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: HOME प्रत सूत्रांक ||४४|| 40-4 खग्रामगमनं प्रपन्नाः, ततः प्रभूतदिवसभागातिक्रमेणापसृते युद्धे खास्थ्ये च लब्धे यत् किञ्चित्प्रथमतो विक्रयामासतुघृतं । तद्रव्यमादाय तयोः खग्रामं गच्छतोरपान्तरालेऽस्तं गते सहस्रभानी सर्वतः प्रसरमभिगृह्णति तमोविताने परास्कन्दिनः समागत्य वासांसि द्रव्यं बलीवी चापहृतवन्तः, तत एवं ती महतो दुःखस्य भाजनमजायेताम् । एष दृष्टान्तोऽयम-IMI दृष्टान्तोर्थोपनयः-यो विनेयोऽन्यथा प्ररूपयन् अधीयानो वा कथमपि खरपरुषवाक्यैराचार्येण शिक्षितोऽधिक्षेपपुरस्सरं प्रति- पनयः वदति-यथा त्वयैवेत्थमहं शिक्षितः, किमिदानीं निहुषे ? इत्यादि, स न केवलमात्मानं संसारे पातयति, किन्वा-18 चार्यमपि खरपरुषप्रत्युच्चारणादिना तीव्रतीव्रतरकोपानलज्वालनात् , भवन्ति च कुविनेया मृदोरपि गुरोः खरपरुषप्रत्युचारणादिना कोपप्रकोपकाः, यत उक्तमुत्तराध्ययनेषु-"अणासवा थूलक्या कुसीला, मिपि चंडं परति सीसा" इति ॥ अपि च-गुणगुरवो गुरवः, ततस्ते यदि कथमपि दुष्टशिष्यशिक्षापनेन कोपमुपागमत् तथापि तेषां भगवदाज्ञाविलोपतो गुाशातना ततश्चोपचिताशुभगुरुकर्मा नियमतो दीर्घतरसंसारभागी, किञ्च-एवं स वर्तमानो मतिमानपि श्रुतरत्वाबहिर्भवति, अन्यत्रापि तस्य दुर्लभश्रुतत्वात् , को हि नाम सचेतनो दीर्घतरजीविताभिलाषी सर्पमुखे खहस्तेन पयोबिन्दून् प्रक्षिपतीति, स चैकान्तेनायोग्यः १५ । प्रतिपक्षभावनायामपीदमेव कथानकं परिभावनीयं, केवलमिह घृतघटे भने सति द्वावपि तौ दम्पतीत्वरितं २ कपरे यथाशक्तिघृतं गृहीतवन्ती, स्तोकमेव विननाश, मनायाः स्वयसः कुशीला मृदुमपि चण्डं प्रकुर्वन्ति शिष्याः। २ अनादरे इत्यध्याहार्थम् । दीप अनुक्रम [४६] & ~128~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [-]/गाथा ||४४|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: आमीरी प्रत दृष्टान्त सूत्रांक ||४४|| श्रीमलय-त निन्दति चात्मानमाभीरो यथा-ही न मया घृतघटस्ते सम्यक् समर्पितः, आभीर्यपि वदति-समर्पितस्त्वया सम्यक्, प्रतिपक्षगिरीया नन्दीवृत्तिः परं न स मया सम्यक् गृहीतः,ततः एवं तयोर्न कोपावेशदुःखं नापि घृतहानिर्नापि सकाल एवान्यसार्षिकैः सह खग्रा ममभिसमर्पतामपान्तराले तस्करावस्कन्दः, ततस्तौ सुखभाजनं जाती, एवमिहापि कथञ्चिदनुपयोगादिनाऽन्यथा॥६३॥ रूपव्याख्याने कृते सति पश्चादनुस्मृतयथावस्थितव्याख्यानेन सरिणा शिष्यं पूर्वमुक्तं व्याख्यानं चिन्तयन्तं प्रत्येवं वक्त-18 ज्ञिकानि व्यम्-यत्स ! मैवं व्याख्यः, मया तदानीमनुपयुक्तेन व्याख्यातं, तत एवं व्याख्याहि, तत एवमुक्के सति यो विनेयः के पर्षदो कुलीनो विनीतात्मा स एवं प्रतिवदति-यथा भगवन्तः! किमन्यथा परूपयन्ति ?, केवलमहं मतिदौर्बल्यादन्यथाऽव गा.४५-६ गतवानिति, स चैकान्तेन योग्यः १६ । एवंविधाश्च विनेयाः प्रहादितगुरुमनसः श्रुतापर्णवपारगामिनो जायन्ते, १५ चारित्रसम्पदश्च भागिनः, तदेवमेकैकं शिष्यमधिकृत्य योग्यायोग्यत्वविभागोपदर्शनं कृतम् , सम्प्रति सामान्यतः पर्षदो योग्यायोग्यरूपतया निरूपयतिसा समासओ तिविहा पन्नत्ता, तंजहा-जाणिआ अजाणिआ दुव्विअड्डा, जाणिआ जहा-खीरमिव जहा हंसा जे घुटूंति इह गुरुगुणसमिद्धा। दोसे अविवजति तं जाणसु जाणिअं परिसं ॥४५॥ अजाणिआ जहा-जा होइ पगइमहुरा मियछावयसीहकुक्कुडयभूआ । रयणमिव असंठविआ ॥ ६३ |अजाणिआ सा भवे परिसा ॥ ४६॥ दीप अनुक्रम [४६]] CSCSC SaintairatKAL For P OW Julturary.com | पर्षद: योग्यायोग्यता निरूपणं ~129~ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [-]/गाथा ||४६|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||४६|| 'सा' पर्षत 'समासतः' संक्षेपेण 'त्रिविधा' त्रिप्रकारा प्रज्ञप्ता, तीर्थकरगणधरैरिति गम्यते, पर्षदिति कथं लभ्यते| ६ इति चेत् ?, उच्यते, इह प्रागुक्तं-प्रारम्भणीयः प्रवचनानुयोग इति, अनुयोगश्च शिष्यमधिकृत्य प्रवर्त्तते, निरालम्ब-18 नस्य तस्याभावात् , ततः सामर्थ्यात् सेत्युक्ते पर्षदिति लभ्यते, 'तद्यथे'त्युदाहरणोपदर्शनार्थ, 'जाणिय'त्ति 'ज्ञा अब-18 बोधने' जानातीति ज्ञा, 'इगुपान्त्यग्रीकृगृजः' इति कप्रत्ययः, 'इति धातो लोप' इत्याकारलोपः, ततो 'अजाद्यत' इति स्त्रियामाप् , जैव शिका, खार्थिकः कः प्रत्ययः, 'खज्ञाजभस्वाधातुत्ययकादि'त्यापः स्थाने इकारादेशः, कप्रत्ययाच परतः स्त्रियामाप् , तत्सिद्धं ज़िकेति, ज्ञिका नाम परिज्ञानवती, किमुक्तं भवति ?-कुपथप्रवृत्तपाषण्डमतेनादिग्धान्तःकरणा गुणदोपविशेषपरिज्ञानकुशला सतामपि दोषाणामपरिग्राहिका केवलगुणग्रहणयत्नवतीति, उक्तं च-1 “गुणदोसविसेसण्णू अणभिग्गहिया य कुस्सुइमएसुं। एसा जाणगपरिसा गुणतत्तिला अगुणवजा ॥१॥" तत्र 'गुणतत्तिल्ले ति गुणेषु यत्नवती गुणग्रहणपरायणा इत्यर्थः, 'अगुणवजित्ति अगुणान्-दोषान् वर्जयति, सतोऽपि न गृहातीत्यगुणवर्जा । तथा 'अज्ञिका' अज्ञिका जिकाविलक्षणा, सम्यकपरिज्ञानरहिता, किमुक्तं भवति ?-या ताम्रचूडकण्ठीरवकुरणपोतवत्प्रकृत्या मुग्धखभावा असंस्थापितजात्यरत्नमिवान्तर्विशिष्टगुणसमृद्धा सुखप्रज्ञापनीया पषत् सा अज्ञिका, उक्तं च-"पगईमुद्ध अयाणिय मिगच्छावगसीहकुकुडगभूया । रयणमिव असंठविया सुहसंणप्पा १ गुणदोषविशेषज्ञा अनभिगृहीता च कुभुतिमतैः। एषा शिकापर्षद् गुगतत्परा अनुमय जर्जा ॥ १ ॥२ प्रकृतिमुग्धा अशिका मृगसिंहकुर्कुटशावकभूता । रत्नमिवासकास्थिता सुखसंज्ञप्या गुणसमृद्धा ॥१॥ दीप अनुक्रम [४९-५०]] Mana ~130~ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [-]/गाथा ||४६|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पपेत्. प्रत सूत्रांक ||४६|| ॥६४॥ दीप अनुक्रम [४९-५०]] श्रीमलय-14 |गुणसमिद्धा ॥१॥" इह 'मिगसावगसीहकुकुडगभूयति सावगशब्दोऽये सम्बध्यते, ततो मृगसिंहकुकूटशावभूता दुर्विदग्धइत्यर्थः 'असंठविय'त्ति असंस्थापिता, असंस्कृता इत्यर्थः, 'सुखसंज्ञाप्या'सुखेन प्रज्ञापनीया । तथानन्दीवृत्तिः दुब्विअड्डा जहा-न य कत्थइ निम्माओ न य पुच्छइ परिभवस्स दोसेणं । वत्थिव्व वायपुषणो फुइ गा.४७ गामिल्लयविअड्डो॥१७॥ 8) 'दुर्यिदग्धा' मिथ्याऽहङ्कारविडम्बिता, किमुक्तं भवति?-या तत्तद्गुणज्ञपार्थोपगमनेन कतिपयपदान्युपजीन्य 8 पाण्डित्याभिमानिनी किञ्चिन्मात्रमर्थपदं सारं पल्लवमात्रं वा श्रुत्वा तत ऊर्ध्व निजपाण्डित्यख्यापनायामभिमानतो|ऽवज्ञया पश्यति अर्द्धकथ्यमानं चात्मनो बहुज्ञतासूचनाय या त्वरितं पठति सा पर्षत् दुर्विदग्धेत्युच्यते, उक्तं च"किश्चिम्मत्तग्गाही पल्लवगाहीय तुरियगाही य।दुवियडिया उ एसा भणिया तिविहा भवे परिसा ॥१॥" अमूषां च तिसृणां पर्षदां मध्ये आये द्वे पर्षदावनुयोगयोग्ये, तृतीया त्ययोग्या, यदाह चूर्णिणकृत्-एत्थं जाणिया अजाणिया य अरिहा, दुधिअहा अणरिहा" इति, तत आधे एव । अधिकृत्यानुयोगःप्रारम्भणीयो,न तु दुर्विदग्धां,मा भूदाचायेस्स निष्फलः परिश्रमः, तस्याश्च दुरन्तसंसारोपनिपातः, सा हि तथाखाभाब्यात् यत्किमप्यर्थपदं शृणोति १ पर्षजयनिरूपणगाथा न व्याख्याताः । २ किश्चिन्मात्राहिणी पायमात्रप्राहिणी च सरितग्राहिणी च । दुर्विदग्धिका एषेत्र भणिता त्रिविधा भवेत्पर्षद ॥१॥ ३ अत्र शिका अक्षिका व अहो, दुर्विदग्धा अनहीं । ~ 131~ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [१]/गाथा ||४७|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 25-2997 ||४७|| तदप्यवज्ञया, 'श्रुत्वा च सारपदमन्यत्र सर्वजनातिशा यिनिजपाण्डित्या भिमानतो महतो महीयसोऽवमन्यते, तदव.४ जया च दुरन्तसंसाराभिष्वङ्ग इति स्थितम् ॥ तदेवमभीष्टदेतास्तवादिसम्पादितसकलसौहित्सो भगवान् दूष्यगणिपादोपसेवी पूर्वान्तर्गतसूत्रार्थधारको देववाचको योग्यविनेयपरीक्षां कृत्वा सम्प्रत्यधिकृताध्ययनविषयस्य ज्ञानस्य प्ररूपणां विदधाति नाणं पंचविहं पन्नत्तं,तंजहा-आभिणियोहिअनाणंसुअनाणं ओहिनाणं मणपजवनाणंकेवलनाणं। (सू०१)। द ज्ञातिर्ज्ञानं, भावे अनदप्रत्ययः अथया ज्ञायते-वस्तु परिच्छिद्यते अनेनेति ज्ञानं, करणे अनद, शेषास्तु व्युत्पत्तियो मन्दमतीनां सम्मोहहेतुत्वात् नोपदिश्यन्ते, 'पञ्चेति सङ्ख्यावाचकं विधानं विधा 'उपसर्गादात' इत्यङ् प्रत्यया, पञ्च विधाः-प्रकारा यस्य तत्पञ्चविध-पञ्चप्रकारं 'प्रजप्त'प्ररूपितं तीर्थकरगणधरैरिति सामदिवसीयते, अन्यस्य वयंप्ररूपकत्वेन प्ररूपणाऽसम्भात् , उक्तं च-"अत्थं भासद अरहा सुत्तं गंथति गणहरा निउणं। सास णस्स हियट्ठाए तओ सुत्तं पवत्तइ ॥१॥" एतेन खमनीषिकाच्युदासमाह, अथवा प्रज्ञा-बुद्धिः तया आप्तं-प्राप्त तीर्थकरगणधरैरिति गम्यते, प्रज्ञातं, किमुक्तं भवति ?-'सर्व वाक्यं सावधारणं भवतीति' न्यायात् अवश्यमिदं वाक्यमवधारणीयं, ततोऽयमर्थः-ज्ञानं तीर्घकरैरपि सकलकालावलम्बिसमस्तवस्तुस्तोमसाक्षात्कारिकेवलप्रज्ञया पञ्च अर्थ भाषतेऽईन सूत्र मन्थन्ति गणधरा निपुणम् । शासनस्य हिताधीय ततः सूत्र प्रवर्तते ॥१॥ दीप अनुक्रम [५१-५२] -582 E manand | ज्ञानस्य पञ्चविध-भेदानाम् कथनं ~ 132~ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................... मूलं [१]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: ar ज्ञानपश्चकोद्देशः प्रत सूत्राक [१] दीप अनुक्रम श्रीमलय- विधमेव प्राप्त, गणधरैरपि तीर्थकृद्भिरुपदिश्यमानं निजप्रज्ञया पञ्चविधमेव प्रासं, न तु वक्ष्यमाणनीत्या द्विभेदमेवेति. गिरीया अथवा प्राज्ञान-तीर्थकरादाप्तं प्राज्ञाप्तं गणधरैरिति गम्यते, अथवा प्राज्ञैः-गणधरैरासं प्राज्ञास, तीर्थकरादित्यनुमी-1 नन्दीवृत्तिः यते, 'तद्यथेत्युदाहरणोपदर्शनार्थः, आमिनिबोधिकज्ञानं श्रुतज्ञानं अवधिज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं केवलज्ञानं, तत्रार्था॥६५॥भिमुखो नियतः-प्रतिनियतखरूपो वोधो-बोधविशेषोऽभिनिबोधः अभिनिबोध एवाभिनिबोधिक, अभिनिवो धशब्दस्य विनयादिपाठाभ्युपगमाद् 'विनयादिभ्य इत्यनेन खार्थे इकण्प्रत्ययः. 'अतिवर्त्तन्ते खार्थे प्रत्ययकाः प्रकृतिलिङ्गवचनानी ति वचनात् अत्र नपुंसकता, यथा विनय एव वैनयिकमित्यत्र, अथवा अभिनिबुध्यते अनेनास्मादस्मिन् वेति अभिनिवोधः-सदावरणकर्मक्षयोपशमः, तेन निवृत्तमाभिनिवोधिकं, आभिनिवोधिकं च तद् ज्ञानं च आभिनिबोधिकज्ञान-इन्द्रियमनोनिमित्तो योग्यदेशायस्थितवस्तुविषयः स्फुटप्रतिभासो बोधविशेष इत्यर्थः १ तथा श्रवणं श्रुतंवाच्यवाचकभावपुरस्सरीकारेण शब्दसंस्पृष्टार्थग्रहणहेतुरुपलब्धिविशेषः,एवमाकारं वस्तु जलधारणाद्यर्थक्रियासमर्थ घटशब्दवाच्यमित्यादिरूपतया प्रधानीकृतत्रिकालसाधारणसमानपरिणामः शब्दार्थपर्यालोचनानुसारी इन्द्रियमनोनिमितोऽवगमविशेष इत्यर्थः श्रुतं च तद् ज्ञानं च श्रुतज्ञानं २,तथा अवशन्दोऽधःशब्दार्थः,अव-अधोऽधो विस्तृतं वस्तु धीयते-परिच्छिद्यतेऽनेनेत्सवधिः,अथवा अवधिमर्यादा रूपिष्वेव द्रव्येषुपरिच्छेदकतया प्रवृत्तिरूपा तदुपलक्षितं ज्ञानमध्यवधिः यद्वा अवधानम्-आत्मनोऽर्थसाक्षात्करणव्यापारोऽवधिः, अवधिश्चासौ ज्ञानं चावधिज्ञानं ३, तथा परि:-सर्वतो भावे [१३] ~ 133~ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................... मूलं [१]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: BAR ज्ञानपश्चकस्वरूपम्. प्रत सूत्रांक [१] अवनं अवः 'तुदादिभ्यो न का वित्यधिकारे 'अकती चे'त्यनेनौणादिकोऽकारप्रत्ययः, अवनं गमनं वेदनमिति पर्यायाः. कापरि अवः पर्यवः,मनसि मनसो वा पर्यवः मनःपर्यवः-सर्वतो मनोद्रव्यपरिच्छेद इत्यर्थः,अथवा मनःपर्यय इति पाठः, तत्र पर्ययणं पर्ययः, भावेऽल प्रत्ययः, मनसि मनसो वा पर्ययो मनःपर्ययः, सर्वतस्तत्परिच्छेद इत्यर्थः, स चासौ ज्ञानं च मनःपर्ययज्ञानं, अथवा मनःपर्यायज्ञानमिति पाठः, ततः मनांसि-मनोद्रव्याणि पर्येति-सर्वात्मना परिच्छिनत्ति मनःपर्याय, 'कर्मणोऽणि'ति अणप्रत्ययः, मनःपर्यायं च तज्ज्ञानं च मनःपर्यायज्ञानं, यद्वा मनसः पर्यायाः मनःपर्यायाः, पर्याया भेदा धर्मा बाद्यवस्त्वालोचनप्रकारा इत्यर्थः, तेषु तेषां वा सम्बन्धि ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं ४, तथा केवलम्एकमसहाय मत्यादिज्ञाननिरपेक्षत्वात् केवलज्ञानप्रादुर्भावे मत्यादीनामसम्भवात् ,ननु कथम सम्भवो यावता मतिज्ञानादीनि खखावरणक्षयोपशमेऽपि प्रादुषष्यन्ति, ततो निर्मूलखखावरणविलये तानि सुतरां भविष्यन्ति, चारित्रपरिणामवत्, उक्तं च-"आवरणदेसविगमे जाइवि जायंति मइसुयाईणि । आवरणसबविगमे कह ताइ न होंति जीवस्स ? ॥१॥" उच्यते, इह यथा जात्यस्य मरकतादिमणेमलोपदिग्धस्य यावन्नाद्यापि समूलमलापगमस्तावद्यथा यथा देशतो मलविIM लयः तथा तथा देशतोऽभिव्यक्तिरुपजायते, सा च कचित्कदाचित् कश्चित् भवतीत्यनेकप्रकारा, तथाऽऽत्मनोऽपि सकलकालकलापावलम्बिनिखिलपदार्थपरिच्छेदकरणकपारमार्थिकखरूपस्याप्यावरणमलपटलतिरोहितस्वरूपस्य यावत् भावरणदेशपिगमे यान्यपि जागन्ते मतिश्रुतादीनि । सर्वावरणविगमे कथं तानि न भवन्ति जीवसा ॥१॥ AC दीप अनुक्रम [१३] ~ 134~ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [93] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१]/ गाथा ||४७...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र [१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ज्ञानपश्च १५ श्रीमलयनाद्यापि निखिलकर्ममलापगमः तावद्यथा यथा देशतः कर्ममलोच्छेदः तथा तथा देशतः तस्य विज्ञसिरुज्जृम्भते, सा गिरीया च कचित्कदाचित्कथञ्चिदित्यनेकप्रकारा, उक्तं च- "मलविद्धमणेर्व्यक्तिर्यथाऽनेकप्रकारतः । कर्म्मविद्धात्मविज्ञ कसिद्धिः नन्दीवृत्तिः - सिस्तथाऽनेकप्रकारतः ॥ १ ॥" सा चानेकप्रकारता मतिश्रुतादिभेदेनावसेया, ततो यथा मरकता दिमणेरशेषमला॥ ६६ ॥ ५ पगमसम्भवे समस्तास्पष्टदेशव्यक्तिव्यवच्छेदेन परिस्फुटरूपैकाऽभिव्यक्तिरुपजायते तद्वदात्मनोऽपि ज्ञानदशन चरि* त्रप्रभावतो निःशेषावरणप्रहाणादशेषज्ञानव्यवच्छेदेने करूपा अतिस्फुटा सर्ववस्तुपर्यायसाक्षात्कारिणी विज्ञप्तिरुलसति, तथा चोक्तम्- "यथा जात्यस्य रत्नस्य, निःशेषमलहानितः । स्फुटैकरूपाऽभिव्यक्तिर्विज्ञसिस्तद्वदात्मनः ॥ १ ॥” ततो मत्यादिनिरपेक्षं केवलज्ञानं, अथवा शुद्धं केवलं, तदावरणमलकलङ्कस्य निःशेषतोऽपगमात् सकलं वा केवलं, प्रथमत एवाशेपतदावरणापगमतः सम्पूर्णोत्पत्तेः, असाधारणं वा केवलमनन्यसदृशत्वात्, अनन्तं वा केवलं ज्ञेयानन्तत्वात्, केवलं च तज्ज्ञानं च केवलज्ञानं ५॥ ननु सकलमपीदं ज्ञानं ज्ञत्येकखभावं ततो ज्ञत्येकस्वभावत्वाविशेषे किंकृत एष आभिनिबोधकादिभेदो ?, ज्ञेयभेदकृत इति चेत्, तथाहि वार्त्तमानिकं वस्त्वाभिनिवोधिकज्ञानस्य ज्ञेयं, त्रिकालसाधारणः समानपरिणामो ध्वनिर्गोचरः श्रुतज्ञानस्य, रूपिद्रव्याण्यवधिज्ञानस्य, मनोद्रव्याणि मनःपर्यायज्ञानस्य, समस्तपर्यायान्वितं सर्वं वस्तु केवलज्ञानस्य तदेतदसमीचीनम्, एवं सति केवलज्ञानस्य भेदवादुल्यप्रसक्तेः, तथाहि - ज्ञेयभेदात् ज्ञानस्य भेदः, यानि च ज्ञेयानि प्रत्येकमाभिनिवोधिकादिज्ञानानामियन्ते तानि २५ Eucation International For Para Use Only ~135~ ॥ ६६ ॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................... मूलं [१]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] सर्वाण्यपि केवलज्ञानेऽपि विद्यन्ते, अन्यथा केवलज्ञानेन तेषामग्रहणप्रसङ्गाद् , अविषयत्वात् , तथा च सति के-15 पलिनोऽप्यसर्वज्ञत्वप्रसङ्गः, आभिनिबोधिकादिज्ञानचतुष्टयविषयजातस्य तेनाग्रहणात् , न चैतदिष्टमिति, अधोच्यत- भेदपञ्चप्रतिपत्तिप्रकारभेदत आभिनिवोधिकादिभेदः, तथाहि-न यादृशी प्रतिपत्तिराभिनिबोधिकज्ञानस्य तादृशी श्रुत-14 | कसिद्धि ज्ञानस्य किन्वन्यादृशी, एवमवध्यादिज्ञानानामपि प्रतिपत्तव्यम् , ततो भवत्येव प्रतिपत्तिभेदतो ज्ञानभेदः, तदप्ययुक्तम् , | एवं सत्येकस्मिन्नपि ज्ञानेऽनेकभेदप्रसक्तेः, तथाहि-तत्तद्देशकालपुरुषखरूपभेटेन विविच्यमानमेकैकं ज्ञानं प्रतिपत्तिप्रकारानन्त्यं प्रतिपद्यते, तन्नैपोऽपि पक्षः श्रेयान् , स्यादेतद्-अस्त्यावारकं कर्म, तचानेकप्रकारं, ततः तद्भेदात् तदावार्य ज्ञानमप्यनेकतां प्रतिपद्यते, ज्ञानावारकं च कर्म पञ्चधा, प्रज्ञापनादौ तथाऽभिधानात् , ततो ज्ञानमपि पञ्चधा प्ररूप्यते, तदेतदतीव युक्त्यसतं, यत आवार्यापेक्षमावारकमत आवार्यभेदादेव तद्भेदः, आवाय च ज्ञप्तिरूपापेक्षया सकलमप्येकरूपं, ततः कथमावारकस्य पञ्चरूपता ?, येन तद्भेदात् ज्ञान स्यापि पञ्चविधो भेद उद्गीर्येत, अथ स्वभावत एवाभिनिबोधिकादिको ज्ञानस्य भेदो, न च खभावः पर्यनुयोगमश्नुते, न खलु किं दहनो दहति नाकाशमिति कोऽपि पर्यनुयोगमाचरति, अहो महती महीयसो भवतः शेमुपी, ननु यदि स्वभावत एवाभिनिवोधादिको ज्ञानस्य |भेदस्तहि भगवतः सर्वज्ञत्वहानिप्रसङ्गः, तथाहि-ज्ञानमात्मनो धर्मः, तस्य चाभिनिवोधादिको भेदः स्वभावत एव व्यवस्थितः, क्षीणावरणस्यापि तद्भावप्रसङ्गः, सति च तद्भावेऽस्मादृशस्येव भगवतोऽप्यसर्वज्ञत्वमापद्यते, केवलज्ञान- १३ दीप अनुक्रम [१३] १० ~ 136~ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [१]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: - गिरीया 5453 प्रत सूत्रांक [१] श्रीमलय- भावतः समस्तवस्तुपरिच्छेदान्नासर्वज्ञत्वमिति चेत्, ननु यदा केवलोपयोगसम्भवः तदा तस्य भवतु भगवतः सर्वज्ञत्वं, मानस्य यदा वाभिनिवोधिकादिज्ञानोपयोगसम्भवः तदा देशतः परिच्छेदसम्भवादस्मादशस्येव तस्यापि बलादेवासर्वज्ञत्वमा- मेदपञ्चनन्दीवृत्तिः पद्यते, न च वाच्यं-तस्य तदुपयोग एव न भविष्यति, आत्मखभावत्वेन तस्यापि क्रमेणोपयोगस्य निवारयितुमश॥ ६७॥ शक्यत्वात् , केवलज्ञानानन्तरं केवलदर्शनोपयोगवत् , ततः केवलज्ञानोपयोगकाले सर्वज्ञत्वं शेषज्ञानोपयोगकाले चासर्व-12 ज्ञत्वमापद्यते, तब विरुद्धमतोऽनिष्टमिति, आह च-"नत्तेगसहावत्ते आभिणिबोहाइ किंकओ भेदो। नेयविसेसा-3 ओ चे न सव्वविसयं जो चरिमं ॥ १॥ अह पडिवत्तिविसेसा नेगेमि अणेगभेयभावाओ । आवरणविभेओवि हु सभावमेयं विणा न भवे ॥२॥ तम्मि य सह सबेसि खीणावरणस्स पावई भावो । तद्धम्मत्ताउ चिय जुत्तिविरोहा स चाणिट्ठो ॥६॥ अरहावि असवन्नू आमिणिबोहाइभावओ नियमा। केवलभावाओ चे सवण्णू नणु विरुद्धमिणं ॥४॥" तस्मादिदमेव युक्तियुक्तं पश्यामो-यदुतावग्रहज्ञानादारभ्य यावदुत्कर्षप्राप्तं परमावधिज्ञानं तावत् सकलमप्येकं, तचासकलसंज्ञितम्, अशेषवस्तुविषयत्वाभावात् , अपरं च केवलिनः, तच्च सकलसं ।। ६७॥ सत्येकखभावते भाभिनियोधादिः स्तिो भेदः । शेयविशेषाचेत् न सर्व विषयं यतश्वरमम् ॥१॥ अथ प्रतिपत्तिविशेषात् न एकस्मिन् अनेकभेदनावात् । आवरणविभेदोऽपि च खभावभेदं विना न भवेत् ॥ १॥ तस्मिक्ष सति सर्वेषां क्षीणावरणस्य प्राप्नोति भावः । तद्धर्मलादेव युक्तिविरोधात् स चानिष्टः ॥३॥ सामनपि असबैश आभिनियोधादिभावती नियमात् । केपतभावात् चेत् सर्वज्ञो मनु विरुद्ध मिदम् ॥ ४ ॥ दीप अनुक्रम कपOCE 2 5* [१३] * ** Santaratana ~ 137~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] ज्ञितमिति द्वावेव भेदी, उक्तं च-'तम्हा अवग्गहाओ आरम्भ इहेगमेव नाणन्ति । जुत्तं छउमत्थस्सासगलं इयरं च कवेलिणो ॥१॥' अत्र प्रतिविधीयते, तत्र यत्तावदुक्तं-सकलमपीदं ज्ञानं, ज्ञत्येकखभावत्वाविशेषे किंकृत एष आभिनिवोधादिको भेद इति ? तत्र ज्ञप्त्येकखभावता किं सामान्यतो भवताऽभ्युपगम्यते विशेषतो वा ?, तत्र न [1] तावदाद्यः पक्षः क्षितिमाधत्ते, सिद्धसाध्यतया तस्य वाधकत्वायोगात्, बोधखरूपसामान्यापेक्षया हि सकलमपि. जानमस्माभिरेकमभ्युपगम्यत एव, ततः का नो हानिरिति । अथ द्वितीयपक्षः, तदयुक्तम् , असिद्धत्वात् , न हि नाम | दिविशेषतो विज्ञानमेकमेवोपलभ्यते,प्रतिप्राणि खसंवेदनप्रत्यक्षेणोत्कर्षापकर्षदर्शनात् , अथ यद्युत्कर्षापकर्षमात्रभेददर्शनात् || ज्ञानभेदः तर्हि ताबुत्कर्षापकर्षों प्रतिप्राणि देशकालाद्यपेक्षया शतसहस्रशो भिद्येते, ततः कथं पञ्चरूपता?, नैष दोषः परिस्थूरनिमित्तभेदतः पञ्चधात्वस्थ प्रतिपादनात्, तथाहि-सकलघातिक्षयो निमित्तं केवलज्ञानस्य मनःपर्यायज्ञानस्य त्वामोषध्यादिलब्ध्युपेतस्य प्रमादलेशेनाप्यकलङ्कितख विशिष्टो विशिष्टाध्यवसायानुगतोऽप्रमादः 'तं संजयस्स सबष्पहै मायरहियस्स विविहरिद्धिमतो' इति वचनप्रामाण्याद्, अवधिज्ञानस्य पुनः तथाविधानिन्द्रियरूपिद्रव्यसाक्षादवगमनि-1 |बन्धनः क्षयोपशमविशेषः,मतिश्रुतज्ञानयोस्तु लक्षणभेदादिकं, तचाओवश्यते, उक्तं च-"नत्तेगसहावर्त्त ओहेण विसेसओ १ तस्मादवप्रहादारभ्य इहैकमेस ज्ञानमिति । युक्त उद्मस्वस्यासकलमितरच केवलिनः ॥ १ ॥ ३ तत् संयतस्य सर्वप्रमादरहितस्य विविधिमतः ॥ ३ शत्येकणभावलमोघेन विशेषतः पुनरसिद्धम् । एकान्ततस्वभावनात् कथं हानिवती॥1॥ यद् अविचलितखाभावे तरखे एकान्ततस्वभावतम् । न च तत् तथोपलभ्यते उस्कोपका विशेषात् ॥ २॥ दीप अनुक्रम [१३] REALERKond ~ 138~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................... मूलं [१]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: जानव मेदपञ्च प्रत कसिद्धि सत्रांक [१] श्रीमलय- पुण असिद्धं । एगंततस्सहावत्तणओ कह हाणिवुड्डीओ॥१॥ अविचलियसहावे तत्ते एगंततस्सहावतं । न यतं तहो- गिरीया | वलद्धा उक्करिसावगरिसविसेसा ॥२॥ तम्हा परिथूराओ निमित्तभेयाओं समयसिद्धाओ। उपवतिसंगओच्चिय आभिनन्दीवृत्तिः15 [णिवोहाइओ भेओ॥३॥ घाइक्खओ निमित्तं केवलनाणस्स बनिओ समए । मणपजवनाणस्स उ तहाविहो ॥६८॥ अप्पमाउत्ति ॥ ४ ॥ ओहीनाणस्स तहा अणिदिएसुंपि जो खओवसमो । मइसुयनाणाणं पुण लक्खणभेयादिओ भेओ॥५॥" यदप्युक्तम्-'ज्ञेयभेदकृतमित्यादि' तदप्यनभ्युपगमतिरस्कृतत्वारापास्तप्रसरं, न हि वयं ज्ञेयभेदमाप्रतो ज्ञानस्य भेदमिच्छामः, एकेनाप्यवग्रहादिना बहुबहुविधवस्तुग्रहणोपलम्भात् , यदपि च प्रत्यपादि-'प्रतिपत्तिप्रकारभेदकृत' इत्यादि तदपि न नो वाधामाधातुमलं, यतस्ते प्रतिपत्तिप्रकारा देशकालादिभेदेनानन्त्यमपि प्रतिपद्य- माना न परिस्थूरनिमित्तभेदेन व्यवस्थापितानाभिनिवोधिकादीन् जातिभेदानतिकामन्ति, ततः कथमेकस्मिन् अनेकभेदभावप्रसङ्कः ?, उक्तं च-'ने य पडिवत्तिविसेसा एगमि य णेगमेयभावेऽपि । जं ते तहाविसिढे न जाइभेए विलंघेइ ॥१॥ यदप्यवादीद्-'आवार्यापेक्षं बावरक'मित्यादि तदपि न नो मनोबाधायै, यतः परिस्थूरनिमित्त २० दीप अनुक्रम [५३] COME १ तस्मात् परिस्थूरात् निमित्तभेदात् समयसिद्धात् । उपपत्तिसंगतादेव आमिनिबोधादिको भेदः ॥ ३ ॥ घातिक्षयो निमितं केवलज्ञानस्य वर्णितः समये । मनः- पर्यवसानस तु तथाविधोऽप्रमाद इते ॥ ४ ॥ अवविज्ञानस्य तथा अनिन्दियधपि या योपशमः । मतिथुनजानयोः पुनलक्षणभेदादि को भेदः ॥ ५॥ २ न चला प्रतिपत्तिविशेषादेकविधानेकभावेऽपि । मले तथा विशिष्टा न जातिभेदान् विल इन्ते ॥1॥ REaran For Pro ~139~ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................... मूलं [१]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञानस भेदपत्रकसिद्धि प्रत सूत्रांक % 45%E5%95645 [१] दीप मधिकत्य व्यवस्थापितो ज्ञानस भेदः, ततस्तदपेक्षमावारकमपि तथा भिद्यमानं न युष्मारशदुर्जनवचनीयतामास्कन्दति । एवमुत्तेजितो भूयः सावष्टम्भं परःप्रश्नयति-ननु परिस्थूरनिमित्तभेदव्यवस्थापिता अप्यमी आभिनियोधिकायादा जानस्थात्मभूता उतानात्मभूताः किश्चातः१, उभयथापि दोषः, तथाहि-यद्यात्मभूतास्ततः क्षीणावरणेऽपि तद्भावप्रसङ्गः, तथा चासर्वज्ञत्वं प्रागुक्तनीत्या तस्यापद्यते, अथानात्मभूतास्तर्हि न ते पारमार्थिकाः, कथमावार्यापेक्षो। वास्तव आषारकभेदः, तदपि न मनोरम, सम्यक् वस्तुतत्त्वापरिज्ञानाद्, इह हि सकलघनपटलपिनिर्मुक्तशारददिनमणिरिव समन्ततः समस्तवस्तुस्तोमप्रकाशनकखभावो जीवः, तस्य च तथाभूतः स्वभावः केवलज्ञानमिति व्यपदिश्यते, स च यद्यपि सर्वघातिना केवलज्ञानावरणेनात्रियते तथापि तस्यानन्ततमो भागो नित्योद्घाटित एव "अक्खरस्स अणंतो भागो निचुग्घाडिओ, जइ पुण सोऽवि आवरिज्जा तेणं जीवो अजीवत्तणं पाविजा" इत्यादि वक्ष्यमाणप्रवचनप्रामाण्यात् , ततस्तस्य केवलज्ञानावरणावृतस्य घनपटलाच्छादितस्येव सूर्यस्य यो मन्दः प्रकाशः सोऽपान्तरालावस्थितमतिज्ञानाद्यावरणक्षयोपशमभेदसम्पादितं नानात्वं भजते, यथा घनपटलावृतसूर्यमन्दप्रकाशोऽपान्तरालावस्थितकटकुड्याद्यावरणविवरप्रदेशभेदतः, स च नानात्वं क्षयोपशमानुरूपं तथा तथा प्रतिपद्यमानः स्वस्खक्षयोपशमानुसारेणाभिधानभेदमश्नुते, यथा मतिज्ञानावरणक्षयोपशमजनितः स मन्दप्रकाशो मतिज्ञानं, श्रुतज्ञानावरणक्षयो१ अक्षरस्थानन्ततमो भागो नित्योपाटितः, यदि पुनः सोऽप्यानियेत तेन जीयोऽज्जीवस्वं प्राप्नुयात् ॥ 45 RECORDS अनुक्रम [१३] SARERalliamentTATASHREE काHaramrary.om ~140~ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................... मूलं [१]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: Awakमत्यादा प्रत श्रीमलयगिरीया नन्दीवृचिः ॥६९॥ सूत्रांक [१] पशमजनितः श्रुतज्ञानमित्यादि, ततः आत्मस्वभावभूता ज्ञानस्याभिनिबोधिकादयो भेदाः, ते च प्रवचनोपदर्शितपरिस्थूरनिमित्तभेदतः पञ्चसङ्ख्याः ,ततस्तदपेक्षमावारकमपि पञ्चधोपवर्ण्यमानं न विरुध्यते, न चैवमात्मस्वभावभूतत्वे क्षीणाव-A नामात्मरणस्यापि तद्भावप्रसङ्गो, यत एते मतिज्ञानावरणादिक्षयोपशमरूपोपाधिसम्पादितसत्ताकाः, यथा सूर्यस्य धनपटलावृतस्य। मन्दप्रकाशभेदाः कटकुड्याद्यावरणविवरभेदोपाधिसम्पादिताः, ततः कथं ते तथारूपक्षयोपशमाभावे भवितुमर्हन्ति !, नखलु सकलघनपटलकटकुड्याचावरणापगमे सूर्यस्य ते तथारूपा मन्दप्रकाशभेदा भवन्ति, उक्तं च-“कविवरागयकिरणा मेहंतरियस्स जह दिणेसस्स । ते कडमेहावगमे न होति जह तह इमाइंपि ॥१॥" ततो यथा जन्मादयो भाषा जीवस्यात्मभूता अपि कम्मोपाधिसम्पादितसत्ताकत्वात् तदभावे न भवन्ति, तद्वदाभिनिबोधिकादयोऽपि भेदा ज्ञानस्यात्मभूता अपि मतिज्ञानावरणादिकर्मक्षयोपशमसापेक्षत्वात् तदभावे केवलिनो न भवन्ति, ततो नास-18 वज्ञत्वदोषभावः, उक्तं च-"जमिह छउमत्थधम्मा जम्माईया न होति सिद्धाणं । इय केवलीणमाभिणिबोहाभामि को दोसो ॥१॥” इति । पर आह-अपना बयमुक्तयुक्कितो ज्ञानस्य पश्चभेदत्वं, परममीपां भेदानामित्थमुपन्यासे किञ्चिदस्ति प्रयोजनमुत यथाकथञ्चिदेष प्रवृत्तः ?, अस्तीति बूमः, किं तदिति चेद्, उच्यते, इह मतिश्रुते ताव-| दीप अनुक्रम [१३] १ करवि वरागताः किरणा मेधान्तरितस्य यथा विनेशस्य । ते कठमेधापगमेन भवन्ति यथा तथेमान्यपि ॥१॥२ यदि कापमाणो अन्मादिका न भवन्ति सिद्धानाम् । इति केलिनामाभिनिशेषिकामा को दोषः ॥1॥ ~141~ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................... मूल [१]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] देकत्र वक्तव्ये, परस्परमनयोः खामिकालकारणविषयपरोक्षत्वसाधात्, तथाहि-य एव मतिज्ञानस्य खामी स एवर मत्यादिश्रुतज्ञानस्यापि 'जत्थं मइनाणं तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुयनाणं तत्थ मइनाणमित्यादिवक्ष्यमाणवचनप्रामाण्यात् ततःक्रमस्थाखामिसाधर्म्य, तथा यावानेव मतिज्ञानस्य स्थितिकालस्तावानेव श्रुतज्ञानस्यापि, तत्र प्रवाहापेक्षया अतीताना- । पना. गतवर्तमानरूपः सर्व एव कालः, अप्रतिपतितकजीवापेक्षया तु पट्पष्टिसागरोपमाणि समधिकानि, उक्तं च"दो वारे विजयाइसु गयस्स तिनशुए अहव ताई। अइरेग नरभवियं नाणाजीवाण सबद्धा ॥१॥” इति काल- ५ साधर्म्य, यथेन्द्रियनिमित्तं मतिज्ञानं तथा श्रुतज्ञानमपीति कारणसाधर्म्यम् तथा यथा मतिज्ञानमादेशतः सर्वद्रव्यादिविषयमेवं श्रुतज्ञानमपीति विषयसाधर्म्यम् , यथा च मतिज्ञानं परोक्षं तथा श्रुतज्ञानमपि परोक्षं, परोक्षता चानयोरग्रे खयमेव सूत्रकृता वक्ष्यते इति परोक्षत्वसाधर्म्यम् , तत इत्थं खाम्यादिसाधादेव मतिश्रुते नियमादेकत्र वक्तव्ये, ते चायध्यादिज्ञानेभ्यः प्रागेव, तद्भाव एवावध्यादिज्ञानसद्भावात् , उक्तं च-"जं सामिकालकारणविसयपरोक्खत्तणेहिं तुल्लाई। तभावे सेसाणि य तेणाईए मइसुयाई॥१॥" ननु भवतामेकत्र मतिश्रुते प्रागेव चावध्यादिभ्यः, परमेतयोरेव मतिश्रुतयोर्मध्ये पूर्व मतिः पश्चात् श्रुतमित्येतत्कथम् ?, उच्यते, मतिपूर्वकत्वात् श्रुतज्ञानस्य, दीप अनुक्रम [५३] GI १ यत्र मतिज्ञानं तत्र श्रुतज्ञानं वन श्रुतज्ञानं तत्र मतिज्ञानं । २ द्वौ वारी विजयादिपु गतस्य बीन् अच्युतेऽथवा तानि । अति रिस नरभ विकं नानाजीवानां सा बा॥१॥ यत् साभि कालकारणविषयपरोक्षस्वैः तुल्ये। तनावे शेषाणि च तेनादी मतियुते ॥१॥ VI१३ ~142~ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................... मूलं [१]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक १५ [१] श्रीमलय- तथाहि-सर्वत्रापि पूर्वमवग्रहादिरूपं मतिज्ञानमुदयते पश्चाच्छूतं, तथा चोक्तं चूर्णावपि-"तेसुवि य मइपुब्वयं ४मत्यादिगिरीया सुयंतिकिचा पुवं मइणाणं कयं, तस्स पिट्ठओ सुयं" ति । नन्वते मतिश्रुते सम्यक्त्वोत्पादकाले युगपदुत्पत्तिमासा- क्रमस्थानन्दीपतिः दयतः, अन्यथा मतिज्ञानभावेऽपि श्रुताज्ञानभावप्रसङ्गः, स चानिष्टः, तथा मिथ्यात्वप्रतिपत्तौ युगपदेव चाज्ञा- पना. ॥७ ॥ ४ नरूपतया परिणमतः, ततः कथं मतिपूर्व श्रुतमुद्गीर्यते ?, उक्तं च-"णाणांणऽपणाणाणि य समकालाई जओ| मइसुयाई । तो न सुयं मइपुवं मइनाणे वा सुयअन्नाणं ॥१॥" नैष दोषो, यतः सम्यक्त्वोत्पत्तिकाले समकालं मतिश्रुते लब्धिमात्रमेवाङ्गीकृत्य प्रोच्यते, न तूपयोगम् , उपयोगस्य तथाजीवखाभाव्यतः क्रमेणैव सम्भवात् , मतिपूर्व च श्रुतमुच्यते उपयोगापेक्षया, न खलु मत्युपयोगेनासञ्चिन्त्य श्रुतग्रन्थानुसारि विज्ञानमासादयति जन्तुः, ततो न कश्चिद्दोषः, आह च भाष्यकृत्-"ईह लद्धिमइसुयाई समकालाई न तूक्गोओ सिं । मइपुवं सुयमिह पुण सुओवओगो मइप्पभवो ॥१॥"। तथा कालविपर्ययखामित्वलामसाधात् मतिश्रुतानन्तरमवधिज्ञानमुक्तं, तत्र प्रवाहापेक्षया अप्रतिपतितकसत्त्वाधारापेक्षया यावान् मतिश्रुतयोः स्थितिकालः तावानेवावधिज्ञानस्वापि, तथा यथैव मतिश्रुते ज्ञाने मिथ्यादर्शनोदयतो विपर्ययरूपतामासादयतः तथाऽवधिज्ञानमपि, तथाहि-मिथ्यादृष्टेः सतः ॥७॥ दीप अनुक्रम [१३] क १ तमोरपि प मतिपूर्वकं धुतमितिकत्वा पूर्व मलिशानं कृतं तस्य पृछतःभुत मिति । २ शाने अशाने च समकाले यतो मतियुते । ततो न श्रुतं मतिपूर मतिCझाने पा श्रुताज्ञानम् ॥1॥३६ ललितो मतिश्रुते समकाले न तूपयोगोऽनयोः । मतिपूर्व श्रुतमिह पुनः श्रुतोपयोगो मतिप्रभवः ॥१॥ *२६ ~143~ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [१]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१] तान्येव मतिश्रुतावधिज्ञानानि मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानानि भवन्ति, उक्तं च-"आयत्रयमज्ञानमपि भवति मि-IXमत्यादिदथ्यात्वसंयुक्त"मिति, तथा य एव मतिश्रुतज्ञानयोः खामी स एवावधिज्ञानस्थापि, तथा विभङ्गज्ञानिनस्त्रिदशादेः क्रमस्था|सम्यग्दर्शनावाप्ती युगपदेव मतिश्रुतावधिज्ञानानां लाभसम्भवः ततो लाभसाधर्म्यम् । अवधिज्ञानानन्तरं च छद्मस्थवि- पना. षयभावप्रत्यक्षत्वसाधात् मनःपर्यायज्ञानमुक्तं,तथाहि-यथाऽवधिज्ञानं छद्मस्थस्य भवति तथा मनःपर्यवज्ञानमपीति छअस्थसाधर्म्य, तथा यथाऽवधिज्ञानं रूपिद्रव्यविषयं तथा मनःपर्यायज्ञानमपि, तस्य मनःपुद्गलालम्बनत्वादिति विषयसाधर्म्य,तथा यथाऽवधिज्ञानं क्षायोपशमिके भावे वर्तते तथा मनःपर्यायज्ञानमपीति भावसाधर्म्य, यथा चावधिज्ञानं प्रत्यक्ष तथा मनःपर्यायज्ञानमपीति प्रत्यक्षत्वसाधर्म्यम् , उक्तं च-"कालविवजयसामित्तलाभसाहम्मओऽवही तत्तो। माणसमित्तो छउमत्थविसयभावाइसाहम्मा ॥१॥"तथा मनःपर्यायज्ञानानन्तरं केवलज्ञानस्योपन्यासः सर्वोत्तमत्वादप्रमत्यतिस्वामिसाधात् सर्वावसाने लाभाच, तथाहि-सर्वाण्यपि मतिज्ञानादीनि ज्ञानानि देशतः परिच्छेदकानि, केवलज्ञानं तु सकलवस्तुस्तोमपरिच्छेदकं, सर्वोत्तमं सर्वोत्तमत्वाचान्ते सर्वशिरःशिखरकल्पं उपन्यस्तं, तथा यथा मनःपर्यायज्ञानमप्रमत्तयतेरेयोदयते तथा केवलज्ञानमयप्रमादभावमुपगतस्यैव यतेर्भवति, नान्यस्य, ततोऽप्रमत्तयतिसाधये, यथा यः सर्वाण्यपि ज्ञानानि समासादयितुं योग्यः स नियमात् सर्वज्ञानावसाने केवलज्ञानमवाप्नोति, ततः सर्वान्ते 1 कालविपर्ययखामिललामसाधर्वतोऽवधिः ततः । मन पर्याय इतः छमस्थ विषयभावादिसाथम्यात् ॥ ५॥ दीप अनुक्रम [१३] ~144~ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................... मूलं [१]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलयगिरीया प्रत्यक्षपुरी प्रत नन्दीकृत्तिः रास.२ सूत्रांक ॥ ७१ ॥ [१] SONGS केवलमुक्तम् , उक्तं च-"अंते केवलमुत्तमजइसामित्ताबसाणलाभाओं" इति, तथा यथा मनःपर्यायज्ञानं न विपर्ययमासादयति तथा केवलज्ञानमपीति विपर्ययाभावसाधाच मनःपर्यायज्ञानानन्तरं केवलज्ञानमुक्तमिति कृतं प्रसङ्गेन ॥- क्षभेदौ. तं समासओ दुविहं पपणतं, तंजहा-पञ्चक्खं च परोक्खं च (सू. २) 'तत्' पञ्चप्रकारमपि ज्ञानं 'समासतः' संक्षेपेण 'द्विविध' द्विप्रकारं प्रज्ञसं, 'तद्यत्युदाहरणोपन्यासार्थः, प्रत्यक्षं च परोक्षं च, तत्र 'अशुङ् व्याप्तौं' अश्नुते ज्ञानात्मना सर्वानान् व्यामोतीत्यक्षः, अथवा 'अश भोजने' अनाति सर्वान् अर्थान् यथायोग भुले पालयति वेत्यक्षो-जीवः, उभयत्राप्यौणादिकः सक्प्रत्ययः, तं अक्षं-जीवं प्रति साक्षाद्वर्तते यत् ज्ञानं तत्प्रत्यक्षम्-इन्द्रियमनोनिरपेक्षमात्मनः साक्षात्प्रवृत्तिमदवध्यादिकं त्रिप्र- कारं, उक्तं च-"जीवो अक्खो अत्थवावणभोयणगुणन्निओ जेणं । तं पइ बद्दइ नाणं जं पञ्चक्खं तयं तिविहं ॥१॥" चशब्दः खगतानेकावध्यादिभेदसूचकः, तथा अक्षस्य-आत्मनो द्रव्येन्द्रियाणि द्रव्यमनश्च युगलमयत्वात् पराणि वर्तन्ते-पृथग्वतन्ते इत्यर्थः, तेभ्यो यदक्षस्य ज्ञानमुइयते तत्परोक्षं, पृषोदरादय इति रूप-13॥१॥ सिद्धिः, अथवा परैः-इन्द्रियादिभिः सह उक्षः-सम्बन्धो विषयविषयिभावलक्षणो यस्मिन् ज्ञाने, न तु साक्षा दीप अनुक्रम [१३] १ अन्ते केवलमुत्तमयतिखामियावसानलाभात २ जीवोऽक्षोऽव्याफ्नभोजनगुणान्वितो येन । तं प्रति वर्तते ज्ञान थत प्रत्यक्ष तकत त्रिविधम् ॥१॥ SAREauratonmahaland BRaitaram.org मत्यादि पञ्चविध-ज्ञानस्य द्विविधत्वम् कथनं ~145~ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................. मूलं २]/गाथा ||४७...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: ऐन्द्रिय प्रत सूत्रांक [२] दात्मनो, धूमादग्निज्ञानमिव, तत्परोक्षम् , उभयत्रापि इन्द्रियमनोनिमित्तं ज्ञानमभिधेयम् । आह-इन्द्रियमनोनि-IPI [मित्ताधीनं कथं परोक्षम् ?, उच्यते, पराश्रयत्वात् , तथाहि-पुद्गलमयत्वाड्रव्येन्द्रियमनांस्थात्मनः पृथग्भूतानि, ततः कस्य पतदाश्रयेणोपजायमानं ज्ञानमात्मनो न साक्षात्, किन्तु परम्परया, इतीन्द्रियमनोनिमित्तं ज्ञानं धूमादग्निज्ञानमिव रोक्षता परोक्षं, उक्तं च-"अक्खस्स पोग्गलमया जं दबिंदियमणा परा होति । तेहिंतो जं नाणं परोक्खमिह तमणुमाणं व ॥१॥" अत्र वैशेषिकादयः प्राहुः-'नन्वक्षमिन्द्रियं श्रोतो हृषीकं करणं स्मृतं,' ततोऽक्षाणाम्-इन्द्रियाणां या साक्षादुपलब्धिः सा प्रत्यक्षं, अक्षम्-इन्द्रियं प्रति वर्तते इति प्रत्यक्षव्युत्पत्तेः, तथा च सति सकललोके प्रसिद्ध साक्षादिन्द्रियाश्रितं घटादि ज्ञानं प्रत्यक्षमिति सिद्धं, तदेतदयुक्तम् , इन्द्रियाणामुपलब्धृत्वासम्भवात् , तदसंभवश्वाचेतनत्वात् , तथा चात्र प्रयोगः-यदचेतनं तन्नोपलब्धू, यथा घटः, अचेतनानि च द्रव्येन्द्रियागि, न चायमसिद्धो हेतुः, यतो नाम द्रव्येन्द्रियाणि निवृत्त्युपकरणरूपाणि, 'निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियमिति(त०अ०२-०१७)वचनात् , निर्वृत्त्युपकरणे च पुद्गलमये, यथा चानयोः पुद्गलमयता तथाऽने वक्ष्यते, पुद्गलमयं च सर्वमचेतनं, पुद्गलानां काठिन्यानवयोधरूपतया चैतन्यं प्रति धर्मित्वायोगात्, धर्मानुरूपो हि सर्वत्रापि धमी, यथा काठिन्यं प्रति पृथिवी, यदि पुनरनुरूपवाभावेऽपि धर्मधम्मिभावो भवेत् ततः काठिन्यजलयोरपि स भवेत्, न च भवति तस्मादचेतनाः पुद्गलाः, उक्तं च अक्षस्य पुलममानि वाम्येन्द्रियमनांसि पराणि भवन्ति । तेभ्यो यज्ज्ञानं परोक्ष मिद तदू अनुमानमिव ॥ १॥ दीप अनुक्रम [१४] ~146~ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [२] दीप अनुक्रम [५४] श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ॥ ७२ ॥ “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ २ ] / गाथा ||४७... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४४], चूलिका सूत्र [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः "बोहेसहावममुत्तं विसयपरिच्छेयगं च चेयन्नं । विवरीय सहावाणि य भूयाणि जगप्पसिद्धाणि ॥ १ ॥ ता धम्मधम्मिभावो कहमेसिं घडद तहऽच्भुवगमेऽवि । अणुरुवत्ताभावे काठिन्नजलाण किन्न भये ? ॥ २ ॥ इति, नापि सन्दिग्धानैकान्तिकता हेतोः शङ्कनीया, अचेतनस्योपलम्भकत्वशक्त्ययोगाद्, उपलम्भकत्वं हि चेतनाया धर्मः, ततः स कथं तदभावे भवितुमर्हति ?, आह-प्रत्यक्षवाधितेयं प्रतिज्ञा, साक्षादिन्द्रियाणामुपलम्भकत्वेन प्रतीतेः, तथाहि -चक्षू रूपं गृह्नदुपलभ्यते, शब्दं कृष्ण, नासिका गन्धमित्यादि, तदेतत् मोहावष्टब्धान्तःकरणताविलसितं तथाहि - आत्मा | शरीरेन्द्रियैः सहान्योऽन्यानुवेधेन व्यवस्थितः, ततोऽयमात्मा अमूनि चेन्द्रियाणीति विवेक्तुमशक्नुवन्तो बालिशज - न्तवः, तत्रापि युष्मादृशां कुशास्त्रसम्पर्कतः कुवासनासङ्गमः, ततः साक्षादुपलम्भकानीन्द्रियाणीति मन्यन्ते, परमार्थतः पुनरुपलब्धा तत्रात्मैव, कथमेतदवसीयत इति चेत्, उच्यते, तद्विगमेऽपि तदुपलब्धार्थानुस्मरणात् तथाहिकोऽपि पूर्व चक्षुषा विवक्षितमर्थं गृहीतवान् ततः कालान्तरे दैवविनियोगतः चक्षुषोऽपगमेऽपि स तमर्थमनुस्मरति, तत्र यदि चक्षुरेव द्रष्टृ स्यात् ततः चक्षुषोऽभावे तदुपलब्धार्थानुसरणं न भवेत्, न ह्यात्मना सोऽर्थोऽनुभूतः, किन्तु चक्षुषा, चक्षुष एवं साक्षाद्रष्टृत्वेनोपगमात् न चान्येनानुभूतेऽर्थेऽन्यस्य स्मरणं, मा प्रापदतिप्रसङ्गः, अपि च बोधखभावमभूत विषयपरिच्छेदकं च चैतन्यम् । विपरीतखभावानि च भूतानि जगत्प्रसिद्धानि ॥१॥ तद् धर्मवर्मभावः कथमेतेषां घटते तथाऽभ्युपगमेऽपि । अनुरूपत्वाभावे काठिन्यजलयोः किं न भवेत् ? ॥ २ ॥ Education International For Penal Use Only ~ 147~ ऐन्द्रिय कस्य प रोक्षता. १५ २० ॥ ७२ ॥ २६ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [२]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक (२] मा भूचक्षुषोऽपगमः तथापि यदि चक्षुरेव द्रष्टु ततः स्मरणमात्मनो न भवेत् , अन्येनानुभूतेऽर्थेऽन्यस्य स्मरणायो- आत्मनो गात्, भवति च स्मरणमात्मनः चक्षुषः स्मर्तृत्वेनाप्रतीतेरनभ्युपगमाच्च, तस्मादात्मैवोपलब्धा नेन्द्रियमिति । तथा द्रष्टत्वम् चात्र प्रयोगः-यो येयूपरतेष्वपि तदुपलब्धानर्थान् स्मरति स तत्रोपलब्धा, यथा गवाक्षोपलब्धानामर्थानामनुस्मा[4 देवदत्तः, अनुस्मरति च द्रव्येन्द्रियोपलब्धानर्थान् द्रव्येन्द्रियापगमेऽप्यात्मा, इह स्मरणमनुभवपूर्वकतया व्याप्त, व्याप्यव्यापकभावश्चानुभवस्मरणयोः प्रत्यक्षेणैव प्रतिपन्नः, तथाहि-योऽर्थोऽनुभूतः स स्मयते न शेषः, तथा खसंवेदनप्रत्यक्षेण प्रतीतेः, विपक्षे चातिप्रसङ्गो बाधकं प्रमाणं, अननुभूतेऽपि विषये यदि स्मरणं भवेत् ततोऽननुभूतत्वा-18 विशेषात् खरविषाणादेरपि स्मरणं भवेदित्यतिप्रसङ्गः, तस्मात् द्रव्येन्द्रियापगमेऽपि तदुलब्धार्थानुस्मरणादात्मा उपलब्धेति स्थितं, उक्तं च--"केसिंचि इंदियाई अक्खाई तदुबलद्धि पञ्चक्खं । तन्नो ताई जमचेयणाई जाणंति न घडोष ॥१॥ उवलद्धा तत्थाया तधिगमे तदुवलद्धसरणाओ। गेहगवक्खोवरमेवि तदुवलद्धाणुसरिया वा ॥२॥" अत्र वाशब्द उपमार्थः । अपरे पुनराहुः-न वयमिन्द्रियाणामुपलब्धृत्वं प्रतिजानीमहे, किन्त्वेतदेव बमो-वदिन्द्रियद्वारेण प्रवर्तते ज्ञानमात्मनि तत्प्रत्यक्षं, न चेन्द्रियव्यापारव्यवहितत्वादात्मा साक्षानोपलब्धेति वक्तव्यम् , इन्द्रियाणामुपलब्धि दीप अनुक्रम [१४] NAR १ केपोचिदिन्द्रियाणि अक्षाणि तदुपलब्धिः प्रत्यक्षम् । तन्न तानि यदचेतनानि जानन्ति न घय इव ॥ 1 ॥ डालचा तवारमा तद्विगमे तबुपलब्धसारणात् ।। गवाक्षोपर मेऽपि तदुपलब्धानुसती इव ॥ २॥ का१३ ~148~ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................... मूलं [२]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: गिरीया व्यपदेष्टुं शक्यम्, प्रत १५ सूत्रांक (२] श्रीमलय-1 प्रति करणतया व्यवधायकत्वायोगात् , न खलु देवदत्तो हस्तेन भुञ्जानो हस्तव्यापारव्यवहितत्वात् साक्षान्न भोक्तेति न्द्रिय व्यपदेष्टुं शक्यम् , तदेतदसमीचीनं, सम्यग्वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात् , इह हि यदाऽऽत्मा चक्षुरादिकमपेक्ष्य बाबमर्थमव-18 साद्गुण्यानन्दीवृत्तिः ज्ज्ञानम्. |बुध्यते तदाऽवश्यं चक्षुरादेः साद्गुण्याद्यपेक्षते, तथाहि-यदा सद्गुणं चक्षुः तदा वाखमर्थ स्पष्टं यथावस्थितं चोपलभते, ॥ ७३ ॥ यदा तु तिमिराशुभ्रमणनीयानपित्तादिसंक्षोभदेशदबीयस्ताद्यापादितविभ्रमं तदा विपरीतं संशयितं वा, ततोऽवश्यमात्मा अर्थोपलब्धौ पराधीनः, तथा च सति यथा राजा निजराजदौवारिकेणोपदर्शितं परराष्ट्रराजकीयं पुरुष पश्यन्नपि समीचीनमसमीचीनं वा निजराजदौवारिकवचनत एव प्रत्येति न साक्षात् , तद्वदात्मापि चक्षुरादिनोपदर्शितं बाझमर्थ । चक्षुरादिप्रत्ययत एव समीचीनमसमीचीनं या वेत्ति, न साक्षात् , तथाहि-चक्षुरादिना दर्शितेऽपि वाद्येऽर्थे यदि संशयमदाधिरूढो भवति तर्हि चक्षुरादिसाद्गुण्यमेव प्रतीत्य निश्चयं विदधाति, यथा न मे चक्षुस्तिमिरोपप्लुतं, न नीयानाशुभ्रमणा द्यापादितविभ्रमं, ततोऽयमर्थः समीचीन इति, ततो यथा राज्ञो नायं मम राजदौवारिकोऽसत्यालापी कदाचनाप्यस्य व्यभिचारानुपलम्भादिति निजदौवारिकस्य साहुण्यमवगम्य परराष्ट्रराजकीयपुरुषसमीचीनतावधारणं परमार्थतः परोक्षं M ॥७३॥ तद्वदात्मनोऽपि चक्षुरादिसागुण्यावधारणतो वस्तुयाधात्म्यावधारणं परमार्थतः परोक्षं, नन्विदमिन्द्रियसाद्गुण्यावधारणतो वस्तुयाथात्म्यावधारणमनभ्यासदशामापनखोपलभ्यते नाभ्यासदशामुपागतस्य, अभ्यासदशामापनो बभ्या-14 सप्रकर्पसामादिन्द्रियसागुण्यमनपेक्ष्यैव साक्षादवबुध्यते, ततस्तस्पेन्द्रियाश्रितं ज्ञानं कथं प्रत्यक्षं न भवति ?, तदयु- २६ दीप अनुक्रम [५४] CA Sna ~ 149~ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ..................... मूलं [२]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२] दीप अनुक्रम [५४] तम्, अभ्यासदशामापनस्यापि साक्षादनवबोधात् , तस्यापीन्द्रियद्वारेणावयोधप्रवृत्तेरवश्यमिन्द्रियसागुण्यापेक्षणात्, ऐन्द्रियकेवलमभ्यासप्रकर्षवशात्तदिन्द्रियसाद्गुण्यं झटित्येवावधारयति, पूर्वावधृतं च झटित्येव निश्चिनोति, ततः कालसौ-कस्य परोक्षम्यात्तन्नोपलभ्यते, इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम्, यतोऽवश्यमवायज्ञानमवग्रहहापूर्व, ईहा च विचारणात्मिका, विचारचेन्द्रियसाद्गुण्यसद्भूतवस्तुधर्माश्रितः, अन्यथैकतरविचाराभावेऽवायज्ञानस्य सम्यगज्ञानत्वायोगात्, न खल्विन्द्रिये । वस्तुनि वा सम्यगविचारितेऽवायज्ञानं समीचीनं भवति, ततोऽभ्यासदशापन्नेऽपीन्द्रियसाद्गुण्यावधारणमवसेयं, यदपि चोक्तम्-'न खलु देवदत्तो हस्तेन भुञ्जानो हस्तव्यापारव्यवहितत्वात्साक्षान्न भोक्तेति व्यपदेष्टुं शक्यमिति' तदप्ययुक्तं, दृष्टान्तदान्तिकावैषम्याद्, भोक्ता हि भुजिक्रियानुभवभागी भण्यते, भुजिक्रियाऽनुभवश्च देवदत्तस्य न हस्तेन व्यवधीयते, किन्तु साक्षात्, हस्तो हि कवलप्रक्षेप एव व्याप्रियते न परिच्छेद क्रियायामिन्द्रियमिवाहारक्रियानुभवेऽपि येन व्यवधानं भवेत् , ततः साक्षाद्देवदत्तो भोक्तेति व्यवहियते, इह तु वस्तूनामुपलब्धिरुक्तनीया चक्षुरादीन्द्रियसागुपयावगमानुसारेणोपजायते, ततो व्यवधानान्न साक्षादुपलम्भक आत्मेति । नन्विदं सर्वमप्युत्सूत्रप्ररूपणं, सूत्रे ह्यनन्तरमेवेन्द्रियाश्रितं ज्ञानं प्रत्यक्षमुपदेक्ष्यते-'पञ्चक्खं दुविहं पन्नत्तं, तंजहा-इंदियपञ्चक्खं नोइंदियपचक्खं चेति सत्यमेतत, किन्त्विदं लोकव्यवहारमधिकृत्योक्तं, न परमार्थतः, तथाहि-यदिन्द्रियाश्रितमपरव्यवधानरहितं ज्ञानमुदयते तल्लोके प्रत्यक्षमिति व्यवहृतं, अपरधूमादिलिङ्गनिरपेक्षतया साक्षादिन्द्रियमधिकृत्य प्रवर्तनात् , यत्पुन REAmrikinnamond anditurary.com ~150~ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [२]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलयगिरीया प्रत नन्दीवृत्तिः १५ सत्रांक ॥ ७४॥ १२) दीप अनुक्रम रिन्द्रियव्यापारेऽप्यपरं धूमादिकमपेक्ष्याश्यादिविषयं ज्ञानमुदयते तल्लोके परोक्ष, तत्र साक्षादिन्द्रियव्यापारासम्भवात, ऐन्द्रियकयत्पुनरात्मनः इन्द्रियमप्यनपेक्ष्य साक्षादुपजायते तत्परमार्थतः प्रत्यक्षं, तचावध्यादिकं त्रिप्रकारं, ततो लोकव्यवहा-४ स्थ व्यवहार प्रत्यक्षता. रमधिकृत्येन्द्रियाश्रितं ज्ञानमनन्तरसूत्रे प्रत्यक्षमुक्तं, न परमार्थतः, अथोच्यत-अनन्तरसूत्रे न किमपि विशेषसूचक पदमीक्षामहे, ततः कथमिदमवसीयते-संव्यवहारमधिकृत्येन्द्रियाश्रितं ज्ञानं प्रत्यक्षमुक्तं, न परमार्थत इति ?, उच्यते, उत्तरसूत्रार्थपर्यालोचनात् , प्रत्यक्षभेदाभिधानानन्तरं हि सूत्रमाचार्यों वक्ष्यति-'परोक्खं दुविहं पन्न, तंजहाआभिणिवोहियनाणं सुयनाण'मित्यादि, तत्राभिनिबोधिकमवग्रहादिरूपम् , अक्ग्रहादयश्च श्रोत्रेन्द्रियाद्याश्रिता 8 वर्णयिष्यति, तथदि श्रोत्रादीन्द्रियाश्रितं ज्ञानं परमार्थतः प्रत्यक्षं तत्कथमवग्रहादयः परोक्षज्ञानत्वेनाग्रेऽभिधीयन्ते ?, २० तस्मादुत्तरत्रेन्द्रियाश्रितज्ञानस्य परोक्षत्वेनाभिधानादवसीयते-अनन्तरसूत्रेणोच्यमानमिन्द्रियाश्रितं ज्ञानं व्यवहारप्रत्यक्षमुक्तं, न परमार्थत इति स्थितं, आह च-"ऐगतेण परोक्खं लिंगियमोहाइयं च पञ्चक्खं । इंदियमणोभवं जंग त संववहारपञ्चक्खं ॥ १॥" अकलकोऽप्याह-"द्विविधं प्रत्यक्षज्ञान-सांव्यवहारिकं मुख्यं च, तत्र सांव्यवहारिकमि- ॥७४ ॥ |न्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्ष, मुख्यमतीन्द्रियज्ञान"मिति, केवलमनोमात्रनिमित्तं श्रुतज्ञानं च लोकेऽपि परोक्षमिति प्रतीत, १ एकान्तेन परोक्ष लशिकमवथ्यादिकं च प्रत्यक्षम् । इन्द्रियमनोभत्र बत् तन संव्यवहारप्रयक्षम् ॥ १ ॥ [१४] ~151~ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [२] दीप अनुक्रम [५४] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [२] / गाथा || ४७...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “ नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः नापि सूत्रे क्वचिदपि प्रत्यक्षमिति व्यवहृतं, ततो न तत्र कश्चिद्विवादः ॥ तदेवं प्रत्यक्षं परोक्षं चेति भेदद्वयोपन्यासे कृते सति शिष्योऽनवबुध्यमानः प्रश्नं विधत्ते से किं तं पच्चक्खं ?, पञ्चक्खं दुविहं पण्णत्तं, तंजहा- इंदियपञ्चक्खं नोइंदियपच्चक्खं च । (सू० ३) शब्दो मागधदेशीयप्रसिद्धो निपातोऽथशब्दार्थे वर्त्तते, अथशब्दार्थ [ब्द]श्च प्रक्रियाद्यर्थाभिधायी, यत उक्तं"अथ प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्ग लोपन्यासप्रतिवचनसमुच्चयेष्विति, इह चोपन्यासार्थो वेदितव्यः, 'कि' मिति परप्रभे, तत्त्रागुपदिष्टं प्रत्यक्ष ( क्षं कि ) मिति ?, एवं शिष्येण प्रचे कृते सति न्यायमार्गोपदर्शनार्थमाचार्यः शिष्यपृष्टपदानुवादपुरस्सरीकारेण प्रतिवचनमभिधातुकाम आह— 'पञ्चक्षमित्यादि, एवमन्यत्रापि यथायोगं प्रश्ननिर्वचनसूत्राणां पातनिका भावनीया । प्रत्यक्षं द्विविधं प्रज्ञसं, तद्यथा - इन्द्रियप्रत्यक्षं नोइन्द्रियप्रत्यक्षं च तत्र 'इदु पर मैश्वर्ये' 'उदितो न'मिति नम् इन्दनादिन्द्रः - आत्मा सर्वद्रव्योपलब्धिरूपपरमैश्वर्ययोगात्, तस्य लिङ्गं-चिहमविनाभावि इन्द्रियम् 'इन्द्रिय' मितिनिपातनसूत्राद्रूपनिष्पत्तिः, तत् द्विधा-द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियं च तत्र | द्रव्येन्द्रियं द्विधा - निर्वृत्तिरुपकरणं च निर्वृत्तिर्नाम प्रतिविशिष्टः संस्थानविशेषः, सापि द्विधा वाह्या अभ्य अन्तरा च तत्र बाह्या कर्ण पटकादिरूपा, सापि विचित्रा-न प्रतिनियतरूपतयोपदेष्टुं शक्यते, तथाहिमनुष्यस्य श्रोत्रे समे नेत्रयोरुभयपार्श्वतः संस्थिते वाजिनोः मस्तकें नेत्रयोरुपरिष्टाद्भाविनी तीक्ष्णे चाग्रभागे Education International प्रत्यक्षज्ञानस्य भेद-प्रभेदानां निरूपणं For late Only ~152~ इन्द्रियनोइन्द्रियप्र त्यक्षम् . सू. ३ १० १३ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................... मूलं [३]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: द्रव्यभावे न्द्रियस्व R प्रत सत्रांक ॥ ७५॥ (३) दीप अनुक्रम [१५] श्रीमलय-पद इत्यादिजातिभेदान्नानाविधा, आभ्यन्तरा तु निवृत्तिः सर्वेषामपि जन्तूनां समाना, तामेवाधिकृत्यामूनि सू- गिरीया | पाणि प्रावर्तिष्यन्त "सोइंदिए णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पन्नत्ते ?, गोमा ! कलंबुयासठाणसंठिए पन्नत्ते, चक्खिदि एणं भंते ! किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते ?, गोअमा! मसूरचंदसंठाणसंठिए पण्णत्ते, पाणिदिए णं भन्ते ! किंसंठाण18|संठिए पण्णते?, गोयमा! अइमुत्तगसंठाणसंठिए पण्णत्ते, जिभिदिए णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पण्णते?, गोमा ! दिखुरप्पसंठाणसंठिए पण्णत्ते, फासिदिए णं भंते ! किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते ? गोअमा! नाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते" इह स्पर्शनेन्द्रियनिवृत्तेः प्रायो न बाह्याभ्यन्तरभेदः, तत्त्वार्थमूलटीकायां तथाभिधानात् , उपकरणं खजस्थानीयाया बाह्यनिवृत्तेर्या खड्गधारासमाना स्वच्छतरपुद्गलसमूहात्मिका अभ्यन्तरा निर्वृत्तिः तस्याः शक्तिविशेषः, इदं चोपकरणरूपं द्रव्येन्द्रियमान्तरनिर्वृत्तेः कथञ्चिदर्थान्तरं, शक्तिशक्तिमतोः कथञ्चिद्भेदात्, कशिद्भेदश्च सत्यामपि तस्यामान्तरनिवृत्ती द्रव्यादिनोपकरणस्य विघातसम्भवात् , तथाहि-सत्यामपि कदम्पपुष्पाद्याकृतिरूपायामान्तरनिर्वृत्तावतिकठोरतरघनगर्जितादिना शक्त्युपधाते सति न परिच्छेत्तुमीशते जन्तवः शब्दादिकमिति, भावेन्द्रियमपि द्विधा १धोरेन्द्रिय भदन्त । किसंस्थानस्थितं प्रशतं !, गीतम! कलम्बुका (कदम्बक) संस्थानसस्थितं प्रज्ञात, चक्षुरिन्दिर्य भदन्त । किंसंस्थानसखितं प्रज्ञा का गीतम ! मसूरचन्दसस्थान संस्थितं प्रज्ञाप्त, प्राणेन्द्रिय मदन्त ! किसंस्थानसस्थित प्राप्त है, गौतम ! अतिमुक्तकसंस्थानसंस्थितं प्रक्षत, जिलेन्द्रिय भदन्त किसस्थादिनसिलतं प्रशतं !, गौतन वरपसंस्थान संस्थित प्राप्तं ?, स्पर्शनेन्द्रियं भदन्त ! कि संस्थानमंस्थितं प्रशतं !, गौतम! नानासंस्थानसस्थितं प्रशतं ॥ SOCTOR ॥७५॥ SAMEaurat ~ 153~ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................... मूलं [३]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३] दीप अनुक्रम [५५] लब्धिरुपयोगश्च, तत्र लब्धिः श्रोत्रेन्द्रियादिविषयः सर्वात्मप्रदेशानां तदावरणकर्मक्षयोपशमः, उपयोगः खखविषये इन्द्रियप्र|लब्धिरूपेन्द्रियानुसारेण आत्मनो व्यापारः, इह च द्विविधमपि द्रव्यभावरूपमिन्द्रियं गृह्यते, एकतरस्याप्यभावे त्यक्षभेदाः इन्द्रियप्रत्यक्षत्वानुपपत्तेः, तत्र इन्द्रियस्य प्रत्यक्षं इन्द्रियप्रत्यक्षं, नोइन्द्रियप्रत्यक्षं यत् इन्द्रियप्रत्यक्षं न भवति, नो-II शब्दः सर्वनिषेधयाची, तेन मनसोऽपि कथञ्चिदिन्द्रियत्वाभ्युपगमात्तदाश्रितं ज्ञानं प्रत्यक्षं न भवतीति सिद्धम् ॥ | से किं तं इंदिअपञ्चक्खं ?. इंदिअपच्चक्खं पंचविहं पण्णत्तं, तंजहा-सोइंदिअपच्चक्खं चक्खिदिअप-12 चक्खं धाणिदिअपच्चक्खं जिभिदिअपच्चक्खं फासिंदिअपच्चक्खं, से तं इंदिअपच्चक्खं । (सू०४) अथ किं तदिन्द्रियप्रत्यक्षं?, इन्द्रियप्रत्यक्षं पञ्चविधं प्रज्ञसं, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्षमित्यादि, तत्र श्रोत्रेन्द्रियस्य प्रत्यक्षं श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्षं, श्रोत्रेन्द्रियं निमित्तीकृत्य यदुत्पन्नं ज्ञानं तत् श्रोत्रेन्द्रियप्रत्यक्षमिति भावः,एवं शेषेष्वपि भावनीयमाएतच व्यवहारत उच्यते, न परमार्थत इत्यनन्तरमेव प्रागुक्तम् । आह-स्पर्शनरसनप्राणचक्षुःश्रोत्राणीन्द्रियाणीति क्रमः, अयमेव च समीचीनः, पूर्वपूर्वलाभ एवोत्तरोत्तरलाभसम्भवात् , ततः किमर्थमुत्क्रमोपन्यासः कृतः?, उच्यते, अस्ति पूर्वानुपूर्वी अस्ति पश्चानुपूर्वीति न्यायप्रदर्शनार्थ, अपि च-शेषेन्द्रियापेक्षया श्रोत्रेन्द्रियं पटु, ततः श्रोत्रेन्द्रियस्य यत् प्रत्यक्षं तच्छेपेन्द्रियप्रत्यक्षापेक्षया स्पष्टसंवेदनं, स्पष्टसंवेदनं चोपवर्ण्यमानं विनेयः सुखेनावबुध्यते, ततः सुखप्रतिपत्तये श्रोत्रेन्द्रियादिक्रमः उक्तः ॥ SARE DELatural ~154~ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [५]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: गिरीया प्रत सुत्रांक दाभव. भेदी दीप अनुक्रम [१७] श्रीमलय- से किं तं नोइंदिअपच्चक्खं?, नोइंदियपच्चक्खं तिविहं पण्णतं, तंजहा-ओहिनाणपच्चक्खं मणप-13 नोइन्द्रियनन्दीवृत्तिः जवणाणपञ्चक्खं केवलनाणपञ्चक्खं (सू०५) से किं तं ओहिनाणपच्चक्खं ?, ओहिनाणपञ्चक्खं प्रत्यक्षभेदाः दुविहं पण्णत्तं, तंजहा-भवपञ्चइअंच खओवसमिअंच (सू०६) से किं तं भवपच्चइअं?, २ दुण्हं, अवधिमेदी ॥७६ ॥ तंजहा-देवाण य नेरइआण य । (सू०७) से किं तं खओवसमिअं?, खओवसमिअं दुण्हं, तंजहा- क्षायो भेदौ मणूसाण य पंचेंदिअतिरिक्खजोणिआण य,-को हेऊ खाओवसमियं ?, खओवसमियं तयावर सू. ५-८ णिजाणं कम्माणं उदिण्णाणं खएणं अणुदिण्णाणं उसमेणं ओहिनाणं समुपजइ (सू०८) | अथ किं तन्नोइन्द्रियप्रत्यक्षं ?, नोइन्द्रियप्रत्यक्षं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-अवधिज्ञानप्रत्यक्षमित्यादि ॥ अथ किं तदव-18/२० दधिज्ञानप्रत्यक्षं ?, २ द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-भवप्रत्ययं च क्षायोपशमिकं च, तत्र भवन्ति कर्मवशवर्तिनः प्राणिनो|ऽस्मिन्निति भवो-नारकादिजन्म ''नानी'ति अधिकरणे धप्रत्ययः, भव एव प्रत्ययः कारणं यस्य तद्भवप्रत्ययं, प्रत्य-IK यशब्दश्वेह कारणपोयः, वर्तते च प्रत्ययशब्दः कारणत्वे, यत उक्तम्-'प्रत्ययः शपथे ज्ञाने, हेतुविश्वासनिश्चये ॥७६॥ चशब्दः खगतदेवनारकाश्रितभेदद्वयसूचकः, तौ च द्वौ भेदी अनन्तरमेव वक्ष्यति । तथा क्षयश्चोपशमश्च क्षयोपशमी ताभ्यां निर्वृत्तं क्षायोपशमिकं, चशब्दः खगतानेकभेदसूचकः, तत्र यद्येषां भवति तत्तेषामुपदर्शयति-'दोण्ह'मित्यादि, COCCASSES ~155~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [८]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८] दीप अनुक्रम [६०] द्वयोर्जीवसमूहयोः भवप्रत्ययं, तद्यथा-देवानां च नारकाणां च, तत्र दिव्यन्ति-निरुपमक्रीडामनुभवन्तीति भवप्रत्यदेवाः तेषां, तथा नरान् कायन्ति-शब्दयन्ति योग्यताया अनतिक्रमणाकारयन्ति जन्तून् खस्थाने इति नरकाःयत्वे हेतु: तेषु भवा नारकाः तेषां, चशब्द उभयत्रापि खगतानेकभेदसूचका, ते च संस्थानचिन्तायामग्रे दर्शयिष्यन्ते। अत्राह पर: नन्ववधिज्ञानं क्षायोपशमिके भावे वर्तते नारकादिभवश्चौदयिके तत्कथं देवादीनामवधिज्ञानं भवप्र-11 त्ययमिति व्यपदिश्यते ?, नैप दोषः, यतस्तदपि परमार्थतः क्षायोपशमिकमेव, केवलं स क्षयोपशमो देवनारकभवे-18/५ प्रवश्यंभाषी, पक्षिणां गगनगमनलब्धिरिय, ततो भवप्रत्ययमिति व्यपदिश्यते, उक्तं च चूर्णी-"नणु ओही|| खाओवसमिए भावे नारगाइभवो से उदइए भावे तओ कहं भवपञ्चहओ भण्णइ ?, उच्यते, सोऽपि खओवसमिओ चेक, किंतु सो खओवसमो नारगदेवभवेसु अवस्सं भवइ, को दिटुंतो?, पक्खीणं आगासगमणं व, तओ भवदापचइओ भन्नइ" ति ॥ तथा द्वयोः क्षायोपशमिक, तद्यथा-मनुष्याणां च पञ्चेन्द्रियतियंग्योनिजानां च, अत्रापि च शब्दी प्रत्येकं खगतानेकभेदसूचकी, पञ्चेन्द्रियतिर्यगमनुष्याणां चावधिज्ञानं नावश्यंभावि, ततः समानेऽपि साक्षायोपशमिकत्वे भवप्रत्ययादिदं भिद्यते, परमार्थतः पुनः सकलमप्यवधिज्ञानं क्षायोपशमिकं ॥ सम्प्रति क्षायोपशमिडाकखरूपं प्रतिपादयति-'को हेतुः? किं निमित्तं यद्वशादवधिज्ञानं क्षायोपशमिकमित्युच्यते ?, अत्र निर्वचनमभि धातुकाम आह-क्षायोपशमिकं येन कारणेन तदावरणीयानाम्-अवधिज्ञानावरणीयानां कर्मणामुदीपर्णानां क्षयेण:१३ COMSAROO ~156~ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [<] दीप अनुक्रम [६०] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [८] / गाथा ||४७...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः ॥ ७७ ॥ श्रीमलय- अनुदीर्णानाम् उदयाबलिकामप्राप्तानामुपशमेन- विपाकोदयविष्कम्भणलक्षणेनावधिज्ञानमुत्पद्यते तेन कारणेन क्षायोगिरीया पशमिकमित्युच्यते, क्षयोपशमश्च देशघातिरसस्पर्द्धकानामुदये सति भवति न सर्वघातिरसस्पर्द्धकानाम्, अथ किनन्दीवृत्तिः 2 मिदं देशघातीनि सर्वघातीनि वा रसस्पर्द्धकानीति ?, उच्यते, इह कर्म्मणां प्रत्येकमनन्तानन्तानि रसस्पर्द्धकानि भवन्ति, रसस्पर्द्धकवरूपं च कर्म्मप्रकृतिटीकायां सप्रपञ्चमुपदर्शितमिति न भूयो दर्श्यते, तत्र केवलज्ञानावरणीयादिरूपाणां सर्वघातिनीनां प्रकृतीनां सर्वाण्यपि रसस्पर्द्धकानि सर्वघातीनि, देशघातिनीनां पुनः कानिचित् सर्वघातीनि कानिचिदेशघातीनि तत्र यानि चतुःस्थानकानि त्रिस्थानकानि वा रसस्पर्द्धकानि तानि नियमतः सर्वधातीनि, द्विस्थानकानि पुनः कानिचिद्देशघातीनि कानिचित्सर्वघातीनि, एकस्थानकानि तु सर्वाण्यपि देशघातीन्येव, उक्तं च- "चउतिद्वाणरसाणि य सबधाईणि होंति फट्टाणि । दुट्टाणियाणि मीसाणि देसाईणि सेसाणि ॥ १ ॥ " अथ किमिदं रसस्य चतुःस्थानक त्रिस्थानकत्वादि १, उच्यते, इह शुभप्रकृतीनां रसः क्षीरखण्डादिरसोपमः अशुभप्रकृतीनां तु निम्बोपातक्यादिरसोपमः उक्तं च- 'घोसाइनिंबुवमो असुभाण सुभाष खीरखंडुवमो' क्षीरादिरसश्च स्वाभाविक एकस्थानकः, द्वयोस्तु कर्षयोरावर्त्तने कृते सति योऽवशिष्यते एकः कर्षकः स द्विस्थानकः, त्रयाणां कर्ता १ चतुखिस्थानानि च सर्वातीनि भवन्ति पर्वकानि । दिस्थानकानि मिश्राणि देशघातीनि शेषाणि ॥ १ ॥ २घोषात की निम्बोपगोऽशुमानां शुभानां क्षीरखण्डोपनः। Education Internation For Parts Only ~157~ क्षयोपशमप्रक्रिया. १५ २० ॥ ७७ ॥ २६ qanary org Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................... मूलं [८]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: एकादीनिरसस्थानकानि. प्रत सूत्रांक [८] ५ णामावर्त्तने कृते सति एकः कर्पोऽवशिष्टः त्रिस्थानकः, चतुपणां कर्षाणामावर्त्तने कृते सति उद्धरति य एकः कपः स चतुःस्थानकः, एकस्थानकोऽपि च रसो जललवबिन्दुचुलकार्धचुलुकप्रसृत्यञ्जलिकरककुम्भद्रोणादिप्रक्षेपात् मन्दमन्दतरादिवहुभेदत्वं प्रतिपद्यते, एवं द्विस्थानकादयोऽपि, एवं कर्मणामपि चतुःस्थानकादयो रसा| भावनीयाः प्रत्येकमनन्तभेदभाजश्च, कर्मणां चैकस्थानकादयो रसाः यथोत्तरमनन्तगुणा वेदितव्याः, उक्तं च-"अणंतगुणिया कमेणियरे" तत्राशुभप्रकृतीनां चतुःस्थानकरसवन्धः प्रस्तररेखासदृशैः अनन्तानुबन्धिको- धादिकैः क्रियते दिनकरातपशोषिततडागभूरेखासदृशैरप्रत्याख्यानसंज्ञैः क्रोधादिभिः त्रिस्थानकरसबन्धः सिकताकणसंहतिगतरेखासदृशैः प्रत्याख्यानावरणसंज्ञैर्द्विस्थानकरसबन्धो जलरेखासदृशैस्तु सज्वलनसंज्ञैरेकस्थानकरसवन्धः, शुभप्रकृतीनां पुनरेतदेव व्यत्यासेन योजनीयम् , नवरं द्विस्थानकादारभ्य, तथा चोक्तम्-पञ्चयभूमीवालुयजलरेहासरिस संपराएसुं । चउठाणाई असुभाण सेसयाणं तु वच्चासो ॥१॥" इति, 'शेषकाणां' शुभप्रकृतीनां व्यत्यासो द्रष्टव्यः, सच द्विस्थानकादारभ्य, यथोक्तं प्राक् । अथ कथमवसीयते ? यदुत द्विस्थानकादारभ्य व्यत्यासो नैकस्थानकादारभ्य ?, उच्यते, शुभप्रकृतीनामेकस्थानकरसबन्धस्यासम्भवाद, असम्भवः कथमिति चेद, उच्यते, इहात्सन्तविशुद्धौ वर्तमानः शुभप्रकृतीनां चतुःस्थानकमेव रसं बनाति, ततो मन्दमन्दतरविशुद्धौ त्रिस्थानकं द्विस्थानकं वा, सङ्क्लेशाद्धायां तु वत्ते.१ अनन्तगुणाः ममेणेतरे। २ पर्वतभूमिवालुकाजलरेखास शैः संपरावैः । चतुःस्थानादयः अशुभामा शेषाणां तु व्यखासः ॥ १॥ दीप अनुक्रम [६०] ~ 158~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................... मूल [८]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: . प्रत सूत्रांक [८] AL श्रीमलय- मानस्य शुभप्रकृतयो बन्धमेव नायान्ति, कुतः १, तस्यामवस्थायां तद्गतरसस्थानकचिन्तायामपि नरकगतिप्रायोग्यं पुण्ये एकगिरीया बनतोऽतिसडिक्लष्टस्यापि वैक्रियतैजसादिकाः प्रकृतयो बन्धमायान्ति, तासामपि स्वभावतो द्विस्थानकरसस्यैव बन्धो स्थानकरनन्दीवृत्तिकस्थानस्य, ततः शुभप्रकृतीनां व्यत्यासयोजना द्विस्थानकरसबन्धादारभ्य कर्त्तव्या, अथाशुभप्रकृतीनामेकस्थान साभाव: ॥ ७८॥ कस्यापि रसस्य बन्धो भवतीति कथमवसेयम् ?, उच्यते, इह द्विधा घातिन्योऽशुभप्रकृतयः, तद्यथा-सर्वघातिन्यो दे-| शघातिन्यश्च, तत्र याः सर्वघातिन्यः तासां जघन्यपदेऽपि द्विस्थानक एव रसो वन्धमायाति, नैकस्थानकः, तथा-1 खाभाब्यात् , तथाहि-क्षपकश्रेण्यारोहेऽपि सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकचरमसमयेऽपि वर्तमानस्य केवलज्ञानावरणके बलदर्शनावरणयोः रसबन्धो द्विस्थानक एवेति, नैकस्थानकः, यास्तु देशघातिन्यः तास श्रेण्यारोहाभावे पन्धमागदातानां नियमात सर्वपातिनमेव रसं बध्नाति, यत उक्तं कर्मप्रकृती-"असेढिगा य बंधति उ सबधाईणि" सर्वघाती च रसो जघन्यपदेऽपि द्विस्थानको 'ढुंढाणियाणि मीसाणि देसघाईणि सेसाणी तिवचनातू, ततो न श्रेण्यारोहाभावे तासामेकस्थानकरसबन्धसम्भवः, श्रेण्यारोहे त्वनिवृत्तिवादरसम्परायगुणस्थानकाद्धायाः सङ्ख्ययेषु भागेषु गतेषु सत्सु तत ऊर्द्धमेकस्थानकरसवन्धसम्भवः, तदानीं च ज्ञानावरणचतुष्टयदर्शनावरणत्रयपुरुषपदान्तरायपञ्चकसज्वलनचतुष्ट-18 M ७८॥ यरूपाः सप्तदश प्रकृतीयतिरिच्य शेषा बन्धमेव नायान्ति, तद्वन्धहेतुव्यवच्छेदात् , ततो न तासामेकस्थानकरसबन्धस मणिकाच बनान्त तु सर्वघातीनि । २ द्विस्थान कानि मिश्राणि देशातीनि शेषाणि । दीप अनुक्रम [६०] K SARELIEatuninte Punaturary.com ~159~ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................... मूलं [८]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८] हाम्भयः, सप्तदशानां तु प्रकृतीनां तदा बन्धसम्भवादेकस्थानको रसबन्धः प्राप्यते, उक्तं च-"आवरणमसबग्धं पुंसं-18 देशसर्वजलणंतरायपयडीओ। चउठाणपरिणयाओ दुतिचउठाणाउ सेसाओ॥१॥" अत्र 'चउठाणपरिणयाउ'त्ति एकस्था-18 घातिस काघेकानि. नकपरिणता द्विस्थानकपरिणताः त्रिस्थानकपरिणताश्चतुःस्थानकपरिणताश्चेत्यर्थः, शेपं सुगम, ततः सप्तदशप्रकृतीनामकस्थानकरसवन्धसम्भवात् तदपेक्षयाऽशुभप्रकृतीनामेकस्थान करसबन्धादारभ्य योजना कृता, सर्वघातीनि च रसस्पर्द्धकानि सकलमपि बघायं ज्ञानादिगुणमुपनन्ति, तानि च स्वरूपेण ताम्रभाजनवनिश्छिद्राणि घृतमिवातिश- ५ है येन स्निग्धानि द्राक्षेव तनुप्रदेशोपचितानि स्फटिकाभ्रकहारवचातीव निर्मलानि, उक्तं च-"जो पाएइ सविसयं सयलं सो होइ सबधाइरसो । सो निच्छिद्दो निद्धो तणुओ फलिहब्भहरविमलो ॥१॥" यानि च देशघातीनि रसस्पर्धकानि तानि खघासं ज्ञानादिगुगं देशतो प्रन्ति, तदुदयेऽवश्यं क्षयोपशमसम्भवात् , तानि च खरूपेणानेकविधविवरसङ्घ-18 तालानि, तथाहि-कानिचित्कट इवातिस्थरच्छिद्रशतसङ्कलानि, कानिचित् कम्बल इव मध्यमविवरशतसङ्कलानि, कानिचित्पुनरतिसूक्ष्मविवरसङ्कलानि, यथा वासांसि, तथा तानि देशघातीनि रसस्पर्धकानि स्तोकस्नेहानि भवन्ति बम- १० ल्यरहितानि च, उक्तं च-"देसै विघाइत्तणओ इयरो कडकंबलंसुसंकासो । विबिहच्छिदुहभरिओ अप्पसिणेहो अवि-31 दीप अनुक्रम [६०] यो पातयति खविषय सकलं स भवते सर्पपाती रसः । स निश्चित: निग्यतः स्कटिकाबहारविमा ॥१॥१देशविघा विवाद इतर कटकम्मापूर्वकाः । विविधच्छिदोषभून असलेदोऽविमलय ॥१॥ ३बहुछिदम रिओ प्र. १३ REENamand ~160~ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................... मूलं [८]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: क्षयोपशमप्रक्रिया. प्रत सूत्रांक [८] दीप अनुक्रम [६०] श्रीमलय-18मलो ज॥१॥" अघातिनीनां तु रसस्पर्द्धकानि खरूपेण न सर्वघातीनि नापि देशघातीनि, केवलं सर्वघातिरस- गिरीया स्पर्द्धकसङ्घर्षतः सर्वघातिरससहशानि भवन्ति, यथा खयमचौरा अपि चौरसम्पर्कतः चौरप्रतिभासाः, उक्तं च-४ वापा“जाण न विसओ घाइत्तणमि ताणपि सवघाइरसो । जायइ पाइसगासेण चोरया वेहऽचोराणं ॥१॥" तदेवमुक्तानि ॥७९॥ |सर्वेघातीनि देशघातीनि च रसस्पर्धकानि, सम्प्रति यथा क्षयोपशमो भवति तथा भाव्यते-तत्र देशघातिनीनां |मतिज्ञानावरणीयादिकर्मप्रकृतीनां सर्वघातीनि रसस्पर्धकानि अध्यवसायविशेषतो देशघातीनि कर्तुं शक्यन्ते, तथा-13 खाभाव्यात् , कथमेतदवसेयमिति चेत् ?, उच्यते, इह यदि वन्धत एव देशघातीनि रसस्पर्द्धकानि भवेयुर्नाध्यवसायविशेषतः तथापरिणमनेनापि तर्हि मतिज्ञानादीनामभाव एव सर्वथा प्राप्नोति, तथाहि-मत्यादीनि ज्ञानानि क्षायोपशमिकाणि, यदुक्तमनुयोगद्वारेषु-"खेओवसमिया आभिणिवोहियनाणलद्धी खओवसमिया सुयनाणलद्धी खओवसमिया ओहिनाणलद्धी" इत्यादि, क्षयोपशमश्च विपाकोदयवतीनां प्रकृतीनां देशघातिनामेव रसस्पर्धकानामुदये भवति, न सर्वघातिनां, देशपातीनि च रसस्पर्द्धकानि बन्धमधिकृत्यानिवृत्तिवादरसम्परायोद्धायाः सत्येयेषु भागेषु गतेषु सत्सु तत ऊर्दू प्राप्यन्ते, ततस्तस्या अवस्थाया अर्याक सर्वथा मतिज्ञानादीनि न प्राप्नुवन्ति, सर्वघातिरसस्पर्द्धकविपाको यासां न विषयो पातित्वे तासामपि सर्वघाती रसः । जापते पातिसंसात् चौरतेवेहाचौराणाम् ॥ १॥ २क्षायोपशमिकी आमिनियोधिकशनलब्धिः | क्षायोपामिछी धुवनलब्धिः क्षायोपशामिकी अवधिज्ञानलब्धिः । PIC ॥७९॥ SAREaratunmanand H uaiorary orm ~ 161~ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [<] दीप अनुक्रम [६०] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [८] / गाथा || ४७...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४४], चूलिका सूत्र [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः दयभावतः तेषां क्षयोपशमासम्भवाद्, अथ च मतिज्ञानादिवलप्रभावतः तस्या अवस्थायाः सम्प्राप्तिस्ततः इतरेतराश्रयदोष वैवखत मुखोपनिपातित्वान्न कदाचिदपि मतिज्ञानादिसम्भवः, अपि च मतिश्रुतज्ञानाचक्षुदर्शनान्यपि । क्षायोपशमिकाणि, क्षयोपशमश्च यदि विपाकोदये भवति तर्हि देशघातिरसस्पर्द्धकानामेव न सर्वघातिरसस्पर्द्धकानां, | देशघातीनि च रसस्पर्द्धकानि अनिवृत्तिवादरसम्परायाद्वायां, ततस्तेषामपि ततोऽर्वागभावः प्राप्नोति, अथ च सर्वजीवानामपि तामवस्थामप्राप्तानाममूनि विद्यन्ते, ततोऽवश्यमेतदुररी कर्त्तव्यं भवन्ति देशघातिनीनां प्रकृतीनां सर्वघातीन्यपि रसस्पर्द्धकान्यध्यवसायविशेषतो देशघातीनीति, अथ यथा देशघातिनीनां सर्वघातीनि रसस्पर्द्धकानि | अध्यवसायविशेषतो देशघातीनि भवन्ति तथा सर्वघातिनोः केवलज्ञानावरणकेवलदर्शनावरणयोरपि कस्मान्नोपजायन्ते ?, उच्यते, तथाखाभाव्यात्, तथाहि - तथारूपा एव ते पुद्गलाः केवलज्ञानकेवलदर्शनावरणयोर्योग्या ये द्विस्थानकरसपरिणता अपि न देशघातिनो भवन्ति, नापि तेषां विपाकोदयनिरोधसम्भवः, शेषाणां तु सर्वघातिप्रकृतीनां रसस्पर्द्धकानि भवन्त्येवाध्यवसायविशेषतो विपाकोदयविष्कम्भभाञ्जि, तथास्वाभाव्याद्, एतचावसीयते तथाकार्यदर्शनात् तथाहि सम्यक्त्वसम्यगृमिथ्यात्व देशविरतिसामायिकच्छेदोपस्थापन परिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराय संयमाः क्षायोपशमिका उपवर्ण्यन्ते, यत उक्तं- "खओवसमिया सम्मदंसणलद्धी खओवसमिया सम्मा १ क्षायोपशमिकी सम्यग्दर्शनलब्धिः क्षायोपशमिकी सम्प For Park at Use Only ~162~ देशवात्पूदये क्षयोपशुमभावः ५ १० १३ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................... मूलं [८]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [६०] श्रीमलय मिच्छादसणलद्धी खओवसमिया सामाइयलद्धी खओवसमिया छेओवद्वाणलद्धी, एवं परिहारविसुद्धियलद्धी सुहुमसं-1 सर्वधातिगिरीया परायलद्धी खओवसमिया चरित्ताचरित्तलद्धी" इति । अन्यत्रापि उक्तं-"मिच्छतं जमुइन्नं तं खीणं अणुइयं च उवसंतरा नां देशवा हामीसीभावपरिणयं बेइजंतं खओवसमं ॥१॥" तथा-"क्षपयत्युपशमयति वा प्रत्याख्यानावृतः कषायांस्तान् । स ततो अतिता. १५ ॥८ ॥ दायेन भवेत् तस्य विरमणे बुद्धिरल्पाल्पा ॥१॥ छेदोपस्थाप्यंवा व्रतं सामायिकं चरित्रं वा । स ततो लभते प्रत्याख्यानाहै वरणक्षयोपशमात् ॥२॥"क्षयोपशमश्च भवति विपाकोदयनिरोधे, ततोऽवसीयते-भवन्ति मिथ्यात्वाप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणादीनां सर्वघातिप्रकृतीनां सर्वघातीनि रसस्पर्द्ध कान्यध्यवसायविशेषतो विपाकोदयाभावयुक्तानीति कृतं प्रसङ्गेन । तत्रावधिज्ञानावरणप्रकृतीनां तथाविधविशुद्धाध्यवसायभावतः सर्वघातिपु रसस्पर्द्धकेषु देशघातिरूपतया परिणमितेषु देशघातिरससकेष्वपि चातिस्निग्धेश्वल्परसीकृतेषु उदयावलिकामाप्तस्यांशस्य क्षयेऽनुदीर्णस्य चोपशमे विपाकोदयविष्कम्भरूपे जीवस्यावध्यादयो गुणाः प्रादुष्प्यन्ति, उक्तं च-"निहिएसु सवाईरसेसु फडेसु देसघाईणं । जीवस्स गुणा जायन्ति ओहिमणचक्खुमाईया ॥१॥" अत्र 'निहितेघिति देशघातिरसस्पर्द्धकतया व्यवस्थापितेषु, शेष सुगम, सर्वघातीनि च रसम्पर्द्धकानि अवधिज्ञानावरणीयस्य देशघातिरसस्पर्द्धकतया परिणमयति, क N८०॥ मध्यादर्शनलम्धिः क्षायोपचमेकी सामायिकलब्धिः क्षायोपशमिकी छेदोपस्थापनलब्धिः एवं परिहारनिशुद्धि कलब्धिः सूक्ष्मपरायलभिः क्षायोपशमिकी Xचारित्राचारित्रलब्धिः॥ मिष्यात यदुवीण तत् सीर्ण मनुवर्ण चोपशान्तम् । मिश्रीभारपारण पेयमान क्षायोपशर्मिकम् ॥१॥ १निहितेषु सवैधातिरसेषु पवेषु देशपातिषु । जीवस्य गुंगा जायन्ते भवधिमनषाधुरादिकाः॥१॥ 41 SAREnatantntanational ~ 163~ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [८]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक CCCCCC [८] दाचित् विशिष्टगुणप्रतिपत्तिमन्तरेण कदाचित् पुनर्विशिष्टगुणप्रतिपत्त्या, विशिष्टगुणप्रतिपत्तिमन्तरेण कथमिति | आनुगामचेद, उच्यते, इह यथा दिवाकरमण्डलस्य धनपटलाच्छादितस्य कथञ्चिद्विस्रसापरिणामेन घनपटलपुद्गलानां निः- कादादिमे हीभूय परिक्षयतः समुपजातेन रन्त्रेण तिमिरनिकरोपसंहारहेतवो भानवः स्वावपातदेशास्पदं द्रव्यमुयोतयन्ति तथा प्रकृतिभासुरस्य आत्मनो मिथ्यात्वादिहेतूपचयोपजनितावधिज्ञानावरगपटल तिरस्कृतखरूपस्य संसारे परिभ्रमतः कथञ्चिदेवमेव तथाविधशुभाध्यवसायप्रवृत्तितोऽवधिज्ञानावरणसम्बन्धिनां सर्वघातिरसस्पर्धकानां देशघातिरसस्पर्द्धकतया जातानामुदयावलिकाप्राप्तस्यांशस्य परिक्षयतोऽनुदयावलिकाप्राप्तस्योपशमतः समुद्भतेन क्षयोपशमरूपेण रन्प्रेण विनिर्गतोऽवधिज्ञानालोकः प्रसाधयति खकार्य, कदाचित् पुनर्विशिष्टगुणप्रतिपत्तितः सर्वघातीनि रसस्पर्धकानि देशघातीनि भवन्ति, तथा चोक्तम्- . अहवा गुणपडिवन्नस्स अणगारस्स ओहिनाणं समुप्पजइ, तं समासओ छविहं पन्नतं, तंजहाआणुगामिअं १ अणाणुगामिअं २ वट्ठमाणयं ३ हीयमाणयं ४ पडिवाइयं ५ अप्पडिवाइयं ६ (सू. ९)रा हा 'अथवे ति प्रकारान्तरोपदर्शने, प्रकारान्तरता च गुणप्रतिपत्तिमन्तरेणेत्यपेक्ष्य द्रष्टव्या, गुणाः-मूलोत्तररूपाः तान् हा प्रतिपन्नो गुणप्रतिपन्नः, अथवा गुणैः प्रतिपन्नः पात्रमिति कृत्वा गुगैराश्रितो गुणप्रतिपन्नः, अनेन पात्रतायां सत्यां खयमेव गुणा भवन्तीति प्रतिपादयति, उक्तं च-"नोदवानर्षितामेति, न चाम्भोभिने पूर्वते । आत्मा तु पात्रतां १३ 569645-55%%%% दीप अनुक्रम [६०] अवधिज्ञानस्य आनुगामिकं आदि षड्भेदस्य कथनं ~164~ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................... मूल [९]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: अनुगामुकादिभेदाः १५ प्रत सत्राक श्रीमलय- नेयः, पात्रमायान्ति सम्पदः ॥१॥" अगारं-गृहं न विद्यते अगारं यस्यासावनगारः, परित्यक्तद्रव्यभावगृह इत्यर्थः, गिरीया तस्य, प्रशस्तेष्वध्यवसायेषु वर्तमानस्य सर्वघातिरसस्पर्द्धकेषु देशघातिरसस्पर्द्धकतया जातेषु पूर्वोक्तकमेण क्षयो- नन्दीवृत्तिः पशमभावतोऽवधिज्ञानमुपजायते । मनःपर्यायज्ञानावरणीयस्य तु विशिष्टसंयमाप्रमादादिप्रतिपत्तावेव सर्वघातीनि ॥८१॥ रसस्पर्घकानि देशघातीनि भवन्ति, तथास्वाभाव्यात्, तच तथाखाभाव्यं बन्धकाले तथारूपाणामेव तेषां विन्धनात्, ततो मनःपर्यायज्ञानं विशिष्टगुणप्रतिपन्नस्यैव वेदितव्यं, मतिश्रुतावरणाचक्षुर्दर्शनावरणान्तरायप्रक तीनां पुनः सर्वघातीनि रसस्पर्धकानि येन तेन चाध्यवसायनाध्यवसायानुरूपं देशघातीनि स्पर्धकानि भवन्ति, तेषां तथाखाभाव्यात् , ततो मत्यावरणादीनां सदैव देशघातिनामेव रसस्पर्द्धकानामुदयः, सदैव च क्षयोपशमः, उक्तं च पञ्चसङ्ग्रहमूलटीकायां-'मतिश्रुतावरणाचक्षुर्दर्शनावरणान्तरायप्रकृतीनां च सदैव देशघातिरसस्पर्द्धकानामेयोदयः, ततस्तासां सदैयौदायिकक्षायौपशमिको भावाविति कृतं प्रसझेन ॥ 'तद्' अवधिज्ञानं 'समासतः संक्षेपेण षड्विधं' षट्प्रकारं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-'आनुगामिक'मित्यादि, तत्र गच्छन्तं पुरुषम् आ-समन्तादनुगच्छतीत्येवंशीलमानुगामि आनुगाम्येयानुगामिकं, खार्थे का प्रत्ययः,अथवा अनुगमः प्रयोजन यस्य तदानुगामिक, यल्लोचनवत् गच्छन्तमनुगच्छति तदवधिज्ञानमानुगामिकमिति भावः । तथा न आनुगामिकं अनानुगामिक शृङ्खलाप्रतिवद्धप्रदीप इंव यत् न गच्छन्तमनुगच्छति तदवधिज्ञानमनानुगामिकं, उक्त च-"अणु१ भानुगामिकोऽनुगएछते ग बढन्तै लोचनं गथा पुरुषम् । इतरतु नानुमच्छति स्थितप्रदीप इस गच्छन्तम् ॥ १॥ KACAXCCCEACK दीप अनुक्रम [६१] ॥८१॥ ~165~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................... मूलं [१]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक [8) 054 गामिओऽणुगच्छइ गच्छंत लोअणं जहा पुरिसं । इयरो उ नाणुगच्छइ ठियप्पईवोच्च गच्छंतं ॥१॥” तथा अनुगामुकायद्धृत इति वर्द्धमान, ततः संज्ञायां कन्प्रत्ययः, बहुबहुतरेन्धनप्रक्षेपादिभिर्वर्द्धमानदहनज्वालाकलाप इव पूर्वावस्थातो दिभेदाः यथायोगप्रशस्तप्रशस्ततराध्यवसायभावतोऽभिवर्द्धमानमवधिज्ञानं वर्द्धमानकं, तचासकृद्विशिष्टगुणविशुद्धिसापेक्षत्वात्। तथा हीयते-तथाविधसामध्यभावतो हानिमुपगच्छति हीयमानं, कर्मकर्तृविवक्षायामानश्प्रत्ययः, हीयमानमेव हीयमानकं, 'कुत्सिताल्पाज्ञाते' इति कः प्रत्ययः, पूर्वावस्थातो यदधो हासमुपगच्छत्यवधिज्ञानं तत् हीयमानकमिति भावः, उक्तं च-"हीयमाणं पुच्चावत्थाओ अहोऽहो हस्समाणं" इति । तथा प्रतिपतनशीलं प्रतिपाति, यदुत्पन्नं सत् | क्षयोपशमानुरूपं कियत्कालं स्थित्वा प्रदीप इव सामस्त्येन विध्वंसमुपयाति तत्प्रतिपातीत्यर्थः । हीयमानकप्रतिपातिनोः कः प्रतिविशेष इति चेद्, उच्यते, हीयमानकं पूर्वावस्थातोऽधोऽधो हासमुपगच्छदभिधीयते, यत्पुनः प्रदीप इव निर्मूलमेककालमपगच्छति तत्प्रतिपाति, तथा न प्रतिपाति यत् न केवलज्ञानादाक् भ्रंशमुपयाति तद-15 प्रतिपातीत्यर्थः । आह-आनुगामिकानानुगामिकरूपभेदद्वये एव शेषभेदा वर्द्धमानकादयोऽन्तर्भावयितुं शक्यन्ते, तकिमर्थं तेषामुपादानं ?, उच्यते, यद्यप्यन्तर्भावयितुं शक्यन्ते तथाऽप्यानुगामिकमनानुगामिकं चेत्युक्ते न वर्द्ध१ हीयमानक पूर्वावस्थानोऽधोऽधो इसत् । दीप अनुक्रम [६१] SAREnlodmamational ~166~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................... मूलं [९]/गाथा ||४७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक दीप अनुक्रम [६१] मानकादयो विशेषा अवगन्तुं शक्यन्ते, विशेषावगमकरणाय च महतां शास्त्रारम्भप्रयासः, ततो विशेषज्ञागिरीया अपनार्थ विशेषभेदोपन्यास करणं ॥ |गतादयो ऽवधयः नन्दीवृत्तिः I से किं तं आणुगामिअं ओहिनाणं?, आणुगामि ओहिनाणं दुविहं पण्णत्तं, तंजहा-अंतगयं च । ॥८२॥ मज्झगयं च । से किं तं अंगतयं ?, अंतगयं तिविहं पन्नत्तं, तंजहा-पुरओ अन्तगयं मग्गओ अन्तगयं पासओ अन्तगयं, से किं तं पुरओ अंतगयं ?, पुरओ अंतगयं-से जहानामए केइ पुरिसे उक्कं वा चडुलिअं वा अलायं वा मणिं वा पईवं वा जोइं वा पुरओ काउं पणुलेमाणे २ गच्छेजा, से तं पुरओ अंतगयं, से किं तं मग्गओ अन्तगयं?, मग्गओ अन्तगयं-से जहानामए केइ पुरिसे है उक्कं वा चडुलिअं वा अलायं वा मणिं वा पईवं वा जोई वा मग्गओ काउं अणुकड्ढेमाणे २ ग-1 च्छिज्जा, से तं मग्गओ अंतगयं, से किं तं पासओ अंतगयं ?, पासओ अंतगयं-से जहानामए केइ । पुरिसे उकं वा चडुलिअं वा अलायं वा मणिं वा पईवं वा जोई वा पासओ काउं परिकड्डेमाणे २ गच्छिज्जा, से तं पासओ अंतगयं, से तं अंतगयं । से किं तं मझगयं ?, मझगयं से जहानामए २५ ~167~ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१०]/गाथा ||४७...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पुरतोऽन्तगतादयोबधयः प्रत सूत्रांक [१०] केइ पुरिसे उक्कं वा चडुलिअं वा अलातं वा मणिं वा पईवं वा जोई वा मत्थए काउं समुबहमाणे। परमाणे २ गच्छिज्जा से तं मज्झगयं ॥ | अथ किं तदानुगामिकमवधिज्ञानं ?, आनुगामिकमवधिज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-अन्तगतं च मध्यगतं | च, इहान्तशब्दः पर्यन्तवाची, यथा वनान्ते इत्यत्र, ततश्च अन्ते-पर्यन्ते गतं-व्यवस्थितमन्तगतम् , इहार्थत्रयव्याख्याअन्ते गतम्-आत्मप्रदेशानां पर्यन्ते स्थितमन्तगतं, इयमत्र भावना-दहावधिरुत्पद्यमानः कोऽपि स्पर्द्धकरूपतयोत्पद्यते, स्पर्द्धकं च नामावधिज्ञानप्रभाया गयाक्षजालादिद्वारविनिर्गतप्रदीपप्रभाया इव प्रतिनियतो विच्छेदविशेषः, तथा चाह जिनभद्रक्षमाश्रमणः खोपभाष्यटीकायां-'स्पर्द्धकमवधिविच्छेदविशेषः' इति, तानि चैकजीवस्य सङ्खयेयान्यसङ्ख्येवानि वा भवन्ति, यत उक्तं मूलावश्यकप्रथमपीठिकायां-"फैड्डा य असङ्जा सङ्ग्रेजा आवि एगजीवस्से"ति, तानि च विचित्ररूपाणि, तथाहि-कानिचित् पर्यन्तवर्तिधात्मप्रदेशेषूत्पद्यन्ते, तत्रापि कानिचित्पुरतः कानिचित्पृष्ठतः कानिचिदधोभागे कानिचिदुपरितनभागे तथा कानिचिन्मध्यवर्त्तिवात्मप्रदेशेषु, तत्र यदा अन्तवर्तिवात्मप्रदेशेष्ववधिज्ञानमुपजायते तदा आत्मनोऽन्ते-पर्यन्ते स्थितमितिकृत्वा अन्तगतमित्युच्यते, तैरेव पर्यन्तवर्तिभिरात्मप्रदेशैः साक्षादवधिरूपेण ज्ञानेन ज्ञानात् न शेषैरिति, अथवा औदारिकशरीरस्थान्ते गत-स्थितं अन्तगतं, दीप अनुक्रम [६२] 4%A0%C360 १२ REnhinmamarana ~168~ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [१०] दीप अनुक्रम [६२] श्रीमलय गिरीया नन्दीवृत्तिः ॥ ८३ ॥ Jan Eucatur “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१०] / गाथा || ४७...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः | कयाचिदेकदिशोपलम्भात् इदमपि स्पर्द्धक रूपमवधिज्ञानं, अथवा सर्वेषामप्यात्मप्रदेशानां क्षयोपशमभावेऽपि | औदारिकशरीरान्तेनैकया दिशा यद्वशादुपलभ्यते तदप्यन्तगतम् । आह-यदि सर्वात्मप्रदेशानां क्षयोपशमस्ततः सर्वतः किं न पश्यति ?, उच्यते, एकदिशैय क्षयोपशमसंभवात् विचित्रो हि क्षयोपशमः, ततः सर्वेषामप्यात्म प्रदेशानामित्थम्भूत एव खसामग्रीवशात् क्षयोपशमः संवृत्तो यदादारिकशरीरमपेक्ष्य कयाचित् विवक्षितयैकया दिशा पश्यतीति, उक्तं चूण्ण- “ओरालियसरी रंते टियं गयंति एगहूं, तं चायप्पएसफडगा बहि एगदिसोवलम्भाओ य अंतगयमोहिनाणं भन्नइ, अवा सचायप्पएसेसु विमुद्धेऽचि ओरालियमरीरगन्तेण एगदिसि पासणा गयंति अन्तगयं भन्नइ" । तृतीयोऽर्थ एकदिग्भाविना तेनावधिज्ञानेन यदुद्योतितं क्षेत्रं तस्यान्ते वर्त्तते तदवधिज्ञानम्, अवधिज्ञानवतः तदन्ते वर्त्तमानत्वात्, ततोऽन्ते - एकदिग्रूपस्यावधिज्ञानविषयस्य पर्यन्ते व्यवस्थितमन्तगतं । चशब्दो देशकालाद्यपेक्षया खगतानेकभेदसूचकः, तथा 'मध्यगतं चेति इह मध्यं प्रसिद्धं दण्डादिमध्यवत्, ततो मध्ये गतं मध्यगतं इदमपि त्रिधा व्याख्येयं, आत्मप्रदेशानां मध्ये-मध्यवर्त्तिष्वात्मप्रदेशेषु गतं स्थितं मध्यगतं इदं च रूपकरूपमवधिज्ञानं सर्वदिगुपलम्भकारणं मध्यवर्त्तिनामात्मप्रदेशानामवसेयम्, अथवा सर्वेषामप्यात्मप्रदेशानां क्षयोप १] दारिकशरीरस्यान्ते स्थितं गतमिति एकार्थी, तचात्म प्रदेशस्पर्धकात् बहिरेकदिशोपलम्भात् अन्तगतमवधिज्ञानं भण्वते, अथवा सर्वात्मप्रदेशेषु विशुदेष्वपि औदारिकशरीरस्यान्तेन दिशि दर्शनात् गतमिलन्तगतं भष्यते । For Penal Use On ~169~ | पुरतोऽन्त गतादयोऽवधयः १५ २० ॥ ८३ ॥ २५ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [१०]/गाथा ||४७...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - 55555 शमभावेऽप्यौदारिकशरीरमध्यभागेनोपलब्धिस्तन्मध्ये गतं मध्यगतं, उक्तं चूर्णी-"ओरालियसरीरमज्झे फहमविसद्धीओपुरतोस्तसवायप्पएसविसुद्धीओ वा सबदिसोवलम्भत्तणओ मझगउत्ति भन्नति" अथवा तेनावधिज्ञानेन यदुद्योदितं क्षेत्रं गतादयोसर्वासु दिक्षु तस्य मध्ये-मध्यभागे गतं-स्थितं मध्यगतम् , अवधिज्ञानिनः तदुद्योतितक्षेत्रमध्यवर्त्तित्वात् , आह ची चूर्णिणकृत्-"अहंवा उपलद्धिखेत्तस्स अवहिपुरिसो मझगउत्ति, अतो वा मझगओ ओही भन्नई" इति, चशब्दः खगतानेकभेदसूचकः-अथ किं तदन्तगतं ?, अन्तगतं 'त्रिविधं' त्रिप्रकारं प्रज्ञप्तम् , तद्यथातत्र 'पुरतः' अवधिज्ञानिनः खन्यपेक्षया अग्रभागेऽन्तगतं पुरतोऽन्तगतं, तथा मार्गतः-पृष्ठतः अन्तगतं मार्गतोऽन्तगतं, तथा पार्थतो-द्वयोः पार्श्वयोरेकतरपार्श्वतो वाऽन्तगतं पार्थतोऽन्तगतं । अथ किं तत्पुरतोऽन्तगतं ?, से जहा' इत्यादि, 'स' विवक्षितो यथानामकः कश्चित्पुरुषः, अत्र सर्वेष्वपि पदेधेकारान्तत्वम् 'अतः सौ पुंसी'ति मागधिकभाषालक्षणात् , सर्वमपि हि प्रवचनमर्द्धमागधिकभाषात्मकम् , अर्धमागधिकभाषया तीर्थकृतां देशनाप्रवृत्तेः, ततःप्रायः सर्वत्रापि मागधिकभाषालक्षणमनुसरणीयं । 'उक्का चेति' उल्का-दीपिका, वाशब्दः सर्वोऽपि विकल्पार्थः, 'चटुली वा' चटुली:-पर्यन्तज्वलिततृणपूलिका 'अलातं वा' अलातमुल्मुकं अग्रभागे ज्वलत्काष्ठमित्यर्थः, 'मणिर्वाटी १ औदारिकशरीरमध्ये स्पर्धकविशुद्धः सर्वारमप्रदेश विशुद्धितो वा सर्वदिशोपलम्भात् गध्यगतमिति भष्यते । २ अथबोपलब्धिक्षेत्रस्यावधिपुरुषो मध्यगत इति अतो वा मध्यगतमबधिर्भयते । दीप अनुक्रम [६२] १३ REACasonal ~170~ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१०]/गाथा ||४७...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पुरतोऽन्तगता दयोजधायः १५ प्रत सूत्रांक [१०] श्रीमलय- मणिः-प्रतीतः, 'ज्योतिर्वा' ज्योतिः शरावाद्याधारो ज्वलन्ननिः, आह च चूर्षिणकृत्-"जोइत्ति मल्लगाइठिओ| गिरीया अगणी जलंतो" इति, 'प्रदीपं बा' प्रदीप:-प्रतीतः 'पुरतः' अग्रतो हस्ते दण्डादौ वा कृत्वा 'पणोलेमाणोति प्रणुनन्दीचिःदन २ हस्तस्थितं वा क्रमेण खगत्यनुसारतः प्रेरयन् २ 'गच्छेत्' यायात्, एप दृष्टान्तः, उपनयस्तु खयमेव भावnानीयः, तत उपसंहार:-'से तं पुरओ अंतगयं' सेशन्दः प्रतिवचनोपसंहारदर्शने, तदेतत् पुरतोऽन्तगतं. इयमत्र भावना-यथा स पुरुष उल्कादिभिः पुरत एव पश्यति, नान्यत्र, एवं येनावधिज्ञानेन तथाविधक्षयोपशमभावतः पुरत एव पश्यति, नान्यत्र, तदवधिज्ञानं पुरतोऽन्तगतमभिधीयते । एवं मार्गतोऽन्तयतपार्थतोऽन्तगतसूत्रं भावनीयं, दानवरं 'अणुकहृमाणे अणुकढेमाणे'त्ति हस्तगतं दण्डाग्रादिस्थितं वा अनु-पश्चात् कर्षन् अनुकर्षन्, पृष्ठतः पश्चात् कृत्वा समाकर्पन २ इत्यर्थः । तथा 'पासओ परिकमाणे'त्ति पाचतो दक्षिणपार्थतोऽथवा वामपार्थतो यद्वा द्वयोरपि पार्श्वयोरुल्कादिकं हस्तस्थितं दण्डाग्रादिस्थितं वा परिकर्षन् , पार्श्वभागे कृत्वा समापन समाकर्षन्नित्यर्थः, से किं तं मझगतमि'त्यादि निगदसिद्धं नवरं 'मस्तके शिरसि कृत्वा गच्छेत् तदेतत् मध्यगतं, इयमत्र भावना-यथा दातेन मस्तकस्थेन सर्वासु दिक्षु पश्यति, एवं येनावधिज्ञानेन सर्वासु दिक्षु पश्यति तन्मध्यगतमिति । इत्यम्भूतां च | सव्याख्यां सम्यगनवबुध्यमानः शिष्यः प्रश्नं करोति-- दीप अनुक्रम [२] ॥८ ॥ १ ज्योति रिति मारकादिस्थितोऽमिज्वलन् ~ 171~ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१०]/गाथा ||४७...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम अंतगयस्स मज्झगयस्स य को पइविसेसो ?, पुरओ अंतगएणं ओहिनाणेणं पुरओ चेव सं अन्तगतमखिज्जाणि वा असंखेजाणि वा जोअणाई जाणइ पासइ, मग्गओ अंतगएणं ओहिनाणेणं माध्यगतावधी मग्गओ चेव संखिजाणि वा असंखिज्जाणि वा जोयणाई जाणइ पासइ, पासओ अंतगएणं पासओ चेव संखिज्जाणि वा असंखिजाणि वा जोअणाई जाणइ पासइ, मज्झगएणं ओहिनाणेणं सव्वओ समंता संखिजाणि वा असंखिज्जाणि वा जोअणाई जाणइ पासइ, से तं । अणुगामिअं ओहिनाणं ॥ (सू. १०) अन्तगतस्य मध्यगतस्य च परस्परं का प्रतिविशेषः-प्रतिनियतो विशेषः १, सूरिराह-पुरतोऽन्तगतेनावधिज्ञानेन पुरत एव-अग्रत एव सङ्ख्येयानि-एकादीनि शीर्षप्रहेलिकापर्यन्तानि असङ्ख्ययानि वा योजनानि, एतावत्सु योजनेप्ववगाढं द्रव्यमित्यर्थः, जानाति पश्यति, ज्ञानं विशेषग्रहणात्मक दर्शनं सामान्यग्रहणात्मक, तदेवं पुरतोऽन्तगतस्य शेिषावधिज्ञानेभ्यो भेदः, एवं शेषाणामपि परस्परं भावनीयः, नवरं 'सबओ समंता' इति सर्वतः-सर्वासु दिग्विदिक्ष समन्तात्-सर्वरेवात्मप्रदेशः सबैवा विशुद्धस्पर्द्धकः, उक्तं च चूण्णौं-"सर्वउति सचासु दिसिविदिसासु, समंता इति 1 सर्वत इति सर्वासु दिग्विदिक्षु समन्तादिति [२] ~172~ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१०]/गाथा ||४७...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक १५ [१०] दीप अनुक्रम [६२] सवायप्पएसेसु सच्चेसु का विसुद्धिफडेगसु” इति, अत्र 'सञ्चायप्पएसेसु' इत्यादिस्तृ(त्यत्र तृतीयार्थे सप्तमी, नारकासु रादीनामगिरीया भवति च तृतीयार्थे सप्तमी, यदाह पाणिनिः खप्राकृतलक्षणे-'व्यत्ययोऽप्यासा'मित्यत्र सूत्रे, तृतीयाचे ससमी नन्दीवृत्तिः वधिः 18 यथा-तिसु तेसु अलंकिया पुहयि' इति, अथवा स मन्ता इत्यत्र स इत्यवधिज्ञानी परामृश्यते, मन्ता इति ज्ञासा, ॥ ५॥ शेषं तथैव । अथ किमवधिज्ञानं केषामसुमतां भवतीति चेद्, उच्यते, देवनारकतीर्थकृतामवश्यं मध्यगतं तिरश्चा-18 मन्तगतं मनुष्याणां तु यथाक्षयोपशममुभयं, तथा चोक्तं प्रज्ञापनायां-"नेरैइयाणं भंते ! कि देसोही संबोही?,16 गोयमा! नो देसोही सबोही, एवं जाव थणियकुमाराणं । पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोअमा! देसोही न सचोही । मणुस्साणं पुच्छा, गोयमा ! देसोहीवि सबोहीवि । वाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं जहा नेरइयाणं"। वक्ष्यति च-"नेरइय देव तित्थंकरा य ओहिस्सऽबाहिरा होति । पासंति सबओ खलु सेसा देसेण पासंति ॥१॥"IX देवनारकाणां च मध्यगतमवधिरूपं ज्ञानमाभवपर्ति, भवप्रत्ययत्वात्तस्य, तीर्थकृतां त्वाकेवलज्ञानं, केवलज्ञानोत्पत्ती दातस्य व्यवच्छेदात्, ननु सङ्खयेयानि असंख्येयानि वा योजनानि पश्यन्तीत्युक्तं, तत्र के जीवाः कति योजनानि | सर्वात्मप्रदेशे; सबै विद्धिस्पर्धकः । २ त्रिभिसीरतरकता पृथ्वी। रयिकाणां भदन्त ! कि देशावधिः सोपपिः, गौतम 1 न देशावधिः सबोषित। एवं वायत्तनितकुमाराणा । पहेन्द्रियतिबग्योनिजानां पृच्छा, गोतम | देशावधिः न सावधिः, मनुष्याणां पुछाला, गौतमी देशावधिरपि सर्वावधिरपि ।। दयन्तरज्योतिकवैमानिकानां यथा नरविकाणां । ४ सर्वोऽवधिर्भवति सावधिर्भमति । ५ नैरयिका देवास्तीर्थकराच अवधेरवाया भवन्ति । पश्यन्ति सर्वतः खल शेषा देशेन पश्यन्ति ॥ १॥ २४ ~173~ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [१०]/गाथा ||४७...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक पश्यन्तीति?, उच्यते, इह तिर्यग्मनुष्या अनियतपरिमाणावधयः, तथाहि-केचिदमुलासङ्खयेयभा केचिदमुलं केचि-1 नारकासुद्विततिं यावत्केचित् सङ्ख्येयानि योजनानि केचिदसङ्ख्येयानि, मनुष्यास्तु केचित् परिपूर्ण लोकं, केचिदलोकेऽपि लोक-13 रादीनाममात्राणि असंख्येयानि खण्डानि, ये तु देवनारकास्ते प्रतिनियतावधिपरिमाणाः ततः तेषां प्रतिनियतं क्षेत्रपरिमाण-1 लाका वधिः . ४/ मुच्यते-तत्र रलप्रमानारका जघन्यतोऽर्द्धचतुर्थानि गव्यूतानि क्षेत्रमवधिज्ञानतः पश्यन्ति, उत्कर्षतश्चत्वारि गव्यूतानि | १, शर्करप्रभानारका जघन्यतस्त्रीणि गव्यूतानि उत्कर्षतोऽर्द्धचतुर्थानि २, वालुकप्रभानारका जघन्यतोऽर्द्धतृतीयानि गव्यूतानि उत्कर्षतस्वीणि गब्यूतानि ३, पङ्कप्रभानारका जघन्यतो द्वे गव्यूते, उत्कर्षतोऽर्द्धतृतीयानि ४, धूमप्रभानारका जघन्यतोऽर्द्धाधिकं गव्यूतमुत्कर्षतो द्वे गव्यूते ५, तमःप्रभानारका जघन्येनैकं गब्यूतमुत्कर्षतः सार्धं गन्यूतं ६, तमतमः-ग प्रभानारका जघन्यतोऽर्द्धगव्यूतमुत्कर्षतो गव्यूतं, तथा चोक्तं प्रज्ञापनायां-"रयणप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! केव-15 इयं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति ?, गोमा ! जहन्नेणं अबुट्टाई गाउयाइं जाणंति पासंति उक्कोसेणं चत्तारि गाउआई जाणंति पासंति, सक्करप्पभापुढविनेरइया णं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं तिन्नि गाउयाई उक्कोसेणं अबुट्ठाई गाउयाई जाणंति पासंति, बालुयप्पभापुढविनेरइया णं पुच्छा, गोअमा! जहन्नेणं अड्डाइजाई गाउआई उक्कोसेणं तिन्नि गाउआई १ राप्रभाथ्वीनरयिका भदन्त ! कियत क्षेत्रमवधिना जानन्ति पश्यन्ति !, गौतम ! जघन्येनाध्युधानि गव्यूतानि जानन्ति पश्यन्ति उत्कृष्टवश्वलारि गब्यूतानि जानन्ति पश्यन्ति । शर्करप्रभागृथ्वीनैरयिकाः पृच्छा, गौतम । जघन्येन त्रीणि गव्यूतानि उत्कृटेनाभ्युष्टानि गव्यूतानि जानन्ति पश्यन्ति । वालुकापृथ्वीनैरयिकाः पृथ्ठा, गौतम । जघन्येनार्थतृतीयानि गम्यूतानि उत्कृष्टेन त्रीमि गन्यूतानि दीप अनुक्रम -25 4 [२] %A animational ~ 174~ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [१०]/गाथा ||४७...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक १५ [१०] श्रीमलय- जाति पासंति, पंकप्पभापुढविनेरइया णं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं दोन्नि गाउइयाई उकोसेणं अहाइजाई गाउयाई। गिरीया सदजाणंति पासंति, धूमप्पभापुढविनेरइया णं पुच्छा, गोअमा! जहन्नणं दिवडे गाउयं उक्कोसेणं दो गाऊआई जाणंति |रादीनामनन्दीवृत्तिः पासंति, तमापुढविनेरइया णं पुच्छा, गोजमा ! जहन्नेणं गाउयं उक्कोसेणं दिवडे गाउयं जाणंति पासंति, अहे। वधिः ॥८६॥ सत्तमपुढविनेरइया णं भंते ! पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अद्धगाउयं उकोसेणं गाउयं जाणंति पासंति । असुरकु माराः पुनरवधिज्ञानतो जघन्यतः क्षेत्रं पञ्चविंशतियोजनानि जानन्ति पश्यन्ति उत्कर्षतोऽसख्येयान् द्वीपसमुद्रान्, नागकुमारादयः पुनः सर्वेऽपि स्तनितकुमारपर्यन्ता जघन्यतः पञ्चविंशति योजनानि जानन्ति पश्यन्ति उत्कर्षतः सङ्खयेयान् द्वीपसमुद्रान्, एवं व्यन्तरा अपि, तथा चोक्तम्-'असुर कुमाराणं भंते ! ओहिणा केवइयं खेत्तं जाणंति। पासंति ?, गोअमा! जहन्नेणं पणवीसं जोयणाई उक्कोसेगं असङ्ग्रेजदीयस मुद्दे ओहिणा जाणंति पासंति, नागकुमारा णं पुच्छा, गोमा ! जहन्नेणं पणवीसं जोयणाई उक्कोसेणं संखेचदीवस मुद्दे जाणंति पासंति, एवं जाव थणिय- २० 26* * * दीप अनुक्रम [६२] १ जानन्ति पश्यन्ति । परप्रभापृथ्वीनरयिकाः पृच्छा, गीतम! जघन्येन द्वे गव्यूते उत्कृष्टेनार्धतृतीयानि गम्यूतानि जानन्ति पश्यन्ति । धूमपभापृथ्वीनरविकाः पृच्छा, गौतम ! जघन्येन सार्धगम्यूतं उत्कृष्टेन गम्यूते जानन्ति पश्यन्ति । तमःप्रभापृथ्वी नरयिकाः पृच्छा, गौतम! जघन्येन गम्यूतं उत्कृष्टेन साधगम्यूत जानन्ति पश्यन्ति । अथासप्तमपृथ्वीनरयिकाः भदन्त ! पृच्छा, गौतम | अधन्येनार्धगन्यूतं उत्कृष्टेन गम्पू जानन्ति पश्यन्ति । २ असुरकुमारा भदन्त । अवधिना कियत् क्षेत्र जानन्ति पश्यन्ति गौतम! जयन्येन पचविंशति योजनानि उत्कृष्टतोऽसंरूपयान् द्वीपसमुदान अवधिना आनन्ति पश्यन्ति । नागकुमाराः पृच्छा, गातम | जपन्येन पाविधार्वि योजनानि उस्तन संस्थान द्वीपसमुदान जानन्ति पश्यन्ति । एवं यावत् स्खनित । ~ 175~ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१०]/गाथा ||४७...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०] कुमारा, वाणमंतरा जहा नागकुमारा" । इह पञ्चविंशतियोजनानि भवनपतयो व्यन्तरा वा जघन्यतस्ते पश्यन्ति नारकासुयेषामायुर्दशवर्षसहस्रप्रमाणं, न शेषाः, आह च भाष्यकृत्-"पणवीसजोयणाई दसवाससहस्सिया ठिई जेसि"मिति । | रादीनाम वधिः ज्योतिष्काः पुनर्देवा जघन्यतोऽपि सङ्ख्येयान् द्वीपसमुद्रानवधिज्ञानतः पश्यन्ति, उत्कर्षतोऽपि सङ्ख्येयान् द्वीपसमुद्रान्, केवलमधिकतरान्, यदाह-"जोइसिया णं भंते ! केवइयं खित्तं ओहिणा जाणंति पासंति', गोयमा ! जहन्नेणऽवि संखेजे दीवसमुद्दे उक्कोसेणवि संखेजे दीवसमुद्दे" । सौधर्मकल्पवासिनो देवाः पुनरवधिज्ञानतो जब-18 न्येनाकुलासङ्ख्येयभागमात्रं पश्यन्ति उत्कर्षतोऽधस्ताद्रलप्रभायाः पृथिव्याः सर्वान्तिममधस्तनं भाग यावत् , तिर्यक्षु | असङ्खयेयान् द्वीपसमुद्रान् , ऊर्दू तु खकल्पविमानस्तूपध्वजादिकं, एवमीशानदेवा अपि । अत्राह-नन्वङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्रक्षेत्रपरिमितोऽवधिः सर्वजघन्यो भवति, सर्वजघन्यश्चावधिस्तिर्यग्मनुष्येषेव, न शेषेपु, यत आह भाप्यकृत्स्वकृतभाष्यटीकायाम् “उत्कृष्टो मनुष्येषेव, नान्येषु, मनुष्यतिर्यग्योनिष्वेव जघन्यो नान्येषु, शेषाणां मध्यम एवे"ति, तत्कथमिह सर्वजघन्य उक्तः?, उच्यते, सौधर्मादिदेवानां पारभविकोऽप्युपपातकालेऽवधिः सम्भवति, स च सर्वजघन्योऽपि कदाचिदवाप्यते, उपपातानन्तरं तु तद्भवजः, ततो न कश्चिदोषः, आह च दुष्पमान्ध दीप अनुक्रम [६२] 4G मारा, व्यन्तरा यथा नागकुमाराः । २ पञ्चविंशति योजनानि दश वर्भसहसा णि स्थितिषामिति । ज्योति का भदन्त ! कियत् क्षेत्रमवधिना जागन्नि पश्यन्ति !, गौतम! जघन्येनापि संख्येयान दीपसमुहान् उत्कृष्ट मापे संख्येयान् द्वीपसमूदान् ।। ~ 176~ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [१०] दीप अनुक्रम [६२] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१०] / गाथा || ४७...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः श्रीमलयगिरीया ॥ ८७ ॥ कारनिमग्नजिनप्रवचनप्रदीपो जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणः - "वेमाणियाणमंगुलभागमसंखं जहन्नओ होइ ( ओही ) । नन्दीवृत्ति: है उपवाए परभविओ तन्भवजो होइ तो पच्छा ॥ १ ॥” एवं सनत्कुमारादिदेवानामपि द्रष्टव्यम्, नवरमधोभागदर्शने विशेषः ततः स प्रदर्श्यते - सनत्कुमारमाहेन्द्रदेवा अधस्तात् शर्करप्रभायाः सर्वान्तिममधस्तनं भागं यावत्पश्यन्ति, ब्रह्मलोकलान्तकदेवास्तृतीयपृथिव्याः, महाशुक्रसहस्रारकल्पदेवाश्चतुर्थपृथिव्याः, आनतप्राणतारणाच्युतदेवाः पञ्चमपृथिव्याः, अधस्तनमध्यम ग्रैवेयकदेवाः पष्ठपृथिव्याः उपरितनयैवेयकदेवाः सप्तमपृथिव्याः, अनुत्तरोपपातिनः सम्पूर्ण लोकनालिं चतुर्दशरज्यात्मिकामिति, उक्तं च प्रज्ञापनायां - "सोहम्मगदेवा णं भंते! केवइयं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति ?, गोयमा ! जहन्त्रेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए हेडिले चरमंते, तिरियं जाव असंखेज्जे दीवससुद्दे, उहं जाव सगाई विमाणाई ओहिणा जाणंति पासंति । एवं ईसाणगदेवावि, सणकुमारदेवा एवं चैव, नवरं अहे जाव दोचाए सकरप्पभाए पुढविए हिट्टिले चरिमंते, एवं माहिंददेवावि, बंभलोगलंतगदेवा तथाए पुढवीए हिद्विले चरिमंते, महासुकसहस्सारदेवा चउत्थीए पंकप्पभाए १ वैमानिकानामङ्गल भागोऽसंख्यो जघन्योऽवधिर्मवति । उपपाते पारभविकस्तद्भवजी भवति ततः पश्चात् ॥ १ ॥ २ सौधर्मदेवा भदन्त कियत् क्षेत्रमा जानन्ति पश्यन्ति !, गौतम जघन्येनास्या संख्येयभाग उत्कृष्टेन यावदस्या रत्नप्रभाया अघस्तनथरमान्तः, तिर्यग्यावत् असंख्यातान् द्वीपसमुदान् ऊर्ध्व यावत् कानि विमानानि अवधिना जानन्ति पश्यन्ति । एवमीशानदेवा अपि सनत्कुमारदेवा एवमेव नवरं अयो यावद्वितीयस्थः शर्करप्रभायाः पृथ्या अघतनअरमान्तः एवं माहेन्द्रा देवा अपि ब्रह्मलोकान्तकदेवास्तृतीयायाः पृथ्व्या अघस्तन धरमान्तः, महाशुक सहस्रारदेवाचतुथ्योः पद्मप्रभायाः For Par Use Only Education Internationa ~ 177 ~ नारकासु रादीनाम वधिः. १५ २० २१ 1129 11 anrary org Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [१०]/गाथा ||४७...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०] COLORSCORG पुढबीए हेडिल्ले चरिमंते, आणयपाणयआरणअचुयदेवा अहे पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए हेहिले चरिमन्ते, नारकासु रादीनामहेटिममज्झिमगेवेजगदेवा अहे जाव छट्ठीए तमाए पुढवीए हेहिले चरिमंते, उपरिमगेवेजगदेया णं भंते 111 वधि : केवइयं खेतं ओहिणा जाणंति पासंति ?, गोयमा। जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइमार्ग, उक्कोसेणं अहे सत्तमाए पुढवीए हेढिल्ले चरिमंते, तिरियं जाव असंखेजदीक्समुद्दे, उहं जाव सगाई विमाणाई ओहिणा जाणंति पासंति । अणुत्तरोववाइया णं देवा णं भंते ! केवइयं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति ?, गोयमा! संमिन्नं लोगनालिं जाणंति पासंति" । सम्प्रति नारकादीनामेवावधेः संस्थानं चिन्यते,-तत्र नारकाणामवधिः तप्राकारः, तप्रो नाम काष्ठस| मुदायविशेषो यो नदीप्रवाहेण प्लाव्यमानो दूरादानीयते, स चायतख्यत्रश्च भवति, तदाकारोऽवधि रकाणां, भव-18 नपतीनां सर्वेषामपि पल्लकसंस्थानसंस्थितः पलको नाम लाटदेशे धान्याधारविशेषः, स चोर्दायत उपरि च किञ्चिसंक्षिप्तः, व्यन्तराणां पटहसंस्थानसंस्थितः, पटहः-आतोद्यविशेषः, स च किश्चिदायतः, उपर्यधश्च समप्रमाणः, ज्योतिषकदेवानां झलरीसंस्थानसंस्थितः, झलरी-चौवनद्धविस्तीर्णवलयाकारा आतोयविशेषरूपा देशविशेष दीप अनुक्रम [२] १पृभ्या अधस्तनधरमान्तः, आमतप्राणतारणाच्युतदेवा अधः पञ्चम्या धूमप्रभायाः पृथ्व्या अधस्तनश्वरमान्तः, अघलनमभ्यमवेयकदेवा यावत् षण्मास्तमःपृथ्व्या अधसमथरमान्तः, उपरितनवेयकदेवा भदन्त | कियत् क्षेत्र अवधिना जानन्ति पश्यन्ति ! गौतम। अधन्येनालयासंख्येषभाग उत्कृप्टेन अषः सप्तम्या: पृष्या अधस्तनधरमान्तः, तियेग वापत, असंख्येयान दीपसमुद्रान्, ऊर्षे यावत् खकानि विमानानि अवधिना जानन्ति पश्यन्ति । अनुत्तरोपपालिका देवा | भदन्त ! कियत् क्षेत्रमवधिना जानन्ति पश्यन्ति !, गौतम ! संमिन्त्रां लोकनाडिकां जानन्ति पश्यन्ति Hreemurary.org ~178~ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१०]/गाथा ||४७...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: गिरीया नारकासुरादीनामवधिः प्रत सूत्रांक [१०] श्रीमलय- प्रसिद्धा, सौधर्मदेवादीनामच्युतदेवपर्यन्तानां मृदङ्गसंस्थानसंस्थितः, मृदङ्गो-वाद्यविशेषः, स चाधत्ताद्विस्तीर्ण नन्दीवृत्तिः उपरि च तनुकः सुप्रतीतः, अवेयकदेवानां अथितपुष्पसशिखाकभृतच रीसंस्थानसंस्थितः, अनुत्तरोपपातिकदेवानां IPकन्याचोलकापरपर्यायजवनालकसंस्थानसंस्थितः, उक्तं च-नेरेइयाणं भंते ! ओही किंसंठाणसंठिए पण्णत्ते !, ॥८८॥ गोयमा ! तप्पागारसंठाणसंठिए पण्णते, असुरकुमाराणं पुच्छा, गोअमा! पल्लगसंठाणसंठिए पपणत्ते, एवं जाव थणियकुमाराणं, वाणमंतराणं पुच्छा, गोयमा! पडहसंठाणसंठिए पण्णत्ते, जोइसिआणं पुच्छा, गोअमा! झल्लरीसंठाणसंठिए पण्णत्ते, सोहम्मदेवाणं पुच्छा, गोजमा ! मुइंगसंठाणसंठिए पण्णत्ते, एवं जाव अचुयदेवाणं, गेवेजगदेवाणं पुच्छा, गोमा ! पुप्फचंगेरीसंठाणसंठिए पण्णते, अणुत्तरोववाइयदेवाणं पुच्छा, गोअमा! जवनालगसंठाणसंठिए पन्नचे"। तप्राकारादीनां च व्याख्यानमिदं भाष्यकृदाह-"तप्पेणं समागारो ओही नेओस चाययत्तंसो। उद्घाययो उ पल्लो उवरिं च स किंचि संखेत्तो ॥१॥ नचायओ समोऽविय पडहो हेहोवरि पईएसो दीप अनुक्रम [६२] CCCC नरविकाशी भदन्त ! अवधिः किं संस्थानसंस्थितः प्रकप्तः, गौतम ! तपाकार संस्थानसंस्थितः प्राप्तः । असुरकुमाराजां पृच्छा, गौतम | पत्यकसंस्थानस्थितः प्रज्ञप्तः, एवं यावत्स्त नितकुमाराणां । ब्यन्तराणां पृच्छा, गौतम | पटइसंस्थान संस्थितः प्रज्ञप्तः । ज्योतिष्काणां पृच्छा, गौतम | मल्लरी संस्थानसंस्थितः प्राप्तः । Dn८८॥ | सौधर्मदेवानां पृच्छा, गौतम! मृदा संस्थान संस्थितः प्रज्ञप्तः, एवं यावदच्युतदेवाना, प्रयकदेवानों पृच्छा, गौतम 1 पुष्पररी संस्थान संस्थितः प्रज्ञतः । अनुतरोपपातिकदेवानां पृच्छा, गौतम ! यवनालकमस्थानसंस्थितः प्रज्ञप्तः। २ तप्राकारेण समाकारोऽवपिपासचायतध्यक्षः । यतस्तु पत्य उपरि बस किचित् संक्षिप्तः॥१॥ भाखावतः समोऽपि च पठहोऽयस्तन उपरि च प्रतीत एषः ~179~ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [१०]/गाथा ||४७...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक चम्मविणद्धविच्छिन्नवलयरूवा य झलरिया ॥२॥ उद्धायओ मुइंगो हेवा रुंदो तहोवरि तणुओ। पुप्फसिहावलिरइया. अनानुगाचंगेरि पुष्फचंगेरी ॥३॥ जवनालउत्ति भन्नइ उम्भो सरकंचुओ कुमारीए" इति । तिर्यग्मनुष्याणां चावधिर्नाना मिकोड वधिः संस्थानसंस्थितो यथा खयम्भूरमणोदधौ मत्स्याः, अपि च-तत्र मत्स्यानां वलयाकारं संस्थानं निषिद्धं, तिर्यग्मनु दसू.११ घ्यावधौ तु तदपि भवति, उक्तं च-"नांणागारो तिरियमणुएसु मच्छा सयंभुरमणोछ । तत्थ वलयं निसिद्धं तस्स पुण तयंपि होजाहि ॥१॥" तथा भवनपतिव्यन्तराणामू प्रभूतोऽवधिर्भवति, वैमानिकानामधः, ज्योतिष्कनारकाणां तिर्यग, विचित्रो नरतिरश्चाम् , आह च-भवणवइवंतराणं उर्ख बहुगो अहो य सेसाणं । नारगजोइसियाणं तिरियं ओरोलिओ चित्तो॥१॥ तदेवमुक्तमानुगामिकमवधिज्ञानं, तथा चाह-से तं अणुगामियं ॥' सम्प्रत्यनानुगामिकं शिष्यः पृच्छन्नाह से किं तं अणाणुगामि ओहिनाणं?, अणाणुगामि ओहिनाणं से जहानामए केइ पुरिसे एगं महंतं जोइटाणं काउं तस्सेव जोइट्राणस्स परिपेरंतेहिं २ परिघोलेमाणे २ तमेव जोइटाणं १चविनविस्तीर्णबल यरूपा च शहरी ॥ २ ॥धीयतो मोऽवस्ताविस्तीर्णस्तथोपरि तनुकः । पुषशिसावलिरचिता बनेरी पुष्पचोरी ॥३॥ यवनालक इति भाते कर्षः सरकाका कुमायो। + वादिनविशेष: + विस्तीर्ण + वलयाकारमपि + चोयतः + वैमानिकानां +भादारिको मरतिरक्षा + चित्रोऽवधिरित्यपः। २ नानाकारस्तियन्मनुष्यपु मत्स्याः सयम्भूरमण इन । तत्र बलवं निषिद्धं तस्य पुनस्वदपि भवेत् ॥1॥ भवनपति यन्तराधामू पहुकोऽष शेषाणां ।। नारकज्योतिष्काणां तिर्यक् औदारिकश्चित्रः॥१॥ दीप अनुक्रम [२] १० SAREntatuninternational ~180~ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [११]/गाथा ||४७...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ॥८९॥ SSACREADS सूत्रांक [११] | १५ दीप अनुक्रम [६३] पासइ, अन्नत्थ गए न पासइ, एवामेव अणाणुगामिअं ओहिनाणं जत्थेव समुप्पजइ तत्थेव अनानुगासंखेजाणि असंखेजाणि वा संघद्धाणि वा असंबद्धाणि वा जोअणाई जाणइ पासइ, अन्नस्थ मिको वधिःगए ण पासइ, से तं अणाणुगामि ओहिनाणं (सू०११) अथ किं तदनानुगामिकमवधिज्ञानं ?, सरिराह-अनानुगामिकमवधिज्ञानं स-विवक्षितो यथानामकः कश्चित्पुरुषः पूर्णः सुखदुःखानामिति पुरुषः पुरि शयनाद्वा पुरुषः, एकं महज्योतिःस्थान-अग्निस्थानं कुर्यात् , कस्मिंश्चित्स्थानेऽने कज्वालाशतसङ्कलमग्निं प्रदीपं वा स्थूलवर्त्तिज्वालानुरूपमुत्पादयेदित्यर्थः, ततस्तत्कृत्वा तस्यैव ज्योतिःस्थानस्य परिपर्य&ान्तेषु २' परितः सर्वासु दिनु पर्यन्तेषु 'परिघूर्णन् २' परिभ्रमन् २ इत्यर्थः, तदेव 'ज्योतिःस्थान' ज्योतिःस्थानप्रकाशित क्षेत्रं पश्यति, अन्यत्र गतो न पश्यति, एष दृष्टान्तः, उपनयमाह-एवमेव' अनेनैव प्रकारेणानानुगामिकमवधिज्ञानं यत्रय क्षेत्र व्यवस्थितस्य सतः समुत्पद्यते तत्रैव व्यवस्थितः सन् सङ्गधेयानि असोयानि वा योजनानि खावगाढक्षेत्रेणी सह सम्बद्धानि असम्बद्धानि वा, अवधिर्हि कोऽपि जायमानः स्वावगाढदेशादारभ्य निरन्तरं प्रकाशयति कोऽपि पुनरपान्तरालेऽन्तरं कृत्वा परतः प्रकाशयति तत उच्यते-सम्बद्धान्यसम्बद्धानि येति, 'जानाति' विशेषाकारेण ॥८॥ परिच्छिनत्ति 'पश्यति' सामान्याकारणावबुध्यते, 'अन्यत्र' देशान्तरे गतो नैव पश्यति, अवधिज्ञानावरणक्षयोपशमस्य। तत्क्षेत्रसापेक्षत्वात् । तदेवमुक्तमनानुगामिकं, सम्प्रति वर्द्धमानकमनयबुध्यमानः शिष्यः प्रश्नं करोति २० ~ 181~ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................................. मूल [१२/गाथा ||४८|| ........... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्राक [१२]] गाथा: ||४८ से किं तं वडमाणयं ओहिनाणं ?,२ पसत्थेसुअज्झवसाणटाणेसु वट्टमाणस्स वडमाणचरित्तस्स वधमानोविसुज्झमाणस्स विसुज्झमाणचरित्तस्स सबओ समंता ओही वडइ-जावइआ तिसमयाहा- | वधिःज घिन्यायरगस्स सुहुमस्स पणगजीवस्स । ओगाहणा जहन्ना ओहीखित्तं जहन्नं तु ॥४८॥ सव्वबहु- वधिः अगणिजीवा निरंतरं जत्तियं भरिजंसु । खित्तं सवदिसागं परमोही खेत्त निविट्रो ॥४९॥ मासू.१२ अंगुलमावलिआणं भागमसंखिज दोसु संखिजा । अंगुलमावलिअंतो आवलिआ अंगुलपुहत्तं ॥ ५० ॥ हत्थंमि मुहुर्ततो दिवसंतो गाउअंमि बोद्धव्यो । जोयण दिवसपुहत्तं पक्खतो पन्नवीसाओ॥ ५१॥ भरहमि अद्धमासो जंबुद्दीवमि साहिओ मासो। वासं च मणुअलोए वासपुहुत्तं च रुअगंमि ॥ ५२ ॥ संखिजंमि उ काले दीवसमुद्दाऽवि हुंति संखिजा । कालंमि असंखिजे दीवसमुद्दा उ भइअव्वा ॥ ५३॥ काले चउण्ह वुड्डी कालो भइअव्वु खित्तवुड्डीए। बुद्धिए दव्वपज्जव भइअव्वा खिसकाला उ॥५४॥ सुहुमो अ होइ कालो तत्तो सुहुमयरं हवइ खित्तं । अंगुलसेढिमित्ते ओसप्पिणिओ अंसखिजा ॥५५॥ से तंवडमाणयं ओहिनाणं । (सू.१२) ५५॥ दीप अनुक्रम [६४-७३] ~ 182~ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [१२]/गाथा ||१७|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत * सूत्रांक %% [१२] वर्धमानोवधिःजधन्याद्यवधिः . % 9 + सू.१२ गाथा: C ||४८ श्रीमलय-14 अथ किं बर्द्धमानकमवधिज्ञानं ?, सूरिराह-वर्द्धमानकमवधिज्ञान प्रशस्तेष्वध्यवसायस्थानेषु वर्तमानस्य, इह गिरीया सामान्यतो द्रव्यलेश्योपरञ्जितं चित्तमध्यवसायस्थानमुच्यते, तचानवस्थितं, तत्तलेश्याव्यसाचिव्ये विशेषसम्भवात् , नन्दीवृत्तिः ततो बहुवचनमुक्तं, 'प्रशस्तेष्वि'ति, अनेन चाप्रशस्त कृष्णादिद्रव्यलेश्योपरजितव्यवच्छेदमाह, प्रशस्तेष्वध्यवसायेषु| वर्त्तमानस्येति, किमुक्तं भवति ?-प्रशस्ताध्यवसायस्थानकलितस्य, 'सर्वतः समन्तादवधिः परिवर्द्धते इति सम्बन्धः, अनेनाविरतसम्यग्दृष्टेरपि परिवर्द्धमानकोऽवधिर्भवतीत्याख्यायते, तथा 'वद्धमाणचरित्तस्स' प्रशस्तेष्वध्यवसायस्थानेषु वर्धमानचारित्रस्य, एतेन देशविरतिसर्वविरतयोर्वर्द्धमानकमवधिमभिधत्ते, वर्द्धमानकचावधिरुत्तरोत्तरां विशुद्धिमासादयतो भवति नान्यथा तत आह-'विशुध्यमानस्य' तदावरणकमलकलङ्कविगमत उत्तरोत्तरविशुद्धिमासादयतः, अनेनाविरतसम्यग्दृष्टेचर्द्धमानकावधेः शुद्धिजन्यत्वमाह, तथा 'विशुद्धमानचारित्रस्य च' इदं च विशेषणं देशविरतसर्वविरतयोर्वेदितव्यम् 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु समन्तादवधिः परिवर्द्धते । स च कस्यापि सर्वजघन्यादारभ्य प्रवर्द्धते, ततः प्रथमतः सर्वजघन्यमवधि प्रतिपादयति-त्रिसमयाहारकस्य' आहारयति-आहारं गृहातीत्याहारकः, त्रयः दासमयाः समाहताखिसमय, त्रिसमयमाहारकखिसमयाहारकः 'नामनामैकार्थे समासो बहल'मिति समासः तस्य | त्रिसमयाहारकस्य 'सूक्ष्मस्य' सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्तिनः 'पनकजीवस्य' पनकश्चासौ जीवश्च पनकजीवः, पनकजीवो RSCORCESCAMERA ५५॥ 95 दीप अनुक्रम [६४-७३] १प्राधान्ये ~ 183~ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................................... मूल [१२/गाथा ||५५|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [१२] गाथा: ||४८५५|| वनस्पतिविशेषः, तस्य 'यावती' यावत्परिमाणा अवगाहन्ते क्षेत्रं यस्यां स्थिता जन्तवः साऽवगाहना-तनुरित्यर्थः, जघन्याय 'जघन्या' त्रिसमयाहारकशेषसूक्ष्मपनकजीवापेक्षया सर्वस्तोका, एतावत्परिमाणमवधेर्जघन्य क्षेत्रं, तुशब्द एवकारार्थः,8 वधिक्षेत्रस चावधारणे, तस्य चैवं प्रयोगः-जघन्यमवधिक्षेत्रमेतावदेवेति । अत्र चायं सम्प्रदायः-यः किल योजनसहस्रपरि कालो. माणायामो मत्स्यः खशरीरवायैकदेश एवोत्पद्यमानः प्रथमसमये सकलनिजशरीरसम्बद्धमात्मप्रदेशानामायाम संहत्याङ्गुलासंख्येयभागवाहल्यं खदेहविष्कम्भायामविस्तारं प्रतरं करोति, तमपि द्वितीयसमये संहत्याङ्गुलासङ्ख्येयभाग-2 वाहल्यविष्कम्भां मत्स्यदेह विष्कम्भायामामात्मप्रदेशानां सूचिं विरचयति, ततस्तृतीयसमये तामपि संहृत्याङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्र एव खशरीरबहिःप्रदेशे सूक्ष्मपरिणामपनकरूपतयोत्पद्यते, तस्योपपातसमयादारभ्य तृतीये समये वर्तमानस्य यावत्प्रमाणं शरीरं भवति तावत्परिमाणं जघन्यमवधेः क्षेत्रमालम्वनवस्तुभाजनमवसेयम् , उक्तं च-"योजनसहस्रमानो मत्स्यो मृत्वा खकायदेशे यः । उत्पद्यते हि पनकः सूक्ष्मत्वेनेह स प्रायः ॥ १॥ संहत्य चाद्यसमये स ह्यायाम करोति च प्रतरम् । सङ्ख्यातीताख्याङ्गुलविभागवाहल्यमानं तु॥२॥ खकतनुपृथुत्वमात्रं दीर्घत्वेनापि जीव-18 सामर्थ्यात् । तमपि द्वितीयसमये संहृत्य करोत्यसौ सूचिम् ॥३॥ सङ्ख्यातीताख्याङ्गुलविभागविष्कम्भमाननिर्दिष्टाम्। निजतनुपृथुत्वदीपा तृतीयसमये तु संहृत्य ॥४॥ उत्पद्यते च पनकः खदेहदेशे स सूक्ष्मपरिणामः । समयत्रयेण तस्थावगाहना यावती भवति ॥५॥ तापज्जघन्यमबधेरालम्बनवस्तुभाजनं क्षेत्रम् । इदमित्यमेव मुनिगणसुसम्प्रदा-1513 दीप अनुक्रम [६४-७३] ~ 184~ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [१२/गाथा ||१७|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीमलय- गिरीया नन्दीवृत्तिः ॥९१ ॥ जघन्यायकालो. [१२] + गाथा: यात् समवसेयम् ॥ ६॥" आह-किमिति योजनसहस्रायामो मत्स्यः ? किंवा तस्य तृतीयसमये खदेहदेशे सूक्ष्मप- नकत्वेनोत्पादः १ किंवा त्रिसमयाहारकत्वं परिगृह्यते ?, उच्यते, इह योजनसहस्रायामो मत्स्यः, स किल त्रिभिः | समयैरात्मानं संक्षिपति महतः प्रयत्नविशेषात् , महाप्रयत्नविशेषारूढश्चोत्पत्तिदेशेऽवगाहनामारभमाणोऽतीव सूक्ष्मामारभते ततो महामत्स्यस्य ग्रहणं, सूक्ष्मपनकश्चान्यजीवापेक्षया सूक्ष्मतमावगाहनो भवति, ततः सूक्ष्मपनकग्रहणं, तथा उत्पत्तिसमये द्वितीयसमये चातिसूक्ष्मो भवति चतुर्थादिषु च समयेष्वतिस्थूरः त्रिसमयाहारकस्तु योग्यः ततः त्रिसमयाहारकग्रहणं, उक्तं च-मच्छो महलकाओ संखेत्तो जो उ तीहिँ समएहिं । स किर पयत्तविसेसेण सहमोगाहणं कुणइ ॥१॥सण्यरा सहयरो सुहुमो पणओ जहन्नदेहो य । स बहुविसेसविसिट्ठो सहयरो सबदेहेसु ॥२॥ पढमबीएऽतिसण्हो जायइ थूलो चउत्थयाईसुं। तइयसमयंमि जोगो गहिओ तो तिसमयहारो ॥३॥" अन्ये तु व्याचक्षते-'त्रिसमयाहारकस्खे ति आयामप्रतरसंहरणे समयद्वयं तृतीयश्च समयः सूचीसंहरणोपात्पत्तिदेशागमनविषयः, एवं त्रयः समया विग्रहगत्यभावाचैतेष त्रिष्वपि समयेष्वाहारकः, तत उत्पादसमय एव त्रि समयाहारकः सूक्ष्मपनकजीवो जघन्यायगाहनश्च, ततः तच्छरीरमानं जघन्यमवधेः क्षेत्रं, तचायुक्त, यतखिसमया-1 ||४८५५|| २० दीप अनुक्रम [६४-७३]] |२४ ॥९ ॥ मत्स्यो महाकायः संक्षिप्तो यस्तु निभिः समयः । स किल प्रयत्नवेशेषेण लक्षणामवगाहना करोति ॥१॥ लक्ष्यतरात लगतरः सूक्ष्मः पनको अधन्य देहश्च । स बहुमिशेषरिशिष्टः वक्ष्णतरः सर्वदेहेषु ॥ २॥ प्रथमद्वितीक्योरतिश्पक्षणो जायते स्थूलचतुर्थादिषु । तृतीयसमये योग्यो गृहीतततखिसमयाहारकः ॥ ३॥ SAREaratun ~185~ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [१२]/गाथा ||५५|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्राक [१२] गाथा: - हारकस्येति विशेषणं पनकस्य, न च मत्स्यायामप्रतरसंहरणसमयौ पनकभवस्य सम्बन्धिनौ, किन्तु मत्स्यभवस्य, तत उत्पादसमयादारभ्य त्रिसमयाहारकस्येति द्रष्टव्यम् , नान्यथा। एतावत्प्रमाणं जघन्य क्षेत्रमवधेः, तेजसभाषाप्रायो ४ बधिक्षेत्र कालो. ग्यवर्गणापान्तरालवर्त्तिद्रव्यमालम्बते 'तेयांमासादवाणमंतरा एत्थ लहइ पट्टवओ' इति वचनात् , तदपि चाल-४ म्च्यमानं द्रव्यं द्विधा-गुरुलघु अगुरुलघु च, तत्र तेजसप्रत्यासन्नं गुरुलघु भाषाप्रत्यासन्नं चागुरुलघु, तद्तांश्च पयो-3 यान् चतुःसंख्यानेव वपर्णरसगन्धस्पर्शलक्षणान् पश्यति न शेषान् , यत आह-"दबाई अंगुलावलिसंखेजातीतभा-१५ गविसयाई । पेच्छइ चउग्गुणाई जहन्नओ मुत्तिमताई ॥१॥" अत्र 'जघन्यत' इति जघन्यावधिज्ञानी । तदेवी जघन्यमवधेः क्षेत्रमभिधाय साम्प्रतमुत्कृष्टमभिधातुकाम आह-यतः ऊर्द्धमन्य एकोऽपि जीवो न कदाचनापि प्राप्यते ते सर्ववहवः सर्वववश्व ते अग्निजीवाश्च सूक्ष्मवादररूपाः सर्वबह्वग्निजीवाः, कदा सर्वबहग्मिजीवा इति चेद्, उच्यते, यदा सर्वासु कर्मभूमिषु नियाघातमग्निकायसमारम्भकाः सर्वबहवो मनुष्याः, ते च प्रायोजितखामितीर्थ-2 करकाले प्राप्यन्ते, यदा चोत्कृष्टपदवर्त्तिनः सूक्ष्मानलजीवाः तदा सर्वबहग्निजीवाः, उक्तं च-"अपाघाए सवासु कम्मभूमिसु जया तयारंभा । सबबहवो मणुस्सा होंतिऽजियजिणिंदकालंमि ॥१॥ उकोसिया य सुहुमा जया। - ||४८ -56 ५५॥ -55 *-56 दीप अनुक्रम [६४-७३] | १ तेजोभाषाव्याणामन्त। अत्र पदयति प्रस्थापकः । २ द्रव्याणि अङ्गुलावलीलयातीतमागविषयाणि । प्रेक्षते चतुर्गुणानि जघन्यतो मूर्तिमन्ति ॥1॥ Kामव्यापाते सामु कर्मभूमिषु यदा तदारम्भकाः । सर्वबहवो मनुष्या भवन्ति मजितजिनेन काठे॥१॥ उत्कृषध सूपमा यदा I manduranorm ~186~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [१२/गाथा ||१७|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्राक [१२] जघन्यायवधिक्षेत्रकालो. + १५ गाथा: ||४८ श्रीमलय- 1तया सबबहुअगणिजीवा" इति, 'निरंतरमिति' क्रियाविशेषणं यावत्परिमाणं क्षेत्रं भृतवन्तः, एतदुक्तं भवतिगिरीया निरन्तर्येण विशिष्टसूचीरचनया यावद् भृतवन्तः, भृतवन्त इति च भूतकालनिर्देशः अजितस्वामिकाल एव नन्दीबृत्तिः प्रायः सर्वबहवोऽनलजीवा असामवसर्पिण्यां सम्भवन्ति स्मेति ख्यापनार्थ, इदं चानन्तरोदितं क्षेत्रमेकदिक्कमपि ॥९२॥ भवति तत आह-सर्वदिकं, अनेन सूचीभ्रमणप्रमितत्वं क्षेत्रस्य सूचयति, परमश्चासावयधिश्च परमावधिः, एतावदनन्तरोदितं सर्वबहनलजीवसूचीपरिक्षेपप्रमितं क्षेत्रमङ्गीकृत्य 'निर्दिष्टः' प्रतिपादितो गणधरादिभिः क्षेत्रनि|दिष्टः, एतावत् क्षेत्रं परमावधेर्भवतीत्यर्थः, किमुक्तं भवति ?-सर्यबहग्मिजीवा निरन्तरं यावत् क्षेत्रं सूचीभ्रमणेन सर्वदिकं भृतवन्तः एतावति क्षेत्रे यान्यवस्थितानि द्रव्याणि तत्परिच्छेदसामर्थ्ययुक्तः परमावधिः क्षेत्रमधिकृत्य निर्दिष्टो गणधरादिभिः, अयमिह सम्प्रदायः-सवेबदग्निजीवाः प्रायोजितखामितीर्थकृतकाले प्राप्यन्ते, तदारम्भकमनुष्यवाहुल्यसम्भवात् , सूक्ष्माश्चोत्कृष्टपदवर्तिनः तत्रैव विवक्ष्यन्ते, ततश्च सर्वबहवोऽनलजीवा भवन्ति, तेषां खबुद्ध्या पोढाऽवस्थानं परिकल्प्यते-एकैकक्षेत्रप्रदेशे एकैकजीवावगाहनया सर्वतश्चतुरस्रो घन इति प्रथम, स एव घनो जीवैः स्वावगाहना दि]भिरिति द्वितीयम् , एवं प्रतरोऽपि द्विभेदः, श्रेणिरपि द्विधा, तत्रायाः पञ्च प्रकारा द अनादेशाः, तेषु क्षेत्रस्याल्पीयस्तया प्राप्यमाणत्वात् , पष्ठस्तु प्रकारःसूत्रादेशः, उक्तं च-"एक कागासपएसजीवरयणाएँ ५५॥ ॥ ९२॥ दीप अनुक्रम [६४-७३] १ तदा सर्वबद्धनिजीचाः ॥ २ एकैकाकाशप्रदेश रौवरचनया ~ 187~ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [१२/गाथा ||१७|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [१२] + गाथा: ARCRACKER सावगाहे य । चउरंसं षण पयरं सेढी छटो सुयादेसो ॥१॥" ततश्चासौ श्रेणिः खावगाहनासंस्थापितसकलानलजी-15 जघन्यायवावलीरूपा अवधिज्ञानिनः सर्वासु दिक्षु शरीरपर्यन्तेन भ्राम्यते, सा च भ्राम्यमाणा असंख्येयान् लोकमात्रान् क्षेत्र-18वधिक्षेत्रविभागानलोके व्याप्नोति, एतावत्क्षेत्रमवघेरुत्कृष्टमिति, उक्तं च-"निययावगाहणागणिजीवसरीरावली समन्तेणं । कालौ. भामिजइ ओहिनाणिदेहपजंतओ सा य ॥१॥ अइगंतूणमलोगे लोगागासप्पमाणमेत्ताई । ठाइ असंखेजाई इदमोहिक्खेत्तमुक्कोसं ॥२॥" इदं च सामर्थ्यमात्रमुपवयेते, एतावति क्षेत्रे यदि द्रष्टव्यं भवति तर्हि पश्यति, यावता तन्न विद्यते, अलोके रूपिद्रव्याणामसम्भवात् , रूपिद्रव्यविषयश्चावधिः, केवलमयं विशेषो-यावदद्यापि परिपूर्णमपि | लोकं पश्यति तावदिह स्कन्धानेव पश्यति, यदा पुनरलोके प्रसरमवधिरधिरोहति तदा यथा यथाऽभिवृद्धिमासाद यति तथा २ लोके सूक्ष्मान् सूक्ष्मतरान् स्कन्धान पश्यति, यावदन्ते परमाणुमपि, उक्तं च-"सौमत्थमेत्तमुत्वं | दट्ठवं जद हवेजा पेच्छेजा । न उ तं तत्थस्थि जओ सो रूविनिबंधणो भणिओ ॥१॥ वहृतो पुण बाहि लोगत्थं चेव पासई दछ । सुहुमयरं २ परमोही जाच परमाणू ॥२॥"परमावधिकलितश्च नियमादन्तर्मुहूर्तमात्रेण केवलालो ||४८ ५५॥ दीप अनुक्रम [६४-७३] १खावमाहनया च । चतुरस्र घनं प्रतरं बेणि षटः सूत्रादेशः ॥1॥२ निजागाहनामिजीवशरीरावली समन्तात् । बाम्बते अवधिशानिदेहपर्यन्ततः सा च FI ॥अतिगत्यालो के लोकाकाशप्रमाणमात्राणि । तिमति असंख्येयानि इदमयविक्षेत्रमत्कृष्टम् ॥३॥सामध्येमात्रमुर्व द्रव्यं यदि भवेत् प्रेक्षेत । म त का तत्तत्रास्ति यतः स रूपिनियन्वनो भणितः ॥ १॥ वर्धमानः पुनर्बहिः लोकस्वं चैव पश्यति द्रव्यम् । सूक्ष्मतर सूक्ष्मतरं परमावधियोवत्सरमाणुम् ॥ २॥ ~ 188~ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [१२] गाथा: |४८ ५५|| दीप अनुक्रम [६४-७३] “नन्दी” - चूलिकासूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१२] / गाथा ||१५|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ॥ ९३ ॥ कलक्ष्मीमालिङ्गति, उक्तं च- 'परंमोहित्राणटिओ केवलमंतोमुदुत्तमेत्तेणं ।' एवं तावज्जघन्यमुत्कृष्टं चावधिक्षेत्रमुक्तं, सम्प्रति मध्यमं प्रतिपिपादयिपुरे तावत्क्षेत्रोपलम्भे एतावत्कालोपलम्भः एतावत्कालोपलम्मे चैतावत्क्षेत्रोपलम्भ इत्यस्यार्थस्य प्रकटनार्थ गाथाचतुश्यमाह – अनुलमिह क्षेत्राधिकारात् प्रमाणाङ्गुलमभिगृह्यते, अन्येॐ त्वाहुः - अवध्यधिकारादुत्सेधाङ्गुलमिति, आवलिका असल्येयसमयात्मिका अङ्गुलं चावलिका चाङ्गुलावलिके तयोरनुलावलिकयोर्भागमसङ्ख्येयम सङ्ख्येयं पश्यत्यवधिज्ञानी, इदमुक्तं भवति - क्षेत्रतोऽमुलासयेयभागमात्रं पश्यन् कालत आवलिकाया असवेयमेव भागयतीतमनागतं च पश्यति, उक्तं च- 'खेत्तमसंखेजंगुलभागं पासं तमेव कालेणं । आवलियाए भागं तीयमणायं च जाणा ॥ १ ॥' आवलिकायाश्वासयं भागं पश्यन् क्षेत्रतोऽङ्गुलायेयभागं पश्यति, एवं सर्वत्रापि क्षेत्रकालयोः परस्परं योजना कर्त्तव्या, क्षेत्रकालदर्शनं चोपचारेण द्रष्टव्यं, न साक्षात्, न खलु क्षेत्रं कालं वा साक्षादज्ञानी पश्यति, तयोरमूर्त्तत्वात्, रूपिद्रव्यविषयश्चावधिः, तत एतदुक्तं भवति-क्षेत्रे काले च यानि द्रव्याणि तेषां च द्रव्याणां ये पर्यायास्तान् पश्यतीति, उक्तं च- "तत्थेव य जे दवा तेसिंचिय जे हवंति पजाया । इय खेत्ते कालंमि य जोएजा दवपजाए ॥ १ ॥" ****** १] परमावानस्थितः (विदः २ क्षेत्रमपेयामागं पश्यन् तमेव कालेन वलिकाया भार्ग अतीतमनागतं च जानाति ॥ १ ॥ ३ तत्रैव च यानि द्रव्याणि तेषामेव च ये भवन्ति पर्यायाः एवं क्षेत्रे काले च योजयेत् द्रव्यपर्यायान् ॥१॥ Education Inten For Parts Only ~ 189~ मध्यमा वधिक्षेत्र कालौ. १५ २० २१ ॥ ९३ ॥ anurary c Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [१२/गाथा ||५|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: O प्रत सूत्राक [१२] कालो. गाथा: ||४८ ctCROCRACK एवं सर्वत्रापि भावनीयम् , क्रिया च गाथाचतुष्टये खयमेव योजनीया । तथा द्वयोरगुलावलिकयोः सोयौ भागी पश्यति, अङ्गुलस्य सङ्ख्येयभागं पश्यन् आवलिकाया अपि संख्येयमेव भागं पश्यतीत्यर्थः । तथा 'अङ्गुलम्' अङ्गुलमात्रं 2 |क्षेत्रं पश्यन् 'आवलिकान्तः' किश्चिदूनामवलिकां पश्यति, आवलिकां चेत् कालतः पश्यति तर्हि क्षेत्रतोऽङ्गुलपृथ-12 त्वं-अङ्गुलपृथक्त्वपरिमाणं क्षेत्रं पश्यति, उक्तं च-"संखेजंगुलभागे आवलियाएवि मुणइ तइभागं । अंगुलमिह पेच्छंतो आवलियंतो मुणइ कालं ॥१॥ आवलियं मुणमाणो संपुन्नं खेत्तमंगुलपुहुत्त"मिति, पृथक्त्वं द्विप्रभृतिरा न वभ्य इति । तथा 'हस्ते' हस्तमात्रे क्षेत्रे ज्ञायमाने कालतो 'मुहूर्त्तान्तः पश्यति' अन्तर्मुहूर्तप्रमाणं कालं पश्यतीत्यर्थः, त तथा कालतो "दिवसान्तः किञ्चिदूनं दिवसं पश्यन् क्षेत्रतो 'गब्यूते' गब्यूतविषयो द्रष्टव्यः, तथा 'योजन' योजनमात्र, क्षेत्रं पश्यन् कालतो दिवसपृथक्त्वं पश्यति, दिवसपृथक्त्वमानं कालं पश्यतीत्यर्थः, तथा 'पक्षान्तः' किञ्चिदूनं पक्षं पश्यन् क्षेत्रतः पञ्चविंशतियोजनानि पश्यति । 'भरते सकलभरतप्रमाणक्षेत्रावधौ कालतोऽर्द्धमास उक्तः, भरतप्रमाणं क्षेत्रं पश्यन् कालतोऽतीतमनागतं चार्द्धमासं पश्यतीत्यर्थः, एवं जम्बूद्वीपविषयेऽवधौ साधिको मासः कालतो विषयत्वेन बोद्धव्यः । तथा 'मनुष्यलोके' मनुष्यलोकप्रमाणक्षेत्रविषयेऽवधौ 'वर्षे संवत्सरमतीतमनागतं च पश्यति, तथा रुचकाख्ये रुचकाख्यबाह्यद्वीपनमाणक्षेत्रविषयेऽवधौ वर्षपृथक्त्वं पश्यति । तथा सङ्ख्यायत ********२७२ ५५॥ दीप अनुक्रम [६४-७३] संख्याताशुलभागान् आवलि काया मपि मुगति प्रतिभागान् । अनुलमिह पश्यन् आवलि कान्तर्मुगति कालम् ॥१॥ आवलिका जामन संपूर्ण क्षेत्रमालपृथक्वम् । SAREMEDmarana ~190~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [१२] गाथा: |४८ ५५|| दीप अनुक्रम [६४-७३] श्रीमलय गिरीया नन्दीवृत्तिः “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१२] / गाथा ||१५|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ॥ ९४ ॥ ★ ****** इति सहयेयः स च वर्षमात्रोऽपि भवति ततः शब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि १ - सङ्ख्यकालो वर्षसहस्रात्परो वेदितव्यः, तस्मिन् सङ्ख्येये कालेऽवधिगोचरे सति क्षेत्रतः तस्यैवावधेर्गोचरतया द्वीपाश्च समुद्राश्च द्वीपसमुद्राः तेऽपि सङ्घयेया भवन्ति, अपिशब्दात् महानेकोऽपि महत एकदेशोऽपि किमुक्तं भवति ? - सङ्ख्येये कालेsविधिना परिच्छिद्यमाने क्षेत्रमप्यत्रत्यप्रज्ञापकापेक्षया सङ्ख्येयद्वीपसमुद्रपरिमाणं परिच्छेद्यं भवति, ततो यदि नामात्र त्यस्वावधिरुत्पद्यते तर्हि जम्बूद्वीपादारभ्य सङ्ख्येया द्वीपसमुद्रास्तस्य परिच्छेद्याः, अथवा बाह्ये द्वीपे समुद्रे वा सङ्ख्येययोजनविस्तृते कस्यापि तिरश्चः सङ्ख्येयकालविषयोऽवधिरुपद्यते तदा स यथोक्तक्षेत्रपरिमाणं तमेवैकं द्वीपं समुद्रं वा पश्यति, यदि पुनरसङ्ख्येययोजनविस्तृते स्वयम्भूरमणादिके द्वीपे समुद्रे वा सङ्ख्येयकाल विषयोऽवधिः कस्याप्युत्पद्यते तदानीं स प्रागुक्तपरिमाणं तस्य द्वीपस्य समुद्रस्य वा एकदेशं पश्यति इहत्यमनुष्यवायावधिरिव कश्चित्, तथा कालेsसङ्ख्येये पल्योपमादिलक्षणे अवधेर्विषये सति तस्यैव सङ्ख्येयकालपरिच्छेदकस्यावधेः क्षेत्रतया परिच्छेद्या द्वीपसमुद्राः 'भाज्या' विकल्पनीया भवन्ति, कस्यचिदसङ्ख्येयाः कस्यचित्सङ्ख्येयाः कस्यचिदेकदेश इत्यर्थः, यदा इह मनुष्य| स्यासङ्ख्येयकालविषयोऽवधिरुत्पद्यते तदानीमसङ्ख्येया द्वीपसमुद्रास्तस्य विषयः, यदा पुनर्वहिद्वीपे समुद्रे वा वर्तमानस्य कस्यचित् तिरथोऽसयेयकालविषयोऽवधिरुत्पद्यते तर्हि तस्य सङ्ख्येया द्वीपसमुद्राः, अथवा यस्य मनुष्यस्य सङ्ख्येयकालविषयो वाह्यद्वीपसमुद्रालम्बनो बाह्यावधिरुत्पद्यते तस्य सङ्ख्येया द्वीपाः, यदा पुनः स्वयम्भूरमणे द्वीपे समुद्रे वा Education Internationa For Panason ~ 191~ मध्यमा वधि क्षेत्रकालो. १५ २० ॥ ९४ ॥ २५ inary or Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [१२/गाथा ||१७|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [१२] गाथा: ||४८ कस्यचित्तिरश्चोऽवधिरसञ्जयेयकालविषयो जायते तदानीं तस्य खयम्भूरमणस्य द्वीपस्य समुद्रस्य वा एकदेशो विषयः, हा कालादिखयम्भूरमणविषयमनुष्यवासावधेर्वा तदेकदेशो विषयः, क्षेत्रपरिमाणं पुनर्योजनापेक्षया सर्वत्रापि जम्बूद्वीपादारभ्या-14 क्षेत्रादिसङ्ख्यद्वीपसमुद्रपरिमाणमबसेयम् । तदेवं यथा क्षेत्रवृद्धौ कालवृद्धिः कालवृद्धौ च यथा क्षेत्रवृद्धि तथा प्र वृद्ध्यादि. तिपादितं, सम्प्रति द्रव्यक्षेत्रकालभावानां मध्ये यदृद्धौ यस्य वृद्धिरुपजायते यस्य च न तदभिधित्सुराह-'काले। अवधिगोचरे बर्द्धमाने 'चतुण्णी' द्रव्यक्षेत्रकालभावानां वृद्धिर्भवति, तथा क्षेत्रस्य वृद्धिः क्षेत्रद्धिस्तस्यां सत्यां कालो भजनीयों विकल्पनीयः कदाचिद्व ते कदाचित् न, क्षेत्रं यत्यन्तसूक्ष्म, कालस्तु तदपेक्षया परिस्थूरः, ततो यदि प्रभूता क्षेत्रवृद्धिस्ततो वर्द्धते शेषकालं नेति, द्रव्यपर्यायौ तु नियमतो व ते, आह च भाष्यकृत--"काले पयडमाणे सचे दब्बादओ पवहृति । खेत्ते कालो भइओ वहति उ दधपजाया॥१॥" तथा द्रव्यं च पर्यायश्च द्रव्यपर्यायौ तयो-18 वृद्धौ सत्यां, सूत्रे विभक्तिलोपः प्राकृतशैल्या, भजनीयावेव क्षेत्रकाली, तुशब्द एवकारार्थः, स च भिन्नक्रमस्तथैव च योजितः, विकल्पश्चार्य-कदाचित्तयोवृद्धिर्भवति कदाचिन्न, यतो द्रव्यं क्षेत्रादपि सूक्ष्म, एकस्मिन्नपि नभःप्रदेशेऽनन्तस्कन्धावगाहनात्, द्रव्यादपि सूक्ष्मः पर्यायः, एकस्मिन्नपि द्रव्येऽनन्तपर्यायसम्भवात् , ततो द्रव्यपर्यायवृद्धी क्षेत्रकालो भजनीयावेव भवतः, द्रव्ये च वर्धमाने पर्याया नियमतो वर्धन्ते, प्रतिद्रव्यं संख्येयानामसंख्येयानां चावधिना १ काले प्रश्रमाने सर्वे इत्यादयः प्रवर्धन्ते । क्षेत्र कालो भाज्यो वर्धन्ते तु द्रव्वपर्यायाः ॥१॥ ५५॥ दीप अनुक्रम [६४-७३] ~192~ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [१२] गाथा: |४८ ५५|| दीप अनुक्रम [६४-७३] श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ।। ९५ ।। “नन्दी” - चूलिकासूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१२] / गाथा ||१५|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ****** परिच्छेदसंभवात् पर्यायतो वर्द्धमाने द्रव्यं भाज्यं, एकस्मिन्नपि द्रव्ये पर्यायविपयावधिवृद्धिसम्भवात्, आह च भाष्य| कृत् - "भंगणाए खेत्तकाला परिवतेसु दवभावेसुं । दवे बढइ भावो भावे दवं तु भवणिज्जं ॥ १ ॥” अत्राह - ननु जधन्य मध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नयोः अवधिज्ञानसंबन्धिनो: क्षेत्रकालयोरकुलावलिका संख्येयभागादिरूपयोः परस्परं समयप्रदेशसंख्ययोः किं तुल्यत्वमुत हीनाधिकत्वम् ?, उच्यते, हीनाधिकत्वं, तथाहि - आवलिकाया असङ्ख्येयभागे जब४ न्यावधिविषये यावन्तः समयाः तदपेक्षया अङ्गुलत्यासयेयभागे जघन्यावधिविषय एव ये नमः प्रदेशास्ते असइधेयगुणाः, एवं सर्वत्रापि अवधिविषयात् कालादसङ्ख्ये यगुणत्वमवधिविषयस्य क्षेत्रस्यावगन्तव्यम् उक्तं च - "सर्व्वमसंखेजगुणं कालाओ खेत्तमोहिविसयं तु । अवरोप्परसंबद्धं समयप्पसप्पमाणेणं ॥ १ ॥" अथ क्षेत्रस्येत्थं कालादसङ्ख्येयगुणता कथमवसीयते ?, उच्यते, सूत्रप्रामाण्यात्, तदेव सूत्रमुपदर्शयति-- 'सूक्ष्मः' | लक्ष्णो भवति कालः, चराब्दो वाक्यभेदक्रमोपदर्शनार्थी यथा सूक्ष्मस्तावत्कालो भवति यस्मादुत्पलपत्रशतभेदे प्रतिपत्रमसङ्ख्येयाः समयाः प्रतिपाद्यन्ते ततः सूक्ष्मः कालः, तस्मादपि काला सूक्ष्मतरं क्षेत्रं भवति, यस्मादङ्गुलमात्रे क्षेत्रे- प्रमाणाङ्गुलैकमात्रे श्रेणिरूपे नमः खण्डे प्रतिप्रदेशं समयगणनया असङ्ख्येया अवसर्पिण्यस्ती - १ जना क्षेत्रकाली परिवर्धमान यो व्य भाववोः । इन्ये वर्धते भावो भावे द्रव्यं तु भजनीयम् ॥ १ ॥ २ सर्वमसंख्येयगुणं कालात् क्षेत्रवधिविषयं तु । परस्परसंबद्धं समय प्रदेशप्रमाणेन ॥ २ ॥ Education Internationa For Penal Use On ~ 193~ क्षेत्रस्य सूक्ष्मतरता. १५ २० २३ ।। ९५ ।। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................................... मूल [१२/गाथा ||५५|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [१२] *5-4-5605645456456 गाथा: ||४८५५|| सार्थकृद्भिराख्याताः, इदमुक्तं भवति-प्रमाणामुलैकमात्रे एकैकप्रदेशश्रेणिरूपे नमःखण्डे यावन्तोऽसद्धयेयाखवस-14 बिणीप समयाः तावत्प्रमाणाः प्रदेशा वर्तन्ते, ततः सर्वत्रापि कालादसोयगुणं क्षेत्र, क्षेत्रादपि चानन्तगणनोऽवधि: द्रव्यं द्रव्यादपि चावधिविषयाः पर्यायाः सझयेयगुणा असङ्ख्येयगुणा था, उक्तं च-"खेत्तपएसेहितो दधमणत लसू.१३ गुणितं पएसेहिं । दहितो भावो संखगुणोऽसंखगुणिओ या ॥१॥" तदेतद्वर्द्धमानकमवधिज्ञानम् । से किं तं हीयमाणयं ओहिनाणं?, हीयमाणयं ओहिनाणं अप्पसत्थेहिं अज्झवसाणदाणेहिं वट्ट- ५ माणस वहमाणचरित्तस्स संकिलिस्समाणस्स संकिलिस्समाणचरित्तस्स सव्वओ समंता ओहीपरिहायइ सेतं हीयमाणयं ओहिनाणं ॥ ४॥ (सू. १३) अथ किं तद्धीयमानकमवधिज्ञानं ?, सूरिराह--हीयमानकमवधिज्ञानं कथञ्चिदवाप्तं सत् अप्रशस्तेष्वध्यवसायस्थानेषु वर्तमानस्याविरतसम्यग्दृष्टेवर्तमानचारित्रस्य-देशविरतादेः 'संक्लिश्यमानस्य' उत्तरोत्तरं संक्लेशमासादयतः, इदं च विशेषणमविरतसम्यग्दृष्टेरयसेयं, तथा संक्लिश्यमानचारित्रस्य देशविरतादेः सर्वतः समन्तादवधिः 'परिहीयते' पूर्वावस्थातो हानिमुपगच्छति, तदेतद्धीयमानकमवधिज्ञानम् । क्षेत्रप्रदेशेभ्यो ब्यमनन्तगुणितं प्रदेशैः । इम्पेभ्यो भावः संख्यगुणोऽसंगपगुणो वा ॥१॥ ० दीप अनुक्रम [६४-७३] 2 ~194~ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [१४] दीप अनुक्रम [ ७५ ] श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ॥ ९६ ॥ “नन्दी” - चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१४] / गाथा || ५५...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः से किं तं पडिवाइओहिनाणं ?, पडिवाइओहिनाणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखिजयभागं वा सं- ॐ खिज्जभागं वा वालग्गं वा वालग्गपुहत्तं वा लिक्खं वा लिक्खपुहत्तं वा जूअं वा जुयपुहुतं वा जवं वा जवपुहुतं वा अंगुलं वा अंगुलपुहत्तं वा पायं वा पायपुहुत्तं वा विहस्थि वा विहत्थिपुहुत्तं वा स्यणिं वा रयणिपुहुतं वा कुच्छि वा कुच्छिपुहुत्तं वा धणुं वा धणुपुहुत्तं वा गाउअं वा गाउपुहुत्तं वा जोअणं वा जोअपुहुतं वा जोअणसयं वा जोयणसयपुहुत्तं वा जोयणसहस्तं वा जोअणसहस्स पुहुत्तं वा जोअणलक्खं वा जोअणलक्खपुडुत्तं वा उक्कोसेणं लोगं वा पासित्ता णं पडिवइजा, सेत्तं पडिवाइओहिनाणं (सु. १४) अथ किं तत्प्रतिपातिअवधिज्ञानं १, सूरिराह - प्रतिपात्यवधिज्ञानं यदवधिज्ञानं जघन्यतः सर्वस्तोकतया अङ्गुलस्यासङ्ख्येय भागमात्रं सङ्ख्येयभागमात्रं वा वालाग्रं वा वालाग्रपृथक्त्वं वा लिक्षां वा वालाग्राष्टकप्रमाणां लिक्षापृथक्त्वं वा, यूकां वा लिक्षाष्टकमानां यूकापृथक्त्वं वा यवं वा-यूकाष्टकमानं यवपृथक्त्वं वा अङ्गुलं वा अङ्गुलपृथक्त्वं वा, एवं यावदुत्कर्षेण सर्वप्रचुरतया लोकं 'दृष्ट्वा' उपलभ्य 'प्रतिपतेत्' प्रदीप इव नाशमुपयायात्, तस्य तथाविधक्षयोपशमजन्यत्वात्, तदेतत् प्रतिपात्यवधिज्ञानं, शेषं सुगमं, नवरं 'कुक्षिः' द्विहस्तप्रमाणा 'धनुः' चतुर्हस्तप्रमाणं, पृथक्त्वं सर्वत्रापि द्विप्रभृतिरा नवभ्यः इति सैद्धान्तिक्या परिभाषया द्रष्टव्यम् ॥ For Prata Use Only ~195~ युतिपात्यवधिः, सू. १४ १५ २० ॥ ९६ ॥ २३ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [१५]/गाथा ||५५...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [७६] से किं तं अपडिवाइ ओहिनाणं?, अपडिवाइ ओहिनाणं जेण अलोगस्स एगमवि आगासप अप्रतिपाएसं जाणइ पासइ तेण परं अपडिवाइ ओहिनाणं, से तं अपडिवाइ ओहिनाणं ॥ (सू०१५) | त्यवधि: अथ किं तदप्रतिपात्यवधिज्ञानं?, सूरिराह-अप्रतिपात्ययविज्ञानं येनावधिज्ञानेन अलोकस्य सम्बन्धिनमेकमप्याकाशप्रदेशम् , आस्तां बहूनाकाशप्रदेशानित्यपिशब्दार्थः, पश्येत् , एतच सामर्थ्यमात्रमुपवर्ण्यते, न त्वलोके किञ्चि-12 दप्यवधिज्ञानस्य द्रष्टव्यमस्ति, एतच प्रागेयोक्तं, तत आरभ्याप्रतिपाति आ केवलप्राप्तेरवधिज्ञानम् , अयमत्र भावार्थ:एतावति क्षयोपशमे सम्प्राप्ते सत्यात्मा विनिहतप्रधानप्रतिपक्षयोधसंघातनरपतिरिव न भूयः कर्मशत्रुणा परिभूयते, किन्तु समासादितैतावदालोकजयोऽप्रतिनिवृत्तः शेषमपि कर्मशत्रुसवातं विनिर्जित्य प्राप्नोति केवलराज्यश्रियमिति। तदेतदप्रतिपाति अवधिज्ञानं । तदेवमुक्ताः षडप्यवधिज्ञानस्य भेदाः, सम्प्रति द्रव्याद्यपेक्षयाऽवधिज्ञानस्य भेदान् चिन्तयति,तं समासओ चउव्विहं पण्णत्तं, तंजहा-दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ, तत्थ दव्वओणं ओहिनाणी जहन्नेणं अणंताई रूविदव्वाई जाणइ पासइ उक्कोसेणं सव्वाइं रूविदव्वाई जाणइ पासइ, खित्तओ णं ओहिनाणी जहन्नेणं अंगुलस्स असंखिजइभागंजाणइ पासइ उ RELIMBAmational M msunmarary.org अवधिज्ञानस्य द्रव्यादि भेदे चतुर्विधत्वं ~ 196~ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) (४४) ॐ .................... मूल [१६]/गाथा ||५५...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: गिरीया प्रत सुत्रांक १५ [१६] दीप अनुक्रम [७७]] श्रीमलयकोसेणं असंखिजाई अलोगे लोगप्पमाणमित्ताई खंडाइं जाणइ पासइ, कालओ णं ओहि अवधेर्द्रव्या | दिविषयः नन्दीवृत्तिः नाणी जहन्नेणं आवलिआए असंखिजइभागं जाणइ पासइ उक्कोसेणं असंखिजाओ उस्सप्पिणीओ अवसप्पिणीओ अईयमणागयं च कालं जाणइ पासइ, भावओ णं ओहिनाणी जहनेणं अणते भावे जाणइ पासइ उक्कोसेणवि अणते भावे जाणइ पासइ, सब्वभावाणमणंतभार्ग जाणइ पासइ॥ (सू.१६) तदवधिज्ञानं 'समासतः' संक्षेपेण 'चतुर्विध' चतुप्रकारं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा--द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्चेति, तत्र द्रव्यतो 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे अवधिज्ञानी जघन्येनापि-भावप्रधानोऽयं निर्देशः सर्वजघन्यतयाऽपि अन न्तानि रूपिद्रव्याणि जानाति पश्यति, तानि च तैजसभाषाप्रायोग्यवर्गणापान्तरालवत्तीनि द्रव्याणि, उत्कर्षतः पुनः है। सोणि रूपिद्रव्याणि नादरसूक्ष्माणि जानाति पश्यति, तत्र ज्ञान विशेषग्रहणात्मकं दशेनं सामान्यपरिच्छेदात्मक, हुआह च चूर्णिणकृत्-जाणइति णाणं, तत्थ ज बिसेसग्गहणं तन्नाणं, सागारमित्यर्थः, पासइत्ति दंसणं, जं साम-IN नग्गहणं तं दसणमणागारमित्यर्थः, आह-आदौ दर्शनं ततो ज्ञानमिति च क्रमः, तत एनं क्रम परित्यज्य किमर्थ प्रथमं जानातीत्युक्तम् ?, उच्यते, इह सर्वा लब्धयः साकारोपयोगोपयुक्तस्योत्पद्यन्ते, अबधिरपि लब्धिरुपवयेते, ततः। १ जानातीति ज्ञानं, तत्र यहिशेषमहणं तवानं साकार मित्यर्थः, पश्यतीति पनि यत् सामान्य प्रदर्ण तयौन अनाकारमियर्थः । ERENA ~197~ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [१६]/गाथा ||५५...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: १-2 प्रत सुत्रांक [१६]] स प्रथममुत्पद्यमानो ज्ञानरूप एवोत्पद्यते न दर्शनरूपः, ततः क्रमेणोपयोगप्रवृत्तानोपयोगानन्तरं दर्शनरूपोऽपीति अवघेव्या दिविषयः प्रथमतो ज्ञानमुक्तं पश्चाद्दर्शनम् , अथवा इहाध्ययने सम्यग्ज्ञानं प्ररूपयितुमुपक्रान्तं, यतोऽनुयोगप्रारम्भेऽवश्यं मा-18TATE लाय ज्ञानपञ्चकरूपो भावनन्दिवक्तव्य इति तत्प्ररूपणार्थमिदमध्ययनमारब्धं, ततः सम्यग्ज्ञानमिह प्रधानं न मि-161 ध्याज्ञानं, तस्य मांगल्यहेतुत्वायोगाद्, दर्शनं त्ववधिज्ञानविभङ्गसाधारणमिति तदप्रधान, प्रधानानुयायी च लौकिको लोकोत्तरश्च मार्गः, ततः प्रधानत्वात् प्रथमं ज्ञानमुक्तं पश्चाद्दर्शनमिति। तथा क्षेत्रतोऽवधिज्ञानी जघन्येनाकुलासक्वेयभागमुत्कर्षतोऽसङ्खयेयानि अलोके लोकप्रमाणानि चतुर्दशरज्वात्मकानि खण्डानि जानाति पश्यति । कालतोऽवधिज्ञानी जघन्येनावलिकाया असङ्ख्येयभागमुत्कर्षतोऽसङ्ख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिणीः-असङ्ख्येयावसर्पिण्युत्सर्पिणीप्रमाणमतीतमनागतं च कालं जानाति पश्यति । भावतोऽवधिज्ञानी जघन्येनानन्तान् भावान्-पर्यायान् आधारद्रव्यानन्तत्वात् , नतु प्रति द्रव्यं, प्रतिद्रव्यं सङ्ख्येयानामसङ्ख्येयानां वा पर्यायाणां दर्शनात्, उक्तं च-ऐगं| दिवं पेच्छं खंधमणुं वा स पजवे तस्स । उक्कोसमसंखेज्जे संखिजे पेच्छए कोई ॥१॥' उत्कर्षतोऽप्यनन्तान् भावान् जानाति पश्यति, केवलं जघन्यपदादुत्कृष्टपदमनन्तगुणम् , आह च चूर्णिकृत्-'जहन्नपयाओ उक्कोसपयमणतगुण& मिति' 'सबभावाणमणंतभागं जाणइ पासई'त्ति तानपि चोत्कृष्टपदवर्त्तिनो भावान् 'सर्वभावानां' सर्वपर्यायाणाम दीप अनुक्रम [७७]] GI १ एकं द्रव्यं पश्यन् स्कन्धमणु दास पर्यभानू तस्य । उत्कृष्टतोऽसंख्येयान् संख्येयान् पश्यति कोऽपि ॥1॥१जपन्यपदादुरकृष्टपदमनन्तगुर्ण EU ~ 198~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [१६...]/गाथा ||१६|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलय- गिरीया नन्दीवृत्तिः प्रत सूत्रांक ||६|| दीप अनुक्रम [७८] नन्तभागकल्पान् जानाति पश्यति । तदेवमवधिज्ञानं द्रव्यादिभेदतोऽप्यभिधाय साम्प्रतं सङ्कगाथामाह- संग्रहावाओही भवपञ्चइओ गुणपच्चइओअवण्णिओ एसो[दुविहो]तिस्स य बहू विगप्पादवे खित्ते अकाले अ५६ ह्याबाह्या वधयः एषः अनन्तरोऽयधिर्भवप्रत्ययतो गुणप्रत्ययतश्च 'वर्णिणतो' व्याख्यातः, पाठान्तरं 'वण्णिओ दुविहो ति वर्षिणतो, Mगा.५६-५७ द्विविधो' द्विप्रकारः, तस्य च भवगुणप्रत्ययतो द्विविधस्यापि बहवो विकल्पा-भेदाः, तबथा-द्रव्ये द्रव्यविषयाः कस्यापि कियद्रव्यविषय इति द्रव्यभेदात् भेदः, तथा क्षेत्र-क्षेत्रविषया अमुलासययभागादिक्षेत्रभेदात् , काले-कालविषया आवलिकाऽसङ्ख्येयभागादिकालभेदात् , चशब्दाद्भावविषयाश्च कस्यापि कियन्तः पर्याया विषय इति भावभेदाढ़ेदः । तत्र जघन्यपदे प्रतिद्रव्यं चत्वारो वर्णगन्धरसस्पर्शलक्षणाः पर्याया 'दो पज्जये दगणिए सवजहन्त्रेण पेच्छ-1 ए ते उ । वन्नाईया चउरों' इति वचनप्रामाण्यात्, मध्यमतोऽनेकसङ्ख्यभेदभिन्ना उत्कर्षतः प्रतिद्रव्यमसङ्ग्येयान् न तु । कदाचनाप्यनन्तान् , यत आह भाष्यकृत्-'नाणंते पेच्छइ कयाई' । तदेवमवधिज्ञानमभिधाय साम्प्रतं ये बाबावधयो ये चाबाह्यावधयः तानुपदर्शयति नेरइय देवतित्थंकरा य ओहिस्सऽबाहिरा हुँति । पासंति सव्वओ खलु सेसा देसेण पासंति ॥ ५७॥ से तं ओहिनाणपञ्चक्खं दौ पर्यवी द्विगुणिती सर्वजघन्यतया पश्यति सांस्तु वर्णादिकांधतुरः। २ नानन्तान पश्यति कदाचित् । R ॥ ९८॥ ~199~ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [१६...]/गाथा ||१७|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ||७|| दीप अनुक्रम [७९-८०] नैरयिकाश्च देवाश्च तीर्थंकराश्च नैरयिकदेवतीर्थङ्कराः, तीर्थकरा इत्यत्र 'तीर्थाचैके' इति वचनात् खप्रत्यये तीर्थ- वाद्यावायाशब्दान्मन् , चशब्दोऽवधारणे, तख च व्यवहितः प्रयोगस्तं च दर्शयिष्यामः, नैरयिकदेवतीर्थङ्करा 'अवधेः' अब-18 वधयः ट्राधिज्ञानस्यावासा एव भवन्ति, बाह्या न कदाचनापि भवन्तीति भावः, सर्वतोऽवभासकावध्युपलब्धक्षेत्रमध्यवर्तिनः सदैव भवन्तीत्यर्थः । तथा पश्यन्ति 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च, खलुशब्दोऽवधारणार्थः, सर्वाखेव दिग्विदि विति, आह-अवधेरवाया भवन्तीत्यस्मादेव सर्वत इत्यस्यार्थस्य लब्धत्वात् सर्वतःशब्दग्रहणमतिरिच्यते, उच्यते, दि अभ्यन्तरत्वाभिधानेऽपि सर्वतोदर्शनाप्रतीतेः, न खलु सर्वाभ्यन्तरावधिः सर्वतः पश्वति, कस्यचिद्दिगन्तरालादर्श नात् , विचित्रत्वादवधेः, ततः सर्वतोदर्शनख्यापनार्थ 'पासंति सवओ खलु' इत्युक्तम् , आह च भाष्यकृत्-"अभि-IN तरत्ति भणिए भन्नइ पासंति सबओ कीस ? । ओदइ जमसंततदिसो अंतोचि ठिओ न सबत्तो ॥१॥"'शेषाः। ४ातिर्यड्नरा देशेन-एकदेशेन पश्यन्ति, 'सर्व वाक्यं सावधारणमिष्टितचावधारणविधिः' तत एवमवधारणीयं-शेषा एव देशतः पश्यन्ति, न तु शेपा देशत एवेति, अथवा अन्यथा व्याख्यायते-तदेवमवधिज्ञानमभिधाय साम्प्रतं ये नियतावधयो ये चानियतावधयस्तान् प्रतिपादयति-नैरयिकदेवतीर्थकरा एवावधेरवाया भवन्ति, किमुक्तं भवति :नियतावधयो भवन्ति, नियमेनपामवधिर्भवतीत्यर्थः, एवं चाभिहिते सति संशयः-किं ते देशेन पश्यन्ति उत सर्वतः ?, | १ भण्यते अभ्यन्तरा इति भषिते पश्यन्ति सर्वतः (इति) कुतः । उच्यते यत् अन्तरपि स्थितः असंततदिको न सर्वतः पश्यति ॥१॥ PAGE REastmthimational ~200~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [१६...]/गाथा ||१७|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: गिरीया मन पर्यवसू. १७ ज्ञानं नन्दीकृत्तिः प्रत सूत्रांक ||१७|| दीप अनुक्रम [७९-८०] श्रीमलय-1 ततः संशयापनोदार्थमाह-पासंती'सादि, 'सर्वतः खलु' सर्वत एव तेनावधिना ते नैरयिकादयः पश्यन्ति न तु देशतः । अत्र पर आह-ननु 'पश्यन्ति सर्वतः खल्वि'त्येतावदेवास्ताम् , अवधेरवाया भवन्तीत्येतत् न युक्तं, यतो नियतावधित्वप्रतिपादनार्थमिदमुच्यते, तच्च नियतावधित्वं देवनारकाणां 'दोहं भवपञ्चइयं, तंजहा-देवाणं नेरइ॥ ९९॥ याणं चेति वचनसामर्थ्यात् सिद्धं, तीर्थकृतां तु पारभविकावधिसमन्वितागमस्यातिप्रसिद्धत्वादिति, अत्रोच्यते, दिइह यद्यपि 'दोण्हं भवपचइया मित्यादिवचनतो नैरयिकादीनां नियतायधित्वं लब्धं, तथापि सर्वकालं तेषां निय तोऽवधिरिति न लभ्यते, ततः सर्वकालं नियतारधित्वख्यापनार्थमवधेरबाद्या भवन्तीत्युक्तम् । आह-यद्येवं तीर्थकृतामवधेः सर्वकालावस्थायित्वं विरुध्यते, न, छमस्थकालस्यैव तेषां विवक्षितत्वात् , शेषं प्राग्वत् । तदेतदवधिज्ञानम् ॥ से किं तं मणपज्जवनाणं?, मणपजवनाणे णं भंते! किं मणुस्साणं उप्पज्जइ अमणुस्साणं?, गोअमा ! मणुस्साणं नो अमणुस्साणं, जइ मणुस्साणं किं समुच्छिममणुस्साणं गब्भवतिअमणुस्साणं?, गोअमा!नो संमुच्छिममणुस्साणं उप्पजइ गब्भवतिअमणुस्साणं, जइ गम्भवकंतियमणुस्साणं किं कम्मभूमिअगन्भवतिअमणुस्साणं अकम्मभूमियगम्भवकंतिअमणुस्साणं अंतरदीवगगन्भवतिअमणुस्साणं?, गोअमा! कम्मभूमिअगब्भवकंतिअमणुस्साणं नो Satara अथ मन्:पर्यवज्ञान वर्णयते ~ 201~ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [१७] दीप अनुक्रम [८] “नन्दी” - चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१७] / गाथा || ५७...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः अकम्मभूमिअगव्भवकंतिअमणुस्साणं नो अंतरदीव गगन्भवतिअमणुस्ताणं, जइ कम्मभूमिअगभवकंतिअमणुस्साणं किं संखिजवासा उयकम्मभूमिअगब्भवकंतिअमणुस्साणं असंखिजवासाउअकम्मभूमि अगन्भवक्कतिअमणुस्साणं ?, गोअमा! संखेजवासाउअकम्मभूमि अगन्भवकंतिअमणुस्साणं नो असंखेजवासा उअकम्म भूमि अगन्भवक्कतिअमणुस्साणं, जइ संखेज्जवासाउकम्मभूमि अगग्भवति अमणुस्साणं किं पज्जत्तगसंखेजवा साउअकम्मभूमि अगब्भवकंतिअमगुस्साणं अपजत्तगसंखेजवासाउअ कम्मभूमि अगन्भवतिअमणुस्साणं ?, गोअमा ! पज्जत्तगसंखेज्जवासाउअ कम्मभूमिअगब्भवतिअमणुस्साणं नो अपजत्तगसंखेज्जवासा उअकम्मभूमिअगव्भवकंतिअमणुस्साणं, जइ पज्जत्तगसंखिज्जवासाउअकम्मभूमिअगन्भवकंतिअमणुस्साणं किं सम्मदिट्टिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउअकम्मभूमि अगब्भवकंतिअमणुस्ताणं मिच्छदिट्ठिपज्जत्तगसंखिजवासाउअ कम्मभूमिअगव्भवकंतिअमणुस्साणं सम्ममिच्छदिट्रिपजत्तगसंखिवासाउअकम्मभूमिअगन्भवकंतिअमणुस्साणं ?, गोअमा ! सम्मदिट्ठिपज्जत्तग संखिजवासाउअकम्मभूमिअग Pra Use On ~ 202~ मनः पर्यव ज्ञानं सू. १७ www.ra Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१७]/गाथा ||५७...|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः मनापर्यव ज्ञान प्रत सुत्राक ॥१००|| [१७] ACACARSACROCKS दीप अनुक्रम ब्भवतिअमणुस्साणं नो मिच्छदिटिपजत्तगसंखिजवासाउयकम्मभूमिअगब्भवकंतिअमणुस्साणं मो सम्मामिच्छद्दिट्रिपजत्तगसंखेजवासाउअकम्मभूमिअगभवतिअमणुस्साणं, जइ समद्दिट्टिपजत्तगसंखिजवासाउअकम्मभूमिअगब्भवतिअमणुस्साणं किं संजयसम्मदिट्ठिपजतगसंखिजवासाउअकम्मभूमिअगब्भवतिअमणुस्साणं असंजयसम्मदिट्रिपजत्तगसंखिजवासाउअकम्मभूमिअगम्भवतिअमणुस्साणं संजयासंजयसम्मदिट्रिपज्जत्तगसंखिजवासाउअकम्मभूमियगब्भवतियमणुस्साणं ?, गोयमा! संजयसम्मदिट्रिपजत्तगसंखिजवासाउयकम्मभूमियगम्भवतिअमणुस्साणं नो असंजयसम्मदिट्रिपजत्तगसंखेजवासाउअकम्मभूमिअगब्भवतिअमणुस्साणं नो संजयासंजयसम्मदिट्ठिपजत्तगसंखिजवासाउयकम्मभूमिअगब्भवकैतिअमणुस्साणं, जइ संजयसम्मदिदिपज्जत्तगसंखिजवासाउयकम्मभूमिअगब्भवतिअमणुस्साणं किं पमत्तसंजयसम्मदिटिपजत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमिअगब्भवक्कंतिअमणुस्साणं अपमत्तसंजयसम्मद्दिट्रिपजत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमिअगमवक्कंतिअमणुस्साणं?, गोअमा! [८१] ~203~ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१७]/गाथा ||५७...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: . मनःपर्यव ज्ञानं प्रत स.१७ सुत्राक [१७] दीप अनुक्रम अपमत्तसंजयसम्मदिदिपजत्तगसंखेजवासाउअकम्मभूमिअगब्भवतिअमणुस्साणं नो पमत्तसंजयसम्मदिद्विपजत्तगसंखेजवासाउअकम्मभूमिअगम्भवकंतिअमणुरसाणं, जइ अपमत्तसंजयसम्मदिद्विपजत्तगसंखेजवासाउअकम्मभूमिअगब्भवतिअमणुस्साणं किं इड्डीपत्तअपमत्तसंजयसम्मदिद्विपजत्तगसंखेजवासाउअकम्मभूमिअगम्भवक्कंतिअमणुस्साणं अणिड्डीपत्तअपमत्तसं. जयसम्मदिट्ठिपजत्तसंखिजवासाउयकम्मभूमिअगब्भवतिअमणुस्साणं?, गोअमा! इड्डीपतअपमत्तसंजयसम्मदिट्रिपजत्तगसंखेजवासाउअकम्मभूमिअगब्भवतिअमणुस्साणं नो अणिद्वीपत्तअपमत्तसंजयसम्मद्दिट्रिपजत्तगसंखेजवासाउअकम्मभूमिअगब्भवतिअमणुस्साणं म णपज्जवनाणं समुप्पज्जइ ॥ (सू०१७) । अथ किं तत् मनःपर्यायज्ञानं ?, एवं शिष्येण प्रश्ने कृते सति ये गौतमानभगवनिर्वचनरूपा मनःपर्यायज्ञानोत्पत्तिविषयखामिमार्गणाद्वारेण पूर्वसूत्रालापकान् वितथप्ररूपणाशङ्काब्युदासाय प्रवचनबहुमानिविनेयजनश्रद्धा|भिवृद्धये च तदवस्थानेव देववाचकः पठति 'जावइया तिसमयाहारगस्से त्यादिनियुक्तिगाथासूत्रमिव, मनःपर्यायज्ञानं प्राग्निरूपितशब्दार्थ ''मिति वाक्यालङ्कारे भंतेत्ति गुर्वा मन्त्रणे 'किमिति' परप्रश्ने मनुष्याणामुत्पद्यते [८१] READImatana FarPranamam umom K umanmarary.org ~ 204~ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [१७]/गाथा ||५७...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्राक [१७]] श्रीमलय-18| इति प्रकटार्थ अमनुष्याणामुत्पद्यते इति, 'अमनुष्याः' देवादयः तेषामुत्पद्यते ?, एवं भगवता गौतमेन प्रश्ने कृते || गिरीया सति परमार्हन्त्यमहिम्ना विराजमानखिलोकीपतिर्भगवान् वर्द्धमानखामी निर्वचनमभिधत्ते हे गौतम! सूत्रे दीर्घत्वं नन्दीवृत्तिः सेर्लोपः सम्बोधने हखो वेति प्राकृतलक्षणसूत्रे वाशब्दस्य लक्ष्यानुसारेण दीर्घत्वसूचनादवसेयम् , यथा भो वयस्सा ॥१०१॥ इत्यादौ, मनुष्याणामुत्पद्यते नामनुष्याणां, तेषां विशिष्टचारित्रप्रतिपत्त्यसम्भवात् , अत्राह-ननु गौतमोऽपि चतु ईशपूर्वधरः सर्वाक्षरसन्निपाती सम्भिन्नश्रोताः सकलप्रज्ञापनीयभावपरिज्ञानकुशलः प्रवचनस्य प्रणेता सर्वज्ञदेशीय एव, उक्तं च-"संखांतीतेऽवि भवे साहइ जं वा परो उ पुच्छेजा। न यणं अणाइसेसी वियाणई एस छउमत्थो॥१॥" कुततः किमर्थं पृच्छति?, उच्यते, शिष्यसम्प्रत्ययार्थ, तथाहि-तमर्थ स्खशिष्येभ्यः प्राप्य तेषां सम्प्रत्ययार्थं तत्समक्षं भूयोऽपि भगवन्तं पृच्छति, अथवा इत्थमेव सूत्ररचनाकल्पः, ततो न कश्चिदोष इति । पुनरपि गौतम आह-यदि मनुष्याणामुत्पद्यते तर्हि किं सम्मूछिममनुष्याणामुत्पद्यते किंवा गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणामुत्पद्यते ?, तत्र 'मूछो मोहसमुच्छ्राययोः' संमूर्छनं संमूर्छा भावे पञ् प्रत्ययः तेन निवृत्ताः सम्मूच्छिमाः, ते च वान्तादिसमुद्भवाः, तथा चोक्तं प्रज्ञापनायां-"कहिं णं भंते! संमुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति?, गोअमा! अंतोमणुस्सखेते पणयालीसाए दीप अनुक्रम [८१] १०१॥ संख्यातीतानपि भवान् कथयति यं वा परः पृच्छेत् । न चानतिशासी विजानीते एष छमस्यः॥१॥२ भदन्त ! समूच्छिममनुष्याः संमूच्छन्ति !, दिगौतम ! अन्तर्मनुष्य क्षेत्रे पचचत्वारिंशति SAREarattinintamational ~205~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) .................... मूल [१७]/गाथा ||५७...|| ........... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७]] दीप अनुक्रम जोयणसयसहस्सेसु अड्डाइजेसु दीवसमुद्देसु पन्नरसमु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पण्णाए अंतरदीवेसु ग-1] मनापर्यवब्भवतियमणुस्साणं चेय उच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा सिंघाणेसु वा वंतेसु वा पित्तेसु वा सुक्केसु वा सोणिएसु ज्ञान वा सोकपोग्गलपरिसाडेसु वा विगयकलेसु वा थीपुरिससंजोएसु वा गामनिद्धमणेसु वा नगरनिद्धमणेसु वा ससु चेवास. १७ असुइठाणेसु एत्थ णं समुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति अंगुलस्स असंखेजइभागमेत्ताए ओगाहणाए असण्णी मिच्छादिट्ठी अण्णाणी सवाहिं पजत्तीहिं अपजत्तगा अंतमुहुत्ताउया चेव कालं करेंति" इति । तथा गर्ने व्युत्क्रान्तिः-उ-12 त्पत्तिर्येषां ते गर्भव्युत्क्रान्तिकाः, अथवा गर्भाद् व्युत्क्रान्तिः-व्युत्क्रमणं निष्क्रमणं येषां ते गर्भव्युत्क्रान्तिकाः, उभयत्रापि गर्भजा इत्यर्थः, भगवानाह-नो सम्मूछिममनुष्याणामुत्पद्यते, तेषां विशिष्टचारित्रप्रतिपत्त्यसम्भवात् , किन्तु गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां, एवं सर्वेषामपि प्रश्ननिर्वचनसूत्राणां भावार्थो भावनीयः, नवरं कृषिवाणिज्यतपःसंयमानुष्ठानादिकर्मप्रधाना भूमयः कर्मभूमयो-भरतपञ्चकैरवतपञ्चकमहाविदेहपञ्चकलक्षणाः पञ्चदश तासु जाताः कर्मभूमिजाः, कृष्यादिकमरहिताः कल्पपादपफलोपभोगप्रधाना भूमयो हैमवतपञ्चकहरिवर्पपञ्चकदेवकुरुपञ्चकोत्तरकुरुप-14 १ योजनशतसहस्रेषु अतृतीयेषु द्वीपसमुोषु पञ्चदशसु कर्मभूमिधु त्रिंशत्यकर्मभूमिषु षपचाशत्यन्तद्वीपेषु गर्भव्युत्कान्तिकमनुष्याणामेकोबारेषु वा प्रश्रवणेषु वालेष्मसु वा सिधाणेषु वा वान्तेषु वा पित्तेषु वा शुकेषु वा शोणितेषु मा शुक्रपुदलपरिशाटेषु वा विगतकलेवरेषु स्त्रीपुरुषसंयोगेषु वा धाम निर्धमनेषु वा नगरनिदामनेषु वा सर्वेष्वेवाशुधिस्थानेषु भत्र समूच्छिममनुष्याः संमूच्र्छन्ति, अलस्यासंख्यभागमात्रयाऽवगाइनमा अपेशिनो मिभ्यारष्ठयोऽशानिनः सर्वामिः पर्या तिभिरपर्याप्तकाः अन्तर्मुहर्तायुष एव कालं कुर्वन्ति । [८१] CSROEACCASK ~206~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [१७] दीप अनुक्रम [८] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१७] / गाथा || ५७...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४४], चूलिका सूत्र [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः श्रीमलय गिरीया ॥१०२॥ चकरम्यकपञ्चकैरण्यवतपञ्चकरूपास्त्रिंशद कर्मभूमयः तासु जाता अकर्मभूमिजाः, तथा अन्तरे-लवणसमुद्रस्य मध्ये द्वीपा अन्तरद्वीपाः- एकोरुकादयः षट्पञ्चाशत् तेषु जाताः अन्तरद्वीपजाः । अथ लवणसमुद्रस्य मध्ये पट्पञ्चाशदन्तरद्वीपा नन्दीवृत्ति: ५ वर्तन्ते किंप्रमाणा वा ते किंखरूपा वा तत्र मनुष्या इति ?, उच्यते, इह जम्बूद्वीपे भरतस्य हैमवतस्य च क्षेत्रस्य सीमाकारी भूमिनिमग्नपञ्चविंशतियोजनो योजनशतोच्छ्रायप्रमाणो भरतक्षेत्रापेक्षया द्विगुणविष्कम्भो हेममयश्वीनपट्टवण्णों नानावर्ण्यविशिष्टद्युतिमणिनिकरपरिमण्डितपार्श्वः सर्वत्र तुल्यविस्तारो गगनमण्डलोलिखितरत्नमयैकादशकूटोपशोभितः तपनीयमयतलविविधमणिकनकमण्डिततटदशयोजनावगाढपूर्वपश्चिमयोजन सहस्रायामदक्षिणोत्तरयोजनपञ्चशतविस्तृतपद्मइदोपशोभितशिरोमध्यभागः कल्पपादप श्रेणिरमणीयः पूर्वापरपर्यन्ताभ्यां लवणार्णवजलसंस्पर्शी हिमवनामा पर्वतः, तस्य लवणार्णवजलसंस्पर्शादारभ्य पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि प्रत्येकं द्वे द्वे गजदन्ताकारे दंष्ट्रे विनिर्गते, तत्र ऐशान्यां दिशि या विनिर्गता दंष्ट्रा तस्यां हिमवतः पर्यन्तादारभ्य त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाथ अत्रान्तरे योजनशतत्रयायामविष्कम्भः किञ्चिन्यूनैकोनपञ्चादशधिकनवयोजनशतपरिश्य एकोरुकनामा द्वीपो वर्त्तते, अयं च पञ्चधनुःशतप्रमाणविष्कम्भया गव्यूतिद्वयोच्छ्रितया पद्मवश्वेदिकया वनखण्डेन च सर्वतः परिमण्डितः, एवं तस्यैव हिमवतः पर्वतस्य पर्यन्तादारभ्य दक्षिणपूर्वस्यां दिशि त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाद्य द्वितीयदंष्ट्रायामुपरि एकोरुकद्वीपप्रमाण आभासिकनामा द्वीपो वर्त्तते, तथा तस्यैव हिमवतः पश्चिमायां दिशि पर्यन्तादारभ्य Eucation Intematon For Palsta Use On ~207~ मन:पर्ययेअन्तरद्वीप स्वरूपं. १५ २० ॥१०२॥ २३ www.landbrary org Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [१७]/गाथा ||५७...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: अन्तरदीपा: प्रत सूत्रांक [१७] दक्षिणपश्चिमायां, नैर्ऋतकोणानुसारेण इत्यर्थः, त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रे दंष्ट्राप्रतिक्रम्यात्रान्तरे यथोक्तप्रमाणो वैषाषिकनामा द्वीपो वर्त्तते, तथा तस्यैव हिमवतः पश्चिमायामेव दिशि पर्यन्तादारभ्य पश्चिमोत्तरखां दिशि, वायव्यकोणानुसारेण इत्यर्थः, त्रीणि शतानि योजनानां लवणसमुद्रमध्ये चतुर्थीदंष्ट्रामतिक्रम्यानान्तरे पूर्वोक्तप्रमाणो नङ्गोलिकनामा द्वीपो वर्त्तते, एवमेते चत्वारो द्वीपा हिमवतः चतसृष्वपि विदिक्षु तुल्यप्रमाणा अवतिष्ठन्ते, उक्तं च“चुलेहिमवंतपुवावरेण विदिसासु सागरं तिसए । गंतूणंतरदीवा तिन्नि सए होति विच्छिन्ना ॥१॥ अउणापन्ननवसए किंचूणे परिहि एसिमे नामा। एगोरुज आभासिय वेसाणी चे नंगूली ॥२॥" तत एतेषामेकोरुकादीनां चतुण्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येक २ चत्वारि २ योजनशतान्यतिक्रम्य चतुर्योजनशतायामविष्कम्भाः किञ्चिन्यूनपञ्चषष्ट्यधिकद्वादशयोजनशतपरिक्षेपाः यथोक्तपद्मवरवेदिकावनखण्डमण्डितपरिसराः हयकर्णगजकपणेगोकर्णशष्कुलीकपर्णनामानश्चत्वारो द्वीपाः, तद्यथा-एकोरुकस्य परतो हयकपणेः, आभासिदूकस्य परतो गजकर्णः, वैषाणिकस्य परतो गोकणों, नकोलीकस्य परतो शकुलीकणे इति, ततः एतेषामपि हयकर्णादीनां चतुण्णी द्वीपानां परतः पुनरपि यथाक्रम पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं पञ्च योजनशतानि व्यतिक्रम्य दीप अनुक्रम [८१] १वककहिमवतः पूर्वापरयोविविध सागर त्रिपाती । गत्वान्तरखीपाः श्रीणि वातानि भवन्ति विस्तीर्णाः ॥1॥ एकोनपापदधिकानि नव प्रतानि किचिनानि परिधिः एषामिमानि नामानि । एकोपक आभातिको पेषाणिकन नहोलिका ॥२॥ Kamsumurary.com ~ 208~ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१७]/गाथा ||५७...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः दीपा प्रत ॥१०॥ [१७]] दीप अनुक्रम दीपञ्चयोजनशतायामविष्कम्भा एकाशीत्यधिकपञ्चदशयोजनशतपरिक्षेपाः पूर्वोक्तप्रमाणपद्मवरवेदिकावनखण्डमण्डित-13 वायप्रदेशा आदर्शमुखमेमुखायोमुखगोमुखनामानश्चत्वारो द्वीपाः, तद्यथा-हयकर्णस्य परतः आदर्शमुखो, गज-IRI कर्णस्य परतो मेह्रमुखो, गोकर्णस्य परतो अयोमुखः, शष्कुलीकणस्य परतो गोमुख इति । एवमग्रेऽपि भावना| ६ कार्या । ततः एतेषामप्यादर्शमुखादीनां चतुण्णो द्वीपानां परतो भूयोऽपि यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं षड् योजनशतान्यतिक्रम्य षड्योजनशतायामविष्कम्भाः सप्तनवत्यधिकाष्टादशयोजनशतपरिक्षेपा यथोक्तप्रमाणपमवरवेदिकावनखण्डमण्डितपरिसरा अश्वमुखहस्तिमुखसिंहमुखव्याघ्रमुखनामानश्चत्वारो द्वीपाः। तत एतेषामप्यश्वमुखादीनां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं सप्त २ योजनशतानि अतिक्रम्य सप्तरयोजनशतायामविष्कम्भास्त्रयोदशाधिकद्वाविंशतियोजनशतपरिधयः पूर्वोक्तप्रमाणपनवरवेदिकावनखण्डसमवगूढा अश्वकर्णहरिकर्णहस्तिकर्णकर्णप्रावरणनामानश्चत्वारो द्वीपाः । तत एतेषामप्यश्वकर्णादीनां चतुण्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकमष्टावष्टी योजनशतान्यतिक्रम्य अष्टरयोजनशतायामविष्कम्भा एकोनत्रिंशदधिकपञ्चविंशतियोजनशतपरिक्षेपा यथोक्तप्रमाणपद्मवरवेदिकावनखण्डमण्डितपरिसरा उल्कामुखमेघमुखविद्युन्मुखविद्युइन्ताभिधाना-8॥१०॥ श्चत्वारो द्वीपाः । ततोऽमीपामपि उल्कामुखादीनां चतुण्णा द्वीपानां परतो यथाक्रम पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं नव नव। योजनशतान्यतिक्रम्य नवनवयोजनशतायामविष्कम्भाः पञ्चचत्वारिंशदधिकाष्टाविंशतियोजनशतपरिक्षेपा यथोक्तप्र [८१] SRO ~ 209~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [१७]/गाथा ||५७...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: अन्तरद्वीपा: प्रत सूत्रांक [१७] AAAAAACHECK दीप अनुक्रम माणपावरवेदिकावनखण्डसमवगूढाः समदन्तलष्टदन्तगूढदन्तशुद्धदन्तनामानश्चत्वारो द्वीपाः । एवमेते हिमवति पर्वते चतसृषु विदिक्षु व्यवस्थिताः सर्वसङ्ख्यया अष्टाविंशतिसझ्या द्वीपाः । एवं हिमवत्तुल्यवर्णप्रमाणे पमहदप्रमाणायाहामविष्कम्भावगाहपुण्डरीकहदोपशोभिते शिखरिण्यपि पर्वते लवणार्णवजलसंस्पर्शादारभ्य चतसृषु विदिक्षु व्यवस्थिताः आएकोरुकादिनामानोऽक्षणापान्तरालायामविष्कम्भा अष्टाविंशतिसङ्ख्या द्वीपा वक्तव्याः । ततः सर्वसङ्ग्यया षट्पञ्चाश-1 दन्तरद्वीपाः । एतेषु च वर्तमाना मनुष्या अपि एवंनामानो भवन्ति, भवति च निवासयोगतः तथाव्यपदेशो यथा पञ्चालजनपदनिवासिनः पुरुषाः पञ्चाला इति,तेऽपि चान्तरद्वीपवासिनो मनुष्या वर्षभनाराचसंहननिनः समचतुरस्रसंस्थानसंस्थिताः समग्रशुभलक्षणतिलकमपपरिकलिता देवलोकानुकारिरूपलावण्यालङ्कारशोभितविग्रहा अष्टधनुःशतप्रमाणशरीरोच्छायाः, स्त्रीणां विदमेव किञ्चिन्न्यूनं द्रष्टव्यं, तथा पल्योपमासङ्ख्येयभागप्रमाणायुषः स्त्रीपुरुषयुगलव्यवस्थिताः दशविधकल्पपादपसम्पाद्योपभोगसम्पदः प्रकृत्यैव शुभचेतसो विनीताः प्रतनुक्रोधमानमायालोभाः सन्तोपिणो निरौत्सुक्याः कामचारिणोऽनुलोमवायुवेगाः सत्यपि मनोहारिणि मणिकनकमौक्तिकादिके ममत्वकारिणि ममत्वाभिनिवेशरहिताः सर्वथापगतवैरानुबन्धाः परस्परप्रेष्यादिभावविनिर्मुक्ता अत एवाहमिन्द्रा हस्त्यश्वकरभगोमहिष्यादीनां सद्भावेऽपि तत्परिभोगपराअखाः पादविहारचारिणो रोगवेदनादिविकला वर्तन्ते, चतुर्थाहारमेते गृह्णन्ति चतुःषष्टिश्च पृष्टकरण्डकास्तेषां, षण्मासावशेषायुषश्वामी स्त्रीपुरुषयुगलं प्रसुवते एकोनाशीतिदिनानि च तत् [८१] नि 3 ~210~ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) .................... मूल [१७]/गाथा ||५७...|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: गिरीया प्रत श्रीमलय- नन्दीवृत्तिः ॥१०॥ सुत्राक [१७] परिपालयन्ति स्तोकस्नेहकषायतया च ते मृत्वा देवलोकमुपसर्पन्ति, उक्तं च-"अंतरदीवेसु नरा घणुसयअसिवा |सया ऊमुइया । पालंति मिहुणधम्म पलस्स असंखभागाउ ॥१॥ चउसट्ठी पिढिकरंडयाण मणुआण वेसिमाहारो। भत्तस्स चउत्थस्स य अणुसीति दिणाणि पालणया ॥२॥" इत्यादि, तिर्यञ्चोऽपि च तत्र व्याघसिंहसर्पादयो रौद्रभावरहिततया न परस्परं हिंस्यहिंसकभावे वर्तन्ते, तत एव तेऽपि देवलोकगामिनो भवन्ति, तेषु च द्वीपेषु शाल्यादीनि धान्यानि विलसात एव समुत्पद्यन्ते, परं न ते मनुष्यादीनां परिभोगाय जायन्ते, तेषु च द्वीपेषु देशमशकयूकामत्कुणादयः शरीरोपद्रवकारिणोऽनिष्टसूचकाश्च चन्द्रसूर्योपरागादयो न भवन्ति, भूमिरपि तत्र रेणुपङ्ककण्टकादिरहिता सकलदोपपरित्यक्ता सर्वत्र समतला रमणीया च वर्तत इति । तथा 'संखेजवासाउयत्ति सोयवर्षायुषः-पूर्वकोट्यादिजीविनः असमयेयवर्षायुषः-पल्पोपमादिजीविनः, तथा 'पजचग'त्ति पर्याप्ति:-आहारादिपुद्गलग्रहणपरिणमनहेतुरात्मनः शक्तिविशेषः, स च पुद्गलोपचयात्, किमुक्तं भवति ?-उत्पत्तिदेशमागतेन ये गृहीता आहारादिपुद्गलास्तेषां तथा अन्येषां च प्रतिसमयं गृह्यमाणानां तत्सम्पर्कतः तद्रूपतया जातानामुपष्टम्भेन यः शक्तिविशेषो जीवस्थाहारादिपुदलानां खलरसादिरूपतया परिणमनहेतुर्यघोदरान्तर्गतानां पुद्ग लविशेषाणामवष्टम्भेनाहारपुबलखलरस दीप अनुक्रम [८१] अन्तरदीपेषु नरा धनुःशताष्ट कोरिटताः सदा मुदिताः । पातयन्ति मिथुरथम पवमासंबवभागायुषःचतुष्पष्टिः करण्यकानां मनुना वेशमाहाराबधक्कादेच्छेचा विदिनांध पाहब २॥ anditurary.com ~211~ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [१७]/गाथा ||५७...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्राक [१७]] रूपताऽऽपादनहेतुः शक्तिविशेषः सा पर्याप्तिः, सा च पोढा, तद्यथा-आहारपर्याप्तिः शरीरपर्याप्तिः इन्द्रियपर्याप्तिःप्राणा-12 पयोत्यपानपर्याप्तिःभाषापर्याप्तिःमनःपर्याप्तिश्चेति, तत्र यया वास्यमाहारमादाय खलरसरूपतया परिणमयति साऽऽहारपर्या- धिकारः तिः१,यया रसीभूतमाहारं रसासृग्मांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्रलक्षणसप्तधातुरूपतया परिणमयति सा शरीरपर्याप्तिः २, क्या धातुरूपतया परिणमितमाहारमिन्द्रियरूपत या परिणमयति सा इन्द्रियपर्याप्तिः ३, यया पुनरुच्छासप्रायोग्यवर्गणादलिकमादायोच्छ्रासरूपतया परिणमय्यालम्ब्य च मुञ्चति सा उच्छासपर्याप्तिः४, यया तु भाषाप्रायोग्यवर्गणादलिक-6 मादाय भाषात्वेन परिणमय्यालम्ब्य च मुञ्चति सा भाषापसिः ५, यया पुनर्मनोयोग्यवर्गणादलिकमादाय मनस्त्वेन परिणमय्यालम्व्य च मुश्चति सा मनःपर्याप्तिः६, एताश्च यथाक्रममेकेन्द्रियाणां संझिवर्जानां द्वीन्द्रियादीनां संजिनां च चतुःपञ्चषट्सङ्ख्या भवन्ति, उत्पत्तिप्रथमसमय एव चैता यथायथं सर्वो अपि युगपनिष्पादयितुमार-2 भ्यन्ते क्रमेण च निष्ठामुपयान्ति, तद्यथा-प्रथममाहारपर्याप्सिः ततः शरीरपर्याप्तिः तत इन्द्रियपयोप्तिरित्यादि, बाहा-4 रपयोतिथ प्रथमसमय एव निष्पद्यते, शेषास्तु प्रत्येकमन्तर्मुहर्तेन कालेन, अथाहारपयोंप्ति प्रथमसमय एव निष्पद्यते इति कथमवसीयते', उच्यते, इह भगवता आर्यश्यामेन प्रज्ञापनायामाहारपदे द्वितीयोद्देशक सूत्रमिदमपाठि-आहामारपजचीए अपजत्तए णं भंते । किं आहारए अणाहारए वा?, गोयमा! नो आहारए अणाहारए"ति, तत आहार- १२ दीप अनुक्रम [८१] १ आहारपर्याया अपर्याप्तो भदन्त । किमाहारकोऽनाहारको बा । गौतम ! नो बाद्वारकः बनाद्वारक: 1, For P OW ~ 212~ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूल [१७]/गाथा ||५७...|| ........... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पर्यास्य धिकार प्रत सुत्राक [१७]] श्रीमलय- पर्याप्त्या अपर्याप्सो विग्रहगतावेवोपपद्यते, नोपपात क्षेत्रमागतोऽपि, उपपातक्षेत्रमागतस्य प्रथमसमय एवाहारकनन्दीबृत्तिः दत्वात् , तत एकसामायिकी आहारपर्याप्तिनिर्वृत्तिः, यदि पुनरुपपातक्षेत्रमागतोऽपि आहारपर्यात्या अपर्याप्सः स्यात् तत एवं सति व्याकरणसूत्रमित्थं पठेत्-'सिय आहारए सिय अणाहारए' यथा शरीरादिपर्याप्तिषु, सर्वासामपि च पर्याप्तीनां परिसमाप्सिकालोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणः । पर्याप्तयो विद्यन्ते येषां ते पर्याप्सा 'अनादिभ्य' इति मत्वर्थीयोजप्रत्ययः । ये पुनः खयोग्यपर्याप्तिपरिसमाप्तिविकलाः ते अपर्याप्साः, ते च द्विधा-लब्ध्या करणैश्च, तत्र येऽपर्याप्तका एव सन्तो नियन्ते न पुनः खयोग्यपर्याप्तीः सर्वा अपि समर्थयन्ते ते लब्ध्यपर्याप्सकाः, तेऽपि नियमादाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपरिसमाप्तावेव नियन्ते, नार्वाक्, यस्मादागामिभवायुर्ववा नियन्ते सर्व एव देहिनः, तच्चाहारशरीरेन्द्रिसायपर्याप्तिपर्याप्सानामेव बध्यत इति, ये पुनः करणानि-शरी रेन्द्रियादीनि न तावन्निवर्तयन्ति अथ चावश्यं निर्वःयिष्यन्ति ते करणापर्यासकाः, इहोभयेषामप्यपर्याप्सानां प्रतिषेधः, उभयेषामपि विशिष्टचारित्रप्रतिपत्त्यसम्भवात् , तथा 'सम्मट्ठिी'त्ति सम्यक्-अविपरीता दृष्टिः-जिनप्रणीतवस्तुप्रतिपत्तियेषां ते सम्यग्रष्टयः, मिथ्या-विपरीता:॥१०॥ दरष्टियेषां ते मिथ्यारष्टयः, सम्यक् च मिथ्या च रष्टियेषां ते सम्यगमिध्यादृष्टयः, येषामेकस्मिन्नपि च वस्तुनि तत्पदोये वा मतिदौर्बल्यादिना एकान्तेन सम्यकपरिज्ञानमिथ्याज्ञानाभावतो न सम्यश्रद्धानं नाप्येकान्ततो विप्रतिपत्तिः | २४ +ESCORTS दीप अनुक्रम [८१] ~213~ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) .................... मूल [१७]/गाथा ||५७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७]] दीप अनुक्रम ते सम्यगमिध्यादृष्टयः, उक्तं च शतकवृहचूण्णौं-जहाँ नालिकेरदीववासिस्स खुहाइयस्सवि एत्थ समागयस्स ओ- आमपीशायणाइए अणेगविहे ढोइए तस्स उवरिं न रुई न य निंदा, जओ तेण सो ओयणाइओ आहारो न कयाइ दिट्ठो नावि | पध्यादि सुओ, एवं सम्ममिच्छद्दिहिस्सवि जीवाइपयत्थाणं उवरिं न य रुई नाबि निंद'त्ति, तथा 'संजय'त्ति 'यम उपरमे' संयच्छन्ति स्म सर्वसावद्ययोगेभ्यस्सम्यगुपरमन्ते स्मेति संयताः, “गत्यर्थकर्मण्याधारे"ति कर्तरि क्तप्रत्ययः, संयता:-II सकलचारित्रिणः असंयता:-अविरतसम्यग्ररष्टयः संयतासंयता:-देशविरतिमन्तः, तथा 'पमत्त'त्ति प्रमाद्यन्ति स्म मो. हनीयादिकम्मोदयप्रभावतः सज्वलनकषायनिद्राद्यन्यतमप्रमादयोगतः संयमयोगेषु सीदन्ति स्मेति प्रमत्ताः, पूर्वबत् कत्तेरि तप्रत्ययः, ते च प्रायो गच्छवासिनः, तेषां कचिदनुपयोगसम्भवात्, तद्विपरीता अप्रमत्ताः, ते च प्रायो जिनकल्पिकपरिहारविशुद्धिकयथालन्दकल्पिकप्रतिमाप्रतिपन्नाः, तेषां सततोपयोगसम्भवाद्, इह तु ये गच्छवासिनः तन्निगता वा प्रमादरहिताः तेप्रमत्ता द्रष्टव्याः, तथा 'इहिपत्तस्से'त्यादि, ऋद्धी:-आमर्पोषध्यादिलक्षणाः प्राप्ता ऋद्धिप्राप्ताः तद्दिपरीता अनृद्धिप्राप्ताः, ऋद्धीश्च प्राप्नुवन्ति विशिष्टमुत्तरोत्तरमपूर्वापूर्वार्थप्रतिपादकं श्रुतमवगाहमानाः श्रुतसामथ्येतस्तीनां तीव्रतरां शुभभावनामधिरोहन्तोऽप्रमत्तयतयः, तथा चोक्तम्-'अवगाहते च स श्रुतजलधि प्राप्नोति चावधिज्ञानम् । मानसपर्यायं वा ज्ञान कोष्ठादिबुद्धिर्वा ॥१॥चारणवैक्रियसौषधताद्या वा लब्धयस्तस्य । १ यथा नालि केरद्वीपवासिनः क्षुधादितस्यापीहागतस्यौदनादिकेऽनेकविध बाकिते तस्योपरि न रुचिः नापि निन्दा, यतस्तेन स ओदनादिक भाद्दारो न कदाचित दृष्टो नापि श्रुतः, एवं सम्यग्मिभ्याटेरपि जीवादिपदार्थानामुपरि न च रुचिर्नापि निन्देति । [८१] I mmunmurary.org ~214~ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूल [१७]/गाथा ||५७...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत [१७] श्रीमलय-1 प्रादुर्भवन्ति गुणतो बलानि वा मानसादीनि ॥२॥" अत्र स इति अप्रमत्तयतिः 'मानसपर्याय'मिति मानसाः- आमपाँ गिरीया मनःसम्बन्धिनः पर्याया विषयो यस्य तन्मानसपर्याय, मनःपर्यायज्ञानमित्यर्थः, 'कोष्ठादिबुद्धिति अत्रादिशब्दात्प- पध्यादि नन्दीवृत्तिः दानुसारिवीजबुद्धिपरिग्रहः, तिस्रो हि बुद्धयः परमातिशयरूपाः प्रवचने प्रतिपाद्यन्ते, तद्यथा-कोष्ठबुद्धिः पदानुसारिणी॥१०६॥ बुद्धिः बीजबुद्धिश्च, तत्र कोष्ठ इव धान्यं या बुद्धिराचार्यमुखाद्विनिर्गतौ तदवस्थावेव सूत्रार्थों धारयति, न किमपि तयोः सूत्रार्थयोः कालान्तरेऽपि गलति सा कोष्ठबुद्धिः, या पुनरेकमपि सूत्रपदमवधार्य शेषमश्रुतमपि तदवस्वमेव है श्रुतमवगाहते सा पदानुसारिणी, या पुनरेकमर्थपदं तथाविधमनुसृत्य शेषमश्रुतमपि यथावस्थितं प्रभूतमर्थमवगाहते सा बीजबुद्धिः, सा च सर्वोत्तमा प्रकर्षप्राप्ता भगवतां गणभृतां, ते हि उत्पादादिपदत्रयमवधार्य सकलमपि द्वादशामात्मकं प्रवचनमभिसूत्रयन्ति, तथा चारणाश्च वैक्रियं च सर्वोषधश्च चारणवैक्रियसौंषधाः तद्भावः चारणवैक्रियसर्वोषधता, तत्र चरण-गमनं तद्विद्यते येषां ते चारणा 'ज्योत्लादिभ्योऽण' इति मत्वर्थीयोऽण्प्रत्ययः, तत्र गमन-11 मन्येषामपि मुनीनां विद्यते ततो विशेषणान्यथानुपपत्त्या चरणमिह विशिष्ट गमनमभिगृह्यते, अत एवाति ||१०६॥ शायने मत्वर्थीयो, यथा रूपवती कन्येत्यत्र, ततोऽयमर्थः-अतिशयचरणसमर्थाश्चारणाः, तथा चाह| भाध्यकृत् खभाष्यटीकायां-अतिशयचरणाचारणाः, अतिशयगमनादित्यर्थः, ते च द्विधा-जवाचारणा विद्याचारगाथ, तत्र ये चारित्रतपोविशेषप्रभावतः समुद्भूतगमनविषयलब्धिविशेषास्ते जहाचारणाः, ये पुनर्विबावशतः दीप 0 अनुक्रम [८१] SARERatunmainanimal Minasurary.orm ~215~ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूल [१७]/गाथा ||५७...|| ............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पाविद्याचारणाः प्रत सूत्रांक [१७] दीप अनुक्रम समुत्पन्नगमनागमनलब्ध्यतिशयाः ते विद्याचारणाः, जलाचारषास्तु रुचकवरद्वीपं यावद्गन्तुं समर्थाः विद्या- चारणा नन्दीश्वरं, तत्र जवाचारणा यत्र कुत्रापि गन्तुमिच्छवः तत्र रविकरानपि निश्रीकृत्य गच्छन्ति | विद्याचारणास्त्वेवमेव, जवाचारणश्च रुचकवरद्वीपं गच्छन्नेकेनैवोत्पातेन गच्छति, प्रतिनिवर्तमानस्त्वेकेनोत्पातेन | नन्दीश्वरमायाति द्वितीयेन खस्थानं, यदि पुनर्भरुशिखरं जिगमिषुस्तहि एकेनैवोत्पातेन पण्डकवनमधिरोहति, प्रतिनिवर्तमानस्तु प्रथमेनोत्पातेन नन्दनवनमागच्छति द्वितीयेन स्वस्थानमिति, जकाचारणो हि चारित्रातिशयप्रभा|वतो भवति ततो लब्ध्युपजीवने औत्सुक्यभावतः प्रमादसम्भवाचारित्रातिशयनिबन्धना लब्धिरपहीयते ततः प्रतिनिवर्तमानो द्वाभ्यामुत्पाताभ्यां खस्थानमायाति, विद्याचारणः पुनः प्रथमेनोत्पातेन मानुषोत्तरं पर्वतं गच्छति द्वितीयेन तु नन्दीश्वरं, प्रतिनिवर्तमानस्त्वेकेनवोत्पातेन खस्थानमायाति, तथा मेरं गच्छन् प्रथमेनोत्पातेन नन्दनवनं गच्छति द्वितीयेन पण्डकवनं, प्रतिनिवर्तमानस्त्वेकेनैवोत्पातेन खस्थानमायाति, विद्याचारणो हि विद्यावशाद्भवति, विद्या च परिशील्यमाना स्फुटा स्फुटतरोपजायते, ततः प्रतिनिवर्तमानस्य शक्त्यतिशयसम्भवादेकेनोत्पातेन स्वस्थानागमनमिति, उक्तं च-"अइसयचरणसमत्था जंघाविजाहि चारणा मणुओ । जंघाहि जाइ पढमो नीसं काउं रविकरेऽवि ॥१॥ एगुप्पाएण गओ रुयगवरंमि उ तओ पडिनियत्तो । बिइएणं नंदिस्सरमिदं तओ एइ तइएणं ॥२॥ पढमेण पंडगवर्ण बिहउप्पाएण नंदणं एइ । तइउप्पारण तओ इह जंघाचारणो एइ॥३॥ पढमेण [८१] पेट १३ ~ 216~ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूल [१७]/गाथा ||५७...|| ........... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: या प्रत श्रीमलय- गिरीया नन्दीवृत्तिः ॥१०७॥ सुत्राक [१७] दीप अनुक्रम माणुसोत्तरनगं स गंदिस्सरं तु विइएणं । एइ तओ तइएणं कयचेइयवंदणो इहयं ॥४॥ पढमेण नंदणवणे विह- उप्पाएण पंडगवर्णमि । एइ इहं तइएणं जो विजाचारणो होइ ॥५॥" तथा सर्व-विषमूत्रादिकमौषधं यस्य सा सर्वोषधः, किमुक्तं भवति ?-यस्य मूत्रं विद श्लेष्मा शरीरमलो वा रोगोपशमसमर्थो भवति स सर्वोषधः, आधशब्दा-12 | दामोषध्यादिलब्धिपरिग्रहः, तथा आमपोषध्यादीनामन्यतमामृद्धिमवध्य॒द्धिं वा प्राप्तस्य मनःपर्यायज्ञानमुत्पद्यते, नानृद्धिप्राप्तस्य, अन्ये त्ववध्वृद्धिप्राप्तस्यैवेति नियममाचक्षते, तदयुकं, सिद्धप्राभृतादाववधिमन्तरेणापि मनःपर्यायज्ञानस्यानेकशोऽभिधानात् । अत्राह-मनुष्याणामुत्पद्यते इत्युक्ते सामर्थ्यांदमनुष्याणां नोत्पद्यते इत्यनुमीयते, ततः कथमुच्यते 'नो अमणुस्साणं उप्पजई' इत्यादि, निरर्थकत्वाद् ?, उच्यते, इह त्रिधा विनेयाः, तद्यथा-उद्घटितज्ञा मध्यमबुद्धयः प्रपश्चितज्ञाश्च, तत्र ये उद्घटितज्ञा मध्यमबुद्धयो वा ते यथोक्तं सामर्थ्यमवबुध्यन्ते, ये पुनरद्याप्यव्युत्पन्नत्वात् न यथोक्तसामर्थ्यावगमकुशलाः ते प्रपश्चितमेवावगन्तुमीशते ततस्तेषामनुग्रहाय सामर्थ्यलभ्यस्यापि विपक्षनिषेधस्थाभिधानं, महीयांसो हि परमकरुणापरीतत्वादविशेषेण सर्वेषामनुग्रहाय प्रवर्तन्ते, ततो न कश्चिदोषः। तं च दुविहं उप्पजइ, तंजहा-उज्जुमई य विउलमई य, तं समासओ चउव्विहं पन्नतं, तंजहा-दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ, तत्थ दव्वओ णं उज्जुमई णं अणते अणंतपएसिए खंधे जाणइ पासइ ते चेव विउलमई अब्भहियतराए विउलतराए विसुद्धतराए वितिमि [८१] ॥१०७॥ ~217~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [१८]/गाथा ||१८|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: | मनःपर्या यस्सविषयः प्रत सूत्रांक [१८] दीप अनुक्रम [८२-८४] RECTORSCOREOGRACTROCTOR रतराए जाणइ पासइ, खेत्तओणं उज्जुमई अजहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजयभागं उक्कोसेणं अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेटिल्ले खुड्डगपयरे उहुं जाव जोइसस्स उवरिमतले, तिरियं जाव अंतोमणुस्सखित्ते अड्डाइजेसु दीवसमुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमिसु तीसाए अकम्मभूमिसु छप्पन्नाए अंतरदीवगेसु सन्निपंचेंदिआणं पज्जत्तयाणं मणोगए भावे जाणइ पासइ, तं चेव विउलमई अड्डाइजेहिमंगुलेहिं अब्भहिअतरं विउलतरं विसुद्धतरं वितिमिरतरागं खेत्तं जाणइ पासइ, कालओ णं उज्जुमई जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखिजइभागं उक्कोसेणवि पलिओवमस्स असंखिजइभागं अतीयमणागयं वा कालं जाणइ पासइ, तं चेव विउलमई अब्भहियतरागं विउलतरागं विसुद्धतरागं वितिमिरतरागं जाणइ पासइ, भावओ णं उज्जुमई अणंते भावे जाणइ पासइ सव्वभावाणं अणंतभागं जाणइ पासइ, तं चेव विउलमई अब्भहियतरागं विउलतरागं विसुद्धतरागं वितिमिरतरागं जाणइ पासइमणपज्जवनाणं पुण जणमणपरिचिंतिअत्थपागडणं । माणुसखित्तनिबद्धं गुणपञ्चइअं चरिसवओ (५८)॥ सेत्तं मणपज्जवनाणं ॥ (सू०१८) R REILamarana ~ 218~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [१८]/गाथा ||५८|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८] दीप अनुक्रम [८२-८४] श्रीमलय- तत्र मनःपर्यायज्ञानसृद्धिप्रासानामप्रमत्तसंयतानामुत्पद्यमानं द्विधोत्पद्यते, तद्यथा-ऋजुमतिश्च विपुलमतिश्च, तत्र मजुविपुलगिरीया मननं मतिः,संवेदनमित्यर्थः, रज्वी-सामान्यग्राहिणी मतिः ऋजुमतिः घटोऽनेन चिन्तित इत्यादिसामान्याकाराध्यव-11 मती नन्दीवृत्तिः ५ सायनिबन्धनभूता कतिपयपर्यायविशिष्टमनोद्रव्यपरिच्छित्तिरित्यर्थः, उक्तं च भाष्यकृता-रिंजु सामन्नं तम्मत्तमाहि-121 ॥१०॥ दणी रिजुमई मणोणाणं । पायं विसेसविमुहं घटमित्तं चिंतियं मुणइ ॥१॥" चूर्णिकृदप्याह-"उज्जु णं विसेसविमुहं । है उवलहई, नाईय बहुविसेसविसिढे अत्थं उवलभइत्ति भणियं होइ, घडोऽणेण चिंतिओत्ति जाणइति । चशब्दः खगतानेकद्रव्यक्षेत्रादिभेदसूचकः । तथा विपुला-विशेषग्राहिणी मतिः विपुलमतिः, घटोऽनेन चिन्तितः, स च सौ-121 वर्णः पाडलिपुत्रकोऽद्यतनो महान् अपवरकस्थितः फलपिहित इत्याद्यध्यवसायहेतुभूता प्रभूतविशेषविशिष्टमनोद्र-181 व्यपरिच्छित्तिरित्यर्थः, आह च भाष्यकृत-"विपुलं वत्थुविसेसणनाणं तग्गाहिणी मई विपुला । चिंतियमणुसरहा घडं पसंगओ पज्जबसएहि ॥१॥" चूर्णिणकृदपि आह-"विपुला मई विपुलमई बहुबिसेसगाहिणीत्ति भणियं होइ8 दिद्रुतो जहाऽणेण घडो चिंतिओ, तं च देसकालाइअणेगपज्जायविसेसविसिढे जाणइति । चशब्दः पूर्ववत् , अस्यां२२ ऋजु सामान्यं तन्मात्राहिणी अनुमतिमनःपर्यायज्ञानं । प्रायो विशेष विमुख घटमात्र चिन्तितं जानाति ॥1॥१४ विशेषविमुखं उपलभते, नातीव ॥१०८॥ बहुविशेषविशिष्टमर्थ उपलभते इति भणितं भवति, पटोऽनेन चिन्तित इति जानातीति । ३ विपुलं बस्तुविशेषज्ञानं समाहिणी मतिर्विपुला । चिन्तितमनुसरति । घटं प्रसन्नवः पर्यायशतेन ॥१॥ ४ विपुला मतिर्विपुलमतिः बहुविशेषमाहिणीत्युकं भवति दृष्टान्तो यथाऽनेन पटबिन्तितः, तं च देशकालाबनेकपर्यायविशेष नि-1 शिर्ष नानातीति। ~219~ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [१८]/गाथा ||१८|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८] ALSC+CROCOCCASSA दीप अनुक्रम [८२-८४] च व्युत्पत्ती खतत्रमेव ज्ञानमभिधेयं, यदा पुनस्तद्वानभिधेयो विवक्ष्यते तदैवं व्युत्पतिः-ऋज्वी-सामान्यग्राहिणी मतिरस्य स ऋजुमतिः, तथा विपुला-विशेषग्राहिणी मतिरस्य स विपुलमतिः । तत् मनःपर्यायज्ञानं द्विविधमपिए समासतः' संक्षेपेण चतुर्विधं प्रज्ञतं, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतच, तत्र द्रव्यतो णमिति वाक्या-13 लङ्कारे ऋजुमतिरनन्तान् अनन्तप्रदेशिकान्-अनन्तपरमाण्वात्मकान् स्कन्धान्-विशिष्टैकपरिणामपरिणतान् अर्द्ध तृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वर्तिपर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियैर्मनस्त्वेन परिणामितान् पुगलान् पुद्गलसमूहानित्यर्थः जानाति-सासाक्षात्कारेणावगच्छति 'पासईत्ति, इह मनस्त्वपरिणतः स्कन्धेरालोचितं बाबमर्थं घटादिलक्षणं साक्षादध्य क्षतो मनःपर्यायज्ञानी न जानाति, किन्तु मनोद्रयाणामेव तथारूपपरिणामान्यथानुपपत्तितोऽनुमानतः, आह च भाष्यकृत्-"जाणइ बज्झेऽणुमाणेण" इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम् , यतो मूर्त्तद्रव्यालम्बनमेवेदं मनःपर्यायज्ञानमिष्यते, मन्तारस्त्वमूर्तमपि धर्मास्तिकायादिकं मन्यन्ते, ततोऽनुमानत एवं चिन्तितमर्थमवबुध्यन्ते नान्यथेति प्रतिपत्तव्यम् , ततस्तमधिकृत्य पश्यतीत्युच्यते, तत्र मनोनिमित्तस्याचक्षुर्दर्शनस्य सम्भवात् , आह च चूर्णिणकृत्"मुणियत्थं पुण पचक्खओ न पेक्खइ, जेण मणोदवालवणं मुत्तममुत्तं वा, सो य छउमत्थो तं अणुमाणओ पेक्खइ, अतो पासणिया भणिया" इति । अथवा सामान्यत एकरूपेऽपि ज्ञाने क्षयोपशमस्य तत्तद्रव्याद्यपेक्ष्य वैचित्र्यसम्भवा१ जानाति बाह्यानू भनुमानेन. २ चिन्तितार्थ पुनः प्रत्यक्षतो न प्रेक्षते, येन मनोदव्यालम्बनं मूर्तममूर्त बा, स च छद्मस्थस्तत् अनुमानतः प्रेक्षते, अतः पश्यत्ता भणिता । REMIRMILamational ~220~ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [१८]/गाथा ||५८|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्राक [१८] दीप अनुक्रम [८२-८४] श्रीमलय-1दनेकविध उपयोगः सम्भवति, यथाऽत्रैव ऋजुमतिविपुलमतिरूपः, ततो विशिष्टतरमनोद्रव्याकारपरिच्छेदापेक्षया जा-141 गिरीया नातीत्युच्यते, सामान्यमनोरूपद्व्याकारपरिच्छेदापेक्षया तु पश्यतीति, तथा चाह चूर्णिणकृत्-“अहंवा छउमत्थस्स नन्दीवृत्तिः एगविहखओवसमलंभेऽवि विविहोवओगसंभवो भवइ, जहा एत्येव ऋजुमइविपुलमईणं उवओगो, अओ विसेस॥१०९॥ सामन्नत्थेसु उवजुजइ जाणइ पासइत्ति भणियं न दोसो” इति । अत्र 'एगविहखओवसमलंभेऽवित्ति सामान्यत: एकरूपेऽपि क्षयोपशमलम्भेऽपान्तराले द्रव्याद्यपेक्षया क्षयोपशमस्य विशेषसम्भवाद्विविधोपयोगसम्भवो भवतीति, 18/ तदेवं विशिष्टतरमनोद्रव्याकारपरिच्छेदापेक्षया सामान्यरूपमनोद्रव्याकारपरिच्छेदो व्ययहारतो दर्शनरूप उक्तः, पर मार्थतः पुनः सोऽपि ज्ञानमेव, यतः सामान्यरूपमपि . मनोद्रव्याकारप्रतिनियतमेव पश्यति, प्रतिनियतविशेषग्रह-1 लणात्मकं च ज्ञानं न दर्शनम् , अत एव सूत्रेऽपि दर्शनं चतुर्विधमेवोक्तं, न पञ्चविधमपि, मनःपर्यायदर्शनस्य परमार्थ तोऽसम्भवादिति । तथा तानेव मनस्त्वेन परिणामितान् स्कन्धान् विपुलमतिः अभ्यधिकतरान्-अर्द्धतृतीयाङ्गुल-| प्रमाणभूमिक्षेत्रवर्तिभिः स्कन्धैरधिकतरान् , सा चाधिकतरता देशतोऽपि भवति ततः सर्वासु दिक्षु अधिकतरतानतिपादनार्थमाह-विपुलतरकान्-अभूततरकान् , तथा विशुद्धतरान्-निर्मलतरान् जुमस्यपेक्षयाऽतीव स्फुटतरप्रका१ अथवा छपस्थस्यैकविधक्षयोपशमलामेऽपि विविधोपयोगसंभवो भवति, यथा अत्रैव अनुमतिविपुलमल्योसयोगः, अतो विशेषसामान्यार्थेषु उपयुज्यतो जानाति पश्यतीति भनितं न दोषः । ~221~ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [१८]/गाथा ||१८|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्राक [१८] शानित्यर्थः स च प्रतिभासो भ्रान्तोऽपि सम्भवति यथा द्विचन्द्रप्रतिभासः ततो भ्रान्ततम्यावाव्युदासाय मनापदाविशेषणान्तरमाह-वितिमिरतरकान्-विगतं तिमिरं-तिमिरसम्पाद्यो भ्रमो येषु ते वितिमिराः ततो द्वयोः प्रकृष्टे । यायम सू.१८ तरविति'तरप्प्रत्ययः ततः प्राकृतलक्षणात् खार्थे का प्रत्ययः, एवं पूर्वेष्वपि पदेषु यथायोगं व्युत्पत्तिद्रष्टव्या, वितिमिरतरकान्-सर्वथा भ्रमरहितान्, अथवा अभ्यधिकतरकान् विपुलतरकानिति द्वावपि शब्दावेकाओं, विशुद्धतरकान् वितिमिरतरकानेतावपि एकार्थों, नानादेशजा हि विनेया भवन्ति ततः कोऽपि कस्यापि प्रसिद्धो भवति तेषामनुग्रहार्थ-31 |मेकार्थिकपदोपन्यासः । तथा क्षेत्रतो णमिति वाक्यालकारे ऋजुमतिरधो यावदस्या रसप्रभायाः पृथिव्या उपरित-13 नाधस्तनान् क्षुल्लकप्रतरान् । अथ किमिदं क्षुल्लकातर इति ?, उच्यते, इह लोकाकाशप्रदेशा उपरितनाधस्तनदेशरहित तया विवक्षिता मण्डकाकारतया व्यवस्थिताः प्रतरमित्युच्यन्ते, तत्र तिर्यग्लोकस्योर्ध्वाधोऽपेक्षयाऽष्टादशयोजनशत-12 दप्रमाणस्य मध्यभागे द्वौ लघुक्षुल्लकातरौ, तयोर्मध्यभागे जम्बूद्वीपे रत्नप्रभाया बहुसमे भूमिभागे मेरुमध्येऽटप्रादेशिको रुचकः, तत्र गोस्तनाकाराश्चत्वार उपरितनाः प्रदेशाश्चत्वारश्चाधस्तनाः, एप एव रुचकः सर्वासां दिशां विदिशां वा प्रवर्तकः, एतदेव च सकलतिर्यग्लोकमध्यं, तौ च द्वौ सर्वलघू प्रतरावगुलासयेयभागवाहल्यावलोकसंवर्तितौ । हरजुप्रमाणौ, तत एतयोरुपर्यन्येऽन्ये प्रतरास्तिर्यगङ्गुलासङ्ख्येयभागवृद्ध्या बर्द्धमानास्तावमुष्टव्या यावदूर्वलोकमध्यं, तत्र पञ्चरज्जुप्रमाणः प्रतरः, तत उपर्यन्येऽन्ये प्रतरास्तिर्यगनुलासङ्घयेयभागहान्या हीयमानास्तावदवसेया यावलोकान्ते ADS दीप अनुक्रम [८२-८४] REA FarPranaswamincom Relaturary.org ~222~ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [१८]/गाथा ||१८|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: Mममा प्रत सत्राक [१८] दीप अनुक्रम [८२-८४] श्रीमलय- रजुप्रमाणः प्रतरः, इह ऊर्द्वलोकमध्यवर्तिनं सर्वोत्कष्टं पञ्चरजुप्रमाणे प्रतरमवधीकृत्यान्ये उपरितना अधस्तनाथ क्रमेण गिरीया काहीयमानाः २ सर्वेऽपि क्षुल्लकातरा इति व्यवहिवन्ते यावलोकान्ते तिर्यग्लोके च रज्जुप्रमाणप्रतर इति, तथा तिर्यग्लो-18 नन्दीतिः कमध्यवर्त्तिसर्यलघुचलकप्रतरस्याधस्तिर्यगङ्खलासङ्ख्येयभागवृद्ध्या बर्द्धमानाः २ प्रतरास्तावद्वक्तव्या यावदधोलोकान्ते स- स. ॥११॥ र्वोत्कृष्टः सप्तरजुप्रमाणः प्रतरः, तं च सप्तरजुप्रमाणे प्रतरमपेक्ष्यान्ये उपरितनाः सर्वेऽपि क्रमेण हीयमानाः थुलुकप्रतरा अभिधीयन्ते यावत्तिर्यग्लोकमध्यवर्ती सर्वलघुक्षुलकप्रतरः, एपा क्षुल्लकातरप्ररूपणा। तत्र तिर्यग्लोकमध्यवर्तिनः सर्वलघुरजुप्रमाणात् क्षुलुकप्रतरादारभ्य यावदधो नव योजनशतानि ताबदस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां ये प्रतराः ते उपरितन-8 क्षुलकप्रतरा भण्यन्ते, तेषामपि चाधस्ताद्ये प्रतरा यावदधोलौकिकग्रामेषु सर्वान्तिमः प्रतरः तेऽधस्तनक्षुल्लकातराः, तान् |२० यावदधः क्षेत्रत ऋजुमतिः पश्यति, अथवा अधोलोकस्योपरितनभागवर्तिनः क्षुल्लकातरा उपरितना उच्यन्ते, ते चाधोअलौकिकग्रामवर्तिप्रतरादारभ्य ताबदवसेया यावत्तिर्यग्लोकस्यान्तिमोऽधस्तनप्रतरः, तथा तिर्यग्लोकस्य मध्यभागादा रभ्याधोभागवर्तिनः क्षुलकप्रतरा अधस्तना उच्यन्ते, तत उपरितनाश्चाधस्तनाश्च उपरितनाधस्तनाः तान् यावरजुमितिः पश्यति, अन्ये वाहुः-अधोलोकस्योपरिवर्तिन उपरितनाः, ते च सर्वतिर्यग्लोकवर्तिनो यदिवा तिर्यग्लोक-1 ॥११॥ साधो नवयोजनशतवर्तिनो द्रष्टव्याः, ततः तेषामेवोपरितनानां क्षुल्लकप्रतराणां सम्बन्धिनो ये सर्वान्तिमाधस्तनाः क्षुल्लकप्रतराः तान् यावत्पश्यति, अस्मिंश्च व्याख्याने तिर्यग्लोकं यावत्पश्यतीत्यापद्यते, तब न युक्तम् , अधोलोकि 46456-15-16 ~223~ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [१८]/गाथा ||५८|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: मनःप यम् सू.१८ प्रत सूत्रांक [१८] कामवर्त्तिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियमनोद्रव्यापरिच्छेदप्रसङ्गात् ,अथवा(च)अधोलौकिकामेष्वपि संक्षिपञ्चेन्द्रियमनोद्रव्याणि परि|च्छिनत्ति, यत उक्तम्--"इहाधोलौकिकान् ग्रामान्, तिर्यग्लोकविवर्तिनः । मनोगतांस्त्वसौ भावान् , वेत्ति तद्वति- नामपि ॥१॥" तथा-ऊर्दू यावज्योतिश्चक्रस्योपरितलस्तिर्यग् यावदन्तोमनुष्यक्षेत्रे मनुष्यलोकपर्यन्त इत्यर्थः, एतदेव | व्याचष्टे-अर्द्धतृतीयेषु द्वीपेषु पञ्चदशसु कर्मभूमिषु त्रिंशति चाकर्मभूमिषु षट्पञ्चाशत्सयेषु चान्तरद्वीपेषु संज्ञिना, ते चापान्तरालगतावपि तदायुष्कसंवेदनादभिधीयन्ते न च तैरिहाधिकारः ततो विशेषणमाह-पञ्चेन्द्रियाणां, पञ्चे|न्द्रियाश्चोपपातक्षेत्रमागता इन्द्रियपर्याप्तिपरिसमाप्तौ मनःपर्याश्या अपर्याप्ता अपि भवन्ति न च तैः प्रयोजनमतो विशेपणान्तरमाह-पर्याप्तानाम् , अथवा संज्ञिनो हेतुवादोपदेशेन विकलेन्द्रिया अपि भण्यन्ते ततस्तद्वयवच्छेदार्थ पञ्चेन्द्रियग्रहणं, ते चापर्याप्सका अपि भवन्ति तद्यवच्छेदार्थ पर्याप्तग्रहणं, तेषां मनोगतान् भावान् जानाति पश्यति, तदेव मनोलब्धिसमन्वितजीवाधारक्षेत्रं विपुलमतिरर्द्ध तृतीयं येषु तान्यतृतीयानि अङ्गुलानि, तानि च ज्ञानाधिकारादुच्छ्याङ्गुलानि द्रष्टव्यानि, यत उक्तं चूर्षिणकृता-"अट्ठाइयंगुलग्गहणमुस्सेहंगुलमाणओ नाणविसयत्तणओ य न दोसो"त्ति, तैर तृतीयैरझुलैरभ्यधिकतरं, तकदेशमपि भवति तत आह-विपुलतरं-विस्तीर्णतरं, अथवा आयाम| विष्कम्भाभ्यामभ्यधिकतरं बाहुल्यमाश्रित्य विपुलतरं, तथा विशुद्धतरं वितिमिरतरमिति प्राग्वत्, जानाति पश्यति । दीप अनुक्रम [८२-८४] १ अर्थतृतीयामुलपदणमुत्सेधाहलमाननो, ज्ञान विषयलाच न दोष इति । ~ 224~ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [१८] दीप अनुक्रम [८२-८४] श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ॥१११॥ Eucation t “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१८] / गाथा ||१८|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ****** तात्स्थ्याचद्व्यपदेश इति तावत्क्षेत्रगतानि मनोद्रव्याणि जानाति पश्यतीत्यर्थः । यावदुक्तख रूपमनः पर्यायज्ञानप्रतिपादिका गाथा, तस्या व्याख्या - मनःपर्यायज्ञानं प्राग्निरूपितशब्दार्थ, पुनःशब्दो विशेषणार्थः, स च रूपिविषयत्वक्षायोपशमिकत्वप्रत्यक्षत्वादिसाम्येऽप्यवधिज्ञानादिदं मनःपर्यायज्ञानं खाम्यादिभेदाद्भिन्नमिति विशेषयति, तथाहिअवधिज्ञानमविरतसम्यग्दृष्टेरपि भवति द्रव्यतोऽशेषरूपिद्रव्यविषयं क्षेत्रतो लोकविषयं कतिपयलोकप्रमाणक्षेत्रापेक्षया अलोकविषयं च कालतोऽतीतानागतासङ्ख्येयोत्सर्पिणीविषयं भावतोऽशेषेषु रूपिद्रव्येषु प्रतिद्रव्यमसङ्ख्येयपर्यायविषयं, मनः पर्यायज्ञानं पुनः संयतस्याप्रमत्तस्यामपपध्याद्यन्यतमर्द्धिप्राप्तस्य द्रव्यतः संज्ञिमनोद्रव्यविषयं क्षेत्रतो मनुष्य* क्षेत्रगोचरं कालतोऽतीतानागतपल्योपमा सङ्घयेयभागविषयं भावतो मनोद्रव्यगतानन्तपर्यायालम्बनं ततोऽवधिज्ञानाद्भिन्नं, एतदेव लेशतः सूत्रकृदाह - 'जनमनः परिचिन्तितार्थप्रकटनं' जायन्ते इति जनास्तेषां मनांसि जनमनांसि तैः परिचिन्तितश्चासावर्थश्च जनमनः परिचिन्तितार्थः तं प्रकटयति- प्रकाशयति जनमनः परिचिन्तितार्थप्रकटनं, तथा मानुषक्षेत्रनिबद्धं न तद्बहिर्व्यवस्थितप्राणिद्रव्यमनोविपयमित्यर्थः, तथा गुणाः- क्षान्त्यादयस्ते प्रत्ययः कारणं यस्य तद्गुणप्रत्ययं चारित्रवतोऽप्रमत्तसंयतस्य, 'सेत्तं मणपजवनाणं' तदेतत् मनःपर्यायज्ञानं ॥ अथ केवलज्ञान वर्णयते से किं तं केवलनाणं ?, केवलनाणं दुविहं पन्नत्तं, तंजहा-भवत्थकेवलनाणं च सिद्ध केवलनाणं च । से किं तं भवत्थकेवलनाणं ?, भवत्थकेवलनाणं दुविहं पण्णत्तं, तंजहा-सजोगिभवत्थके For Plata Use Only ~225~ सयोग्ययोगि केवलम् सू. १९ २० ॥ १११ ॥ २५ rary or Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [१९]/गाथा ||५८...|| .... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्राक [१९]] वलनाणं च अयोगिभवत्थकेवलनाणं च । से कितं सजोगिभवत्थकेवलनाणं?, सयोगिभवत्थकेवलनाणं दुविहं पण्णतं, तंजहा-पढमसमयसयोगिभवत्थकेवलनाणं च अपढमसमयसजोगिभवत्थकेवलनाणं च, अहवा चरमसमयसयोगिभवत्थकेवलनाणं च अचरमसमयसजोगिभवत्थकेवलनाणं च, से तं सजोगीभवत्थकेवलनाणं। से किं तं अयोगिभवत्थकेवलनाणं?, अयोगिभवत्थकेवलनाणं दुविहं पन्नत्तं, तंजहा-पढमसमयअयोगिभवत्थकेवलनाणं च अपढमसमयअजोगिभवत्थकेवलनाणं च अहवा चरमसमयअजोगिभवत्थकेवलनाणं च अचरमसमयअजोगिभवत्थकेवलनाणं च, से तं अजोगिभवत्थकेवलनाणं । (सू. १९) अथ किं तत्केवलज्ञानं ?, सूरिराह-केवलज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-भवस्थ केवलज्ञानं च सिद्धकेवलज्ञानं च, भवन्ति कर्मयशवर्तिनः प्राणिनोऽस्मिन्निति भयो-नारकादिजन्म, तत्रेह भवो मनुष्यभव एव ग्रायोऽन्यत्र केवलोत्पादाभावात् , भवे तिष्ठन्तीति भवस्थाः 'स्थादिभ्यः क' इति कः प्रत्ययः, तस्य केवलज्ञानं, चशब्दः खगतानेकभेदसूचकः तथा 'पिधू संराद्धी' सिध्यति स्म सिद्धः-यो येन गुणेन परिनिष्ठितो न पुनः साधनीयः स सिद्ध उच्यते, यथा सिद्ध ओदनः, स च कर्मसिद्धादिभेदादनेकविधः, उक्तं च-"कम्मे सिप्पे य विजाए, कर्मणि शिल्ये च विद्यायां, मन्ने योगे चागमे । अर्थे यात्रायामभिप्राये तपसि कर्मक्षय इति ॥१॥ दीप अनक्रम [८५] REaratealDSena ~ 226~ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [१९]/गाथा ||५८...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: सयोग्ययोगिकेवलम् प्रत सुत्राक [१९] दीप भीमलय- मते जोगे अ आगमे । अत्थजचाअभिप्पाए, तवे कम्मखए इअ ॥१॥" अत्र कर्मक्षयसिद्धेनाधिकारोऽन्यस्य गिरीया केवलज्ञानासम्भवाद् , अथवा सितं-बद्धं ध्मातं-भस्मीकृतमष्टप्रकारं कर्म येन स सिद्धः पृषोदरादय इति रूपसिद्धिः, नन्दातसकलकर्मविनिर्मुक्तो मुक्तावस्थामुपागत इत्यर्थः, तस्य केवलज्ञानं सिद्धकेवलज्ञानं, अत्रापि चशब्दः खगताने॥११२॥ कभेदसूचकः । अथ किं तद्भवस्थकेवलज्ञानं ?, भवस्थकेवलज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-सयोगिभवस्थकेवलज्ञानं च अयोगिभवस्थकेवलज्ञानं च, तत्र योजनं योगो-व्यापारः, उक्तं च-कायबाङ्मनःकर्म योगः ( तत्त्वा० अ० ६ सू०१), इह औदारिकादिशरीरयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतिविशेषः काययोगः, औदारिकवैक्रियाहारकव्यापाराहतवागूद्रव्यसमूहसाचिव्याजीवब्यापारो वागयोगः, उक्तं च-"अहंवा तणुजोगाहियवयदवसमूहजीववावारो।सो वय-| जोगो भन्नइ वाया निसिरिजए तेणं ॥१॥" तथा औदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्यापाराहतमनोद्रव्यसाचिव्याजीव- व्यापारो मनोयोगः, उक्तं च-"तह तणुवावाराहियमणदवसमूहजीववावारो। सो मणजोगो भण्णइ मन्नइ नेयं जओ दातेणं ॥१॥" ततः सह योगेन वर्तन्ते ये ते सयोगाः [योगाः]-मनोवाकायाः ते यथासम्भवमस्य विद्यन्ते इति सयोगी, सयोगी चासो भवस्थश्च सयोगिभवस्थस्तस्य केवलज्ञानं सयोगिभवस्थकेवलज्ञानं । तथा योगा अस्य विद्यन्ते इति योगी अथवा तनुयोगाहतवागाव्यसमूदजीवव्यापारः । स चाम्योगो भव्यते वाग् निसज्यते तेन ॥१॥ २ तथा तनुयोगावतमनोरयसहजीवव्यापारः । स मनो योगो भव्यते मनुते क्षेयं यतस्तेन ॥१॥ २० अनक्रम [८५] CROREA Jurasurary.org ~ 227~ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [१९]/गाथा ||५८...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्राक [१९] दीप न योगी अयोगी अयोगी चासौ भवस्थश्च अयोगिभवस्था, शैलेश्यवस्थामुपागत इत्यर्थः, तस्य केवलज्ञानमयोगिभव--- स्थकेवलज्ञानं ॥ अथ किं तत् सयोगिभवस्थकेवलज्ञानं, सयोगिभवस्थकेवलज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्त, तद्यथा-प्रथमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञानम् अप्रथमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञानं च, तत्रेह प्रथमसमयः केवलज्ञानोत्पत्तिसमयः, अप्रथमसमयः केवलोत्पत्तिसमयादूद्ध द्वितीयादिकः सर्वोऽपि समयो यावत्सयोगित्वचरमसमयः। अथवेति प्रकारान्तरे, एष एवार्थः समयविकल्पनेनान्यथा प्रतिपाद्यते इत्यर्थः, 'चरमसमयेत्यादि, तत्र चरमसमयः-सयोग्यवस्था|न्तिमसमयः, न चरमसमयः अचरमसमयः-सयोग्यवस्थाचरमसमयादाक्तनः सर्वोऽप्याकेवलप्राप्तेः । 'से च'मित्यादि निगमनं सुगम, अथ किं तद् अयोगिभवस्थकेवलज्ञान?, अयोगिभवस्थकेवलज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-प्रथमसमयायो४/गिभवस्थकेवलज्ञानं अप्रथमसमयायोगिभवस्थकेवलज्ञानं च, अत्र प्रथमसमयोऽयोगित्वोत्पत्तिसमयो वेदितव्यः, शैलेश्य वस्थाप्रतिपत्तिसमय इत्यर्थः, प्रथमसमयादन्यः सर्वोऽप्यप्रथमसमयो यावच्छैलेश्यवस्थाचरमसमयः । अथवेति प्रकान्तरे 'चरमसमयेत्यादि, इह चरमसमयः शैलेश्यवस्थान्तिमसमयः, चरमसमयादन्यः सर्वोऽप्यचरमसमयो यावच्छेलेश्यवस्थाप्रथमसमयः, 'सेत्तं अयोगिभवत्थकेवलनाणं' तदेतदयोगिभवस्थकेवलज्ञानम् । से किं तं सिद्धकेवलनाणं?, सिद्धकेवलनाणं दुविहं पण्णतं, तंजहा-अणंतरसिद्धकेवलनाणं च परंपरसिद्धकेवलनाणं च । (सू०२०) अनक्रम [८५] REacinthiMational ~ 228~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) .................... मूलं [२०]/गाथा ||५८...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [८६] श्रीमलय-15 अथ किं तत्सिद्धकेवलज्ञानं ?, सिद्धकेवलज्ञानं द्विविधं प्रज्ञसम् , तद्यथा-अनन्तरसिद्ध केवलज्ञानं च परम्परसिद्धगिरीया | केवलज्ञान, च तत्र न विद्यते अन्तरं-समयेन व्यवधानं यस्य सोऽनन्तरः स चासौ सिद्धश्चानन्तरसिद्धः, सिद्धत्वनन्दीवृत्तिः प्रथमसमये वर्तमान इत्यर्थः, तस्य केवलज्ञानमनन्तरसिद्धकेवलज्ञानं, चशब्दः खगतानेकभेदसूचकः, तथा विवक्षिते ॥११३॥ प्रथमसमये यः सिद्धः तस्य यो द्वितीयसमयसिद्धः स परः तस्यापि यः तृतीयसमयसिद्धः स परः एवमन्येऽपि वाच्याः परे च परे चेति वीप्तायां पृषोदरादय इति परम्परशब्दनिष्पत्तिः परम्परे च ते सिद्धाश्च परम्परसिद्धाः, |विवक्षितसिद्धत्वप्रथमसमयात्प्राक् द्वितीयादिषु समयेष्वनन्तां अतीताद्धां यावद्वर्त्तमाना इत्यर्थः, तेषां केवलज्ञानं परम्परसिद्धकेवलज्ञानम् , अत्रापि चशब्दः खगतानेकभेदसूचकः । इहानन्तरसिद्धाः सत्पद (अन्धानम् ३५००)प्ररूपणा १ द्रव्यप्रमाण २ क्षेत्र ३ पर्शना ४ काला ५ ऽन्तर ६ भावा ७ ल्पबहुत्व ८ रूपैरष्टभिरनुयोगद्वारैः पर|म्परसिद्धाः सत्पदप्ररूपणाद्रव्यप्रमाणक्षेत्रस्पर्शनाकालान्तरभावाल्पबहुत्वसन्निकर्षरूपैर्नवभिरनुयोगद्वारैः क्षेत्रादिषु पञ्चदशसु द्वारेषु सिद्धप्राभृते चिन्तिताः ततस्तदनुसारेण वयमपि विनेयजनानुग्रहार्थं लेशतश्चिन्तयामः । क्षेत्रादीनि च पञ्चदश द्वाराण्यमूनि-"खेते १ काले २ गइ ३ वेय ४ तित्थ ५ लिंगे ६ चरित्त ७ बुद्धे ८ य । नाणा ९ गाहु१० कस्से ११ अंतर १२ मणुसमय १३ गणण १४ अप्पबहू १५ ॥१॥" तत्र प्रथमत एषु द्वारेषु सत्पदप्ररूपणया अन-| अन्तरसिद्धाश्चिन्त्यन्ते, क्षेत्रद्वारे त्रिविधेऽपि लोके सिद्धाः प्राप्यन्ते, तद्यथा-ऊर्द्धलोके अधोलोके तिर्यग्लोके च, तत्रो ॥११॥ २५ २६ ~229~ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [२०]/गाथा ||५८...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक HAMARCH [२०] दीप अनुक्रम [८६] लोके पाण्डुकवनादौ अधोलोके अधोलौकिकेषु ग्रामेषु, तिर्यग्लोके मनुष्यक्षेत्रे, तत्रापि निर्व्याघातेन पञ्चदशसु कहार्मभूमिघु, व्याघातेन समुद्रनदीवर्षधरपर्वतादावपि, व्याघातो नाम संहरणं, उक्तं च-"दीवसमुद्देहाइजएसु वाघाय खेतओ सिद्धा। निवाघाएण पुणो पनरसK कम्मभूमीसुं॥१॥" तीर्थकृतः पुनरधोलोके तिर्यग्लोके वा, तत्रा धोलोकेऽधोलौकिकेषु ग्रामेषु तिर्यग्लोके पञ्चदशसु कर्मभूमिषु, न शेषेषु स्थानेषु, शेपेषु हि स्थानेषु संहरणतः संसम्भवन्ति, न च भगवतां संहरणसम्भवः १ तथा काले-कालद्वारेऽवसर्पिण्यां जन्म चरमशरीरिणां नियमतः तृती यचतुर्थारकयोः, सिद्धिगमनं तु केपाञ्चित् पञ्चमेऽप्यरके यथा जम्बूखामिनः, उत्सर्णिपण्यां जन्म चरमशरीरिणां दुष्षमादिषु द्वितीयतृतीयचतुर्थारकेषु, सिद्धिगमनं तु तृतीयचतुर्थयोरेव, उक्तं च-"दोसुवि समासु जाया सिझंतोसप्पिणीऍ कालतिगे । तीसु य जाया उस्सप्पिणी' सिझंति कालदुगे ॥१॥" महाविदेहेषु पुनः कालः सर्वदैव सुषमदुष्षमाप्रतिरूपः, ततस्तद्वक्तव्यताभणनेनैव तत्र वक्तव्यता भणिता द्रष्टव्या, संहरणमधिकृत्य पुनरुत्सर्पिण्यामवसर्पिण्यां च षट्खप्यरकेषु सिध्यन्तो द्रष्टच्याः, तीर्थकृतां पुनरवसर्पिण्यामुत्सपिण्यां च जन्म सिद्धिगमनं च सुषमदुष्षमादुष्पमसुषमारूपयोरेवारकयोवेदितव्यं, न शेषेवरकेपु, तथाहि-भगवान् ऋषभखामी सुषमदुष्पमारकप १ौपसमुषु सिद्धा अतृतीयेषु व्यापाते क्षेत्रतः । निर्वाधातेन पुनः पञ्चदश तु कर्मभूमिषु ॥१॥ २ मोरपि समयो गताः सिध्यन्त्युत्सर्पिण्या | कालत्रिके । बिराघु च जाता अवसापिण्यां सिध्यन्ति कालद्विके ॥३॥ -CA ~230~ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं २०]/गाथा ||५८...|| ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: सिद्ध प्रत सुत्रांक [२०] केवलम् CREASE - - दीप श्रीमलथ-18र्यन्ते समुदपादि, एकोननवतिपक्षेषु शेषेषु सिद्धिमगमत् , वर्द्धमानखामी तु भगवान् दुष्पमसुपमारकपर्यन्तेषु एको-11 गिरीया ननवतिपक्षेषु शेषेषु मुक्तिसौधमध्यमध्यास्त, तथा चोक्तम्-"सेमणे भगवं महावीरे तीसं वासाई अगारवासमझे नन्दीवृत्तिः वसित्ता साइरेगाई दुवालस संबच्छराइं छउमत्यपरियागं पाउणित्ता बायालीसं वासाई सामनपरियागं पाउणित्ता ॥११४॥ बावत्तरि वासाणि सवाउयं पालइत्ता खीणे वेयणिजआउयनामगोए दूसमसुसमाए बहुविइकताए तिहिं वासेहिं| अद्धनवमेहि य मासेहिं सेसेहिं पावाए मज्झिमाए जाव सबदुक्खप्पहीणे"। उत्सपिण्यामपि च प्रथमतीर्थकरो दुष्पमसुषमायामेकोननषतिपक्षेषु व्यतिक्रान्तेषु जायते, यतो भगवर्द्धमानखामिसिद्धिगमनस्य भविष्यन्महापद्मतीर्थकरोत्पादस्य चान्तरं चतुरशीतिवर्षसहस्राणि सप्त वर्षाणि पञ्च (च) मासाः पठ्यन्ते, तथा चोक्तम्-'चुलसीदवाससहस्सा वासा सत्तेव पंच मासा य । वीरमहापउमाणं अंतरमेयं जिणुद्दिटुं ॥१॥" तत उत्सपिण्यामपि प्रथमतीर्थङ्करो यथोक्तका|लमान एव जायते, तथा उत्सर्पिण्यां चतुर्विंशतितमः तीर्थकरः सुषमदुष्पमायामेकोननवतिपक्षेषु व्यतिक्रान्तेषु | |जन्मासादयति, एकोननवतिपक्षाधिकचतुरशीतिपूर्वलक्षातिक्रमे च सिध्यति, तत उत्सर्पिण्यामवसर्पिण्यां वा दुष्पदूमिसुपमासुपमदुष्पमयोरेव तीर्थकृतां जन्म निर्वाणं चेति २ । गतिद्वारे प्रत्युत्पन्ननयमधिकृत्य मनुष्यगतावेव सिध्यन्तः। 8 श्रमणो भगवान महावीरः त्रिशतं वाम अगारवासमध्ये उषिता सातिरेकाणि द्वादश रोबराणि उपाय पालविवा चत्वारिंशतं याणि धामण्य ॥११॥ पया बालविवा द्वासप्तति वागि सच युः पालयित्वा क्षोणे वेदनीवायुनामगोश्वे दुप्पमपनायां बहुव्यतिकान्तावां निपु वर्षेषु अर्थनममु मासेषु शेषेषु पापायां | मध्यमायो यावत् सर्वदुःखहीणः । चतुरशीतिवर्षसहस्राणि वर्षानि सप्तैव पत्रा मामात्र । वीरमहापापोरन्तरमेसन जिनोरिथम् ॥१॥ अनुक्रम SEXRROCED [८६] ~231~ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं २०]/गाथा ||५८...|| ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: 981 प्रत सूत्रांक 29- [२०] प्राप्यन्ते, न शेषासु गतिषु, पाश्चात्समनन्तरं भवमधिकृत्य पुनः सामान्यतश्चतसृभ्योऽपि मतिभ्य आगताः सिध्यन्ति, अनन्तरविशेषचिन्तायां पुनश्चतसृभ्यो नरकपृथिवीभ्यो, न शेषाभ्यः, तिर्यग्गतेः पृथिव्यम्बुवनस्पतिपञ्चेन्द्रियेभ्यो न शेषेभ्यः, सिद्धकेवलमनुष्यगतेः स्त्रीभ्यः पुरुषेभ्यो वा, देवगतेश्चतुभ्यो देवनिकायेभ्यः, तथा चाह भगवानार्यश्यामः-"नेरेइया णं भंते ! अ- 1 ज्ञानम् गंतरागया अंतकिरियं करेंति परंपरागया अंतकिरिशंकरति ?, गोअमा! अणंतरागयाचि अंतकिरिअं करेंसि परंपरागयायि अंतकिरियं करेंति, एवं रयणप्पभापुढविनेरइयावि जाव पंकप्पभापुढविनेरइया, धूमप्पभापुढविनेरइयाणं पुच्छा, गोयमा नो अणंतरागया अंतकिरिअंकाति, परंपरागया अंतकिरियं करेंति, एवं जाव अहे सत्तमपुढविनेरइया। असुरकुमारा जाप थणियकुमारा, पुढविआउवणस्सइकाइया अणंतरागयावि अंतकिरियं करेंति परंपरागयावि अंतकिरियं करेंति, तेउवाउबेइंदियतेइंदियचउरिंदिया नो अणंतरागया अंतकिरियं करेंति परंपरागया अंतकिरियं करेंति, सेसा अणंतरागयावि अंतकिरियं करेंति परंपरागयाचि," तीर्थकृतः पुनर्देवगतेनरकगतेाऽनन्तरागताः सिध्यन्ति, न शेषगतेः, तत्रापि दीप अनुक्रम [८६] REC%AR १ नैरविका भदन्त ! अनन्तरागता अन्तकियां कुर्वन्ति परम्परागता अन्तकियां कुर्वन्ति ।, गौतम | अनन्तरागता भपि अन्तकियां कुर्वन्ति पराम्परागता | अपि अन्तकियां कुर्वन्ति, एवं रमप्रभापृथ्वीनरयिका अपि यावत्पप्रभावथ्वीनर विकाः, धूमप्रभागृथ्वी नरयिकाणां पृच्छ, गीतम! नानन्तरायता अन्तकिया कुर्वन्ति परम्परागता अन्तकियां कुर्वन्ति, एवं यावदक्षः सप्तमपृथ्वीनरयिकाः । असुरकुमारा बावस्तनितकुमारा: पृथ्व्यबनस्पतिहायिका अनन्तरागता अपि अन्तक्रिया कुर्वन्ति परम्परागता अपि अन्तकियों कुर्वन्ति, गोवायुद्धौन्दियत्रीन्द्रिक्चतुरिन्द्रिया मी अनन्तरागता अन्तक्कियां कुर्वन्ति, शेषा अनन्तरागता भपि अन्तक्रियां कुर्वन्ति परम्परागता अपि । ~232~ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [२०]/गाथा ||५८...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] श्रीमलयनरकगतेः तिसृभ्यो नरकपृथिवीभ्यो, न शेषेभ्यः, देवगतेवैमानिकदेवनिकायेभ्यो, न शेषनिकायेभ्यः, तथा चाह भग-1 अनन्तरगिरीया वानार्यश्यामः-"रयणप्पभापुढविनेरइया णं भंते !रयणप्पभापुढविनेरइएहितो अणंतरं उघट्टित्ता तित्थयरत्तं लभेजा, सिद्धकेवलनन्दीवृत्तिः गोयमा! अत्थेगइए लभेजा अत्थेगइए नो लभेजा, से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ अत्धेगइए लभेजा अत्थेगइए नो ज्ञानम् ॥११५॥ लालभेजा ?, गोअमा! जस्स रयणप्पभापुढविनेरइस्स तित्थयरनामगोत्ताई कम्माई बद्धाई पुढाई कडाई निबद्धाई अभिनिचट्टाई अभिसमन्नागयाई उइन्नाई नो उवसंताई भवंति से णं रयणप्पभापुढविनेरइए रयणप्पभापुढविनेरइएहिंतो उच्चट्टित्ता तित्थयरत्तं लभेजा, जस्स णं रयणप्पभापुढविनेरइयस्स तित्थयरनामगोत्ताई कम्माई नो बद्धाई|१५ जाव नो उइन्नाई उवसंताई भवंति से णं रयणप्पहापुढविनेरइए रयणप्पभापुढविनेरइएहिंतो उचट्टित्ता तित्थयरत्तं नोकरी लभेजा, से एएणडेणं गोयमा! एवं बुचइ-अत्धेगइए लभेजा अत्थेगइए नोलभेजा। एवं जाब वालुयप्पभापुढविनेरइएहितो तित्थयरतं लभेज्जा । पंकप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! पंकप्पभापुढविनेरएहिंतो अणंतरं उबट्टित्ता तित्थयरतं दीप अनुक्रम [८६] ।॥११५॥ परमप्रभापृथ्वीनरविको भवन्त ! रजप्रेमापृथ्वीनारकत्वादनन्तरं उदृत्य तीर्थंकरस्वं उमेत !, गौतम ! मस्त्येकको उमेत अस्येकको न लभेत, अथ केनार्थन भदन्त । एवमुच्यते-अखेकको समेत अस्पेकको न समेत ,गीतम! यस्य रत्नप्रभापृथ्वीनर विकस तीर्थकरनामगोत्रकर्म पद स्पई कृतं निबद्धं अभिनित अभिसमन्दागतं उदीर्ण नोपशान्तं भवति । रजप्रभाथ्वीनरविको रमप्रमापृथ्वीनारकलादत्य तीर्थकरत्वं लभते. बस्य रमप्रभापृथ्वीनारका तीर्थकरनामगोत्र कर्म न बर्ष यावनोदीर्ण उपशान्तं भवति स रमप्रभाधीनारको रसप्रभापृथ्वीनारकत्वादुहृत्य तीर्थकरत्वं नो लमेत, तदेतेनान गौतम । एवमुच्यते-अस्लेकको समेत अस्लेकको नो समेत । एवं यावद्वालकाप्रभापृथ्वीनरमिकत्वात्तीर्थकरत्वं हमेत, पकप्रभाथ्वीनरविको भदन्त ! पप्रभापृथ्वीनारकत्वादनन्तरं उद्धृत्य तीर्थकरत्वं ~233~ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [२०]/गाथा ||५८...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक CROCOCCROS शलभेजा ?, गोअमा!, णो इणटे समटे, अंतकिरियं पुण करेजा । धूमप्पभापुढविनेरइए णं पुच्छा, गोमा ! नो इणद्वेका अनन्तरसमढे, विरई पुण लभेजा, तमापुढविपुच्छा, गोयमा ! नो इणढे समढे, विरयाविरई लभेजा, अहे सत्तमाए सिद्धकेवलपुच्छा, गोयमा ! नो इणद्वे समढे, संमत्तं पुण लभेजा । असुरकुमाराणं पुच्छा, गोयमा ! नो इणटे समढे, अंतकि-1& ज्ञानम् |रियं पुणो करेजा, एवं निरंतरं जाव आउक्काइया, तेउकाइए गं भंते ! तेउकाइएहितो अणंतरं उबट्टित्ता तित्ययरत्तं लभेजा ?, गोयमा! नो इणट्टे समठे, केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए, एवं वाउकाइएवि, वणस्सइकाइए णं पुच्छा, गोअमा! नो इणढे समढे, अंतकिरियं पुण करेजा। वेइंदियतेइंदियचउरिदियाणं पुच्छा, गोअमा! नो इणढे समटे, मणपज्जवनाणं पुण उप्पाडेजा। पंचिंदियतिरिक्खजोणियमणुस्सवाणमंतरजोइसिएसु पुच्छा,गोयमा! नो इणढे समट्टे, अंतकिरियं पुण करेज्जा । सोहम्मगदेवे णं भंते ! अणंतरं चइत्ता तित्थयरत्तं लभेजा?, गोअमा! अत्गइए। [२०] दीप अनुक्रम [८६] लनेत ?, गौतम ! नेयोऽर्थः समर्थः, अन्तक्रियां पुनः कुर्यात् , धूमप्रभापृथ्वीनैरविके पृच्छा, गौतन ! नेषोऽर्थः समर्थः, विरतिं पुनले नेत, तमःप्रभावीपृच्छा, | गौतम ! नेषोऽर्थः समर्थः, विरत विरतिं लभेत, अधः सप्तम्यां पृच्छा, गौतम ! नैषोऽथः समर्थः, सम्यक्त्वं पुनर्लमेत । असुरकुमाराणां पृथ्छा, गौतम! नेपोऽधः समर्थः, अन्तनियां पुनः कुर्यात् , एवं निरन्तरं यावद कायाः, तेजस्काविको भदन्त 1 तेजस्कायादनन्तरमुहत्य दीर्थकरत्वं समेत?, गौतम ! नेयोऽर्षः समर्थः, केवलि प्रज्ञातं धर्म समेत प्रयणतया, एवं वायुकाबिकेऽपि, बनस्पति कायेऽपि पृच्छा, गौतम ! नैपोऽयः समर्थः, अन्तकियां पुनः कुर्यात् । द्वीन्द्रियत्रोन्द्रियचतुरन्द्रियाणां पृष्छा, गौतम! नषोऽर्थः समर्थः, मनःपर्यवज्ञान पुनपत्रादयेत् । पञ्चेन्द्रियातिर्यग्यो निकमनुष्यज्यन्तरज्योनिष्केषु पृच्छा, गौतम । नेपोऽर्थः समर्थः, अन्तकियो पुनः कुर्यात् । सीधर्मदेवो भदन्त ! अनन्तरं च्युत्या तीर्थकरत्वं लभेत!, गौतम ! अस्लेकको ~234~ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [८६] श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ॥११६ ॥ “नन्दी” - चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूल [२०] / गाथा || ५८...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः लभेजा अत्येगइए नो लभेजा, एवं जहा रयणप्पभापुढविनेरइयस्स एवं जाव सबट्ठगदेवे" ३, वेदद्वारे प्रत्युत्पन्न नयमधिकृत्यापगतवेद एव सिध्यति, तद्भवानुभूतपूर्ववेदापेक्षया तु सर्वेष्वपि वेदेषु, उक्तं च-- “ अवगयवेओ सिज्झइ पचुप्पण्णं नयं पहुंचा उ । सवेदिवि वेपहिं सिज्झइ समईयनयवाया ॥ १ ॥" तीर्थकृतः पुनः स्त्रीवेदे पुरुषवेदे वा, न नपुंसक वेदे ४, तथा तीर्थद्वारे तीर्थकरतीर्थे तीर्थकरीतीर्थे च अतीर्थे च सिध्यन्ति ५ लिङ्गद्वारे अन्यलिङ्गे गृहस्थलिङ्गे स्वलिने वा एतच सर्व द्रव्यलिङ्गापेक्षया द्रष्टव्यं, संयमरूपभावलिङ्गापेक्षया तु खलिङ्ग एव, उक्तं च--"लिंगेण अन्नलिंगे गित्वलिंगे तब य सठि । सवेहिं दवलिङ्गे भावेण सर्विंग संजमओ ॥ १ ॥” ६, चारित्रद्वारे प्रत्युत्पन्ननयापेक्षया यथाख्यातचारित्रे, तद्भवानुभूतपूर्व चरणापेक्षया तु केचित्सामायिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रिणः केचित्सामायिकच्छेदोपस्थापन सूक्ष्मसम्परायवधाख्यात चारित्रिणः केचित् सामायिक परिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रिणः केचित्सामायिकच्छेदोपस्थापन परिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रिणः, उक्तं च- “चरणमि अहखाए पचुप्पन्नेण सिज्झइ नएणं । पुवाणंतरचरणे तिच उक्कगपंचगगमेणं ॥ १ ॥” तीर्थकृतः पुनः सामायिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यात चारित्रिण एव, बुद्धद्वारे प्रत्येकबुद्धाः १ समेत अस्त्येकको लमेत, एवं यथा रनप्रभा पृथ्वीनैरमिकस्य एवं वायव सर्वार्थकदेवाः । २ अपगतः सिध्यति प्रत्युत्पन्नं नये प्रतीत्यैव सर्वेष्वपि वेदे | सिध्यति समतीतनयवादात् ॥ १ ॥ ३ लिन अन्यलिस्तथैव च । सर्वत्र व्यलिङ्गे भावेन खलि संमतः ॥ १ ॥ ४ चरणे यथाख्याते प्रत्युत्पन्न सिध्यति नयेन पूर्वानरवर त्रिचतुरुपगमेन ॥ १ ॥ Eucator Intervational For Parts Only ~ 235~ अनन्तर सिद्धकेवल ज्ञानम् १५ १९ ११६॥ Contrary or Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [२०]/गाथा ||५८...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] %255555 खयम्बुद्धा बुद्धमोधिता बुद्धीबोधिता वा सिध्यन्ति ८, ज्ञानद्वारे प्रत्युत्पन्ननयमपेक्ष्य केवलज्ञाने, तद्भवानुभूतपूर्वा- अनन्तरनन्तरज्ञानापेक्षया तु केचिन्मतिश्रुतज्ञानिनः केचिन्मतिश्रुतावधिज्ञानिनः केचिन्मतिश्रुतमनःपर्यायज्ञानिनः केचिन्म-1 सिद्धकेवलतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानिनः, तीर्थकृतस्तु मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानिन एव ९, अवगाहनाद्वारे जघन्यायामपि ज्ञानम् अवगाहनायां सिध्यन्ति उत्कृष्टायां मध्यमायां च, तत्र द्विहस्तप्रमाणा जघन्या, पञ्चविंशत्यधिकपञ्चधनुःशतप्रमाणा उत्कृष्टा, सा च मरुदेवीकालवर्तिनामवसेवा, मरुदेव्यप्यादेशान्तरेण नाभिकुलकरतुल्या, तदुक्तं सिद्धप्राभूतटीकार्या|'मेरुदेवीपि आएसन्तरेण नाभितुल'त्ति, तत आदेशान्तरापेक्षया मरुदेव्यामपि यथोक्तप्रमाणावगाहना द्रष्टव्या, उक्तं च-"उग्गाहणा जहन्ना रयणिदुर्ग अह पुणो उ उक्कोसा। पंचेच धणुसयाई धणुहपुहुनेण अहियाई ॥१॥" अत्र पृथक्त्वशब्दो बहुत्ववाची बहुत्वं चेह पञ्चविंशतिरूपं द्रष्टव्यं, सिद्धप्राभृतटीकायां तथान्याख्यानात्, तेन पञ्चविंशत्यधिकानीत्ययसेयं, शेषा त्वजघन्योत्कृष्टावगाहना, तीर्थकृतां तु जघन्यावगाहना सप्तहस्तप्रमाणा उत्कृष्टा पञ्चधनु शतमाना शेषा त्वजघन्योत्कृष्टा १०, उत्कृष्टद्वारे सम्यक्त्वपरिभ्रष्टा उत्कर्षतः कियता कालेन सिध्यन्ति , उच्यते, देशोनापार्द्ध पुद्गलपरावर्त्तसंसारातिक्रमे, अनुत्कर्षतस्तु केचित्सङ्ख्येयकालातिक्रमे केचिदसश्वेयकालातिक्रमे केचिदनन्तेन कालेन ११. अन्तरद्वारे जघन्यत एकसमयोऽन्तरं उत्कर्षतः पण्मासाः १२, निरन्तरद्वारे जघन्यतो 31 दीप अनुक्रम [८६] 1 महदेव्यपि आदेशान्तरेण नाभिवल्येति । २ अवगाहना जपन्या रनिद्विम् अथ पुनककथा पर धनुषतानि भाबक्स्परविकागि ॥१॥ SAREtatunintamatara ~236~ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [२०]/गाथा ||५८...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: गिरीया | अनन्तरसिद्धकेवल प्रत सुत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [८६] श्रीमलय-ताद्वौ समयौ निरन्तरं सिध्यन्तः प्राप्यन्त उत्कर्षतोऽष्टौ समयान् १३, गणनाद्वारे जघन्यत एकस्मिन् समये एकः |सिध्यति उत्कर्षतोऽष्टाधिकं शतं, तथा चास्मिन् भरतक्षेत्रेऽस्यामवसर्पिण्यां भगवतः श्रीनाभेयस्य निर्वाणसमये नन्दीवृत्तिः श्रूयतेऽष्टोत्तरं शतमेकसमयेन सिद्धं, तथा चोक्तं सदासगणिना वसुदेवचरिते-"भयेवं च उसमसामी जयगुरू ॥११७॥ पुच्चसयसहस्सं वाससहस्सूणयं विहरिऊणं केवली अट्ठावयपचए सह दसहि समणसहस्सहिं परिनिवाणमुवगते चोइसमेणं भत्तेणं माघबहुले पक्खे तेरसीए अभीइणा नक्खत्तेणं एगूणपुत्तसएणं अट्ठहि य नत्तुएहिं सह एगसमएणं निव्वुओ, सेसाणिवि अणगाराणं दस सहस्साणि अट्ठसयऊणगाणि सिद्धाणि तंमि चेव रिक्खे समयंतरेसु बहूसु"। इति । १४, अल्पबहुत्यद्वारे युगपद् द्वित्रादिकाः सिद्धाः स्तोकाः, एककाः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, उक्तं च-"संखाएँ। दाजहन्नेणं एको उक्कोसएण अहसयं । सिद्धाणेगा थोवा एगगसिद्धा उ संखगुणा ॥१॥१५” तदेवं कृता पञ्चदशस्वपि द्वारेषु सत्पदप्ररूपणा, सम्प्रति द्रव्यप्रमाणमभिधीयते-तत्र क्षेत्रद्वारे ऊर्द्ध लोके युगपदेकसमयेन चत्वारः सिध्यन्ति द्वौ समुद्रे चत्वारः सामान्यतो जलमध्ये तिर्यग्लोकेऽष्टशतं विंशतिपृथक्त्वमधोलोके, उक्तं च-"चत्तारि उडलोए १ भगवांश्च ऋषभखागी जगद्गुरुः पूर्वक्षत राहस्र वर्षसहस्रो विहत्य केवली अष्टापदपर्वते स६ दशभिः श्रमणसहीः परिनिर्वाणमुपगतश्चतुर्दशामेन भक्केन माघकृष्ण पक्षे त्रयोदश्यां अभीविना नक्षत्रेग एकोनपुत्रशतेन अभिश्व नमुभिः सह एकसमयेन निवृतः, शेषाम्यपि अनगाराणां दश सहस्राणि अध्यातोनानि सिद्धानि तस्मिन से समयान्तरेषु बहुषु । २ संख्यायो जघन्येनैक उत्कृष्टेनाशतम् । सिद्धा अनेकाः स्तोका एककसिद्धास्तु संख्यगुणाः॥१॥ ३ चबार कर्थलोके जले चतुदी समुझे । अध्यात र परलोके विंशतिपृथक्त्वमथोलोके ॥१॥ ११७॥ ~ 237~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [२०]/गाथा ||५८...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: अनन्तर सिद्धकेवल ज्ञानम् प्रत सूत्रांक [२०] SHRECE 464 जले चउकं दुबे समुइमि । अट्ठसयं तिरियलोए वीसपुहुत्तं अहोलोए ॥१॥" तथा नन्दनवने चत्वारः, 'नंदणे | चत्तारी'ति वचनात् , एकतमस्मिंस्तु विजये विंशतिः, उक्तं च सिद्धप्राभृतटीकायां-“बीसों एगयरे विजये" तथा सर्वाखप्यकर्मभूमिपु प्रत्येकं संहरणतो दश २, पण्डकवने द्वौ, पञ्चदशखपि कर्मभूमिषु प्रत्येकमष्टशतं, उक्तंच"संकोमणा' दसगं दो चेव हवंति पंडगवर्णमि । समएण य अट्ठसयं पण्णरससु कम्मभूमीसु ॥॥" कालद्वारे उत्सपिण्यामवसापिण्यां च प्रत्येकं तृतीये चतुर्थे चारकेऽष्टशतं, अवसर्पिण्यां पञ्चमारके विंशतिः, शेषेष्वरकेषु प्रत्येकमुत्सर्पिण्यामवसर्पिण्यां च संहरणतो दश २, तथा चोक्तं सिद्धप्राभृतटीकायां-"सेसेसु अरएसु दस सिझंति, दोसुपि उस्सप्पिणीओसप्पिणीसु संहरणतो।"सिद्धप्राभृतसूत्रेऽप्युक्तम्-"उस्सप्पिणीओसप्पिणीतइयचउत्थयसमासु | अट्ठसयं पंचमियाए वीसं दसगं दसगं च सेसेसु ॥१॥" गतिद्वारे-देवगतेरागतानामष्टशतं, शेषगतिभ्य आगताः प्रत्येक दश २, उक्तं च सिद्धप्राभूते-'सेसाण गईण दसदसगं' भगवांस्त्वार्यश्यामः पुनरेवमाह-नरकगतेरागता दश, तत्रापि |विशेषचिन्तायां रत्नप्रभापृथिव्याः शर्कराप्रभाया वालुकाप्रभायाश्च पृथिव्या आगताः प्रत्येक दश २, पङ्कप्रभायाः पृथिव्या आगताश्चत्वारः, तथा तियेग्गतेरागताः सामान्यतो दश, विशेषचिन्तायां पुनः पृथिवीकायेभ्योऽपकाये नन्दने चत्वारः । २ विशतिरेकतरस्मिन् विजये। ३ संक्रमणया दश द्वायेव भवतः पण्डकवने । समयेन चारशतं पञ्चदशासु कर्मभूमिषु ॥१॥४ शेषेवरकेषु दश सिध्यन्ति, द्वयोरपि उत्सपिज्यवसर्पियोः संहरणतः। ५ उत्सपिण्यवसर्पियोः तृतीयचतुर्थसमयोरष्टशतम् । पशम्यां विंशतिर्दशकं दशकं च शेषेषु ॥ १ ॥ ६ शेषाभ्यो गतिभ्यो दशकं दशकं । दीप अनुक्रम [८६] ~238~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [८६] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [२०] / गाथा || ५८... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः श्रीमलयगिरीया नदीवृत्तिः + ॥ ११८ ॥ १५ भ्यश्चागताः प्रत्येकं चत्वारश्वत्वारः, वनस्पतिकायेभ्य आगताः पद, पञ्चेन्द्रियस्तिर्यग्योनिपुरुषेभ्य आगता दश, अनन्तरपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिस्त्रीभ्योऽप्यागता दश, तथा सामान्यतो मनुष्यगतेरागता विंशतिः, विशेषचिन्तायां मनुष्यपु- सिद्धकेवलरुषेभ्य आगता दश मनुष्यस्त्रीभ्य आगता विंशतिः, तथा सामान्यतो देवगतेरागता अष्टशर्त, विशेषचिन्तायाम- मे ज्ञानम् सुरकुमारेभ्यो नागकुमारेभ्यो यावत् स्तनितकुमारेभ्यः प्रत्येकमागता दश २ असुरकुमारीभ्यः प्रत्येकमागताः पञ्च पञ्च व्यन्तरदेवेभ्य आगता दश व्यन्तरीभ्य आगताः पञ्च ज्योतिष्कदेवेभ्य आगता दश ज्योतिष्कदेवीभ्य आगता विंशतिः वैमानिकदेवेभ्य आगता अष्टशतं वैमानिकदेवीभ्य आगता विंशतिः, तथा च प्रज्ञापनाग्रन्थः-- "अणंतरागया णं भंते । नेरइया एगसमएणं केवइया अंतकिरिअं पकरेंति ?, गोअमा ! जहन्त्रेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं दस, रयणप्पभापुढविनेरइयावि एवं चेव, जाव वालुयप्पभापुढ विनेरइया, अणंतरागया णं भंते! पंकभापुढविनेरइया एगसमयेणं केवइया अंतकिरिअं पकति ?, गोअमा !, जहन्त्रेणं एको वा दो वा तिशि वा उक्कोसेणं चत्तारि, अनंतरागया णं भंते ! असुरकुमारा एगसमरणं केवइया अंतकिरिअं पकति ?, गोअमा ! जहन्त्रेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं दस, अणंतरागया णं भंते ! असुरकुमारीओ एगसमएणं केवइयाओ अंतकिरिय पकरेंति ?, गोअमा ! जहन्त्रेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं पंच, एवं जहा असुरकुमारा सदेवीया तहा जाव १ संस्कृत एयं पाठः वृत्तिद्धिरिति न संस्कियते । Education International For Pasta Use Only ~ 239~ २० ॥ ११८ ॥ २१ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [२०]/गाथा ||५८...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] थिणियकुमारा, अणंतरागया णं भंते ! पुढविकाइया एगसमएणं केवइया अंतकिरिअं पकरेंति ?, गोअमा! जहन्नेणं अनन्तरइको वा दो वा तिन्नि वा उकोसेणं चत्तारि, एवं आउकाइयावि, वणस्सइकाइया पंचेंदियतिरिक्खजोणिया दस, पंचें-1 सिद्धकेवलदियतिरिक्खजोणिणीओवि दस, मणुस्सा दस, मणुस्सीओबीस, वाणमंतरा दस, वाणमंतरीओ पञ्च, जोइसिया दस, ज्ञानम् जोइसिणीओ वीसं, वेमाणिया अट्ठसयं, बेमाणिणीओ वीस"मिति तत्त्वं पुनः केवलिनो बहुश्रुता वा विदन्ति । वेदद्वारे-पुरुषाणामष्टशतं, स्त्रीणां विंशतिः, दश नपुंसकाः, उक्तं च-'अट्ठसयं पुरिसाणं वीसं इत्थीण दस नपुंसाणं' तथा इह पुरुषेभ्य उद्धृता जीवाः केचित्पुरुषा एव जायन्ते केचित् स्त्रियः केचिन्नपुंसकाः, एवं स्त्रीभ्योऽप्युबूतानां भङ्गत्रयं, एवं नपुंसकेभ्योऽपि, सर्वसङ्ख्यया भङ्गा नव, तत्र ये पुरुषेभ्य उद्धृताः पुरुषा एव जायन्ते तेषामष्टशर्त, शेषेषु चाष्टसु भङ्गेषु दश २, तथा चोक्तं सिद्धप्राभृते-'सेसा उ अट्ठ भंगा दसगं २ तु होइ एकेकं' | तीद्वारे-तीर्थकृतो युगपदेकसमयेन उत्कर्षतश्चत्वारः सिध्यन्ति, दश प्रत्येकबुद्धाश्चत्वारः खयम्मुद्धा, अष्टशतमती- र्थकृतां, विंशतिः स्त्रीणां, वे तीर्थकयौं । लिङ्गद्वारे-गृहिलिझे चत्वारः, अन्यलिके दश, खलिझे अष्टशतं, उक्तंच|'चउरो दस अट्ठसयं गिहन्नलिङ्गे सलिंगे य।' चारित्रद्वारे सामायिकसूक्ष्मसम्पराक्यपाख्यातचारित्रिणां सामायिक|च्छेदोपस्थापनसूक्ष्मसम्परायवथाख्यातचारित्रिणां च प्रत्येकमष्टशतं, सामायिकपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराययथा दीप अनुक्रम [८६] १ असतं पुरुषायां विशतिः स्त्रीणां दश नपुंसकानाम् । २ सेवास्तु अ भा दश दशकं तु भवत्येवकः । ३ रत्वारो दशाश्वतं गृहान्यालिले खलिश च । ~240~ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं २०]/गाथा ||५८...|| .... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [८६] श्रीमलय-पाख्यातचारित्रिणां सामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रिणां च दशकं २, उक्त अनन्तरगिरीया च-"पच्छोकर्ड चरित्त तिगं चउकं च तेसिमट्टसयं । परिहारिएहिं सहिए दसगं दसगं च पंचगडे ॥१॥' बुद्धद्वारे-15 सिक्केवलनन्दीवृत्तिः प्रत्येकबुद्धानां दशकं, बुद्धबोधितानां पुरुषाणामष्टशतं, बुद्धबोधितानां स्त्रीणां विंशतिः, नपुंसकानां दशकं, बुद्धी॥११९॥ भिवोंधितानां खीणां विंशतिः, बुद्धीभिर्वाधितानामेव सामान्यतः पुरुषादीनां विंशतिपृथक्त्वं, उक्तं च सिद्धप्रामदितटीकायां-'बुद्धीहि चेव बोहियाण पुरिसाईणं सामनेण वीसपहत्तं सिज्झइ'त्ति, बुद्धी च मलिखामिनीप्रभृतिका तीर्थकरी सामान्यसाध्व्यादिका वा वेदितव्या, यतः सिद्धप्राभूतटीकायामेवोक्तं-"बुद्धीओवि मलिपमुहाओ अन्नाओ हाय सामन्नसाहुणीपमुहाओ बोहंतित्ति" ज्ञानद्वारे-पूर्वभावमपेक्ष्य मतिश्रुतज्ञानिनो युगपदेकसमयेनोत्कर्षतश्चत्वारः | सिध्यन्ति, मतिश्रुतमनःपर्यायज्ञानिनो दश, मतिश्रुतावधिज्ञानिनां मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानिनां वा अष्टशतं । अवगाहनाद्वारे-जघन्यायामवगाहनायां युगपदेकसमयेनोत्कर्षतश्चत्वारः सिध्यन्ति, उत्कृष्टायां द्वी, अजघन्योत्कृष्टायामष्टशतं, यवमध्येऽष्टी, उक्तं च-"उकोसगाहणाए दो सिद्धा होंति एकसमएणं । चत्तारि जहन्नाए अट्ठसयं मज्झिमाए उ॥१॥" अत्र टीकाकारेण व्याख्या कृता-गाथापर्यन्तवर्तिनस्तुशब्दस्याधिकार्थसंसूचनात् 'जब१पक्षारक्तानि चारित्राणि त्रीणि चत्वारि च तेषामशतम् । परिहारिकैः सहितानि दशकं दशक व पच कूतानाम् ॥ १॥ २ सुखीभिरेव योधिताना पुरुषा १९॥ दोनों सामान्यन विशतिः सिध्यन्ति । ३ बुग्योऽपि माशेप्रमुखा अन्याय सामान्यसाध्वीश्रममा बोनयन्तीति । ४ उत्कृष्टावगाहनायादी सिद्धी भवत एकसमयेन । चत्वारोजषन्यायामश मध्यमायां ॥१॥५ययमध्येही Muditurary.com ~ 241~ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [२०]/गाथा ||५८...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: अनन्तर प्रत सूत्रांक [२०] मज्झे अट्ठ' इति, उत्कृष्टद्वारे येषा सम्यक्त्वपरिभ्रष्टानामनन्तः कालोऽगमत् तेषामष्टशतं, सङ्ख्यातकालपतितानामसायातकालपतितानां च दशक २, अप्रतिपतितसम्यक्त्वानां चतुष्टयं, उक्तं च-"जेसिं अणंतकालो पडिवाओ| सिद्धकेवलतेसिं होइ असयं । अप्पडिबडिए चउरो दसगं दसगं च सेसाणं ॥१॥" अन्तरद्वारे एको वा सान्तरतः सिध्यति । ज्ञानम् बहवो बा, तत्र बहवो यावदष्टशतं । अनुसमयद्वारे-प्रतिसमयमेको वा सिध्यति बहवो वा, तत्र बहूनां सिध्यतामियं प्ररूपणा-एकादयो द्वात्रिंशत्पर्यन्ता निरन्तरमुत्कर्षतोऽष्टौ समयान् यावत् प्राप्यन्ते, इयमत्र भावना-प्रथमसमये जघन्यत एको द्वौ या उत्कर्षतो द्वात्रिंशत् सिध्यन्तः प्राप्यन्ते, द्वितीयसमये जघन्यत एको द्वौ वा उत्कर्षतो द्वात्रिंशद एवं तृतीयसमयेऽपि, एवं चतुर्थसमयेऽपि, एवं यावदष्टमेऽपि समये जघन्यत एको द्वौ वा उत्कर्पतो द्वा-14 मात्रिंशत्ततः परमवश्यमन्तरं । तथा त्रयस्त्रिंशदादयोऽष्टचत्वारिंशत्पर्यन्ता निरन्तरं सिध्यन्तः, सप्त समयान् यावत्प्रा प्यन्ते, भावना प्राग्वत्, परतो नियमादन्तरं, तथा एकोनपञ्चाशदादयः षष्टिपर्यन्ता निरन्तरं सिध्यन्तः उत्कर्षतः षट् समयान् यावदवाप्यन्ते, परतोऽवश्यमन्तरं, तथा एकषष्ट्यादयो द्विसप्ततिपर्यन्ता निरन्तरमुत्कर्षतः सिध्यन्तः उत्कर्षतः पञ्च समयान् यावत्प्राप्यन्ते, ततः परमन्तरं, तथा त्रिससत्यादयश्चतुरशीतिपर्यन्ता निरन्तरं सिध्यन्तः उकर्षतश्चतुरस्समयान् यावत्प्राप्यन्ते, तत ऊर्द्धमन्तरं, तथा पञ्चाशीत्यादयः षण्णवतिपर्यन्ता निरन्तरं सिध्यन्तः उत्क१ येषामनन्तः कालः प्रतिपाते तेषां भवत्वष्टशतम् । अप्रतिपतिद्वे चत्वारो दशकं दशकं च शेषाणाम् ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [८६] SAREEWemanand ~ 242~ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं २०]/गाथा ||५८...|| ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: का श्रीमलय- गिरीया नन्दीवृत्तिः ॥१२०॥ अनन्तरसिद्ध केवल प्रत सूत्रांक [२०] दीप तस्त्रीन् समयान् यावदवाप्यन्ते, परतोऽवश्यमन्तरं, तथा सप्तनवत्सादयो द्वयुत्तरशतपर्यन्ता निरन्तरं सिध्यंत उत्क- तो वो समयौ यावदवाप्यन्ते, परतो नियमादन्तरं, तथा ध्युत्तरशतादयोऽष्टोत्तरशतपर्यन्ताः सिध्यन्तो नियमादे- कमेव समयं यावदवाप्यन्ते, न द्वित्रादिसमयानिति । एतदर्थसङ्घाहिका चेयं गाथा-"बत्तीसा अडयाला सट्ठी बावतरी य बोद्धव्वा । चुलसीई छन्नउई दुरहियमट्टत्तरसयं च ॥१॥" अत्राष्टसामयिकेभ्य आरभ्य द्विसामयिकपर्यन्ता निरन्तरं सिद्धाः एकैकस्मिंश्च विकल्पे उत्कर्षतः शतपृथक्त्वं सङ्ख्यापरिमाणं, गणनाद्वारमल्पबहुत्वद्वारं च प्रागिव द्रष्टव्यं, तथा च सिद्धग्राभृतेऽपि द्रव्यप्रमाणचिन्तायामेतयोारयोः सत्पदप्ररूपणोक्कैव गाथा भूयोऽपि परावर्त्तिता"संखाएँ जहन्नेणं एको उक्कोसएण अट्ठसयं । सिद्धा णेगा थोवा एक्कासिद्धा उ संखगुणा ॥१॥" तदेवमुक्तं द्रव्यप्रमाणं, सम्प्रति क्षेत्रप्ररूपणा कर्त्तव्या-तत्र पूर्वभावमपेक्ष्य सत्पदप्ररूपणायामेव कृता, सम्प्रति प्रत्युत्पन्ननयमतेन क्रियते-तत्र पञ्चदशखप्यनुयोगद्वारेषु पृच्छा, इह सकलकर्मक्षयं कृत्वा कुत्र गतो भगवान् सिध्यति ?, उच्यते, ऋजुगत्या मनुष्यक्षेत्रप्रमाणे सिद्धिक्षेत्रे गतः सिध्यति, यदुक्तं-"ईह बोन्दि चइता णं, तत्थ गंतूण सिज्झइ" गतं क्षेत्रद्वार, सम्प्रति स्पर्शनाद्वारं, स्पर्शना च क्षेत्रावगाहादतिरिक्ता यथा परमाणोः, तथाहि परमाणोरेकस्मिन् प्रदेशेऽवगाहः सप्तप्रादेशिकी च स्पर्शना, उक्तं च-"एगपएसोगाई सत्तपएसा य से फुसणा" सिद्धानां तु स्पर्शना एवम संख्यायां जपम्पनेक उत्कर्षतोऽशतम् । सिद्धा अनेकाः स्तोका एककसिद्धासु संख्यगुणाः ॥ १॥ २ इह तनुं त्यक्त्वा वत्र गत्वा सिध्यति । । एकपदे शोऽवगाहः समप्रादेशिकी च तस स्पशेना। अनुक्रम [८६] KXX २१ ~ 243~ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [८६] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [२०]/ गाथा ||५८... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः वगन्तव्या - "फुसइ अणते सिद्धे सह एसेहिँ नियमसो सिद्धो । ते उ असंखेजगुणा देसपएसेहिं जे पुट्ठा ॥ १ ॥” गतं स्पर्शनाद्वारं । सम्प्रति कालद्वारं, तत्र चेयं परिभाषा - सर्वेष्वपि द्वारेषु यत्र २ स्थानेऽष्टशतमेकसमयेन सिध्यदुक्तं तत्र तत्राष्टौ समया निरन्तरं कालो चक्तव्यः, यत्र २ पुनर्विंशतिर्देश वा तत्र २ चत्वारः समयाः, शेषेषु स्थानेषु द्वौ समयौ, उक्तं च- "जेंहिं असयं सिज्झइ अड उ समया निरंतरं कालो । वीसदसएसु चउरो सेसा सिज्यंति दो समए ॥ १ ॥ सम्प्रति एतदेव मन्दविनेयजनानुग्रहाय विभाव्यते, तत्र क्षेत्रद्वारे जम्बूद्वीपे घातकीखण्डे पुष्करवरद्वीपे च प्रत्येकं भरतैरावतमहाविदेहे पूत्कर्षतोऽष्टौ समयान् यावन्निरन्तरं सिध्यन्तः प्राप्यन्ते, हरिवर्षादिष्वधोलोके च चतुरश्चतुरः समयान् नन्दनवने पण्डकबने लवणसमुद्रे च द्वौ द्वौ समयौ, कालद्वारे - उत्सर्पिण्यामवसर्पिण्यां च प्रत्येकं तृतीयचतुर्थारकयोरष्टावष्टौ समयान्, शेषेषु चारकेषु चतुरचतुरः समयान्, गतिद्वारे - देवगतेरागता उत्कतोऽष्टौ समयान् शेषगतिभ्य आगताश्चतुरः समयानिति, वेदद्वारे पश्चात्कृतपुरुषवेदा अष्टौ समयानू, पश्चात्कृतस्त्रीवेदनपुंसक वेदाः प्रत्येकं चतुरश्चतुरः समयान्, पुरुषवेदेभ्य उद्दल पुरुषा एवं सन्तः सिध्यन्तोऽष्टौ समयान्, शेषेषु चाष्टसु भङ्गेषु चतुरश्चतुरः समयानिति, तीर्थद्वारे तीर्थकरतीर्थे तीर्थकरीतीर्थे वाडतीर्थंकरसिद्धा उत्कर्षतोऽ १. स्पृशत्यनन्तान् सिद्धान् सर्वप्रदेशैर्नियमात् सिद्धः । ते खसंख्यातगुणा देशप्रदेश स्पृहाः ॥ १ ॥ २ यत्राष्टशतं सिध्यति अश्व समया निरन्तरं फालः । (वंशो दश च चत्वारः शेषाः सिध्यन्ति ही समय ॥ १॥ For Parts Only ~ 244~ अनन्तर सिद्ध केवल ज्ञानम् १० ११ wor Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................... मूलं [२०]/गाथा ||५८...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [२०] श्रीमलय- समयान् , तीर्थकराः तीर्थकर्यश्च द्वौ द्वौ समयौ, लिङ्गद्वारे-खलिङ्गेऽष्टौ समयान् , अन्यलिङ्गे चतुरः समयान्, अनन्तरगिरीया गृहिलिङ्गे वो समयौ, चारित्रद्वारे-अनुभूतपरिहारविशुद्धिकचारित्राश्चतुरः समयान् , शेषा अष्टावष्टौ समयान् , बुद्धनन्दी त्ति दा द्विारे-खयम्बुद्धा द्वौ समयौ, बुद्धबोधिता अष्टौ समयान् , प्रत्येकवुद्धा बुद्धीवोधिताः खियो बुद्धीबोधिता एव च सामा ज्ञानम् ॥१२१॥ न्यतः पुरुषादयः प्रत्येकं चतुरश्चतुरः समयान् , ज्ञानद्वारे-मतिश्रुतज्ञानिनो द्वौ समयौ, मतिश्रुतमनःपर्यायज्ञानिनश्चतु- १५ रस्समयान्, मतिश्रुतावधिज्ञानिनो मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानिनो वाऽष्टावष्टौ समयान् , अवगाहनाद्वारे-उत्कृष्टायां जघन्यायां चावगाहनायां द्वौ द्वौ समयौ, यवमध्ये चतुरः समयान् , उक्तं च सिद्धप्राभृतटीकायां-'जमज्झाए प्रय चत्तारि समया' इति, अजघन्योत्कृष्टायां पुनरवगाहनायामष्टौ समयाम् , उत्कृष्टद्वारे-अप्रतिपतितसम्यक्त्या द्वी समयौ, सहयेयकालप्रतिपतिता असङ्ख्येयकालप्रतिपतिताश्चतुरः २ समयान् , अनन्तकालप्रतिपतिता अष्टौ समयान् , अनन्तरादीनि चत्वारि द्वाराणि नेहायतरन्ति । गतं मौलं पञ्चमं काल इति द्वारं, सम्प्रति षष्ठमन्तरद्वार-अन्तरं नाम |सिद्धिगमनविरहकालः, स च सकलमनुष्यक्षेत्रापेक्षया सत्पदप्ररूपणायामेवोक्तो, यथा जघन्यत एकसमय उत्कपेतः दापण्मासा इति, ततः इह क्षेत्रविभागतः सामान्यतो विशेषतचोच्यते-तत्र जम्बद्वीपे धातकीखण्डे च प्रत्येक सामा-पा॥१२१॥ न्यतो वर्षपृथकत्वमन्तरं, जघन्यत एकसमयः, विशेषचिन्तायां-जम्बूदीपविदेहे धातकीखण्डविदेहयोश्चोत्कर्पतः प्रत्येकंदा १ शवत्ती. प्र. १ यवनवायां च चतुरः समयान् । SCSCARSASCCCC दीप अनुक्रम [८६] २३ ~245~ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [२०]/गाथा ||५८...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: 41 C प्रत सूत्रांक [२०] ARDAS वर्षपृथक्त्वमन्तरं जघन्यत एकः समयः, तथा सामान्यतः पुष्करवरद्वीपे विशेपचिन्तायां च तत्रत्ययोयोरपि विदे- अनन्तरहयोः प्रत्येकमुत्कर्षतः साधिक वर्षमन्तरं जघन्यत एकः समयः, उक्तं च-"जम्बुद्दीवे घायइ ओह विभागे य तिस|| सिद्धकेवल ज्ञानम् विदेहेसुं । वासपुहुत्तं अंतर पुक्खरमुभयपि वासहियं ॥१॥" कालद्वारे-भरतेवराक्तेपु च जन्मत उत्कृष्टमन्तरं ४ किञ्चिदूना अष्टादश सागरोपमकोटीकोट्यः, संहरणतः सङ्ख्येयानि वर्षसहस्राणि, जघन्यतः पुनरुभयत्राप्येकः समयः, गतिद्वारे-निरयगतेरागत्योपदेशतः सिध्यतामुत्कृष्टमन्तरं वर्षसहस्रं हेतुमाश्रित्य प्रतिवोधसम्भवेन सिध्यता सङ्ख्येयानि वर्षसहस्राणि, जघन्यतः पुनरुभयत्राप्येकः समयः, तिर्यग्योनिकेभ्य आगयोपदेशतः सिध्यतां वर्षशतपृथक्त्वं हेतुमाश्रित्य प्रतिबोधतः सिध्यतां सङ्ख्येयानि वर्षसहस्राणि, जघन्यतः पुनरुभयत्राप्येकः समयः, तिर्यग्योनिकस्त्रीभ्यो मनुष्येभ्यो मनुष्यस्वीभ्यः सौधर्मशानवर्जदेवेभ्यो देवीभ्यश्च पृथक् २ समागत्योपदेशतः सिध्यतां प्रत्येकमुत्कर्षतोऽन्तरं सातिरेक वर्ष हेतुमाश्रित्य प्रतिबोधतः सिध्यन सहयेयानि वर्षसहस्राणि, जघन्यतः पुनरुभयत्राप्येकः समयः, तथा पृथिव्यव्यनस्पतिभ्यो गर्भव्युत्क्रान्तेभ्यः प्रथमद्वितीयनरकपृथिवीभ्यामीशानदेवेभ्यः सौधर्मदेवेभ्यश्च समागत्योपदेशेन हेतुना च सिध्यतां प्रत्येकमुत्कृष्टमन्तरं सङ्घयेयानि वर्षसहस्राणि जघन्यत एकः समयः, वेदद्वारे-पुरुषवेदानामुत्कर्षतोऽन्तरं साधिकं वर्ष, स्त्रीनपुंसकवेदानां प्रत्येकं सङ्ख्येयानि वर्षसहस्राणि, पुरुषेभ्य उद्धृत्य पुरुषत्वेन सिध्यतां साधिक १ जम्बूद्वीपे धातकी खण्डे ओघे विभागे च त्रिषु विदेहेषु । वर्षपृथक्त्वमन्तरमुभयथाऽपि पुष्करे वर्षाधिकम् ॥ १॥ दीप अनुक्रम [८६] टे REPRImational ~ 246~ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) .................... मूलं [२०]/गाथा ||५८...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत मन्दीवृत्तिः सुत्रांक [२०] दीप श्रीमलयावर्ष, शेषेषु चाष्टसु भङ्गकेषु प्रत्येकं सङ्ख्ययानि वर्षसहस्राणि, जघन्यतः सर्वत्राप्येकः समयः, तीर्थद्वारे-तीर्थकृतां पूर्व- अनन्तरगिरीया सहस्रपृथक्त्वं उत्कर्पतोऽन्तरं, तीर्थकरीणामनन्तः कालः, अतीर्थकराणा साधिकं वर्ष, नोतीर्थसिद्धानां सङ्ग्येयानि सिद्धकेवल " वर्षसहस्राणि, नोतीर्थसिद्धाः प्रत्येकबुद्धाः, जघन्यतः सर्वत्रापि समयः, उक्तं च-"पुवसहस्संपुहुतं तित्थकरानंत- ज्ञानम् ॥१२२॥18काल तित्थगरी । नोतित्थकरा वासाहिगं तु सेसेसु संखसमा ॥१॥ एएसिं च जहन्नं समओ" 'संखसमत्ति' स बियेयानि वर्षसहस्राणि, लिङ्गद्वारे-वलिङ्गादिपु सर्वेष्वपि जघन्यत एकः समयोऽन्तरं उत्कर्षतोऽन्यलिङ्गे गृहिलिङ्गे च || प्रत्येकं सख्येयानि वर्षसहस्राणि, खलिङ्गे साधिकं वर्ष, चारित्रद्वारे-पूर्वभावमपेक्ष्य सामायिकसूक्ष्म सम्पराययवाख्यातचारित्रिणामुत्कृष्टमन्तरं साधिकं वर्ष, सामायिकच्छेदोपस्थापनसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रिणां सामायिकपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रिणां सामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराययधाख्यातचारि त्रिणां च किञ्चिदूनाष्टादशसागरोपमकोटीकोट्यः, जघन्यतः सर्वत्राप्येकः समयः, वुद्धद्वारे-बुद्धबोधितानामुत्कर्षमातोऽन्तरं सातिरेक वर्ष, बुद्धबोधितानां स्त्रीणां प्रत्येकबुद्धानां च सहयेयानि वर्षसहस्राणि, खयम्बुद्धानां पूर्वसहस्रपृथट्राक्त्वं, जघन्यतः पुनः सर्वत्रापि समयः, उक्तं च "बुद्धेहिं बोहियाणं वासहियं सेसयाण संखसमा। पुवसहस्सपुहुर्त होइ सयंबुद्ध समइयरं ॥१॥"'समइयरमिति' इतरत्-जघन्यमन्तरं समयः, ज्ञानद्वारे-मतिश्रुतज्ञानिनामुत्कृष्टमन्तरं पल्यो- २४ पूर्वसहस्पृथकावं तीर्थंकराणां अनन्तः कालस्तीर्थकरीणाम् । मोतीर्थकराणा वाधिकं शेषेषु तु संरूपातानि वर्षसहस्राणि ॥1॥ एतेषां च अवयं सभयान ॥१२२॥ . लिथुवाधितानो वाधिक पोषाणां संख्यातसहलसमाः । पूर्वसहस्रपृथक्त्वं भवति खयम्युदानां समय इतरत् ॥1॥ ASSOCK अनुक्रम [८६] Jurasurary.com ~ 247~ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [२०]/गाथा ||५८...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: अनन्तरसिद्धकेवलज्ञानम् प्रत सूत्रांक [२०] PRECASSAGE पमासङ्ख्येयभागः, मतिश्रुतावधिज्ञानिनां साधिक वर्ष, मतिश्रुतमनःपर्यायज्ञानिनां मतिश्रुवावधिमनःपर्यायज्ञानिनां दीच समयेयानि वर्षसहस्राणि, जघन्यतः सर्वत्रापि समयः, अवगाहनाद्वारे-जघन्यायामुत्कष्टायां चावगाहनायां यवमध्ये चोत्कृष्टमन्तरं श्रेण्यसहयेयभागः, अजघन्योत्कृष्टायां साधिकं वर्ष, जघन्यतः पुनः सर्वत्रापि समयः, उत्कृष्टद्वारे-अप्रतिपतितसम्यक्त्वानां सागरोपमासयेयभागः, समयेयकालप्रतिपतितानामसङ्ख्येयकालप्रतिपतितानां च सङ्ख्येयानि वर्षसहस्राणि, अन्ततकालप्रतिपतितानां साधिकं वर्ष, जघन्यतः सर्वत्रापि समयः, उक्तं च"उयहिअसंखो भागो अप्पडिवडियाण सेस संखसमा । वासं अहियमणंते समओ य जहन्नओ होइ ।।१॥" अन्तशरद्वारे-सान्तरं सिध्यतामनुसमयद्वारे निरन्तरं सिध्यतां गणनाद्वारे एककानामेनेकेषां च सिध्यतामुत्कृष्टमन्तरं साथेयानि वर्षसहस्राणि, जघन्यतः पुनः सर्वत्रापि समयः । गतमन्तरद्वार, सम्प्रति भाषद्वार-तत्र सर्वधपि क्षेत्रादिषु द्वारेषु पृच्छा, कतरस्मिन् भावे वर्तमानाः सिध्यन्तीति ?, उत्तरं-क्षायिके भावे, उक्तं च-'खेत्ताइएसु पुच्छा बागरणं सबहिं खइए' । गतं भावद्वारं, सम्प्रत्यल्पबहुत्वद्वार-तत्र ये तीर्थकरा ये च जले ऊर्द्धलोकादौ च चतुष्काः सिसाध्यंति ये च हरिवोदिपु सुषमसुषमादिषु च संहरणतो दश दश सिध्यन्ति ते परस्परं तुल्याः, तथैवोत्कर्षतो युगही पदेकसमयेन प्राप्यमाणत्वात् , तेभ्यो विंशतिसिद्धाः स्तोकाः, तेषां स्त्रीपु दुष्पमायामेकतमस्मिन् विजये या प्राप्यमा दीप अनुक्रम [८६] १सागरोपमासंध्ययभागोऽप्रतिपतिताना दोषाणां वरुपातसहसमावर्षमाथिकमनन्ते समयच अवन्यसोभाति ।। १।। २क्षेत्रादिकेषु पृच्छा व्याकरणं सर्वत्र शाबिके। REURI ~248~ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [८६] श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ॥ १२३ ॥ “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [२०]/ गाथा ||५८... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४४], चूलिका सूत्र [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः णत्वात्, तथा चोक्तं- "बीसेगसिद्धा इत्थी अहलोगेगविजयादिसु अओ चउरो । दसगेहिंतो थोवा" तेस्तुल्या विंशतिपृथक्त्वसिद्धाः, यतस्ते सर्वाधोलौकिकग्रामेषु बुद्धीबोधितख्यादिषु या लभ्यन्ते ततो विंशतिसिद्धेस्तुल्याः, यदुक्तं - "वीसेपुहुत्तं सिद्धा सबाहोलोगबुद्धीवोहियाइ अओ वीसगेहिं तुला" क्षेत्रकालयोः खल्पत्वात् कादाचि त्कत्वेन च सम्भवादिति, तेभ्योऽष्टशतसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, उक्तं च- “चडै दसगा तह वीसा वीसपुहुत्ता य जे य अटुसया । तुल्ला थोवा तुल्ला संखेज्जगुणा भवे सेसा ॥ १ ॥” ॥ गतमल्पबहुत्वद्वारं कृताऽनन्तर सिद्धप्ररूपणा, सम्प्रति परम्परसिद्धप्ररूपणा क्रियते तत्र सत्पदप्ररूपणा पञ्चदशखपि क्षेत्रादिषु द्वारेण्वनन्तरसिद्धवदविशेषेण द्रष्टव्या, द्रव्यप्रमाणचिन्तायां सर्वेष्यपि द्वारेषु सर्वत्रैवानन्ता वक्तव्याः, क्षेत्रस्पर्शने प्रागिव, कालः पुनः सर्वत्रापि जनादिरुपोऽनन्तो वक्तव्यः, अत एवान्तरमसम्भवान्नं वक्तव्यम्, तदुक्तं द्रव्यप्रमाणं कालमन्तरं चाधिकृत्य सिद्धप्राभृते"पैरिमाणेण अनंता कालोऽणाई अनंतओ तेसिं । नत्थि य अंतरकालो" ति भावद्वारमपि प्रागिव, सम्प्रत्यल्पबहुत्वं सिद्धप्राभृतक्रमेणोच्यते - समुद्रसिद्धाः खोकाः तेभ्यो द्वीप सिद्धाः सक्त्येयगुणाः, तथा जलसिद्धाः स्तोकाः तेभ्यः स्थलसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, तथा ऊर्द्धलोकसिद्धाः स्तोकाः तेभ्योऽधोलोकसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः तेभ्योऽपि तिर्यगू लोक १] विशतिसिद्धाः खीषु अवलोक एकविजयादिषु अथवारः । दशकेन्द्रः खोकाः । २ विंशतिपृथक्त्वसिद्धाः सर्वाधोलोकबुद्धिबोधितादिषु अतो विंश तिभिस्तुल्याः । चत्वारो दशकं तथा विंशतिः विंशतिपृथक्वं च ये चाष्टशतम् । तुल्याः स्तोका मुख्याः संवगुणा भवेयुः शेषाः ॥ १ ॥ ४ परिमाणेन अनन्ताः कालोऽनाद्यनन्तकस्वाम् नास्ति चान्तरकाल इति । Education internationa For Park Use Only ~ 249~ परम्पर सिद्धकेवलं १५ २० २३ ॥१२३॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) .................... मूलं [२०]/गाथा ||५८...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, उक्तं च-"सामुद्ददीव जलथल दुहं २ तु धोव संखगुणा । उहअहतिरियलोए थोवा संखा-II गुणा संखा ॥१॥" तथा लवणसमुद्रसिद्धाः सर्वतोकाः तेभ्यः कालोदसमुद्रसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः तेऽभ्योऽपि सिद्धकेवलं जम्बूद्वीपसिद्धाः सवेयगुणाः तेभ्यो धातकीखण्डसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः तेभ्योऽपि पुष्करवरद्वीपार्द्धसिद्धाः सङ्ख्येय-18 गुणाः, उक्तं च-"लणे कालोए वा जंबुद्दीचे य धायईसंडे । पुक्खरवरे य दीवे कमसो थोवा य संखगुणा॥१॥"N तथा जम्बूद्वीपे संहरणतो हिमवच्छिखरिसिद्धाः सर्वस्तोकाः १ तेभ्यो हैमवत्ऐरण्यवतसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः २ तेभ्योऽपि ५ महाहिमवद्रुक्मिसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः ३ तेभ्योऽपि देव कुरूत्तरकुरुसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः४ तेभ्योऽपि हरिवपरम्यकसिद्धाः। सङ्खयेयगुणाः, क्षेत्रबाहुल्यात् ५, तेभ्योऽपि निपधनीलवत्सिद्धाः सोयगुणाः ६ तेभ्योऽपि भरतैरायतसिद्धाः सङ्खयेयगुणाः, खस्थानत्वात् ७, तेभ्यो महाविदेहसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, सदाभावात् ८,सम्प्रति धातकीखण्डे क्षेत्रविभागेनोच्यते-धातकीखण्डे संहरणतो हिमवशिखरिसिद्धाः सर्वस्तोकाः १ तेभ्यो महाहिमवद्रुक्मिसिद्धाः संख्येयगुणाः २ तेभ्योऽपि निषधनीलवसिद्धाः संख्येयगुणाः३तेभ्योऽपि हैमवतैरण्यवतसिद्धा विशेषाधिकाः ४ तेभ्यो देवकुरूत्तरकुरु- १० सिद्धाः सहबेयगुणाः ५ तेभ्यो हरिवर्षरम्यकसिद्धा विशेषाधिकाः ६ तेभ्योऽपि भरतैरावतसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः ७ १ समुदे द्वीपे जले स्थले बयोईयोलु लोकाः संख्येयगुणाः । कांधस्तिर्यग्लोके स्तोकाः संहपगुणाः संख्यगुणाः॥१॥ २ लवणे कालोदे वा जम्बूद्वीपे | अव धातकीवन्डे । पुष्करवरे च द्वीपे क्रमशः स्तोकाः संख्यगुणाध ॥१॥ दीप अनुक्रम [८६] A mational ~250~ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [८६] श्रीमलय गिरीया नन्दीवृत्तिः ॥१२४॥ “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [२०] / गाथा || ५८... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४४], चूलिका सूत्र [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः परम्पर तेभ्योऽपि महाविदेहसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः ८, तथा पुष्करवरद्वीपा हिमवयच्छिखरिसिद्धाः सर्वस्तोकाः १ तेभ्योऽपि | महाहिमवद्रुक्मिसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः २ तेभ्योऽपि निपधनीलवसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः ३ तेभ्योऽपि हैमवतैरण्यवत- सिद्धकेवलं सिद्धाः सवेयगुणाः ४ तेभ्योऽपि देवकुरूत्तरकुरूसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः ५ तेभ्योऽपि हरिवर्षरम्यकसिद्धाः विशेषाधिकाः ६ तेभ्योऽपि भरतैरावतसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः ७, स्वस्थानमितिकृत्वा तेभ्योऽपि महाविदेहसिद्धाः सङ्ख्य- ११५ गुणाः, क्षेत्रबाहुल्यात् खस्थानाच ८, सम्प्रति-त्रयाणामपि समवायेनाल्पबहुत्वमुच्यते- सर्वस्तोका जम्बूद्वीपे हिमवच्छि खरिसिद्धाः १ तेभ्योऽपि हैमवतैरण्यवत सिद्धाः सङ्ख्येपगुणाः २ तेभ्योऽपि महाहिमवदुक्मिसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः ३ ४ तेभ्योऽपि देवकुरूत्तरकुरुसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः ४ तेऽभ्योऽपि हरिवर्षरम्यकसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः ५ तेभ्योऽपि निषेधनीलवसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः ६ तेभ्योऽपि धातकीखण्डहिमवच्छिखरिसिद्धा विशेषाधिकाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः ७ ततो धातकीखण्ड महाहिमवदुक्मिपुष्करवरद्वीपार्द्धहिमवच्छिख रिसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः स्वस्थाने तु चत्वारोऽपि परस्परं तुल्याः ८ ततो धातकीखण्डनिपधनीलवत्सिद्धाः पुष्करवरद्वीपार्द्धमहाहिमवदुक्मिसिद्धाश्च सङ्ख्येयगुणाः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः ९ ततो घातकी खण्ड हैमवतैरण्यवतसिद्धा विशेषाधिकाः १० तेभ्योऽपि पुष्करवरद्वीपार्द्धनिपधनीलवत्सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः ११ ततो धातकीखण्डदेव कुरूत्तरकुरुसिद्धाः सहपेयगुणाः १२ तेभ्योऽपि घातकीखण्ड एवं हरिवर्षैरम्यकसिद्धा विशेषाधिकाः १३ ततः पुष्करवरद्वीपार्द्धहिमवतैरण्यवतसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः Education Internationa For Pass Use Only ~251~ २० ॥ १२४॥ २४ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [२०]/गाथा ||५८...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: WI प्रत सूत्रांक [२०] [१४ तेभ्योऽपि पुष्करवरद्वीपार्द्ध एव देवकुरूत्तरकुरुसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः १५ तेभ्योऽपि तत्रैष हरिवर्षरम्यकसिद्धा विशे-। पाधिकाः १६ तेभ्योऽपि जम्बूद्वीपभरतैरावतसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः १७ तेभ्योऽपि धातकीखण्डसत्कभरतैरावतसिद्धाःसिद्धकेवलं सञ्जयेयगुणाः १८ तेभ्योऽपि पुष्करवरहीपार्द्धभरतैरावतसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः १९ तेभ्योऽपि जम्बूद्वीपे विदेहसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः २० ततो धातकीखण्डविदेहसिद्धाः सङ्खयेयगुणाः २१ ततोऽपि पुष्करवरद्वीपार्द्ध विदेहसिद्धाः सङ्खयेयगुणाः २२, इदं च क्षेत्रविभागेनाल्पबदुत्वं सिद्धप्राभृतटीकातो लिखितं । गतं क्षेत्रद्वारं, अधुना कालद्वारं-तत्रायसपिण्यां संहरणत एकान्तदुष्पमासिद्धाः सर्वस्तोकाः, इतो दुष्पमासिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्यः सुषमदुष्पमासिद्धा असलयेयगुणाः, कालस्यास गयेयगुणत्वात् , तेभ्योऽपि सुषमासिद्धाः विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि सुषमसुषमासिद्धा विशेपाधिकाः, तेभ्योऽपि दुष्पमसुपमासिद्धाः सवधेयगुणाः, उक्तं च-“अईदूसमाइ थोवा संख असंखा दुबे विसेस|हिया । दूसमसुसमा संखागुणा उ ओसप्पिणीसिद्धा ॥१॥" एवमुत्सर्पिण्यामपि द्रष्टव्यम् , तथा चोक्तम्“अइदूसमाइ थोवा संख असंखा उ दुन्नि सविसेसा । दूसमसुसमा संखागुणा उ उस्सप्पिणीसिद्धा ॥१॥” सम्प्रत्युत्सर्पिण्ययसप्पिण्योः समुदायेनाल्पबहुत्वमुच्यते-तत्र द्वयोरप्युत्सर्पिण्यवसर्पिण्योरेकान्तदुष्पमासिद्धाः सर्वस्तोकाः, १ अतिदुषमा स्तोकाः संख्यगुणा असंख्यगुणाः योविशेषाधिकाः। दुष्पममुषमाया संख्यगुणास्पषसर्विया सिद्धाः ॥१॥२ अतियुष्षमायाँ स्तोकाः | संख्षगुणा असंख्यगुणास्तु योरपि सविशेषाः । दुप्पमसुषमायां संख्यगुणास्तु उत्सर्पिणीसिद्धाः ॥१॥ दीप अनुक्रम [८६] GAR ~252~ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................... मूलं [२०]/गाथा ||५८...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] A दीप अनुक्रम श्रीमलय 18|तत उत्सपिण्यां दुष्पमासिद्धा विशेषाधिकाः, ततोऽवसर्पिण्या दुष्पमासिद्धाः सझ्येयगुणाः, तेभ्योऽपि द्वयोरपि परम्परगिरीया दुष्षमसुषमासिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, ततोऽवसर्पिण्यां सर्वसिद्धाः सत्येयगुणाः, तेभ्योऽप्युत्सर्पिणीसर्वसिद्धा विशेषा- सिद्धकेवलं नन्दीपतिः Mधिकाः, गतं कालद्वारं, सम्प्रति गतिद्वार-तत्र मानुषीभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सर्वस्तोकाः, ततो मानुषेभ्योऽन॥१२५॥ शान्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि नैरयिकेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि तिर्यग्योनि स्त्रीभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि तिर्यग्योनिकेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः; तेभ्योऽपि है देवीभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि देवेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, उक्तं च-"मणुई मणुया नारय तिरिक्खिणी तह तिरिक्ख देवीओ। देवा य जहाकमसो संखेजगुणा मुणेयवा ॥२॥" तथा एकेन्द्रि येभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सर्वस्तोकाः, ततः पञ्चेन्द्रियेभ्योनन्तरागताः सिद्धाः सवेयगुणाः, तथा वनस्पतिकादायेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सर्वस्तोकाः, ततः पृथिवीकायेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सहयेयगुणाः, ततोऽप्यपका येभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सोयगुणाः, तेभ्योऽपि त्रसकायेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सङ्गवेयगुणाः, उक्त च“एगिदिएहिं थोवा सिद्धा पञ्चेदिएहि संखगुणा । तरुपुढविआउतसकाइएहिं संखागुणा कमसो ॥ १॥" तथा २२ १२५॥ VI मनुष्यो मनुजा नारकाः तिरक्ष्यस्तथा तिबंधो देव्यः। देवाच ययाकर्म संहवेवगुणा ज्ञातव्याः ॥१॥२ एकदिपेभ्यः स्तोकाः सिद्धाः पञ्चेन्द्रियेभ्यः संख्यगुणाः । तरुपुष्यावसकायिकेभ्यः संयगुणाः कमात् ॥ २॥ [८६] ~253~ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [८६] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूल [२०] / गाथा || ५८...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः परम्पर चतुर्थ पृथिवीतोऽनन्तरागताः सिद्धाः सर्वस्तोकाः, तेभ्यस्तृतीयपृथिवीतोऽनन्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि द्वितीय पृथिवीतोऽनन्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि पर्यासवादरप्रत्येक वनस्पतिभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सिद्ध केलं सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि पर्याप्त वादरपृथिवी कायेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि पर्यासवादराप्कायेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि भवन पतिदेवीभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि भवनवासिदेवेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, ततोऽपि व्यन्तरीभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि व्यन्तरदेवेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि ज्योतिष्कदेवीभ्योऽनन्तरा-गताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि ज्योतिष्कदेवेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि मनुष्य स्त्रीभ्योऽप्यनन्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि मनुष्येभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि प्रथमनरक पृथिवीतोऽनन्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि तिर्यग्योनिस्त्रीभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि तिर्यग्योनिकेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि अनुत्तरोपपातिकदेवेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि चैवेयकेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः तेभ्योऽप्यच्युतदेवलोकादनन्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः तेभ्योऽपि आरणदेवेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, एवमधोमुखं तावन्नेयं यावत् सनत्कुमारादनन्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्यगुणाः, तत ईशान देवीभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः Henationd For Pale Only ~ 254~ १० १३ www.rary or Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [२०]/गाथा ||५८...|| ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [२०] दीप श्रीमलय-1 सवधेयगुणाः, ततोऽपि सौधर्मदेवीभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सञ्जयेयगुणाः, तेभ्योऽपि ईशानदेवेभ्योऽप्यनन्तरा-1| परम्परगिरीया गताः सिद्धाः सहयेयगुणाः, तेभ्योऽपि सौधर्मदेवेभ्योऽप्यनन्तरागताः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, उक्तं च-"नरग-रासिद्धकेवलं नन्दीवृत्तिः चउत्थापुढवी तचा दोचा तरू पुढवि आऊ । भवणवइदेवि देवा एवं वणजोइसाणपि ॥ १॥ मणुई मणुस्स ॥१२६॥ नारयपढमा तह तिरिक्खिणीयतिरिया य । देवा अणुत्तराई सबेवि सणंकुमारंता ॥२॥ ईसाणदेवि सोहम्मदेवि ईसा णदेव सोहम्मा । सवेवि जहाकमसो अणंतरायाउ संखगुणा ॥३॥ गतं गतिद्वारं, सम्प्रति वेदद्वारं-अत्र सर्व-| स्तोका नपुंसकसिद्धाः, तेभ्यः स्त्रीसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि पुरुषसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, उक्तं च-"थोवा नपुंस इत्थी संखा संखगुणा तओ पुरिसा।" तीर्थद्वारे--सर्यस्तोकाः तीर्थकरीसिद्धाः ततः तीर्थकरीतीर्थे प्रत्येकबुद्ध(सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः तेभ्योऽपि तीर्थकरीतीर्थेऽतीर्थकरीसिद्धाः सयेयगुणाः तेभ्योऽपि तीर्थकरीतीर्थे एवातीर्थकरसिद्धाः सङ्खयेयगुणाः तेभ्यः तीर्थकरसिद्धा अनन्तगुणाः तेभ्योऽपि तीर्थकरतीर्थे प्रत्येकवुद्धसिद्धाः सङ्खयेयगुणाः तेभ्योऽपि तीर्थकरतीर्थ एव साध्वीसिद्धाः सङ्खयेयगुणाः तेभ्योऽपि तीर्थकरतीर्थ एवातीर्थकरसिद्धाः २३ ॥१२६॥ नरकातु पृथिव्याः तृतीयाका द्वितीयायाः तरोः पृथ्व्या अभ्यः । भवनपतिदेवी देवेभ्यः एनन्तरज्योतिष्फेभ्यः ॥१॥ मानुपीमनुजप्रथमनरकेभ्यः | तथा विरधी गलियरपथ । देवा अनुत्तराद्याः सर्वेऽपि सनत्कुमारान्ताः ॥२॥ ईशानदेयी साधर्मदेवीशानसौधर्मदेवाः । सर्वेऽपि यथाक्रम अनन्तरागताः अनुक्रम [८६] 51 संख्येयगुणाः॥२॥२तोका नपुंसका लिया संख्यगुणाः संख्यगुणासातः पुरुषाः । ~255~ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................... मूलं [२०]/गाथा ||५८...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] MAA दीप अनुक्रम [८६] सङ्ख्यगुणाः, लिङ्गद्वारे-गृहिलिङ्गसिद्धाः सर्व स्तोकाः तेभ्योऽपयलिसिद्धा असङ्खये यगुणाः तेभ्योऽपि खलिङ्ग-1 योऽपन्योलमासद्धा असङ्ख्य यगुणाः तभ्याज खलिङ्ग सिद्धानामसिद्धा असङ्ख्येयगुणाः, उक्तं च-"गिहिअन्नसलिंगेहिं सिद्धा थोवा दुवे असंखगुणा" चारित्रद्वारे-सर्वस्तोकाश्छे-पाल्पबहवं सादोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रसिद्धाः तेभ्यः सामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः तेभ्योऽपि छेदोपस्थापनसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रसिद्धा असअधेयगुणाः, सामायिकरहितं च छेदोपस्थापन भग्नचारित्रस्यावगन्तव्यं, तेभ्योऽपि सामायिकच्छेदोपस्थापनसूक्ष्मसम्प-1 राययथाख्यातचारित्रसिद्धाः सत्येवगुणाः तेभ्योऽपि सामायिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रसिद्धाः सङ्ग्येयगुणाः, Bउक्तं च-"थोवा परिहारचऊ पंचग संखा असंख छेयतिगं। छेयचउकं संखे सामाइयतिगं च संखगुणं ॥१॥" बुद्धद्वारे सर्वस्तोकाः खयम्बुद्धसिद्धाः, तेभ्यः प्रत्येकबुद्धसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः तेभ्योऽपि बुद्धीबोधितसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः लातेभ्योऽपि बुद्धबोधितसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, ज्ञानद्वारे-मतिश्रुतमनःपर्यायज्ञानिनःसिद्धाः सर्वतो का तेभ्यो मतिश्रुतज्ञा निसिद्धाः सङ्ग्येयगुणाः तेभ्योऽपि मतिश्रुतावधिमनःपर्यवज्ञानिसिद्धा असोयगुणाः तेभ्योऽपि मतिश्रुतावधिज्ञानिसिद्धाः सोयगुणाः, उक्तं च-"मणपज्जवनाणतिगे दुगे चउके मणस्त नागस्त । थोवा संख असंखा ओहितिगे ढुति हा हान्यखलिगः सिद्धाः खोका ये असंध्ययुगाः। २खोकार परिहारचतुम्के पक्ष के संपामाः अषागारनिके पिच के संपणा. सामाविक INत्रिकेप संश्ययाः॥१॥मनापशवानपिके रिकेत मनःपर्यायानसोपनासंगाअरवित्रिक भवन्ति संबोयाः ॥१॥ SERIALond P armarary.org ~256~ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [८६] श्रीमलय मिरीया नन्दीवृत्तिः ॥१२७॥ Je Eticatur “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूल [२०] / गाथा || ५८...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [४४ ], चूलिका सूत्र [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः संखेजा ॥ १ ॥ " अवगाहनाद्वारे - सर्वस्तोका द्विहस्तप्रमाणजघन्यावगाहनासिद्धाः तेभ्यो धनुः पृथक्त्वाभ्यधिकपञ्चधनुः| शतप्रमाणोत्कृष्टावगाहनासिद्धा असङ्ख्येयगुणाः ततो मध्यमावगाहनासिद्धा असङ्ख्येयगुणाः, उक्तं च "ओगाहणा जहन्ना थोवा उक्कोसिया असंखगुणा । तत्तोवि असंखगुणा नायवा मज्झिमाएवि ॥ १ ॥" अत्रैव सिद्धप्राभृतटीकाकारोपदर्शितो विशेष उपदर्श्यते - सर्वस्वोकाः सप्तहस्तप्रमांणावगाहनासिद्धाः तेभ्यः पञ्चधनुः शतप्रमाणावगाहनासिद्धाः सङ्ख्यगुणाः ततो न्यूनपञ्चधनुः शतप्रमाणावगाहनासिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः तेभ्योऽपि सातिरेकसप्तहस्तप्रमाणाव गाहनासिद्धा विशेषाधिकाः, उत्कृष्टद्वारे- सर्वस्तोकाः अप्रतिपतितसिद्धाः तेभ्यः सङ्ख्ये य कालप्रतिपतितसिद्धा असोयगुणाः तेभ्योऽप्यसत्येय कालप्रतिपतितसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः तेभ्योऽप्यनन्तकालप्रतिपतितसिद्धा असङ्ख्येयगुणाः, उक्तं च - " अप्प डिवाइयसिद्धा संखासंखाणंतकाला य। थोव असंखेजगुणा संखेज्जगुणा असंखेज (ख) गुणा ॥ १ ॥ " अन्तरद्वारे - सर्वस्तोकाः षण्मासान्तरसिद्धाः तत एकसमयान्तरसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः ततो द्विसमयान्तरसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः ततोऽपि त्रिसमयान्तरसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः एवं तावद्वाच्यं यावद्यवमध्यं, ततः सङ्ख्येयगुणहीनास्तावद्व|क्तव्या यावदेकसमय हीनपण्मासान्तरसिद्धेभ्यः पण्मासान्तरसिद्धाः सङ्ख्येयगुणहीनाः, अनुसमयद्वारे सर्व स्तोकाः अ १] अवगाहनायां अन्यायां स्तोका उत्कृष्टधर्मा असंख्यगुणाः । ततोऽप्यसंख्यगुणा हातव्या मध्यमायामपि ॥ १ ॥ २ अप्रतिपतितसिद्धाः संख्यायातका ला। स्टोका असंख्यगुणाः संख्यगुणाः असंख्येयगुणाः ॥ १ ॥ For Pasta Use Only ~ 257 ~ सिद्धानामल्पबहुत्वं सू. ३० १५ २० ॥१२७॥ wbrary.org Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं २०/गाथा ||५८...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: सिद्धानाम प्रत सूत्रांक [२०] एसमयसिद्धाः ततः सप्तसमयसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः तेभ्यः षट्समयसिद्धाः सङ्ग्येयगुणा एवं समयसमयहान्या तावद्वाच्य!:| यावद् द्विसमयसिद्धाः सझयेयगुणाः, उक्तं च-"अटुंसमयंमि थोवा संखेजगुणा उ सत्तसमपा उ। एवं पडिहायते | ल्पबहुत्वं सू.३० जाव पुणो दोन्नि समया उ॥१॥" अत्र 'अट्ठसमयमी'त्यादी द्विगुसमाहारत्वादेकवचनं, गणनाद्वारे-सर्वस्तोका अष्टशतसिद्धाः ततः सताधिकशतसिद्धा अनन्तगुणाः तेभ्योऽपि षडधिकशतसिद्धाः अनन्तगुणाः तेभ्यः पञ्चाधिक-18 शतसिद्धा अनन्तगुणा एवमेकैकहान्या अनन्तगुणाः ताबद्वाच्या यावदेकपञ्चाशसिद्धेभ्यः पञ्चाशत्सिद्धा अनन्तगुणाः, ५ ततः तेभ्य एकोनपञ्चाशत्सिद्धा असङ्ख्येयगुणाः तेभ्योऽप्यष्टचत्वारिंशत्सिद्धा असायगुणाः, एवमेकैकपरिहान्या से हातावद्वाच्यं यावत्पड्विंशतिसिद्धेभ्यः पञ्चविंशतिसिद्धा असङ्ख्येयगुणाः, ततः तेभ्यश्चतुर्विंशतिसिद्धाः सञ्जये यगुणाः, तेभ्योऽपि त्रयोविंशतिसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः एवमेकैकहान्या सद्ध्येयगुणाः तावद्वाच्या यावद्विसिद्धेभ्य एकैकसिद्धाः सोयगुणाः, उक्तं च-"अट्ठसयसिद्ध थोवा सत्तहियसया अर्णतगुणिया य। एवं परिहार्यते सयगाओ जाय पन्नास ॥१॥ तत्तो पण्णासाओ असंखगुणिया उ जाव पणवीसं । पणवीसा आरंभा संखगुणा होंति एगं जा ॥ २॥" सम्प्रति अस्मिन्नेवाल्पबहुत्वद्वारे यो विशेपः सिद्धप्राभृते दर्शितः स विनेयजनानुग्रहाय दयते-तत्र सर्वस्तोका अधो| १ मटसमये सोकाः संख्येयगुणास्तु सप्तसामयिकास्तु । एवं परिहीयमाणे यावत् पुनर्दिसामयिकास्तु ॥ १॥ २ अध्यातसि दाः सोकाः सताधिकशतं अनस्तगुणाय । एवं परिहीयमाणे शतायावत् पश्चाशत् ॥१॥ ततः पचाशतः असंख्य गुणास्तु यावसनविशतिः । पाविशतेः आरभ्य संमयगुणाः भवन्ति एक यावत् ॥ २॥ दीप अनुक्रम [८६] AMERead murarurary.orm ~258~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................... मूलं [२०]/गाथा ||५८...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [८६] श्रीमलय-12मुखसिद्धाः, तेच पूर्ववैरिभिः पादेनोत्पाठ्य नीयमाना अधोमुखकायोत्सर्गव्यवस्थिताया वेदितव्याः, तेभ्भ ऊईस्थितका-131 गिरीया ४ायोत्सर्गस्थिताः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि उत्कटिकासनसिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि वीरासनसिद्धाः सङ्ख्येषगुणाः, कर्षःम.३० नन्दीवृत्तिः नातेभ्योऽपि न्युजासनसिद्धाः सहयगुणाः, न्युजोपविष्टा एवाधोमुखा द्रष्टव्याः, तेभ्योऽपि पार्थस्थितसिद्धा सहये॥१२८॥ यगुणाः, तेभ्योऽप्युत्तानस्थितसिद्धाः सवयेयगुणाः, तथा चैतदेव पश्चानुपूर्व्याभिहितं-"उत्तानग पासिल्लग्ग निउज वीरासणे य उकडिए । उद्धट्ठिय ओमंथिय संखेजगुगेण हीणा उ ॥१॥" तदेवमुक्तमल्पबहुत्वद्वारं । सम्प्रति सर्व-31 द्वारगताल्पबहुत्यविशेषोपदर्शनाय सन्निकर्षद्वारमुच्यते-सन्निको नाम संयोगः,इखदीर्घयोरिव, विवक्षितं किञ्चित्त्रतीत्य विवक्षितस्थालतया बहुत्वेन वाऽवस्थानरूपः सम्वन्धः, उक्तं च-"संजोग सन्निगासो पद्धय सम्बन्ध एगट्ठा" तत्रेयं ज्याति:-पत्र यत्राष्टशतमुपलभ्यते तत्र तत्रोपरितनमष्टकरूपमङ्कमपनीय शेषस्य शतस्य चतुर्भिागो हियते, हृते च भागे लब्धाः पञ्चविंशतिः, तत्र पञ्चविंशतिसङ्ख्येषप्रथमचतुर्थभागे क्रमेण सहयगुणहानिर्वतम्या, तद्यथा-सर्वव-| हव एकैकसमयसिद्धाः, ततो विकद्विकसिद्धाः सङ्ख्येयगुणहीनाः, तेभ्योऽपि त्रिकविकसिद्धाः सये पगुमहीनाः, एवं ताबद्वाच्यं यावत्पञ्चविंशतिसिद्धाः सञ्जयगुणहीनाः, उक्तं च-"पढेमो चउत्थभागो पणवीसा तत्थ संखेज गुगहाणी १ उत्तानाः पार्श्वका न्युम्जा बीराखनाश्चोरकटिकाः । ऊवस्थिता अवाछुवा संध्यमुन दौना एवं ॥१॥२ संयोगः सनिकी प्रतील संपन्य एकार्थानि । ३ प्रपमश्चतुर्वभागः पश्चविंशतिः, तत्र संख्येय गुणहानिई व्या । - ॥१२८॥ ~ 259~ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [८६] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूल [२०] / गाथा || ५८...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र - [४४], चूलिका सूत्र -[१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः दवत्ति" द्वितीये पुनश्चतुर्थभागे क्रमेणासवेयगुणहानिर्वक्तव्या, तद्यथा - पञ्चविंशतिसिद्धेभ्यः पविंशतिसिद्धाः असोयगुणहीनाः, एवमेकैकवृज्या असोयगुणहानिः तावद्वक्तव्या यावत्पञ्चाशत्, तदुक्तं - "विंइए चउत्थमागे असंखगुणहानि जाव पन्नासं "ति, तृतीयस्माच्चतुर्थभागादारभ्य सर्वत्रापि अनन्तगुणहानिर्वतव्या, तद्यथा-पञ्चाशत्सि द्वेभ्य एकपञ्चाशत् सिद्धा अनन्तगुणहीनाः तेभ्योऽपि द्विपञ्चाशसिद्धा अनन्तगुणहीनाः एवमेकैकवृया अनन्तगुणहानिस्तावद्वक्तव्या यावदष्टाधिकशतसिद्धा अनन्तगुणहीनाः, उक्तं च- "तथपर्य आइकाऊण चउत्थपयं जाव अट्ठसयं ताव अनंतगुणहाणी एगवन्नाओ आरंभ दट्ठवा ।" सिद्धप्राभृतसूत्रेऽप्युक्तं- "पढने भांगे संखा चिइए असंख अनंत तहयाए ।" तथा यत्र यत्र विंशतिसिद्धाः तत्र तत्रापि व्याप्तिरियमनुसर्त्तव्या, प्रथमे चतुर्थभागे सगुणहानिः द्वितीये अस वेयगुणहानिः तृतीये चतुर्थे वा [ चा]नन्तगुणहानिः, तद्यथा-एकैकसिद्धाः सर्वत्रयः तेभ्योऽपि | द्विकद्विकसिद्धाः सङ्ख्येयगुणहीनाः एवं तावद्वाच्यं यावत्पञ्च, ततः पडादिसिद्धा जसगुणहीना यावद्दश, तत एकादशादयः सर्वेऽप्यनन्तगुणहीनाः, एवमधोलोकादिष्यपि विंशतिपृथक्त्वसिद्धौ प्रथमे चतुर्थभागे सत्येवमहानिः द्वितीयचतुर्थभागेऽसङ्ख्येयगुणहानिः, तृतीयस्माच्चतुर्थभागादारभ्य पुनः सर्वत्राप्यनन्त गुणहानिः येषु तु हरिवर्षादिषु १] द्वितीये चतुर्थभागुणानिः यावत् पञ्चाशदिति । २ तृतीयमादिकृत्वा चतुर्वपदं यावदतं तावदनन्तगुणानिः एकाधारात आरभ्य द्रश्या । ३ प्रथमे भागे संख्या द्वितीयेऽसंख्या अनन्ताः तृतीये । For Park Use Only ~260~ सिद्धसनिकर्षः सू. ३० ५ १० ११ ora Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [२०]/गाथा ||५८...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: गिरीया प्रत सूत्राक [२०] दीप अनुक्रम [८६] श्रीमलय-1 स्थानेषत्कर्षतो दश दश सिध्यन्ति तत्रैवं व्याप्तिः-त्रिकं यावत्सङ्ख्येयगुणहानिः, ततश्चतुष्के पञ्चके चासङ्ख्येयगुण-सि हानिः, ततः पटादारभ्य सर्वत्रापि अनन्तगुणहानिः, तद्यथा-एककसिद्धाः सर्वबहवः, ततो द्विकद्विकसिद्धाः सथेनन्दीवृत्तिः ४ यगुणहीनाः, तेभ्योऽपि त्रिक्रत्रिकसिद्धाः सङ्ख्येयगुणहीनाः, तेभ्योऽपि चतुश्चतुःसिद्धाः असङ्खयेयगुणहीनाः, तेभ्योऽपि ॥१२९॥ पञ्चरसिद्धा असङ्ख्येयगुणहीनाः, ततः षडादयः सर्वेऽप्यनन्तगुणहीनाः, यत्र पुनरवगाहनायवमध्यादावुत्कर्ष तोऽष्टी सिध्यन्तः प्राप्यन्ते तत्रैवं व्याप्ति:-चतुष्कं यावत्सोयगुणहानिः, ततः परमनन्तगुणहानिः, तद्यथा-एक४ाकसिद्धाः सर्वबहवः, तेभ्योऽपि द्विकद्विकसिद्धाः सोयगुणहीनाः, तेभ्योऽपि त्रिकविकसिद्धाः सञ्जये यगुणहीनाः, दातेभ्योऽपि चतुश्चतुःसिद्धाः सङ्ख्येयगुणहीनाः, परं पञ्चपञ्चादयोऽनन्तगुणहीनाः, अत्रासये पगुणहानिर्न विद्यते, यत्र पुनरूढलोकादाबुत्कर्षतश्चत्वारः सिध्यन्तः प्राप्यन्ते तत्र एवं व्यासिः-एककसिद्धाः सर्ववहयः, तेऽभ्यो द्विक|द्विकसिद्धा असङ्ख्येयगुणहीनाः, तेभ्योऽपि त्रिकत्रिकसिद्धा अनन्तगुणहीनाः, तेभ्योऽपि चतुश्चतुस्सिद्धा अनन्तगुपणहीनाः, अत्र सङ्खये यगुणहानिर्न विद्यते, तदुक्तं-"जत्थ चत्तारि सिद्धा दिठ्ठा तत्थ संखेजगुणहाणी नत्थि 'संखेट्राजविवज्जिय चउक्के' इति वचना"दिति । यत्र पुनर्लवणादौ द्वौ द्वावुत्कर्षतः सिध्यन्तौ दृष्टौ तत्रैवं व्याप्तिः-एकक-8॥१२९!! सिद्धाः सर्वबहवः, ततो द्विकद्विकसिद्धा अनन्तगुणहीनाः, तदुक्तं-"लयेणादौ दो सिद्धा दिवा तत्व एकगसिद्धा १वत्र चत्वारः सिद्धा रष्टास्तत्र संख्येयगुणहानिर्नास्ति, संशययविवर्जिताश्चतुष्के। २ लबणादौ द्वी सिद्धौ रष्टा तत्रैककसिद्धा बहनः, द्विकसिद्धा अनन्तगुणहीनाः ।। ~261~ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [२०]/गाथा ||५८...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०]] बहुगा, दुगसिद्धा अणंतगुणहीणा।" तदेवमिह सन्निकर्षों द्रव्यप्रमाणे सप्रपञ्च चिन्तितः, शेषेषु तु द्वारेषु सिद्धप्राभृत- अनन्तरट्राटीकातो भावनीयः, इह तु ग्रन्थगौरवभयानोच्यते-सिद्धप्राभृतसूत्रं तवृत्तिं चोपजीव्य मलयगिरिः। सिद्धखरूपमेत-सिद्धभेदाः निरयोचच्छिष्यबुद्धिहितः ॥ १॥ सम्प्रति विशेषतरं जिज्ञासुरनन्तरसिद्धखरूपं शिष्यः प्रश्नयन्नाह सू.३१ से कितं अणंतरसिद्धकेवलनाणं?. अणंतरसिद्ध केवलनाणं पन्नरसविहं पण्णत्तं तंजहा-तिस्थसिद्धा १ अतित्थसिद्धा २ तित्थसिद्धा ३ अतित्थयरसिद्धा ४ सयंबुद्धसिद्धा ५ पत्तेयबुद्धसिद्धा ६ बुद्धबोहियसिद्धा ७ इस्थिलिंगसिद्धा ८ पुरिसलिंगसिद्धा ९ नपुंसगलिंगसिद्धा १० सलिंगसिद्धा ११ अन्नलिंगसिद्धा १२ गिहिलिंगसिद्धा १३ एगसिद्धा १४ अणेगसिद्धा १५ सेत्तं अणंतरसिद्धकेवलनाणं । (सू. ३१) अथ किं तदनन्तरसिद्धकेवलज्ञानं?, सूरिराह-अनन्तरसिद्धकेवलज्ञानं पञ्चदशविध प्रज्ञसं, पञ्चदशविधता च तस्यानन्तरसिद्धानामनन्तरपाश्चात्यभवरूपोपाधिभेदापेक्षया पञ्चदशविधत्वात् , ततोऽनन्तरसिद्धानामेवानन्तरभवोपाधिभेदतः पञ्चदशविधतां मुख्यत आह-'तद्यथे'त्युपप्रदर्शने 'तित्थसिद्धा' इत्यादि, तीर्यते संसारसागरोऽनेनेति तीर्थयथावस्थितसकलजीवाजीवादिपदार्थसार्थप्ररूपकं परमगुरुप्रणीतं प्रवचनं, तच निराधारं न भवतीतिकृत्वा सङ्घः दीप अनुक्रम [८६] Haramrary.om अत्र मूल संपादने मुद्रण अशुद्धित्वात् सू० क्रम २१ स्थाने सू० क्रम ३१ मुद्रितं, तत् मात्र क्रमांकन दोष: ... अनन्तरकेवलज्ञानस्य १५ भेदानां कथन ~ 262~ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [२१]/गाथा ||५८...|| ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [२१] ॐ दीप श्रीमलयप्रथमगणधरो वा वेदितव्यं, उक्तं च-"तित्थं भंते ! तित्थं तित्थकरे तित्थं ?, गोमा ! अरहा ताव नियमा तित्थं-1x गिरीया करे, तित्थं पुण चाउच्चपणो समणसंघो पढमगणहरो वा" तस्मिन्नुत्पन्ने ये सिद्धाः ते तीर्थसिद्धाः, तथा तीर्थस्याभा-IN बुद्धाः नन्दीवृत्तिः शवोऽतीर्थ, तीर्थस्थाभावधानुत्पादोऽपान्तराले व्यवच्छेदो वा, तस्मिन् ये सिद्धाः तेऽतीर्थसिद्धाः, तत्र तीर्थस्यानुत्पादे ॥१३०॥ सिद्धा मरुदेवीप्रभृतयः, न हि मरुदेव्यादिसिद्धिगमनकाले तीर्थमुत्पन्नमासीत् , तथा तीर्थस्य व्यवच्छेदचन्द्रप्रभखा मिसुविधिखाम्यपान्तराले, तत्र ये जातिस्मरणादिनाऽपवर्गमवाप्य सिद्धाः ते तीर्थव्यवच्छेदसिद्धाः, तथा तीर्यकराः सन्तो ये सिद्धाः ते तीर्थकरसिद्धाः, अन्ये सामान्यकेवलिनः, तथा खयम्बुद्धाः सन्तो ये सिद्धाः ते खयम्बुद्धसिद्धाः, प्रत्येकवद्धाः सन्तो ये सिद्धाः ते प्रत्येकबुद्धसिद्धाः, अथ स्वयम्बुद्धप्रत्येकबुद्धानां कः प्रतिविशेषः ?, उच्यते, बोध्युपधिश्रुतलिङ्गकृतो विशेषः, तथाहि-खयम्बुद्धा वासप्रत्ययमन्तरेणेव बुध्यन्ते, खयमेव-बाह्यप्रत्ययमन्तरेणैव निजजातिस्मरणादिना बुद्धाः स्वयम्बुद्धा इति व्युत्पत्तेः, ते च द्विधा-तीर्थकराः तीर्थकरव्यतिरिक्ताच, इह तीर्थकरण्यतिरिक्तैरधिकारः, आह च चूर्णिणकृत्-"ते दुविहा-तित्ययरा तित्थयरवइरित्ता वा, इह वइरित्तेहि अहि-8॥१३०॥ गारो" इति । प्रत्येकबुद्धास्तु बाह्यप्रत्ययमपेक्ष्य बुध्यन्ते, प्रत्येक-वायं वृपभादिक कारणमभिसमीक्ष्य बुद्धाः प्रत्येक- २३ दीर्थ भदन्त । ता तीर्थकरती, गौतम ! अईन् तावत् नियमात् तीर्थंकरः, तीर्थ पुनश्चातुर्वणः श्रमसः प्रथमगणवरो वा। १ द्विविधाःतीर्थकरा तीर्थकरव्यतिरिका था, ३६ व्यीिरिकरधिकारः। - - अनुक्रम - ८७ ~263~ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [२१] दीप अनुक्रम [८७] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [२१] / गाथा || ५८... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः बुद्धा इति व्युत्पत्तेः तथा च श्रूयते - वाद्यवृषभादिप्रत्ययसापेक्षा करकण्डादीनां बोधिः, बोधिप्रत्ययमपेक्ष्य च बुद्धाः सन्तो नियमतः प्रत्येकमेव विहरन्ति न गच्छ्वासिन इव संहताः, आह च चूर्विंगकृत् -"पत्तेयं वाद्यं वृषभादिकारणमभिसमीक्ष्य बुद्धाः प्रत्येकबुद्धाः बहिः प्रत्यय प्रतिबुद्धानां च पत्तेषं नियमा विहारो जम्हा तम्हा य ते पत्तेयबुद्धा" इति, तथा स्वयम्बुद्धानामुपधिर्द्वादशविध एव पात्रादिकः, प्रत्येकबुद्धानां तु द्विधा- जवन्यत उत्कर्षतश्च तत्र जघन्यतो द्विविधः उत्कर्षतो नवविधः प्रावरणवर्जः, आह च चूर्विणकृत् -"पत्तेयबुद्धाणं जहन्त्रेणं दुविहो उकोसेण नवविहो नियमा पाउरणवज्जो भवद ।” तथा स्वयम्बुद्धानां पूर्वाधीतं श्रुतं भवति वा न वा, यदि भवति ततो लिङ्गं देवता वा प्रयच्छति गुरुसन्निधौ वा गत्वा प्रतिपद्यते, यदि चैकाकी विहरणसमर्थ इच्छा च तस्य तथारूपा जायते तत एकाकी विहरत्यन्यथा गच्छवासेऽवतिष्ठते, अब पूर्वाधीतं श्रुतं न भवति तर्हि नियमाद्गुरुसंनिधौ गत्वा लिङ्गं प्रतिपद्यते, गच्छं चावश्यं न मुञ्चति, उक्तं च चूर्णिकृता - (ग्रन्थानं ४००० ) “वाधीनं से सुबं हवद या न वा, जइ से नत्थि तो लिंग नियमा गुरुसन्निहे पडिवज्जइ, गच्छे य विहरइत्ति, अहवा पुत्राधीतयसंभवो अत्थि तो से लिंगं देवया पयच्छइ गुरुसन्निधे वा पडिवज्जद, जइ य एगविहारविहरणजोगो इच्छा च से तो एको चैव बिहरइ, अन्नहा गच्छे विहरद"त्ति । प्रत्येकबुद्धानां तु पूर्वाधीतं श्रुतं नियमतो भवति, तब जघन्यत एकादशाङ्गानि १ प्रश्येकं नियमाद्विहारो यस्मात् तस्माच्च ते प्रत्येकबुद्धाः २ प्रत्येकान जपत्येन द्विविध उत्कृष्टेन नवविधः प्रावरणव नियमात् भवति । ३ संस्कृत में । For Paren ~264~ स्वयंप्रत्येकबुद्धाः Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [२१]/गाथा ||५८...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलयगिरीय प्रत है सुत्रांक [२१] दीप || उत्कर्षतः किश्चिन्यूनानि दश पूर्वाणि, तथा लिङ्गं तस्मै देवता प्रयच्छति, लिङ्गरहितो वा कदाचिद्भवति, तथा चाहाखीमुक्तिनाचूर्णिणकृत्-"पत्तेयबुद्धाणं पुवाधीतं सुयं नियमा भवइ, जहन्नेणं एकारस अंगा, उकोसेणं भिन्नदसपुवी. लिंगं च से। सिद्धिः देवया पयच्छद लिंगवजिओ वा भवति, जतो भणिय-'रूप्पं पत्तेयबुद्धा' इति" तथा बुद्धाः-आचार्यास्ताधिताः ॥१३शा सन्तो ये सिद्धाः ते बुद्धबोधितसिद्धा, एते च सर्वेऽपि केचित् स्त्रीलिङ्गसिद्धाः, खिया लिङ्गं स्त्रीलिङ्ग, स्त्रीत्वस्योपलक्षणमित्यर्थः, तच त्रिधा, तद्यथा-वेदः शरीरनिवृत्तिर्नेपथ्यं च, तत्रेह शरीरनिवृत्त्या प्रयोजनं, न वेदनेपथ्याभ्यां, वेदे सति सिद्धत्वाभात्, नेपथ्यस्य चाप्रमाणत्वात् , आह च चूर्णिणकृत्-"इथिए लिंग इथिलिंग, इथिए उपलकखणंति से बुत्तं भवति, तं च तिविहं-वेयो सरीरनिवत्ती नेवत्थं च, इह सरीरनिवत्तीए अहिगारो, न वेयनेवत्थेहि"ति । तस्मिन् स्त्रीलिङ्गे वर्तमानास्सन्तो ये सिद्धाः ते स्त्रीलिङ्गसिद्धाः, एतेन यदादुराशाम्बराः-न स्त्रीणां निर्वाणमिति, तदपातं द्रष्टव्यम् , स्त्रीनिर्वाणस्य साक्षादनेन सूत्रेणाभिधानात् , तत्प्रतिषेधस्य च युक्त्यनुपपन्नत्वात् , तथाहि-मुक्तिपथो ज्ञानदर्शनचारित्राणि, "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः” (तत्त्वा० अ०१ सू०१) इति वचनात् , सम्यग्दर्शनादीनि च पुरुषाणामिव स्त्रीणामपि अविकलानि, तथाहि-दृश्यन्ते स्त्रियोऽपि सकलमपि प्रवचनार्थमभिरोचयमानाः जानते च पडावश्यककालिकोत्कालिकादिभेदभिन्नं श्रुतं परिपालयन्ति च सप्तदशविधमकलई संयम धारयन्ति च देवासुराणामपि दुद्धरं ब्रह्मचर्य तप्यन्ते च तपांसि मासक्षपणादीनि, ततः कथमिव तासां न मोक्ष- २५ CCORRUKUC4380 अनुक्रम ८७ REnabana wasurary.om ~265~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [२१]/गाथा ||५८...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१] t दीप सम्भयः १, स्थादेतद्-अति स्त्रीणां सम्यग्दर्शनं ज्ञानं च न पुनश्चारित्रं, संयमाभावात्, तथाहि-त्रीणामवश्यं | खिमुक्ति ववपरिभोगेन भवितव्यम् , अन्यथा विवृताङ्गयस्ताः तिर्यत्रिय इव पुरुषाणामभिभवनीया भवेयुः, लोके च गोप सिद्धिः जायते. ततोऽवश्यं ताभिर्वखं परिभोक्तव्यं, वखपरिभोगे च सपरिग्रहता, सपरिग्रहत्वे च संयमाभाव इति, तदसमीचीनं, सम्यक् सिद्धान्तापरिज्ञानात्, परिग्रहो हि परमार्थतो मूछोऽभिधीयते, 'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो' इति वचनप्रामाण्यात् , तथाहि-मू रहितो भरतचक्रवर्ती सान्तःपुरोऽप्यादर्शकगृहेऽवतिष्ठमानो निष्परिग्रहो गीयते, अन्यथा केवलोत्पादासम्भवात् , अपिच-यदि मूच्छीया अभावेऽपि वस्त्रसंसर्गमात्रं परिग्रहो भवेत् ततो जिनकल्पं प्रति-| पन्नस्य कस्यचित् साधोस्तुषारकणानुषक्ते प्रपतति शीते केनाप्यविषयोपनिपातमद्य शीतमिति विभाव्य धार्थिना शिरसि बने परिक्षिप्ते तस्य सपरिग्रहता भवेत् , न चैतदिष्टं, तस्मान्न संसर्गमात्रं परिग्रहः, किन्तु मूर्छा, सा च स्त्रीणां वस्खादिषु न विद्यते, धर्मोपकरणमात्रतया तस्योपादानात्, न खलु ता वस्त्रमन्तरेणात्मानं रक्षितुमीशते, नापि शीतकालादिष्वर्वागदशायां स्वाध्यायादिकं का, ततो दीर्घतरसंयमपरिपालनाय यतनया वस्त्रं परिभुञ्जाना न ताः परि-18 ग्रहवत्यः, अधोच्येत-सम्भवति नाम स्त्रीणामपि सम्यग्दर्शनादिकं रत्नत्रयं, परं न तत् सम्भवमात्रेण मुक्तिपदप्रापर्क भवति, किन्तु प्रकर्षप्राप्तं, अन्यथा दीक्षानन्तरमेव सर्वेषामप्यविशेषेण मुक्तिपदप्राप्तिप्रसक्तेः, सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयप्रकर्षश्च स्त्रीणामसम्भवी, ततो न निर्वाणमिति, तदध्ययुक्तम् , स्त्रीपु रत्नत्रयप्रकर्षासम्भवग्राहकस्य प्रमाणस्वाभावात्, १३ -2-5 अनुक्रम ८७ RANA REAmarana FarPranaswamincom Memorayog ~266~ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं २१]/गाथा ||५८...|| ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [२१] दीप श्रीमलय- न खलु सकलदेशकालव्याप्त्या स्त्रीपु रत्नत्रयप्रकर्षासम्भवग्राहकं प्रत्यक्षमनुमानं वा प्रमाणं बिजुम्भते, देशकालविप्र- विमुक्तिगिरीया कृष्टतया तत्र प्रत्यक्षस्याप्रवृत्तेः, तदप्रवृत्ती चानुमानस्याप्यसम्भवात् , नापि तासु रत्नत्रयप्रकासम्भवप्रतिपादकः सिद्धिा नन्दीवृत्तिः कोऽप्यागमो विद्यते, प्रत्युत सम्भवप्रतिपादकः स्थाने स्थानेऽस्ति, यथा इदमेव प्रस्तुतं सूत्रं, ततो न तासां रत्नत्रय-5 ॥१३२॥ ट्रीप्रकर्षासम्भवः, अथ मन्येथाः-खभावत एवातपेनेव छाया विरुध्यते स्त्रीत्वेन रत्नत्रयाकर्षः ततस्तदसम्भवोऽनुमी-14 यते, तदयुक्तं, युक्तिविरोधात् , तथाहि-रत्नत्रयप्रकर्षः स उच्यते यतोऽनन्तरं मुक्तिपदप्राप्तिः, स चायोग्यवस्थाचरम-18 समये, अयोग्यावस्था चास्मादृशामप्रत्यक्षा, ततः कथं विरोधगतिः, न हि अष्टेन सह विरोधः प्रतिपतुं शक्यते, मा प्रापत् पुरुषेष्वतिप्रसङ्गः, ननु जगति सर्वोत्कृष्टपदप्राप्तिः सर्वोत्कृष्टेनाध्यवसायेनावाप्यते, नान्यथा, एतयोभयोरप्यावयोरागमप्रामाण्यवलतः सिद्धं, सर्वोत्कष्टे च द्वे पदे-सर्वोत्कृष्टं दुःखस्थानं सर्वोत्कृष्टं सुखस्थानं च, तत्र सर्वोत्कृष्टदुःखस्थानं ससमनरकपृथिवी, अतः परं परमदुःखस्थानस्याभावात् , सर्वोत्कृष्ट सुखस्थानं तु निःश्रेयस, ततः परमन्यस्य | सुखस्थानस्यासम्भवात् , ततः खीणां सप्तमनरकपृथिवीगमनमागमे निषिद्धं, निषेधस्य च कारणं तद्गमनयोग्यतथाविधसर्वोत्कृष्टमनोवीर्यपरिणत्यभावः, ततः सप्तमपृथिवीगमननिषेधादवसीयते-नास्ति स्त्रीणां निर्वाणं, निर्वागहेतोः 18॥१३२॥ तधारूपसर्वोत्कृष्टमनोवीर्यपरिणामस्थासम्भवात् , तथा चात्र प्रयोगः-असम्भवनिर्वाणाः स्त्रियः, सप्तमपृथिवीगमनत्वाभावात् , सम्मूछिमादिवत् , तदेतदयुक्तं, यतो यदि नाम स्त्रीणां सप्तमनरकपृथिवीगमनं प्रति सर्वोत्कृष्टमनोवीये अनुक्रम ८७ २५ SARERainintenmarana ~267~ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [२१]/गाथा ||५८...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [२१] दीप अनुक्रम परिणत्यभावः तत एतावता कथमवसीयते ? निःश्रेयसमपि प्रति तासां सर्वोत्कृष्टमनोवीर्यपरिणत्यभायो, न हि यो भूमि- सिमलि कर्षणादिकं कर्म कत्तुं न शक्नोति स शाखाण्यप्यवगाडुं न शक्नोतीति प्रत्येतुं शक्यं, प्रत्यक्षविरोधात्, अथ सम्मूलिमा- सिद्धिः दिपूभयमपि प्रति सर्वोत्कृष्टमनोवीर्यपरिणत्यभावो दृष्टः ततोऽत्राप्यवसीयते, ननु यदि तत्र दृष्टस्तर्हि कथमत्रावसीयते?.न खलु बहियाप्तिमात्रेण हेतुर्गमको भवति, किन्त्वन्तात्या, अन्तर्व्याप्तिश्च प्रतिवन्धवलेन सिध्यति, न चात्र प्रतिबंधो विद्यते, न खलु सप्तमपृथिवीगमनं निर्वाणगमनस्य कारणं, नाप्येवमेवाविनाभावप्रतिवन्धतः सप्तमपृथिवीगमनाविना-1 भावि निर्वाणगमनं, चरमशरीरिणां सप्तमपृथिवीगमनमन्तरेणैव निर्वाणगमनभावात् , न च प्रतिवन्धमन्तरेण एक|स्वाभावेऽन्यस्साभावो, मा प्रापद्यस्य तस्य वा कस्यचिदेकसाभावे सर्वस्वाभावप्रसङ्गः, ययेवं तहि कर्य सम्मूछिमादिपुर निर्वाणगमनाभाव इति ?, उच्यते, तथाभवस्खाभाव्यात् , तथाहि-ते सम्मूछिमादयो भवखभावत एव न सम्यगदर्शनादिकं यथावत् प्रतिपत्तुं शक्नुवन्ति, ततो न तेषां निर्वाणसम्भवः, स्त्रियस्तु प्रागुक्तप्रकारेण यथावत्सम्यम्दर्शनादिरनत्रयसम्पद्योग्याः, ततस्तासां न निर्वाणाभावः । अपिच-भुजपरिसप्पा द्वितीयामेव पृथिवीं यावद्गच्छन्ति, न परतः, परपृथिवीगमनहेतुतथारूपमनोवीर्यपरिणत्यभावात् , तृतीयां यावत् पक्षिणः, चतुर्थी चतुष्पदाः, पञ्चमीमुरगाः, अथ च सर्वऽप्यूद्धेमुत्कर्षतः सहसारं यावदच्छन्ति, तनाधोगतिविषये मनोवीर्यपरिणतिवैषम्पदर्शनाद. गतावपि तद्वैषम्य, तथा च सति सिद्धं स्त्रीपुंसामधोगतिवायेऽपि निर्वाणं सममिति कृतं प्रसङ्गेन, तथा पुँलि-१३ ८७ ~268~ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [२१]/गाथा ||५८...|| ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [२१] दीप गिरीया शरीरनिवृत्तिरूपे व्यवस्थिताः सन्तो ये सिद्धास्ते पुंलिङ्गसिद्धाः, एवं नपुंसकलिङ्गसिद्धाः, तथा खलिङ्गे-रजोहरणा-18 तथा सालारजाहरणाना सिद्धाः के नन्दीतिःदिरूपे व्यवस्थिताः सन्तो ये सिद्धास्ते खलिङ्गसिद्धाः, तथा अन्यलिङ्गे-परिव्राजकादिसम्बन्धिनि वल्कलकषायादि-विलखरूपं वस्त्रादिरूपे द्रव्यलिङ्गे व्यवस्थिताः सन्तो ये सिद्धास्तेऽन्यलिसिद्धाः, गृहिलिङ्गे सिद्धा गृहिलिङ्गसिद्धा मरुदेवीप्र- च स. २२ ॥१३३॥ भृतयः, तथा 'एकसिद्धा' इति एकस्मिन् २ समये एककाः सन्तो ये सिद्धास्ते एकसिद्धाः, 'अणेगसिद्धा' इति एकस्मिन् गा. समये अनेके सिद्धाः अनेकसिद्धाः, अनेके चैकस्मिन् समये सिध्यन्त उत्कर्षतोऽष्टोत्तरशतसङ्ख्या वेदितव्याः । आहननु तीर्थसिद्धातीर्थसिद्धरूपभेदद्वये एव शेषभेदा अन्तर्भवन्ति तत्किमर्थं शेषभेदोपादानमुच्यते?, सत्यम् अन्तर्भवन्ति परं न तीर्थसिद्धातीर्थसिद्धभेदद्वयोपादानमात्रात् शेषभेदपरिज्ञानं भवति, विशेषपरिज्ञानार्थ चैष शास्त्रारम्भप्रयास इति शेषभेदोपादानं॥ से किं तं परम्परसिद्धकेवलनाणं ?, परंपरसिद्धकेवलनाणं अणेगविहं पण्णत्तं, तंजहा-अपढमसमयसिद्धा दुसमयसिद्धा तिसमयसिद्धा चउसमयसिद्धा जाव इससमयसिद्धा संखिज- ॥१३३॥ समयसिद्धा असंखिजसमयसिद्धा अणंतसमयसिद्धा, से तं परंपरसिद्धकेवलनाणं, से तं सिद्ध २५ केवलनाणं ॥ तं समासओ चउव्विहं पण्णत्तं, तंजहा-दबओ खित्तओ कालओ भावओ, ऊड अनुक्रम ८७ सिद्धकेवलज्ञानस्य द्रव्य आदि चत्वारः भेदा; ~ 269~ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२२]/गाथा ||५९|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: S प्रत सूत्रांक [२२] OCCASSAS * दीप तत्थ दवओ णं केवलनाणी सव्वदव्वाइं जाणइ पासइ, खित्तओ णं केवलनाणी सव्वं केबलस्वरूप खितं जाणइ पासइ, कालओ णं केवलनाणी सव्वं कालं जाणइ पासइ, भावओ णं केवल गा. ५८ नाणी सव्वे भावे जाणइ पासइ । अह सव्वदव्वपरिणामभावविपणत्तिकारणमणंतं । सासयमप्पडिवाई एगविहं केवलं नाणं ॥ ५८॥ (सू० २२) 'से किं तं परम्परसिद्धकेवलनाण'मित्यादि, न प्रथमसमयसिद्धा अप्रथमसमयसिद्धाः, परम्परसिद्धविशेषणं, अप्र- ५ थमसमयवर्तिनः सिद्धत्वसमयाहितीयसमयवर्त्तिन इत्यर्थः, व्यादिषु तु द्वितीयसमयसिद्धादय उच्यन्ते, यद्वा सामा न्यतः अप्रथमसमयसिद्धा इत्युक्तं, तत एतदेव विशेषेण व्याचष्टे-द्विसमयसिद्धाः त्रिसमयसिद्धा इत्यादि । 'सेत्त'मिइत्यादि निगमनं, 'तं समासतो' इत्यादि, तदिदं सामान्येन केवलज्ञानमभिगृह्यते, 'समासतः संक्षेपेण चतुर्विधं प्रजप्त, तद्यथा-द्रव्यतःक्षेत्रतः कालतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे केवलज्ञानी सर्वद्रव्याणि-धर्मास्ति-13 | कायादीनि साक्षाजानाति पश्यति, क्षेत्रतः केवलज्ञानी सर्व क्षेत्रं-लोकालोकभेदभिन्नं जानाति पश्यति, इह यद्यपि सर्वद्रव्यग्रहणेनाकाशास्तिकायोऽपि गृह्यते तथापि तस्य क्षेत्रत्वेन रूढत्वात् भेदेनोपन्यासः, कालतः केवलज्ञानी सर्व कालम्-अतीतानागतवर्तमानभेदभिन्नं जानाति पश्यति, भावतः केवलज्ञानी सर्वान् जीवाजीवगतान् भावान्-1213 गतिकषायागुरुलघुप्रभृतीन जानाति पश्यति ॥ इह केवलज्ञानकेवलदर्शनोपयोगचिन्तायां क्रमोपयोगादिविषया सूरीणा-14 अनक्रम [९०] | अत्र मूल संपादने स्खलनत्वात् ||१८|| इति मुद्रितं, अत्र गाथा क्रमांक ||१९|| एव वर्तते ~270~ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२२]/गाथा ||५९|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत श्रीमलय- गिरीया नन्दीत्तिः ॥१३॥ सुत्राक [२] COP दीप मनेकधा विप्रतिपत्तिः, सा च चूर्णिणकृता मूलटीकाकृता च दर्शिता ततो वयमपि संक्षेपतो विनेयजनानुग्रहाय तायुगपदुपयोप्रदर्शयामः-'केई भणति जुगवं जाणइ पासइ य केवली नियमा । अन्ने एगंतरिय इच्छंति सुओवएसेणं ॥१॥181 अन्ने न चेव वीसु देसणमिच्छति जिणवरिंदस्स । जंचिय केवलनाणं तं चिय से दंसणं विति ॥ २॥ व्याख्या'केचन' सिद्धसेनाचार्यादयो 'भणंति' बुयते, किमित्याह-'युगपद्' एकस्मिन् काले 'केवली' केवलज्ञानवान् न त्वन्यश्छमस्थो जानाति पश्यति च 'नियमात्' नियमेन, अन्ये पुनराचार्या जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रभृतयः 'इच्छंति' मन्यन्ते, किमिति?, आह-एकान्तरितं केवली जानाति पश्यति चेति, एकस्मिन् समये जानाति एकस्मिन्समये पश्यतीत्यर्थः । कथमेतदिच्छन्तीति ?, अत आह-श्रुतोपदेशेन, आगमानुसारेणेत्यर्थः । 'अन्ने' इत्यादि, अन्ये केचि- २० दृद्धाचार्या न चैव ज्ञानाद्दर्शनं विष्वक्-पृथगिच्छन्ति जिनवरेन्द्रस्य, जिनाः-उपशान्तरागादिदोषसमूहाः तेषां वराःप्रधाना निर्मूलत एव क्षीणसकलरामादिदोषोद्भबनिबन्धनमोहनीयकर्माणः, क्षीणमोहा इत्यर्थः, तेपामिन्द्रो-भगवान् उत्पन्न केवलज्ञानः तस्य,न त्वन्यस्य, किन्तु यदेव केवलज्ञानं तदेव 'से' तस्य केवलिनो दर्शनं त्रुवते, क्षीणसकलावरणस्य देशज्ञानाभवात् केवलदर्शनस्याप्यभावात् , तस्यापि वस्त्वेकदेशभूतसामान्यमात्रमाहितया देशज्ञानकल्पत्वादिति भा-11 वना । तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायात् प्रथम युगपदुपयोगवादिमतं प्रदर्श्यते-ज केवलाई साई अपज्जयसियाई दोवि भणियाई । तो विति केइ जुगवं जाणइ पासइ य सवन्नू ॥३॥' व्याख्या-'यत्' यस्मात कारणात् द्वे अपि । अनक्रम [९० ~ 271~ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२२]/गाथा ||५९|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२] दीप केवलज्ञानकेवलदर्शने समये-सिद्धान्ते साद्यपर्यवसिते भणिते, ततोब्रुवते केचन सिद्धसेनाचार्यादयः,किमित्याह-'युग- युगपदुपयोपद्' एकस्मिन् समये काले जानाति पश्यति च सर्वज्ञ इति । विपक्षे वाधामाह-"इहराऽऽईनिहणतं मिच्छाऽऽवर- निरास: णक्खओत्ति व जिणस्स । इयरेयरावरणया अहवा निकारणावरणं ॥४॥" 'इतरथा' युगपत्केवलज्ञानदर्शनभावानभ्युपगमे 'आदिनिधनत्वं' सादिसपर्यवसितत्वं केवलज्ञान केवलदर्शनयोः प्राप्नोति, तथाहि-उत्पत्तिसमयभाविकेवलज्ञानोपयोगानन्तरमेव केवलदर्शनोपयोगसमये केवलज्ञानाभावः पुनस्तदनन्तरं केवलज्ञानोपयोगसमये| केवलदर्शनाभाव इति द्वे अपि केवलज्ञानकेवलदर्शने सादिसपर्यवसिते, तथा मिथ्या-अलीकः आवरणक्षयः केवलज्ञानावरणकेवलदर्शनावरणक्षयो जिनस्य प्राप्नोति १, न ह्यपनीतावरणौ द्वौ प्रदीपी क्रमेण प्रकाश्यं प्रकाशयतः, दातद्वत् इहापि केवलज्ञानदर्शने युगपन्निर्मूलतोऽपनीतखखावरणे ततः कथं ते क्रमेण खप्रकाश्यं प्रकाशयतः ?, क्रमेणेति चेदभ्युपगमः तर्हि मिथ्या तदावरणक्षय इति २, तथा इतरेतरावरणता प्राप्नोति, तथाहि-यदि खावरणे निःशेषतः क्षीणेऽपि अन्यतरभावेऽन्यतरभावो नेष्यते तर्हि ते एव परस्परमावरणे जाते, तथा च सति सिद्धान्तपक्षक्षितिरिति । अथवा निष्कारणावरणं, यदि हि साकल्येन स्वावरणापगमेऽप्यन्यतरोपयोगकालेऽन्यतरस्य भावो नष्यते तर्हि तस्यान्यतरस्यावरणमकारणमेव जातं, कारणव कर्मलक्षणस्य प्रागेव सर्वथापगमात् , तथा च सति सदेवर। भावाभावप्रसङ्गः, तथा चोक्तं-"निसं सत्तमसत्यं वाऽहेतोरन्यानपेक्षणादिति" ५। 'तह य असवनुत्तं असंबद रिसत्त-12 अनक्रम [९०] का१० ~272~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [२२] दीप अनुक्रम [0] श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ॥१३५॥ “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [२२] / गाथा ||१९||... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः णप्पसंगो य। एगंतशेवयोगे जिणस्स दोसा बहुविहा य ॥ ५ ॥ तथा चेति समुच्चये, यदि क्रमेणोपयोग इष्यते तर्हि भगवतोऽसर्वज्ञत्यमसर्वदर्शित्वप्रसङ्गश्च प्राप्नोति, तथाहि यदि क्रमेण केवलज्ञानकेवलदर्शनोपयोगाभ्युपगमस्तर्हि न कदाचिदपि भगवान् सामान्यविशेषावेककालं जानाति पश्यति वा, ततोऽसर्वज्ञत्यास वैदर्शित्वप्रसङ्गः, पाक्षिकं वा सर्वज्ञत्वं सर्वदर्शित्वं च प्रसज्यते, तथाहि यदा सर्वज्ञो न तदा सर्वदर्शी, दर्शनोपयोगाभावात् यदा तु सर्वदर्शी न तदा सर्वज्ञो, ज्ञानोपयोगाभावादिति ५ । एवमेकान्तरोपयोगेऽभ्युपगम्यमाने सति जिनस्य दोपा बहुविधाः प्राप्नुवन्ति । एवं परेणोक्ते सति आगमवादी जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण आह-' भण्णइ भिन्नमुहुत्तोवओगकालेऽवि तो तिनाणस्स । मिच्छा छावडी सागरोपमाई खओवसमे ॥ ६ ॥' यदुक्तम् इतरथा आदिनिधनत्वं प्राप्नोति, तदसमीचीनं, उपयोगमनपेक्ष्य लब्धिमात्रापेक्षया केवलज्ञान केवलदर्शनयोः साद्यपर्यवसितत्वस्याभिधानात् मत्यादिषु षट्षष्टिसागरोपमाणामिव यदप्युक्तं- 'मिथ्यावरणक्षय' इति तत्रापि भण्यते, यदि साद्यपर्यवसितं कालमुपयोगाभावत आवरणक्षयस्य मिध्यात्वमापद्यते 'तो' त्ति ततः 'त्रिज्ञानिनो' मतिश्रुतावधिज्ञानवतो भिन्नमुहूर्त्तलक्षणोपयोगकालेऽपि यो नाम मत्यादीनां षट्षष्टिसागरोपमाणि यावत् क्षयोपशमः सूत्रेऽभिहितः स मिथ्या प्राप्नोति, तावन्तं कालं मत्यादीनामुपयोगासम्भवात् युगपद्भावासम्भवाच्च, यापि इतरेतरावरणता पूर्वमासञ्जिता साऽप्यसमीचीना, यतो जीव स्वाभाव्यादेव मत्यादीनामिव केवलज्ञानकेवलदर्शनयोर्युगपदुपयोगासम्भवः, ततः सा कथमुपपद्यते ?, मा For Parts Only ~ 273~ युगपदुपयोगनिरासः २० | ॥१३५॥ २५ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [२२] दीप अनुक्रम [0] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [२२] / गाथा ||१९||... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४४], चूलिका सूत्र [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः प्रापदन्यथा मत्यादीनामपि परस्परमावरणत्वप्रसङ्गः, योऽपि निष्कारणावरणदोष उद्भावितः सोऽपि जीवस्वाभाव्यादेव तथोपयोगप्रवृत्तेरपास्तो द्रष्टव्यः, अन्यथा मत्यादीनामपि प्रसज्येत तेषामप्युत्कर्षतः पट्षष्टिसागरोपमाणि या वत् क्षयोपशमस्याभिधानात् तावत्कालं चोपयोगाभावादिति । वादिमतमाशय दूषयति- 'अह नवि एवं तो सुण जहेब स्त्रीणंतरायओ अरिहा । संतेऽवि अंतरायकखयम्मि पंचप्पयारंमि ॥ ७ ॥ सययं न देह लहह व भुंजइ उपभुंजई व सबण्णू । कज्जुंमि देह लहइ व भुंजइ व तहेव इहईपि ॥८॥' 'अपिः अवधारणे, अथ न एवम् उक्तेन प्रकारेण मन्यसे क्षायोपशमिकक्षायिकयोर्दृष्टान्तदान्तिक भावासम्भवात् असम्भवश्च परस्परवैलक्षण्यात्, ततः शृणु यथा क्षयकार्यमपि ज्ञानं दर्शनं चावश्यमनवरतं न प्रवर्त्तते इति, यथैव खलु क्षीणान्तरायकोऽर्हन् सत्यप्यन्तरायक्षये पञ्चप्रकारे, इहान्तरायकर्मणो दानान्तरायादिभेदेन पञ्चप्रकारत्वात् तत्क्षयोऽपि पञ्चप्रकारः उक्तः सततं न ददाति लभते वा भुङ्क्ते उपभुङ्क्ते वा सर्वज्ञः, किन्तु कार्ये समुत्पन्ने सति ददाति लभते वा भुङ्क्ते वा उपलक्षणमेतत् उपभुङ्क्ते वा, तथैव 'इहापि केवलज्ञानदर्शनविषये सत्यपि तदावरणक्षये न युगपत्तदुपयोगसम्भवः, तथाजीवस्वाभाव्यादिति । स्यादेतद्, यदि पञ्चविधान्तरायक्षये सत्यपि भगवान् न सततं दानादिक्रियासु प्रवर्त्तते ततः किं तत्क्षयस्य फलमित्यत आह- 'दिंतस्स लभंतस्स व भुंजंतस्स व जिणस्स एस गुणो । खीणंतराययत्ते जं से विग्धं न संभवइ ॥ ९ ॥' जिनस्य क्षीणसकलघातिकर्मणः क्षीणान्तरायत्वे सत्येष गुणो जायते, यदुत 'से' तस्य जिनस्य ददतो लभमानस्य वा For PanalPrata Use Only ~ 274~ युगपदुपयो गनिरासः १० १३ orary.org Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [२२] दीप अनुक्रम [९०] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [२२] / गाथा ||१९||... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४४], चूलिका सूत्र [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः श्रीमलय- भुञ्जानस्य वकारस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वादुपभुञ्जानस्य च यद्विघ्नो न भवति, प्राकृतत्वाय विनशब्दस्य नपुंसक निर्देशः । गिरीया अमुमेव गुणं प्रकृतेऽपि योजयन्नाह - 'उवउत्तस्सेमेव य नाणंमि व दंसणंमि व जिणस्स । खीणावरणगुणोऽयं जं नन्दीवृत्तिः ॐ कसिणं सुणइ पासह वा ॥ १० ॥' 'एवमेव' दानादिक्रियासु प्रवृत्तस्येव ज्ञाने दर्शने चोपयुक्तस्य जिनस्य केवलि॥१३६॥ * नोऽयं क्षीणावरणत्वे सति गुणो यत् कृत्खं लोकालोकात्मकं जगज्जानाति पश्यति वा, न तु जानतः पश्यतो वा विघ्नः सम्भवतीति । वाद्याह- 'पासंतोऽवि न जाणइ जाणं व न पासई जइ जिनिँदो । एवं न कयाऽयेसो सङ्घण्णू सबदरिसी य ॥ ११ ॥ यदि पश्यन्नपि भगवान् न जानाति, दर्शनकाले ज्ञानोपयोगानभ्युपगमात् जानन् वा यदि न पश्यति, ज्ञानोपयोगकाले दर्शनोपयोगानभ्युपगमात्, तत एवं सति न कदाचिदप्यसौ सर्वज्ञः सर्वदर्शी च प्राप्नोतीति । सिद्धान्तवाद्याह- 'जुगवमयाणं तोऽवि हु चउहिवि नाणेहि जह व चउनाणी । भन्नइ तत्र अरिहा सवण्णू सङ्घदरिसी य ॥ १२ ॥ यथा मत्यादिभिः मनःपर्यायान्तैश्चतुर्भिर्ज्ञानैर्युगपदजानन्नपि जीवस्वाभाव्यादेव युगपदुपयो ४ गाभावात् लब्ध्यपेक्षया चतुर्ज्ञानी भण्यते तथैवार्द्दन्नपि भगवान् युगपत्केवलज्ञानदर्शनोपयोगाभावेऽपि निःशेषतदावरणक्षयात् शक्त्यपेक्षया सर्वज्ञः सर्वदर्शी चोच्यते इत्यदोषः । पुनरप्यत्र वायाह--'तुले उभयावरणस्वयंमि पुत्रं समुभवो कस्स । दुविहुवयोगाभावे जिणस्स जुगवंति चोएइ ॥ १३ ॥' 'तुल्ये' समाने, एककालमित्यर्थः, 'उभयावरणक्षये' केवलज्ञान केवलदर्शनावरणक्षये 'पूर्व' प्रथमं 'समुद्भवः' उत्पादः कस्य भवेत् ? - किं ज्ञानस्य ? उत दर्शनस्य ?, यदि ज्ञानस्य Education International For Panalyse On ~275~ युगपदुपयो गनिरासः २० ॥ १३६ ॥ २५ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ..................... मूल [२२]/गाथा ||५९||........... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पुगपदुपयो प्रत सूत्रांक [२] दीप Wस किंनिबन्धन इति वाच्यं, तदावरणक्षयनिवन्धन इति चेत् , ननु स दर्शनेऽपि तुल्य इति तस्याप्युद्भवप्रसङ्गः, एवं दर्शनपक्षेऽपि वाच्यं, अतः प्रथमसमये स्वावरणक्षयेऽपि अन्यतरस्याभावेऽप्यन्तरस्याप्यभाव एव विपर्ययो वा प्रामोतीति युगपद्विविधोपयोगाभावाभ्युपगमे जिनस्य वादी चोदयतीति । अत्र सिद्धान्तवाद्याह-'भन्नइ न एस नियमो जुगवुप्पनेण जुगवमेवेह । होयवं उपयोगेण एत्य सुण ताव दिटुंतं ॥१४॥' 'भण्यते' अत्रोत्तरं दीयते, न एष नियमो यदुत शक्त्यपेक्षया युगपदुत्पन्नेनापि बानेन युगपदेवेह उपयोगेन-उपयोगरूपतयाऽपि भवितव्यमिति । कुत इति चेत्, तथादर्शनात् , आह च-'एत्थ सुण ताव दिलुतं' 'अत्र' अस्मिन् विचारप्रक्रमे शृणु तावत् दृष्टान्तं । तमेव दर्शयति-'जह जुगवुष्पत्तीएऽवि सुत्ते सम्मत्तमहसुयाईणं । नथि जुगबोवओगो सबेसु तहेव केवलिणो ॥ १५॥ यथा सम्यक्त्वमतिश्रुतादीनाम् , आदिशब्दादवधिज्ञानपरिग्रहः, युगपदुत्पत्तावपि 'सूत्रे' आगमेऽभिहि|तायां न सर्वेष्वेव मत्यादिषु युगपदुपयोगो भवति, "जुगवं दो नस्थि उवओगा" इति वचनप्रामाण्यात् , तथैव केवलिनोऽपि शक्त्यपेक्षया युगपत्केवलज्ञानकेवलदर्शनोत्पत्तौ अपि न द्वयोरपि युगपदुपयोगो भवति । अमुमेवा) सूत्रेण संवादयनाह-भणिय चिय पण्णत्तीपण्णवणाईसु जह जिणो समय । जं जाणइ नवि पासह तं अणुरयणप्पभा ईणं ॥ १६ ॥' भणितं चैतदनन्तरोदितं प्रज्ञप्तौ प्रज्ञापनादिपु-यथा यं समयं केवली जानाति अण्वादिकं रखममाकादिकं च न तमेव समयं पश्यतीति, 'अणुरयणप्पभाईणं' इत्यत्र प्राकृतत्वाद्वितीयार्थे पष्ठी, ततः क्रमेणेय केवलज्ञा अनक्रम [९०] ॐ D resunauranorm ~ 276~ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ...................... मूल [२२]/गाथा ||५९||.......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: बानदशे नाभेदनि प्रत रास: सुत्राक [२२] दीप भीमलय- नकेवलदर्शनयोरुपयोगो न युगपदिति स्थितं । साम्प्रतं ये केवलज्ञानकेवलदर्शनाभेदवादिनस्तन्मतमुपन्यस्यन्नाह- गिरीया नन्दीवृत्तिः 'जह किर खीणावरणे देसन्नाणाण सम्भवो न जिणे । उभयावरणातीते तह केवलदसणस्सावि ॥१७॥' यथा 'किले -1 त्याप्सोक्ती क्षीणावरणे भगवति जिने 'देशज्ञानानां' मत्यादीनां न सम्भवः तथा 'उभयावरणातीते केवलज्ञानकेव॥१३७॥ 18/लदर्शनावरणातीते भगवति केवलदर्शनस्यापि न सम्भवः । कथमिति चेदुच्यते-इह तावद् युगपदुपयोगद्वयं न जा यते, सूत्रे तत्र तत्र प्रदेशे निषेधात् , न चैतदपि समीचीनं यत्तदावरणं क्षीणं तथापि तन्न प्रादुर्भवति, ऊर्द्धमपि तदभावप्रसङ्गात् , ततः केवलदर्शनावरणक्षयादुपजायमानं केवलदर्शनं सामान्यमात्रग्राहक केवलज्ञान एव सर्वात्मना सर्ववस्तुग्राहकेऽन्तर्भवतीति तदेवैकं केवलज्ञानं चकास्ति, न ततः पृथग्भूतं केवलदर्शन मिति । अत्र सिद्धान्तवादी ६ केवलदर्शनस्य खरूपतः पार्थक्यं सिसाधयिषुरिदमाह-'देसन्नाणोवरमे जह केवलणाणसंभवो भणिओ । देसईसण विगमे तह केवलदंसणं होऊ ॥ १८॥ यथा भगवति मत्यादिदेशज्ञानोपरमे केवलज्ञानसम्भवः स्वरूपेण भणितस्त्वया तथा चक्षुर्दर्शनादिदेशदर्शनविगमे सति केवलदर्शनमपि ततः पृथक् खरूपतो भवतु, न्यायस्य समानत्वात् , अन्यथा पृथक तदावरणकल्पनानरर्थक्यापत्तेः । अह देसनाणदसणविगमे तव केवलं मयं नाणं । न मयं केवलदसणमिच्छा|मित्तं नणु तवेदं ॥ १९ ॥' अथ देशज्ञानदर्शनविगमे तब केवलज्ञानमेवैकं मतं, न मतं केवलदर्शनमिति, अत्राह-ननु !तवेदमिच्छामात्रम्-अभिप्रायमात्रं, न त्वत्र काचनापि युक्तिः, न चेच्छामात्रतो वस्तुसिद्धिः, सर्वस्य सर्वेष्वर्थेषु अनक्रम [९०] ॥१३७॥ Anjanasurary.orm ~ 277~ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [२२]/गाथा ||१९||......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२] * सिद्धिप्रसक्तः, यदप्युक्तं 'न चैतदपि समीचीनमित्यादि' तदपि न समीचीनं, क्षयोपशमाविशेषेऽपि मत्यादीनामिव श जीवस्वाभाव्यादेव केवलज्ञानावरणकेवलदर्शनावरणक्षयेऽपि सततं तयोरप्रादुर्भावाविरोधात्, अथोच्येत "दवतोणं नाभेदनिकेवलनाणी सचदवाई जाणइ पासइ" इत्यादि सूत्र केवलज्ञानकेवलदर्शनाभेदप्रतिपादनपरं, केवलज्ञानिन एव सतो रासः ज्ञानदर्शनयोरभेदेन विषयनिर्देशात् , सूत्रं च युष्माकमपि प्रमाणं, तत्कथमत्र विप्रतिपद्यते इति ?, तत्राह-'भन्नइ जहोहिनाणी जाणइ पासइ य भासियं सुत्ते । न य नाम ओहिदंसणनाणेगत्तं तह इहपि ॥ २० ॥' 'भण्यते' अत्रो- ५ उत्तरं दीयते-यथा अवधिज्ञानी जानाति पश्यति चेति सूत्रे भाषितं, तदुक्तं-"दचओणं ओहिनाणी उक्कोसेणं सच्चाई रूविदवाई जाणइ पासई" इत्यादि, न च तथा सूत्रे भणितमपि नामावधिज्ञानावधिदर्शनयोरेकत्वं, तथा इहापि| केवलज्ञानकेवलदर्शनयोरेकत्वं सूत्रवशादासज्यमानं न भविष्यति, सूत्रस्य सामान्यतः प्रवृत्तेः, अपि च-जानाति है। | पश्यति चेति द्वावपि शब्दावेकाचौं न भवतो, नापि तत्र सूत्रे एकार्थिकवक्तव्यताधिकारः, किन्तु सामान्यविशेषविपयाधिगमाभिधानपरौ । ततश्च-'जह पासइ तह पासउ पासइ जेणेह दंसणं तं से । जाणइ जेणं अरिहा तं से नाणंति घेत्तयं ॥२१॥' 'यथा' येन प्रकारेण ज्ञानादभेदेन भेदेन वा पश्यति तथा पश्यतु, एतावत्तु वयं ब्रूमो-येन सामान्यावगमाकारेणार्हन् पश्यति तदर्शनमिति ज्ञातव्यं, येन पुनर्विशेषावगमरूपेणाकारेण जानाति तत् 'से' तस्थाहतो ज्ञानमिति, न च युगपदुपयोगद्वयं, अनेकशः सूत्रे निषेधात् , ततः क्रमेण भगवतो ज्ञानं दर्शनं चेति । एतदेव सूत्रेण बा१३ दीप अनक्रम [९०] 05-06-964 * SARER a manand relunurary.org ~ 278~ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ........................ मूल [२२]/गाथा ||५९||........... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्राक [२] दीप श्रीमलय- दर्शयति-"नाणंमि दंसणंमि व एत्तो एगयरबंमि उवउत्ता । सवस्स केवलिस्सा जुगवं दो नत्थि उवओगा ॥२२॥" शानदर्शगिरीया ज्ञाने तथा दर्शने वाशब्दो विकल्पार्थः, अनयोरेककालम् एकतरस्मिन् कस्मिंश्चिदुपयुक्ताः केवलिनो, न तु द्वयोः, यतः| | नाभेदनिनन्दाचा सर्वस्य केवलिनो युगपत् द्वाबुपयोगी न स्त इति, तस्मादेतत्सूत्रबलादपि क्रमेण ज्ञानं दर्शनं च सिद्धं । अपि च॥१३८॥ 'उवओगो एगयरो पणवीसइमे सए सिणायस्स । भणिओ वियडत्थोचिय छट्टुडेसे विससेणं ॥ २३॥ भगवत्यां पञ्चविंशतितमे शते अध्ययनापरपर्याये षष्ठोद्देशके स्नातकस्य-केवलिनो 'विशेपेण विशेषतः एकतर उपयोगो भणितः, तत्कथमेवमागमार्थमुपलभ्यात्मानं विप्रलम्भेमहि । साम्प्रतं सिद्धान्तवाद्येव जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण आत्मनोऽनुद्धसातत्वमागमभक्तिं च परां ख्यापयन्नाह -'कस्स व नाणुमयमिणं जिणस्स जइ होज दोन्नि उपयोगा । नणं न होंति जुग जो निसिद्धा सुए बहुसो ॥ २४ ॥' निगदसिद्धेत्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः-अथशब्द इहोपन्यासार्थः, पूर्वमुद्देशसूत्रे मनःपर्यवज्ञानानन्तरं केवलज्ञानमुक्तं तत्सम्प्रति तात्पर्य निर्देशार्थमुपन्यस्यते इत्यर्थः, सर्वाणि च तानि द्रव्याणि च सर्वद्रव्याणि-जीवादिलक्षणानि तेषां परिणामा:-प्रयोगविससोभयजन्या उत्पादादयः पर्यायाः सर्वद्रव्यपरिणामास्तेषां भावः-सत्ता खलक्षणं खं स्वमसाधारणं रूपं तस्य विशेषण ज्ञापन ॥१३८॥ विज्ञप्तिः विज्ञानं वा विज्ञप्तिः, परिच्छेद इत्यर्थः, तस्याः कारणं-हेतुः सर्वद्रव्यपरिणामविज्ञप्तिकारणं, केवलज्ञानमिति सम्बध्यते, उक्तं च-"संबदवाण पओगवीससामीसया जहाजोगं । परिणामा पजाया जम्मविणासादओ सनद्रव्याणां प्रयोगविखसोभयजन्य समायोमम् । परिणामाः पर्याया जन्मविनाशादयो नेपाः ॥१॥ अनक्रम [९०] ~ 279~ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ...................... मूलं [२२]/गाथा ||१९||........... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२] दीप नओ ॥१॥ तेसिं भावो सत्ता सलक्खणं चा विसेसओ तस्स । नाणं विन्नत्तीए कारणं केवलं नाणं ॥२॥" तच ज्ञेयानन्तत्वादनन्तं, तथा शश्वद्भवं शाश्वतं, सदोपयोगवदिति भावार्थः, तथा प्रतिपतनशीलं प्रतिपाति न प्रतिपाति | | देशनाया अप्रतिपाति, सदाऽवस्थायीत्यर्थः, ननु यत् शाश्वतं तदप्रतिपात्येव ततः किमनेन विशेषणेन ?, तदयुक्तं, सम्यक् | वाग्योगत्वं शब्दार्थापरिज्ञानात् , शाश्वतं हि नाम अनवरतं भवदुच्यते, तच कियत्कालमपि भवति, यावद्भवति तावन्निरन्तरं च गा. ५९-६० भवनात् , ततः सकलकालभावप्रतिपत्त्यर्थमप्रतिपातिविशेषणोपादानं, ततोऽयं तात्पर्यार्थः-अनवरतं-सकलकालं भवतीति, अथवा एकपदव्यभिचारेऽपि विशेषणविशेष्यभावो भवतीति ज्ञापनाथें विशेषणद्वयोपादानं, तथाहि-1 शाश्वतमप्रतिपात्येव, अप्रतिपाति तु शाश्वतमशाश्वतं च भवति, यथा अप्रतिपात्यवधिज्ञानमिति । तथा एकविधम्एकप्रकार, तदावरणक्षयस्यैकरूपत्वात् , केवलं च तज्ज्ञानं च (केवलज्ञान)। इह तीर्थकृत् समुपजातकेवलालोकस्तीर्थकरनामकर्मोदयतः तयाखाभाव्यादुपकार्यकृतोपकारानपेक्षं सकलसत्त्वानुग्रहाय सवितेव प्रकाशं देशनामातनोति, तत्राव्युत्पन्नविनेयानां केषाश्चिदेवमाशङ्का भवेद् (यत्) भगवतोऽपि तीर्थकृतस्ताबद्रव्यश्रुतं ध्वनिरूपं वत्तेते, द्रव्यश्रुतं च भावश्रुतपूर्वकं, ततो भगवानपि श्रुतज्ञानीति, ततस्तदाशङ्कापनोदार्थमाह केवलनाणेणऽत्थे नाउं जे तत्थ पण्णवणजोगे। ते भासइ तित्थयरो वइजोग सुअं हवइ सेसं अनक्रम [९०] 964-% १ तेषां भावः सत्ता खलक्षणं वा विशेषतस्तस्य । शनं विशः कारणं केवलज्ञानम् ॥१॥ FaPranaamyam uncom ~280~ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ........................ मूल [२३]/गाथा ||६०||........... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: देशना वाम्योग प्रत सुत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [९२] श्रीमलय ॥६०॥ से तं केवलनाणं, से तं पञ्चक्खनाणं ॥ (सू० २३) गिरीया इह तीर्थकरः केवलज्ञानेन 'सर्व वाक्यं सावधारण'मिति न्यायात् केवलज्ञानेनैव, न श्रुतज्ञानेन, तस्य झायोपनन्दीति: सू. २३ दिशमिकत्वात् , केवलिनश्च वायोपशमिकभावातिकमात् , सर्वक्षये देशक्षयाभावादिति भावः, अर्थान्-धर्मास्तिका॥१३९॥ यादीन् अभिलाप्यानभिलाप्यान् 'ज्ञात्वा' विनिश्चित्य ये 'तत्र' तेषामर्थानामभिलाप्यानभिलाप्यानां मध्ये प्रज्ञापना-1 योग्याः, अभिलाप्या इत्यर्थः, तान् भाषते नेतरान् , तानपि प्रज्ञापनायोग्यान् भापते, न सर्वान् , तेषामनन्तत्वेन सर्वेषां भापितुमशक्यत्वात् , आयुषस्तु परिमितत्वात् ,किन्तु?, कतिपयानेव, अनन्तभागमात्रान् , आह च भाष्यकृत्"पन्नेवणिज्जा भावा अणंतभागो तु अणभिलप्पाणं । पन्नवणिजाणं पुण अणंतभागो सुयनिबद्धो॥१॥" तत्र केवलज्ञानोपलब्धार्थाभिधायकः शब्दराशिःप्रोच्यमानस्तस्य भगवतो वागयोग एव भवति, न श्रुतं, तस्स भाषापर्याप्त्यादिनामकर्मोदयनिवन्धनत्वात् ,श्रुतस्य च क्षायोपशमिकत्वात् स च वाग्योगो भवति, न श्रुतं 'शेषम्'अप्रधानं द्रव्यश्रुतमित्ययः, श्रोतॄणां भाक्श्रुतकारणतया द्रव्यश्रुतं व्यवहियते इति भावः, अन्ये त्वेवं पठन्ति-"वइजोग सुयं हवइ तेर्मि" तस्था-121॥१३९।। यमर्थ. तेषां-श्रोतॄणां भावश्रुतकारणत्वात् स वागयोगः श्रुतं भवति, श्रुतमिति व्यवहियते इत्यर्थः । 'सेत्त'मित्यादि निगमनं, तदेतत्केवलज्ञानं, तदेतत्प्रत्यक्षं । एवं प्रत्यक्षे प्रतिपादिते सति परोक्षस्य खरूपमनवगच्छन्नाह शिष्यः| १ प्रज्ञापनीया भावा अनन्तभागस्त मनमिलाप्यानाम् । प्रज्ञापनीयाना पुनरनन्तभागः (तनिबद्धः ॥ १॥ २४ FaPramamyam uncom ~ 281~ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [२४]/गाथा ||६०...||............ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: स.२४ प्रत सूत्रांक [२४] SACREASANSARASस से किं तं परुक्खनाणं?, परुक्खनाणं दुविहं पन्नत्तं, तंजहा-आभिणियोहिअनाणपरोक्खं च मतिश्रुत व्याप्ति सुअनाणपरोक्खं च, जत्थ आभिणिबोहियनाणं तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुअनाणं तत्थाभिणिबोहियनाणं, दोऽवि एयाई अण्णमण्णमणुगयाई, तहवि पुण इत्थ आयरिआ नाणत्तं प. पणवयंति-अभिनिबुज्झइत्ति आभिणिबोहिअनाणं सुणेइत्ति सुअं, मइपुव्वं जेण सुअंन मई सुअपुग्विआ (सू०२४) 'से कि तमित्यादि, अथ किं तत्परोक्षं ?, सूरिराह-परोक्षं द्विविधं प्रज्ञतं, तद्यथा-आभिनिवोधिकज्ञानपरोक्षं च | श्रुतज्ञानपरोक्षं च, चशब्दी खगतानेकभेदसूचकौ परस्परसहभावसूचकी च, परस्परसहभावमेवानयोर्दर्शयति-जत्थे'त्यादि, 'यत्र' पुरुषे आमिनिबोधिकं ज्ञानं तत्रैव श्रुतज्ञानमपि, तथा यत्र श्रुतज्ञानं तत्रैवाभिनिवोधिकज्ञानं । आह-19 यत्रामिनिबोधिकज्ञानं तत्र श्रुतज्ञानमित्युक्ते यत्र श्रुतज्ञानं तत्राभिनिवोधिकज्ञानमिति गम्यत एव ततः किमनेनोक्तनेति !, उच्यते, नियमतो न गम्यते, ततो नियमावधारणार्थमेतदुच्यते इत्यदोषः, नियमावधारणमेव स्पष्ट-18 यति-द्वे अप्येते-आभिनियोधिकश्रुते अन्योऽन्यानुगते-परस्परप्रतिबद्धे, स्यादेतद्-अनयोर्यदि परस्परमनुगमस्तर्हि अ-2 भेद एवं प्राप्नोति कथं भेदेन व्यवहारः१. तत आह-तहऽवी'त्यादि, 'तथापि' परस्परमनुगमेऽपि पुनरत्र-आभि-II निबोधिकश्रुतयोराचार्या:-पूर्वसूरयो नानात्वं-भेदं प्ररूपयन्ति, कथमिति चेदुच्यते-लक्षणभेदात् , दृष्टश्च परस्परमनु दीप अनुक्रम [१३] SAREKOmational अथ परोक्षज्ञानं एवं तद् अन्तर्गत: मति तथा श्रुतज्ञान वर्णयते ~282~ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [२४]/गाथा ||६०...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: एकेन्द्रिः प्रत सूत्रांक [२४] श्रीमलय-रागतयोरपि लक्षणभेदानेदो, यधैकाकाशस्थयोधर्मास्तिकायाधर्मास्तिकाययोः, तथाहि-धर्माधर्मास्तिकायौ परस्परंश गिरीया लोलीभावेनैकस्मिन्नाकाशदेशे व्यवस्थिती, तथापि यो गतिपरिणामपरिणतयोर्जीवपुद्गलयोर्गत्युपष्टम्भहेतुर्जलमिव म- ये पिश्रुतं नन्दीवृत्तिः त्यस्य स खलु धर्मास्तिकायो यः पुनः स्थितिपरिणामपरिणतयोर्जीवपुद्गलयोरेव स्थित्युपष्टम्भहेतुः क्षितिरिव झपस्य | ॥१४॥ स खलु अधर्मास्तिकाय इति लक्षणभेदाढ़ेदो भवति, एवमाभिनिबोधिकश्रुतयोरपि लक्षणभेदा दो वेदितव्यः, लक्षणभेदमेव दर्शयति-'अभिनिबुज्झईत्यादि, अभिमुखं-योग्यदेशे व्यवस्थितं नियतमर्थमिन्द्रियमनोद्वारेण बुध्यतेपरिच्छिनत्ति आत्मा येन परिणामविशेपेण स परिणामविशेषो ज्ञानापरपर्याय आभिनियोधिक, तथा शृणोति वाच्यवाचकभावपुरस्सरं श्रवणविपयेन शब्देन सह संस्पृष्टमर्थ परिच्छिनत्त्यात्मा येन परिणामविशेषेण स परिणामविशेषः श्रुतं । ननु यद्येवलक्षणं श्रुतं तर्हि य एव श्रोत्रेन्द्रियलब्धिमान् भाषालब्धिमान् वा तस्यैव श्रुतमुपपद्यते न शेषस्यैकेन्द्रियस्य, तथाहि-यः श्रोत्रेन्द्रियलब्धिमान् भवति स विवक्षितं शब्दं श्रुत्वा तेन शब्देन वाच्यमथे प्रतिपत्तुमीष्टे न शेपः, शेषस्य तथारूपशक्त्यभावात् , योऽपि च भापालब्धिमान् भवति सोऽपि द्वीन्द्रियादिः प्रायः खचेतसि किमपि विकल्प्य तदभिधानानुमानतः शब्दमुद्गिरति नान्यथा, ततस्त स्थापि श्रुतं सम्भाव्यते, यस्त्वेकेन्द्रियः ॥१४॥ सन तावत् श्रोत्रेन्द्रियलब्धिमान् नापि भाषालब्धिमान् ततः कथं तस्य श्रुतसम्भवः ?, अथ च प्रवचने तस्यापि श्रुतमुपवर्ण्यते, तत्कथं प्राक्तनं श्रुतलक्षणं समीचीनमिति ?, नेप दोपो, यत इह तावदेकेन्द्रियाणामाहारादिसंज्ञा विद्यते 456-51 दीप अनुक्रम [१३] २० ~ 283~ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [२४]/गाथा ||६०...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] दीप अनुक्रम तथा सूत्रेऽनेकशोऽभिधानात् , संज्ञा चाभिलाष उच्यते, यत उक्तमावश्यकटीकायाम्-'आहारसंज्ञा-आहाराभिलाषा प्रवद्वेदनीयप्रभवः खल्वात्मपरिणामविशेषः' इति, अभिलाषश्च ममैवंरूपं वस्तु पुष्टिकारि तद्यदीदमवाप्यते ततः स-12 ये मीचीनं भवतीत्येवं शब्दार्थालेखानुविद्धः खपुष्टिनिमित्तभूतप्रतिनियतवस्तुप्राप्त्यध्यवसायः, स च श्रुतमेव, तस्य शब्दार्थपर्यालोचनात्मकत्वात् , शब्दार्थपर्यालोचनात्मकत्वं च ममैवरूपं वस्तु पुष्टिकारि तबदीदमवाप्यते इत्येवमादीनां | शब्दानामन्तर्जल्पाकाररूपाणामपि विवक्षितार्थवाचकतया प्रवर्त्तमानत्वात् , श्रुतस्य चैवलक्षणत्वात् , उक्तं च-1 "इन्दियमणोनिमित्तं जं विनाणं सुयानुसारेणं । नियअत्थोत्तिसमत्थं तं भावसुर्य मई सेसं ॥१॥" 'सुयाणुसारेणं'ति शब्दार्थपर्यालोचनानुसारेण, शब्दार्थपर्यालोचनं च नाम वाच्यवाचकभावपुरस्सरीकारेण शब्दसंस्पृष्टस्वार्थस्य प्रतिपत्तिः, केवलमेकेन्द्रियाणामव्यक्तमेव, किंच-नाप्यनिर्वचनीयं तथारूपक्षयोपशमभावतो वाच्यवाचकभावपुरस्स-1 रीकारेण शब्दसंस्पृष्टार्थग्रहणमवसेयम् , अन्यथाऽऽहारादिसंज्ञाऽनुपपत्तेः, यदप्युच्यते-ययेवलक्षणं श्रुतं तर्हि य एव श्रोत्रेन्द्रियलब्धिमान् भाषालब्धिमान् वा तस्यैव श्रुतमुपपद्यते न शेषस्यैकेन्द्रियखेति, तदप्यसमीक्षितार्थाभिधानं, सम्यक् प्रवचनार्थापरिज्ञानात् , तथाहि-बकुलादीनां स्पर्शनेन्द्रियातिरिक्तद्रव्येन्द्रियलब्धिविकलत्वेऽपि तेषां किमपि सूक्ष्मं भावेन्द्रियपश्चकविज्ञानमभ्युपगम्यते, 'पंचिंदिओऽवि बउलो' इत्यादिभाष्यकारवचनप्रामाण्यात् , तथा भाषा१ इन्द्रियमनोनिविसं यद्विज्ञानं श्रुतानुसारेण । निजकाक्तिसमर्थ तद् भावभुतं मतिः शेषम् ॥१॥ RSS [९३] ० ~ 284~ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [२४]/गाथा ||६०...|| ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: योभंद: प्रत सुत्राक [२४] श्रीमलय- श्रोत्रेन्द्रियलब्धिविकलत्वेऽपि तेषां किमपि सूक्ष्मं श्रुतं भविष्यति, अन्यथाऽऽहारादिसंज्ञाऽनुपपत्तेः, आह च भाष्यगिरीया 18कृत-"जह सुहुमं भाविंदियनाणं दबिंदियावरोहेऽवि । तह दवसुयाभावे भावसुयं पत्थिवाईणं ॥१॥" ततः नन्दीवृत्तिः प्राक्तनमेव श्रुतलक्षणं समीचीन, नान्यदिति स्थितं । तदेवं लक्षणभेदाढ़ेदमभिधाय सम्प्रति प्रकारान्तरेण भेदमभि॥१४१॥ |धित्सुराह-'मइपुवमित्यादि, 'पृ पालनपूरणयो रित्यस्य धातोः पूर्यते प्राप्यते पाल्यते च येन कार्य तत्पूर्व, औणादिको वकूप्रत्ययः, कारणमित्यर्थः, मतिः पूर्व यस्य तन्मतिपूर्व श्रुतं-श्रुतज्ञानं, तथाहि-मत्या पूर्यते प्राप्यते श्रुतं, न खलु मतिपाटवविभवमन्तरेण श्रुतविभवमुत्तरोत्तरमासादयति जन्तुः, तथाऽदर्शनात् , यच्च यदुत्कर्षापकर्षवशादुत्कर्षापकर्षभाक् तत्तस्य कारणं, यथा घटस्य मृत्पिण्डः, मत्युत्कर्षापकर्षवशाच श्रुतस्योत्कर्षापकों, ततः कारणं मतिः श्रुतज्ञानस्य, तथा पाल्यते-अवस्थिति प्राप्यते मत्या श्रुतं, श्रुतस्य हि दलं मतियथा घटस्य मृत्, तथाहि-श्रुतेष्वपि बहुषु ग्रन्थेषु यद्विषयं स्मरणमीहापोहादि वा अधिकतरं प्रवर्तते स ग्रन्थः स्फुटतरः प्रतिभाति, न शेषाः, एतच प्रतिप्राणि खसंवेदनप्रमाणसिद्धं, ततो यथोत्पन्नोऽपि घटो मृदभावे न भवति तथाखभावायां च मृदि तिष्ठन्त्यामवतिछते इति सा तस्य कारणम् , एवं श्रुतस्यापि मतिः कारणं, ततो युक्तमुक्तं मतिपूर्व श्रुतमिति । मतिपूर्वकता च श्रुतस्योपयोगापेक्षया द्रष्टव्या न तु लब्ध्यपेक्षया, लब्धेः समकालतया भवनात्, एतच्च प्रागेवोक्तं, न मतिः श्रुतपू१ यथा सूक्ष्म भावन्द्रियविज्ञानं द्रव्येन्द्रियावरोधेऽपि । तथा द्रव्यश्रुताभावे भावभुतं पृथिव्यादीनाम् ॥ १ ॥ X दीप अनुक्रम [१३] RECES ॥१४॥ ME D ildana ~285~ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [२४]/गाथा ||६०...|| ........... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] विका, तथानुभवाभावात् , ततो महान् मतिश्रुतयोर्भेदः । इतश्च भेदो भेदभेदात् , तथाहि-चतुर्दा व्यअनावग्रहः, पो-18 मतिश्रुतKढार्थावग्रहः अवग्रहेहापायधारणाभेदादष्टाविंशतिविधमाभिनिवोधिकज्ञानम् अङ्गानङ्गप्रविष्टादिभेदभिन्नं च श्रुतज्ञा- योर्भेदः नमिति । तथा इन्द्रियविभागतश्च भेदः,तत्प्रतिपादिका चेयं पूर्वान्तर्गता गाथा-"सोइंदियओवलद्धी होइ सुयं सेसयं तु मइनाणं । मोत्तूणं दवसुयं अक्खरलंभो य सेसेसुं ॥१॥" अस्या व्याख्या-श्रोत्रेन्द्रियेणोपलब्धिः श्रोत्रेन्द्रियोपलधिर्भवति श्रुतं, 'सबै वाक्यं सावधारणमिष्टितश्चावधारणविधिः तत एवमिहावधारणं द्रष्टव्यं-श्रुतं श्रोत्रेन्द्रियेणापलब्धिरेव, न तु श्रोत्रेन्द्रियेणोपलब्धिः श्रुतमेव, कस्मादिति चेत्, उच्यते, इह श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरपि या श्रुतग्रन्थानुसारिणी सेव श्रुतमुच्यते, या पुनरवग्रहहापायरूपा सा मतिः, ततो यदि श्रोत्रेन्द्रियेणोपलब्धिः श्रुतमेवेत्युच्यते तहि | मितेरपि श्रुतत्वमापद्यते तचायुक्तम् अतः श्रोत्रेन्द्रियेणोपलब्धिरेव श्रुतमित्यवधारणीय, आह च भाष्यकृत-"सोइंदियोवलद्धी चेव सुयं न उ तई सुर्य चेव । सोइंदिओवलद्धीऽवि काइ जम्हा मईनाणं ॥१॥" तथा 'सेसयं तु महना णमिति शेषं यत् चक्षुरादीन्द्रियोपलब्धिरूपं विज्ञानं तत् मतिज्ञानं भवतीति सम्बध्यते, तुशब्दोऽनुक्तसमुथयार्थः, दतत आस्तां शेषं विज्ञानं श्रोत्रेन्द्रियेणोपलब्धिरपि काचिदवग्रहेहापायरूपा मतिज्ञानमिति समुचिनोति, उक्तं च "तु समुच्चयवयणाओ काई सोइंदिओवलद्धीऽपि । मइ एवं सइ सोउग्गहादयो होति मइभेया ॥१॥” तदेवं सर्वस्याः | श्रोत्रेन्द्रियोपभिरेव श्रुतं न तु सका श्रुटमेव । श्रोत्रवियोपलब्धिरपि काचित् यस्मात् मतिदानम् ॥ १ ॥ २ तु समुच्चयनयनलात् काचित् श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरपि । मतिः एवं सति धोत्रेन्द्रियायमहादयो भवन्ति मतिभेदाः ॥१॥ ARRASSAMASALC दीप अनुक्रम [९३] KImamurary.org ~286~ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [२४]/गाथा ||६०...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [२४] दीप अनुक्रम [१३] श्रीमलय पेन्द्रियोपलब्धेरुत्सर्गेण मतिज्ञानत्वे प्राप्ते सत्यपवादमाह-'मोत्तूणं दवसुर्य मुक्त्वा द्रव्यश्रुवं, किमुक्तं भवति ?- श्रुतलक्षणम् गिरीया & ४मुक्त्वा पुस्तकपत्रकादिन्यस्ताक्षररूपद्रव्यश्रुतविषयां शब्दार्थपर्यालोचनात्मिक शेषेन्द्रियोपलब्धि, तस्याः श्रुतज्ञान-M रूपत्वात् , यच द्रव्यश्रुतव्यतिरेकेणान्योऽपि शेषेन्द्रियेष्वक्षरलाभः शब्दार्थपर्यालोचनात्मकः सोऽपि श्रुतं, न तु केव- १५ ॥१४२॥ लोऽक्षरलाभः, केवलो बक्षरलाभो मतावपीहादिरूपायां भवति, न च सा श्रुतज्ञानं । अत्राह-ननु यदि शेपेन्द्रि येष्वक्षरलाभः श्रुतं तर्हि यदधावरणमुक्तं-श्रोत्रेन्द्रियेणोपलब्धिरेव श्रुतमिति तद्विघटते, शेपेन्द्रियोपलब्धेरपि सम्प्रति श्रुतत्वेन प्रतिपन्नत्वात् , नैप दोषः, यतः शेषेन्द्रियाक्षरलाभः स इह गृह्यते यः शब्दार्थपर्यालोचनात्मकः, शब्दार्थपर्यालोचनानुसारी चाक्षरलाभः श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिकल्प इति न कश्चिदोषः । इतश्च मतिश्रुतयोर्भेदो-वल्कसमं। मतिज्ञानं, कारणत्वात् , शुम्बसमं श्रुतज्ञानं, तत्कार्यत्वात् , ततो यथा वल्कशुम्बयो दस्तथा मतिश्रुतयोरपि । इतश्च | भेदो-मतिज्ञानमनक्षरं साक्षरं च, तथाहि-अवग्रहज्ञानमनक्षरं, तस्यानिर्देश्यसामान्यमात्रप्रतिभासात्मकतया निर्विकल्पकत्वाद् , ईहादिज्ञानं साक्षरं, तस्य परामर्शादिरूपतयाऽवश्यं वारुषितत्वात् , श्रुतज्ञानं पुनः साक्षरमेव, अक्षर-1 मन्तरेण शब्दार्थपर्यालोचनस्यानुपपत्तेः । इतश्च मतिश्रुतयोभदो-मूककल्पं मतिज्ञानं, खमात्रप्रत्यायनफलत्वात् , अमूककल्पं श्रुतज्ञानं, स्वपरप्रत्यायकत्वात् , तथा चामूने भेदहेतून् भाष्यकृत् संगृहीतवान्-"लक्षणभेया हेऊफल१ लक्षणभेदात् हेतुफलभानात भेद इन्द्रियविभागात् । बकाम्बाक्षरानक्षरमूकेतरभेदात् भेदो मतिश्रुतयोः ॥ १ ॥ २४ ~ 287~ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [२४]/गाथा ||६०...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] दीप भाषा मेयइंदियविभागा । वागक्खरमूवेयरमेया भेओ मइसुयाणं ॥१॥" यथा च मतिश्रुतयोः कार्यकारणभावात् मिथो भेदः तथा सम्यग्दर्शनमियादर्शनपरिग्रहभेदात् खरूपतोऽपि तयोः प्रत्येकं भेदः, तथा चाह अविसेसिआ मई मइनाणं च मइअन्नाणं च, विसेसिआ सम्मदिहिस्स मई मइनाणं मिच्छदिट्रिस्स मई मइअन्नाणं, अविसेसिअं सुयं सुयनाणं च सुयअन्नाणं च, विसेसि सुयं सम्मदिट्रिस्स सुयं सुअनाणं, मिच्छद्दिट्रिस्स सुअं सुयअन्नाणं । (सू. २५) खामिना अविशेपिता-खामिविशेषपरिग्रहमन्तरेण विवक्ष्यमाणा मतिर्मतिज्ञानं मस्यज्ञानं चोच्यते, सामान्येनोभयत्रापि मतिशब्दप्रवृत्तेः, विशेषिता-स्वामिना विशेष्यमाणा सम्यग्दृष्टर्मतिर्मतिज्ञानमुच्यते, तस्या यथावस्थितार्थग्राहकत्वात् , मिथ्यारष्टेमतिर्मत्यज्ञानं, तस्य एकान्तावलम्बितया यथावस्थितार्धग्रहणाभावात् , एवं श्रुतसूत्रमपि व्याख्येयं । आह-मिथ्यादृष्टेरपि मतिश्रुते सम्यग्दृष्टेरिव तदावरणक्षयोपशमसमुद्भवे सम्यगदृष्टेरिव च पृथुवुभोदरायाकारं घटादिकं च संविदाते तत्कथं मिथ्यादृष्टेरज्ञाने ?, उच्यते, सदसद्विवेकपरिज्ञानाभावात् , तथाहि-मिथ्या-15 दृष्टिः सर्वमप्येकान्तपुरस्परं प्रतिपद्यते, न भगवदुक्तस्याद्वादनीया, ततो घट एवायमिति यदा ब्रूते तदा तस्मिन् घटे घटपर्यायव्यतिरेकेण शेषान् सत्त्वज्ञेयत्वप्रमेयत्वादीन् सतोऽपि धर्मानपलपति, अन्यथा घट एवायमित्येकान्तेनावधारणानुपपत्तेः, घटः सन्नेवेति च ब्रुवाणः पररूपेण नास्तित्वस्थानभ्युपगमात् पररूपतामसतीमपि तत्र प्रतिपद्यते, अनुक्रम [९३] १३ | मति तथा श्रुतज्ञानस्य ज्ञान एवं अज्ञानं प्ररुप्यते ~288~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [२५]/गाथा ||६०...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पू.२५ प्रत सुत्रांक [२५] दीप श्रीमलय-1 ततः सन्तमसन्तं प्रतिपद्यते असन्तं च सन्तमिति सदसद्विशेषपरिज्ञानाभावादज्ञाने मिथ्यारष्टेमतिश्रुते। इतश्च ते मि- सम्यग्मिगिरीयाध्याऐरज्ञाने, भवहेतुत्वात् , तथाहि-मिथ्यादृष्टीनां मतिश्रुते पशुवधमैथुनादीनां धर्मसाधकत्वेन परिच्छेदके, ध्यादृशोनन्दीवृत्तिः ततो दीर्घतरसंसारपथप्रवर्तिनी। तथा यदृच्छोपलम्भादुन्मत्तकविकल्पवत् , यथा हि उन्मत्तकविकल्पा वस्त्वनपे॥१४॥ श्यैव यथाकथञ्चित् प्रवर्त्तन्ते, यद्यपि च ते कचिद्यथावस्थितवस्तुसंवादिनस्तथाऽपि सम्यग्यथावस्थितवस्तुतत्त्वपर्यालो |चनाविरहेण प्रवर्त्तमानत्वात् परमार्थतोऽपारमार्थिकाः, तथा मिथ्यादृष्टीनां मतिश्रुते यथावस्थितं वस्त्वविचार्यैव प्रयजाते, ततो यद्यपि च ते कचिद्रसोऽयं स्पर्शोऽयमित्याद्यवधारणाध्यवसायाभावे संवादिनी तथापि न ते स्वाद्वादमु-श द्रापरिभावनातस्तथाप्रवृत्ते, किन्तु यथाकथञ्चिद्, अतस्ते अज्ञाने । तथा ज्ञानफलाभावात् , ज्ञानस्य हि फलं हेयस्य । दहानिः उपादेयस्य चोपादानं, न च संसारात्परं किञ्चिद्धेयमस्ति, न च मोक्षात्परं किश्चिदुपादेयं, ततो भवमोक्षावेका न्तेन हेयोपादेयो, भवमोक्षयोश्च हान्युपादाने सर्वसङ्गविरतेर्भवतः, ततः साऽवश्यं तत्त्ववेदिना कर्तव्या, सैव च पर माथेतो ज्ञानस्य फलं, तथा चाह भगवानुमाखातिवाचक:-"ज्ञानस्य फलं विरति"रिति, सा च मियादृष्टेन विद्यते दाइति ज्ञानफलाभावादज्ञाने मियादृष्टेमतिश्रुते, तथा चामूनेवाज्ञानत्ये हेतून भाष्यकृदपि पठति-"सयसयविसे-14॥१४३।। सणाओ भवहेउजहिच्छिओवलंभाओ। नाणफलाभावाओ मिच्छदिहिस्स अन्नाणं ॥१॥" इह मतिपूर्व श्रुतमि-| I १ सदसद्विशेषाभावात भावहेतुतो यहच्छोपलम्भात् । शानफलाभावात् मियाटेरज्ञानम् ॥१॥ अनक्रम [९४] ~289~ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२६]/गाथा ||६१|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत अश्रुतनिश्रितेबुद्धिचतुष्कम् सूत्रांक [२६...] सू. २६ गाथा ।त्युक्तं, ततो मतिज्ञानमेवाधिकृत्य शिष्यः प्रश्नयति से किं तं आभिणिबोहिअनाणं?, आभिणिबोहियनाणं दुविहं पन्नतं, तंजहा-सुयनिस्सियं च अस्सुयनिस्सि च ॥ से किं ते असुअनिस्सिअं?, असुअनिस्सिअं चउव्विहं पन्नत्तं, तंजहा-उप्पत्तिआ १ वेणइआ २ कम्मया ३ परिणामिआ ४ । बुद्धी चउठिवहा वुत्ता, पंचमा नोवलब्भइ ॥ ६१॥ (सू० २६) 'से कि तमित्यादि, अथ किं तदाभिनिवोधिकज्ञानं?, सूरिराह-आभिनिवोधिकज्ञानं द्विविध प्रज्ञप्तं, तद्यथाश्रुतनिश्रितं च अश्रुतनिश्रितं च,तत्र शास्त्रपरिकर्मितमतेरुत्पादकाले शास्त्रार्थपर्या लोचनमनपेक्ष्यैव यदुपजायते मतिज्ञानं तत् श्रुतनिश्रितम्-अवग्रहादि, यत्पुमः सर्वथा शास्त्रसंस्पर्शरहितस्य तथाविधक्षयोपशमभावत एवमेव यथावस्थितवस्तुसंस्पर्शि मतिज्ञानमुपजायते तत् अश्रुतनिश्रितमौत्पत्तिक्यादि, तथा चाह भाष्यकृत्-"पुचं सुअपरिकम्मियमइस्स जं संपयं सुयाईयं । तन्निस्सियमियरं पुण अणिस्सियं मइचउक्कं तं ॥१॥" आह-औत्पत्तिक्यादिकमप्यवग्रहादिरूपमेय तत्कोऽनयोर्विशेषः?, उच्यते, अवग्रहादिरूपमेव, परं शास्त्रानुसारमन्तरेणोत्पद्यते इति भेदेनोपन्यस्तं ॥ तत्राल्पतरवक्तव्यत्वात् प्रथममश्रुतनिश्रितमतिज्ञानप्रतिपादनायाह-से किं तमित्यादि, अथ किं तत् अश्रुत१ पूर्व श्रुतपरिकॉर्मतमतेसाम्प्रतं श्रुतातीतम् । तत् निश्रितमितरत्पुनरनिनितं मतिमतुल्क तत् ॥ १॥ ||६|| दीप अनुक्रम [९५] MERImanand | आभिनिबोधिकज्ञानस्य कथनं, बुद्धेः औत्पातिकी आदि चत्वार: भेदा: ~290~ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६१|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [२७]] गाथा ||६१|| श्रीमलय- निश्रितं ?, सूरिराह-अश्रुतनिश्रितं चतुर्विध प्रज्ञप्तं, तद्यथा-'उप्पत्तिआ'गाहा, उत्पत्तिरेव न शास्त्राभ्यासकर्मपरि- औत्पत्तिकी गिरीया शीलनादिकं प्रयोजन-कारणं यस्याः सा औत्पत्तिकी, 'तदस्य प्रयोजन'मितीकन् , ननु सर्वस्या बुद्धेः कारणं क्षायो- बुद्धिस्तनन्दीवृत्तिः पशमः तत्कथमुच्यते-उत्पत्तिरेव प्रयोजनमस्या इति ?, उच्यते, क्षयोपशमः सर्वबुद्धिसाधारणः, ततो नासी भेदेनटान्ता ॥१४॥ प्रतिप्रत्तिनिवन्धनं भवति, अथ च बुद्ध्यन्तराद्भेदेन प्रतिपत्त्यर्थं व्यपदेशान्तरं कर्तुमारब्धं, तत्र व्यपदेशान्तरनिमि- त्तमत्र न किमपि विनयादिकं विद्यते, केवलमेवमेव तथोत्पत्तिरिति सैव साक्षानिर्दिष्टा । तथा विनयो-गुरुशुश्रूषा सा प्रयोजनमस्खा इति वैनयिकी । तथा अनाचार्यकं कर्म साचार्यकं शिल्पं, अथवा कादाचित्कं शिल्पं सर्वकालिकं कर्म, कर्मणो जाता कर्मजा । तथा परि-समन्तानमनं परिणामः-सुदीर्घकालपूर्वापरपर्यालोचनजन्य आत्मनो धर्मविशेषः स प्रयोजनमस्याः सा पारिणामिकी । वुध्यतेऽनयेति बुद्धिः, सा चतुर्विधा उक्ता तीर्थकरगणधरैः, किमिति ?, यस्मात् । पञ्चमी केवलिनाऽपि नोपलभ्यते, सर्वस्याप्यश्रुतनिश्रितमतिविशेपस्योत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्टय एवान्तर्भावात् ॥ तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायात्प्रथममौत्पत्तिक्या लक्षणमाहपुव्वं अदिट्टमस्सुअमवेइयतक्खणविसुद्धगहिअत्था। अव्वायफलजोगा बुद्धी उप्पत्तिआ नाम ॥१४४॥ ॥३२॥ भरहसिल १ पणिय २ रुक्खे ३ खुड्डुग ४ पड ५सरड ६ काय ७ उच्चारे ८। गय ९ घयण १० गोल ११ खंभे १२ खुड्डग १३मग्गिस्थि १४पइ १५ पुत्ते १६ ॥ ६३ ॥ भरह १ सिल २ दीप अनुक्रम [९६] २५ | औत्पातिकी बुद्धीनां दृष्टान्ता: ~ 291~ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [२७...] गाथा ||६२ -६५|| दीप अनुक्रम [९७ -१००] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [२७] / गाथा ||६४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ****** मिंट ३ कुक्कुड ४ वालुअ ५ हत्थी ६ अगड ७ वणसंडे ८ । पायस ९ अइआ १० पत्ते ११ खाहिला १२ पंच पिअरो अ १३ ॥ ६४ ॥ महुसित्थ १७ मुद्दि १८ अंके १९ नाणए २० भिक्खु २१ डगनिहाणे २२ । सिक्खा य २३ अत्थसत्थे २४ इच्छा य महं २५ सय सहस्से २६ ॥६५॥ आसामर्थः कथानकेभ्योऽवसेयः, तानि च कथानकानि विस्तरतोऽभिधीयमानानि ग्रन्थगौरवमापादयन्ति ततः संक्षेपेणोच्यन्ते - उज्जयनी नाम पुरी, तस्याः समीपवर्ती कश्चिन्नटानामेको ग्रामः, तत्र च ग्रामे भरतो नाम नटः, तस्य भार्या परासुरभूत्, तनयश्चास्य रोहिकाभिधोऽद्याप्यल्पवयाः, ततः सत्वरमेव स्वस्य स्वतनयस्य च शुश्रूषाकरणायान्या समानिन्ये वधूः, सा च रोहकस्य सम्यग् न वर्त्तते, ततो रोहण सा प्रत्यपादि - मातर्न मे त्वं सम्यग् वर्त्तसे ततो ज्ञास्यसीति, ततः सा सेयमाह-रे रोहक ! किं करिष्यसि ?, रोहकोऽप्याह - तत्करिष्यामि येन त्वं मम पादयोरागत्य लगिष्यसीति, ततः सा तमवज्ञाय तूष्णीमतिष्ठत्, रोहकोऽपि तत्कालादारभ्य गाढस आताभिनिवेशोऽन्यदा निशि सहसा पितरमेवमभाणीव-भो भोः पितरेष पलायमानो गोहो याति, तत एवं बालकवचः श्रुत्वा पितुराशङ्का समुदपादि नूनं विनष्टा मे महेलेति, तत एवमाशङ्काशात्तस्यामनुरागः शिथिलीबभूव, ततो न तां सम्यक् संभाषते, नापि विशेषतस्तस्यै पुष्पताम्बूलादिकं प्रयच्छति, दूरतः पुनरपास्तं शयनादि, ततः सा चिन्त-यामास - नूनमिदं बालकविचेष्टितम्, अन्यथा कथमकाण्ड एवैष दोषाभावे परामुखो जातः ?, ततो वालकमेवमवा For Para Use Only ~ 292~ औत्पत्तिकी बुद्धिदृष्टान्ताः १० १३ www.ansibrary org Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६५|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७...] P गाथा ||६२ श्रीमलबगिरीयात दीत्-वत्स! रोहक किमिदं त्वया चेष्टितं ?, तव पिता मे सम्प्रति दूरं पराअखीभूतः, रोहक आह-किमिति औत्पत्तिकी तर्हि न सम्यग् मे वर्तसे ?, तयोक्तम्-अत ऊर्दू सम्यग वर्त्तिष्ये, ततो बालक आह-भव्यं, तर्हि मा खेदं कार्षीः बुद्धिः दृष्टान्ता तथा करिष्ये यथा मे पिता तथैव त्वयि वर्तते इति, ततः सा तत्कालादारभ्य सम्यग्वर्तितुं प्रवृत्ता, रोहकोऽप्य॥१४५॥ न्यदा निशि निशाकरप्रकाशितायां प्राक्तनकदाशकापनोदाय बालभावं प्रकटयन् निजच्छायामङ्गुल्यग्रेण दर्शयन् पितरमेवाह-भोः पितरेष गोहो याति गोहो यातीति, तत एवमुक्ते स पिता परपुरुषप्रवेशाभिमानतो निष्प्रत्याकार कृपाणमुद्गीर्य प्राधावत्, रे कथय कुत्र यातीति ?, ततः स रोहको बालको बालक्रीडां प्रकटयनङ्गल्यग्रेण निजइच्छायां दर्शयति-पितरेष गोहो यातीति, ततः स पिता ब्रीडित्वा प्रत्यावृत्य चिन्तयति स्मच खचेतसि-प्राक्तनोऽपि २० पुरुषो नूनमेवंविध एवासीदिति धिग्मया बालकवचनादलीकं संभाव्य विप्रियमेतावन्तं कालं कृतमस्यां भार्यायामिति पश्चात्तापादाढतरमस्यामनुरक्तो बभूव, सोऽपि रोहको मया विप्रियं कृतमास्तेऽ(मस्त्य)स्या इति कदाचिदेपा मां विपादिना मारयिष्यतीति विचिन्त्य सदैव पित्रा सह भुले न कदाचिदपि केवलः, अन्यदा पित्रा सहोजयिनी पुरीम-INI गमत् , दृष्टा च तेन त्रिदशपुरीबोजयिनी, सविस्मयचेतसा च सकलाऽपि यथावत्परिभाविता, ततः पित्रैव सह नगर्या । निर्यातुमारेभे, पिता च किमपि मे विस्मृतमिति रोहक सिप्रानदीतटेऽवस्थाप्य तदानयनाय भूयोऽपि नगरी प्राविक्षत्,४२५ रोहकोऽपि च तत्र सिमाभिधसिन्धुसैकते बालचापलवशात् सप्राकारां परिपूर्णामपि पुरी सिकताभिरालिखत्, ECACCOCKROADCALCER -६५|| RSE दीप अनुक्रम [९७ REarathina Alona ~ 293~ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६५|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७...] __ + गाथा ||६२ इतश्च राजा अश्ववाहनिकायामश्वं वाहयन् कथञ्चिदेकाकीभूतस्तेन पथा समागन्तुं प्रावर्त्तत, तं च खलिखितनगरी-II औत्पत्तिकी मध्येन समागच्छन्तं रोहकोऽवादीत्-भो राजपुत्र ! माऽनेन पथा समागमः, तेनोक्तं-किमिति ?, रोहक आह-किं110 दा बुद्धि Rष्टान्ताः त्वं राजकुलमिदं न पश्यसि!, स राजा कौतुकवशात् सकलामपि नगरी तदालिखितामवैक्षत, पप्रच्छ च तं वाबालक-रे अन्यदा त्वया नगरी दृष्टाऽऽसीन्न था ?, रोहक आह-नैव कदाचित्, केवलमहमद्यैव खग्रामादिहागतः, दततश्चिन्तयामास राजा-अहो बालकस्य प्रज्ञातिशय इति, ततः पृष्टो रोहको-वत्स! किं ते नाम क वा ग्राम इति ?,12/५ तेनोक्तं-रोहक इति मे नाम, प्रत्यासन्ने च पुरो ग्रामे वसामीति, अत्रान्तरे समागतो रोहकस्य पिता चलितौ च | स्वग्राम प्रति द्वायपि, राजा च स्वस्थानमगमत् , चिन्तयति स्म च-ममैकोनानि मत्रिणां पञ्च शतानि विद्यन्ते, तयदि सकलमन्त्रिमण्डलमूर्धाभिषिक्तो महाप्रज्ञाऽतिशायी परमो मन्त्री सम्पद्यते ततो मे राज्यं सुखेनैधते, बुद्धिबलोपेतो हि राजा प्रायः शेषबलैरल्पबलोऽपि न पराजयस्थानं भवति परांश्च राज्ञो लीलया विजयते, एवं च चिन्तयित्वा कतिपयदिनानन्तरं रोहकबुद्धिपरीक्षानिमित्तं सामान्यतो ग्रामप्रधानपुरुषानुद्दिश्यैवमादिष्टवान्-यथा युष्मद्रामस्य 8 बहिरतीव महती शिला वर्तते तामनुत्पाख्य राजयोग्यमण्डपाच्छादनं कुरुत, तत एवमादिष्टे सकलोऽपि ग्रामो राजादेशं कर्तुमशक्यं परिभावयन्नाकुलीभूतमानसो बहिः सभायामेकत्र मिलितवान् , पृच्छति स परस्परं-किमिहैदानी कर्त्तव्यं ?, दुष्टो राजादेशोऽस्माकमापतितो, राजादेशाकरणे च महाननर्थोपनिपातः, एवं च चिन्तया ब्याकुलीभू-18|१३ -६५|| दीप अनुक्रम [९७ SHEmaa munmurary orm ~294~ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६५|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७...] गाथा ||६२ श्रीमलय- तानां तेषां मध्यन्दिनमागतं, रोहकश्च पितरमन्तरेण न भुते, पिता च ग्राममेलापके मिलितो वर्तते, ततः सौनिकी गिरीया क्षुधा पीडितः पितुः समीपे समागत्य रोदितुं प्रावर्त्तत-पीडितोऽहमतीय क्षुधा, ततः समागच्छ गृहे भोजनायेति, बुद्धिनन्दीवृत्तिः भरतः प्राह-वत्स! मुखितोऽसि वं, न किमपि ग्रामकष्टं जानासि, स प्राह-पितः! किं किं तदिति ?, ततो भरतो दृष्टान्ताः ॥१४६॥ राजादेशं सविस्तरमचीकथत् , ततो निजबुद्धिप्रागल्भ्यवशात् झटिति कार्यस्य साध्यतां परिभाव्य तेनोक्तं-माऽऽकु लीभवत यूयं, खनत शिलाया राज्ञोचितमण्डपनिष्पादनायाधस्तात् सम्भांश्च यथास्थानं निवेशयत भित्तीश्चोपलेपनादिना प्रकारेणातीव रमणीयाः प्रगुणीकुरुत, तत एवमुक्त सर्वैरपि ग्रामप्रधानपुरुषैभव्यमिति प्रतिपन्नं, गतः सर्वोऽपि ग्रामलोकः स्वखगृहे भोजनाय, भुक्त्वा च समागतः शिलाप्रदेशे, प्रारब्धं तत्र कर्म, कतिपयदिनैश्च निष्पादितः परिपूर्णी मण्डपः, कृता च शिला तस्याच्छादनं, निवेदितं च राजे राजनियुक्तैः पुरुषैः-देव! निष्पादितो ग्रामेण देवा-18 देशः, राजा प्राह-कथमिति !, ततस्ते सर्वमपि मण्डपनिष्पादनप्रकारं कथयामासुः, राजा पप्रच्छ-कस्येयं बुद्धिः?, तेऽवादिपुर-देव ! भरतपुत्रस्य रोहक स्य, एषा रोहकस्पोत्पत्तिकी बुद्धिः । एवं सर्वेष्यपि संविधानकेषु योजनीयं, ततो भूयोऽपि राजा रोहकबुद्धिपरीक्षा मेण्ढकमेकं प्रेषितवान् , एवं यावत्पलप्रमाणः सम्प्रति वर्तते पक्षातिक्रमेऽपि | तावत्पलप्रमाण एव समर्पणीयो, न न्यूनो नाप्यधिक इति, तत एवं राजादेशे समागते सति सर्वोऽपि ग्रामो व्याकु- २५ सालीभूतचेता बहिः सभायामेकत्र मिलितवान् , सगौरवमाकारितो रोहका, आभापितश्च ग्रामप्रधानः पुरुषैः-वत्स ! 20- -६५|| 6 - दीप - ॥१४६ अनुक्रम [९७ ~295~ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६५|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॐ45-5- [२७...] गाथा ||६२ प्राचीनमपि दुष्टराजादेशसिन्धुं त्वयैव निजवुद्धिसेतुबन्धेन समुत्तारितः सर्वोऽपि ग्रामः, ततः सम्प्रत्यपि प्रगुणीकुरु | निजबुद्धिसेतुबन्धं येनास्यापि दुष्टराजादेशसिन्धोः पारमधिगच्छाम इति, तत उवाच रोहको-वृकं प्रत्यासन्नं धृत्वा मेण्ढकमेनं यवसदानेन पुष्टीकुरुत, यवसं हि भक्षयनेष न दुर्बलो भविष्यति, वृकं च दृष्ट्वा न बलवृद्धिमाप्स्यतीति, त-14 तस्ते तथैव कृतवन्तः, पक्षातिकमे च तं राज्ञः समर्पयामासुः, तोलने च स तावत्पलप्रमाण एव जातः । ततो भूयोऽपि कतिपयदिनानन्तरं राज्ञा कुर्कुटः प्रेषितः, एष द्वितीयं कुर्कुटं विना योधितव्य इति, एवं सम्प्राप्ते राजादेशे मिलितः सर्वोऽपि ग्रामो बहिः सभायाम् आकारितो रोहकः कथितश्च तस्य राजादेशः, ततो रोहकेणादर्शको महाउप्रमाण आनायितो निमृष्टश्च भूत्या सम्यक, ततो धृतः पुरो राजकर्कटस्य, ततः स राजकुटः प्रतिविम्बमात्मीयमादशेर दृष्ट्वा मत्प्रतिपक्षोऽयमपरः कुर्कुट इति मत्वा साहङ्कारं योढुं प्रवृत्तो, जडचेतसो हि प्रायस्तियञ्चो भवन्ति, एवं चापरकुर्कुटमन्तरेण योधिते राजकुकुंटे विस्मितः सर्वोऽपि ग्रामंलोकः, सम्पादितो राजादेशः, निवेदितं च राज्ञो निजपुरुषैः। ततो भूयोऽपि कतिपयदिवसातिक्रमे राजा निजादेशं प्रेषितवान-युष्मद्वामस्य सर्वतः समीपे अतीव रमणीया वालुका विद्यन्ते, ततः स्थूला वालुकामयाः कतिपये दवरकाः कृत्वा शीघ्रं प्रेषणीया इति, एवं राजादेशे समागते मिलितः सर्वोऽपि बहिः सभायां ग्रामः पृष्टश्च रोहकः, ततो रोहकेण प्रत्युत्तरमदायि-नटा वयं, ततो नृत्तमेव ययं कतु जानीमो कान दवरकादि, राजादेशश्चावश्य कर्तव्यः, ततो बृहद्राजकुलमिति चिरन्तना अपि कतिचिद्वालुकामया दवरका 164%95 -६५|| दीप अनुक्रम [९७ ~296~ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६५|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीमलय- [२७...] ॥१४७॥ गाथा ||६२ भविष्यन्तीति तन्मध्यादेकः कश्चित् प्रतिच्छन्दभूतः प्रेषणीयो येन तदनुसारेण वयमपि वालुकामयान् दवरकान् कुर्मा इति, ततो निवेदितमेतद्राक्षे नियुक्तपुरुषैः, राजा च निरुत्तरीकृतस्तूष्णीमास्ते । ततः पुनरपि कतिचिदिनानन्तरं बुद्धि दृष्टान्ताः जीर्णहस्ती रोगग्रस्तो मुमूर्षुग्रामे राजा प्रेपितो, यथाऽयं हस्ती मृत इति न निवेदनीयो, अथ च प्रतिदिवसमस्य बातों कथनीया, अकथने महान् ग्रामस्य दण्डः, एवं च राजादेशे समागते तथैव मिलितः सर्वोऽपि बहिः सभायां ग्रामः, पृष्टश्च रोहकः, ततो रोहकेणोक्तं-दीयतामसी यवसः पश्चाद् यद्भविष्यति तत्करिष्यामि, ततो रोहकादेशेन दत्तो४ यवसस्तस्मै, रात्री च स हस्ती पञ्चत्वमुपागमत् , ततो रोहकवचनतो ग्रामेण गत्वा राजे निवेदितं-देव! अद्य हस्ती न निषीदति नोत्तिष्ठति न कवलं गृह्णाति नापि नीहारं करोति नाप्युच्छ्रासनिश्वासी विदधाति, किंबहुना ?, देव !| कामपि सचेतनचेष्टां न करोति, ततो राज्ञा भणितं- किरे मृतो हस्ती ?, ततो ग्राम आह-देव ! देवपादा एवं| ब्रुवते, न बयमिति, तत एवमुक्ते राजा मौनमाधाय स्थितः, आगतो ग्रामलोकः खग्रामे । ततो भूयोऽपि कतिपय|दिनातिक्रमे राजा समादिष्टयान्---अस्ति यौष्माकीणे ग्रामे सुखादुजलसम्पूर्णः कूपः, स इह सत्वरं प्रेषितव्यः, तत] ४ ॥१४७॥ एवमादिष्टो ग्रामो रोहकं पृष्टवान्, रोहकचोवाच-एप प्रामेयकः कृपो, ग्रामेयकश्च स्वभावाद्भीरुर्भवति न च सजा तीयमन्तरेण विश्वासमुपगच्छति, ततो नागरिकः कश्चिदेकः कृपः प्रेष्यतां येन तत्रैप विश्वस्य तेन सह समागच्छतीति, पा२५ Pएवं निरुत्तरीकृत्य मुत्कलिता राजनियुक्ताः पुरुषाः, तैश्च राज्ञो निवेदितं, राजा खचेतसि रोहकस्य वुद्ध्यतिशयं प -६५|| 0 -0-5 - दीप अनुक्रम [९७ Ki ~297~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६५|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक आत्यातकी धान्ताः [२७...] गाथा ||६२ रिभाब्य मौनमवलम्ब्य स्थितः । ततो भूयोऽपि कतिपयवासरातिक्रमेऽभिहितवान्-वनखण्डो ग्रामस्य पूर्वस्यां दिशि । वर्तमानः पश्चिमायां दिशि कर्त्तव्य इति, अस्मिन्नपि राजादेशे समागते ग्रामो रोहकबुद्धिमुपजीव्य वनखण्डस्य पूबस्यां दिशि व्यवतिष्ठत, ततो जातो ग्रामस्य पश्चिमायां दिशि वनखण्डः, निवेदितं राज्ञो राजनियुक्तः पुरुषैः । ततः पुनरपि कालान्तरे राजा आदिष्टवान्-वह्निसम्पर्कमन्तरेण पायसं पक्तव्यमिति, तत्रापि सर्वो ग्राम एकत्र मिलित्वा |रोहकमपृच्छत् , रोहकश्वोक्तवान्-तन्दुलानतीव जलेन भिन्नान् कृत्वा दिनकरकरनिकरसन्तप्तकरीपपलालादीनामू मणि तन्दुलपयोभृता स्थाली निवेश्यतां येन परमानं सम्पद्यते, तथैव कृतं, जातं परमानं, निवेदितं राज्ञो, विस्मिता |तस्य चेतः । ततो राज्ञा रोहकस्य बुद्ध्यतिशयमवगम्य तदाकारणाय समादिष्टं-येन बालकेन ममादेशाः सर्वेऽपि प्रायः खबुद्धिवशात् सम्पादिताः तेन चावश्यमागन्तव्यं, परं न शुक्लपक्षे नापि कृष्णपक्षे न रात्रौ न दिया न छायायां नाप्यातपेन नाकाशेन नापि पादाभ्याम् न पथा नाप्युत्पधेन न स्नातेन नामातेन, तत एवमादिष्टे स रोहकः कण्ठलाना कृत्वा गत्रीचक्रस्य मध्यभूमिभागेन ऊरणमारूढो धृतचालनीरूपातपत्रः सन्ध्यासमयेऽमावास्याप्रतिपत्सङ्गमे नरेन्द्र-४|१० पार्थमगमत् , स च 'रिक्तहस्तो न पश्येञ्च, राजानं देवतां गुरु'मिति लोकश्रुतिं परिभाब्य पृथिवीपिण्डमेकमादाय गतः, प्रणतो राजा, मुक्तश्च तत्पुरतः पृथिवीपिण्डः, ततः स पृष्टो राज्ञा रोहकः-रे रोहक ! किमेतत् ?, रोहकोऽयादीत्-देव ! देवपादाः पृथिवीपतयस्ततो मया पृथिवी समानीता, श्रुत्वा चेदं प्रथमदर्शने मङ्गलवचस्तुतोष राजा, मु- १३ -६५|| GUSAROKAR दीप अनुक्रम [९७ SAREaninmlamarana ~298~ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६५|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७...] गाथा ||६२ श्रीमलय- कलितः शेषो ग्रामलोकः, रोहकः पुनरात्मपार्थे शायितः, गते च यामिन्याः प्रथमयामे रोहकः शब्दितो राज्ञा- औपत्तिकी गिरीया जागर्षि किंवा स्वपिषि ?, स प्राह-देव ! जागर्मि, रे तर्हि किं चिन्तयसि ?, स प्राह-देव! अश्वत्थपत्राणां किं दण्डो बुद्धिनन्दीधृत्तिः । महान् उत शिखेति ?, तत एवमुक्ते राजा संशयमापन्नो वदति-साधु चिन्तितं, कोऽत्र निर्णयः, ततो राजा तमेवी दृष्टान्ता ॥१४॥ पृष्टवान्-रे कथय कोऽत्र निर्णय इति ?, तेनोक्तं-देव ! यावदद्यापि शिखाग्रभागो न शोषमुपयाति तावद्वे अपि समे,8 ततोराज्ञा पार्थवर्ती लोकः पृष्टः, तेन च सर्वेणाप्यविगानतः प्रतिपन्नं । ततः भूयोऽपि रोहकः सुप्तवान् , पुनरपि द्विदीतीये यामेऽपगते राज्ञा शब्दितः पृष्टश्च-किं रे जागर्पि किंवा खपिपि?, स प्राह-देव ! जागम्मि, रे किं चिन्तयसि?, देव ! छागिकाया उदरे कथं भ्रम्युत्तीर्णा इव वालगुलिका जायन्ते , तत एवमुक्ते राजा संशयापनस्तमेव पृष्टवान्कथय रे रोहक ! कथमिति ?, स प्राह-देव ! संवर्तकाभिधवातविशेषात् । ततः पुनरपि रोहकः सुष्पाप, तृतीये ची रजन्या यामेऽपगते भूयोऽपि राज्ञा शब्दितः-कि रे जागर्षि किं वा खपिपि ?, सोऽवादीत्-देव! जागर्मि, कि रे चिन्तयसि ?, देव ! पाडहिलाजीवस्य यावन्मानं शरीरं तावन्मात्रं पुच्छमुत न्यूनाधिकमिति ?, तत एवमुक्ते राजा 21 |निर्णयं कर्तुमशक्तस्तमेवापृच्छत्-कोऽत्र निर्णयः?, सोऽवादीद्-देव ! सममिति । ततो रोहकः सुप्तः, प्राभातिके[81 च मङ्गलपटहनिस्वने सर्वत्र प्रसरमधिरोहति राजा प्रबोधमुपजगाम, शब्दितवांश्च रोहक, स च निद्राभरमुपारुढो न प्रतिवाचं दत्तवान् , ततो राजा लीलाकम्बिकया मनाक तं स्पृष्टवान् , ततः सोऽपगतनिद्रो जातः, पृष्टश्च किं रे मा २० -६५|| दीप अनुक्रम [९७ ~299~ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................................... मूलं [२७]/गाथा ||६५|| ............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक औत्पतिकी [२७...] | दृष्टान्ता गाथा ||६२-६५|| ANSLCESS खपिपि ?, स प्राह-देय ! जागर्मि, किरे तर्हि कुर्वस्तिष्ठसि ?, देव ! चिन्तयन् , किं चिन्तयसि ?, देव! एत वि-1 न्तयामि कतिभिर्जातो देव इति, तत एवमुक्ते राजा सब्रीडं मनाक तूष्णीमतिष्ठत् , ततः क्षणानन्तरं पृष्टवान्-कथय रे कतिभिरहं जात इति?, स प्राह-देव! पञ्चभिः, राजा भूयोऽपि पृष्टवान्-केन केनेति ?, रोहक आह-देव! एकेन तावद्वैश्रवणेन, वैश्रवणस्येव भवतो दानशक्तिदर्शनात् , द्वितीयेन चाण्डालेन, पैरिसमूहं प्रति चाण्डालस्येव कोपदर्शनात्, तृतीयेन रजकेन, यतो रजक इव वस्त्रं परं निष्पीड्य तस्य सर्वस्वमुपहरन् दृश्यते, चतुर्थेन वृश्चिकेन, यन्मामपि वालकं निद्राभरसुप्तं लीलाकम्बिकाग्रेण वृश्चिक इव निर्दयं तुदसि, पञ्चमेन निजपित्रा, येन यथावस्थितं न्यायं सम्यक् परिपालयसि, एवमुक्ते राजा तूष्णीमास्थाय प्राभातिकं कृत्यमकार्षीत् , जननी च नमस्कृत्यैकान्ते पृष्टवान् कथय मातः! कतिभिरहं जात इति ?, सा पाह-वत्स! किमेतत् प्रष्टव्यं?, निजपित्रा त्वं जातः, ततो राजा रोह कोक्तं कथितवान् , वदति च-मातः! सरोहकः प्रायोऽलीकबुद्धिन भवति ततः कथय सम्यक् तत्वमिति, तत एवमतिनिर्बन्धे कृते सति सा कथयामास-यदा त्वद्गर्भाधानमासीत् तदाऽहं बहिरुधाने वैश्रवणपूजनाय गतवती, वैश्रवणं च यक्षमतिशायिरूपं दृष्ट्वा हस्तसंस्पर्शेन सजातमन्मथोन्मादा भोगाय तं स्पृहितवती, अपान्तराले च समागच्छन्ती चण्डालयुयानमेकमतिरूपमपश्यं, ततस्तमपि भोगाय स्पृहयामि स्म, तसोऽक्तिने भागे समागच्छन्ती तथैव च रजकं |दृष्ट्वाऽभिलषितवती, ततो गृहमागता सती तथाविधोत्सवक्शादृश्चिकं कणिकामयं भक्षणाय हस्ते न्यस्तवती, ततस्त SAGES दीप अनुक्रम 56-4- [९७ SAX 15 JINEucatun.intamatund FO ~300~ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६५|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७...] गाथा ||६२ संस्पर्शतो जातकामोद्रेका तमपि भोगायाशंसितवती, तत एवं यदि स्पृहामात्रेण तेऽपि पितरः सम्भवन्ति तन्नोत्पत्तिकी गिरीया जाने, परमार्थतः पुनरेक एव ते पिता सकलजगत्प्रसिद्ध इति, तत एवमुक्ते राजा जननीं प्रणम्य रोहकवुद्धिविनन्दाष्टात्तस्मितचेताः खावासप्रासादमगमत् , रोहकं च सर्वेषां मत्रिणां मूर्धाभिषिक्तं मत्रिणमकापीत् १॥ तदेवं 'भरहसिलेति' दृष्टान्ताः ॥१४९।। व्याख्यातं । सम्प्रति पणियंति व्याख्यायते-द्वौ पुरुषी-एको ग्रामेयकोऽपरो नागरिकः, तत्र ग्रामेयकः खग्रामाच्चि भटिका आनयन् प्रतोलीद्वारे वर्तते, तं प्रति नागरिकः प्राह-योताः सर्वा अपि तव चिर्भटिका भक्षयामि ततः किं मे प्रयच्छसीति ?, ग्रामेयकः प्राह-योऽनेन प्रतोलीद्वारेण मोदको न याति तं प्रयच्छामि, ततो बद्धं द्वाभ्यामपि पणितं, कृताः साक्षिणो जनाः, ततो नागरिकेण ताः सर्वा अपि चिर्भटिका मनाक २ भक्षयित्वा मुक्ताः, उक्तं चामेयकं प्रति-भक्षिताः सर्वा अपि त्वदीयाश्चिर्भटिकाः, ततः प्रयच्छ मे यथाप्रतिज्ञातं मोदकमिति, ग्रामेयक दआह-न मे चिर्भटिका भक्षिताः, ततः कथं ते प्रयच्छामि मोदकमिति ?, नागरिकः प्राह-भक्षिता मया सर्वा अपि तव चिर्भटिकाः, यदि न प्रत्येषि तर्हि प्रत्ययमुत्पादयामि ते, तेनोक्तम्-उत्पादय प्रत्ययं, ततो द्वाभ्यामपि वि-18 पणिवीथ्यां विस्तारिता विक्रयाय चिर्भटिकाः, समागतो लोकः क्रयाय, ताश्च चिटिका निरीक्ष्य लोको बक्ति-ननु भक्षितास्त्वदीयाः सर्वा अपि चिर्भटिकास्तत्कथं वयं गृहीमः १, एवं च लोकेनोके साक्षिणां ग्रामेयकस्य च प्रतीतिरुदिपादि, क्षुभितो ग्रामेयक:-हा कथं नु नाम मया तावत्प्रमाणो मोदको दातव्यः?, ततः स भयेन कम्पमानो विन -६५|| दीप अनुक्रम [९७ २५ ~ 301~ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६५|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७...] गाथा ||६२ यनम्रो रूपकमेकं प्रयच्छति, नागरिको नेच्छति, ततो वे रूपके दातुं प्रवृत्तः तथापि नेच्छति, एवं यावत शतमपिओत्पत्ति की रूपकाणां नेच्छति, ततस्तेन ग्रामेयकेण चिन्तितं, हस्सी हस्तिना प्रेयते, ततो धूर्त एप नागरिको वचनेन मां छलित-12 दि दृष्टान्ताः वान् नापरनागरिकधूर्तमन्तरेण पश्चात्कर्तुं शक्यते, इत्यनेन सह कतिपयदिनानि व्यवस्थां कृत्वा नागरिकधूर्तानवलगामि, तथैव कृतवान् , दत्ता चैकेन नागरिकधूर्तेन तस्मै बुद्धिः, ततस्तद्बुद्धिवलेनापूपिकापणे मोदकमेकमादाय प्रतिद्वन्द्विनं धूर्णमाकारितवान् , साक्षिणश्च सर्वेऽप्याकारिताः, ततस्तेन सर्वसाक्षिसमक्षमिन्द्रकीलके मोदकोऽस्था- ५ प्यत, भणितश्च मोदको-याहि २ मोदक!, स न प्रयाति, ततस्तेन साक्षिणोऽधिकृयोक्तं-मयैवं युष्मत्समक्षं प्रति-131 ज्ञात-यवहं जितो भविष्यामि तर्हि स मोदको मया दातव्यो यः प्रतोलीद्वारेण न निर्गच्छति, एपोऽपि न याति, तदस्मादहं मुत्कल इति, एतच साक्षिभिरन्यैश्च पावर्तिभिर्नागरिकैः प्रतिपन्नमिति प्रतिजितः प्रतिद्वंद्वी धूर्तः यूंतकारः, नागरिकधूर्तस्योत्पत्तिकी बुद्धिः२। 'रुखे त्ति' वृक्षोदाहरणं, तद्भावना-कचित्पथिकानां सहकारफलान्यादातुं प्रवृत्तानामन्तरायं मर्कटका विदधते, ततः पथिकाः स्वबुद्धिवशाद्वस्तुतत्वं पर्यालोच्य मर्कटानां सम्मुखं लोष्टकान् प्रे-४१ पयामासुः, ततो रोषाबद्धचेतसो मर्कटाः पथिकानां सम्मुखं सहकारफलानि प्रचिक्षिपुः, पथिकानामौत्पत्तिकी बुद्धिः३। तथा 'खुड्डग'त्ति अङ्गुलीयकाभरणं, तदुदाहरणभावना-राजगृह नगरं, तत्र रिपुसमूहविजेता राजा प्रसेनजित्, भूयांसस्तस्य सूनवः, तेषां च सर्वेषामपि मध्ये श्रेणिको राज्ञा नृपलक्षणसम्पन्नः स्वचेतसि परिभावितः, अतार 501 -६५|| AKADCAMERASACCESS दीप अनुक्रम [९७ ~302~ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [२७...] गाथा ||६२ -६५|| दीप अनुक्रम [९७ -१००] श्रीमलय गिरीया नन्दीवृत्तिः ॥ १५० ॥ “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [२७] / गाथा || ६५ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ****** एव च तस्मै न किश्चिदपि ददाति, नापि वचसाऽपि संस्पृशति मा शेषैरेव परासुर्विधीयेतेति बुद्ध्या, स च किञ्चिदप्यलभमानो मन्युभरवशात् प्रस्थितो देशान्तरं जगाम क्रमेण बेनातटं नगरं, तत्र च क्षीणविभवस्य श्रेष्ठिनो विपण समुपविष्टः तेन च श्रेष्ठिना तस्यामेव रात्री स्पने रत्नाकरो निजदुहितरं परिणयन् दृष्ट आसीत्, तस्य च श्रेणिकपुण्यप्रभावतस्तस्मिन् दिवसे चिरसंचितप्रभूतक्रयाणकविक्रयेण महान् लाभः समुदपादि, म्लेच्छहस्ताच्चानर्थ्याणि म हारतानि खल्पमूल्येन समपद्यन्त ततः सोऽचिन्तयत् - अस्य महात्मनो मम समीपमुपविष्टस्य पुण्यप्रभाव एष यत् मया महती विभूतिरेतावती समासादिता, आकृतिं च तस्यातीव सुमनोहरा मवलोक्य स्वचेतसि कल्पयामास स एष रत्नाकरो यो मया रात्री स्वप्ने दृष्टः, ततस्तेन कृतकराञ्जलीसम्पुटेन विनयपुरस्सरमाभापितः श्रेणिकः कस्य यूयं प्रांधूर्णकाः ?, श्रेणिक उवाच - भवतामिति, ततः स एवंभूतवचनश्रवणतो धाराहतकदम्बपुष्पमिव पुलकित समस्ततनुयष्टिः सबहुमानं स्वगृहं नीतवान् श्रेणिकं भोजनादिकं च सकलमप्यात्मनोऽधिकतरं सम्पादयामास पुण्यप्रभावं च तस्य प्रतिदिवसमात्मनो धनलाभवृद्धिसम्भवेनासाधारणमभिसमीक्षमाणः कतिपयदिनातिक्रमे तस्मै खदुहितरं नन्दानामानं (श्री) दत्तवान् श्रेणिकोऽपि तथा सह पुरन्दर इव पौलोम्या मन्मथमनोरथानापूरयन् पञ्चविधभोगलालसो हूँ ॥ १५०॥ बभूव, कतिपयवासरातिक्रमे च नन्दाया गर्भाधानं वभूव इतश्च प्रसेनजित् खान्तसमयं विभाव्य श्रेणिकस्य परम्परया वार्त्तामधिगम्य तदाकारणाय सत्वरमुवाहनान् पुरुषान् प्रेषयामास ते च समागत्य श्रेणिकं विज्ञसव २५ Education Internation For Parts Only ~303~ औत्पत्तिकी बुद्धिदृष्टान्ताः २० Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६५|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत -* R सूत्रांक [२७...] गाथा ||६२ SA-% न्तो-देव ! शीघ्र समागम्यतां, देवः सत्वरमाकारयति, ततो नन्दामापनसत्त्वामापृच्छय 'अम्हे रायगिहि पंडरकुहा औत्पत्तिगोवाला जइ अम्हेहिं कजं तो एजह'त्ति एतद्वाक्यं कचिल्लिखित्वा श्रेणिको राजगृहं प्रति चलितवान् , नन्दायाश्चयां मुद्रिदेवलोकच्युतमहानुभावगर्भसत्त्वप्रभावतः एवं दौहृदमुदपादि-यदहं यदि प्रवरकुञ्जरमधिरूढा निखिलजनेभ्यो ध- कायामभय कथा नदानपुरस्सरमभयदानं करोमीति, पिता च तदित्यम्भूतं दौड्दमुत्पन्नं ज्ञात्वा राजानं विज्ञप्य पूरितवान् , कालक्रकामेण च प्रवृत्ते प्रसवसमये प्रातरादित्यविम्बमिव दश दिशः प्रकाशयन्नजायत परमसूनुः, तस्य च दोहदानुसारेणाभया इति नाम चक्रे, सोऽपि चाभयकुमारो नन्दनवनान्तर्गतकल्पपादप इव तत्र सुखेन परिवद्धते, शास्त्रग्रहणादिकमपि यथाकालं कृतवान् । अन्यदा च खमातरं पप्रच्छ-मातः! कथं मे पिताऽभूदिति ?, ततः सा कथयामास मूलत आरभ्य सर्व यथावस्थितं वृत्तातं, दर्शयामास च लिखितान्यक्षराणि, ततो मातृवचनतात्पयनिगमतो लिखिताक्षरार्थावगमतश्च ज्ञातमभयकुमारण-यथा मे पिता राजगृहे राजा वर्तते इति, एवं च ज्ञात्वा मातरमभाणीत्-वजामो राज-181 गृह साधन सह चयमिति, सा प्रत्यवादीत-वत्स! यद्भणसि तत्करोमीति, ततोऽभयकुमारः खमात्रा सह सार्थेन ||१. सम चलितः, प्राप्तो राजगृहस्य बहिःप्रदेशं ततोऽभयकमारः तत्र मातरं विमुच्य किं वत्तेते सम्प्रति पुरे? कथं वा * राजा दर्शनीय ? इति विचिन्त्य राजगृहपुरं प्रविष्टः, तत्र च पुरप्रवेश एवं निर्जलकूपतटे समन्ततो लोकः समुदायेनावतिष्ठते, पृष्टं चाभयकुमारेण-किमित्येष लोकमेलापका?, ततो लोकेनो-कूपस्य मध्ये राज्ञोऽगुल्याभरणमास्ते, १३ -६५|| दीप अनुक्रम [९७ weredturarycom ~ 304~ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६५|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७...] श्रीमलय- गिरीया । नन्दीवृत्तिः ॥१५१॥ गाथा ||६२ तयो नाम तटे स्थितः स्वहस्तेन गृहाति तस्मै राजा महतीं वृत्तिं प्रयच्छतीति, तत एवं श्रुते पृष्टाः प्रत्यासनवर्तिनोऔत्पत्तिराजनियुक्ताः पुरुषाः, तैरप्येवमेव कथितं, ततोऽभयकुमारेणोक्तम्-अहं तटे स्थितो ग्रहीयामि, राजनियुक्तः पुरुपैरुक्तं- क्या गृहाण त्वं, यत्प्रतिज्ञातं राज्ञा तदवश्यं करिष्यते, ततोऽभयकुमारेण परिभावितमङ्गुल्याभरणं दृष्ट्या सम्यक, तत| कायामभयआगोमयेनाहतं, संलग्नं तत्तत्र, ततस्तस्मिन् शुष्क मुक्तं कूपान्तरात् पानीयं, भृतो जलेन, परिपूर्णः स कृपः, तरति] चोपरि सानुल्याभरणः शुष्कगोमयः, ततस्तटस्थेन सता गृहीतमङ्गुल्याभरणमभयकुमारेण, कृतश्चानन्दकोलाहलो लोकेन, निवेदितं राज्ञो राजनियुक्तैः पुरुषैः, आकारितोऽभयकुमारो राज्ञा, गतो राज्ञः समीपं, मुमोच पुरतोऽङ्गुल्याभरणं, पृष्टश्च राज्ञा-वत्स! कोऽसि त्वं?, अभयकुमारेणोक्तं-देव! युष्मदपत्यं, राजा प्राह-कथं?, ततः प्राक्तनं वृत्तान्तं कथितवान् , ततो जगाम महाप्रमोदं राजा, चकारोत्सङ्गेऽभयकुमारं, चुम्बितवान् सलेहं शिरसि, पृष्टश्च श्रेणिकेनाभयकुमारो-वत्स! क ते माता वर्तते ?, तेनोक्तं-देव! बहिःप्रदेशे, ततो राजा सपरिच्छदस्तस्याः सम्मुखमुपागमत् , अभयकुमारश्चाने समागत्य कथयामास सर्व नन्दायाः, ततः साऽऽत्मानं मण्डयितुं प्रवृत्ता, निषिद्धा चाभयकुमारेण-IP॥१५॥ मातर्न कल्पते कुलस्त्रीणां निजपतिविरहितानां निजपतिदर्शनमन्तरेण भूषणं कर्तुमिति, समागतो राजा, पपात, | राज्ञः पादयोः नन्दा, सन्मानिता च भूषणादिप्रदानेनातीय राज्ञा, सस्नेहं प्रवेशिता महाविभूत्या नगरं सपुत्रा, स्थापि-12२५ तश्चाभयकुमारोऽमात्यपदे । अभयकुमारस्पौत्पत्तिकी बुद्धिः४। तथा 'पड'त्ति पटोदाहरणं, तद्भावना-द्वी पुरुषो, एक का२० -६५|| दीप अनुक्रम [९७ ~305~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६५|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७...] गाथा ॥६२ स्वाच्छादनपटः सौत्रिकः अपरसोर्णामयः, तौ च सह गत्या युगपत् खातुं प्रवृत्तौ, तत्रोपर्णामयपटखामी खपटं वि- औत्पतिमुच्य द्वितीयस्य सत्कं सौत्रिकं पटं गृहीत्वा गन्तुं प्रस्थितो, द्वितीयो याचते खपटं, स न प्रयच्छति, ततो राजकुले 8 सरटकाकव्यवहारो जातः, ततः कारणिकडूयोरपि शिरसी कङ्कतिकयाऽबलेखिते, ततोऽवलेखने कृते उर्णामयपटवामिनः कथा शिरसि उर्णावयवा निर्जग्मुः, ततो ज्ञातं-नूनमेष न सौत्रिकपटस्थ खामीति निगृहीतः, परस्य समर्पितः सौत्रिका पटः । कारणिकानामौत्पत्तिकी बुद्धिः ५। 'सरड'त्ति सरटोदाहरणं, तद्भावना-कस्यचित्पुरुषस्य पुरीषमुत्सृजतः सरटो गुदस्वाधस्ताद्विलं प्रविशन् पुच्छेन गुदं स्पृष्टवान् , ततस्तस्यैवमजायत शङ्का-नूनमुदरे मे सरटः प्रविष्टः, ततो गृहं गतो महतीमधृति कुर्वन्नतीव दुर्बलो बभूव, वैद्यं च प्रपच्छ, वैद्यश्च ज्ञातवान् , असम्भवमेतत्, केवलमस्य कथञ्चिदाशङ्का समुदपादि, ततः सोऽवादीत्-यदि मे शतं रूपकाणां प्रयच्छसि ततोऽहं त्वां निराकुलीकरोमि, तेन प्रतिपन्नं, ततो। वैद्यो विरेचकौषधं तस्य प्रदाय लाक्षारसखरण्टितं सरटं घटे प्रक्षिप्य तस्मिन् घटे पुरीपोत्सर्ग कारितवान् , ततो दर्शितो वैद्येन तस्य पुरीषखरण्टितो घटे सरटो, व्यपगता तस्य शङ्का, जातो बलिष्ठशरीरः । वैद्यस्योत्पत्तिकी बुद्धिः६। १० 'काय'त्ति काकोदाहरणं, तद्भावना-वेनातटपुरे केनापि सौगतेन कोऽपि वेतपटक्षुलकः पृष्टो-भोः क्षुल्लक ! सज्ञाः किल तवाहन्तः तत्पुत्रकाश्च यूयं तत् कथय-कियन्तोऽत्र पुरे वसन्ति वायसाः, ततः क्षुल्लकश्चिन्तया- १२ RECOR -६५|| दीप अनुक्रम [९७ SAREEOHAmarana mimarary.org ~306~ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६५|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७...] औत्पत्ति| क्यासुचार कथा गाथा ||६२ श्रीमलय- मास-शठोऽयं प्रतिशठाचरणेन निर्लोठनीयः, ततः खबुद्धिवशादिदं पठितवान्-"सर्द्धि कागसहस्सा इह (य) विनायडे । गिरीया परिवसंति । जइ ऊणगा पवसिया अब्भहिया पाहुणा आया ॥१॥" ततः स भिक्षुः प्रत्युत्तरं दातुमशक्नुवन् लकुटानन्दीतिःहतशिरस्क इव शिरः कण्डूयन् मौनमाधाय गतः। धुलकस्योत्पत्तिकी बुद्धिः । अथवा अपरो वायसदृष्टान्तः-कोऽपि ॥१५॥ क्षुलकः केनापि भागवतेन दुष्टबुया पृष्टो-भोः क्षुलक! किमेष काको विष्ठामितस्ततो विक्षिपति ?, क्षुलकोऽपि तस्व दुष्टबुद्धितामवगम्य तन्मावित् प्रत्युत्तरं दत्तवान्-युष्मसिद्धान्ते जले स्थले च सर्वत्र व्यापी विष्णुरभ्युपगम्यते, ततो यौष्माकीणं सिद्धान्तमुपश्रुत्य एषोऽपि वायसोऽचिन्तयत्-किमस्मिन् पुरीपे समस्ति विष्णुः किं वा नेति ?, ततः स ए|वमुक्तो बाणाहतमर्मप्रदेश इव चूर्णितचेतसो मौनमवलम्ब्य रुपा धूमायमानो गतः । पुलकस्योत्पत्तिकी बुद्धिः 'उच्चारे'त्ति उच्चारोदाहरणं, तद्भावना-कचित् पुरि कोऽपि धिग्जातीयः, तस्य भार्याऽभिनवयौवनोद्रेदरमणीपा लोचनयुगलवक्रिमावलोकनमहाभलीनिपातताडितसकलकामिकुराहदया प्रयलकामोन्मत्तमानसा, सोऽन्यदा धिगजातीयस्तया भायेंया सह देशान्तरं गन्तुं प्रवृत्तः, अपान्तराले च धूर्तः कोऽपि पथिको मिलितः, सा च धिग्रजातीपभायों तस्मिन् रांत बद्धवती, ततो धूर्तः प्राह-पदीया एपा भार्या, धिरजातीयः प्राह-मदीयेति, ततो राजकुले व्यवहारो जातः कारणिकद्वेयोरपि पृथक् २ बस्तनदिने भुक्त आहारः पृष्टो, धिगृजातीयेनोक-मया बस्तनदिने तिलमोदका भक्षिता -६५|| दीप ॥१॥ अनुक्रम [९७ पहिः काकसहनाणि पद मातटे परिवसन्ति । यधूनाः प्रोषिता अभ्यधिकाः प्रापूर्णका आयाताः ॥७॥ ~307~ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६५|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत PRE सूत्रांक औत्पत्तिक्यांगजघृतन [२७...] K ARWARE दृष्टान्तो - गाथा 5 ||६२ 5 अमद्भार्यया च, धूर्तनान्यत्किमप्युक्तं, ततो दत्तं तस्याः कारणिकविरेकौषधं, जातो विरेको, दृष्टाः पुरीपान्तर्गतास्तिलाः, दत्ता सा धिगजातीयाय, निर्धाटितो धूर्तः। कारणिकानामौत्पत्तिकी बुद्धिः ८। 'गय'त्ति गजोदाहरणं, तद्भावनावसन्तपुरे नगरे कोऽपि राजा बुद्ध्यतिशयसम्पन्नं मत्रिणमेकमन्वेषमाणश्चतुष्पथे हस्तिनमालानस्तम्भे बन्धयित्वा घोषणामचीकरत्-योऽमुं हस्तिनं तोलयति तस्मै राजा महतीं वृत्तिं प्रयच्छतीति, इमां च घोषणां श्रुत्वा कश्चिदेकः पुमान् तं हस्तिनं महासरसि नावमारोहयामास, आस्मिंश्वारूढे यावत्प्रमाणा नौजले निममा तावत्प्रमाणां रेखामदात् , ततः समुत्तारितो हस्ती तटे, प्रक्षिप्सा गण्डशैलकल्पा नावि प्रावाणः, ते च तावत्प्रक्षिप्ता यावरेखां मर्यादीकृत्य जले निमग्ना नौः, ततस्तोलिताः सर्वे ते पाषाणाः, कृतमेकत्र पलप्रमाणं निवेदितं च राजे-देव! एतावत्पलामाणो हस्ती वत्तेते, ततस्तुतोष राजा, कृतो मन्त्रिमण्डलमूर्दाभिषिक्तः परममन्त्री । तस्वीत्पत्तिकी बुद्धिः९। 'घयणत्ति' भाण्डः, तदुदाहरणं-विटो नाम कोऽपि पुरुषो राज्ञः प्रत्यासन्नवी, तं प्रति राजा निजदेवी प्रशंसति-अहो निरामया मे देवी या न कदाचिदपि बातनिसर्ग विदधाति, विटः प्राह-देव! न भवतीदं जातुचित्, राजाऽवादीतकथं ?, विट आह-देव ! धूर्त्ता देवी, ततो यदा सुगन्धीनि पुष्पाणि चूर्णयित्वा वासान समप्यति नासिकाने तदा ज्ञातव्यं-बातं विमुञ्चतीति, ततोऽन्यदा राजा तथैव परिभावितं, सम्यगवगते च हसितं, ततो देवी हसननिमित्त| कथनाय निवन्धं कृतवती, ततो राजाऽतिनिर्वन्धे कृते पूर्ववृत्तान्तमचीकथत् , ततधुकोप देवी तस्मै विटाय, आज्ञप्तो -६५|| दीप अनुक्रम [९७ SEX १३ munmurary.om ~ 308~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [२७...] ******* गाथा ||६२ -६५|| दीप अनुक्रम [९७ -१००] श्रीमलय गिरीया नन्दीवृत्तिः ॥१५३॥ Educator “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [२७] / गाथा || ६५ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ****** देशत्यागेन, तेनापि जज्ञे नूनमकथयत् पूर्ववृत्तान्तं देवो देव्याः, तेन मे चुकोप देवी, ततो महान्तमुपानहां भरमादाय गतो देवीसकाशं, विज्ञपयामास देव-देवि ! यामो देशान्तराणि, देवी उपानहां भरं पार्श्वे स्थितं दृष्ट्वा पृष्टवती-रे किमेष उपानहाम्भरः १, सोऽवादीत् - देवि ! यावन्ति देशान्तराण्येतायतीभिरुपानद्भिर्गन्तुं शक्ष्यामि तावत्सु देव्याः कीर्त्तिर्निस्तारणीया, तत एवमुक्ते मा मे सर्वत्रापकीर्तिर्जायेतेति परिभाव्य देवी बलात्तं धारयामास । बिटस्यौत्पत्तिकी बुद्धिः १० | 'गोलो'त्ति गोलकोदाहरणं, तद्भावना - लाक्षागोलकः कस्यापि चालकस्य कथमपि नासिकामध्ये प्रविष्टः, ततस्तन्मातापितरावतीवार्तां बभूवतुः, दर्शितो बालकः सुवर्णकारस्य, तेन सुवर्णकारेण प्रतप्ताग्रभागया लोहशलाकया शनैः शनैर्यलतो लाक्षागोलको मनाक् प्रताप्य सर्वोऽपि समाकृष्टः । सुवर्णकारस्योत्पत्तिकी बुद्धिः ११ । 'खंभ' २० ति स्तम्भोदाहरणं, तद्भावना - राजा मत्रिणमेकं गवेषयन् महाविस्तीर्णतटाकमध्ये स्तम्भमेकं निक्षेपयामास तत ४ एवं घोषणां कारितवान्न्यो नाम तटे स्थितोऽमुं स्तम्भं दवरकेण बध्नाति तस्मै राजा शतसहस्रं प्रयच्छतीति तत एवं घोषणां श्रुत्वा कोऽपि पुमान् एकस्मिन् तटप्रदेशे कीलकं भूमौ निक्षिप्य दवरकेण बद्धा तेन दवरकेण सह सर्वतस्तटे परिभ्रमन् मध्यस्थितं तं स्तम्भं बद्धवान्, लोकेन च बुद्ध्यतिशयसम्पन्नतया प्रशंसितो, निवेदितश्च राज्ञो राजनियुक्तैः पुरुषैः, तुतोष राजा, ततस्तं मत्रिणमकार्षीत् । तस्य पुरुषस्योत्पत्तिकी बुद्धिः १२ । 'खुल्लक'चि क्षुलकोदाहरणं, तद्भावना - कस्मिंश्चित्पुरे काचित् परिव्राजिका, सा यो यत्करोति तदहं कुशलकर्मा सबै करोमीति राज्ञः समक्षं प्रतिज्ञां For Pale Only ~309~ औत्पत्तिक्यां गोल स्तम्भ क्षुल्लक दृष्टान्ताः ॥१५३॥ २५ २६ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६५|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७...] दृष्टान्तः गाथा ||६२ कृतवती, राजा च तत्प्रतिज्ञासूचकं पटहमुद्घोषयामास, तत्र च कोऽपि क्षुलको भिक्षार्थमटन् पटहशब्दं श्रुतवान् , श्रुतश्च प्रतिज्ञार्थः, ततो धृतवान् पटह, प्रतिपन्नो राजसमक्षं व्यवहारो, गतो राजकुलं क्षुल्लकः, ततस्तं लघु दृष्ट्वा सा परिव्राजिकाऽऽत्मीयं मुखं विकृत्यावज्ञयाऽभिधत्ते-कथय कुतो मिलामि ?, तत एवमुक्ते क्षुल्लकः खं मेण्डूं दर्शितवान् , ततो हसितं सर्वैरपि जनैः, उपुष्टं च-जिता जिता परिवाजिका, तस्या एवं कर्तृमशक्यत्वात् , ततः क्षुल्लकः। कायिक्या पद्ममालिखितवान् , सा कत्तुं न शक्नोति, ततो जिता परित्राजिका । क्षुल्लकस्योत्पत्तिकी बुद्धिः१३ । 'मग्ग'त्ति मार्गोदाहरणं, तद्भावना-कोऽपि पुरुषो निजभार्या गृहीत्वा वाहनेन नामान्तरं व्रजति, अपान्तराले च कचित् प्रदेशे शरीरचिन्तानिमित्तं तद्भार्या वाहनादुत्तीर्णवती, तस्यां च शरीरचिन्तानिमित्तं कियभागं गतायां तत्प्रदेशवर्तिनी काचिद्वयन्तरी पुरुषस्य रूपसौभाग्यादिकमवलोक्य कामानुरागतस्तद्रूपेणागस वाहनं विलना, सा च तद्भार्या शरीरचिन्तां विधाय यावद्वाहनसमीपमागच्छति तावदन्यां स्त्रियमात्मसमानरूपां वाहनमधिरूढां पश्यति,सा च व्यन्तरी पुरुषं प्रत्याह-एषा काचिद्वषन्तरी मदीयं रूपमारचय्य तव सकाशमभिलपति ततः खेटय २ सत्वरं सौरभेयाविति, ततः स पुरुषस्तथैव कृतवान् , सा चारटन्ती पश्चालमा समागच्छति, पुरुषोऽपि तामारटन्ती रष्ट्वा मूढचेता मन्दं मन्दं | खेटयामास, ततः प्रावर्तत तयोस्तद्भार्यान्यन्तोर्निष्ठुरभाषणादिकः परस्परं कलहः, ग्रामे च प्राप्ते जातस्तयो राजकुले व्यवहारः, पुरुषश्च निर्णयमकुर्वन्नुदासीनो वर्त्तते, ततः कारणिकैः पुरुषो दूरे व्यवस्थापितो, भणिते च ते द्वे अपि च -६५|| दीप १० अनुक्रम [९७ RE m ational ~310~ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६५|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७...] श्रीमलय- गिरीया नन्दीवृत्तिः ॥१५४॥ गाथा ||६२ त्रियौ-युवयोर्मध्ये या काचिदमुं प्रथमं हस्तेन संस्पृक्ष्यति तस्याः पतिरेष न शेषायाः, ततो व्यन्तरी हस्तं दूरतः प्रसार्य औत्पतिप्रथमं स्पृष्टवती, ततो ज्ञातं कारणिकैरेषा व्यन्तरीति, ततो निर्बाटिता, द्वितीया च समर्पिता खपतेः । कारणिकानामौत्पत्तिकी बुद्धिः १४ । 'इस्थिति रूयुदाहरणं, तद्भावना-मूलदेवपुण्डरीको सह पन्थानं गच्छतः, इतश्च कोऽपि सभार्याकः पुरुषस्तेनैव पथा गन्तुं प्रावर्त्तत, पुण्डरीकश्च दूरस्थितस्तद्भार्यागतमतिशाविरूपं दृष्ट्वा साभिलाषो जातः, कथितं च तेन मूलदेवस्य-यदीमा मे सम्पादयसि तदहं जीवामि, नान्यथेति, ततो मूलदेवोऽवादीत-मा आतुरीभूः, अहं ते नियमतः सम्पादयिष्यामि, ततस्तौ द्वावप्यलक्षितौ सत्वरं दूरतो गती, ततो मूलदेवः पुण्डरीकमेकस्मिन् वन निकुञ्ज संस्थाप्य पथि ऊर्द्धस्थितो वर्तते, ततः पश्चादायातः सभाकः स पुरुषो भणितो मूलदेवेन-मो महापुरुष! महेलाया ममास्मिन् वननिकुजे प्रसवो वर्तते, ततः क्षणमात्र निजमहेलां विसर्जय, विसर्जिता तेन, गता सा पुण्डरीकपार्थ, ततः क्षणमात्रं स्थित्वा समागता-'आगंतूण य तत्तो पडयं घेत्तूण मूलदेवस्स । धुत्ती भगइ हसन्ती पियं खु मे दारो जाओ॥१॥' द्वयोरपि तयोरौत्पत्तिकी बुद्धिः१५। पति पतिदृष्टान्तः, तद्भावना-द्वयोध्रात्रीरिका भार्या, लोके च महत्कौतुकम्-अहो द्वयोरप्येषा समानरागेति, एतच श्रुतिपरम्परया राज्ञाऽपि श्रुतं, परं विस्म-TRI 1 ॥१५॥ यमुपागतो राजा, मत्री ब्रूते-देव ! न भवति कदाचिदप्येतद् , अवश्यं विशेषः कोऽपि भविष्यति, राज्ञोक्तं-कथमेत आगल्य च ततः पदं गद्दीला मूल देवस्य । धूता भणति हसन्ती मिमं भवता दारको जातः ॥ १॥ -६५|| दीप अनुक्रम [९७ ~311~ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६५|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७...] पतिपुत्र गाथा ||६२ दवसेयं ?, मत्री ब्रूते-देव ! अचिरादेव यथा ज्ञास्यते तथा यतिष्यते, ततो मत्रिणा तस्याः स्त्रिया लेखः प्रेषितो यजि. यथा-तौ द्वावपि निजपती ग्रामद्वये प्रेषणीयो-एकः पूर्वस्यां दिशि विवक्षिते प्रामेऽपरोऽपरस्यां दिशि, तस्मिन्नेव च। क्यां समPIदिने द्वाभ्यामपि स्वगृहे समागन्तव्यं, ततस्तया यो मन्दवल्लभः स पूर्वस्यां दिशि प्रेषितोऽपरोऽपरस्यां दिशि, पूर्वस्यां च दिशि यो गतस्तस्य गच्छत आगच्छतश्च संमुखः सूर्यो, यः पुनरपरस्यां गतस्तस्स गच्छत आगच्छतश्च पृष्ठतः, एवं कृते च दृष्टान्ती मत्रिणा ज्ञातम्-अयं मन्दवल्लभः अपरोऽत्यन्तवल्लभः, ततो निवेदितं च राज्ञे, राज्ञा च न प्रतिपत्रं, यतोऽवश्यमेकः |पूर्वस्यां दिशि प्रेषणीयोऽपरोऽपरस्यां दिशि, ततः कथमेष विशेषो गम्यते ?, ततः पुनरपि मत्रिणा लेखप्रदानेन सा मामहेलोक्ता-द्वावपि निजपती तयोरेव ग्रामयोः समकं प्रेपणीयौ, तया च तौ तथैव प्रेषिती, मत्रिणा च द्वौ पुरुषी ४ तस्याः समीपे समकं तयोः शरीरापाटवनिवेदको प्रेषिती, द्वाभ्यामपि च सा समकमाकारिता,ततो यो मन्दवल्लभशरी-15 रापाटवनिवेदकः पुरुषस्तं प्रत्याह-सदैव मन्दशरीरो द्वितीयोऽत्यातरश्च वर्तते ततस्तं प्रत्यहं गमिष्यामि, तथैव कृतं, ततो निवेदितं राज्ञो मत्रिणा, प्रतिपन्नं राज्ञा तथेति। मत्रिणः औत्पत्तिकी बुद्धिः१६ । 'पुत्त'त्ति पुत्रदृष्टान्तः,तद्भावना-कोऽपि वणिक् , तस्य द्वे पल्यौ, एकस्याः पुत्रोऽपरा बन्ध्या,परं साऽपि तं पुत्रं सम्यक् पालयति, ततः स पुत्रो विशेष न जानीते यथा इयं मे जननी इयं नेति, सोऽपि वणिक सभार्यापुत्रो देशान्तरं गतो, गतमात्र एव परासुरभूत् , ततो द्वयोरपि है। तयोः कलहोज्जायत, एका भणति-ममैष पुत्रस्ततोऽहं गृहखामिनी, द्वितीया ब्रूते-का त्वं 1, ममेष पुत्रः ततोऽहमेव -६५|| दीप अनुक्रम [९७ ~312~ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६५|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः [२७...] ॥१५५|| PRON गाथा ||६२ गृहखामिनीति, एवं च तयोः परस्परं कलहे जाते राजकुले व्यवहारो बभूव, ततोऽमात्यः प्रतिपादयामास निजपुर- औत्पतिपान्-भोः पूर्व द्रव्यं समस्तं विभजत, विभज्य ततो दारकं करपत्रेण कुरुत द्वौ भागी, कृत्वा चैकं खण्डमेकर क्यारोहकसमर्पयत द्वितीयं द्वितीयस्यै, तत एतदमात्यवाक्यं शिरसि महाज्वालासहस्रावलीढवज्रोपनिपातकल्पं पुत्र कथामधु सित्थंच माता श्रुत्वा सोत्कम्पहृदया हृदयान्तःप्रविष्टतिर्यक्शल्येव सदुःखं वक्तुं प्रवृत्ता-हा खामिन् ! महामात्य ! न ममैप पुत्रो, न मे किश्चिदर्थेन प्रयोजनं, एतस्या एव पुत्रो भवतु गृहस्वामिनी च, अहं पुनरमुं पुत्रं दूरस्थितापि परगृहेषु दारिद्यमपि कुर्वती जीवन्तं द्रक्ष्यामि, तावता च कृतकृत्यमात्मानं प्रपत्स्ये, पुत्रेण विना पुनरधुनापि समस्तोऽपि मेX जीवलोकोऽस्तमुपयाति, इतरा च न किमपि वक्ति, ततोऽमात्येन तां सदुःखां परिभाब्योक्तम्-तस्याः पुत्रो नास्या २० इति, सैव सर्वखखामिनी कृता, द्वितीया तु निर्धाटिता । अमात्यस्योत्पत्तिकी बुद्धिः १७ । 'भरहसिलमेंढे'त्यादिका च गाथा रोहकसंविधानसूचिका, सा च प्रागुक्तकथानकानुसारेण स्वयमेव व्याख्येया। मधुयुक्तं सित्थं-मधुसित्थे, तद्-18| दृष्टान्तभावना-कश्चित्कौलिकस्तस्य भार्या खैरिणी, सा चान्यदा केनापि पुरुषेण सह कस्मिंश्चित्प्रदेशे जालिमध्ये मैथुनं। सवितवती, मैथुनस्थितया च तया उपरि भ्रामरं समुत्पन्नं दृष्ट, क्षणमात्रानन्तरं च समागता गृहे, द्वितीये च दिवसे | खभत्ता मदनं कीर्णतया निवारितो-मा क्रीणीहि मदनं, अहं ते भ्रामरमुत्पन्नं दर्शयिष्यामि, ततः स क्रयाद्विनिवृत्तो, गतौ च तौ द्वावपि तां जालिं, न पश्यति सा कथमपि कौलिकी भ्रामरं, ततो येन संस्थानेन मैथुनं सेवितवती तेनैव २६ -६५|| दीप अनुक्रम [९७ ~313~ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६५|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७...] + गाथा ||६२ संस्थानेन स्थिता, ततो दृष्टवती भ्रामर, दर्शयामास च कौलिकाय, कौलिकोऽपि तथारूपं संस्थानमवलोक्य ज्ञात-1 औत्पत्तिवान्-नूनमेषा दुश्चारिणीति । कौलिकस्यौत्पत्तिकी बुद्धिः १८ । 'मुद्दिय'त्ति मुद्रिकोदाहरणं, तद्भावना-कस्सिंश्चित्पुरेक्यां मुद्राकोऽपि पुरोधाः सर्वत्र ख्यातसत्यवृत्तिः यथा परकीयान्निक्षेपानादायादाय प्रभूतकालातिक्रमेऽपि तथास्थितानेव || कथा लि समर्पयतीति, एतच्च ज्ञात्वा कोऽपि द्रमकः तस्मै खनिक्षेपं समय देशान्तरमगमत् , प्रभूतकालातिक्रमे च भूयोऽपि तत्रागतो याचते च खं निक्षेपं पुरोधसं, पुरोधाश्च मूलत एवापलपति-कस्त्वं कीरशो वा तव निक्षेप इति ?, ततः स रङ्को वराकः खं निक्षेपमलभमानः शुन्यचित्तो बभूव, अन्यदा च तेनामात्यो गच्छन् दृष्टो याचितश्च देहि में पुरोहित ! सुवर्णसहस्रप्रमाणं निक्षेपमिति, तत एतदाकये अमात्यस्तद्विषयकृपापरीतचेता बभूव, ततो गत्वा निवेदितं राज्ञः, कारितश्च दर्शनं द्रमको, राज्ञापि भणितः पुरोधाः-देहि तस्मै द्रमकाय खं निक्षेपमिति, पुरोहितोऽवादीत्-देव ! न किमपि तस्याहं गृह्णामि, ततो राजा मौनमधात् , पुरोधसि च खगृहं गते राजा विजने तं द्रमकमाकार्य पृष्टवान्-रे! कथय सत्यमिति, ततस्तेन सर्व दिवसमुहूर्तस्थानपावर्त्तिमानुपादिकं कथितं, ततोऽन्यदा राजा पुरोधसा समं रन्तुं प्रावर्तत, परस्परं नाममुद्रा च सञ्चारिता, ततो राजा यथा पुरोधा न वेति तथा कस्यापि मानुषस्य हस्ते नाममुद्रां समर्प्य तं प्रति बभाण-रे! पुरोधसो गृहं गत्वा तद्भार्यामेवं ब्रूहि-यथाऽहं पुरोधसा प्रेपितः, इयं च नाममुद्राभिज्ञानं, तस्मिन् दिने तस्यां वेलायां यः सुवर्णसहस्रनवलको द्रमकसत्कस्त्वत्समक्षममुकप्रदेशे मु -६५|| दीप अनुक्रम [९७ १३ ~314~ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६५|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७...] गाथा ||६२ श्रीमलय- तोऽस्ति झटिति मे समर्पय, तेन पुरुषेण तथैव कृतं, सापि च पुरोधसो भार्या नाममुद्रां दृष्ट्वाऽभिज्ञान मिलनतश्च- औत्पत्तिगिरीया सत्यमेष पुरोधसा प्रेषित इति प्रतिपन्नवती, ततः समर्पयामास तं द्रमकनिक्षेपं, तेन च पुरुषेणानीय राज्ञः समर्पितो, क्यामङ्कनन्दीवत्तिः राज्ञा चान्येषां बहूनां नवलकानां मध्ये स द्रमकनबलकः प्रक्षिप्तः, आकारितो द्रमका, पार्थे चोपवेशितः पुरोधाः, नाणक दृष्टान्ती ॥१५६॥ द्रमकोऽपि तमात्मीयं नवलकं दृष्ट्वा प्रमुदितहदयो विकसितलोचनोऽपगतचित्तशून्यताभावः सहो राजानं विज्ञप-18 शयितुं प्रवृत्तः-देव! देवपादानां पुरत एवमाकारो मदीयो नवलका, ततो राजा तं तस्मै समर्पयामास, पुरोधसश्च जिला४च्छेदमचीकरत् । राज्ञ औत्पत्तिकी बुद्धिः १९। 'अंकेत्ति अङ्कदृष्टान्तभावना, कोऽपि कस्यापि पार्थे रूपकसहस्रनबलक निक्षिप्तवान् , तेन च निक्षेपग्राहिणा तं नवलकमधाप्रदेशे छित्त्वा कूटरूपकाणां सहस्रेण स भृतः, तथैव च सीवितः, ततः कालान्तरे तस्य पाान्निक्षेपखामिना खनिक्षेपो गृहीतः, परिभाषितः, सर्व तस्तथैव दृश्यते मुद्रादिकं, तत उद्घाटिता मुद्रा यावत् रूपकान् परिभावयति तावत्सर्वानपि कूटान् पश्यति, ततो जातो राजकुले तयोर्व्यवहारः, पृष्टः कारणिकनिक्षेपखामी-भोः! कतिसङ्ख्यास्तव नवलके रूपका आसीरन् ?, स प्राह-सहस्रं, ततो गणयित्वा रूपकाणां। सहस्रं तेन भृतः स नवलका, स च परिपूर्ण भृतः, केवलं यावन्मात्रमधस्ताच्छिन्नतावश्यून इत्युपरि सीवितुं न शक्यते, ततो ज्ञातं कारणिकै नूनमस्यापढ़ता रूपकाः,ततो दापितो रूपकसहस्रमितरो नवलकस्वामिनः । कारणिका-16 नामौत्पत्तिकी बुद्धिः २०॥'नाणीति कोऽपि कस्यापि पार्थे सुवर्णपणभृतं नवलकं निक्षिप्तवान्, ततो गतो देशान्तरं, -६५|| दीप अनुक्रम [९७ Hera ~315~ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६५|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक +औत्यत्ति [२७...] गाथा ॥६२ प्रभूते च कालेऽतिक्रान्ते निक्षेपनाही तस्मान्नवलकात् जात्यसुवर्णमयान् पणान् गृहीत्वा हीनवर्णकसुवर्णपणान् ताव-131 |त्सयाकान् तत्र प्रक्षिप्तवान् , तथैव च स नवलकस्तेन सीवितः, कतिपयदिनानन्तरं स नवलकखामी देशान्तरादा-४ क्यां भिक्षु | गतः, तं च नवलकं तस्य पार्थे याचितवान् , सोऽपि नवलकं समर्पयामास, परिभावितं तेन मुद्रादिकं, तथैव दृष्ट, ततो मुद्रा स्फोटयित्वा यावत्पणान् परिभावयति तावद्धीनवर्णकसुवर्णमयान् पश्यति, ततो बभूव राजकुले व्य-1 वहारः, पृष्टः कारणिक:-कः कालः आसीत् ? यत्र त्वया नवलको मुक्त इति, नवलकखामी आह-अमुक इति, ततः कारणकरुक्त-स चिरन्तनकालोऽधुनातनकालताश्च दृश्यन्तेऽमी पणाः, ततो मिथ्याभापी नूनमेप निक्षेपमाहीति दण्डितो, दापितश्चेतरस्य तावतः पणानिति । कारणिकानामौत्पत्तिकी बुद्धिः २१। 'भिक्खुत्ति मिथुदाहरणं, तद्भावनाकोऽपि कस्यापि भिक्षोः पार्थे सुवर्णसहस्रं निक्षिप्तवान, कालान्तरे च याचते, स च भिक्षुने प्रयच्छति, केवलमद्य || कल्ये वा ददामीति प्रतारयति, ततस्तेन इतकारा अवलगिताः,ततस्तैः प्रतिपन्न-निश्चितं तव दापयिष्यामः, ततो द्यूत-18 कारा रक्तपटवेपेण सुवर्णखुट्टिका गृहीत्वा भिक्षुसकाशं गता वदन्ति च-वयं चैत्यबन्दनाय देशान्तरं यियासयो यूयं च परमसत्यतापात्रमत एताः सुवर्णखोटिका युष्मत्पार्थे स्थास्यन्ति, एतावति चविसरे पूर्वसङ्केतितः स पुरुष आगतो, याचते स्म च-भिक्षो ! समप्पय मदीयां स्थापनिकामिति, ततो भिक्षुणाऽभिनयमुच्यमानम्वणेखुट्टिकालम्पटतया समर्पिता तस्य स्थापनिका ती मा एतासामहमनाभागी जायेयेतिबुड्या, तेऽपि च द्यूतकाराः किमपि मिषान्तरंज -६५|| दीप अनुक्रम [९७ १३ SAREucatinintamatara ~316~ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६५|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७...] गाथा ||६२ श्रीमच्य-II कृत्वा स्वसुवर्णखुट्टिका गृहीत्वा गताः । द्यूतकाराणामौत्पत्तिकी बुद्धिः २२॥ 'चेडगनिहाण'न्ति चेटका-बालका नि-2 औत्पत्तिगिरीया धानं-प्रतीतं, दृष्टान्तभावना-द्वौ पुरुषौ परस्परं प्रतिपन्नसखिभावी, अन्यदा कचित्प्रदेशे ताभ्यां निधानमुपलेभे, तत क्यां चेटकनन्दीवृत्तिः 8 जाएको मायावी ब्रूते-बस्तनदिवसे शुभे नक्षत्रे गृहीष्यामो, द्वितीयेन च सरलमनस्कतया तथैव प्रतिपन्न, ततस्तेन मा॥१५७॥18 याविना तस्मिन् प्रदेशे रात्रावागत्य निधानं हत्वा तत्रागारकाः प्रक्षिप्ताः, ततो द्वितीये दिने तो द्वावपि सह भूत्वा गती, दृष्टवन्तौ तत्राङ्गारकान्, ततो मायावी मायया सोरताडमाक्रन्दितुं प्रावत, वदति च-हा हीनपुण्या वयं देवेन चक्षुषी दत्त्वाऽस्माकं समुत्पाटिते यन्निधानमुपदिश्याकारका दर्शिताः, पुनः पुनश्च द्वितीयस्य मुखमवलोकते, ततो द्वितीयेन जज्ञे-नूनमनेन हृतं निधानमिति, ततस्तेनाप्याकारसंवरणं कृत्वा तस्यानुशासनार्थमूचेमा वयस्य ! खेदं कार्षीः, न खलु खेदः पुनर्निधानप्रत्यागमनहेतुः, ततो गती द्वावपि खं खं गृहं, ततो द्वितीयेन तस्य मायाविनो लेप्यमयी सजीव प्रतिमा कारिता, द्वौ च गृहीती मर्कटकी, प्रतिमायाश्चोत्सङ्गे हस्ते शिरसि चान्यत्र च यथायोगं तयोर्मर्कटयोर्योग्यं भक्ष्यं मुक्तवान् , तौ च मर्कटौ क्षुधापीडितो तत्रागत्य प्रतिमाया उत्सङ्गादौ भक्ष्य W१५७॥ भक्षितवन्ती, एवं च प्रतिदिनं करणे तयोस्तारश्येव शैली समजनि, ततोऽन्यदा किमपि पर्वाधिकृत्य मायाविनो द्वावपि पुत्री भोजनाय निमत्रिती, समागतौ च भोजनवेलायां तद्हे, भोजितौ च तो तेन महागौरवेण, भोजनानन्तरं च तौ महता सुखेनान्यत्र सशोपितो, ततः स्तोकदिनावसाने मायावी वपुत्रसाराकरणाय तद्गृहमागतः, ततो द्विती-18 -६५|| दीप अनुक्रम [९७ २५ REaranand ~317~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६५|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक याँधनुः [२७...] गाथा ||६२ यसं प्रति ब्रूते-मित्र ! तौ तव पुत्रौ मर्कटावभूतां, ततः सखेदं विस्मितचेता गृहमध्यं प्राविशत्, ततो लेप्यमयीं औत्पत्तिप्रतिमामत्सार्य तत्स्थाने समुपवेशितो, मुक्ती स्वस्थानात् मर्कटको, तौ च किलकिलायमानौ तस्योत्सङ्गे शिरसि || स्कन्धे हस्ते चागत्य विलग्नौ, ततो मित्रमवादीत-भो ! वयस्य ! तावेतौ तव पुत्री, तथा च पश्य तब नेहमात्मीयं ।। वेदाचार्य दर्शयतः, ततः स मायावी प्राह-वयस्य ! किं मानुषावकस्मात् मर्कटौ भवतः १, वयस्य आह-भवतः कर्मप्रातिकूल्यवशात् , तथाहि-कि सुवर्णमहारीभवति ?, परमावयोः कर्मप्रातिकूल्यादेतदपि जातं, तथा तय पुत्रावपि ५ मर्कटावभूतामिति. ततो मायावी चिन्तयामास-नूनमहं ज्ञातोऽनेन, यद्युः शब्दं करिष्ये ततोऽहं राजनायो भवि-15 प्यामि, पुत्री चान्यथा मे न भवतः, ततस्तेन सर्व यथावस्थितं तस्मै निवेदितं, दत्तश्च भागः, इतरेण च समर्पितौ पुत्री। तस्योत्पत्तिकी बुद्धिः२३ । 'सिक्ख'त्ति शिक्षा-धनुर्वेदः, तदुहारणभावना-कोऽपि पुमान् अतीव धनुर्वेदकुशलः, स परिभ्रमन् एकत्रेश्वरपुत्रान् शिक्षयितुं प्रावर्त्तत, तेभ्यश्चेश्वरपुत्रेभ्यः प्रभूतं द्रव्यं प्राप्तवान् , ततः पित्रादयस्तेषां चि-II न्तयामासुः-प्रभूतमेतस्मै कुमारा दत्तवन्तः, ततो यदाऽसौ यासति तदैनं मारयित्वा सर्व ग्रहीयामः, एतच्च कथ-18|१० मपि तेन ज्ञातं, ततः खबन्धूनां ग्रामान्तरवासिनां कथमपि ज्ञापितं भणितं च-यथाहममुकस्यां रात्री नद्यां गोमय-14 पिण्डान् प्रक्षेप्स्यामि भवद्भिस्ते ग्राम्या इति, ततस्तैस्तथैव प्रतिपन्नं, ततो द्रव्येण संवलिता गोमयपिण्डास्तेन कृताः, आतपेन च शोषिताः, तत ईश्वरपुत्रानित्युवाच-यथेषोऽस्माकं विधिः-विवक्षिततिथिपर्वणि स्नानमन्त्रपुरस्सरं गोम-10 -६५|| दीप अनुक्रम [९७ mararyorg ~318~ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [२७...] ******* गाथा ||६२ -६५|| दीप अनुक्रम [९७ -१००] श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ।। १५८।। “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [२७] / गाथा || ६५ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ****** यपिण्डा नयां प्रक्षिप्यन्ते इति, तैरपि यथा गुरवो व्याचक्षते तथेति प्रतिपन्नं, ततो विवक्षितरात्रौ तैरीश्वरपुत्रैः समं स्नानमन्त्रपुरस्सरं ते सर्वेऽपि गोमयपिण्डा नयां प्रक्षिप्ताः, ततः समागतो गृहं, तेऽपि गोमयपिण्डा नीता वन्धुभिः स्वग्रामे ततः कतिपयदिनातिक्रमे तानीश्वरपुत्रान् तेषां च पित्रादीन् प्रत्येकं मुत्कलाप्यात्मानं च वस्त्रमात्रपदरिग्रहोपेतं दर्शयन् सर्वजनसमक्षं स्वग्रामं जगाम, पित्रादिभिश्च परिभावितो नास्य पार्श्वे किमप्यस्तीति न मारितः । तस्योत्पत्तिकी बुद्धिः २४ । 'अत्यसत्थे 'ति अर्थशास्त्रम् --- अर्थविषयं नीतिशाखं दृष्टान्तभावना - कोऽपि वणिक्, तस्य द्वे पल्यौ, एकस्याः पुत्रोऽपरा बन्ध्या, परं साऽपि पुत्रं सम्यक् पालयति, ततः पुत्रो विशेषं नावबुध्यते यथेयं मे जननी नेयमिति, सोऽपि वणिक् सभार्यापुत्रो देशान्तरमगमत् यत्र सुमतिखामिनस्तीर्थकृतो जन्मभूमिः, तत्र च गतमात्र एव दिवं गतः, सपल्योश्च परस्परं कलहोऽभूत्, एका ब्रूते - ममैष पुत्रस्ततोऽहं गृहस्वामिनी, द्वितीया ब्रूते - अहमिति, ततो राजकुले व्यवहारो जातः, तथापि न निर्वलति एतच भगवति तीर्थकरे सुमतिस्वामिनि गर्भस्थे तज्जनन्या मंत्रलादेव्या जज्ञे, अत आगारिते द्वे अपि सपत्र्यौ, ततो देव्या प्रतिपादितं - कतिपयदिनानन्तरं मे पुत्रो भविष्यति ?, स च वृद्धिमधिरूढोऽस्याशोकपादपस्याधस्तादुपविष्टो युष्माकं व्यवहारं छेत्स्यति, तत एतावन्तं कालं यावदविशेषेण खादतां पिवतामिति, ततो न यस्याः पुत्रः साऽचिन्तयत्- लब्धस्तावदेताषान् कालः, पश्चात् किमपि यद्भविष्यति तन्न जानीमः, ततो हृष्टवदनया तथा प्रतिपन्नं, ततो देव्या जज्ञे नैषा पुत्रस्य मातेति निर्भसिता, द्वितीया च गृहस्खा Education internationa For Parts Only ~ 319~ औत्पचि क्यां नीति शास्रं २० ॥ १५८॥ २५ waryra Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६५|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७...] गाथा ||६२ मिनी कृता । देव्या औत्पत्तिकी बुद्धिः२५ । 'इच्छा य मह'त्ति काचित् स्त्री, तस्या मता पञ्चत्वमधिगतः, सा च वृद्धि- औत्पतिप्रयुक्तं द्रव्यं लोकेभ्यो न लभते, ततः पतिमित्रं भणितवती-मम दापय लोकेभ्यो धनर्मिति, ततस्तेनोक्त-यदि ममदास्यामिच्छाभागं प्रयच्छसि, ततोऽनयोक्तं यदिच्छसि तन्मह्यं दद्या इति, ततस्तेन लोकेभ्यः सर्व द्रव्यमुद्रोहितं, तस्यै स्तोकं प्रय- ममतच्छति, सा नेच्छति, ततो जातो राजकुले व्यवहारः, ततः कारणिकैर्यवाहितं द्रव्यं तत्सर्वमानायितं, कृती द्वौ सहसंच भागी, एको महान् द्वितीयोऽल्प इति, ततः प्रष्टः कारणिकैः स पुरुषा-कं भागं त्वमिच्छसि , स प्राह-महान्ता इति, ततः कारणिकैरक्षरार्थों विचारितो यदिग्छसि तन्मह्यं दद्या इति, त्वमिच्छसि महान्तं भार्ग ततो महान् भाग एतस्याः, द्वितीयस्तु तवेति । कारणिकानामौत्पत्तिकी बद्धिः२६ । 'सयसहस्से'त्ति कोऽपि परित्राजकः, तस्स रूप्यमयंक महाप्रमाणं भाजनं खोरयसंज्ञं, स च यदेकवारं शृणोति तत्सर्व तथैवावधारयति, ततः स निजप्रज्ञागवेमुबहन् सर्वसमक्ष प्रतिज्ञा कृतवान्-यो नाम मामपूर्व श्रावयति तस्मै ददामीदं भाजनमिति, न च कोऽप्यपूर्व श्रावयितुं शक्नोति स हि यत्किमपि शृणोति तत्सर्वमस्खलितं तथैवानुवदति, वदते च-अप्रेऽपीदं मया श्रुतं, कथमन्यथाऽहमस्खलितं भणामीति, तत्सर्वत्र ख्यातिमगमत् , ततः केनापि सिद्धपुत्रकेण ज्ञाततत्प्रतिज्ञेन तं प्रत्युक्तम्-अहमपूर्व श्रावयिष्यामि, ततो मिलितो भूयान् लोको राजसमक्षं व्यवहारो बभूव, ततः सिद्धपुत्रोऽपाठीत्-"तुज्झ पिया मह पिउणो धारेइ -६५|| दीप अनुक्रम [९७ १ तब पिता मम पितुर्धारयति बनून शतसहस्रम् । यदि श्रुतपूर्व ददानु अथ न भुतं खोरकं ददातु ॥१॥ ~320~ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६६|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७...] श्रीमलय गिरीया गाथा ||६६ अणूणगं सयसहस्सं । जइ सुयपुर दिजउ अह न सुर्य खोरयं देसु ॥१॥" जितः परिव्राजकः । सिद्धपुत्रपौत्प- वनयिकीनन्दीतिः लात्तिकी बुद्धिः २७ ॥ तदेवमुक्ता बुद्धिरीत्पत्तिकी, सम्प्रति बैनयिक्या लक्षणं प्रतिपादयति खरूपम् भरनित्थरणसमत्था तिवग्गसुत्तत्थगहिअपेआला । उभो लोगफलवई विणयसमुत्था हवइ ॥१५९॥ बुद्धी ॥६६॥ निमित्ते १ अस्थसत्थे अ २ लेहे ३ गणिए अ ४ कूव ५ अस्से अ६। गद्दभ ७ लक्खण ८ गंठी ९ अगए १० रहिए अ ११ गणिया य।१२ ॥ ६७ ॥ सीआ साडी दीहं च तणं अवसव्वयं च कुंचस्स १३ । निव्वोदए अ १४ गोणे घोडगपडणं च रुक्खाओ १५ ॥६॥ इहातिगुरुः कार्य दुर्निवहत्वाद्भर इव भरस्तन्निस्तरणे समर्था भरनिस्तरणसमर्धा त्रयो वर्गास्त्रिवर्गाः-लोकरूड्या धर्मार्थकामास्तदर्जनोपायप्रतिपादकं यत्सूत्रं यश्च तदर्थस्ती त्रिवर्गसूत्राथौं तयोहीतं 'पेयालं' प्रमाणं सारो वा यया सा तथाविधा, अत्राह-नन्वश्रुतनिश्रिता बुद्धयो वक्तुमभिप्रेताः, ततो यद्यस्यास्त्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतसारत्वं | ततोऽश्रुतनिश्रितत्वं नोपपद्यते, न हि श्रुताभ्यासमन्तरेण त्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतसारत्वं संभवति, अत्रोच्यते, इह प्रायोवृत्तिमाश्रित्याश्रुतनिश्रितत्वमुक्तं, ततः स्वल्पश्रुतभावेऽपि न कश्चिद्दोपः। तथा 'उभयलोकफलवती' ऐहिके आमुष्मिके च लोके फलदायिनी विनयसमुत्था बुद्धिर्भवति । सम्प्रत्यया एव विनेयजनानुग्रहार्थमुदाहरणः खरूपं दर्शयति-18२४ । -६८॥ १५९॥ दीप अनुक्रम [१०१ -१०३]] SAREauratoni n d | वैनयिकी बुद्धीनां दृष्टान्ता: ~321~ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६८|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७...] गाथा ||६६ गाथाद्वयार्थः कथानकेभ्योऽवसेयः, तानि च ग्रन्थगौरवभयात्संक्षेपेणोच्यन्ते-तत्र 'निमित्ते' इति, कचित्पुरे वैनयिक्यां कोऽपि सिद्धपुत्रकः, तस्य द्वौ शिष्यौ निमित्तशास्त्रमधीतवन्तौ, एको बहुमानपुरस्सरं गुरोविनयपरायणो यत्कि-LETTE मपि गुरुरुपदिशति तत्सर्वं ततिप्रतिपद्य स्वचेतसि निरन्तरं विमृशति, विमृशतश्च यत्र कापि सन्देह उपजायते | तत्र भूयोऽपि विनयेन गुरुपादमूलमागत्य पृच्छति, एवं निरन्तरं विमर्शपूर्व शास्त्रार्थ तस्य चिन्तयतः प्रज्ञा प्रकर्षमुप-11 जगाम, द्वितीयस्त्वेतदुणविकलः, तौ चान्यदा गुरुनिर्देशात् क्वचित्प्रत्यासन्ने ग्रामे गन्तुं प्रवृत्ती, पथि च कानिचित् महान्ति पदानि तावदर्शता, तत्र विमृश्यकारिणा पृष्टं-भोः कस्यामूनि पदानि ?, तेनोक्तं-किमत्र प्रष्टव्यं हस्तिनोऽमूनि पदानि?, तो विमृश्यकारी प्राह-मैवं भाषिष्ठाः, हस्तिन्या अमूनि पदानि, सा च हस्तिनी पामेन चक्षुषा काणा, तां चाधिरूढा गच्छति काचिद्राज्ञी, सा च सभर्तृका गुर्वी च प्रजने कल्या, अद्य श्री वा प्रसविष्यति, पुत्रश्च तस्या भविष्यति, तत एवमुक्ते सोऽविमृश्यकारी ब्रूते-कथमेतदवसीयते?, विमृश्यकारी प्राह-'ज्ञानं प्रत्य-11 यसार मित्राने प्रत्ययतो व्यक्तं भविष्यति, ततः प्राप्तौ तौ विवक्षितं ग्राम, दृष्टा चावासिता तस्य ग्रामस्य बहिःप्रदेशे महासरस्तटे राज्ञी, परिभाविता च हस्तिनी बामेन चक्षुपा काणा (ग्रन्थाग्रं-५०००) अत्रान्तरे च काचिद्दासचेडी महत्तमं प्रत्याह-वर्द्धाप्यसे राज्ञः पुत्रलाभेनेति, ततः शब्दितो विमृश्यकारिणा द्वितीयः-परिभावय दासचेडी- १२ -६८॥ दीप अनुक्रम [१०१ CARRCCCCC .१०३] SARERaininamaina ~322~ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६८|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक नायिक्यां निमित्त [२७...] श्रीमलय- गिरीया । नन्दीवृत्तिः ॥१६॥ गाथा ||६६ वचनमिति, तेनोक्तं-परिभावितं मया सर्व, नान्यथा तब ज्ञानमिति, ततस्तो हस्तपादान् प्रक्षाल्य तस्मिन् महास- | रस्तटे न्यग्रोधतरोरधो विश्रामाय स्थिती, दृष्टौ च कयाचिच्छिरोन्यस्तजलभृतघटिकया वृद्धस्त्रिया, परिभाविता च तयोराकृतिः, ततश्चिन्तयामास-नूनमेती विद्वांसी, ततः पृच्छामि देशान्तरगतनिजपुत्रागमनमिप्ति, पृष्टं तया, प्रश्न-13 समकालमेव च शिरसो निपत्य भूमौ घटः शतखण्डशो भग्नः, ततो झटित्येवाविमृश्यकारिणा प्रोचे-गतस्ते पुत्रो घट इव व्यापत्तिमिति, विमृश्यकारी बेते स्प-मा वयस्यैवं वादीः, पुत्रोऽस्या गृहे समागतो वर्तते, याहि मातवृद्धे ! खि ! स्वपुत्रमुखमवलोकय, तत एवमुक्ता सा प्रत्युजीवितेवाशीर्वादशतानि विमृश्यकारिणः प्रयुआना खगृह जगाम, दृष्टश्चोभूलितजकः स्वपुत्रो गृहमागतः, ततः प्रणता स्वपुत्रेण, सा चाशीर्वादं निजपुत्राय प्रायुक्त, कथयामास च नैमित्तिकवृत्तान्तं, ततः पुत्रमापृच्छय वस्त्रयुगलं रूपकांश्च कतिपयानादाय विमृश्यकारिणः समप्पयामास, अविमृश्यकारी च खेदमावहन् खचेतसि अचिन्तयत्-नूनमहं गुरुणा न सम्यक् परिपाठितः कथमन्यथाऽहं न जानामि? एष जानातीति, गुरुप्रयोजनं कृत्वा समागती द्वौ गुरोः पार्थे, तत्र विमृश्यकारी दर्शनमात्र एव शिरो नमयित्वा कृताअलिपुटः सबहुमानमानन्दाश्रुग्लावितलोचनो गुरोः पादावन्तरा शिरः प्रक्षिप्य प्रणिपपात, द्विती- योऽपि च शैलस्तम्भ इव मनागप्यनमितगात्रयष्टिमात्सर्यवह्निसम्पर्कतो धूमायमानोऽअतिष्ठते, ततो गुरुतं प्रत्याह-रे किमिति पाइयोन पतसि ?, स प्राह-य एव सम्यक् पाठितः स एव पतिष्यति, नाहमिति, गुरुराह -६८॥ दीप अनुक्रम [१०१ १६०॥ D२५ .१०३] ~323~ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [२७...] गाथा ||६६ -६८|| दीप अनुक्रम [१०१ -१०३] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [२७] / गाथा ||६८|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ****** कथं त्वं न सम्यक् पाठितः १, ततः स प्राचीनं वृत्तान्तं सकलमचीकथत् यावदेतस्य ज्ञानं सर्व सत्यं न ममेति, ततो गुरुणा विमृश्यकारी पृष्टः कथय बत्स ! कथं त्वयेदं ज्ञातमिति ?, ततः स प्राह - मया युष्मत्पादादेशेन विमर्शः कर्त्तुमारब्धो यथैतानि हस्तिरूपस्य पदानि सुप्रतीतान्येव, विशेषचिन्तायां तु किं हस्तिन उत हस्तिन्याः ?, तत्र कायिकीं दृष्ट्वा हस्तिन्या इति निश्चितं, दक्षिणेन च पार्श्वे वृत्तिसमारूढवलीवितान आलुनविशीष्णों हस्तिनीकृतो दृष्टो न वामपार्श्वे ततो निश्चिक्ये नूनं वामेन चक्षुषा काणेति, तथा नान्य एवंविधपरिकरोपेतो हस्तिन्यामधिरूढो गन्तुमर्हति ततोऽवश्यं राजकीयं किमपि मानुषं यातीति निश्चितं तच मानुषं कचित्प्रदेशे हस्तिन्या उत्तीर्य शरीर चिन्तां कृतवत्, कायिकीं दृष्ट्वा राज्ञीति निश्चितं, वृक्षावलभर क्तवस्त्रदशालेशदर्शनात् सभर्तृका, भूमौ हस्तं निवेश्योत्थानाकारदर्शनाद्वर्षी, दक्षिणचरणनिस्सहमोचननिवेशदर्शनात्प्रजने कल्येति । वृद्धखियाः प्रश्नानन्तरं घटनिपाते चैवं विमर्शः कृतो-यथेप घटो यत उत्पन्नस्तत्रैव मिलितस्तथा पुत्रोऽपीति । तत एवमुक्ते गुरुणा स विमृश्यकारी चक्षुषा सानन्दमीक्षितः प्रशंसितश्च द्वितीयं प्रत्युवाच - तव दोषो यन्न विमर्श करोपि, न मम, वयं हि शास्त्रार्थमात्रोपदेशेऽधिकृताः विमर्शे तु यूयमिति । विमृश्यकारिणो वैनयिकी बुद्धिः १ । 'अत्थसत्थे 'ति अर्थशास्त्रे कल्पको मनी दृष्टान्तो, 'दहिकुंडग उच्छुकलावओ य' इति संविधान के, 'लेह'त्ति लिपिपरिज्ञानं, 'गणिए'त्ति गणितपरिज्ञानं, एते च द्वे अपि वैनयिक्यौ बुद्धी २-३-४ । 'कूवेत्ति खातपरिज्ञानकुशलेन केनाप्युक्तं For Penal Use On ~324~ 22 कल्पकलिपिगणितानि ५ १० १३ yor Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६८|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७...] गाथा ||६६-६८॥ श्रीमलय यथैतहरे जलमिति, ततस्तावत्प्रमाणं खातं परं नोत्पन्नं जलं, ततस्ते खातपरिज्ञाननिष्णाताय निवेदयामासुः-नोत्पन्नं जगिरीया बालमिति, ततस्तेनोक्त-पाणिप्रहारेण पार्थान्याहत, आहतानि तैः, ततः पाणिप्रहारसमकालमेव समुच्छलितं तत्र नन्दीकृत्तिः दृष्टान्ताः जलं, सातपरिज्ञानकुशलस्य पुंसो वैनयिकी बुद्धिः ५। 'अस्से'त्ति बहवोऽश्ववणिजो द्वारवती जग्मुः, तत्र सर्वे कुमाराः ॥१६॥ स्थूलान् बृहतश्चाश्वान् गृह्णन्ति, वासुदेवेन पुनर्यो लघीयान् दुर्वलो लक्षणसम्पन्नः स गृहीतः, स च कार्यनिर्वाही प्रभूताश्वाघहश्च जातः । वासुदेवस्य वैनयिकी बुद्धिः ६ । 'गद्दत्ति कोऽपि राजा प्रथमयावनिकामधिरूढस्तरुणिमान-12 मेव रमणीयं सर्वकार्यक्षमं च मन्यमानस्तरुणानेव निजकटके धारितवान् , वृद्धांस्तु सर्वानपि निषेधयामास, सोऽन्यदा कटकेन गच्छन्नपान्तरालेऽदव्यां पतितवान् , तत्र च समस्तोऽपि जनस्तृषा पीड्यते, ततः किंकर्तव्यतामूढचेता ला२० राजा केनाप्युक्तो-देव ! न वृद्धपुरुषशेमुषीपोतमन्तरेणायमापत्समुद्रस्तरीतुं शक्यते, ततो गवेषयन्तु देवपादाः कापि बृद्धमिति, ततो राज्ञा सर्वस्मिन्नपि कटके पटह उद्घोषितः, तत्र चैकेन पितृभक्तेन प्रच्छन्नो निजपिता समानीतो | वर्तते, ततस्तेनोक्त-मम पिता वृद्धोऽस्तीति, ततो नीतो राज्ञः पार्थे, राज्ञा च सगौरवं पृष्टः कथय महापुरुष ! कथं | मे कटके पानीयं भविष्यति ?, तेनोक्तं-देव ! रासभाः खैरं मुच्यन्तां, यत्र ते भुवं जिघन्ति तत्र पानीयमतिप्रत्या-13 सन्नमवगन्तव्यं, तथैव कारितं राज्ञा, समुत्पादितं पानीयं, स्वस्थीबभूव च समस्तं कटकमिति । स्थविरस्य वैनयिकी २५ -बुद्धिः,७ । 'लक्खण'त्ति पारसीकः कोऽप्यश्वखामी कस्याप्यश्वरक्षकस्य कालनियमनं कृत्वा अश्वरक्षणमूल्यं द्वावश्ची दीप अनुक्रम [१०१ .१०३] SAREDKARona ~325~ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६८|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७...] गाथा ||६६ प्रतिपन्नवान् , सोऽपि चाश्वखामिनो दुहित्रा समं वर्तते, ततः सा तेन पृष्टा-काववी भव्याविति ?, तयोक्तम्-अमी सलक्षणापामश्वानां विश्वस्तानां मध्ये यो पापाणभृतकुतपानां वृक्षशिखरान्मुक्तानामपि शब्दमाकर्ण्य नो प्रस्थतस्तो भन्यौ. वग्रन्थिहरू तेन तथैवेती परीक्षिती, ततो बेतनप्रदानकाले सोऽभिधत्ते-मबममुकममुकं वाऽयं देहि, अश्वस्थामी प्राह-सर्वानप्यन्यान् अश्वान् गृहाण, किमेताभ्यां तवेति !, स नेच्छति, ततोऽश्वखामिना खभार्यायै न्यवेदि, भणितं च-गृह-13 जामाता क्रियतामेष इति, अन्यथा प्रधानावश्वावेष गृहीत्वा यास्यति, सा नैच्छत् , ततोऽश्वखामी पाह-लक्षणयुक्तेनाश्वेनान्येऽपि बहवोऽश्वाः सम्पद्यन्ते कुटुम्बं च परिवर्द्धते, लक्षणयुक्तौ चेमावश्ची, तस्मास्क्रियतामेतदिति, ततः प्रतिपन्नं तया, दत्ता तस्मै स्वदुहिता, कृतो गृहजामातेति । अश्वस्वामिनो वैनयिकीवुद्धिः ८ 'गठिति पाटलिपुरे नगरे मुरुण्डो राजा, तत्र परराष्ट्रराजेन त्रीणि कौतुकनिमित्तं प्रेषितानि, तद्यथा-'मूढं सूत्रं समा यष्टिरलक्षितद्वारः समुदको जतुना घोलितः' तानि च मुरुण्डेन राज्ञा सर्वेषामप्यात्मपुरुषाणां दर्शितानि, परं केनापि न ज्ञातानि, तत आ-P कारिताः पा लिप्ताचार्याः, पृष्टं राज्ञा-भगवन् ! यूयं जानीत ?, सूरय उक्तवन्तो-वाढं, ततः सूत्रमुष्णोदके क्षिप्तम् , उष्णोदकसम्पर्काच विलीनं मदनमिति लब्धः सूत्रस्यान्तः, यष्टिरपि पानीये क्षिप्ता, ततो गुरुभागो मूलमिति ज्ञातं, समुद्केऽप्युष्णोदके क्षिप्ते जतु सर्वं गलितमिति द्वारं प्रगटं बभूव, ततो राजा सूरीन् प्रत्यवादीत्-भगवन् ! यूयमपि दुर्विज्ञेयं किमपि कौतुकं कुरुत येन तत्र प्रेषयामि, ततः सूरिभिस्तुम्बकमेकस्मिन् प्रदेशे खण्डमेकमपहाय रत्नानां भृतं, १३ -६८॥ दीप अनुक्रम [१०१ -59 56 .१०३] ~326~ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६८|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७...] गाथा ||६६ श्रीमलय- ततस्तथा तत्खण्डं सीवितं यथा न केनापि लक्ष्यते, भणिताश्च परराष्ट्रराजकीयाः पुरुषाः-एतदभङ्क्त्वा इतो अगदरथिकगिरीया रत्नानि गृहीतव्यानि, न शक्तं तैरेवं कर्तुं । पादलिप्ससूरीणां वैनयिकी बुद्धिः ९। अगए'त्ति कचित्पुरे कोऽपि राजा, RI दृष्टान्तों नन्दीवृत्तिः स च परचक्रेण सर्वतो रोद्धमारब्धः, ततस्तेन राज्ञा सर्वाण्यपि पानीयानि विनाशयितव्यानीति विषकरः सर्वत्र पा॥१६॥ तितः, तत कोऽपि कियद्विपमानयति, तत्रैको वैद्यो यवमानं विषमानीय राज्ञः समर्पितवान्-देव ! गृहाण विष KIमिति, राजा च स्तोकं.विषं दृष्ट्वा चुकोप तस्मै, वैद्यो विज्ञपयामास-देव ! सहस्रवेधीदं विषं तस्मादप्रसादं मा कार्षीः, राजाऽवादीत-कथमेतदवसेयं ?, स उवाच-देव! आनाय्यतां कोऽपि जीर्णो हस्ती, आनायितो राज्ञा हस्ती, ततो वैद्येन तस्य हस्तिनः पुच्छदेशे वालकमेकमुत्पाट्य तदीयरन्ने विषं सञ्चारितं, विषं च प्रसरमाददानं यत्र यत्र प्रसरति तत्तट्रात्सर्वं विपन्नं कुर्वत् दृश्यते, वैद्यश्च राजानमभिधत्ते-देव ! सर्वोऽप्येष हस्ती विषमयो जातः, योऽप्येनं भक्षयति । सोऽपि विषमयो भवति, एवमेतद्विषं सहस्रवेधि, ततो राजा हतिहानिदूनचेतास्तं प्रत्युवाच-अस्ति कोऽपि हस्तिनः काप्रतिकारविधिः?, सोऽवादीत-बाढमस्ति, ततस्तस्मिन्नेव वालरन्धेऽगदः प्रदत्तः, ततः सर्वोऽपि झटित्येव प्रशान्तोश ॥१६२॥ विपविकारः, प्रगुणीवभूव हस्ती, तुतोष राजा तस्मै वैद्याय । वैद्यस्य बैनयिकी बुद्धिः१०रहिए गणिया यत्ति स्थूल-18 | भद्रकथानके रथिकस्य यत् सहकारफललुम्बित्रोटनं यच गणिकायाः सर्पपराशेरुपरि नर्तनं ते वे अपि वैनयिकीबुद्धि-दि.२५ फले ११-१२। सीये'त्यादि, क्वचित्पुरे कोऽपि राजा, तत्पुत्राः केनाप्पाचार्येण शिक्षयितुमारब्धाः, ते च तस्मै आचार्याय -६८॥ दीप अनुक्रम [१०१ .१०३] anditurary.com ~327~ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [२७...] गाथा ||६६ -६८|| दीप अनुक्रम [१०१ -१०३] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [२७] / गाथा ||६८|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ****** प्रभूतं द्रव्यं दत्तवन्तः, राजा च द्रव्यलोभी तं मारयितुमिच्छति, तैश्च पुत्रैः कथञ्चिदेतद् ज्ञात्वा चिन्तितम् अस्माकमेष विद्यादायी परमार्थपिता, ततः कथमध्येनमापदो निस्तारयामः, ततो यदा भोजनाय समागतः स्नानशाटिकां याचते तदा ते कुमाराः शुष्कामपि शाीं वदन्ति - "अहो सीया साडी" द्वारसम्मुखं च तृणं कृत्वा वदन्ति - अहो दीर्घ तृणं, पूर्व च क्रौञ्चकेन सदैव प्रदक्षिणीक्रियते, सम्प्रति तु स तस्यापसव्यं भ्रमितः, तत आचार्येण ज्ञातं - सर्व मम विरक्तं, केवलमेते कुमारा मम भक्तिवशात् ज्ञापयन्ति, ततो यथा न लक्ष्यते तथा पलाययामास कुमाराणामाचार्यस्य च वैनयिकी बुद्धिः १३ । 'निधोदणं'ति काऽपि वणिग्भार्या चिरं प्रोषिते भर्त्तरि दास्या निजसद्भावं निवेदयति - आनय कमपि पुरुषमिति, ततस्तया समानीतो, नखप्रक्षालनादिकं च सर्वे तस्य कारितं, रात्रौ च तौ द्वावपि सम्भोगाय द्वितीय भूमिकामा रूढी, मेघश्च वृष्टिं कर्तुमारब्धवान् ततस्तेन तृषापीडितेन पुरुषेण नीत्रोदकं पीतं, तदपि च त्वग्विपभुजङ्गसंस्पृष्टमिति तत्पानेन पञ्चत्वमुपगतः, ततस्तया वणिग्भार्यया निशापश्चिमयाम एवं शून्यदेवकुलिकायां मोचितः प्रभाते च दृष्टो दाण्डपाशिकैः परिभावितं सद्यः तत्तस्य नखादिकर्म्म, ततः पृष्टाः सर्वेऽपि नापिताः -- केनेदं भोः कृतमस्य नखादिकं कर्मेति ?, तत एकेन नापितेनोकं मया कृतमसुकाभिधवणिग्भार्यादासचेट्या देशेन, ततः सा पृष्टा - सापि च पूर्व न कथितवती, ततो हन्यमाना यथावस्थितं कथयामास, दाण्डपाशिकानां वैनयिकी बुद्धिः १४ । 'गोणे घोडगपडणं च रुक्खाओ' कोऽप्यकृतपुण्यो यद्यत्करोति तत्सर्वमापदे प्रभवति, ततोऽन्यदा For Parts Only ~328~ वैनयिकीबुबुदा हरणानि ५ १३ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६८|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७...] हरणानि गाथा ||६६-६८॥ | मित्रं बलीवदी याचित्वा हलं बाहयति, अन्यदा च विकालबेलायां तावानीय वाटके क्षिप्ती, स च वयस्यो भोजनं वैनयिकी गिरीया कुर्वन्नास्ते, ततः स तस्य पार्थे न गतः केवलं तेनापि तौ दृष्ट्याऽवलोकिताविति स स्वगृहं गतः, तौ च बलीवदी। बुमुदानन्दीवृत्तिः दा वाटकान्निःस्त्यान्यत्र गती, ततोऽप्यपढ़ती तस्करैः, स च बलीवईखामी तमकृतपुण्यं वराकं बलिवी याचते, सच ॥१६३॥ दातुं न शक्नोति, ततो नीयते तेन राजकुलं, पथि च गच्छतस्तस्य कोऽप्यवारूढः पुरुषः सम्मुखमागच्छति, स चाश्वेन पातितः, अश्वश्च पलायमानो वर्त्तते, ततस्तेनोक्तम्-आहन्यतामेय दण्डेनाश्व इति, तेन चाकृतपुण्येन सोऽश्वो मर्म| ण्याहतः, ततो मृत्युमुपागमत् , ततस्तेनापि पुरुषेण स वराको गृहीतः, ते च यावन्नगरमायातास्तावत्करणमुत्थित| मितिकृत्वा ते नगरवहिष्प्रदेशे एवोपिताः, तत्र च बहवो नटाः सुप्ता वर्त्तन्ते, स चाकृतपुण्योऽचिन्तयत्-यथा २० | नास्मादापत्समुद्रात् मे निस्तारोऽस्तीति वृक्षे गलपाशेनात्मानं बढ़ा नियेयेति तेन तथैव कर्तुमारब्धं, परै जीर्ण| दण्डिवस्त्रखण्डेन गले पाशो बद्धः, तच दण्डीवस्त्रखण्डमतिदुर्वलमिति त्रुटितं, ततः स वराकोऽधतात्मुसनटमह|त्तरस्योपरि पपात, सोऽपि च नटमहत्तरस्ताराकान्तगलप्रदेशः पञ्चत्वमगमत् , ततो नटैरपि स प्रतिगृहीतः, गताः ॥१६॥ प्रातः सर्वेऽपि राजकुलं, कथितः सर्वैरपि खः खः व्यतिकरः, ततः कुमारामात्येन स वराकः पृष्टः, सोऽपि दीनव- ४ा दनोऽवादीद्-देव ! यदेते हुयते तत्सर्व सत्यमिति, ततः तस्योपरि सञ्जातकृपः कुमारामात्योऽवादीत्-एप वलीबदौं तुभ्यं दास्यति, तव पुनरक्षिणी उत्पादयिष्यति, एप हि तदैवानृणो बभूव यदा त्वया चक्षुभ्यामवलोकिती बली दीप अनुक्रम [१०१ ACANCE २५ .१०३] SAREaiN nd ~329~ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||६८|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत कर्मजा सूत्रांक [२७...] हरणानि गा.६७-८ गाथा ||६६ 594 बदौं, यदि पुनस्त्वया चक्षुभ्यां नावलोकिती बलीबी स्यातां तदैषोऽपि खगृहं न यायात्, न हि यो यस्मै यस्य समर्पणायागतः स तस्यानिवेदने समर्पणीयमेवमेव मुक्त्वा स्वगृहं याति, तथा द्वितीयोऽश्वखामी शब्दितः, ए-15 पोऽश्वं तुभ्यं दास्यति, तव पुनरेप जिह्वां छेत्स्यति, यदा हि त्वदीयजिह्वयोक्तम्-एनमधं दण्डेन ताडयेति तदाऽनेन दण्डेनाहतोऽश्रो, नान्यथा, तत एष दण्डेनाऽऽहन्ता दण्ड्यते तब न पुनर्जिति कोऽयं नीतिपथः?, तथा नटान् प्रत्याह-अस्य पार्थे न किमप्यस्ति ततः किं दापयामः', एतावत्पुनः कारयामः-एषोऽधस्तात् स्थास्यति, त्वदीयः पुनः कोऽपि प्रधानो यथैष वृक्षे गलपाशेनात्मानं बढ्दा मुक्तवान् तथाऽऽत्मानं मुञ्चत्विति, ततः सर्वैरपि मुक्तः, कुमारामात्यस्य चैनयिकी बुद्धिः१५ । उक्ता बैनयिकी बुद्धिः, कर्मजाया बुद्धलक्षणमाह उवओगदिट्रसारा कम्मएसंगपरिघोलणविसाला । साहुक्कारफलबई कम्मसमुत्था हवइ बुद्धी ॥६७ ॥ हेरपिणए १ करिसए २ कोलिअ ३ डोवे अ४ मुत्ति ५ घय ६ पवए ७ । तुन्नाए । वहई य ९ पूयइ १० घड ११ चित्तकारे अ १२ ॥ ६८॥ 'उवओगे'त्यादि, उपयोजनमुपयोगो-विवक्षितकर्मणि मनसोऽभिनिवेशः सार:-तसव विवक्षितः परमार्थः, उपयोगेन दृष्टः सारो यया सा उपयोगदृष्टसारा, अभिनिवेशोपलब्धकर्मपरमार्था इत्यर्थः, तथा कर्मणि प्रसङ्गः-अ. भ्यासः परिघोलनं-विचारस्ताभ्यां विशाला-विस्तारमुपगता कर्मप्रसङ्गपरिघोलनविशाला, तथा साधु कृतं-मुटु क- -६८॥ दीप अनुक्रम [१०१ १३ .१०३ X mation अत्र यत् सू० क्रमांक ||६७||, ||६८|| मुद्रितं तत् मुद्रण दोषः एव | तत्र सू० क्रमांक ६९, ७० वर्तेते ... कर्मजा बुद्धीनां दृष्टान्ता: ~330~ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||७०|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक कर्मजा [२७...] गिरीया हरणानि गाथा ॥६९ श्रीमलय शितमिति विद्वद्भिः प्रशंसा साधुकारः तेन युक्तं फलं साधुकारफलं तद्वती, साधुकारपुरस्सरं वेतनादिलाभरूपं तस्याः | फलमित्यर्थः, सा तथा कर्मसमुत्था बुद्धिर्भवति । अस्या अपि विनेयजनानुग्रहार्थमुदाहरणैः खरूपं दर्शयति-'हेरनन्दीतिः |ण्णिए' इत्यादौ पच्यर्थे सप्तमी, ततोऽयमों-हरण्यके-हैरण्यकस्य कर्मजा बुद्धिः, एवं सर्वत्रापि योजना कार्या, | गा.६७८ ॥१६॥ हरण्यको हि खविज्ञानप्रकर्षप्राप्तोऽन्धकारेऽपि हस्तस्पर्शविशेपेण रूपकं यथावस्थितं परीक्षते । 'करिसग'त्ति अत्रो दाहरणं-कोऽपि तस्करो रात्री वणिजो गृहे पनाकारं खातं खातवान् , ततः प्रातरलक्षितस्तस्मिन्नेव गृहे समागत्य जनेभ्यः प्रशंसामाकर्णयति, तत्रैकः कर्पकोऽब्रवीत्-किं नाम शिक्षितस्य दुष्करत्वं ?, यद्येन सदैयाभ्यस्तं कर्म स तत्प्रकर्षप्राप्त करोति, नात्र विस्मयः, ततः स तस्कर एतद्वाक्यममर्पवैश्वानरसन्धुक्षणसममाकये जज्याल कोपेन, ततः। पृष्टवान् कमपि पुरुष-कोऽयं कस्य वा सत्क इति?, ज्ञात्वा च तमन्यदा क्षुरिकामाकृष्य गतः क्षेत्रे तस्य पार्थे, रे! |मारयामि त्वां सम्प्रति, तेनोक्तं-किमिति ?, सोऽब्रवीत्-त्वया तदानीं न मम खातं प्रशंसितमितिकृत्वा, सोऽनबीत्-सत्यमेतत् , यो यस्मिन् कर्मणि सदैवाभ्यासपरः स तद्विषये प्रकर्षवान् भवति, तत्राहमेव दृष्टान्तः, तथाहि. अमून मुद्गान् हस्तगतान् यदि भणसि तर्हि सर्यानप्यधोमुखान् पातयामि यद्वा ऊर्द्धमुखान् अथवा पार्थस्थिता- ॥१६॥ |निति, ततः सोऽधिकतरं विस्मितचेताः प्राह-पातय सर्वानप्यधोमुखानिति, विस्तारितो भूमौ पटः पातिताः सर्वेऽप्यधोमुखा मुद्गाः, जातो महान् विस्मयश्चौरस्य, प्रशंसितं भूयो भूयस्तस्य कौशलमहो विज्ञानमहो विज्ञानमिति, 4% 84 %A5% दीप अनुक्रम [१०४ |२५ -१०५] ~331~ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत [२७...] गाथा ||६९ -७० | दीप अनुक्रम [१०४ -१०५] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [२७] / गाथा || ७०|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः वदति चौरो - यदि नाधोमुखाः पातिता अभविष्यन् ततो नियमात् त्वामहममारयिष्यमिति, कर्षकस्य चौरख च कर्म्मजा बुद्धि: । 'कोटिय'त्ति कौलिकः- तन्तुवायः, स मुष्ट्या तन्दूनादाय जानाति -- एतावद्भिः कण्डकैः पटो भवि व्यति । 'डोए'त्ति दव वर्द्ध किर्जानाति - एतावदत्र मास्यतीति । 'मुत्ति'ति मणिकारो मौक्तिकमाकाशे प्रक्षिप्य शूकरवालं तथा धारयति यथा पतितो मौक्तिकस्य न्त्रे स प्रविशतीति । 'घय'त्ति घृतविक्रयी स विज्ञानप्रकर्षप्राप्तो यदि रोचते तर्हि शकटे स्थितोऽधस्तात् कुण्डिकानालेऽपि घृतं प्रक्षिपति । 'पवय'त्ति लवकः, स चाकाशस्थितानि करणानि करोति । 'तुण्णाग'त्ति सीचनकर्मकर्त्ता, स च खविज्ञानप्रकर्षप्राप्तस्तथा सीवति यथा प्रायो यत्केनापि न लक्ष्यते । 'वह'ति वर्द्धकिः, स च खविज्ञानप्रकर्षप्राप्तोऽमित्वापि देवकुलरथादीनां प्रमाणं जानाति । 'पूर्वइ' सि आपूपिकः, स चामित्वाप्यपूपानां दलस्य मानं जानाति । 'घड'त्ति घटकारः खविज्ञानप्रकर्षप्राप्तः प्रथमत एव प्रमाणयुक्तां मृदं गृह्णाति । 'चित्त कारे' त्ति चित्रकारः, स च रूपकभूमिकाममित्वाऽपि रूपकप्रमाणं जानाति तावन्मात्रं वा व कुञ्चिकायां गृह्णाति यावन्मात्रेण प्रयोजनमिति ॥ उक्ता कर्मजा बुद्धिः, सम्प्रति पारिणामिक्या लक्षणमाहअणुमाणहे उदिट्टंतसाहिआ वयविवागपरिणामा । हिअनिस्से असफलवई बुद्धी परिणामिआ नाम ॥ ७१ ॥ अभए १ सिट्टि २ कुमारे ३ देवी ४ उदिओदए हवइ राया ५। साहू य नंदिसेणे ६ धणदत्ते ७ सावग ८ अमचे ९ ॥ ७२ ॥ खमए १० अमचपुत्ते ११ चाणके १२ famatond ****** पारिणामिकी बुद्धीनां दृष्टान्ताः For Parts Only ~ 332~ पारिणामि क्युदाहरणानि मा. ७१-४ ५ inary or Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||७४|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७...] श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ॥१६५॥ हरणानि गाथा ||७१ 454545645-15-% चेव थूलभद्दे अ १३ । नासिकसुंदरिनंदे १४ वइरे १५ परिणामबुद्धीए ॥ ७३ ॥ चलणा- पारिणामिहण १६ आमंडे १७ मणी अ १८ सप्पे अ १९ खग्गि २० थूभिंदे २१ । परिणामियबुद्धीए है क्युदाएवमाई उदाहरणा ॥ ७ ॥ से तं असुअनिस्सियं ॥ गा.७१-४ __'अणुमाणे'त्यादि, लिङ्गालिशिनि ज्ञानमनुमानं, तच खार्थानुमानमिह द्रष्टव्यं, अन्यथा हेतुग्रहणस्य नैरर्थक्यापत्तेः, अनुमानप्रतिपादकं वचो हेतुः, परार्थानुमानमित्यर्थः, अथवा ज्ञापकमनुमानं, कारकं हेतुः, दृष्टान्तः प्रतीतः, आहहै अनुमानग्रहणेन दृष्टान्तस्य गतत्वादलमस्योपन्यासेन, उच्यते, अनुमानस्य कचिदृष्टान्तमन्तरेणान्यथानुपपत्तिग्राहकप्रमा णवलेन प्रवृत्तेः, यथा सात्मकं जीवच्छरीरं, प्राणादिमत्त्वान्यथानुपपत्तेः, न च दृष्टान्तोऽनुमानस्याङ्गं, यत उक्तम्"अन्यथाऽनुपपन्नत्वं, यत्र तत्र त्रयेण किम् ?" ततः पृथग् दृष्टान्तस्योपादानं, तत्र साध्यस्योपमाभूतो दृष्टान्तः, तथा चोक्तम्-"यः साध्यस्योपमाभूतः, [स] दृष्टान्त इति कथ्यते।" अनुमानहेतुदृष्टान्तैः साध्यम) साधयतीति अनुमानहेतुदृष्टान्तसाधिका, तथा कालकृतो देहावस्थाविशेषो वयस्तद्विपाके परिणामः-पुष्टता यस्याः सा बयोविपाक- १६५|| परिणामा, तथा हितम्-अभ्युदयो निःश्रेयसं-मोक्षस्ताभ्यां फलवती, ते द्वे अपि तस्याः फले इत्यर्थः, बुद्धिः परि|णामिकी नाम । अस्या अपि शिष्यगणहितायोदाहरणैः स्वरूपं प्रकटयति-'अभये' इत्यादिगाथात्रयं, अस्याः कथा- २५ |नकेभ्योऽबसेयः, तानि च कथानकानि प्रायोऽतीव गुरुणि प्रसिद्धानि च ततो ग्रन्थान्तरेभ्योऽयसेयानि, इह त्वक्ष-18 -७४|| दीप अनुक्रम [१०६ -११०]] Santarathi ~333~ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||७४|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ACAN [२७...] N गाथा ||७१ रयोजनामात्रमेव केवलं करिष्यते । तत्र 'अभय'त्ति अभयकुमारस्य यच्चण्डप्रद्योताद्वरचतुष्टयमार्गणं यच्चण्डप्रयोत पारिणामिबवा नगरमध्येनारटन्तं नीतयानित्यादि सा पारिणामिकी बुद्धिः। 'सेटि'त्ति काष्ठश्रेष्टी, तस्य यत्खभार्यादुश्चरित-81 क्युदा मवलोक्य प्रव्रज्याप्रतिपत्तिकरणं, यच पुत्रे राज्यमनुशासति वर्षाचतुर्मासकानन्तरं विहारक्रमं कुर्वतः पुत्रसमक्षं | हरणानि गा.७१-४ [धिग्जातीयैरुपस्थापिताया यक्षरिकाया आपन्नसत्त्वायास्त्वदीयोऽयं गर्भस्त्वं च प्रामान्तरं प्रति चलितः ततः कथमहं | भविष्यामीति बदन्त्याः प्रवचनापयशोनिवारणाय यदि मदीयो गर्भस्ततो योनर्विनिर्गच्छतु नो चेदुदरं भित्त्वा | विनिर्गच्छत्विति यत् शापप्रदान, सा परिणामिकी बुद्धिः । 'कुमारे ति मोदकप्रियस्य कुमारस प्रथमे वयसि वर्तमानस्य कदाचिद्गुणन्यां गतस्य प्रमदादिभिः सह यथेच्छं मोदकान् भक्षितवतोऽजीर्णरोगप्रादुर्भावादतिपूतिगन्धि वातकायमुत्सृजतो या उद्गता चिन्ता, यथा अहो! तारशान्यपि मनोहराणि कणिक्कादीनि द्रव्याणि शरीरसम्पर्कव|शात्पूतिगन्धानि जातानि, तस्माद् धिगिदमशुचि शरीरं, धिम्मोहो, यदेतस्यापि शरीरस्य कृते जन्तुः पापान्यारभते, इत्यादिरूपा सा पारिणामिकी बुद्धिः, तत ऊ तस्य शुभशुभतराध्यवसायभावतोऽन्तर्मुहूर्तेन केवलज्ञानोत्पत्तिः । | देवित्ति देव्याः पुष्पवत्यभिधानायाः प्रवज्यां परिपाल्य देवत्वेनोत्पन्नाया यत्पुष्पचूलाभिधानायाः खपुत्र्याः खप्ने RI नरकदेवलोकप्रगटनेन प्रबोधकरणं सा पारिणामिकी बुद्धिः । 'उदिओदए'त्ति उदितोदवस राज्ञः श्रीकान्तापतेः | पुरिमतालपुरे राज्यमनुशासतः श्रीकान्तानिमित्तं वाणारसीवास्तव्येन धर्मरुचिना राज्ञा सर्ववलेन समागत्य निरुद्धस्य १३ -७४|| दीप अनुक्रम [१०६ KARE -११०] ~334~ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||७४|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीमलयगिरीया । [२७...] ॥१६६॥ t गाथा ||७१ प्रभूतजनपरिक्षयभयेन यद्वैश्रवणमुपवासं कृत्वा समाहूय सनगरस्यात्मनोऽन्यत्र सामणं सा पारिणामिकी बुद्धिःपारिणामि| 'साह य नंदिसेणेत्ति साधोः श्रेणिकपुत्रस्य नन्दिपेणय खशिष्यस्य व्रतमुज्झितुकामस्य स्थिरीकरणाय भगवर्द्धमान-II क्युदाखामिवन्दननिमित्तचलितमुक्ताभरणश्वेताम्बरपरिधानरूपरामणीयकविनिर्जितामरसुन्दरीकखान्तःपुरदर्शनं कृतं सा हरणानि गा. ७१-४ पारिणामिकी बुद्धिः, स हि नन्दिपेणस्य तादृशमन्तःपुरं नन्दिपेणपरित्यक्तं दृष्ट्वा दृढतरं संयमे स्थिरीबभूव । 'धणदत्तेत्ति धनदत्तस्य सुसमाया निजपुत्र्याः चिलातीपुत्रेण मारितायाः कालमपेक्ष्य यत्पललभक्षणं सा पारिणामिकी बुद्धिः । 'सायगोत्ति कोऽपि श्रावकः प्रत्याख्यातपरस्त्रीसम्भोगः कदाचिनिजजायासखीमवलोक्य तत्रातीवाध्युपपन्नः, तं च तादृशं दृष्ट्वा तद्भार्याऽचिन्तयत्-नूनमेष यदि कथमप्येतस्मिन्नध्यवसाये वर्तमानो म्रियते तर्हि नरकगति तिर्यग्गति वा याति तस्मात्करोमि कञ्चिदुपायमिति, तत एवं चिन्तयित्वा स्वपतिमभाणीत-मा त्वमातुरीभूः, अहं ते तां विकालवेलायां सम्पादयिष्यामि, तेन प्रतिपन्नं, ततो विकालवेलायामीपदन्धकारे जगति प्रसरति खसख्या वस्त्राभरणानि परिधाय सा खसखीरूपेण रहसि तमुपासपत्, स च सेयं मद्भार्यासखीत्सवगम्य तां परि | |१६६॥ भुक्तवान् , परिभोगे कृते चापगतकामाध्यवसायोऽस्मरच्च प्राग्गृहीतं व्रतं, ततो बतभङ्गो मे समुदपादीति खेदं कर्तुं 8 प्रवृत्तः, ततस्तद्भार्या तस्मै यथावस्थितं निवेदयामास, ततो मनाक् स्वस्थीवभूव, गुरुपादमूलं च गत्वा दुष्टमनःसङ्क- २५ |ल्पनिमित्तत्रतभङ्गविशुद्ध्यर्थं प्रायश्चित्तं प्रतिपन्नवान् , श्राविकायाः पारिणामिकी बुद्धिः । 'अमचे'त्ति वरधनुःपितुर-11 -७४|| ॐर दीप अनुक्रम [१०६ -११०]] ~335~ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||७४|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७...] गाथा ||७१ मात्यस्य ब्रह्मदत्तकुमारविनिर्गमनाय यत् सुरङ्गाखाननं, सा पारिणामिकी बुद्धिः। 'खमए'त्ति क्षपकस्य कोपवशेन ४ पारिणामिमृत्वा सर्पत्वेनोत्पन्नस्य ततोऽपि मृत्वा जातराजपुत्रस्य प्रत्रज्याप्रतिपत्ती चतुरः क्षपकान् पर्युपासीनस्य यद्भोजन-18 क्युदावेलायां तैः क्षपकैः पात्रे नियूतनिक्षेपेऽपि क्षमाकरणमात्मनिन्दनं क्षपकगुणप्रशंसा सा पारिणामिकी बुद्धिः । 'अमचपुत्तेत्ति अमात्यपुत्रस्य वरधनुर्नाम्नो ब्रह्मदत्तकुमारविषये दीर्घपृष्ठवरूपज्ञापनादिषु तेषु २ प्रयोजनेषु पारिणामिकी बुद्धिः। 'चाणके'त्ति चाणाक्यस्य चन्द्रगुप्तस्य राज्यमनुशासतो भाण्डागारे निष्ठिते सति यदेकदिवसजाताश्चादि-15|५ याचनं सा पारिणामिकी बुद्धिः । 'थूलभद्देति स्थूलभद्रखामिनः पितरि मारिते नन्देनामात्यपदपरिपालनाय प्रार्थमानस्यापि यत्प्रवज्याप्रतिपत्तिकरणं सा पारिणामिकी बुद्धिः। नासिकसुंदरिनंदे'त्ति नासिक्यपुरे सुन्दरीभर्तृनन्दस्य भ्रात्रा | साधुना यन्मेरुशिरसि नयनं यच देवमैथुनकं दर्शितं सा पारिणामिकी बुद्धिः । 'पहर'त्ति वज्रस्वामिनो बालभावेऽपि वर्तमानस्य मातरमवगणय्य सहबहुमानकरणं सा पारिणामिकी बदिः। 'चलणाहण'त्ति कोऽपि राजा तरुणे युद्धाहते-यथा देय ! तरुणा एव पार्थे प्रियन्तां, किं स्थविरैः बलिपलितविशोभितशरीरैः, ततो राजा तान् । प्रति परीक्षानिमित्तं ब्रूते-यो मां शिरसि पादेन ताडयति तस्य को दण्ड इति ?, ते पाहुः-तिलमात्राणि खण्डानि स विकृत्य मार्यते इति, ततः स्थविरान् पप्रच्छ, तेऽवोचत्-देव! परिभाब्य कथयामः, ततस्तैरकान्ते गत्वा चिमन्तितं-को नाम हृदयवल्लभा देवीमतिरिच्यान्यो देवं शिरसि ताडयितुमीष्टे, हृदयवल्लभा च विशेषतः सन्माननीयेति, -७४|| ASSISTER दीप अनुक्रम [१०६ -११०]] I relaramrary.om ~336~ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२७]/गाथा ||७४|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक गिरीया [२७...] क्युदा ॐ54- 55* गाथा भीमलय- ततस्ते समागत्य राजानं विज्ञपयामासुः-देव! स विशेषतः सत्कारणीय इति, ततो राजा परितोषमुपाग- पारिणामि तस्तान् प्रशंसितवान्-को नाम वृद्धान् विहायान्य एवंविधबुद्धिभाग भवति, ततः सदैव स्थविरान् पार्थे मन्दीवृत्तिः हरणानि धारयामास न तरुणानिति, राज्ञः स्थविराणां च पारिणामिकी बुद्धिः । 'आमंडेत्ति कृत्रिममामलकमिति, गा.७१-४ ॥१६७। | कठिनत्वादकालत्वाच्च केनापि यथावस्थितं ज्ञातं तस्य पारिणामिकी बुद्धिः । 'मणि'त्ति कोऽपि सर्पो वृक्षमारुह्य सदैव पक्षिणामण्डानि भक्षयति, अन्यदा च स वृक्षस्थितो निपतितः, मणिश्च तस्य तत्रैव कचित् 3 प्रदेशे स्थितः, तस्य च वृक्षस्याधस्तात् कूपोऽस्ति, उपरिस्थितमणिप्रभाच्छुरितं च सकलमपि कूपोदकं रक्तीभूतमुपलक्ष्यते, कूपादाकृष्टं च खाभाविकं दृश्यते, एतच्च बालकेन केनापि निजपितुः स्थविरस्य निवेदितं, सोऽपि तत्र समागत्य सम्यपरिभाव्य मणि गृहीतवान् , तस्य पारिणामिकी बुद्धिः । 'सप्पे'त्ति सर्पस्य चण्डकौशिकस्य भगवन्तं दाप्रति या चिन्ताऽभूत-ईगयं महात्मेत्यादिका सा पारिणामिकी बुद्धिः । 'खग्ग'त्ति कोऽपि श्रावकः प्रथमयौवनमद मोहितमना धर्ममकृत्वा पञ्चत्वमुपागतः खङ्गः समुत्पन्नः, यस्य गच्छतो द्वयोरपि पार्थयोश्चम्मोणि लम्बन्ते स जीव-11 विशेपः खङ्गः, स चाटव्यां चतुष्पथे जनं मारयित्वा खादति, अन्यदा च तेन पथा गच्छतः साधून दृष्टवान् , स चा-121 क्रमितुं न शक्नोति, ततस्तस्य जातिस्मरणं भक्तप्रत्याख्यानं देवलोकगमनं, तस्य पारिणामिकी बुद्धिः । 'धूम'(भिंदे)त्ति विशालायां पुरि कूलवालकेन विशालाभङ्गाय यन्मुनिसुव्रतस्वामिपादुकास्तूपोत्खातनं सा तस्य पारिणामिकी बुद्धिः । CARDASCAKACES ||७१ -७४|| दीप अनुक्रम [१०६ -११०]] ~337~ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [२७]/गाथा ||७४...|| .............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [२७] पारिणामिक्या बुद्धेरेवमादीन्युदाहरणाति । 'सेत्त'मित्यादि, तदेतदश्रुतनिश्रितम् ॥ श्रुतनिश्रित मतिमेदाः से किं तं सुअनिस्सिअं?, २ चउविहं पण्णत्तं, तंजहा-उग्गह १ ईहा २ अवाओ ३ धारणा ४ सू. २७ (सू० २७) 'से कि तमित्यादि, अथ किं तच्छुतनिश्रितं मतिज्ञानं?, गुरुराह-श्रुतनिश्रितं मतिज्ञानं चतुर्विध प्रज्ञप्त, तद्यथा-अवग्रह ईहा अपायो धारणा च, तत्र अवग्रहणमवग्रहः-अनिदेश्यसामान्यमात्ररूपार्थग्रहणमित्यर्थः, यदाह चूर्णिकृत्-"सामन्नस्स रूवादिविसेसणरहियस्स अनिद्देसस्स अवग्गणमवग्गह" इति । तथा ईहनमीहा, सद्भतार्थपर्यालोचनरूपा चेष्टा इत्यर्थः, किमुक्तं भवति-अवबहादुत्तरकालमवायात्पूर्व सद्भतार्थ-15 विशेषोपादानाभिमुखोऽसद्भतार्थविशेषपरित्यागाभिमुखः प्रायोऽत्र मधुरत्वादयः शङ्खादिशब्दधा दृश्यंते न खरकर्कशनिष्ठुरतादयः शादिशब्दधा इत्येवंरूपो मतिविशेष ईहा, आह च भाष्यकृत्-"भूयाभूयविसेसादाणचायाभिमुहमीहा" तथा तस्यैवावगृहीतखेहितस्वार्थस्य निर्णयरूपोऽध्यवसायोऽवायः शाङ्क्ष एवायं शाह्न एवा (व वा) यमित्यादिरूपोऽवधारणात्मक प्रत्ययोऽवाय इत्यर्थः, तस्यैवार्थस्य निर्णीतस्य धरणं धारणा, सा च त्रिधा-अविच्युतिर्वासना स्मृतिश्च, तत्र तदुपयोगादविच्यवनमविच्युतिः, सा चान्तर्मुहूर्तप्रमाणा, | ततस्तयाऽऽहितो यः संस्कारः स वासना, सा च सङ्ख्येयमसोयं वा कालं यावद्भवति, ततः कालान्तरे कुतश्चि-१३ दीप अनुक्रम [१११] 'मति'नाम् अवग्रह आदि चत्वारः भेदा: ~338~ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [२७]/गाथा ||७४...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत 1GIसू, २८ सुत्राक [२७] दीप श्रीमलय- ताशार्थदर्शनादिकारणात् संस्कारस्य प्रबोधे यज्ज्ञानमुदयते-तदेवेदं यत् मया प्रागुपलब्धमित्यादिरूपं सा अवग्रहगिरीया स्मृतिः, उक्तं च-“तदनंतरं तदत्याविचवणं जो उ वासणाजोगो । कालंतरेण जे पुण अणुसरणं धारणा सा उ मेदी नन्दीबत्तिः ॥१॥" एताश्चाविच्युतिवासनास्मृतयो धारणालक्षणसामान्यान्वर्थयोगाद्धारणाशब्दवाच्याः॥ ॥१६॥ से किं तं उग्गहे ?, उग्गहे दुविहे पपणत्ते, तंजहा-अत्युग्गहे अ वंजणुग्गहे अ।(सू. २८) | MI से किं तमित्यादि, अथ कोऽयमवग्रहः १, सूरिराह-अवग्रहो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अर्थावग्रहश्च व्यञ्जना वग्रहश्च, तत्र अर्यते इत्यर्थः अर्थस्वावग्रहणं अर्थावग्रहः-सकलरूपादिविशेषनिरपेक्षानिर्देश्यसामान्यमात्ररूपार्थ-13 ग्रहणमेकसामयिकमित्यर्थः । तथा व्यज्यते अनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनं, तचोपकरणेन्द्रियस्य श्रोत्रादेः शब्दादिपरिणतद्रव्याणां च परस्परं सम्बन्धः, सम्बन्धे हि सति सोऽर्थः शब्दादिरूपः श्रोत्रादीन्द्रियेण व्यञ्जयितुं शक्यते, नान्यथा, ततः सम्बन्धो व्यञ्जनं, तथा चाह भाष्य कृत्-"बंजिंजइ जेणऽत्थो घडोब दीवेण बंजणं तं च । उवगरणिदियसदाइपरिणयद्दवसंबंधो ॥१॥" व्यञ्जनेन-सम्बन्धेनावग्रहणं-सम्बध्यमानस्य शब्दादिरूपस्यार्थस्था-18 ॥१६॥ व्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यञ्जनावग्रहः, अथवा व्यज्यन्त इति व्यअनानि, 'कृद्धहुल'मिति वचनात् कर्मण्यनद्, व्यानानां शब्दादिरूपतया परिणतानां द्रव्याणामुपकरणेन्द्रियसम्पासानामवग्रहः-अव्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यञ्जनावग्रह, १ तदनन्तरं तदर्थाविष्ययनं यस्तु वासनायोगः । कालान्तरे परघुनरनुस्मरण धारणा सा तु॥१॥२ व्यज्यते येनाओं घट इव दीपेन व्यानं तच । उपकरणेन्द्रियशब्दादिपरिणतद्रव्य संबन्धः ॥१॥ अनुक्रम [१११] ~339~ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [२८]/गाथा ||७४...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्राक [२८]] SCSSACCESS SOGS व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति ब्यञ्जनं-उपकरणेन्द्रियं तेन खसम्बद्धस्मार्थस्य-शब्दादेखग्रहणम्-अव्यक्तरूपःव्यञ्जनावपरिच्छेदो व्यञ्जनावग्रहः, इयमत्र भावना-उपकरणेन्द्रियशब्दादिपरिणतद्रव्यसम्बन्धे प्रथमसमयादारभ्यार्थावग्रहात् ग्रहेज्ञानं प्राक या सुप्तमत्तमूछितादिपुरुषाणामिव शब्दादिद्रव्यसम्बन्धमात्रविषया काचिदव्यक्ता ज्ञानमात्रा सा व्यञ्जनावग्रहः, स चान्तर्मुहुर्तप्रमाणः । अत्राह-ननु व्यअनावग्रहवेलायां न किमपि संवेदनं संवेद्यते, तत्कथमसौ ज्ञानरूपो गीयते ?, | उच्यते, अव्यक्तत्वान्न संवेद्यते, ततो न कश्चिद्दोषः,तथाहि-यदि प्रथमसमयेऽपि शब्दादिपरिणतद्रव्यैरुपकरणेन्द्रियस्य | सम्पृक्ती काचिदपि न ज्ञानमात्रा भवेत् ततो द्वितीयेऽपि समये न भवेत् , विशेषाभावात् , एवं यावच्चरमसमयेऽपि, जय च चरमसमये ज्ञानमर्थावग्रहरूपं जायमानमुपलभ्यते, ततःप्रागपि क्वापि कियती ज्ञानमात्रा द्रष्टव्या, अथर मन्येथाः-मा भूत्प्रथमसमयादिपु शब्दादिपरिणतद्रव्यसम्बन्धेऽपि काचिदपि ज्ञानमात्रा, शब्दादिपरिणतद्रव्याणां | तेषु समयेषु स्तोकत्वात् , चरमसमये तु भविष्यति, शब्दादिरूपपरिणतद्रव्यसमूहस्य तदानीं भूयसो भावात् , तदयुक्तं, कायतो यदि प्रथमसमयादिषु शब्दादिद्रव्याणां स्तोकत्वात सम्प्रक्तायव्यक्ताऽपि काचिदपि ज्ञानमात्रा न समुलसेत् | लातहिं प्रभूतसमुदायसम्पर्केऽपि न भवेत् , न खलु सिकताकणेष प्रत्येकमसति तैललेशे समुदायऽपि तल समुद्भवदुपल भ्यते, अस्ति च चरमसमये प्रभूतशब्दादिद्रव्यसम्पृक्ती ज्ञानं ततः प्राक्तनेष्वपि समयेषु स्तोकस्तोकतरेरपि शब्दादिपरिणतद्रव्यैः सम्बन्ध काचिदव्यक्ता ज्ञानमात्राऽभ्युपगन्तव्या, अन्यथा चरमसमयेऽपि ज्ञानानुपपत्तः, तथा चोक्त दीप अनुक्रम [११२] १० ~340~ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [२८]/गाथा ||७४...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत श्रीमलय- गिरीया नन्दात्तिा ॥१६९॥ सुत्राक [२८] श२० दीप अनुक्रम जसबहान वीसुं सत्वेसुवि तं न रेणुतेलंय । पत्तेयमणिच्छंतो कहमिच्छसि समुदये नाणं? ॥१॥" ततः व्यञ्जनावस्थितमेतत्-व्यञ्जनावग्रहो ज्ञानरूपः, केवलं तेषु ज्ञानमव्यक्तमेव बोद्धव्यं । चशब्दी स्वगतानेकभेदसूचकी, ते च ग्रहचतुष्कम् सू० २९ खगता अनेकभेदा अग्ने स्वयमेव सूत्रकृता वर्णयिष्यन्ते, आह-प्रथमं व्यजनावग्रहो भवति ततोऽर्थावग्रहः, ततः कस्मादिह प्रथममर्थावग्रह उपन्यस्तः?, उच्यते, स्पष्टतयोपलभ्यमानत्वात् , तथाहि-अर्थावग्रहः स्पष्टरूपतया सर्वरपि जन्तुभिः संवेद्यते, शीघ्रतरगमनादौ सकृत्सत्वरमुपलम्भे मया किश्चिद् दृष्टं परं न परिभावितं सम्यगिति व्यवहा-दा रदर्शनात् , अपि च-अर्थावग्रहः सर्वेन्द्रियमनोभावी व्यञ्जनावग्रहस्तु नेति प्रथममर्थावग्रह उक्तः ॥ सम्प्रति तु व्यञ्जना-1 वग्रहादूर्द्धमर्थावग्रह इति क्रममाश्रित्य प्रथमं व्यञ्जनावग्रहखरूपं प्रतिपिपादयिषुः शिष्यं प्रश्नं कारयति| से किं तं वंजणुग्गहे?, वंजणुग्गहे चउविहे पण्णत्ते, तंजहा-सोइंदिअवंजणुग्गहे घाणिदियवं. जणुग्गहे जिभिदियवंजणुग्गहे फासिंदिअर्वजणुग्गहे । से तं वंजणुग्गहे (सू. २९) 'से कि तमित्यादि,अथ कोऽयं व्यञ्जनावग्रहः?, आचार्य आह-व्यअनावग्रहश्चतुर्विधः प्रज्ञतः, तद्यथा-'श्रोत्रेन्द्रि-II ॥१६९॥ यव्यअनावग्रह' इत्यादि, अत्राह-सत्सु पञ्चखिन्द्रियेषु षष्ठे च मनसि कस्मादयं चतुर्विधो व्यावयेते', उच्यते, इह व्यञ्जनमुपकरणेन्द्रियस्य शब्दादिद्रव्याणां च परस्परं सम्बन्ध उच्यते, सम्बन्धश्चतुणोंमेव श्रोत्रेन्द्रियादीनां, न नयनमन- २५ १ यत् सर्वथा न विष्वक संपपि तत् न रेणुतलवत् । प्रत्येकमनिश्छन् कमिच्छसि समुदाय ज्ञानम् ? ॥१॥ [११२] SARERatinand ACEmirary.org ~341~ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [२९]/गाथा ||७४...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक RECOGRA-56* [२९] सोः, तयोरप्राप्यकारित्वात् , आह-कथमप्राप्यकारित्वं तयोरवसीयते ?, उच्यते, विषयकृतानुग्रहोपघाताभावात् , चक्षुषःप्रातथाहि-यदि प्रासमर्थ चक्षुर्मनो वा गृह्णीयात् तर्हि यथा स्पर्शनेन्द्रियं स्रक्चन्दनादिकं अङ्गारादिकं च प्राप्तमर्थ परि- प्यकारि[च्छिन्दत्तत्कृतानुग्रहोपघातभार भवति तथा चक्षुर्मनसी अपि भवेता, विशेषाभावात् , न च भवतः, तस्मादप्राप्यकारिणी ते, ननु दृश्यते एव चक्षुषोऽपि विषयकृतानुग्रहोपघाती, तथाहि-धनपटलविनिर्मुक्त नभसि सर्वतो निबिडजरठिमोपेतं करप्रसरमभिसर्पयन्तमंशुमालिनमनवरतमवलोकमानस्य भवति चक्षुपो विघातः, शशाङ्ककरकदम्बकं यदिवा तरङ्गमालोपशोभितं जलं तरुमण्डलं च शावलं निरन्तरं निरीक्षमाणस्य चानुग्रहः, तदेतदपरिभावितभाषितं, यतो न अमः-सर्वथा विषयकृतानुग्रहोपघाती न भवतः, किन्वेतावदेव बदामो-यदा विषयं विषयतया चक्षरवप्रा लम्बते तदा तत्कृतावनुग्रहोपघाती तस्य न भवत इति तदप्राप्यकारि, शेषकालंतु प्राप्तेनोपघातकेनोपघातो भविप्यति अनुग्राहकेण चानुग्रहः, तत्रांशुमालिनो रश्मयः सर्वत्रापि प्रसरमुपदधाना यदाउँशुमालिनः सम्मुखमीक्षते तदा ते चक्षुर्देशमपि प्राप्नुवन्ति, ततश्चक्षुःसम्प्राप्तास्ते स्पर्शनेन्द्रियमिव चक्षुरुपनन्ति, शीतांशुरश्मयश्च स्वभावत एव शीतलत्वादनुग्राहकाः, ततस्ते चक्षुःसम्प्राप्ताः सन्तस्ते स्पर्शनेन्द्रियमिव चक्षुरनुगृहन्ति, तरङ्गमालासकुलजलावलोकने च जलकणसम्पृक्तसमीरावयवसंस्पर्शतोऽनुग्रहो भवति, शाडुलतरुमण्डलावलोकनेऽपि शाडल तरुच्छायासम्पर्कशीतीभूतसमीरणसंस्पर्शात, शेषकालं तु जलावलोकनेऽनुग्रहाभिमान उपघाताभावादबसेयः, भवति चोपघाताभावेऽनुग्रहा-४१३ दीप अनुक्रम [११३] ARAGAR NET ~342~ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [२९]/गाथा ||७४...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: चक्षुषःप्राप्यकारिखम् प्रत सूत्रांक [२९] दीप श्रीमलयाभिमानो यथाऽतिसूक्ष्माक्षरनिरीक्षणाद्विनिवृत्त्य यथासुखं नीलीरक्तववाद्यवलोकने, इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यं, अन्यथा | गिरीया 18 समाने सम्पर्के यथा सूर्यमीक्षमाणस्य सूर्येणोपघातो भवति तथा हुतवहजलशलाद्यालोकने दाहलेदपाटनादयोऽपि नन्दीवृत्तिः कस्मान्न भवन्तीति ? । अपिच-यदि चक्षुः प्राप्यकारि तर्हि स्वदेशगतरजोमलाअनशिलाकादिकं किं न पश्यति ?, ॥१७॥ तस्मादप्राप्यकार्येव चक्षुः । ननु यदि चक्षुरप्राप्यकारि तर्हि मनोवत्तस्मादविशेषेण सर्वानपि दूरव्यवहितादीन अर्थान् न गृह्णाति ?, यदि हि प्राप्ते परिच्छिन्द्यात्तर्हि यदेवानावृतमदूरदेशं वा तदेव गृह्णीयात् नावृतं दूरदेशं वा, तत्र चक्षुरश्मीनां गमनासम्भवः सम्पर्काभावात् , ततो युज्यते चक्षुपो ग्रहणाग्रहणे, नान्यथा, तथा चोक्तम्-"प्राप्पका रि चक्षुः, उपलब्ध्यनुपलब्ध्योरनावरणेतरापेक्षणात् अदूरेतरापेक्षणाच, यदि" हि चक्षुरप्राप्यकारि भवेत्तदाऽऽवरणभा- भवादनुपलब्धिः अन्यथोपलब्धिरिति न स्यात्, न हि तदावरणमुपघातकरणसमर्थ, प्राप्यकारित्वे तु मूर्चद्रव्यप्रतिधा तादुपपत्तिमान् व्याघातोऽतिदूरे च गमनाभावादिति,प्रयोगश्चात्र-न चक्षुपो विषयपरिमाणं, अप्राप्पकारित्वात् ,मनोट्रवत् , तदेतदयुक्ततरं, दृष्टान्तस्य साध्यविकलत्वात् , न खलु मनोऽप्यशेपान् विपवान् गृहाति, तस्यापि सूक्ष्मेवागम |गम्यादिष्वर्थेषु मोहदर्शनात् , तस्माद् यथा मनोप्राप्यकार्यपि खावरणक्षयोपशमसापेक्षत्वात नियतविषयं तथा चक्षु- भारपि सावरणक्षयोपशमसापेक्षत्वादप्राप्यकार्यपि योग्यदेशावस्थितनियतविषयमिति न व्यवहितानामुपलम्भप्रसङ्गो नापि दूरदेशस्थितानामिति । अपि च-रष्टमप्राप्यकारित्वेऽपि तथाखभावविशेपायोग्यदेशापेक्षणं, यथाऽयस्कान्तस्य, २० अनुक्रम [११३] १७०|| ~343~ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [२९]/गाथा ||७४...|| ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: चक्षणमा प्यकारि प्रत त्वम् सुत्रांक [२९] दीप अनुक्रम न खल्वयस्कान्तोऽयसोऽप्राप्यकर्षणे प्रवर्त्तमानः सर्वस्याप्ययसो जगद्वर्त्तिन आकर्षको भवति, किन्तु प्रतिनियतस्यैव, (यत्तु)शङ्करखामी प्राह-"अयस्कान्तोऽपि प्राप्यकारी,अयस्कान्तच्छायाणुभिः सह समाकृष्यमाणवस्तुनः सम्बन्धमावात् , केवलं ते छायाणवः सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यन्ते" इति, तदेतदुन्मत्तप्रलपित, तदाहकप्रमाणाभावात् , न हि तत्र छायाणुसम्भवग्राहकं प्रमाणमस्ति, न चाप्रमाणकं प्रतिपत्तुं शक्नुमः, अथास्ति ग्राहकं प्रमाणमनुमानं, इह यदाकर्षणं तत्संसर्गपूर्वकं, यथाऽयोगोलकस्य सन्दंशेन, आकर्षणं चायसोऽयस्कान्तेन, तत्र साक्षादयस्कान्ते संसर्गः प्रत्यक्षवाधित इत्यर्थात् छायाणुभिः सह द्रष्टव्य इति, तदपि वालिशजल्पितं, हेतोरनैकान्तिकत्वात् , मन्त्रेण व्यभिचारात् , तथाहि-मन्त्रः मयमाणोऽपि विवक्षितं वस्त्वाकर्षति, न च तत्र कोऽपि संसर्ग इति, अपिच-यथा छायाणवः प्राप्तमयः समाकर्षन्ति तथा काठादिकमपि प्राप्त कस्मानाकर्षन्ति?, शक्तिप्रतिनियमादिति चेत् ननु स शक्तिप्रतिनियमोऽप्राप्तावपि तुल्य एवेति व्यर्थ छायाणुपरिकल्पनं । अन्यस्त्वाह-अस्ति चक्षुषः प्राप्यकारित्वे व्यवहितार्थानुपलधिरनुमान प्रमाणं, तदयुक्तं, अत्रापि हेतोरनैकान्तिकत्वात् , काचाभ्रपटलस्फटिकैरन्तरितस्याप्युपलब्धेः, अथेदमालाचक्षीथाः-नायना रश्मयो निर्गत्य तमर्थ गृहन्ति, नायनाश्च रश्मयस्तैजसत्वान्न तेजोद्रव्यैः प्रतिस्खल्यन्ते, ततो न कथि दोषः, तदपि न मनोरम, महाज्वालादौ स्खलनोपलब्धेः, तस्मादप्राप्यकारि चक्षुरिति स्थितं ॥ एवं मनसोप्राप्यकारित्वं भावनीयं, तत्रापि विषयकृतानुग्रहोपघाताभावाद, अन्यथा तोयादिचिन्तायामनुग्रहोऽग्निशस्त्रादिचिन्तायां [११३] ~344~ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [२९]/गाथा ||७४...|| .............. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत श्रीमलय- गिरीया नन्दीतिः ॥१७१॥ सूत्रांक [२९] चोपघातो भवेत् , ननु रश्यते मनसोऽपिहर्षादिभिरनुग्रहः, शरीरोपचयदर्शनात् , तथाहि-हर्पप्रकर्षवशान्मनसोऽपि मनसोयापुष्टताभयति, तद्वशाच खशरीरस्योपचयः, तथोपघातोऽपि शोकादिभिदृश्यते, शरीरदौर्बल्योरःक्षतादिदर्शनात, अतिशो- प्यकारिता ककरणतो हि मनसो विधातः सम्भवति, ततस्तद्वशाच्छरीरदौर्बल्यमतिचिन्तावशाच हृद्रोग इति, तदेतदतीवासम्बद्ध, यत इह मनसोप्राप्यकारित्वं साध्यमानं वर्तते, विषयकृतानुग्रहोपघाताभावात् , न चेह विषयकृतानुग्रहोपघाती त्वया मनसो दश्येते, तत्कथं व्यभिचारः?, मनस्तु खयं पुद्गलमयत्वाच्छरीरस्यानुग्रहोपघाती करिष्यति, यथेष्टानिष्टरूप आहारः, तथाहि-इष्टरूप आहारः परिभुज्यमानः शरीरस्य पोपमाधत्ते, अनिष्टरूपस्तूपसङ्घात (स्तूपघात), तथा मनोऽप्यनिष्टपुद्गलोपचितमतिशोकादिचिन्ता निबन्धनं शरीरस्य हानिमादधाति,इष्टपुद्गलोपचितं च हर्षादिकारणं पुष्टि, उक्तं च-इटानिट्ठाहारऽभवहारे होंति पुट्टिहाणीओ। जह तह मणसो ताओ पुग्गलगुणउत्ति को दोसो ? ॥१॥" तस्मात् मनोऽपि विषयकृतानुग्रहोपघाताभावादप्राप्यकारीति स्थितं ॥ इह सुगतमतानुसारिणः श्रोत्रमप्यप्राप्यकारि प्रपद्यन्ते, तथा च तद्वन्धः-"चक्षुःश्रोत्रं मनोऽप्राप्यकारी"ति,तदयुक्तं, इहाप्राप्यकारि तत्प्रतिपत्तुं शक्यते यस्य विपयकृतानुग्रहोपघाताभावो, यथा चक्षुर्मनसोः, श्रोत्रख च शब्दकृत उपधातो रश्यते, सद्योजातवालकस्य समीपे म-181 हाप्रयत्नताडितझल्लरीझात्कारश्रवणतो यद्वा विद्युत्प्रपाते तत्प्रत्यासन्नदेशवर्तिनां नि?पश्रवणतो वधिरीभावदर्शनात् , २५ १६ष्टानिष्ठादाराभ्यनदारे भवतः पुष्टिहानी । यथा तथा मनसस्ते पुद्गलगुणत्वादिति को दोषः । ॥१॥ दीप अनुक्रम [११३] ॥१७॥ SAREauratoninाल ~345~ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................... मूलं [२९/गाथा ||७४...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: का श्रोत्रखप्रा प्रत सुत्रांक [२९] शब्दपरमाणयो हि उत्पत्तिदेशादारभ्य सर्वतो जलतरङ्गन्यायेन प्रसरमभिगृहानाः श्रोत्रेन्द्रियदेशमागच्छन्ति, ततःसम्भवत्युपघातः, ननु यदि श्रोत्रेन्द्रियं देशं प्राप्तमेव शब्दं गृह्णाति नापासं तर्हि यथा गन्धादौ गृह्यमाणे न तत्र दूरास-18 तिकारिता बादितया भेदप्रतीतिरेवं शब्देऽपि न स्यात् , प्राप्तो हि विषयः परिच्छिद्यमानः सर्वोऽपि सन्निहित एव, तत्कथं तत्र दुरासन्नादिभेदप्रतीतिर्भवितुमर्हति ?, अथ च प्रतीयते शब्दो दूरासन्नादितया, तथा च लोके वक्तारः श्रूयन्ते-कस्थापि दूरे शब्द इति, अन्यच्च-यदि प्राप्तः शब्दो गृह्यते श्रोत्रेन्द्रियेण तर्हि चाण्डालोक्तोऽपि शब्दः श्रोत्रियेण श्रोत्रेन्द्रियसंस्पृष्टो गृह्यते इति श्रोत्रेन्द्रियस्य चाण्डालस्पर्शदोषप्रसङ्गः, तन्न श्रेयः श्रोत्रेन्द्रियस्य प्राप्यकारित्वं, तदेतदतिमहामोहस्य मलीमसभाषितं, त (य)तो यद्यपि शब्दः प्राप्तो गृखते श्रोत्रेन्द्रियेण तथापि यत उत्थितः शब्दस्तस्य दूरासन्नत्वे शब्देऽपि खभाववैचित्र्यसम्भवाहरासन्नादिभेदप्रतीतिर्भवति,तथाहि-दूरादागतः शब्दः क्षीणशक्तिकत्वात्खिन्न उपलक्ष्यते अस्पष्टरूपोवा, ततो लोको वदति-दूरे शब्दः श्रूयते, अस्य च वाक्यस्यायं भावार्थो-दूरादागतः शब्दः श्रूयते इति, स्यादेतद्-एवमतिप्रसङ्गः प्राप्नोति, तथाहि-एतदपि वक्तुं शक्यते-दूरे रूपमुपलभ्यते, किमुक्तं भवति?-दूरागतं रूपमुपलभ्यते इति, ततश्चक्षुरपि प्राप्यकारि प्राप्नोति, न चेष्यते, तस्मान्नैतत्समीचीनमिति, तदयुक्तं, यत इह चक्षुषो। | रूपकृतावनुग्रहोपघाती नोपलभ्येते, श्रोत्रेन्द्रियस्य तु शब्दकृत उपघातोऽस्ति, एतय प्रागेवोक्तं, ततो नातिप्रसङ्गापादनमुपपत्तिमत् , अन्यच-प्रसासन्नोऽपि जनः पवनस्य प्रतिकूलमवतिष्ठमानः शब्द न शृणोति, पवनवम॑नि तु दीप अनुक्रम [११३] १० M maanmarary orm ~346~ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [२९]/गाथा ||७४...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलय प्तिकारिता प्रत गिरीया नन्दीवृत्तिः ॥१७२॥ सुत्रांक %%%-542 [२९] वर्तमानो दूरदेशस्थितोऽपि शृणोति, तथा च लोके वक्तारो-न वयं प्रत्यासन्ना अपि त्वदीयं वचः शृणुमः, पवनय श्रोतस्पप्राप्रतिकूलमवस्थानात् , यदि पुनरप्राप्तमेव शब्दं रूपमिव जनाः प्रमिणुयुः तर्हि वातस्य प्रतिकूलमध्यवतिष्ठमाना रूप-18 मिव शब्दं प्रमिणुयुः, न च प्रमिण्वन्ति, तस्मात्प्राप्ता एव शब्दपरमाणवः श्रोत्रेन्द्रियेण गृह्यन्ते इति अवश्यमभ्युपगन्तव्यं, तथा च सति पयनस्य प्रतिकूलमवष्ठिमानानां श्रोत्रेन्द्रियं न शब्दपरमाणयो वैपुल्येन प्राप्नुपन्ति, तेषामन्यथा वातेन नीयमानत्वात् , ततो न ते शृण्वन्तीति न काचित्क्षितिः, यदपि चोक्त 'चाण्डालस्पर्शदोषः प्रामोतीति, तदपि चेतनाविकलपुरुषभाषितमिवासमीचीनं, स्पर्शास्पर्शव्यवस्थाया लोके काल्पनिकत्वात् , तथाहि-न स्पर्शव्यवस्था लोके पारमार्थिकी, तथाहि-यामेव भुवमने चाण्डालः स्पृशन् प्रयाति तामेव पृष्ठतः श्रोत्रियोऽपि, तथा यामेव नावमारोहति स्म चाण्डालस्तामेवारोहति श्रोत्रियोऽपि, तथा स एव मारुतचाण्डालमपि स्पृष्ट्वा श्रोत्रियमपि |स्पृशति, न च तत्र लोके स्पर्शदोषव्यवस्था, तथा शब्दपुद्गलस्पर्शेऽपि न भवतीति न कश्चिद्दोषः, अपि च-यथा केतकीदलनिचयं शतपत्रादिपुष्पनिचयंचा शिरसि निवध्य बपुपि वा मृगमदचन्दनायवलेपनमारचय्य विपणिवीभ्यामागत्य चाण्डालोऽवतिष्ठते तदा तद्तकेतकीदलादिगन्धपुद्गलाः श्रोत्रियादिनासिकास्वपि प्रविशन्ति, ततस्तत्रापि चाण्डाल P ॥१७२॥ स्पर्शदोपः प्राप्नोतीति तद्दोषभयान्नासिकेन्द्रियमप्राप्यकारि प्रतिपत्तव्यं, न चैत यतोऽप्यागमे प्रतिपाद्यते, ततो वा- २५ लिशजल्पितमेतदिति कृतं प्रसझेन ॥ केचित्पुनः श्रोत्रेन्द्रियस्य प्राप्यकारित्वमभ्युपगच्छन्तः शब्दस्याम्बरगुणत्वं प्रतिप दीप अनुक्रम [११३] ~347~ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [११३] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ २९ ]/ गाथा ||७४... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः द्यन्ते, तदयुक्तं, आकाशगुणतायां शब्दस्या मूर्त्तत्वप्रसक्तेः, यो हि यद्गुणः स तत्समानधर्मा, यथा ज्ञानमात्मनः, तथाहि-अमूर्त आत्मा, ततस्तगुणो ज्ञानमप्यमूर्त्तमेष, एवं शब्दोऽपि यथाकाशगुणस्तर्धाकाशस्या मूर्त्तत्वाच्छन्दस्यापि तद्गुणत्वेनामूर्त्तता भवेत्, न चासौ युक्तिसङ्गता, तलक्षणायोगात्, मूर्त्तिविरहो यमूर्त्तताया लक्षणं, न च शब्दानां मूर्त्तिविरहः, स्पर्शवत्त्वात्, तथाहि स्पर्शवन्तः शब्दाः, तत्सम्पर्कादुपघातदर्शनाल्लोष्टवत्, न चायमसिद्धो हेतुः, यतो दृश्यते | सद्योजात बालकानां कर्णदेशाभ्यर्णीकृत गाढास्फालितझल्लरीझात्कारश्रवणतः श्रवणस्फोटो, न चेत्यमुपघातकृत्त्वमस्पर्शवत्वे सम्भवति, यथा विहायसः, ततो विपक्षे गमनासम्भवान्नानैकान्तिकोऽपि, अतश्च स्पर्शवन्तः शब्दाः, तैरभिघाते गिरिगह्वरभित्त्यादिषु शब्दोत्थानालोष्टवत्, अयमपि हेतुरुभयोरपि सिद्ध:, तथाहि श्रूयन्ते तीव्रप्रयत्त्रोच्चारितशब्दाभिघाते गिरिगह्वरादिषु प्रतिशब्दाः प्रतिदिक, ततः स्पर्शवत्त्वान्मूर्त्ता एवं शब्दाः, 'रूपस्पर्शादिसन्निवेशो मूर्त्तिरिति वचनप्रामाण्यात्, ततः कथमिवाकाशगुणत्वं शब्दानामुपपत्तिमत् ? । अपि च तदाकाशमेकमनेकं वा ?, यद्येकं तर्हि योजनलक्षादपि श्रूयते, आकाशस्यैकत्वेन शब्दस्य च तद्गुणतया दूरासन्नादिभेदाभावात्, अथानेकमेवं सति वदनदेश एव स विद्यते इति कथं भिन्नदेशवर्त्तिभिः श्रोतृभिः श्रूयते ?, वदनदेशाकाशगुणतया तस्य श्रोतृगतश्रोत्रे - न्द्रियाकाशसम्बन्धाभावात्, अथ च श्रोत्रेन्द्रियाकाशसम्बन्धतया तच्छ्रवणमभ्युपगम्यते, तन्नाकाशगुणत्वाभ्युपगमः शब्दस्य श्रेयान् नन्वाकाशगुणत्वमन्तरेण शब्दस्यावस्थानमेव नोपपद्यते, अवश्यं हि पदार्थेन स्थितिमता Education Internationa For Park Lise Only ~348~ शब्दस्य द्रव्यत्वम् ५ १० १३ ra Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [२९]/गाथा ||७४...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलय- गिरीया प्रत नन्दीवृत्तिः सूत्रांक ॥१७॥ [२९] दीप भवितव्यं, तत्र रूपरसस्पर्शगन्धानां पृथिव्यादिमहाभूतचतुष्टयमाश्रयः, शब्दस्य त्वाकाशमिति, तदयुक्तम् , शब्दख एवं सति पृथिव्यादीनामप्याकाशगुणत्वासक्तः, तेषामायाकाशाश्रितत्वात , न खल्वाकाशमन्तरेण पृथि- द्रव्यत्वम् व्यादीनामप्यन्यदाश्रयः, अगुणत्वात्पृथिव्यादीनामाकाशगुणत्वमनुपपन्नमिति चेत्, न, आकाशाश्रितत्वेन भवन्नीत्या बलादपि तद्गुणत्वप्रसक्तेः, अथ नाश्रयणमात्रं तद्गुणत्वनिवन्धनं किन्तु समवायः, स चास्ति शब्दस्याकाशे न तु पृथिव्यादीनामिति, ननु कोऽयं समवायो नाम ?, एकत्र लोलीभावेनावस्थानं यथा पृथिव्यादिरूपाद्योरिति चेत् , न तर्हि शब्दस्याकाशगुणत्वमाकाशेन सहकत्र लोलीभावेन तस्याप्रतिपत्तेः, अथाऽऽकाशे उपलभ्यमानत्वात्तद्गुणता शब्दस्य, तूलकादेरपि तर्याकाशे उपलभ्यमानत्वात्तद्गुणत्वं प्रामोति, अथ तूलकादेः परमार्थतः पृथिन्यादिस्थानमाकाशे तूपलम्भो वायुना सञ्चार्यमाणत्वात् , यद्येवं तर्हि शब्दस्यापिन परमार्थतः स्थानमाकाशं किन्तु श्रोत्रादि, यत्पुनराकाशेऽवस्थानमुपलभ्यते तद्वायुना सञ्चार्यमाणत्वादवसेयं, तथाहि-यतो यतो वायुः सञ्चरति ततस्ततः शब्दोऽपि गच्छति, वातप्रतिकूलशब्दस्याश्रवणात्, उक्तं च-"यथा च प्रेर्यते तूलमाकाशे मातरिश्वना । तथा| शब्दोऽपि किं वायोः, प्रतीपं कोऽपि शब्दवित् ॥१॥” तन्नाकाशगुणः शब्दः, किन्तु पुद्गलमय इति स्थितम् । १७३॥ से किं तं अस्थुग्गहे ?, अत्युग्गहे छव्विहे पण्णत्ते, तंजहा-सोइंदिअअत्थुग्गहे चविखंदिअअस्थुग्गहे || २५ ! घाणिदिअअस्थुग्गहे जिभिदिअअत्थुग्गहे फासिंदिअअत्थुग्गहे नोइंदिअअत्युग्गहे । (सू० ३०) अनुक्रम [११३] ~349~ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [३०]/गाथा ||७४...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०] दीप अनुक्रम अथ कतिविधोऽयमर्थावग्रहः?,सूरिराह-अर्थावग्रहः पड्विधः प्रज्ञप्तः,तद्यथा-'श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रहः' इत्यादि, श्रोत्रेन्द्रि-II अर्थावग्रहयार्थावग्रहः, (श्रोत्रेन्द्रियेण) व्यअनावग्रहोत्तरकालमेकसामयिकमनिर्देश्यसामान्यरूपार्थावग्रहणं श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रहः, गावपाडा स्,३० एवं घाणजिवास्पर्शनेन्द्रियार्थावग्रहेष्वपि याच्यं, चक्षुर्मनसोस्तु व्यअनावग्रहो न भवति,ततस्तयोः प्रथममेव खरूपद्रव्य-13 गुणक्रियाषिकल्पनातीतमनिर्देश्यं सामान्यमात्ररूपार्थावग्रहणमर्थावग्रहोऽवसेयः। तत्र 'नोइंदियअत्थावग्गहो'त्ति नोइ|न्द्रियं-मनः,तथ द्विधा-द्रव्यरूपं भावरूपं च, तत्र मनःपर्याप्तिनामकर्मोदयतो यत् मनःप्रायोग्यवर्गणादलिकमादाय मनस्त्वेन परिणमितं तद्रव्यरूपं मनः,तथा चाह चूर्णिणकृत्-"मणपजत्तिनामकम्मोदयओ तज्जोग्गे मणोदवे घेत्तुं मणत्वेण परिणामिया दवा दवमणो भण्णइ ।" तथा द्रव्यमनोऽवष्टम्भन जीवस्य यो मननपरिणामः स भावमनः, तथा चाह चूर्णिकार एव-"जीवो पुण मणणपरिणामकिरियापन्नो भावमनो, किं भणिय होइ ?-मणदवालंधणो जीवस्स मणणवा वारो भावमणो भण्णई" तत्रेह भावमनसा प्रयोजनं, तदहणे अवश्यं द्रव्यमनसोऽपि ग्रहणं भवति, द्रव्यमनोऽन्तरेण दभावमनसोऽसम्भवात् , भावमनो विनापि च द्रव्यमनो भवति, यथा भवस्थकेवलिनः, तत उच्यते-भावमनसेह प्रयोजनं, तत्र नोइन्द्रियेण-भावमनसाऽर्थावग्रहो द्रव्येन्द्रियव्यापारनिरपेक्षो घटाद्यर्थखरूपपरिभावनाभिमुखः प्रथम मेकसामयिको रूपाद्यकारादिविशेषचिन्ताविकलोऽनिर्देश्यसामान्यमात्रचिन्तात्मको बोधो नोइन्द्रियार्थावग्रहः ॥ 81 तस्स णं इमे एगठुिआ नाणाघोसा नानावंजणा पंच नामधिज्जा भवंति, तंजहा-ओगेण्हणया ०१३ [११४] ~350~ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [३१]/गाथा ||७४...|| ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ॥१७॥ सुत्राक [३१] दीप अनुक्रम [११५] MAHAKAAGAR उवधारणया सवणया अवलंबणया मेहा । सेत्तं उग्गहे (सू०३१) अवग्रहका'तस्य' सामान्येनावग्रहस्य 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे 'अमूनि' वक्ष्यमाणानि एकार्थिकानि 'नानाघोसाणि'त्ति घोषाः र्थिकानि सू०३१ उदात्तादयः खरविशेषाः, आह च चूर्णिकृत्-"घोसा उदात्तादओ सरविसेसा" नाना घोषा येषां तानि नानाघोषाणि, तथा नाना व्यञ्जनानि-कादीनि येषां तानि नानाव्यअनानि, पञ्च नामान्येव नामधेयानि भवन्ति, 'तद्यथेति तेषालामेवोपदर्शने, 'ओगिण्हणया' इत्यादि, यदा पुनरवग्रहविशेषानपेक्ष्यामनि पश्चापि नामधेयानि चिन्त्यन्ते तदा परस्पर |भिन्नाथॉनि वेदितव्यानि, तथाहि-इहावग्रहस्त्रिधा, तद्यथा-व्यञ्जनावग्रहः सामान्यार्थावग्रहो विशेषसामान्याथीवनहश्श, तत्र विशेषसामान्यार्थावग्रह औपचारिकः स चानन्तरमेवाग्रे दर्शयिष्यते, तत्र 'ओगिण्हणय'ति अवगृखतेऽनेनेति अवग्रहणं, करणेऽनद्, व्यञ्जनावग्रहप्रथमसमयप्रविष्टशब्दादिपुरलादानपरिणामः, तद्भावोऽवग्रहणता। तथा 'उवधा-18 रणय'त्ति धार्यतेऽनेनेति धारणं, उप-सामीप्येन धारणं उपधारण-व्यञ्जनावग्रहेऽपि द्वितीयादिसमयेषु प्रतिसमयमपूर्वापूर्वशब्दादिपुद्गलादानपुरस्सरं प्राक्तनप्राक्तनसमयगृहीतशब्दादिपुरलधारणपरिणामः तद्भाव उपधारणता,तथा सवणयन' ॥१७॥ त्ति श्रूयतेऽनेनेति श्रवणम्-एकसामयिका सामान्यार्थावग्रहरूपो बोधपरिणामः तद्भावः श्रवणता, तथा 'अवलंबणय ति अवलम्च्यत इति अवलम्बनं, 'कृद्धहुल'मिति वचनात्कर्मण्यनट, विशेषसामान्यार्थावग्रहः कथं विशेषसामान्याथोव- २५ ग्रहोऽवलम्बनमिति ? चेत् , उच्यते,-इह शब्दोऽयमित्सपि ज्ञान विशेषावगमनरूपत्वादवायज्ञानं, तथाहि-शब्दोऽयं SAREastatin imminational ~351~ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [३१]/गाथा ||७४...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: अवग्रहकाथिकानि सू. ३१ प्रत सुत्रांक [३१] नाशब्दो-रूपादिः इति शब्दखरूपावधारणं विशेषावगमः, ततोऽस्मात् यत्पूर्वमनिर्देश्यसामान्यमात्रग्रहणमेकसामयिक स पारमार्थिकार्थावग्रहः, तत ऊद्दे तु यत्किमिदमिति विमर्शनं सा ईहा, तदनन्तरं तु यच्छब्दखरूपावधारणं शब्दो- |ऽयमिति तदवायज्ञानं, तत्रापि यदा उत्तरधर्मजिज्ञासा भवति-किमयं शब्दः शाङ्खः किं वा शाई: ? इति तदा पाश्चात्य शब्द इति ज्ञानं विशेषावगमापेक्षया सामान्यमात्रालम्बनमित्यवग्रह इत्युपचयंते, स च परमार्थतः सामान्यविशेषरूपालम्बन इति विशेषसामान्यार्थावग्रह इत्युच्यते, इदमेव च शब्द इति ज्ञानमवलम्च्य किमयं शासकिं वा शाः इति ज्ञानमुदयते, ततो विशेषसामान्यार्थावग्रहोऽवलम्बन इत्युक्तः, ततोऽवलम्बनस्य भावोऽवलम्बनता, ततोऽप्यूर्ट्स किमयं शाङ्खः ? किं वा शार्ङ्ग इतीहित्वा यच्छाङ्क्ष एव शाङ्ग एव वेति ज्ञानं तदवायज्ञानं, तदपि च किमयं शाङ्खोऽपि शब्दः मन्द्रः किं वा तार? इत्युत्तरविशेष जिज्ञासायां पाश्चात्यं पाश्चात्यमवायज्ञानमुत्तरोत्तरविशेषावगमाअपेक्षया सामान्यार्थावलम्बनमित्यवग्रह इत्युपचर्यते, किं मन्द्रः? किंवा तारः१ इतीह मन्द्र एवायं तार एवायमित्यवायः, एवमुत्तरोत्तरविशेषजिज्ञासायां पाश्चात्य पाश्चात्यमबायज्ञानमुत्तरोत्तरविशेषावगमापेक्षया सामान्यार्थावलम्बनमित्यवग्रह इत्युपचर्यते, यदा उत्तरधर्मजिज्ञासा न भवति तदा तदत्यं विशेषज्ञानमघायज्ञानमेव, नावग्रह इत्युपचयेते, उपचारनिवन्धनाभावात् , उत्तरविशेषाकाङ्क्षाया अपगमात् , ततस्तदनन्तरमविच्युतिरूपा धारणा प्रवर्तते, वासनास्मृती तु सर्वेष्वपि विशेषावगमेषु द्रष्टव्ये, तथा चाह प्रवचनोपनिषद्वेदी भगवान् जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणः दीप अनुक्रम [११५] १३ ~ 352~ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [३१]/गाथा ||७४...|| ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत कानि सूत्रांक [३१] दीप श्रीमलय-12"सामन्नमेत्तगहणं निच्छयओ समयमोग्गहो पढमो । ततोऽणतरमीहियवत्थुविसेसस्स जोऽवाओ॥१॥ सो पुण-18| गिरीया रीहावायाविक्खाओ उग्गहत्ति उपयरिओ। एस विसेसावेक्खा सामन्नं गेहए जेण ॥ २॥ तत्तोऽणतरमीहा तो अवाओ य तबिसेसस्स । इह सामन्नविसेसाऽवेक्खा जातिमो भेओ ॥३॥ सत्येहावाया निच्छयओ मोत्तुमाइसा॥१७५॥ मन्नं । संववहारत्थं पुण सवत्थावग्गहोऽवाओ॥४॥ तरतमजोगाभावेऽवाओ चिय धारणा तदंतमि । सवत्थ | वासणा पुण भणिया कालंतरसई य॥५॥"ति, तथा 'मेह'त्ति मेधा प्रथमं विशेषसामान्यार्थावग्रहमतिरिच्योत्तरः ४ सर्वोऽपि विशेषसामान्यार्थावग्रहः ॥ तदेवमुक्तानि पञ्चापि नामधेयानि भिन्नार्थानि, यत्र तु व्यञ्जनावग्रहो न पटते तत्राचं भेदद्वयं न द्रष्टव्यं, 'सेत्तं उग्गहो'त्ति निगमनम् । से किं तं ईहा ?, २ छव्विहा पण्णत्ता, तंजहा-सोइंदिअईहा चक्खिदियईहा घाणिदिअईहा जिभिदिअईहा फासिदिअईहा नोइंदिअईहा, तीसे णं इमे एगट्रिआ नाणाघोसा नाणावंजणा पंच नामधिज्जा भवंति, तंजहा-आभोगणया मग्गणया गवेसणया चिंता विमंसा, से तं ईहा॥ (सू. ३२) का॥१७५॥ सामान्यमात्रप्रदर्भ निश्चयतः समयमवग्रहः प्रथमः । ततोऽनन्तरमीहितवस्तुविशेषस्य योऽपायः ॥१॥ त पुनरीहापायापेक्षयाऽवग्रह इति उपचरितः । एष विशेषापेक्षया सामान्य गृहाति येन ॥२॥ ततोऽनन्तरमीदा ततोऽपायश्च तद्विशेषस्य । इह सामान्यविशेषापेक्षा यावदन्तिमो भेदः ॥ ३॥ सर्वोहापायी निशयतो मुक्याऽऽदिसामान्यम् । संव्यवहारार्थ पुनः सर्वत्रावाहोऽपायः ॥४॥ तारतम्ययोगाभावेभाय एवं धारणा तदन्ते। सर्वत्र वासना पुनर्भणिता कालान्तरस्मृतिश्च ॥५॥ SSSSC अनुक्रम [११५] SAREaraturina ~353~ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [३२]/गाथा ||७४...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [३२] अथ केयमीहा ?, हा पविधा प्रज्ञसा, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियेहा इत्यादि, तत्र श्रोत्रेन्द्रियेणेहा श्रोत्रेन्द्रियेहा, श्रोत्रेन्द्रि- हाया भेयार्थावग्रहमधिकृत्य या प्रवृत्ता ईहा सा श्रोत्रेन्द्रियेहा इत्यर्थः, एवं शेषा अपि साधनीयाः। 'तीसे 'मित्यादि सुगम, दाएकार्थ कानि च नवरं सामान्यत एकार्थिकानि, विशेषचिन्तायां पुनर्भिन्नार्थानि, तत्र 'आभोगणय'त्ति आभोग्यतेऽनेनेति आभोगन-1 अर्थावग्रहसमनन्तरमेव सद्भतार्थविशेषाभिमुखमालोचनं तस्य भाव आभोगनता, तथा माग्यतेऽनेनेति मार्गणं-सद्धतार्थविशेषाभिमुखमेव तदुर्द्धमन्वयव्यतिरेकधर्मान्वेषणं तद्भावो मार्गणता, तथा-गवेष्यतेऽनेनेति गवेषण-तत ऊर्दू 18 सद्भूतार्थविशेषाभिमुखमेव व्यतिरेकधर्मत्यागतोऽन्वयधर्माध्यासालोचनं तद्भावो गवेपणता, ततो मुहुर्मुहुः क्षयोपशमविशेषतः स्वधर्मानुगतसद्भूतार्थविशेषचिन्तनं चिन्ता, तत ऊर्द्धक्षयोपशमविशेषात्स्पष्टतरं सद्भूतार्थविशेषाभिमुखमेव व्यतिरेकधर्मपरित्यागतोऽन्वयधर्मापरित्यागतोऽन्वयधर्मविमर्शनं विमर्शः । से तं ईहे'ति निगमनम् । से कि तं अवाए ?, अवाए छविहे पण्णत्ते, तंजहा-सोइंदिअअवाए चक्खिदिअअवाए घाणिंदिअअवाए जिभिदिअअवाए फासिंदिअअवाए नोइंदिअअवाए । तस्स णं इमे एगढिआ नाणाघोसा नाणावंजणा पंच नामधिज्जा भवन्ति, तंजहा-आउट्टणया पञ्चाउद्दणया अवाए बुद्धी विण्णाणे, से तं अवाए ॥ (सू. ३३) दीप CRACIASKX अनुक्रम [११६] ~354~ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) .................... मूलं [३३]/गाथा ||७४...|| ........... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३] श्रीमलय- गिरीया नन्दीवृत्तिः ॥१६॥ दीप अनुक्रम 156251-552 अत्र श्रोत्रेन्द्रियेणायायः श्रोत्रेन्द्रियावायः, श्रोत्रेन्द्रियनिमित्तमर्थावग्रहमधिकृत्य यः प्रवृतोऽपायः स श्रोत्रेन्द्रि IN अपायकायापाय इत्यर्थः, एवं शेषा अपि भायनीयाः। 'तस्स ण'मित्यादि प्राग्वत् , अत्रापि सामान्यत एकार्थिकानि, र्थिकानि विशेषचिन्तायां पुनर्नानार्थानि, तत्र आवर्तते-ईहातो निवृत्यापायभावं प्रत्यभिमुखो वर्तते येन बोधपरिणामेन स टासू. ३४ आवर्तनस्तद्भाव आवर्त्तनता, तथा आवर्तनं प्रति ये गता अर्थविशेषेपूत्तरोत्तरेषु विवक्षिता अपायप्रत्यासन्नतरा बोधविशेषास्ते प्रत्यावर्तनाः तद्भावः प्रत्यावर्तनता, तथा अपायो-निश्चयः सर्वथा ईहाभावाद्विनिवृत्तस्यावधारणा-अबधारितमर्थमवगच्छतो यो बोधविशेषः सोऽपाय इत्यर्थः, ततस्तमेवावधारितमर्थ क्षयोपशमविशेषास्थिरतया पुनः, पुनः स्पष्टतरमवबुध्यमानस्य या बोधपरिणतिः सा बुद्धिः, तथा विशिष्टं ज्ञानं विज्ञान-क्षयोपशमविशेषादेवावधारितार्थविषय एव तीव्रतरधारणाहेतुर्बोधविशेषः, 'सेत्तं अवाए' इति निगमनम् । से किं तं धारणा ?, धारणा छव्विहा पण्णत्ता, तंजहा-सोइंदिअधारणा चक्खिदिअधारणा घाणिदिअधारणा जिभिदिअधारणा फासिंदिअधारणा नोइंदिअधारणा। तीसे णं इमे एगद्विआ नाणाघोसा नाणावंजणा पंच नामधिज्जा भवंति, तंजहा-धारणा साधारणा ठवणा ४॥१७६॥ पइट्टा कोटे, से तं धारणा ॥ (सू. ३४) |२४ [११७] ~355~ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) .................... मूलं [३४]/गाथा ||७४...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत र्थिकानि अवग्रहादिकालमानच सुत्राक [३४] दीप अनुक्रम 'से किं तमित्यादि सुगम यावद्धारणा इत्यादि, अत्रापि सामान्यत एकार्थानि विशेषार्थचिन्तायां पुनर्भिन्नार्थानि, तत्रापायानन्तरमवग तस्यार्थस्याविच्युत्याऽन्तर्मुहूर्त्तकालं यावद्धरणं धारणा, ततस्तमेवार्थमुपयोगात् च्युतं जघन्यतो|ऽन्तर्मुहर्तादुत्कर्षतोऽसङ्ख्येयकालात् परतो यत्स्मरणं सा धारणा, तथा स्थापनं स्थापना, अपायावधारितस्यार्थस्य ददि स्थापनं, वासनेत्यर्थः, अन्ये तु धारणास्थापनयोय॑त्यासेन खरूपमाचक्षते, तथा प्रतिष्ठापनं प्रतिष्ठा-अपायावधा|रितस्यैवार्थस्य हदि प्रभेदेन प्रतिष्ठापनमित्यर्थः, कोष्ठ इव कोष्ठः अविनष्टसूत्रार्थधारणमित्यर्थः । 'सेत्तं धारणा' सेयं धारणा ॥ सम्प्रति अवग्रहादेः कालप्रमाणप्रतिपादनार्थमाहउग्गहे इक्कसमइए, अंतोमुहृत्तिआ ईहा,अंतोमुहुत्तिए अवाए, धारणा संखेज्जं वा कालं असंखेज वा कालं ॥ (सू. ३५)॥ एवं अट्ठावीसइविहस्स आभिणिबोहिअनाणस्स वंजणुग्गहस्स परूवणं करिस्सामि पडिबोहगदिटुंतेण मल्लगदि,तेण यासे किं तं पडिवोहगदिटुंतेणं?,पडिबोहगदिटुंतेणं से जहानामए केइ पुरिसे कंचि पुरिसं सुत्तं पडिवोहिजा अमुगा अमुगत्ति, तत्थ चोअगे पन्नवगं एवं वयासी-किं एगसमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति दुसमयपविट्टा पुग्गला गहणमागच्छति जाव दससमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति संखिजसमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छति [११७] । ~356~ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [३५-३६]/गाथा ||७४...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५-३६] श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ॥१७७॥ प्रतियोधकदृष्टान्तोमल्लकदृष्टान्यश्च दीप अनुक्रम [११९-१२० असंखिज्जसमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति?, एवं वदंतं चोअगं पण्णवए एवं वयासी-नो एगसमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति नो दुसमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति जाव नो दससमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति नो संखिजसमयपबिट्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति असंखिजसमयपविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छंति, से तं पडिबोहगदिदैतेणं । से किं तं मल्लगदिटुंतेणं?, मल्लगदिटुंतेणं से जहानामए केइ पुरिसे आवागसीसाओ मल्लगं गहाय तत्थेगं उदगबिंदु पक्खेविजा, से नट्रे, अण्णेऽवि पक्खित्ते सेऽवि नढे, एवं पक्खिप्पमाणेसु पक्खिप्पमाणेसु होही से उदगबिंदू जे णं तं मल्लगं रावेहिइत्ति, होही से उदगबिंदू जे णं तंसि मल्लगंसि ठाहिति, होही से उदगबिंद जेणं तं मल्लगं भरिहिति, होही से उदगबिंदू जे णं तं मल्लगं पवाहेहिति, एवामेव पक्खिप्पमाणेहिं पक्खिप्पमाणेहिं अणंतेहिं पुग्गलेहिं जाहे तं वंजणं पूरिअं होइ ताहे इंति करेइ, नो चेव णं जाणइ केवि एस सदाइ ?, तओ ईहं पविसइ, तओ जाणइ अमुगे एस सद्दाइ, तओ अवायं पविसइ, तओ से उवगयं हवइ, तओणंधारणं पविसइ, तओ णं धारेइ संखिजं वा कालं असंखिजं वा कालं। से जहानामए केइ पुरिसे ॥१७७॥ 1२४ For ~ 357~ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [३५-३६] दीप अनुक्रम [११९ -१२०] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ३५-३६ ] / गाथा ||७४... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .....आगमसूत्र -[ ४४], चूलिका सूत्र -[१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः अव्वतं स सुणिज्जा तेणं सहोत्ति उग्गहिए, नो चेत्र णं जाणइ के वेस सदाइ, तओ ईहं विस, तओ जाणइ अमुगे एस सहे, तओ णं अवायं पविसइ, तओ से उवगयं हवइ, तओ धारणं पविसइ, तओ णं धारेइ संखेज्जं वा कालं असंखेज्जं वा कालं । से जहानामए केई पुरिसे अव्वत्तं रूवं पासिजा, तेणं रूवत्ति उम्गहिए नो चेव णं जाणइ के वेस रूवति, तओ ई पविस, तओ जाइ अगे एस रूवेत्ति, तओ अवायं पविसइ, तओ से उवगयं हवइ, तओ धारणं पविस, तओ णं धारेइ संखेजं वा कालं असंखिज्जं वा कालं । से जहानामए केई पुरिसे अव्वत्तं गंध अग्घाइज्जा, तेणं गंधत्ति उग्गहिए, नो चेत्र णं जाणइ के वेस गंधेत्ति, ओ विस, तओ जाइ अमुगे एस गंधे, तओ अवायं पविसइ, तओ से उवगयं हवइ, तओ धारणं पविस, तओ णं धारेइ संखेज्जं वा कालं असंखेज्जं वा कालं । से जहानामए केई पुरिसे अव र साइज्जा, तेणं रसोत्ति उग्गहिए, नो चेव णं जाणइ के वेस रसेत्ति, तओ ईहं पविसइ, ओ जाइ अगे एस रसे, तओ अवायं पविसइ, तओ से उवगयं हवइ, तओ धारणं पवि For Pass Use Only ~358~ प्रतिबोधक दृष्टान्तो मलकदृष्टान्तम सू. ३६ ५ ११ waryra Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [३५-३६]/गाथा ||७४...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५-३६] श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ॥१७८॥ प्रतिबोधकदृष्टान्तो. मल्लकदृष्टान्तञ्च दीप अनुक्रम [११९ -ॐॐॐ0515 सइ, तओ णं धारेइ संखिजं वा कालं असंखिंजं वा कालं । से जहानामए केई पुरिसे अव्वत्तं फासं पडिसंवेइजा, तेणं फासेत्ति उग्गहिए,नो चेवणं जाणइ के वेस फासओत्ति,तओ ईहं पविसइ, तओ जाणइ-अमुगे एस फासे, तओ अवायं पविसइ, तओ से उवगयं हवइ, तओ धारणं पविसइ, तओ णं धारेइ संखेज वा कालं असंखेज वा कालं । से जहानामए केई पुरिसे अव्वत्तं सुमिणं पासिज्जा, तेणं सुमिणोति उग्गहिए, नो चेव णं जाणइ के वेस सुमिणेत्ति, तओ ईहं पविसइ, तओ जाणइ-अमुगे एस सुमिणे, तओ अवायं पविसइ, तओ से उवगयं हवइ, तओ धारणं पविसइ, तओधारेइ संखेज वा कालं असंखेनं वा कालं। से तं मल्लगदिéतेणं॥(सू. ३६) अवग्रहः-अर्थावग्रह एकसामयिकः, आन्तर्मुहूर्तिकी ईहा, आन्तर्मुहूर्तिकोऽवायः, धारणा साधेयं वा कालमसङ्ख्येयं वा,तत्र सङ्ख्येयवर्षायुषां सद्ध्येयकालमसङ्ख्येयवर्षायुषामसङ्ख्येयं कालं,सा च धारणा सङ्ख्येयमसङ्ख्येयं वा कालं यावद्वासनारूपा द्रष्टव्या,अविच्युतिस्मृत्योरजघन्योत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तप्रमाणत्वात् ,यत उक्तं भाष्यकृता-“अत्थोरंगहो जहन्नं समओ सेसोग्गहादओ वीसुं। अंतोमुहुत्तमेगंतु वासणाधारणं मोतुं॥१॥"एवं 'अट्ठावीसे'सादि, 'एवम्' उक्तेन प्रकारेणाष्टाविंश१ अर्यावरही जपन्यतः समयः शेषा अपमहादयो विध्वक् । अन्तर्मुहूर्तमेकमेव वासना धारणा भरणा ॥१॥ -१२०] ॥१७८॥ SAREnainitariatana ~359~ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [३५-३६]/गाथा ||७४...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रतिरोधकदृष्टान्तो प्रत मल्लक दृष्टान्तश्च सूत्रांक [३५-३६] दीप अनुक्रम [११९-१२०] ५तिविधस्य, कथमष्टाविंशतिविधतेति, उच्यते, चतुर्की व्यजनावग्रहः पोढा अर्थावग्रहः पोढा ईहा षडियोऽपायः पोढा धारणा इत्यष्टाविंशतिविधता, एवमष्टाविंशतिविधस्थाभिनिबोधिकज्ञानस्य सम्बन्धी यो व्यञ्जनावग्रहः तस्य स्पष्टतर-1 खरूपप्रतिज्ञापनाय प्ररूपणां करिष्यामि। कथं ? इत्याह-प्रतिबोधकदृष्टान्तेन मल्लकदृष्टान्तेन च, तत्र प्रतिबोधयतीति प्रतिबोधकः-सुप्तस्योत्थापकः स एव दृष्टान्तः प्रतिबोधकरष्टान्तस्तेन, मल्छकं-शरावं तदेव दृष्टान्तो मलकदृष्टान्तस्तेन च, अथ केयं प्रतिबोधकदृष्टान्तेन?, व्यञ्जनावग्रहस्य प्ररूपणेति शेषः, आचार्य आह-प्रतिबोधकरष्टान्तेनेयं व्यअनावग्रहप्ररूपणा, स यथानामको-यथासम्भवनामधेयकः कोऽपि पुरुषः, अत्र सर्वत्राप्येकारो मागधिकभाषालक्षणानुसरणात् , तथ प्रागेवानेकश उक्त, कश्चिदनिर्दिष्टनामानं यथासम्भवनामकं पुरुष सुप्तं सन्तं प्रतिबोधयेत् , कथमिसाह-'अमुक अमुक' इति, अत्र एवमुक्ते स 'चोदको' ज्ञानावरणकर्मोदयतः कथितमपि सूत्रार्थमनवगच्छन् प्रश्नं चोदयतीति चोदकः, यथावस्थितं सूत्रार्थ प्रज्ञापयतीति प्रज्ञापको-गुरुः, तं 'एवं वक्ष्यमाणेन प्रकारेणावादीत् ,भूतकालनिर्देशोऽनादिमानागम इति ख्यापनार्थो, बदनप्रकारमेव दर्शयति-किमेकसमयप्रविष्टाः पुद्गला ग्रहणमागच्छन्ति ?प्रायतामुपगच्छन्ति, किं वा द्विसमयप्रविष्टाः? इत्यादि सुगम, एवं वदन्तं चोदकं प्रज्ञापकः (एवं-वक्ष्यमाणेन प्रकारेण) 'अवादीत् उक्तवान्-'नो एकसमयप्रविष्टा' इत्यादि, प्रकटार्थ यावन्नो सवयेयसमयप्रविष्टाः पुद्गला ग्रहणमागच्छन्ति, | नवरमय प्रतिषेधः स्फुटप्रतिभासरूपार्थावग्रहलक्षणविज्ञानग्राह्यतामधिकृत्य वेदितव्यो, यावता पुनः प्रथमसम CS ~360~ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [३५-३६]/गाथा ||७४...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: 25 * प्रत सूत्रांक [३५-३६] श्रीमलय-15 यादप्यारभ्य किञ्चित्किञ्चिदव्यक्तं ग्रहणमागच्छन्तीति प्रतिपत्तव्यं ? जवंजणोग्गहणमिति भणियं विनाणं अवच'- प्रतिपोषकगिरीया मिति वचनप्रमाण्यात् , 'असंखेजे'त्यादि, आदित आरभ्य प्रतिसमयप्रवेशनेनासङ्ख्येयान् समयान् यावत् ये प्रविष्टा-1 दृष्टान्ती नन्दीवृत्तिः मल्लक तेऽसङ्ख्येयसमयप्रविष्टाः पुद्गला ग्रहणमागच्छन्ति-अर्थावग्रहरूपविज्ञानग्राह्यतामुपपद्यन्ते, असङ्ख्ये यसमयप्रविष्टेषु तेषु ॥१७९॥ चरमसमये प्रविष्टाः पुद्गला अर्थावग्रहविज्ञानमुपजनयन्तीत्यर्थः, अर्थावग्रहविज्ञानाच्च प्राक् सर्वोऽपि व्यअनावग्रहः, एषा प्रतियोधकदृष्टान्तेन व्यञ्जनावग्रहस्य प्ररूपणा । व्यञ्जनावग्रहस्य च कालो जघन्यत आवलिकाऽसद्धयेयभागः, उत्कर्षतः सङ्ख्ययावलिकाः, ता अपि सक्या आवलिका आनपानपृथक्त्वकालमाना वेदितव्याः, यत उक्तम्"वंजणेवग्गहकालो आवलियासंखभागतुलो उ। थोवा उकोसा पुण आणापाणूपुहुतंति ॥१॥" 'सेत्त'मित्यादि निगमनं, सेयं प्रतिबोधकदृष्टान्तेन व्यअनावग्रहस्य प्ररूपणा । 'से किं तमित्यादि, अथ केयं मल्लकदृष्टान्तेन व्यञ्जनावग्रहस्स प्ररूपणा ?, सोऽनिर्दिष्टखरूपो यथानामकः कश्चिKात्पुरुषः 'आपाकशिरसः' आपाकः प्रतीतः तस्य शिरसो मल्लक-शरावं गृहीत्वा, इदं हि किल रूक्षं भवति ततोऽस्यो-18॥१७९।। तपादानं, तत्र मल्लके एकमुदकविन्दं प्रक्षिपेत् स नष्टः, तत्रैव तद्भावपरिणतिमापन्न इत्यर्थः, ततो द्वितीयं प्रक्षिपेत्सोऽपि २४ १ यथानावग्रहणमिति भणितं विज्ञानमव्यकं. २ व्यन्जनावग्रहकाल आवलिकासंख्यभागतुल्य एव । स्तोकार उधरपुनरानप्राणपूषवत्यमिति ॥ १॥ दीप अनुक्रम [११९-१२०] 2 5 *5* * Baitaram.org ~361~ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............. मूलं [३५-३६]/गाथा ||७४...|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५-३६] दीप अनुक्रम [११९-१२० I|विनष्टः, एवं प्रक्षिप्यमाणेषु २ भविष्यति स उदकविन्दुर्यस्तन्मलकं 'राहिइ'इति देश्योऽयं शब्दः,आर्द्रतां नेष्यति, शेष प्रतिबाधकसुगम यावदेव'मित्यादि, एवमेव उदकविन्दुभिरिव निरन्तरं प्रक्षिप्यमाणैः प्रक्षिप्यमाणैरनन्तैः शब्दरूपतापरिणतः दृष्टान्तो. मल्लक पुरलयंदा तद्वयानं पूरितं भवति तदा हुङ्कारं मुञ्चति-तदा तान्पुद्गलाननिर्दिश्यरूपतया परिच्छिनत्तीति भावार्थः ।। दृष्टान्तश्च अत्र व्यअनशब्देनोपकरणेन्द्रियं शब्दादिपरिणतं या द्रव्यं तयोः सम्बन्धो वा गृह्यते,तेन न कश्चिद्विरोधः, आह चभाष्यकृत्-"तोएण मलगंपिव वंजणमापूरियंति जं भणियं । तं दवमिदियं वा तस्संबंधो वन विरोहो ॥१॥" तत्र यदा व्यञ्जनं उपकरणेन्द्रियमधिक्रियते तदा पूरितमिति कोऽङ्कः ?-परिपूर्ण भृतं व्याप्तमित्यर्थः, यदा व्यञ्जनं द्रव्यममिगृह्यते तदा प्ररितमिति-प्रभूतीकृतं खप्रमाणमानीतं खव्यक्ती समर्थीकृतमित्यर्थः, यदा तु व्यञ्जनं द्वयोरपि सम्बन्धो गृह्यते तदा पूरितमिति किमुक्तं भवति ?-तावत् सम्बन्धोऽभूत् यावति सति ते शब्दादिपुद्गला ग्रहणमागच्छन्ति, आह चूर्णिकृत्-"यदा पुग्गलदवा वंजणं तया पूरियंति-पभूया ते पुग्गलदवा जाया-खं प्रमाणमानीताः सविसयप-12 डियोहसमत्था जाया" "इत्यादि, जया उवगराणेदियं वंजणं तया पूरियंति कहं ?, उच्यते, जाहे तेहिं पोग्गलेहिं 18R. दबिंदियं आवृतं भरियं वापितं तया पूरियंति भण्णइ, जया उभयसंबंधो बंजणं तया पूरियंति कहं ?, उच्यते, दर्षिदियस्स पोग्गला अंगीभावमागता, पोग्गल्ला दविदिये अभिषिक्ता इत्यर्थः, तदा प्रियंति भन्नई” इति, एवं च । यदा पूरितं भवति व्यञ्जनं तदा हुं इति करोति-अर्थावग्रहरूपेण ज्ञानेन तमर्थ गृहाति, किं च?, नामजात्यादिक- १३ ~362~ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [३५-३६]/गाथा ||७४...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५-३६] दीप अनुक्रम [११९-१२०] श्रीमलय ल्पनारहितं, तथा चाह-'नो चेवणं जाणइ के वेस सहाईत्ति न पुनरेवं जानाति क एष शब्दादिरर्थ इति, वरूपद्र- प्रतिबोधकगिरीया व्यगुणक्रियाविशेषकल्पनारहितमनिर्देश्यं सामान्यमात्रं गृहातीत्यर्थः, एवंरूपसामान्यमात्रग्रहणकारणत्वादावन- | दृष्टान्तोनन्दीवृत्तिः मल्लकहस्य, एतस्माच्च पूर्वः सर्वोऽपि व्यअनावग्रहः, एषा मल्लकदृष्टान्तेन व्यजनावग्रहस्य प्ररूपणा, हुंकारकरणं चार्थावग्रह दृष्टान्तश्च ॥१८०॥1 बलप्रवर्तितं, तत ईहां प्रविशति-किमिदं किमिदमिति विमर्श कर्तुमारभते, 'ततः' ईहानन्तरं क्षयोपशमविशेषभावात् | सू. ३६ जानाति-अमुक एष शब्दादिरिति, 'ततः' एवंरूपे ज्ञानपरिणामे प्रादुर्भवति सति सोऽपायं प्रविशति, ततोऽपायामानन्तरमन्तर्मुहूर्तकालं यावदुपगतं भवति-सामीप्येनात्मनि शब्दादिज्ञानं परिणतं भवति, अविच्युतिरन्तर्मुहर्तकालं यावत्प्रवर्त्तते इत्यर्थः, ततो धारणां प्रविशति, सा च धारणा वासनारूपा द्रष्टव्या, यत आह-तत्तो ण'मित्यादि, ततो का२० धारणायां प्रवेशात् 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे सद्ध्येयं वा असङ्ख्येयं वा कालं हदि धारयति, तत्र सहयेयवर्षायुषः सायेयकालं, असोयवर्षायुषस्त्वसझयेयं कालम् । अत्राह-सुप्तमङ्गीकृत्य पूर्वोक्तः प्रकारः सर्योऽपि घटते, जाग्रतस्तु शब्दश्रवणसमनन्तरमेवावग्रहेहाव्यतिरेकेणावायज्ञानमुपजायते, तथाप्रतिप्राणि संवेदनात् , तनिषेधार्थमाह-'से १८०॥ जहानामए' इत्यादि, स यथानामकः कश्चिज्जाग्रदपि पुरुषोऽव्यक्तं शब्दं शृणुयात् , अव्यक्तमेव प्रथमं शब्दं शृणोति, & अव्यक्तं नाम अनिर्देश्यस्वरूपं नामजात्यादिकल्पनारहितं, अनेनावग्रहमाह, अर्थावग्रहश्च श्रोत्रेन्द्रियस्य सम्बन्धी न्यजनावग्रहमन्तरेण न भवति ततो व्यअनावग्रहोऽप्युक्तो वेदितव्यः, अत्राह--नन्वेवं क्रमोन कोऽप्युपलभ्यते, a urary.com ~363~ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [३५-३६] दीप अनुक्रम [११९ -१२०] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ३५-३६ ] / गाथा ||७४... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः दृष्टान्तोमधुकदृष्टान्तथ सू. ३६ ५ किन्तु प्रथमत एव शब्दापायज्ञानमुपजायते, सूत्रेऽपि चाव्यक्तमिति शब्दविशेषणं कृतं, ततोऽयमर्थौ व्याख्येयः - 2 प्रतिवोधकअव्यक्तम्- अनवधारितशाङ्खशार्ङ्गादिविशेषं शब्दं शृणुयादिति इदं च व्याख्यानमुत्तरसूत्रमपि संवादयति — 'तेण सहोति उग्गहिए' तेन प्रमात्रा शब्द इत्यवगृहीतं, 'नो चेव णं जाणइ के बेस सद्दाइ' न पुनरेवं जानाति कः | एप शब्दः शाङ्खः शार्ङ्ग इति वा १, शब्द इत्यत्रादिशब्दाद्रसादिष्वप्ययमेव न्याय इति ज्ञापयति, तत ईहां प्रविशति इत्यादि सर्व सम्बद्धमेव, तदेतदयुक्तं, सम्यग् वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात्, इह हि यत्किमपि वस्तु निश्चीयते तत्समीहापूर्वकम्, अनीहितस्य सम्यग् निश्चितत्वायोगात्, न खलु प्रथमाक्षिसन्निपाते सत्यधूमदर्शनेऽपि यावत् किमयं धूमः १ किं वा मसकवर्त्तिरिति विमृश्य धूमगतकण्ठक्षणनकालीकरण सोध्मतादिधर्मदर्शनात् सम्यग्धूमत्वेन न विनिश्चिनोति तावत् स धूमो निश्चितो भवति, अनिवर्त्तितशङ्कतया तस्य सम्यगुनिश्चितत्वायोगात्, तस्मादवश्यं यो वस्तुविशेषनिश्वयः स ईहापूर्वकः, शब्दोऽयमिति च निश्चयो वस्तुविशेषनिश्चयो, रूपादिव्यवच्छेदात्, ततोऽवश्यमितः पूर्वमीहया भवितव्यं, ईहा च प्रथमतः सामान्यरूपेणावगृहीते भवति, नानवगृहीते, न खलु सर्वथा निरालम्बनमीहनं कापि भवदुपलभ्यते, न चानुपलभ्यमानं प्रतिपत्तुं शक्नुमः, सर्वस्या अपि प्रेक्षावतां प्रतिपत्तेः प्रमाणमूलत्वाद्, अन्यथा प्रेक्षावत्ताक्षितिप्रसक्तेः, तस्मादीहायाः प्रागवग्रहोंऽपि नियमात्प्रतिपत्तव्यः, अमुमेवार्थ भाष्यकारोऽपि द्रढयति- "ईहि १ ते नागृहीतं ज्ञायते नानीदितं न चाज्ञातम् । पाते तद्वस्तु तेन क्रमोऽवग्रहादिकः ॥ १ ॥ ternationa For Para Use Only ~364~ १० १२ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [३५-३६]/गाथा ||७४...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: sil श्रीमलय गिरीया प्रत नन्दीति मातादृष्टान्तश्च सूत्रांक [३५-३६] ॥१८॥ दीप अनुक्रम [११९ SECCASSACROS जइ नागहियं नजइ नानीहियं न यानाय । धारिजइ तं वत्थु तेण कमो उग्गहाईओ ॥१॥" अवग्रहश्च शब्दो-18 सप्रतिबोधक दृष्टान्तोऽयमिति ज्ञानात्पूर्व प्रवर्त्तमानोऽनिर्देश्यसामान्यमात्रग्रहणरूप एवोपपद्यते, नान्यः, अत एवोक्तं सूत्रकृता-'अव्यक्तं मलकशब्दं शृणुयादिति, स हि परमार्थतः शब्द एव, ततः प्रज्ञापकस्तं शब्दमनूद्य तद्विशेषणमाचष्टे-अव्यक्तमिति, तं शब्दमव्यक्तं शृणोति, किमुक्तं भवति? -शब्दव्यक्त्यापि व्यक्तं न शृणोति, किन्तु सामान्यमात्रमनिर्देश्यं गृहाती-18| सू. ३६ सर्थः, यदपि चोकं तेन प्रमात्रा शब्द इत्यवगृहीतमिति, तत्र शब्द इति प्रतिपादयति प्रज्ञापकः सूत्रकारो, न पुनः तेन प्रमात्रा शब्द इति अवगृह्यते, शब्द इति ज्ञानस्यापायरूपत्वात्, तथाहि-शब्दोऽयमिति, किमुक्तं | भवति?-न शब्दाभावो, न च रूपादिः, किन्तु शब्द एवायमिति, ततो विशेषनिश्चयरूपत्वादयमवगमोऽपायरूपी एव, नावग्रहरूपः, अथ च अवग्रहप्रतिपादनार्थमिदमुच्यमानं वर्तते ततः शब्द इति प्रज्ञापकः सूत्रकारो वदति, न पुनस्तेन प्रमात्रा शब्द इत्यवगृह्यते इति स्थितं, तथा चाह सूत्रकृत्-'नो चेव ण' मित्यादि, न पुनरेवं जानाति-क एष शब्दादिरर्थ इति, शब्दादिरूपतया तमर्थ न जानातीति भावार्थः, अनिद्देश्यसामान्यमात्रप्रतिभासात्मकत्वादर्थावग्रहस्य, अर्थावग्रहश्च श्रोत्रेन्द्रियमाणेन्द्रियादीनां व्यञ्जनावग्रहपूर्वक इति पूर्व व्यअनावग्रहोऽपि द्रष्टव्यः, तदेवं सर्व- ॥१८॥ त्राप्यवग्रहहापूर्वमवायज्ञानमुपजायते, केवलमभ्यासदशामापनस्य शीघ्रं शीघ्रतरमवग्रहादयः प्रवर्तन्ते इति कालसौम्यात्ते स्पष्टं न संवेद्यन्ते इति स्थितं । तत ईहां प्रविशति, इह केचिदीहां संशयमानं मन्यन्ते, तदयुक्तं, संशयो हि -१२० g२५ ParPranaamvam ucom murary.org ~365~ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [३५-३६]/गाथा ||७४...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५-३६] नामाज्ञानमिति, ज्ञानांशरूपा चेहा, ततः सा कथमज्ञानरूपा भवितुमर्हति !, नन्बीहापि किमयं शासः किंवा शाः ? इत्येवंरूपतया प्रवर्तते, संशयोऽपि चैवमेव, ततः कोऽनयोः प्रतिविशेषः, उच्यते, इह यत् ज्ञानं शाङ्खशा-3 मल्लकगादिविशेषाननेकानालम्बते न चासद्भूतं विशेषमपासितुं शक्नोति, किन्तु सर्वात्मना शयानमिव वर्तते-कुण्ठीभूतं दृष्टनतश्च तिष्ठतीत्यर्थः, तदसतविशेषापर्युदासपरिकुण्ठितं संशयज्ञानमुच्यते, यत्पुनः सङ्कृतार्थविशेषविषये हेतूपपत्तिव्यापारर तया सद्भतार्थविशेषोपादानाभिमुखमसद्भूतविशेषत्यागाभिमुखं च तदीहा, आह च भाष्यकृत्-"जमणेगत्थालं. बणमपज्जुदासपरिकुंठियं चित्तं । सयइव सबप्पणओ तं संसयरूवमन्नाणं ॥१॥ पुण सयथहेऊववत्तिवावारतप्परममोहं । भूयाभूयविसेसादाणचायाभिमुहमीहा ॥२॥" इह यदि वस्तु सुबोधं भवति विशिष्टश्च मतिज्ञानावरणक्षयोपशमो वर्तते ततोऽन्तर्मुहुर्तकालेन नियमात्तबस्तु निश्चिनोति, यदि पुनर्वस्तु दुर्बोधं न च तथाविधो विशिष्टो मतिज्ञानावरणक्षयोपशमस्तत ईहोपयोगादच्युतः पुनरप्यन्तर्मुहूर्त्तकालमीहते, एवमीहोपयोगाविच्छेदेन प्रभूतान्यन्तमुहूतानि यावदीहते, तत ईहानन्तरं जानाति-अमुक एषोऽर्थः शब्द इति, इदं च ज्ञानमवायरूपं, ततोऽस्मिन् ज्ञाने प्रादुर्भवति 'ण'मिति वाक्यालहारेऽपायं प्रविशति, ततः 'से' तस्स उपगतम्-अविच्युत्या सामीप्येनात्मनि परिणत दीप अनुक्रम [११९-१२०] SAMACA १ यदने कार्यालम्बनमपयुदासपरिकुण्ठितं चित्तम् । कोत इव सर्वात्मना तत् संशयरूपमज्ञानम् ॥ १॥ यत्पुनः सर्वहेतूपपत्तिव्यापारतत्परममोधम् । भूताभूतविशेषादानल्यागानिमुखमीहा ॥२॥ l mmunmurary.org ~366~ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [३५-३६]/गाथा ||७४...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५-३६] दीप अनुक्रम [११९ श्रीमलय- भवति ततो धारणां-वासनारूपा प्रविशति, सङ्ख्येयमसद्ध्येयं वा कालम् । एवम्' अनेन क्रमप्रकारेण एतेन पूर्वदर्शिते-1 प्रतियोधकगिरीया नन्दीवृत्तिः नाभिलापेन शेपेष्वपि चक्षुरादिष्विन्द्रियेषु अवग्रहादयो वाच्याः, नवरं अभिलापविषये 'अवत्तं सई सुणेजा' इत्यस्यदृष्टान्तो स्थाने 'अवत्तं रूवं पासेजा' इति वक्तव्यं, उपलक्षणमेतत् तेन सर्वत्रापि शब्दस्याने रूपमिति वक्तव्यं, तद्यथा-'तेणं| ॥१८॥ दृष्टान्तश्च दारूवित्ति उग्गहिए नो चेव णं जाणइ केवेस रूवित्ति?, ततो ईहं पविसइ, ततो जाणइ अमुगे एस रूवेत्ति, ततो सू. ३६ अवार्य पविसई' इत्यादि तदवस्थमेव, नवरमिह व्यञ्जनावग्रहो न व्याख्येयः, अप्राप्यकारित्वाचक्षुषः, नाणेन्द्रियादिषु तु व्याख्येयः, एवं तु घाणेन्द्रियविषये-'अवत्तं गंधं अग्घाइजा' इत्यादि वक्तव्यं, जिह्वन्द्रियविषये 'अचत्तं रसं आसादिइजा' इत्यादि, स्पर्शनेन्द्रियविषये 'अवत्तं फासं पडिसंवेइज्जा' इत्यादि, यथा च शब्द इति निश्चिते तदुत्तरकालमुत्तKारधर्मजिज्ञासायां किं शाङ्कः? किंवा शाह? इत्येवंरूपा ईहा प्रवर्तते तथा रूपमिति निश्चिते तदुत्तरकालमुत्तरधर्मजि ज्ञासायां स्थाणुः किं वा पुरुषः? इत्यादिरूपा (सा)प्रवर्त्तते, एवं घाणेन्द्रियादिष्वपि समानगन्धादीनि वस्तूनि ईहाऽऽलम्बनानि वेदितव्यानि, आह च भाष्यकृत्-"सेसेसुवि रूवाइसु विसएसुं होंति रूपलक्खाई। पायं पच्चासन्नत्तणेण ईहाएँ I वत्थूणि ॥१॥ थाणुपुरिसाइ कुटुप्पलादि संभियकरिलमसाइ । सप्पुप्पलनालाइ व समाणरूबाई विसयाई ॥२॥" P ॥१८॥ १शेयेष्वपि रूपादिषु विषयेषु भवन्ति रूपलक्ष्यामि । प्रायः प्रयासन्नतया बदाया गस्तूनि ॥ १॥ स्वागुपुरुषावि कुशोत्पलादि वगतकरितनांसादि । सपिल -१२०] २२ नालादि च समानरूपा विषयाः ॥१॥ SAREnatantnananana ~367~ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [३५-३६]/गाथा ||७४...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५-३६] SONG9-600RSARS* दीप अनुक्रम [११९-१२०] से जहानामए'इत्यादि,स यथानामकः कोऽपि पुरुषोऽव्यक्तं स्वप्नं प्रतिसंवेदयेत् , अव्यक्तं नाम सकलविशेषविकलमनि- प्रतिरोधक देश्यमितियावत् खप्नमिति प्रज्ञापकः सूत्रकारो वदति, स तु प्रतिपत्ता खप्नादिव्यक्तिविकलं किञ्चिदनिर्देश्यमेव तदानीं दृष्टान्तो गृह्णाति, तथाऽनेन प्रतिपत्रा 'सुविणोत्ति उग्गहिए'त्ति खप्नमिति अवगृहीतं, अत्रापि खम इति प्रज्ञापको वदति, स मल्लकतु प्रतिपत्ता अशेषविशेषषियुक्तमेवावगृहीतवान् , तथा चाह-न पुनरेवं जानाति-क एष खप्न इति ?, स्वप्न इत्यपि तमय दृष्ट्वान्तश्च न जानातीति भावः, तत ईहां प्रविशतीत्यादि प्राग्वत् , एवं खप्तमधिकृत्य नोइन्द्रियस्यार्थावग्रहादयः प्रतिपादिताः। म. ३६ अनेन चोलेखेनान्यत्रापि विषये वेदितव्याः,तदेवं मल्लकदृष्टान्तेन व्यञ्जनावग्रहप्ररूपणां कुर्वता प्रसङ्गतोऽष्टाविंशतिसञ्जया अपि मतिज्ञानस्य भेदाः सप्रपञ्चमुक्ताः,सम्प्रति मलकदृष्टान्तमुपसंहरति-'सेत्तं मल्लगदिद्रुतेणं एवं मल्लकदृष्टान्तेन व्यञ्जना-15 वग्रहस्य प्ररूपणा । एते चावग्रहादयोऽष्टाविंशतिभेदाः प्रत्येक बह्वादिभिः सेतरैः सर्वसञ्जयया द्वादशससथै दैभिद्यमाना यदा विवक्ष्यन्ते तदा पत्रिंशदधिकं भेदानां शतत्रयं भवति, तत्र बहादयः शब्दमधिकृत्य भाव्यन्ते-राजपटहादिना-12 नाशब्दसमूहं पृथगेकैकं यदाऽवगृह्णाति तथा वह्नवग्रहः, यदा त्वेकमेव कश्चिच्छब्दमवहाति तदाऽवसवग्रहः, तथा शङ्खपटहादिनानाशब्दसमूहमध्ये एकैकं शब्दमनेकैः पर्यायः स्निग्धगाम्भीर्यादिभिर्विशिष्टं यथावस्थितं यदाऽवगृह्णाति तदा स बहुविधावग्रहः, यदा त्वेकमनेकं वा शब्दमेकपर्यायविशिष्टमवगृह्णाति तदा सोऽबहुविधावग्रहः, यदा तु अचि-| रेण जानाति तदा स क्षिप्रावग्रहः, यदा तु चिरेण तदाऽक्षिप्रावग्रहः, तमेव शब्द स्वरूपेण यदा जानाति न लिङ्गप-16१३ RELMHumational ~368~ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [३५-३६]/गाथा ||७४...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलय- गिरीया नन्दीवृत्तिः प्रत सूत्रांक [३५-३६] ॥१८॥ दीप अनुक्रम [११९-१२०] प्रतिषोषकरिग्रहात् तदाऽनिश्रितावग्रहः, लिङ्गपरिग्रहेण त्ववगच्छतो निश्रितावग्रहः, अथवा परधर्विमिश्रितं यद्हणं तन्मिश्रि-18 दृष्टान्तोतावग्रहः, यत्पुनः परधर्मरमिश्रितस्स ग्रहणं तदमिश्रितावग्रहः, तथा निश्चितमवगृह्णतो निश्चितावग्रहः, सन्दिग्धमव-16 गृह्णतः सन्दिग्धावग्रहः, सर्वदेव बह्वादिरूपेणावगृह्णतो ध्रुवावग्रहः, कदाचिदेव पुनर्बह्वादिरूपेणावगृहृतोऽध्रुवावग्रहः, दृष्टान्तब एप च बहुबहुविधादिरूपोऽवग्रहो विशेषसामान्यावग्रहरूपो द्रष्टव्यः, नैश्चयिकस्यावग्रहस्य सकलविशेषनिरपेक्षानिर्देश्यसामान्यमात्रप्राहिण एकसामयिकस्य बहुविधादिविशेषग्राहकत्यासम्भवात् , बहादीनामनन्तरोक्तं व्याख्यान भाष्यकारोऽपि प्रमाणयति-"नाणासद्दसमूह बहुविहं सुणे भिन्नजातीयं । बहुविहमणेगभूयं एकेकं निद्धमहुराइ ॥१॥ खिप्पमचिरेण तं चिय सरूवओ जमनिस्सियमलिंगं । निच्छियमसंसय जं धुवमचंतं न उ कयाइ ॥ २॥ एत्तो चिय पडिवक्खं साहेजा निस्सिए विसेसोऽयं । परधम्मेहिं विमिस्सं मिस्सियमविमिस्सियं इयरं ॥३॥" यदा पुनरालोकस्य मन्दमन्दतरमन्दतमस्पष्टस्पष्टतरस्पष्टतमत्वादिभेदतो विषयस्याल्पत्वमहत्त्वसन्निकर्षादिभेदतः क्षयोपशमस्य च तारतम्यभेदतो भिद्यमानं मतिज्ञानं चिन्त्यते तदा तदनन्तभेदं प्रतिपत्तव्यम् ॥ सम्प्रति पुनद्रव्यादिभेदतश्चतुः-IN ॥१८३॥ प्रकारतामाहतं समासओ चउव्विहं पण्णतं, तंजहा-दव्वओ खित्तओ कालो भावओ, तत्थ दबओ णं आभिणिवोहिअनाणी आएसेणं सव्वाई व्वाई जाणइन पासइ, खेत्तओ णं आभिणि (आभिनिबोधिक) मति-ज्ञानस्य द्रव्य आदि चतुर्भेदा: ~369~ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [३७]/गाथा ||७५-८०|| .... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७] मतेविषयोमेदा:कालः हास्पृष्टवादि + ७५ -८०|| बोहिअनाणी आएसेणं सव्वं खेत्तं जाणइ न पासइ, कालओ णं आभिणिबोहिअनाणी आएसेणं सबकालं जाणइ न पासइ, भावओ णं आभिणिबोहिअनाणी आएसेणं सव्वे भावे जाणइन पासइ । उग्गह ईहाऽवाओ य धारणा एव इंति चत्तारि । आभिणिबोहियनाणस्स भेयवत्थू समासेणं ॥ ७५ ॥ अत्थाणं उग्गहणमि उग्गहो तह विआलणे ईहा । ववसायंमि अवाओ धरणं पुण धारणं बिंति ॥७६ ॥ उग्गह इक्कं समयं ईहावाया मुहुत्तमद्धं तु । कालमसंखं संखं च धारणा होइ नायव्वा ॥७७॥ पुटुंसुणेइ सदं रूवं पुण पासई अपुढे तु । गंध रसंच फासं च बद्धपुढे वियागरे ॥७८॥ भासासमसेढीओ सदं जं सुणइ मीसियं सुणइ । वीसेढी पुण सदं सुणेइ नियमा पराघाए ॥ ७९ ॥ ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवेसणा । सन्ना सई मई पन्ना, सव्वं आभिणिबोहि ॥ ८० ॥ सेतं आभिणिबोहिअनाणपरोक्खं, [से तं मइनाणं 1॥ (सू०३७) दीप अनुक्रम [१२१ -१२८] १ मत्थार्ण गहणं च उज्य तह वियालणं है । वरसायं च अवार्य धरण पुग धारण विति ॥1॥ इति पाठान्तरापेक्षिणी मूळव्याख्यान ARE manand A miumurary.orm ~370~ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [३७]/गाथा ||७५-८०|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७] श्रीमलय: गिरीया नन्दीवृत्तिः + ॥१८॥ ७५ H १५ -८०|| 'तं समासओ' इत्यादि, 'तत्' भतिज्ञानं 'समासतः' सझेपेण चतुर्विधं, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतच, मतेविषयोतत्र द्रव्यतो 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे, आभिनिवोधिकज्ञानी 'आदेसेणं ति आदेश:-प्रकारः, स च द्विधा-सामान्यरूपोमेदाकाल: विशेषरूपश्च, तत्रेह सामान्यरूपो ग्राह्यः, तत आदेशेन-द्रव्यजातिरूपसामान्यादेशेन सर्वद्रव्याणि-धर्मास्तिकायादीनि स्पृष्टतादि जानाति किञ्चिद्विशेषतोऽपि, यथा धर्मास्तिकायो धर्मास्तिकायस्य प्रदेशः, तथा धर्मास्तिकायो गत्युपष्टम्भहेतुरमूर्तो लोकाकाशप्रमाण इत्यादि, न पश्यति-सर्वात्मना धर्मास्तिकायादीन पश्यति, घटादींस्तु योग्यदेशावस्थितान् पश्यत्यपि, अथवा आदेश इति-सूत्रादेशस्तस्मात्सूत्रादेशात्सर्वद्रव्याणि-धर्मास्तिकायादीनि जानाति, न तु साक्षात् सर्वाणि पश्यति, ननु यत्सूत्रादेशतो ज्ञानमुपजायते तच्छ्रुतज्ञानं भवति तस्य शब्दार्थपरिज्ञानरूपत्वादथ च मतिज्ञानमभिधीयमानं वर्तते तत्कथमादेशः इति सूत्रादेशो व्याख्यातः?, तदयुक्त, सम्पग् वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात , इह दि श्रुत-15 |भावितमतेः श्रुतोपलब्धेष्वपि अर्थेषु सूत्रानुसारमन्तरेण येऽवग्रहहापायाइयोबुद्धिविशेषाः प्रादुषष्यन्ति ते मतिज्ञानमेव, न श्रुतज्ञानं, सूत्रानुसारनिरपेक्षत्वात् , आह च भाष्यकृत-'आदेसोत्ति व सुत्तं सुओवल द्धेसु तस्स मइनाणं । पसरह २० तभावणया विणावि सुत्ताणुसारेणं ॥१॥" एवं क्षेत्रादिष्वपि वाच्यं, नवरं तान् सर्वथा न पश्यति, तत्र क्षेत्र ॥१८॥ लोकालोकात्मकं, कालः सर्वाद्धारूपोऽतीतानागतवर्तमानरूपो वा, भावाश्च पञ्चस या औदयिकादयः, तथा चाह१ भादेश इति वा सूत्र श्रुतो तस्य मतियानम् । प्रसरति तद्भावनया विनाऽपि सूत्रानुसारेण ॥1॥ दीप अनुक्रम [१२१ -१२८] ~371~ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [३७]/गाथा ||७५-८०|| ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७] मतेविषयोभेदा कालः स्पृष्टवादि + ७५ -८०|| भाध्यकृत्-"आएसोत्ति पगारो ओघाएसेण सबदबाई । धम्मत्थिकाइआई जाणइ न उ सबभावणं ॥१॥ से लोकालोकं कालं सबद्धमहव तिविहं वा । पंचोदइयाईए भावे जं नेयमेवइयं ॥२॥" सम्प्रति सङ्ग्रहगाथां प्रतिपा- दयति–'उग्गहो' इत्यादि, अवग्रहः-प्राग्निरूपितशब्दार्थस्तथा ईहा अपायश्च, चशब्दः पृथगवग्रहादिखरूपस्वातध्यप्रदर्शनार्थः, अवग्रहादयः परस्परं पर्याया न भवन्तीति भावार्थः, अथवा चशब्दः समुबये, तस्य च व्यवहितः प्रयोगो |धारणा चेत्येवं द्रष्टव्यः, एवकारः क्रमप्रदर्शनार्थः, 'एवम् एतेन क्रमेण 'समासेन'सङ्केपेण चत्वारि आभिनिवोधिकज्ञानस्य भिद्यन्ते इति भेदा विकल्पा अंशा इत्यर्थः त एव वस्तूनि भवन्ति, तथाहि-नानवगृहीतमीयते नानीहितं निश्चीयते नानिश्चितं धार्यते इति । इदानीमेतेषामवग्रहादीनां खरूपं प्रतिपिपादयिषुराह-'अत्याण'मित्यादि, अर्थानां-रूपादीनामवग्रहणं चशब्दोऽवग्रहणस्य अव्यक्तत्वसामान्यमात्रसामान्यविशेषविषयत्वापेक्ष्या खगतभेदबाहुल्यसूचकः,अवग्रहं ब्रुवते इति योगः, 'तथे त्यानन्तये विचारणं-पर्यालोचनमर्थानामिति वर्तते इहां बुबते, तथा विविघोऽवसायो व्यवसायो-निर्णयस्तं चार्थानामिति वर्तते अपायं ब्रवते इति संसर्गः, धरणं पुनरोनामविच्युतिस्मृतिवासनारूपां धारणां अवते तीर्थकरगणधराः, अनेन खमनीषिकाव्युदासमाह । अन्ये वेवं पठन्ति-"अत्याणं उग्गह दीप अनुक्रम [१२१ -१२८] आदेश इति प्रकारः बोधादेशेन सर्वव्याणि । धर्मास्तिकायिकादीनि जानाति न तु सर्वभावेन ॥१॥क्षेत्र लोकालोकं काल सादामथवा विविध का। पादयिकादिकान् भावान् यत् हेयमेतत्वत् ॥२॥ wrajastaram.org ~372~ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [३७]/गाथा ||७५-८०|| ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७] CAR + ७५ भीमलय मि उग्गहो" इत्यादि, तत्रैवं व्याख्यानम्-अर्थानामवग्रहणे सत्यवग्रहो नाम मतिविशेषो भवतीत्येवं ब्रुवते, एवमी- मतेविषयोगिरीया बन्दीपतिः हादिष्वपि योजना कार्या, भावार्थः प्राग्वदेव । इदानीमभिहितस्वरूपाणामवग्रहादीनां कालप्रमाणमभिधित्सुराह-8 स्पृष्टतादि 'उग्गहों' इत्यादि, अवग्रहः-अर्थावग्रहो नैश्चयिक एकसमयं यावद्भवति, समयः परमनिकृष्टः कालविभागः, सच ॥१८॥ प्रवचनप्रतिपादितादुत्पलपत्रशतव्यतिभेदोदाहरणात् जरत्पदृशाटिकापाटनदृष्टान्ताचावसेयः, व्यञ्जनावग्रहविशेषसामा १५ न्यार्थावग्रहो तु पृथक् २ अन्तर्मुहूर्तप्रमाणौ ज्ञातव्यौ, ईहा चापायश्च ईहापायौ मुहूर्तार्द्ध ज्ञातव्यौ, मुहूर्तो घटिकाद्व-18 यप्रमाणः कालविशेषः तस्यार्द्ध मुहूर्ताद्ध, तुशब्दो विशेषणार्थः, स चैतद्विशिनष्टि-व्यवहारापेक्षया एतन्मुहूर्तार्द्धमित्युच्यते, परमार्थतः पुनरन्तर्मुहूर्तमबसेयं, अन्ये पुनरेवं पठन्ति-"मुहूमंतं तु" तत्र मकारोऽलाक्षणिकः, तत एवं द्रष्ट-| व्यं-मुहूर्तान्तः-मुहूर्त्तस्यान्तः-मध्यं मुहूर्तान्तः, अन्तर्मुहूर्तमित्यर्थः, इह 'पारे मध्येऽग्रेऽन्तः षष्ट्या वेति विकल्पेनान्तः शब्दस्य प्राग् निपातो भवति, ततः सूत्रेऽन्तःशब्दस्य प्रागनिपातो न विहितः, तथा धारणा कालमसङ्ख्य-पल्योपमादिहै। लक्षणं सङ्ख्येयं च-वर्षादिरूपं यावद्भवति ज्ञातव्या, धारणा चेह वासनारूपा द्रष्टव्या, अविच्युतिस्मृती तु प्रत्येकमन्तमुहूप्रमाणे वेदितव्ये ॥ तदेवमवग्रहादीनां खरूपमभिधाय श्रोत्रेन्द्रियादीनां प्राप्ताप्राप्तविषयतां प्रतिपिपादयिधुराह-'पुढे | सा॥१८५|| सुणेई'इत्यादि, इह श्रोत्रेन्द्रियेण शब्दं शृणोति स्पृष्टं-स्पृष्टमात्रं, स्पृष्टं नाम आलिङ्गितं यथा तनौ रेणुसकातः, अथ कथं स्पृष्टमात्रमेव शब्दं शृणोति !, उच्यते, इह शेषेन्द्रियगणापेक्षया श्रोत्रेन्द्रियमतिशयेन पटु, तथा गन्धादिद्रव्यापेक्षया २४ दीप अनुक्रम EESAR । [१२१ -१२८] SAREairabiamond ~373~ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [३७]/गाथा ||७५-८०|| ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७] + SACAKACKASS ७५ शब्दद्रव्याणि सूक्ष्माणि प्रभूतानि भाबुकानि च, अत एव सर्वतस्तदिन्द्रियं प्राप्नुवन्ति, ततस्तानि स्पृष्टमात्राण्यपि मतेविषयोश्रोत्रेन्द्रियेण ग्रहीतं शक्यन्ते, रूपं पुनः पश्यति अस्पृष्टमेव, तुरेवकारार्थः, अप्राप्यकारित्वाचक्षुषः,तथा गन्धं रसं च स्पर्श मदा काल |च, चशब्दौ समचयायौं, बद्धस्पृष्टं प्राणादिभिरिन्द्रियैर्विनिश्चिनोतीति व्यागृणीयात् , इह बद्धस्पृष्टमिति स्पृष्टबद्धमिति || स्पृष्टतादि विज्ञेयं, प्राकृतशैल्या चान्यथा सूत्रे उपन्यासः, तत्र स्पृष्टमित्यात्मनाऽऽलिहितं बर्द्ध-तोयवदात्मप्रदेशेरात्मीकृतं आलिनितानन्तरमात्मप्रदेशैरागृहीतमित्यर्थः । इह शब्दमुत्कर्षतो द्वादशयोजनेभ्य आगतं शृणोति, न परता, शेषाणि तु गन्धादिद्रव्याणि प्रत्येकं नवभ्यो २ योजनेभ्य आगतानि धाणादिभिरिन्द्रियैहाति जीवो, न परतः, परतः समाग-1 तानां द्रव्याणां मन्दपरिणामतया इन्द्रियग्राहत्यासम्भयात्, जघन्यतस्तु शब्दादिद्रव्याणि अङ्गुलासययभागादागतानि, चक्षुषस्तु जघन्यतो योग्यो विषयोऽङ्गुलसङ्ख्येयभागवी वेदितव्यः, उत्कर्षतस्त्वात्माङ्गुलेन सातिरेको योजनलक्षः, एतदपि चाभासुरद्रव्यमधिकृत्योच्यते, भासुरं तु द्रव्यमेकविंशतियोजनलक्षेभ्योऽपि परतः पश्यति, यथार पुष्करवरद्वीपार्द्ध मानुषोत्तरनगप्रत्यासन्नवर्तिनः कर्कसंक्रान्ती सूर्यबिम्ब, तथा चोक्तम्-"लक्खेहिं एयवीसाए साति-११० रेगेहिं पुक्खरद्धंमि । उदए पेच्छंति नरा सूरं उक्कोसए दिवसे ॥१॥" अत्राह-ननु स्पृष्टं शृणोति शब्दमित्युक्तं, तत्र शब्दप्रयोगोत्सृष्टान्येव केवलानि शब्दद्रव्याणि शृणोति उतान्यान्येव तद्भावितानि आहोश्चिन्मिश्राणीति ?, उच्यते, १ लखेष्वेकविता सातिरेकेषु पुष्कराः । उद्ये प्रेक्षन्ते नराः सूर्यमुत्कृष्ट दिवसे । ( कर्कसक्रान्ख्या विषसे ) ॥ १ ॥ -८०|| दीप अनुक्रम [१२१ -१२८] D esamurary.org ~374~ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [३७]/गाथा ||७५-८०|| ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७] + ७५ -८०|| श्रीमलय- 1न तावत्केवलानि, यतो वासकानि शब्दद्रव्याणि शब्दयोग्यानि च द्रव्याणि सकललोकव्यापीनि ततोऽवश्यं तद्वा- मतविषयोगिरीया सितानि शृणोति मिश्राणि वा, न केवलान्येवोत्सृष्टानि, तथा चाह-'भासासमे'त्यादि, भाष्यत इति भाषा-वाक मदा काल: नन्दीवृत्तिः स्पृष्टतादि शब्दरूपतया उत्सृज्यमाना द्रव्यसन्ततिः सा च वण्णात्मिका भेरीभाङ्कारादिरूपा वा द्रष्टव्या, तस्याः समाः श्रेणयः, ॥१८६॥ मश्रेियायो नाम क्षेत्रप्रदेशपलयोऽभिधीयन्ते, ताश्च सर्वस्यैव भाषमाणस्य पटसु दिक्षु विद्यन्ते यासूत्सृष्टा सती भापा प्रथमसमय एव लोकान्तमनुधावति, भाषासमश्रेणयः, समश्रेणिग्रहणं विश्रेणिव्यवच्छेदार्थ, भाषासमश्रेणीः इतोगतः प्राप्तो भाषासमश्रेणीतः, भाषासमश्रेणिव्यवस्थित इत्यर्थः, यं शब्दं पुरुषादिसम्बन्धिनं भेर्यादिसम्बन्धिनं वा। शृणोति यत्तदोनित्याभिसम्बन्धात्तं मित्रं शृणोति, उत्सृष्टशब्दद्रव्यभावितापान्तरालस्थद्रव्यमिश्रणोतीति भावार्थः। 'वीसेढी'त्यादि, अत्रेत इति वत्तेते, ततोऽयमर्थ:-विश्रेणि पुनरितः-प्राप्तो, विश्रेणिव्यवस्थितः पुनरित्यर्थः, अथवा विश्रेणिस्थितो विश्रेणिरित्युच्यते, शब्दं शृणोति नियमात्पराघाते सति, नान्यथा, किमुक्तं भवति ?-उत्सृष्टशब्दद्रव्यशब्दा (शब्दद्रव्या) भिघातेन यानि वासितानि शब्दद्रव्याणि तान्येव केवलानि शृणोति, न कदाचिदपि उत्सृष्टानि, कुत इति चेद् , उच्यते, तेषामनुश्रेणिगमनात्प्रतिघाताभावाच । सम्प्रति विनेयजनसुखप्रतिपत्तये मतिज्ञानस्य पर्यायश-18L ब्दानभिधित्सुराह-ईहे'त्यादि, एते ईहादयः शब्दाः सर्वेऽपि परमार्थतो मतिवाचकाः पर्यायशब्दाः, परं विनेयजनबुद्धि पा ॥१८॥ प्रकाशनाय किश्चिद्रेदाद् भेदोऽमीषां प्रदर्श्यते-ईहनमीहा-सदर्थपर्यालोचनं, अपोहनमपोहः निश्चय इत्यर्थः, विमर्शन २५ दीप अनुक्रम [१२१ -१२८] ~375~ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [३७]/गाथा ||७५-८०|| ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७] + ७५ विमर्शः-अपायादर्यागीहायाः परिणामविशेषः,मार्गणं मार्गणा-अन्वयधर्मान्वेषणं,चः समुच्चये,गवेषणं गवेषणा-व्यति श्रुतज्ञानकधर्मालोचनं, तथा संज्ञानं संज्ञा-व्यञ्जनावग्रहोत्तरकालभावी मतिविशेष इत्यर्थः, तथा स्मरणं स्मृतिः-पूर्वानुभूताल- भेदाः . म्बनः प्रत्ययविशेषः,मननं मतिः-कथञ्चिदर्थपरिच्छित्तावपि सूक्ष्मधर्मालोचनरूपाबुद्धिा,प्रज्ञापनं प्रज्ञा-विशिष्टक्षयोपश- सू. ३८ मजन्या प्रभूतवस्तुगतयथावस्थितधर्मालोचनरूपा संवित्, सर्वमिदमाभिनिबोधिकं मतिज्ञानमित्यर्थः, सेत्त'मित्यादि, तदेतदाभिनिचोधिकज्ञानं ॥ साम्प्रतं प्रागुपन्यस्तसकलचरणकरणक्रियाधारश्रुतज्ञानखरूपजिज्ञासया शिष्यः प्रमयति से किं तं सुयनाणपरोक्खं ?, सुयनाणपरोक्खं चोदसविहं पन्नत्तं, तंजहा-अक्खरसुयं १ अणक्खरसुयं २ सण्णिसुअं३ असण्णिसुअं४ सम्मसुअं५ मिच्छसुअं ६ साइअं ७ अणाइअं८ सपजवसिअं९ अपजवसि १० गमिअं ११ अगमिअं १२ अंगपविटुं १३ अर्णगपविटुं १४ । (सू. ३८) अथ किं तच्छुतज्ञानं ?, आचार्य आह-श्रुतज्ञानं चतुर्दशविध प्रज्ञस, तद्यया-अक्षरश्रुतमनक्षरश्रुतं संज्ञिश्रुतम- १० संज्ञिश्रुतं सम्यकश्रुतं मिथ्याश्रुतं सादि अनादि सपर्यवसितमपर्यवसितं गमिकमगमिकमजप्रविष्टमनङ्गप्रविष्टं च । ननु अक्षरश्रुतानक्षरश्रुतरूप एव भेदद्वये शेषभेदा अन्तर्भवन्ति तकिमर्थं तेषां भेदोपन्यासः१, उच्यते, इहाव्युत्पन्नम-2 तीना विशेषावगमसम्पादनाय महात्मनां शास्त्रारम्भप्रयासो, न चाक्षरश्रुतानवरश्रुतरूपभेदद्वयोपन्यासमात्रादव्युत्प-10१३ दीप अनुक्रम [१२१ -१२८] श्रुतज्ञानस्य चतुर्दश-भेदा: वर्णयते ~376~ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [३८]/गाथा ||८०...|| ....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: अधरा| नक्षरश्रुतं प्रत सूत्रांक [३८] श्रीमल नमतयः शेषभेदानवगन्तुमीशते, ततोऽव्युत्पन्नमतिविनेयजनानुग्रहाय शेपभेदोपन्यास इति ॥ साम्प्रतमुपम्यस्तानां गिरीया गाभेदानां खरूपमनवगच्छन् आचं भेदमधिकृत्य शिष्यः प्रश्नं करोतिनन्दीवृत्तिः से किं तं अक्खरसुअं?, अक्खरसुअंतिविहं पन्नत्तं, तंजहा-सन्नक्खरं बंजणक्खरं लद्धिअ॥१८७॥ क्खरं से किं तं सन्नक्रवरं ?, २ अक्खरस्स संठाणागिई, सेत्तं सन्नक्खरं । से किं तं वंजणक्खरं!, वंजणक्खरं अक्खरस्स वंजणाभिलावो, से तं वंजणक्खरं । से किं तं लद्धिअक्खरं, लद्धिअक्खरं अक्खरलद्धियस्स लद्धिअक्खरं समुप्पजइ, तंजहा-सोइंदिअलद्धिअक्खरं चक्खिंदियलद्धिअक्खरं घाणिदियलद्विअक्खरं रसणिदियलद्धिअक्खरं फार्सिदियलद्धिअक्खरं नोइंदियलद्धिअक्खरं, से तं लद्धिअक्खरं, से तं अक्खरसुअं॥से किं तं अणक्खरसुअं?, अणक्खरसुअं अणेगविहं पपणतं, तंजहा-ऊससि नीससि निच्छढं खासिअं च छीअं च। निसिधिअमणुसारं अणक्खरं छेलिआईअं॥८१॥ से तं अणक्खरसुअं (सू० ३९) अथ किं तदक्षरश्रुतं १, सूरिराइ-अक्षरश्रुतं त्रिविधं प्रज्ञप्त, तद्यथा-सज्ञाक्षरं व्यजनाक्षरं लग्भ्यवरं च, तत्र 'क्षर सञ्चलने न क्षरति-न चलतीत्यक्षरं-ज्ञानं, तद्धि जीवस्खाभाज्यादनुपयोगेऽपि तत्त्वतो न प्रच्यवते, यद्यपि च सर्व दीप अनुक्रम [१२९]] ||१८७!! २५ ~377~ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [३९] + ||८१|| दीप अनुक्रम [१३० -१३२] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ३९ ] / गाथा ||८१ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ****** ज्ञानमविशेषेणाक्षरं प्राप्नोति तथाऽपीह श्रुतज्ञानस्य प्रस्तावादक्षरं श्रुतज्ञानमेव द्रष्टव्यं न शेषं, इत्थम्भूतभावाक्षरका - | रणं वाऽकारादि वर्णजातं ततस्तदप्युपचारादक्षरमुच्यते, ततश्चाक्षरं च तच्छुतं च श्रुतज्ञानं च अक्षरश्रुतं, भावश्रुतमित्यर्थः तथ लग्ध्यक्षरं वेदितव्यं तथाऽक्षरात्मकम् अकारादिवर्णात्मकं श्रुतमक्षरश्रुतं द्रव्यश्रुतमित्यर्थः, तच्च सन्ज्ञाक्षरं व्यञ्जनाक्षरं च द्रष्टव्यं, अथ किं तत्सब्ज्ञाक्षरं ?, अक्षरस्याकारादेः संस्थानाकृतिः - संस्थानाकारः, तथाहि – सब्ज्ञायतेऽनयेति सज्ञा-नाम तन्निबन्धनं- तत्कारणमक्षरं संज्ञाक्षरं, संज्ञायाश्च निबन्धनमाकृतिविशेषः, आकृतिविशेष एव नाम्नः करणाभ्यवहरणाच, ततोऽक्षरस्य पट्टिकादी संस्थापितस्य संस्थानाकृतिः संज्ञाक्षरमुच्यते तच्च ब्राह्मयादिलिपिभेदतोऽनेकप्रकारं तत्र नागरी लिपिमधिकृत्य किञ्चित्प्रदर्श्यते-मध्ये स्फाटितचुल्लीसन्निवेशसदृशो रेखासन्निवेशो णकारो | वक्रीभूतश्वपुच्छसन्निवेशसदृशो ढकार इत्यादि, 'से त्त' मित्यादि, तदेतत् संज्ञाक्षरं । अथ किं तद्यअनाक्षरं ?, आचार्य | आह— व्यञ्जनाक्षरमक्षरस्य व्यञ्जनाभिलापः, तथाहि व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनं-भाष्यमाणमकारादिकं वर्णजातं, तस्य विवक्षितार्थाभिव्यञ्जकत्वात् व्यञ्जनं च तदक्षरं च व्यञ्जनाक्षरं ततो युक्तमुक्तं व्यञ्जनाक्षरमक्षरस्य व्यञ्जनाभिलापः, अक्षरस्याकारादेर्ववर्णजातस्य व्यञ्जनेन-अत्र भावे अनद् व्यञ्जकत्वेनाभिलापः- उच्चारणं, अर्थव्यञ्जकत्वेनो वार्यमाणमकारादि वर्णजातमित्यर्थः । ' से किं तमित्यादि, अथ किं तलब्ध्यक्षरं ?, लब्धिः - उपयोगः, स चेह प्रस्तावात् शब्दार्थपर्यालोचनानुसारी गृझते, लब्धिरूपमक्षरं लग्ध्यक्षरं, भावश्रुतमित्यर्थः, 'अक्खरलद्धिय For Parts Only ~378~ अक्षरा नक्षरथुतं सू. ३९ १३ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [३९] + ॥८१॥ दीप अनुक्रम [१३०-१३२] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ३९ ] / गाथा ||८१ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः श्रीमलय गिरीया ****** स्से'त्यादि, अक्षरे - अक्षरस्योचारणेऽवगमे वा लब्धिर्यस्य सोऽक्षरलब्धिकः तस्य, अकाराद्याक्षरानुविद्धश्रुतलब्धिसमन्वि तस्येत्यर्थः, लब्ध्यक्षरं भावश्रुतं समुत्पद्यते, शब्दादिग्रहणसमनन्तरमिन्द्रियमनोनिमित्तं शब्दार्थ पर्यालोचनानुसारि शानन्दीवृत्तिःङ्खोऽयमित्याद्यक्षरानुविद्धं ज्ञानमुपजायते इत्यर्थः, नम्बिदं लभ्ध्यक्षरं सब्ज्ञिनामेव पुरुषादीनामुपपद्यते नासज्ज्ञिनामे॥१८८॥ केन्द्रियादीनां तेषामकारादीनां वर्णानामवगमे उच्चारणे वा लब्ध्यसम्भवात्, न हि तेषां परोपदेशश्रवणं सम्भवति येनाकारादिवर्णानामवगमादि भवेत्, अथचैकेन्द्रियादीनामपि लब्ध्यक्षरमिध्यते, तथाहि पार्थिवादीनामपि भावश्रुतमुपवर्ण्यते- 'दवसुंयाभामिवि भावसुयं पत्थिवाईण' मिति वचनप्रामाण्याद्, भावश्रुतं च शब्दार्थ पर्यालोचनानुसारि विज्ञानं, शब्दार्थ पर्यालोचनं चाक्षरमन्तरेण न भवतीति, सत्यमेतत्, किन्तु यद्यपि तेषामेकेन्द्रियादीनां परोपदेशश्रवणासम्भवस्तथापि तेषां तथाविधक्षयोपशमभावतः कश्चिदव्यक्तोऽक्षरलाभो भवति यद्वशादक्षरानुपतं श्रुतज्ञानमुपजायते, इत्थं चैतदङ्गीकर्त्तव्यं, तथाहि-- तेपामप्याहाराद्यभिलाप उपजायते, अभिलापश्च प्रार्थना, सा च यदीदमहं प्राप्नोमि ततो भव्यं भवतीत्याद्यक्षरानुविद्वैव ततस्तेषामपि काविदव्यक्ताक्षरलब्धिरवश्यं प्रतिपत्तव्या, ततस्तेषामपि लब्ध्यक्षरं सम्भवतीति न कश्चिद्दोपः । तथा लब्ध्यक्षरं पोढा, तद्यथा - 'श्रोत्रेन्द्रियलब्ध्यक्षर 'मित्यादि, इह यच्छोत्रेन्द्रियेण शब्दश्रवणे सति शाङ्खोऽयमित्याद्यक्षरानुविद्धं शब्दार्थ पर्यालोचनानुसारि विज्ञानं तच्छ्रोत्रेन्द्रियलब्ध्यक्षर, १ द्रव्यश्रुताभावेऽपि भावतं पार्थिवादीनाम् ॥ For Park Use Only ~379~ अक्षरा नक्षरथुतं यू. ३९ २० ॥१८८॥ २५ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [३९]/गाथा ||८१|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९] ||८१|| तस्य श्रोत्रेन्द्रियनिमित्चत्वात् , यत्पुनश्चक्षुषा आम्रफलाद्युपलभ्याम्रफलमित्यायक्षरानुविद्धं शब्दार्थपर्यालोचनात्मक [विज्ञानं तचक्षुरिन्द्रियलब्ध्यक्षरं, एवं शेपेन्द्रियलबध्यक्षरमपि भावनीयं, सेत्त'मित्यादि, तदेतत् लब्ध्यक्षरं, तदेतद-18 नक्षरश्रुतं क्षरश्रुतं । अथ किं तदनक्षरश्रुतं ?-अनक्षरात्मकं श्रुतमनक्षरश्रुतं, आचार्य आह-अनक्षरश्रुतमनेकविधम्-अनेकप्रकार सू.३९ IN प्रज्ञप्तं, तद्यथा-'ऊससिय'मित्यादि, उच्छ्रसनमुच्छ्रसितं, भावे निष्ठाप्रत्ययः, तथा निःश्वसन निःश्वसितं निष्ठीवन निष्ट-यूतं कासनं कासितं, चशब्दः समुच्चयार्थः, क्षवणं क्षुतं, एषोऽपि चशब्दः समुपयार्थः परमस्य व्यवहितः प्रयोगः, सेंटितादिकं चेत्येवं द्रष्टव्यः, तथा निस्सिघन निस्सिचितं, अनुखारवदनुस्खारं, सानुखारमित्यर्थः, तथा सेंटितादिकं चानक्षरश्रुतं, इह उच्छुसितादि द्रव्यश्रुतं द्रष्टव्यं,ध्वनिमात्रत्वाद्भावश्रुतस्य कारणत्वात्कार्यत्वाच, तथाहि-यदाऽभिस|न्धिपूर्वक स विशेषतरमुच्छसितादि कस्यापि पुंसः कस्यचिदर्थस्य ज्ञप्तये प्रयुक्रे तदा तदुच्कृसितादि प्रयोक्तुभोवश्रुतस्य फलं श्रोतुश्च भावश्रुतस्य कारणं भवति ततो द्रव्यश्रुतमित्युच्यते, अघ ब्रवीथाः-एवं तर्हि करादिचेष्टाया अपि द्रव्य-18 श्रुतत्वप्रसङ्गः, साऽपि हि बुद्धिपूर्विका क्रियमाणा तत्कनु वश्रुतस्य फलं द्रष्टुश्च भावश्रुतस्य कारणमिति, नैष दोषः, श्रुतमित्यन्वयाश्रयणात् , तथाहि-यच्छ्यते तच्छुतमित्युच्यते, न च करादिचेष्टा श्रूयते, ततो न तत्र द्रव्यश्रुतत्वप्रसङ्गः, उच्छसितादिकं तु श्रूयते अनक्षरात्मक च ततस्तदनक्षरश्रुतमित्युक्तं, 'सेत्त'मित्यादि, तदेतदनक्षरश्रुतं ।। से किं तं सपिणसुअं?, २तिविहं पण्णत्तं तंजहा-कालिओवएसेणं हेऊवएसेणं दिदिवाओव *6*552552RAKAR दीप अनुक्रम [१३०-१३२] SAREndimbaimarana Humsancharary.org ~380~ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४०]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलय प्रत गिरीया सू.४० सूत्रांक नन्दीइचिः ॥१८९॥ [४०] एसेणं, से किं तं कालिओवएसेणं ?, कालिओवएसेणं जस्स णं अस्थि ईहा अवोहो मग्गणा गवेसणा चिंता वीमंसा से णं सपणीति लब्भइ, जस्स णं नत्थि ईहा अबोहो मग्गणा गवे. सणा चिंता वीमंसा से णं असन्नीति लब्भइ, से तं कालिओवएसेणं । से किं तं हेऊवएसेणं?, जस्स णं अस्थि अमिसंधारणपुविआ करणसत्ती से णं सपणीति लब्भइ, जस्स णं नत्थि अभिसंधारणपुविआ करणसत्ती से णं असण्णीत्ति लब्भइ, से तं हेऊवएसेणं । से किं तं दिद्धिवाओवएसेणं?, दिदिवाओवएसेणं सपिणसुअस्स खओवसमेणं सण्णी लब्भइ, असण्णिसुअस्स खओवसमेणं असण्णी लब्भइ, से तं दिदिवाओवएसेणं, से तं सपिणसुअं से तं असपिणसुअं । (सू०४०) 'से कि त'मिसादि, अथ किं तत्संज्ञिश्रुतं?, संज्ञानं संज्ञा साऽस्यास्तीति संज्ञी तस्य श्रुतं संजिश्रुतं, आचार्य आह-| संजिश्रुतं त्रिविध प्रज्ञसं, संजिनखिभेदत्वात्, तदेव त्रिभेदत्वं संज्ञिनो दर्शयति, तद्यथा-कालिक्युपदेशेन १ हेतूप-14 शिन २ दृष्टिवादोपदेशेन ३, तत्र कालिक्युपदेशेनेत्यत्रादिपदलोपाहीर्घकालिक्युपदेशेनेति द्रष्टव्यं । 'से कित'मित्यादि, अथ कोऽयं कालिक्युपदेशेन संज्ञी ?, इह दीर्घकालिकीसंज्ञा कालिकीति व्यपदिश्यते, आदिपदलोपाद , उपदेशनमुप-16 दीप अनुक्रम [१३३] ॥१८९।। RERucatural ~381~ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [४०]/गाथा ||८१...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [४०] देश:-कथनमित्यर्थः दीर्घकालिक्या उपदेशः दीर्घकालिक्युपदेशस्तेन, आचार्य आह-कालिक्युपदेशेन संज्ञी स उच्यते है संज्ञासंज्ञियस्य प्राणिनोऽस्ति-विद्यते ईहा-सदर्थपर्यालोचनमपोहो-निश्चयो मार्गणा-अन्वयधर्मान्वेषणरूपा गवेषणा-व्यतिरे-10 श्रुतं कधर्मखरूपपर्यालोचनं चिन्ता-कथमिदं भूतं कथं चेदं सम्प्रति कर्त्तव्यं कथं चैतद्भविष्यतीति पर्यालोचनं, विमर्शनी विमर्शः-इदमित्थमेव घटते इत्थं वा तद्भूतमित्थमेव वा तद्भावीति यथावस्थितवस्तुखरूपनिर्णयः, स प्राणी 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे संज्ञीति लभ्यते, स च गर्भव्युत्क्रान्तिकपुरुषादिरोपपातिकश्च देवादिमनःपर्यासियुक्तो विज्ञेयः, तस्यैव त्रिकालविषयचिन्ताविमर्शादिसम्भवाद् , आह च भाष्यकृत्-"इहं दीहकालिगी कालिगित्ति सन्ना जया सुदीईपि । संभरइ भूयमेस्सं चिंतेइ य किह णु काय? ॥१॥ कालियसन्नित्ति तओ जस्स मई सो य तो मणोजोग्गे । खंघेऽणते घेतुं मन्नइ तल्लद्धिसंपत्तो ॥२॥" एप च प्रायः सर्वमप्यर्थ स्फुटरूपमुपलभते, तथाहि-यथा चक्षुष्मान् | प्रदीपादिप्रकाशेन स्फुटमर्थमुपलभते तथैपोऽपि मनोलब्धिसम्पन्नो मनोद्रव्यावष्टम्भसमुत्थविमर्शवशतः पूर्वापरानुसन्धानेन यथावस्थितं स्फुटमर्थमुपलभते, यस्य पुनर्नास्ति ईहा अपोहो मार्गणा गवेषणा चिन्ता विमर्शः सोऽसंज्ञीति लभ्यते, स च सम्मूछिमपञ्चेन्द्रियविकलेन्द्रियादिविज्ञेयः स हि खल्पस्वल्पतरमनोलन्धिसम्पन्नत्वादस्फुटमस्फुटतरमर्थ दीप अनुक्रम [१३३] १ इ दीर्घकालिकी कालिफोति संशा यया सुरीमपि । स्मरति भूतमेश्वं चिन्तयति च कथं नु कर्त्तव्यम् ! ॥१॥ कालिककी ति सको यस्य मतिः स च ततो मनोयोग्यान् । स्कन्धाननन्तान् गृहीला मन्यते तजब्धिसंपन्नः ॥१॥ SAMEERamanand . Irelanditurary.org ~382~ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४०]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत म.४० सूत्रांक श्रीमलय- जानाति, तथाहि-संज्ञिपञ्चेन्द्रियापेक्षया सम्मूछिमपञ्चेन्द्रियोऽस्फुटमर्थ जानाति, ततोऽप्यस्फुटं चतुरिन्द्रियः, त-18 कासंश्यसंजिगिरीया तोऽप्यस्फुटतरं त्रीन्द्रियः, ततोऽप्यस्फुटतमं द्वीन्द्रियः, ततोऽप्यस्फुटतममेकेन्द्रियः, तस्य प्रायो मनोद्रव्यासम्भवात् , नन्दीपतिः केवलमव्यक्तमेव किञ्चिदतीवाल्पतरं मनो द्रष्टव्यं,यद्वशादाहारादिसंज्ञा अव्यक्तरूपाः प्रादुष्षन्ति, 'सेत्त'मित्यादि, सोऽयंश ॥१९ ॥ कालिक्युपदेशेन संज्ञी । 'से किं तमित्यादि, अथ कोऽयं हेतूपदेशेन संज्ञी?, हेतुः कारणं निमित्तमित्यनान्तरं, उपदेशनमुपदेशः हेतोरुपदेशनं हेतूपदेशस्तेन, किमुक्तं भवति ?-कोऽयं संज्ञित्वनिवन्धनहेतुमुपलभ्य कालिक्युपदेशेनासंयपि संज्ञीति व्यवहियते ?,आचार्य आह-हेतूपदेशेन संज्ञा यस्य प्राणिनोऽस्ति-विद्यतेऽभिसन्धारणम्-अव्यक्तेन व्यक्तेन वा विज्ञानेनालोचनं तत्पूर्विका-तत्कारणिका करणशक्तिः' करणं क्रिया तस्यां शक्तिः-प्रवृत्तिः स प्राणी प्राणमिति वाक्यालङ्कारे हेतूपदेशेन संज्ञीति भण्यते, एतदुक्तं भवति-यो बुद्धिपूर्वकं खदेहपरिपालनार्थमिष्टेष्वाहारादिषु वस्तुषु प्रवर्तते अनिष्टेभ्यश्च निवर्त्तते स हेतूपदेशेन संज्ञी, स च द्वीन्द्रियादिरपि वेदितव्यः, तथाहि-इष्टानिष्टविषयप्रवृत्तिनिवृत्तिसञ्चिन्तनं न मनोव्यापारमन्तरेण सम्भवति, मनसा पर्यालोचनं संज्ञा, सा च द्वीन्द्रियादेरपि वियत, तस्यापि प्रतिनियतेष्टानिष्टविषयप्रवृत्तिनिवृत्तिदर्शनात्, ततो द्वीन्द्रियादिरपि हेतूपदेशेन संज्ञी लभ्यते, नवरमस्य चिन्तनं प्रायो वर्तमानकालविषयं न भूतभविष्यद्विषयमिति न कालिक्युपदेशेन संज्ञी लभ्यते, यस्य पुनर्नास्त्यभिसन्धारणापूर्विका करणशक्तिः स प्राणी 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे हेतूपदेशेनाप्यसंज्ञी लभ्यते, स च पृथिव्यादिरेकेन्द्रियो वेदि दीप अनुक्रम [१३३] SALA ~383~ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [४०] दीप अनुक्रम [१३३] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [४०] / गाथा || ८९... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः तव्यः, तस्याभिसन्धिपूर्वक मिष्टानिष्टप्रवृत्तिनिवृत्त्यसम्भवात्, या अपि चाहारादिसंज्ञाः पृथिव्यादीना वर्त्तन्ते ता अप्य-त्यन्तमव्यक्तरूपा इति तदपेक्षयापि न तेषां संज्ञित्वव्यपदेशः, उक्तं च भाष्यकृता - "जे पुण संचिंतेउं इट्ठाणिसु विसयवत्थूसुं । वत्र्त्तति नियतंति य सदेहपरिपालणाहेउं ॥ १ ॥ पापण संपइ थिय कालमि न याइदीहकालण्णू । ते हेउवाय सण्णी निश्च्चिट्ठा होंति अस्सण्णी ॥ २ ॥" अन्यत्रापि हेतुपदेशेन संज्ञित्वमाश्रित्योक्तं- 'कृमिकीटपतङ्गाद्याः | समनस्काः जङ्गमाश्चतुर्भेदाः । अमनस्काः पञ्चविधाः पृथिवीकायादयो जीवाः ॥ १ ॥' 'सेत्त' मित्यादि, सोऽयं हेतूपदेशेन संज्ञी । 'से किं तमित्यादि, अथ कोऽयं दृष्टिवादोपदेशेन संज्ञी १, दृष्टिः दर्शनं सम्यक्त्वादि वदनं वादः दृष्टीनां वादो दृष्टिवादस्तदुपदेशेन, तदपेक्षयेत्यर्थः, आचार्य आह- दृष्टिवादोपदेशेन संज्ञिश्रुतस्य क्षयोपशमेन संज्ञी लभ्यते, संज्ञानं संज्ञा - सम्यग्ज्ञानं तदस्यास्तीति [स] [संज्ञी - सम्यग्दृष्टिस्तस्य यच्छ्रुतं तत्संज्ञिश्रुतं, सम्यश्रुतमिति भावार्थः, तस्य क्षयोपशमेन तदावारकस्य कर्म्मणः क्षयोपशमभावेन संज्ञी लभ्यते, किमुक्तं भवति १-सम्यग्दृष्टिः क्षायोपशमिकज्ञानयुक्तो दृष्टिवादोपदेशेन संज्ञी भवति, स च यथाशक्ति रागादिनिग्रहपरो वेदितव्यः, स हि सम्यग्दृष्टिः सम्यग्ज्ञानी वा यो रागादीन् निगृहाति, अन्यथा हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्त्यभावतः सम्यगृष्टित्वाद्ययोगात्, उक्तं च- "तज्ज्ञान १ ये पुनः संचिन्त्य इष्टानिष्टेषु विषयवस्तुषु वर्त्तन्ते निवर्तन्ते च खदेइपरिपालनातोः ॥ १ ॥ प्रायेण सांप्रत एव का न चातिदीर्घकालाः । ते देववादसंज्ञिनः निषेधा भवन्त्यहिनः ॥ २ ॥ For Park Use Only ~384~ संज्ञयसंहि श्रुतं सू. ४० १० Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [४०] दीप अनुक्रम [१३३] श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ॥१९१॥ “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [४०] / गाथा || ८९... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः मेव न भवति यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः । तमसः कुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् १ ॥ १ ॥” अन्यस्तु मिध्यादृष्टिरसंज्ञी, तथा चाह - 'असंज्ञिश्रुतस्य' मिध्याश्रुतस्य क्षयोपशमेनासंज्ञीति लभ्यते, 'से तमित्यादि । निगमनं, सोऽयं दृष्टिवादोपदेशेन संज्ञी । तदेवं संज्ञिनस्त्रिभेदत्वात् श्रुतमपि तदुपाधिभेदात् त्रिविधमुपन्यस्तं । अत्राहननु प्रथमं हेतुपदेशेन संज्ञी वक्तुं युज्यते, हेतुपदेशेनाल्प मनोलब्धिसम्पन्नस्यापि द्वीन्द्रियादेः संज्ञित्वेनाभ्युपगतत्वात् तस्य चाविशुद्धतरत्वात् ततः कालिक्युपदेशेन हेतुपदेशसंज्ञापेक्षया कालिक्युपदेशेन संज्ञिनो मनःपर्याप्तियुक्ततया विशुद्धत्वात्, तत्किमर्थमुत्क्रमोपन्यासः १, उच्यते, इह सर्वत्र सूत्रे यत्र कचित् संज्ञी असंज्ञी या परिगृह्यते तत्र सर्वत्रापि प्रायः कालिक्युपदेशेन गृह्यते न हेतुपदेशेन नापि दृष्टिवादोपदेशेन, तत एतत्सम्प्रत्ययार्थ प्रथमं कालिक्युपदेशेन संज्ञिनो ग्रहणं, उक्तं च- "संन्नित्ति असन्नित्ति य सबसुए काढिओवएसेणं । पायं संववहारो कीरह तेणाइओ स कओ ॥ १ ॥" ततोऽनन्तरमप्रधानत्वाद्धेतुपदेशेन संज्ञिनो ग्रहणं, ततः सर्वप्रधानत्वादन्ते दृष्टिवादोपदेशेनेति । 'सेत्त' मित्यादि, तदेतत्संज्ञिश्रुतम् असंज्ञिश्रुतमपि प्रतिपक्षाभिधानादेव प्रतिपादितं तत आह- 'सेत्तं असन्निसुर्य' तदेतदसंज्ञिश्रुतं ॥ से किं तं सम्मसुअं ?, जं इमं अरहंतेहिं भगवंतेहिं उप्पण्णनाणदंसणधरेहिं तेलक्कनिरिक्खि १ संशीति अक्षीत व सर्व कालवयुपदेशेन प्रायः संव्यवहारः क्रियते तेनादी सहृतः ॥ १ ॥ Education Internation सम्यकश्रुतस्य वर्णनं एवं तस्य भेदानाम् नामानि For Parts Only ~385~ सम्यकमिथ्याभूतं सू. ४१ १५ २० ॥१९१॥ २३ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [४१] दीप अनुक्रम [१३४] “नन्दी” - चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [४१]/ गाथा ||८९... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४४], चूलिका सूत्र [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः अमहिअइएहिं तीयपप्पण्णमणागयजाणएहिं सव्वष्णूहिं सव्वदरिसीहिं पणीअं दुबालसंग गणिपिडगं, तंजहा - आयारो १ सूयगडो २ ठाणं ३ समवाओ ४ विवाहपण्णत्ती ५ नायाधम्मकहाओ ६ उवासगदसाओ ७ अंतगडदसाओ ८ अणुत्तरोववाइयदसाओ ९ पण्हावागरणाई १० विवागसुअं ११ दिट्टिवाओ १२, इच्चेअं दुवालसंगं गणिपिडगं चोइसपुव्विस्स सम्मसुअं अभिण्णद सपुव्विस्स सम्मसुअं, तेण परं भिण्णेसु भयणा, से तं सम्मसु । (सू. ४१ ) 'से किं तमित्यादि, अथ किं तत्सम्यक्क्षुतं ?, आचार्य आह- सम्यकश्रुतं यदिदमर्हद्भिः-अशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यरूपां पूजा मर्हन्तीत्यर्हन्तः- तीर्थकरास्तैरर्हद्भिः, ते चार्हन्तः कैश्चिच्छुद्धद्रव्यास्तिकनयमतानुसारिभिरनादिसिद्धा एव मुक्तात्मानोऽभ्युपगम्यन्ते, तथा च ते पठन्ति "ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः । ऐश्वर्य चैव धर्मश्व, सहसिद्धं चतुष्टयम् ॥ १॥" इत्यादि, एवंरूपाचापि ते बहव इष्यन्ते स्थापनादिद्वारेण च विशिष्टां पूजामर्हन्ति ततोsईन्तोऽप्युच्यन्ते ततस्तद्वयवच्छेदार्थ विशेषणान्तरमाह-'भगवद्भिः ' भगः - समत्रैश्वर्यादिरूपः उक्तं च "ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः। धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, पण्णां भग इतीङ्गना ॥ १ ॥ भगो विद्यते येषां ते भगवन्तः तैर्भगवद्भिः, | इहानादिसिद्धानां रूपमात्रमपि नोपपद्यते किं पुनः समयं रूपम्, अशरीरत्वात्, शरीरस्य च रागादिकार्यतया तेषां Education International For Parts Only ~386~ सम्यकमिध्याश्रुतं सू. ४१ ५ १० १२ waryru Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [४१] दीप अनुक्रम [१३४] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [४१]/ गाथा ||८९... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः श्रीमलयगिरीया लन्दीवृत्तिः रागादिरहितानामसम्भवात् ततो भगवद्भिरित्यनेन परपरिकल्पितानादिसिद्धा ईद्वयवच्छेदमाह, जथ मन्येथाः - अनादिशुद्धा अप्यईन्तो यदा खेच्छया समग्ररूपादिगुणोपेतं शरीरमारचयन्ति तदा तेऽपि भगवन्तो भवन्ति ततः कथं तेषां व्युदास इत्याशङ्कापनोदार्थं भूयोऽपि विशेषणान्तरमाह - 'उत्पन्नज्ञानदर्शन घरैः' उत्पन्नं ज्ञानं - फेवलज्ञानं दर्शनं - केवल।।१९२।। ४ दर्शनं धरन्तीति उत्पन्नज्ञानदर्शनधराः, 'लिहादिभ्य' इत्यच् प्रत्ययः, न च येऽनादिविशुद्धास्ते उत्पन्नज्ञानदर्शनधरा भवन्ति 'ज्ञानमप्रतिघं यस्ये' त्यादिवचनविरोधात् तत उत्पन्नज्ञानदर्शनधरैरिति विशेषणेन तेषां व्यवच्छेदो भवति [ ग्रन्थाम ६०००], ननु यद्येवं तर्हि उत्पन्नज्ञान दर्शन घरैरित्येतावदेवास्तामलं भगवद्भिरितिविशेषणोपादानेन, तदयुक्तम्, उत्पन्नज्ञानदर्शन धरा हि सामान्य केवलिनोऽपि भवन्ति नच तेषामवश्यं समग्ररूपादिसम्भवः ततस्तत्कल्पानर्हतो मा ज्ञासिपुरमी विनेयजना इति समग्ररूपादिगुणप्रतिपत्त्यर्थं भगवद्भिरिति विशेषणोपादानं, तदेवं शुद्धद्रव्यास्ति कनयमतानुसारिकल्पि | तमुक्तव्यवच्छेदः कृतः, सम्प्रति पर्यायास्ति कनयमतानुसारिपरिकल्पितमुक्तव्यवच्छेदार्थ विशेषणान्तरमाह - 'त्रैलोक्यनिरीक्षितमहितपूजितैः' त्रयो लोकाः त्रिलोकाः - भवनपतिव्यन्तरविद्याधरज्योतिष्कवैमानिकाः त्रिलोका एव त्रैलोक्यं, भेषजादित्वात् खार्थे ध्यण्प्रत्ययः, निरीक्षिताश्च ते महिताश्च ते पूजिताश्च ते निरीक्षितमहितपूजिताः, त्रैलोक्येन निरीक्षितमहितपूजिताः त्रैलोक्यनिरीक्षित महितपूजिताः, तत्र निरीक्षिताः- मनोरथपरम्परा सम्पत्तिसम्भव विनिश्चयसमुत्वसम्मदविकाशि लोचनैरा ठोकिता महिता यथावस्थितानन्यसाधारणगुणोत्कीर्त्तन लक्षणेन भावस्तवेनार्चिताः पूजिताः Education Internation For Par Use Only ~387~ सम्पर्कमिथ्याश्रुतं सू. ४१ २० ॥१९२॥ २५ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [४१] दीप अनुक्रम [१३४] “नन्दी” - चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [४१] / गाथा ||८९... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “ नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः सुगन्धिपुष्पप्रकरप्रक्षेपादिना द्रव्यस्तवेन, तत्र सुगता अपि पर्यायास्तिकनयमतानुसारिभित्रैलोक्य निरीक्षितमहितपूजिता इप्यन्ते, तथा चाह स्वयम्भूः - "देवागमन भोयान चामरादिविभूतयः । मायाविष्वपि दृश्यन्ते, नातस्त्वमसि नो | महान् ॥ १ ॥” इति, ततस्तद्व्यवच्छेदार्थे विशेषणान्तरमाह-'अतीतप्रत्युत्पन्नानागतज्ञैः' न चातीतानागतज्ञाः सुगताः सम्भवन्ति तेषामेकान्तक्षणिकत्वाभ्युपगमेन सर्वथाऽतीतानागतयोरसस्वाद् असतां च ग्रहणासम्भवादित्यत्र बहु वक्तव्यं तच प्रायः प्रागेवोक्तमन्यत्र (च) धर्म्मसङ्ग्रहणीटीकादाविति नोच्यते, इह व्यवहारनय मतानुसारिभिः कैश्चिपयोऽप्यतीतप्रत्युत्पन्नानागतज्ञा इष्यन्ते, तथा च तद्बन्थः - "ऋषयः संयतात्मानः, फलमूलानिलाशनाः । तपसैव प्रपश्यन्ति, त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥ १ ॥ अतीतानागतान् भावान्, वर्तमानांश्च भारत । ज्ञानालोकेन पश्यन्ति, त्यक्तसङ्गा जितेन्द्रियाः || २ ||" इत्यादि, ततस्तद्वयवच्छेदार्थमाह-'सर्वज्ञैः सर्वदर्शिभिः' ते तु ऋषयः सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनथ न भवन्ति, ततस्तेषां व्युदासः । तदेवं द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकनयमतव्यवच्छेदफलतया विशेषणसाफल्यमुक्तं, विधित्रनयमताभिज्ञेन तु अन्यथापि विशेषणसाफल्यं वाच्यं, न कश्चिद्विरोधः, प्रणीतम् - अर्थकथनद्वारेण प्ररूपितं, किं त|दित्याह - 'द्वादशाङ्गं' श्रुतरूपस्य परमपुरुषस्याङ्गानीवाङ्गानि द्वादशाङ्गानि - आचाराङ्गादीनि यस्मिन् तत् द्वादशाङ्गं 'गणिपिडगं' ति गणो गच्छो गुणगणो वाऽस्यास्तीति गणी - आचार्यस्तस्य पिटकमिव पिटकं, सर्वस्वमित्यर्थः, गणि Education International For Pal Use Only ~388~ सम्पक् श्रुताधि कारः ५ www.ansaray or Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [४१]/गाथा ||८१...|| ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: गिरीया प्रत कार: सूत्रांक [४१] श्रीमलय- पिटकं, अथवा गणिशब्दः परिच्छेदवचनोऽ(प्य)स्ति, तथा चोक्तम्-"आयामि अहीए नाओ होइ समणधम्मो सम्यक उ । तम्हा आयारधरो भन्नइ पढमं गणिवाणं ॥१॥" ततश्च गणीनां पिटकं गणिपिटकं परिच्छेदसमूह इत्यर्थः, श्रुताधिनन्दीवृत्तिः है। तद्यथा-'आयारो' इत्यादि पाठसिद्धं यावत् दृष्टिवादः, अनङ्गप्रविष्टमप्यावश्यकादि तत्त्वतोऽर्हत्प्रणीतत्वात्परमार्थतो ॥१९३।। द्वादशाङ्गातिरिक्तार्थाभावाच्च द्वादशाङ्गग्रहणेन गृहीतं द्रष्टव्यं, इदं च द्वादशाङ्गादि सर्वमेव द्रव्यास्तिकनयमतापेक्षया तदभिधेयपञ्चास्तिकायभावयन्नित्यं खाम्यसम्बन्धचिन्तायां च खरूपेण चिन्त्यमानं सम्यकश्रुतं स्वामिसम्बन्धचिन्तायां तु सम्यग्रष्टेः सम्यकश्रुतं मिथ्यारष्टेमिथ्याश्रुतं, एतदेव श्रुतं परिमाणतो व्यक्तं दर्शयति-इत्येतद् द्वादशाई गणिपिटकं यश्चतुर्दशपूर्वी तस्य सकलमपि सामायिकादि बिन्दुसारपर्यवसानं नियमात् सम्यक्श्रुतं, ततोऽधोमुखपरिहान्या नियमतः सवें सम्यक्धुतं तावद्वक्तव्यं यावदभिन्नदशपूर्विणः-सम्पूर्णदशपूर्वधरस्य, सम्पूर्णदशपूर्वधरत्वादिकं हि नियमतः सम्यग्दृष्टेरेव, न मिथ्यादृष्टेः, तथास्वाभाव्यात् , तथाहि-यथा अभन्यो ग्रन्थिदेशमुपागतोऽपि तथाखभाव त्वात् न ग्रन्थिभेदमाधातुमलम् , एवं मिध्याष्टिरपि श्रुतमवगाहमानः प्रकर्षतोऽपि तावदवगाहते यावत्किञ्चिन्यूदानानि दश पूर्वाणि भवन्ति, परिपूर्णानि तु तानि नावगाटुं शक्नोति, तथास्वभावत्वादिति, 'तेण परं भन्नइ भयणा' 18॥१९३॥ अत्र 'तेणे'ति 'व्यत्ययोऽप्यासामिति प्राकृतलक्षणवशात्पञ्चम्यर्थे तृतीया, ततोऽयमर्थः-ततः सम्पूर्णदशपूर्वधरत्वात् १ आचारेऽधीते गमाती भवति भ्रमणधर्मस्तु । तस्मादाचारधरौ भन्यते प्रथमं गणिस्थानम् ॥१॥ RSAGROCCCCXXX दीप अनुक्रम [१३४] C२४ SAREairabo d ~389~ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [४१] दीप अनुक्रम [१३४] “नन्दी” - चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [४१]/ गाथा ||८९... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः पश्चानुपूर्व्या परं-भिन्नेषु दशसु पूर्वेषु भजना - विकल्पना, कदाचित् सम्यक् श्रुतं कदाचिन्मिथ्या श्रुतमित्यर्थः, इयमत्र भावना- सम्यग्दृष्टेः प्रशमादिगुणगणोपेतस्य सम्यक्श्रुतं यथावस्थितार्थतया तस्य सम्यक् परिणमनात्, मिथ्यादृटेस्तु मिथ्याश्रुतं, विपरीतार्थतया तस्य परिणमनात्, 'सेत्त' मित्यादि, तदेतत्सम्यक्क्षुतम् । किं तं मिच्छासु ?, २ जं इमं अण्णाणिएहिं मिच्छादिट्टिएहिं सच्छंद बुद्धिमइविगप्पिअं, तंजा - भारहं रामायणं भीमासुरुवं कोडिलयं सगडभदिआओ खोड ( घोडग ) मुहं कप्पासिअं नागसुहुमं कणगसत्तरी वइसेसिअं बुद्धवयणं तेरासिअं काविलिअं लोगाययं सहितंतं माढरं पुराणं वागरणं भागवं पायंजली पुस्तदेवयं लेहं गणिअं - सउणरुअं नाडयाई, अहवा बावन्तरि कलाओ चत्तारि अ वेआ संगोवंगा, एआई मिच्छदिट्टिस्स मिच्छत्तपरिग्गहिआई मिच्छासु, एयाई चैव सम्मदिट्ठिस्स सम्मत्तपरिग्गहिआई सम्मसुअं, अहवा मिच्छदिसिवियाई चैव सम्मसुअं, कम्हा ?, सम्मत्त हे उत्तणओ, जम्हा ते मिच्छदिट्टिआ तेहिं चेव समपहिं चोइआ समाणा केइ सपक्खदिट्टीओ चयंति, से तं मिच्छासुअं (सू०४२ ) 'से किं तमित्यादि, अथ किं तन्मिथ्याश्रुतं १, आचार्य आह - मिध्याश्रुतं यदिदमज्ञानिकैः, तत्र यथाऽल्पधना For Parts Only ~390~ मिथ्याधुताधिकारः सू. ४२ ५ १० १२ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४२/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४२]] श्रीमलय- लोकेऽधना उच्यन्ते एवं सम्यग्दृष्टयोऽप्यल्पज्ञानभावादज्ञानिका उच्यन्ते तत आह-मिध्यादृष्टिभिः, किंवि०?-स्व मिथ्याधुगिरीया च्छन्दबुद्धिमतिविकल्पितं तत्रावग्रहेहे तु बुद्धिः, अपायधारणे मतिः, स्वच्छन्देन-स्वाभिप्रायेण तत्त्वतः सर्वज्ञप्रणीतानु- ताधिकार सू. ४२ नन्दाबाता | सारमन्तरेणेत्यर्थः,बुद्धिमतिभ्यां विकल्पितं खच्छन्दबुद्धिमतिविकल्पितं, खबुद्धिकल्पनाशिल्पनिर्मितमित्यर्थः, तद्यथा॥१९४॥1'भारतमित्यादि यावचत्तारि वेया संगोवंगा' भारतादयश्च ग्रन्था लोके प्रसिद्धास्ततो लोकत एव तेषां स्वरूपमव गन्तव्यं, ते च स्वरूपतो यथावस्थितवस्त्वभिधानविकलतया मिथ्याश्रुतमवसेयाः, एतेऽपि च खामिसम्बन्धचिन्तायां भाज्याः,तथा चाह-'एयाई'इत्यादि, एतानि-भारतादीनि शास्त्राणि मिथ्यादृष्टेमिथ्यात्वपरिगृहीतानि भवन्ति ततो विपरीताभिनिवेशवृद्धिहे तुत्वान्मिथ्याश्रुतं, एतान्येव च भारतादीनि शास्त्राणि सम्यग्दृष्टेः सम्यक्त्वपरिगृहीतानि भव|न्ति, सम्यक्त्वेन-यधावस्थिताऽसारतापरिभाषनरूपेण परिग्रहीतानि, तस्य सम्यक्श्रुतं, तद्गतासारतादर्शनेन स्थिरतरसम्यक्त्वपरिणामहेतुत्वात् , 'अहवे'त्यादि, अथवा मिथ्यारष्टेरपि सतः कस्यचिदेतानि भारतादीनि शास्त्राणि सम्यक्श्रुतं, शिष्य आह-कस्मात् ?, आचार्य आह-सम्यक्त्वहेतुत्वात् , सम्यक्त्वहेतुत्वमेव भावयति-यस्मात्ते मियादृष्टयः । तैरेव समयैः-सिद्धान्तैर्वेदादिभिः पूर्वोपरविरोधेन-यथा रागादिपरीतः पुरुषस्तावन्नातीन्द्रियमर्थमवबुध्यते रागादिपरी-|| तत्वाद् अस्मादृशवद, वेदेषु चातीन्द्रियाः प्रायोऽर्धा व्यावय॑न्ते अतीन्द्रियार्थदर्शी च वीतरागः सर्वज्ञो नाभ्धुपगम्यते ततः कथं वेदार्थप्रतीतिरित्येवमादिलक्षणेन नोदिताः सन्तः केचन विवेकिनः सत्या(सक्या)दय इव स्वपक्षदृष्टीः-खदर्श २५ दीप अनुक्रम [१३५]] भ ~391~ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४२/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सादिसपर्यवसिताबधिकारः सूत्रांक [४२] नानि त्यजन्ति, भगवच्छासनं प्रतिपद्यन्ते इत्यर्थः, तत एवं सम्यक्त्वहेतुत्वावेदादीन्यपि शास्त्राणि केषाञ्चिन्मिध्याह- ष्टीनामपि सम्यकश्रुतं । 'सेत्त'मित्यादि, तदेतन्मिथ्याश्रुतं ॥ से किं तं साइअं सपजवसिअं अणाइअं अपजवसिअं.च?, इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं वुच्छित्तिनयट्टयाए साइअं सपज्जवसिअं, अवुच्छित्तिनयट्टयाए अणाइअं अपज्जवसिअं, तं समासओ चउन्विहं पण्णत्तं, तंजहा-दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ, तत्थ दवओ णं सम्मसुअं एगं पुरिसं पडुच्च साइ सपज्जवसि, बहवे पुरिसे य पडुच्च अणाइयं अपजवसि, खेत्तओ णं पंच भरहाइं पंचेरवयाई पडुच्च साइअं सपज्जवसिअं, पंच महाविदेहाई पडुच्च अणाइयं अपजवसिअं, कालओ णं उस्सप्पिणिं ओसप्पिणिं च पडुच्च साइअं सपजवसिअं, नोउस्सप्पिणिं नोओसप्पिणि च पडुच्च अणाइयं अपजवसिअं, भावओ णं जे जया जिणपन्नत्ता भावा आघविजंति पण्णविनंति परूविजंति दंसिर्जति निदंसिर्जति उवदंसिर्जति तया(ते) भावे पडुच्च साइअं सपजवसिअं, खाओवसमिअं पुण भावं पडुच्च अणाइअं अपजवसि । अहवा भवसिद्धियस्स सुयं साइयं सपजवसिअंच, अभवसिद्धियस्त सुयं अणा दीप अनुक्रम [१३५]] श्रुतस्य सादि-अनादि तथा अपर्यवसित-सपर्यवसितत्वम् ~392~ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ........................ मूलं [४३]/गाथा ||८१...|| ........ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः सादिसपर्यवसिवाद्य प्रत धिकार सूत्रांक ॥१९५|| [४३] इयं अपज्जवसियं(च), सव्वागासपएसग्गं सव्वागासपएसेहिं अणंतगुणिों पजवक्खरं निष्फजइ, सव्वजीवाणंपि अ णं अक्खरस्स अणंतभागो निच्चुग्घाडिओ, जइ पुण सोऽवि आवरिजा तेणं जीवो अजीवत्तं पाविजा,-'सुझुवि मेहसमुदए होइ पभा चंदसूराणं । से तं साइअं सपजवसिअं, सेत्तं अणाइयं अपजवसि (सू. ४३) अथ किं तत्सादिसपर्यवसितमनादि अपर्यवसितं च ?, तत्र सहादिना वर्तते इति सादि, तथा पर्यवसानं पर्यवसितं, | भावे क्तप्रत्ययः,सह पर्यवसितेन वर्त्तते इति सपर्यवसितं,आदिरहितमनादि, न पर्ययसितमपर्यवसितं, आचार्य आहूइत्येतहादशाङ्गं गणिपिटकं 'पोच्छित्तिनयट्टयाए' इत्यादि, व्यवच्छित्तिप्रतिपादनपरो नयो व्यवच्छित्तिनयः, पर्यायास्तूिकनय इत्यर्थः, तस्यार्थी व्यवच्छित्तिनयार्थः, पर्याय इत्यर्थः, तस्य भावो व्यवच्छित्तिनयार्थता तया, पर्यायापेक्षयेत्पथे, किमित्याह-सादिसपर्यवसितं नारकादिभवपरिणत्यपेक्षया जीव इव, 'अच्छित्तिनयट्ठयाए'त्ति अव्यवच्छि|त्तिप्रतिपादनपरो नयोऽव्यवच्छित्तिनयस्तस्यार्थोऽव्यवच्छित्तिनयार्थो, द्रव्यमित्यर्थः, तद्भावस्तत्ता तया, द्रव्यापेक्षया इत्यर्थः, किमित्याह-अनादिअपर्यवसितं त्रिकालावस्थायित्वाजीववद, अधिकृतमेवार्थ द्रव्यक्षेत्रादिचतुष्टयमधिकृत्य ट्रा प्रतिपादयति-तत्' श्रुतज्ञानं 'समासतः' संक्षेपेण चतुर्विध प्रज्ञप्तं, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, तत्र दिव्यतो 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे सम्यक्श्रुतमेकं पुरुपं प्रतीत्य सादिसपर्यवसितं, कथमिति चेत् ? उच्यते, सम्य- दीप अनुक्रम [१३६] ॥१९५॥ २५ ~393~ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४३]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] |क्त्वावाप्तौ ततः प्रथमपाठतो बा सादि पुनर्मिथ्यात्वप्राप्तौ सति वा सम्यक्त्वे प्रमादभावतो महाग्लानत्वभावतो वासादिसपर्षसुरलोकगमनसम्भवतो वा पिस्मृतिमुपागते केवलज्ञानोत्पत्तिभावतो वा सर्वथा विप्रनष्टे सपर्यवसितं, बहून् पुरुषान् वसिताब |धिकार | कालप्रयवर्तिनः पुनः प्रतीत्यानाद्यपर्यवसितं, सन्तानेन प्रवृत्तत्वात् , कालवत् , तथा क्षेत्रतो 'ण'मिति वाक्यालकारे | पञ्च भरतानि पश्चरवतानि प्रतीत्य सादिसपर्यवसानं, कथं ?, उच्यते, तेषु क्षेत्रेष्ववसर्पिण्यां सुषमदुष्पमापर्यवसाने उत्सपिण्यां तु दुष्पमसुषमानारम्भे तीर्थकरधर्मसकानां प्रथमतयोत्पत्तेः सादि, एकान्तदुष्पमादौ च काले तदभावात् सपर्यवसितं, तथा महाविदेहान् प्रतीत्यानाद्यपर्यवसितं, तत्र प्रवाहापेक्षया तीर्थकारादीनामव्यवच्छेदात् , तथा कालतो 'ण'मिति वाक्यालकारे, अवसर्पिणीमुत्सपिणी च प्रतीय सादिसपर्यवसितं, तथाहि-अवसर्पिण्यां तिसृष्वेव समायु सुपमदुष्पमादुष्पमसुपमादुष्पमारूपासूत्सर्पिण्यां तु द्वयोः समयोः दुष्पमसुषमासुषमदुष्षमारूपयोभवति, न परतः, ततः सादिसपर्यवसितं, अत्र चोत्सर्पिण्यवसर्पिणीखरूपज्ञापनार्थ कालचक्रं विंशतिसागरोपमकोटाकोटीप्रमाणं विनयजनानुग्रहार्थ यथा मूलवृत्तिकृता दर्शितं तथा वयमपि दर्शयामः-"चत्तारि सागरोवमकोडिकोडीउ संतईए उ । एमंतसुस्समा खलु जिणेहिँ सबेहिं निहिट्ठा ॥१॥ तीए पुरिसाणमाऊ तिन्नि य पलियाई तह पमाणं च । तिन्नेव गाउपाइं आइएँ भणति समय ॥२॥ उपभोगपरीभोगा जम्मंतरसुकयवीयजाया उदा१२ १ चतनः सागरोपमकोटीकोन्यः सख्या तु । एकान्तसुषमा सल जिनैः सनिर्दिया ॥१॥ तस्यां पुरुषाणामायुनीणि च पल्योपमानि तथा प्रमाणं च । श्रीण्येव गम्यूतानि मादी भणन्ति समनवाः॥३॥ उपभोगपरीभोया जन्मान्तरमुक्तीजजातास्तु । SCORCE दीप अनुक्रम [१३६] - ~ 394~ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४३]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सादिसपर्यवसिताधधिकार सू. ४३ सूत्रांक % [४३] मलय-14 कप्पतरुसमूहाओ होंति किलेसं विणा तेसिं ॥३॥ ते पुण दसप्पयारा कप्पतरू समणसमयकेहिं । धीरोहिं गिरीया विनिहिठ्ठा मणोरहापूरगा एए॥४॥ मत्तंगया य भिंगा तुडिअंगा दीव जोइ चित्तङ्गा । चित्तरसा मणियंगा गेहाजन्दीवृत्तिः गारा अणिय(गि)णाय ।। ५॥ मत्तंगएसु मज्जं सुहपेजं भायणाणि भिंगेसु । तुडियंगेसु य संगयतुडियाणि बहुप्पगा॥१९६॥ | राणि ॥६॥ दीवसिहा जोइसनामया य निचं करंति उज्जोयं । चित्तंगेसु य मलं चित्तरसा भोयणट्ठाए ॥७॥ मणियंगेसु य भूसणवराणि भवणाणि भवणरुक्खेसुं । आइण्णे (अणिगिणे)सु य इच्छियवत्थाणि बहुप्पगाराणि In८एएसु य अन्नेसु य नरनारिगणाण ताणमुवभोगा । भवियपुणब्भवरहिया इय सवण्णू जिणा बिति ॥९॥ तो प्रतिषिण सागरोवमकोडाकोडीउ वीयरागेहिं । सुसमत्ति समक्खाया पवाहरूवेण धीरेहिं ॥१०॥तीए पुरिसाणमा दोन्नि उपलियाई तह पमाणं च । दो चेव गाउयाई आईएँ भणंति समयन्नू ॥११॥ उवभोगपरीभोगा तेर्सिपि य दीप अनुक्रम [१३६] ॥१९६।। E कल्पतरसमहान भवति लेशं विना तेषाम् ॥३॥ ते पुनर्दशप्रकाराः कल्पतरखः श्रमणसमय केतुमिः । धीरविनिर्दिष्टा मनोरणापूरका एते ॥ ४ ॥ है मत्तानदाश्च भृगानाटिताका दीपज्योतिश्चित्रामाः । चित्ररसा मण्यशाः राहाकारा अनमनाच ॥ ५॥ मत्तादेव मयं सुखपेयं भाजनानि भोषु । त्रुटिताङ्गेषु च संगतत्रुटिनानि बहु प्रकारानि ॥६॥ दीपशिखा ज्योति मकाब नित्यं कुर्चन्त्युद्योतम् । वित्रानेषु च माल्वं चित्ररसा भोजनार्थाय ॥ ७ ॥ मण्यशेषु च भूषणवरागि भवनानि भवनक्षेषु । आकीर्णेषु चेप्सितानि च (प्रार्थितानि) वस्त्राणि बहुप्रकाराणि ॥६॥ एतेषु चान्येषु च नरनारीगणानां तेषामुपभोगाः। भाविभुनभवरहिता इति | सर्वज्ञा जिना ब्रुयते ॥ ९॥ ततसिनः सागरोपमकोटीकोटीमाना वीतरागैः । मुषमेति समाख्याता प्रकाहरूपेण धीरैः ॥१०॥ तस्यां पुरुषाणामायुः देव पल्लोपमे तथा प्रमाण च । दे एव गम्यूते भादौ भणन्ति समयकाः ॥ ११॥ उपभोगपरिभोगासोपामपि च ~395~ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [४३]/गाथा ||८१...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: 1543 सादिसपर्यवसिताध|धिकार प्रत सूत्रांक [४३] कप्पपायबेहितो। होंति किलेंसेण विणा पायं पुण्णाणुभावणं ॥१२॥ तो सुसमदुस्समाए पवाहरूवेण कोडिकोडीओ। अयराण दोन्नि सिट्ठा जिणेहिँ जियरागदोसेहिं ॥१३॥ तीए पुरिसाणमाउं एग पलिअंतहा पमाणं च । एगं च गाउयं तीऍ आईए भणति समयन्नू ॥ १४ ॥ उवभोगपरीभोगा तेसिपि य कम्पपायवेहितो । होति किलेसेण विणा नवरं पुण्णाणुभावेणं ॥ १५॥ सूसमदुसमावसेसे पढमजिणो धम्मनायगो भययं । उप्पण्णो सुहपुण्णो | सिप्पकलादंसओ उसभो ॥१॥ तो दुसमसूसमूणा वायालीसाइ वरिससहसेहिं । सागरकोडाकोडी एमेव जिणेहिँ पण्णता ॥१७॥ तीए पुरिसाणमाउं पुवपमाणेण तह पमाणं च । धणुसंखा निद्दिळं विसेस सुत्ताओ नायवं ॥१८॥ | उपभोगपरीभोगा पपरोसहिमाइएहिं विनेया। जिणचकिवासुदेवा सवेऽपि इमाद बोलीणा ॥ १९॥ इगवीससहस्साई वासाणं दूसमा इमीए उ। जीवियमाणुवभोगाइयाई दीसंति हायति ॥२०॥ एत्तो य किलिट्ठयरा जीय सजाय दीप अनुक्रम [१३६] १ कल्पपापेभ्यः । भवन्ति मेशेन विना प्रायः पुण्यागुभावेन ॥१२॥ तदा सुषमदुषमावा प्रवादरूपेण कोटी कोयी । भतरयोः विठे जिनेजितरागः ॥१२॥ हातस्या पुरुषाणामायुरेक पायोपर्म तथा प्रमाणं च । एकं च गन्यूतं तसा पुरुषाणां आदी भणन्ति समयज्ञाः ॥ १४ ॥ उपभोगपरीभोगासलेषामपि च कल्पपादपेभ्यः । | भवन्ति क्लेशेन विना नर पुण्यानुभावेन ॥ १५ ॥ गुषमदुष्पमावशेषे प्रथमजिनी धर्मनायको भगवान् । उत्तमः पूर्ण शुभः शिल्पकलादर्शको पभः ॥ १६ ॥ | ततः दुष्षमसुषमा कना द्विचत्वारिकता पपैसदसः । सागरोपमहोटी कोटी एवमेव जिनः प्रशता ॥१७॥ तस्या पुरुषाणामायुः पूर्वप्रमाणेन तथा प्रमाग का धनःसंख्यया विविध विशेषः सूत्रात्मासम्मः ॥१८॥ उपभोगारीभोगाः प्रवरोषध्यादिमिनिया । जिनतिजारदेवाः यस्या व्यतिकान्ताः ॥ | एकविधातिः सहलागि वर्षाणां दुषमाऽस्यां तु । जीवितमानोपभोगादिकानि रश्यन्ते हीयमानानि ॥ २०॥ तब लिष्टतरा जीवित E matural ~396~ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [४३] दीप अनुक्रम [१३६ ] श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ॥१९७॥ “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ४३ ] / गाथा || ८९... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः माणाइएहिं निद्दिट्ठा। अइदूसमत्ति घोरा वाससहस्साइ इगवीसा ॥ २१ ॥ ओसप्पिणीए एसो कालविभागो जिणेहि निद्दिहो । एसो चिय पडिलोमं विन्नेओस्सप्पिणीएऽवि ॥ २२ ॥ एयं तु कालचकं सिस्सजणाणुग्गहट्ठि (ड) या भणिअं । संखेवेण महत्थो बिसेस सुत्ताओ नायवो ॥ २३ ॥” “नोउसप्पिणी 'त्यादि, नोत्सर्पिणीमवसर्पिणी प्रतीत्यानाद्यपर्यवसितं, महाविदेहेषु हि नोत्सर्पिण्यवसर्पिणीरूपः कालः, तत्र च सदैवावस्थितं सम्यक् श्रुतमित्यनाद्यपर्यवसितं तथा भावतो 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे, 'ये' इत्यनिर्दिष्टनिर्देशे ये केचन यदा पूर्वाह्नादौ जिनैः प्रज्ञप्ता जिनप्रज्ञप्ता भावा:- पदार्थाः 'आघविज्जति'त्ति प्राकृतत्वादाख्यायन्ते, सामान्यरूपतया विशेषरूपतया वा कथ्यन्ते इत्यर्थः, प्रज्ञाप्यन्ते नामादिभेदप्रदर्शनेनाख्यायन्ते तेषां नामादीनां भेदाः प्रदर्श्यन्ते इत्यर्थः, प्ररूप्यन्ते नामादिभेदस्वरूपकथनेन प्रख्यायन्ते नामादीनां भेदानां स्वरूपमाख्यायते इति भावार्थः, यथा – “पंज्जायाणभिधेयं ठियमन्नत्थे तदत्थनिरवेक्खं । जाइच्छियं च नामं जाव दवं च पाएणं ॥ १ ॥ जं पुण तदत्थसुन्नं तदभिप्पाएण तारिसागारं । कीरइ व निरागारं इत्तरमियरं च साठवणा ॥ २ ॥ इत्यादि, तथा दर्श्यन्ते- उपमानमात्रोपदर्शनेन प्रकटीक्रियन्ते, यथा १ प्रमाणादिकैर्निर्दिश । अतिदुपमेति (माइति) घोरा वर्षसहस्राणि एकविंशतिः ॥ २१ ॥ अवसर्पिण्यामेव कालविभागो जिनैर्निर्दिष्टः । एष एवं प्रतिलोमो विज्ञेय उत्सर्पिण्यामपि ॥ २२ ॥ एतत्तु कालचके शिवजनानुग्रहार्थाय भणितम्। संक्षेपेग महार्थो विशेषः स्वात् ज्ञातव्यः ॥ २३ ॥ २ पर्यायानामधेयं स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपेक्षम् यादृच्छिक व नाम या च प्रायेण ॥ १ ॥ यत्पुनस्तदर्थशून्यं तदभिप्रायेण ताराकारम् । किवते वा निराकारमित्वरमितरच सा स्थापना ।। २ ।। Education Interna For Parts Only ~397~ सादिसपर्ववसितायधिकारः सू. ४३ २० २३ ॥१९७॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [४३] दीप अनुक्रम [१३६ ] “नन्दी” - चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ४३ ] / गाथा || ८९... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र [१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः गौरिव गवय इत्यादि, तथा निदर्श्यते- हेतुदृष्टान्तोपदर्शनेन स्पष्टतरीक्रियन्ते, उपदश्यन्ते - उपनयनिगमनाभ्यां नि:शङ्कं शिष्यबुद्धौ स्थाप्यन्ते, अथवा उपदर्श्यन्ते सकलनयाभिप्रायावतारणतः पटुप्रज्ञ शिष्यबुद्धिषु व्यवस्थाप्यन्ते तान् भावान् 'तदा तस्मिन् काले तथाऽऽख्यायमानान् प्रतीत्य सादिसपर्यवसितं एतदुक्तं भवति -- तस्मिन् काले तं तं प्रज्ञापकोपयोगं खरविशेषं प्रयत्नविशेषमासन विशेषमङ्गविन्यासादिकं च प्रतीत्य सादिसपर्यवसितम्, उपयोगादेः प्रतिकालं अन्यथाऽन्यथा भवनातू, उक्तं च – “उपयोगसरपयत्ता आसणभेयाइया य पइसमयं । भिण्णा पण्णवगस्सा साइयसपञ्चंतयं तम्हा ॥ १ ॥” क्षायोपशमिकभावं पुनः प्रतीत्यानाद्यपर्यवसितं प्रवाहरूपेण क्षायोपशमिकभावस्थानाद्यपर्यवसितत्वात्, अथवाऽत्र चतुर्भङ्गिका, तद्यथा - सादिसपर्यवसितं १ साद्य पर्यवसित २ मनादिसपर्यवसित ३मनाद्यपर्यवसितं च ४, तत्र प्रथमभङ्गप्रदर्शनायाह - 'अथवेत्यादि, अथवेति प्रकारान्तरोपदर्शने भवसिद्धिको भव्यस्तस्य सम्यक्क्षुतं सादि (स) पर्यवसितं सम्यक्त्वलाभे प्रथमतया भावात् भूयो मिध्यात्वप्राप्तौ केवलोत्पत्तौ वा विनाशात्, द्वितीयस्तु भङ्गः शून्यो, न हि सम्यक्क्षुतं मिथ्याश्रुतं या सादि भूत्वाऽपर्यवसितं सम्भवति, मिथ्यात्वप्राप्ती केवलोत्पत्तौ वाऽवश्यं सम्यक् श्रुतस्य विनाशात्, मिध्याश्रुतस्यापि च सादेरवश्यं कालान्तरे सम्यक्त्वावातावभावादिति, तृतीयभङ्गकस्तु मिथ्याश्रुतापेक्षया वेदितव्यः, तथाहि - भव्यस्थानादिमिथ्यादृटेर्मिथ्याश्रुतमनादि सम्यक्त्वावासौ च तदपयातीति सपर्यवसितं चतुर्थभङ्गकं पुनरुपदर्शयति- 'अभवे' त्यादि, अभवसिद्धिकः - अभव्यस्तस्य श्रुतं मिध्याश्रुत For Pasta Use Only ~398~ सादिसपर्यवसिताद्यधिकार: सू. ४३ ५ १० १३ www.andrary or Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [४३]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: B प्रत गिरीया S सूत्रांक [४३] श्रीमलय- मनाद्यपर्यवसितं, तस्य सदैव सम्यक्त्वादिगुणहीनत्वात् , एषा चतुर्भङ्गिका यथा श्रुतस्योक्ता तथा मतेरपि द्रष्टव्या, सादिसपर्य| मतिश्रुतयोरन्योऽन्यानुगतत्वात् , केवलमिह श्रुतस्य प्रक्रान्तत्वात्साक्षात्तस्यैव दर्शिता, अत्राह-ननु तृतीयभङ्गे चतुर्थ बसिताधनन्दीवृत्तिः |धिकार या भङ्गे वा श्रुतस्यानादिभाव उक्तः, स च जघन्य उत मध्यम आहोश्विदुत्कृष्टः?, उच्यते, जघन्यो मध्यमो वा न तूत्कृष्टो, सू. ४३ ॥१९८॥ यतस्तस्येदं मान-सवागासें यादि, सर्व च तदाकाशं च-सर्वाकाशं, लोकालोकाकाशमित्यर्थः, तस्य प्रदेशा:-निर्विभागा Rभागाः सर्वाऽऽकाशप्रदेशास्तेषामग्रं-प्रमाणं सर्वाकाशप्रदेशाग्रं तत्सर्वाकाशप्रदेशैरनन्तगुणितम्-अनन्तशो गुणितमेकैक|स्मिन्नाकाशप्रदेशेऽनन्तागुरुलघुपर्यायभावात् पर्यायाग्राक्षरं निष्पद्यते-पर्यायपरिमाणाक्षरं निष्पद्यते, इयमत्र भावना-सर्वाकाशप्रदेशपरिमाणं सर्वाकाशप्रदेशैरनन्तशो गुणितं यावत्परिमाणं भवति तावत्रमाणं सर्वाकाशपर्यायाणामग्रं भवति,एकै- २० कस्मिन्नाकाशप्रदेशे यावन्तोऽगुरुलघुपर्यायास्ते सर्वेऽपि एकत्र पिण्डिता एतावन्तो भवन्तीत्यर्थः, एतावत्प्रमाणं चाक्षरं भवति,इह स्तोकत्वाद्धर्मास्तिकायादयः साक्षात्सूत्रे नोक्ताः, परमार्थतस्तु तेऽपि गृहीता द्रष्टव्याः,ततोऽयमर्थः-सर्वद्रव्यप्रदेशाग्रं सर्वद्रव्यप्रदेशैरनन्तशो गुणितं यावत्परिमाणं भवति तावत्प्रमाण-सर्यद्रव्यपर्यायपरिमाणं, एतावत्परिमाणं चाक्षरं । भवति, तदपि चाक्षरं द्विधा-ज्ञानमकारादिवर्णजातं च, उभयत्रापि अक्षरशब्दप्रवृत्ते रूढत्वात् , द्विविधमपि चेह गृह्यते, विरोधाभावात् , ननु ज्ञानं सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणं सम्भवतु, यतो ज्ञानमिहाविशेषोक्ती सर्वद्रव्यपर्यायपरिमागणतुल्यताऽभिधानात प्रक्रमाद्वा केवलज्ञानं ग्रहीष्यते, तच्च सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणं घटत एव, तथाहि-यावन्तो HASHAS दीप अनुक्रम [१३६] ॥१९८॥ २५ ~399~ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४३]/गाथा ||८१...|| ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: सवाया। प्रत सूत्रांक [४३] जगति रूपिद्रव्याणां ये गुरुलघुपर्याया ये च रूपिद्रव्याणामरूपिद्रव्याणां वाऽगुरुलघुपर्यायातान् सर्वानपि साक्षात्क-12 रतलकलितमुक्ताफलमिव केवलालोकेन प्रतिक्षणमवलोकते भगवान् , न च येन खभावेनेक पर्याय परिस्छिनत्ति तेनैव । खभावेन पर्यायान्तरमपि, तयोः पर्याययोरेकत्वप्रसक्तेः, तथाहि-घटपर्यायपरिच्छेदनखभावं यज्ञानं तद्यदा पटपयोयं परिच्छेत्तुमलं तदा पटपर्यायस्यापि घटपर्यायरूपताऽऽपत्तिः, अन्यथा तस्य तत्परिच्छेदकत्वानुपपचेः, तथारूपखभावाभावात्, ततो यावन्तः परिच्छेद्याः पर्यायास्तावन्तः परिच्छेदकास्तस्य केवलज्ञानस्य खभावा वेदितन्याः, स्वभावाश्च पर्यायास्ततः पर्यायानधिकृत्य सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणं केवलज्ञानमुपपद्यते, यदकारादिकं वर्णजातं तत्कथं सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणं भवितुमर्हति ?, तत्पर्यायराशेः सर्वद्रव्यपर्यायाणामनन्ततमे भागे वर्तमानत्वात् , तदयुक्तं, अकारादेरपि स्वपरपर्यायभेदभिन्नतया सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणतुल्यत्वाद, आह च भाष्यकृत्-"एकेकमक्खरं पुण सपरपज्जायभयओ भिन्नं । तं सबदषपज्जायरासिमाणं मुणेयचं ॥१॥" अथ कथं स्वपरपर्यायापेक्षया सर्वद्रव्यपर्यायराशितुल्यता ?, उच्यते, इह अ अ अ इत्युदात्तोऽनुदात्तः स्वरितश्च, पुनरप्येकैको द्विधा-सानुनासिको निरनुनासिकश्चेत्यकारस्य पड् भेदाः, तांश्च षड् भेदानकारः केवलो लभते, एवं ककारेणापि संयक्तो लभते पद भेदानेवं खकारेण एवं यावद्धकारेण, एवमेकेककेवलव्यअनसंयोगे यथा पट् २ भेदान् लभते तथा सजातीयविजातीयव्यानद्विकर्सयोगेऽपि, एवं खरान्तरसंयु दीप अनुक्रम [१३६] -1-% R १ एकैकमक्षरं पुनः स्वपरपर्यायभेदतो भिन्नम् । तत् सर्षद्रव्यपयोयराशिमान ज्ञातव्यम् ॥१॥ PRIMasturare.org ~ 400~ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [४३]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] श्रीमलय- ततत्तयञ्जनसहितोऽप्यनेकान् भेदान् लभते, अपिच-एककोऽप्युदात्तादिको भेदः खरविशेषादनकभेदो भवति, गिरीया नावाच्यभेदादपि समानवर्णश्रेणीकस्यापि शब्दस्य भेदो जायते, तथाहि-न येनैव स्वभाषेन करशब्दः हस्तमाचष्टे नन्दारितेनैव खभावेन किरणमपि, किन्तु स्वभावभेदेन, तथाऽकारोऽपि तेन तेन ककारादिना संयुज्यमानस्तं तमथें त्रुवाणी ॥१९९॥ भिन्नखभावो वेदितव्यः, ते च खभावा अनन्ता ज्ञातव्याः, वाच्यस्यानन्तत्वात् , एते च सर्वेऽप्यकारस्य स्वपर्यायाः, शेषास्तु सर्वेऽपि घटादिपर्याया आकारादिपर्यायाश्च परपर्यायाः, ते च खपर्यायेभ्योऽनन्तगुणाः, तेऽपि चाकारस सम्बन्धिनो द्रष्टव्याः, आह-ये खपर्यायास्ते तस्य सम्बन्धिनो भवन्तु, ये तु परपर्यायास्ते विभिन्नवस्त्वाश्रयत्वात् कथं | तस्य सम्बन्धिनो व्यपदिश्यन्ते?, उच्यते, इह द्विधा सम्बन्धः-अस्तित्वेन नास्तित्वेन च, तत्रास्तित्वेन सम्बन्धः खपयोथैर्यथा घटस्य रूपादिभिः, नास्तित्वेन सम्बन्धः परपर्यायैः,तेषां तत्रासम्भवात् , यथा घटावस्थायां मृदः पिण्डाकारेण पोयेण, यत एव च ते तस्य न सन्तीति नास्तित्वसम्बन्धेन सम्बद्धाः अत एव च ते परपोया इति व्यपदिश्यन्त, अन्यथा तेपामपि तत्रास्तित्वसंभवात् खपर्याया एव ते भवेयः. नन ये यत्र न विद्यन्ते ते कथं तखेति व्यपदिश्यन्ते ?,18 न खलु धनं दरिद्रस्य न विद्यते इति तत्तस्य सम्बन्धि व्यपदेषु शक्यं, मा प्रापत् लोकव्यवहारातिक्रमः, तदेतत् महामोहमूढमनस्कतासूचकं, यतो यदि नाम ते नास्तित्वसम्बन्धमधिकृत्य तस्येति न व्यपदिश्यन्ते तर्हि सामान्यतो X ॥१९९।। न सन्तीति प्राप्त, तथा च स्वरूपेणापि न भवेयुः, न चैतदृष्टमिष्टं या, तस्मादबश्यं ते नास्तित्वसम्बन्धमङ्गीकृत्य त-131२५ । हास्येति व्यपदेश्याः, धनमपि च नास्तित्वसम्बन्धमधिकृत्य दरिद्रस्येति व्यपदिश्यत एव, तथा च लोके वक्तारो-धन-18 दीप अनुक्रम [१३६] ~401~ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [४३] दीप अनुक्रम [१३६ ] “नन्दी” - चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ४३ ] / गाथा || ८९... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४४], चूलिका सूत्र [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः मस्य दरिद्रस्य न विद्यते इति, यदपि चोक्तं- 'न तत्तस्येति व्यपदेष्टुं शक्य' मिति, तत्रापि तदस्तित्वेन तस्येति व्यपदेष्टुं न शक्यं, न पुनर्नास्तित्वेनापि, ततो न कश्चिलौकिकव्यवहारातिक्रमः, ननु नास्तित्वमभावः अभावश्च तुच्छरूपः तुच्छत्वेन च सह कथं सम्बन्धः १, तुच्छस्व सकलशक्तिविकलतया सम्बन्धशक्तेरप्यभावात्, अन्यच्च यदि परपर्यायाणां तत्र नास्तित्वं तर्हि नास्तित्वेन सह सम्बन्धो भवतु, परपर्यायैस्तु सह कथं १, न खलु घटः पटाभावेन सम्बद्धः पटे नापि सह सम्बद्धो भवितुमर्हति तथाप्रतीतेरभावात्, तदेतदसमीचीनं, सम्यक वस्तुतत्वापरिज्ञानात्, तथाहिनास्तित्वं नाम तेन तेन रूपेणाभवनमिध्यते तच तेन तेन रूपेणाभवनं वस्तुनो धर्मः, ततो नैकान्तेन तत्तुच्छरूपमिति न तेन सह सम्बन्धाभावः, तदपि च तेन तेन रूपेणाभवनं तं तं पर्यायमपेक्ष्य भवति नान्यथा, तथाहि – यो यो घटादिगतः पर्यायस्तेन तेन रूपेण मया न भवितव्यमिति सामर्थ्यात्तं तं पर्यायमपेक्षते इति सुप्रतीतमेतत् ततस्तेन तेन पर्यायेणाभवनस्य तं तं पर्यायमपेक्ष्य सम्भवात्तेऽपि परपर्यायास्तस्योपयोगिन इति तस्येति व्यपदिश्यन्ते, एवंरूपायां च विवक्षायां पटोऽपि घटस्य सम्बन्धी भवत्येव, पटमपेक्ष्य घटे पटरूपेणाभवनस्य भावात् तथा च लौकिका अपि घटपटादीन् परस्परमितरेतराभावमधिकृत्य सम्बद्धान् व्यवहरन्तीत्यविगीतमेतत्, इतश्च ते परपर्या | यास्तस्येति व्यपदिश्यन्ते - खपर्यायविशेषणत्वेन तेषामुपयोगात्, इह ये यस्य खपर्याय विशेषणत्वेनोपयुज्यन्ते ते तस्य पयया यथा घटस्य रूपादयः पर्यायाः परस्परविशेषकाः, उपयुज्यन्ते चाकारस्य पर्यायाणां विशेषकतया घटादिपर्यायाः, tamatond For Park Use Only ~ 402~ खपर पर्यायाः ५ १० १३ rary org Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४३]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] श्रीमलय- तानन्तरेण तेषां खपर्यायव्यपदेशासम्भवात् , तथाहि-यदि ते परपर्याया न भवेयुस्तबकारस्य स्वपर्यायाः खपर्याया इत्येवं गिरीया न व्यपदिश्येरन् , परापेक्षया खव्यपदेशस्य भावात् , ततः खपर्यायव्यपदेशकारणतया तेऽपि परपर्यायाः तस्योपयोगिन नन्दीवृत्तिः इति तस्येति व्यपदिश्यन्ते, अपिच-सर्व वस्तु प्रतिनियतस्वभावं, सा च प्रतिनियतस्वभावता प्रतियोग्यभावात्म॥२०॥ कतोपनिवन्धना, ततो यावन्न प्रतियोगिविज्ञानं भवति तावन्नाधिकृतं वस्तु तदभावात्मकं तत्त्वतो ज्ञातुं शक्यते, तथा च सति घटादिपर्यायाणामपि अकारस्य प्रतियोगित्वात्तदपरिज्ञाने नाकारो याथात्म्येनावगन्तुं शक्यते इति घटादिपर्याया अपि अकारस्य पर्यायाः, तथा चात्र प्रयोगः-यदनुपलब्धी यस्यानुपलब्धिः स तस्य सम्बन्धी, यथा घटस्य रूपादयः, घटादिपर्यायानुपलब्धी चाकारस्य न याथात्म्येनोपलब्धिरिति ते तस्य सम्बन्धिनः, न चायमसिद्धो हेतुः , घटादिपर्यायरूपप्रतियोग्यपरिज्ञाने तदभावात्मकस्याकारस्य तत्त्वतो ज्ञातत्वायोगादिति, आह च भायकृत्-"जेसे अनाएसु तओ न नजए नजए य नाएसुं। कह तस्स ते न धम्मा?, घडस्स रूबाइधम्मच ॥१॥" तस्माद् घटादिपर्याया अपि अकारस्य सम्बन्धिन इति खपरपर्यायापेक्षयाऽकारः सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणः, एवमाका-| २००॥ रादयोऽपि वर्णाः सर्वे प्रत्येकं सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणा वेदितव्याः एवं घटादिकमपि प्रत्येकं सर्व वस्तुजातं परिभापवनीयं, न्यायस्य समानत्वात् , न चैतदना, यत उक्तमाचाराले-"जे एग जाणइ से सर्व जाणइ, जे सर्व जाणइ[४५ १ देष्वज्ञातेषु स को न ज्ञायते ज्ञायते च ज्ञातेषु । कथं तस्य ते न धर्माः घटस्य रूपादिधर्मा इव ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [१३६] ~ 403~ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [४३]/गाथा ||८१...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] से एग जाणइ" अस्यायमर्थः-य एक वस्तूपलभते सर्वपर्यायैः स नियमात्सर्वमुपलभते, सर्वोपलब्धिमन्तरेण विवक्षितखैकस्य खपरपर्यायभेदभिन्नतया सर्वात्मनाऽवगन्तुमशक्यत्वात् , यश्च सर्व सर्वात्मना साक्षादुपलभते स एक खपरपर्यायभेदभिन्नं जानाति, तथाऽन्यत्राप्युक्तम्-"एको भायः सर्वथा येन दृष्टः,सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः। सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टा, एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः ॥१॥" तदेवमकारादिकमपि वर्णजातं केवलज्ञानमिव सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणमिति न कश्चिद्विरोधः । अपिच-केवलज्ञानमपि खपरपर्यायभेदभिन्नं, यतस्तदात्मस्वभावरूपं न घटादिवस्तुखभावात्मकं,ततो ये घटादिखपर्यायास्ते तस्य परपर्यायाः ये तु परिच्छेदकत्वखभावास्ते, खपर्याया परपर्यायाः अपि च पूर्वोक्तयुक्तस्तस्य सम्बन्धिन इति खपरपर्यायभेदभिन्नं, तथा चाह भाष्यकृत्-"वत्थुसहावं पइ तंपि सपरपज्जायभेदभिन्नं तु।तं जेण जीयभावो भिन्ना य तओ घडाईया ॥१॥" ततः पर्यायपरिमाणचिन्तायां परमार्थतो न कश्चिदकारादिश्रुत-| केवलज्ञानयोविशेषः, अयं तु विशेषः-केवलज्ञानं खपर्यायैरपि सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणतुल्यमकारादिकं तु खपरपर्यायरेव, तथाहि-अकारस्य स्वपर्यायाः सर्वद्रव्यपर्यायाणामनन्ततमभागकल्पाः, परपर्यायास्तु खपयोयरूपानन्ततमभागोनाः सर्वद्रव्यपर्यायाः, ततः खपरपोयरेव सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणमकारादिकं भवति, आह च भाष्यकृत्-"सर्य १ वस्तुखभावं प्रति तदपि सपरपोषभेदभिन्न तु । तत् येन जीवभावः मिन्नाव तो घटादिकाः ॥ १॥ २ खायौपैस्तु फेवलेन तुल्यं न भवति न परैः । खपरपौयस्तु तत्तुल्यं केवलेनैव ॥१॥ दीप अनुक्रम [१३६] REMinimational ~ 404~ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४३]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] श्रीमलय- पाएहि उ केवलेण तुलं न होइ न परेहि। सयपरपजाएहिं तु तं तुलं केवलेणेव ॥१॥" यथा चाकारादिकं सर्वद्रव्यपर्यानन्दीवृत्तिा | यपरिमाणं तथा मत्यादीन्यपि ज्ञानानि द्रष्टव्यानि, न्यायस्य समानत्वात् , इह यद्यपि सर्वं ज्ञानमविशेषेणाक्षरमुच्यते भागस्य नि सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणं च भवति तथापि श्रुताधिकारादिहाक्षरश्रुतज्ञानमवसेयं, श्रुतज्ञानं च मतिज्ञानाविनाभूतं ततो ॥२०१॥हमति ज्ञानमपि, तदेवं यतः श्रुतज्ञानमकारादिकं चोत्कर्षतः सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणं तच्च सर्वोत्कृष्टश्रुतकेवलिनो द्वादशा गाविदः सङ्गच्छते, न शेपस्य, ततोऽनादिभावः श्रुतस्य जन्तूनां जघन्यो मध्यमो वा द्रष्टव्यो,न तूत्कृष्ट इति स्थितम् । अपर आह-नन्वनादिभाव एव श्रुतस्य कथमुपपद्यते ?, यावता यदा प्रबलश्रुतज्ञानावरणस्त्यानर्द्धिनिद्रारूपदर्शनावरणादयः सम्भवन्ति तदा सम्भाव्यते साकल्येन श्रुतस्थावरणं, यथाऽवध्यादिज्ञानस्य, ततोऽवध्यादिज्ञानमियादिमदेव युज्यते श्रुतमपि नानादिमदिति कथं तृतीयचतुर्थभङ्गसम्भवः, तत आह-'सबजीवाणपि' सर्वजीवानामपि णमिति वाक्यालकारे अक्षरस्य-श्रुतज्ञानस्य [श्रुतसंलुलितकेवलस्येति तु भाष्यकृत् ] श्रुतज्ञानं च मतिज्ञानायि नाभावि ततो मतिज्ञानस्यावि अनन्तभागो 'नित्योद्घाटितः' सर्वदैवानावृतः सोऽपि च-अनन्ततमो भागोऽनेकविधः, तत्र सर्वजघन्यश्चैतन्यमात्र,181 तत्पुनः सर्वोत्कृष्टश्रुतावरणस्त्यानार्द्धनिद्रोदयभावेऽपि नाप्रियते, तथाजीवखाभाव्यात् , तथा चाह-'जइ पुण'इत्यादि, यदि पुनः सोऽपि अनन्ततमो भाग आत्रियते तेन तर्हि जीयोऽजीवत्वं प्राप्नुयात् ,जीवो हि नाम चैतन्यलक्षणस्ततो यदि प्रबलश्रुतावरणस्त्यानर्द्धिनिद्रोदयभाये चैतन्यमात्रमप्याब्रियेत तर्हि जीवस्य खखभावपरित्यागादजीवतैव १ श्रुतं वपर्यायैः अनन्तभागे इत्यध्यादाई। दीप अनुक्रम [१३६] ॥२०॥ For P OW A amuraryom ~ 405~ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [४३]/गाथा ||८१...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] सम्पनीपोत, न चैतदृष्टमिष्टं वा, सर्वस्य सर्वथा खभावातिरस्काराद् , अत्रैव दृष्टान्तमाह-सुहवी'त्यादि, मुष्टुपि मेघस- आवश्यक| मुदये भवति प्रभा चन्द्रसूर्ययोः, इयमत्र भावना-यथा निविडनिविडतरमेघपटलैराच्छादितयोरपि सूर्याचन्द्रमसोने- | कालिकोकान्तेन तत्प्रभानाशः सम्पद्यते,सर्वस्य सर्वथा खभावापनयनस्य कर्तुमशक्यत्वात् , एवमनन्तानन्तैरपि ज्ञानदर्शनावरण- त्कालि. कर्मपरमाणुभिरेकैकस्यात्मप्रदेशस्याऽऽवेष्टितपरिवेष्टितस्यापि नैकान्तेन चैतन्यमात्रस्या[प्य] भावो भवति, ततो यत्सर्व४ाजघन्यं तन्मतिश्रुतात्मकमतः सिद्धोऽक्षरस्थानन्ततमो भागो नित्योद्घाटितः, तथा च सति मतिज्ञानस्य श्रुतज्ञानस्य५ चानादिभावः प्रतिपद्यमानो न विरुध्यते इति स्थितं । 'सेत्त'मित्यादि, तदेतत् सादि सपर्यवसितमनायपर्यवसितं च ॥18 से किं तं गमिअं?, २ दिट्रिवाओ, अगमिअंकालिअं सुअं, सेत्तं गमिअं, सेत्तं अगमिअं। अहवा तं समासओ दुविहं पण्णत्तं, तंजहा-अंगपविटुंअंगबाहिरं च।से किं तं अंगबाहिरं?, अंगबाहिर दुविहं पण्णत्तं, तंजहा-आवस्सयं च आवस्सयवइरितं च । सेकिंतं आवस्सयं?, आवस्सयं छविहं पण्णतं, तंजहा-सामाइअं चउवीसत्थवो वंदणयं पडिकमणं काउस्सग्गो पच्चक्खाणं, सेतं आवस्सयं। से किं तं आवस्सयवइरितं?,आवस्सयवइरितं दुविहं पपणतं, तंजहा-कालिअं च कालिअंच। से किं तं उकालिअं?, उक्कालिअं अणेगविहं पण्णत्तं, तंजहा-दसवेआलिअं दीप अनुक्रम [१३६] । I mation श्रुतस्य गमिक-अगमिक एवं अङ्गप्रविष्ठ-अनङ्गप्रविष्ठ भेदानां वर्णनम् ~406~ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [४३] दीप अनुक्रम [१३६ ] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ४४ ] / गाथा || ८९... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः 75% श्रीमलयगिरीया ॥२०२॥ कपिआकपिअं चुल्लकप्पसुअं महाकप्पसुअं उववाइअं रायपसेणिअं जीवाभिगमो पण्णवणा नन्दीवृत्तिः महापणवणा पमायप्पमायं नंदी अणुओगदाराई देविंदत्थओ तंदुलवेआलिअं चंदाविज्झयं सूरपण्णत्ती पोरिसिमंडलं मंडलपवेसो विज्जाचरणविणिच्छओ गणिविजा झाणविभत्ती मरविभत्ती आयविसोही वीयरागसुअं संलेहणासुअं विहारकप्पो चरणविही आउरपच्चक्खाणं महापचक्खाणं एवमाइ, से तं उक्कालिअं । से किं तं कालिअं ?, कालिअं अणेगविहं पण्णसं, तंजहा - उत्तरज्झयणाई दसाओ कप्पो ववहारो निसीहं महानिसीहं इसिभासिआई जंबूदीवपन्नत्ती दीवसागरपन्नत्ती चंदपन्नत्ती खुड्डिआ विमाणपविभत्ती महल्लिआ विमाणपविभत्ती अंगचूलिआ वग्गचूलिआ विवाहचूलिआ अरुणोवत्राए वरुणोववाए गरुलोववाए धरणोववाए वेसमणोववाए वेलंधरोववाए देविंदोवाए उट्टाणसुए समुट्टाणसुए नागपरिआवणिआओ निरयावलियाओ aftaar areasसिआओ पुष्फिआओ पुप्फचूलिआओ वण्हीदसाओ, एवमाइयाई चउरा सीई पन्नगसहस्साई भगवओ अरहओ उसहसामिस्स आइतित्थयरस्स तहा संखिजाई पन्न For Parts Use Only ~ 407 ~ आवश्यककालिको स्कालिकानि २० ॥२९॥ २३ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [४४] दीप अनुक्रम [१३७] “नन्दी” - चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ४४ ] / गाथा || ८९... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र -[१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः सहस्साई मज्झिमगाणं जिणवराणं चोदसपइन्नगसहस्साणि भगवओ वद्धमाणसामिस्स, अहवा जस्त जत्तिआ सीसा उप्पत्तिआए वेणइआए कम्मियाए पारिणामिआए चउव्विहाए बुद्धी व तस तत्तिआई पइण्णगसहस्साई, पत्ते अबुद्धावि तत्तिआ चेव, सेतं कालिअं, सेतं आवस्यवइरित, से तं अनंगपविद्धं । ( सू० ४४ ) अथ किं तद्गमिकं ?, इहादिमध्यावसानेषु किञ्चिद्विशेषतो भूयो भूयस्तस्यैव सूत्रस्योचारणं गमः, तत्रादौ - "सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं इह खलु" इत्यादि, एवं मध्यावसानयोरपि यथासम्भवं द्रष्टव्यं गमा अस्य विद्यन्ते इति गमिकं, 'अतोऽनेकखरा' दिति मत्वर्थीय इकप्रत्ययः, उक्तं च चूर्णी- “ओई मज्झेऽवसाणे वा किंचिविसेसजुत्तं दुगाइसयग्गसो तमेव पढिजमाणं गमियं भन्नइ "त्ति, तच्च गमिकं प्रायो दृष्टिवादः, तथा चाह- 'गमियं दि द्वीवाओ,' तद्विपरीतमगमिकं, तथ प्राय आचारादि कालिकश्रुतम्, असदृशपाठात्मकत्वात्, तथा चाह- 'अगभियं कालियसुर्य'' से 'मित्यादि, तदेतद्गमिकमगमिकं च । 'तं समासओ' इत्यादि, तद्गमिकमगमिकं च, अथवा तत्-सामान्यतः | श्रुतमर्हदुपदेशानुसारि समासतः - सङ्क्षेपेण द्विविधं प्रज्ञतं, तद्यथा - अङ्गप्रविष्टमङ्गवाद्यं च, अत्राह - ननु पूर्वमेव चतु १ आदी मध्येsसाने वा किश्विद्विशेषयुक्तं यादिशतामसः तदेव पयमानं गमिकं सम्यते ॥ For Park Use Only ~ 408~ आवश्यककालिकोकालि काणि ५ १० Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४४]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: गिरीया प्रत सूत्रांक [४४] श्रीमलय- ६ ईशभेदोद्देशाधिकारेऽङ्गप्रविष्टमङ्गबाह्यं चेत्युपन्यस्त, तत्किमर्थं भूयस्तत्समासत इत्याद्युपन्यासेन तदेव न्यस्यते इति. आवश्यक नन्दीपतिः उच्यते, इह सर्व एव श्रुतभेदा अङ्गानङ्गप्रविष्टरूपे भेदद्वय एवान्तर्भवन्ति, तत एतदर्थख्यापनार्थं भूयोऽप्युद्देशेना- कालिकोभिधानं, अथवाऽङ्गानङ्गप्रविष्टमहंदुपदेशानुसारि ततः प्राधान्यख्यापनार्थं भूयोऽपि तस्योद्देशेनाभिधानमित्यदोपः कालि॥२०३॥ कानि तत्राप्रविष्टमिति-दह पुरुषस्य द्वादशाङ्गानि भवन्ति, तद्यथा-दौ पादौ द्वे जके द्वे उरुणी द्वे गात्रा द्वौ बाहू ग्रीवा शिरश्च, एवं श्रुतरूपस्यापि परमपुरुषस्याऽऽचारादीनि द्वादशाङ्गानि क्रमेण वेदितव्यानि, तथा चोक्त-"पायदुर्ग जं. घोरू गायद्गद्धं तुदो य बाहू य । गीवा सिरं च पुरिसो बारस अङ्गो सुयविसिट्ठो ॥१॥" श्रुतपुरुषस्याङ्गेषु प्रविष्टम-18 विष्टम्-अङ्गभावेन व्यवस्थितमित्यर्थः, यत्पुनरेतस्यैव द्वादशाङ्गात्मकस्य श्रुतपुरुषस्य व्यतिरेकेण स्थितमबाह्यत्वेन - वस्थितं तदनगप्रविष्टं, अथवा यद्गणधरदेवकृतं तदङ्गप्रविष्टं मूलभूतमित्यर्थः, गणधरदेवा हि मूलभूतमाचारादिकं श्रुत-ल मुपरचयन्ति, तेषामेव सर्वोत्कृष्टश्रुतलब्धिसम्पन्नतया तद्रचयितुमीशत्वात् ,न शेषाणां, ततः तस्कृतं सूत्रं मूलभूतमित्या-12 प्रविष्टमुच्यते, यत्पुनः शेषः श्रुतस्थविरैस्तदेकदेशमुपजीव्य विरचितं तदनङ्गप्रविष्टं, अथवा यत्सर्वदैव नियतमाचारादिक श्रुतं तदङ्गप्रविष्टं, तथाहि-आचारादिकं श्रुतं सर्वेषु क्षेत्रेषु सर्वकालं चार्थ क्रम चाधिकृत्यैवमेव व्यवस्थितं ततसहै दङ्गप्रविष्टमुच्यते, अङ्गप्रविष्टमङ्गभूतं मूलभूतमित्यर्थः, शेषं तु यच्छ्रुतं तदनियतमतस्तदनङ्गप्रविष्टमुच्यते, उक्तं च- २३ दीप अनुक्रम [१३७] ३॥ ~ 409~ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४४]/गाथा ||८१...|| .... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति प्रत सूत्रांक [४४] "गणहरकयमङ्गकयं जं कय थेरेहिँ बाहिरं तं तु । निययं वजपविढे अणिययसुय बाहिरं भणियं ॥१॥” तत्राल्प- आवश्यक वक्तव्यत्वात्प्रथममङ्गबाबमधिकृत्य प्रश्नसूत्रमाह-से किं त'मित्यादि, अथ किं तदङ्गवाचं!, सूरिराह-अङ्गबाखं श्रुतं कालिको द्विविधं प्रजासं, तद्यथा-आवश्यकं चावश्यकव्यतिरिक्तं च, तत्रावश्यं कर्म आवश्यकं, अवश्यकर्त्तव्यक्रियाऽनुष्ठानमि-1 त्यर्थः, अथवा गुणानामभिविधिना वश्यमात्मानं करोतीत्यावश्यकम्-अवश्यकत्र्तव्यसामायिकादिक्रियानुष्ठानं तत्प्र-है। |तिपादकं श्रुतमपि आवश्यकं, चशब्दः स्वगतानेकभेदसूचकः । 'से किं तमित्यादि, अथ किं तदावश्यकं ?, सूरिराह-आवश्यकं षड्डिधं प्रज्ञप्त, तद्यथा-'सामायिक मित्यादि, निगदसिद्धं, 'सेत्त'मित्यादि तदेतदावश्यकं । 'से कि तमित्यादि, अथ किं तदावश्यकव्यतिरिक्तं ?, आचार्य आह-आवश्यकव्यतिरिक्तं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-का|लिकमुत्कालिकं च, तत्र यदिवसनिशाप्रथमपश्चिमपौरुषीद्वय एव पठ्यते तत्कालिकं, कालेन निवृत्तं कालिकमिति न्युत्पत्तेः, यत्पुनः कालवेलावज पठ्यते तदुत्कालिकं, आह च चूर्णिणकृत्-"तत्य कालियं जं दिणराई[ए]ण पढम-| चरमपोरिसीसु पढिजई । जंपुण कालवेलावजं पढिजइ तं उक्कालिय"ति, तत्राल्पवक्तव्यत्वात्प्रथममुत्कालिकमधि-| कृत्य प्रश्नसूत्रमाह-से किं तमित्यादि, अथ किं तदुत्कालिकं श्रुतं !, सूरिराह-उत्कालिक श्रुतमनेकविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-दशवकालिकं तच सुप्रतीतं, तथा कल्पाकल्पप्रतिपादकमध्ययनं कल्पाकल्प, तथा कल्पनं कल्पः-स्थ-21 गृणधरकृतमझीकृतं चस्कृतं स्थत्वायं तत्तु । नियतं वाङ्गप्रविधमनियतश्रुतं याचं भणितम् ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [१३७] ~ 410~ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [४४]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत श्रीमलय- गिरीया नन्दीवृत्तिः ॥२०४॥ सूत्रांक [४४] कानि विरादिकल्पः तत्प्रतिपादक श्रुतं कल्पश्रुतं, तत्पुनर्दिभेदं, तद्यथा-'चुलकप्पसुयं महाकप्पसुयं एकमल्पग्रन्थमल्पार्थ आवश्यकच द्वितीयं महाग्रन्थं महाथै च, शेषा ग्रन्थविशेषाः प्रायः सुप्रतीताः, तथापि लेशतोऽप्रसिद्धान् व्याख्यास्यामः, तत्र | कालिको'पण्णवण'त्ति जीवादीनां पदार्थानां प्रज्ञापनं प्रज्ञापना, सैव बृहत्तरा महाप्रज्ञापना, तथा प्रमादाप्रमादस्वरूपभेदफल[विपाकप्रतिपादकमध्ययनं प्रमादाप्रमाद, तत्र प्रमादखरूपमेवं-प्रचुरकर्मेन्धनप्रभवनिरन्तराविध्यातशारीरमानसानेकदुःखहुतवहज्वालाकलापपरीतमशेषमेव संसारवासगृहं पश्यंस्तन्मध्यवर्त्यपि सति च तन्निर्गमनोपाये वीतरागप्रणीतधर्मचिन्तामणी यतो विचित्रकर्मोदयसाचिव्यजनितात् परिणामविशेषादपश्यन्निव तद्भयमविगणय्य विशिष्टपरलोकक्रियाविमुख एवास्ते जीवः स खलु प्रमादः, तस्य च प्रमादस्य ये हेतबो मद्यादयस्तेऽपि प्रमादास्तकारणत्वात्मा उक्तंच-"मजं विसय कसाया निद्दा विगहा य पंचमी भणिया । एए पंच पमाया जीवं पाति संसारे ॥१॥" . एतस्य च पञ्चप्रकारस्यापि प्रमादस्य फलं दारुणो विपाकः, उक्तं च-"श्रेयो विषमुपभोक्तुं क्षमं भवेत् क्रीडितुं हुताशेन । संसारवन्धनगतेन तु प्रमादःक्षमः कर्तुम् ॥१॥ अस्यामेव हि जातो नरमुपहन्याद्विषं हुताशो वा। आसेवितः प्रमादो हन्याजन्मान्तरशतानि ॥२॥ यन्न प्रयान्ति पुरुषाः खर्ग यच प्रयान्ति विनिपातम् । तत्र निमित्तमनार्यः तार प्रमाद इति निश्चितमिदं मे ॥३॥ संसारवन्धनगतो जातिजराव्याधिमरणदुःखाः । यनोद्विजते सत्वः सोऽप्य दीप अनुक्रम [१३७] १ मध विषयाः कषायाः निद्रा विकता च पञ्चमी भणिता । एते पच प्रमादा जीवं पातयन्ति संसारे ॥१॥ ~ 411~ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४४]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४] AN- दीप अनुक्रम [१३७] पराधः प्रमादस्य ॥४॥ आज्ञाप्यते यदवशस्तुल्योदरपाणिपादवदनेन । कर्म च करोति बहुविधमेतदपि फलं प्रमा- उत्कालिसदस्य ॥५॥ इह हि प्रमत्तमनसः सोन्मादमदनिभृतेन्द्रियाश्चपलाः । यत्कृत्यं तदकृत्वा सततमकार्येवभिपतन्ति ॥६॥ काधिक तेषामभिपतितानामुद्धान्तानां प्रमत्तहृदयानाम् । वर्द्धन्त एव दोपा वनतरव इवाम्बुसेकेन ॥७॥ दृष्ट्वाऽप्यालोकं नैव विश्र-18 म्भितव्यं, तीरं नीतापि भ्राम्यति वायुना नौः । लब्ध्या वैराग्यं भ्रष्टयोगः प्रमादाद्भूयो भूयः संसृती बम्भ्रमीति ॥ एवं प्रतिपक्षद्वारेणाप्रमादस्थापि स्वरूपादयो वाच्याः, 'नन्दीत्यादि सुगम, 'सूरियपन्नत्ति'त्ति सूर्यचर्याप्रज्ञपनं यस्यां ग्रन्थपद्धती सा सूर्यप्रज्ञप्तिः, तथा 'पौरुषीमण्डल मिति पुरुष:-शङ्कः पुरुषशरीरं वा तस्मानिष्पन्ना पौरुषी 'तत आगत'18 इत्यण, आह च चूर्णिकृत्-'पुरिसोत्ति संक पुरिससरीरं वा, तत्र परिसाओ निप्फना पोरिसी' इति, इयमत्र भावनासर्वस्यापि वस्तुनो यदा स्वप्रमाणच्छाया जायते तदा पौरुषी भवति, एतच पौरुषीप्रमाणमुत्तरायणस्थान्ते दक्षिणा-1 यनस्यादी चेक दिनं भवति, ततः परमङ्गुलस्याष्टापैकपष्टिभागा दक्षिणायने वर्द्धन्ते उत्तरायणे च हसन्ति, एवं मण्डले २ अन्याऽन्या पौरुपी यत्राध्ययने यावर्यते तदध्ययन पौरुषीमण्डलं. तथा यत्राध्ययने चन्द्रस्य सूर्यस्य च दक्षिणेषु उत्तरेषु च मण्डलेषु सञ्चरतो यथा मण्डलात् मण्डले प्रवेशो भवति तथा व्यावण्यते तदध्ययनं मण्डलप्रवेशः, तथा 'विद्याचरणविनिश्चय' इति, विद्येति-जानं. तय सम्यगदर्शनसहितमवगन्तव्यं, अन्यथा ज्ञानत्वायोगात्, | चरण-चारित्रमतपां फलविनिश्चयप्रतिपादको अन्धो विद्याचरणविनिश्चयः, तथा 'गणिविज ति सवालवृद्धो गच्छो। For ~ 412~ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ..................... मूलं [४४]/गाथा ||८१...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: गिरीया प्रत सूत्रांक [४४] श्रीमलय-18 गणः सोऽस्थास्तीति गणी-आचार्यस्तस्य विद्या-ज्ञानं गणिविद्या, सा चेह ज्योतिष्कनिमित्तादिपरिज्ञानरूपा वेदि- उत्क तिव्या, ज्योतिष्कनिमित्तादिकं सम्यक् परिज्ञाय प्रव्राजनसामायिकारोपणोपस्थापनश्रुतोदेशानुज्ञागणारोपणादिशानुनन्दीवृत्तिः जाविहारक्रमादिषु प्रयोजनेषूपस्थितेषु प्रशस्ते तिथिकरणमुहूर्तनक्षत्रयोगे यत् यत्र कर्तव्यं भवति तत्तत्र सूरिणा ॥२०॥ कर्तव्यं, तथा चेन्न करोति तर्हि महान् दोषः, उक्तं च-"जोइसनिमित्तनाणं गणिणो पञ्चावणाइकज्जेसुं। उवजुजइ तिहिकरणाइजाणणट्ठऽन्नहा दोसो ॥१॥" ततो यानि सामायिकादीनि प्रयोजनानि यत्र तिथिकरणादौ कर्त्तव्यानि भवन्ति तानि तत्र यस्यां ग्रन्थपद्धतौ व्यावय॑न्ते सा गणिविद्या, तथा 'ध्यानविभक्ति'रिति ध्यानानिआध्यानादीनि तेषां विभजनं विभक्तिर्यस्यां ग्रन्थपद्धतौ सा ध्यानविभक्तिः, तथा मरणानि-प्राणत्यागलक्षणानि, तानि च द्विधा-प्रशस्तान्यप्रशस्तानि च, तेषां विभजन-पार्थक्येन स्वरूपप्रकटनं यस्यां ग्रन्थपद्धतौ सा मरणविभक्तिः, तथाऽऽत्मनो-जीवस्थालोचनप्रायश्चित्तप्रतिपत्तिप्रवृत्तिप्रकारेण विशुद्धिः-कर्मविगमलक्षणा प्रतिपाद्यते यस्यां ग्रन्थपद्धतौ साऽऽत्मविशुद्धिः, तथा 'वीतरागश्रुत'मिति सरागव्यपोहेन वीतरागस्वरूपं प्रतिपाद्यते यत्राध्ययने तद्वीत- २०५॥ रागश्रुतं, तथा 'संलेखनाश्रुत'मिति द्रव्यभावसंलेखना यत्र श्रुते प्रतिपाद्यते तत्संलेखनाथुतं, तत्रोत्सर्गत इयं द्रव्यसं-121 २४ दीप अनुक्रम [१३७] १ज्योतिषनिमित्तानं गणिनः प्रमाजमादिकार्येषु । उपयुज्यते विधिकरणादिज्ञानार्थमन्यथा दोपः ॥१॥ Pranaamaan unsony ~ 413~ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [४४]/गाथा ||८१...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: INकाधिक प्रत सूत्रांक [४४] CAKACCESCRE5%AGAR लेखना-"चत्तारि विचित्ताई विगईनिज्ज़हियाई चत्तारि । संवच्छरे उ दोन्नि उ एगंतरियं च आयाम ॥१॥ नाइवि-- उत्कालिगिट्ठो य तबो छम्मासे परिमियं च आयाम । अन्नेवि य छम्मासे होइ विगिटुं तवोकम्मं ॥२॥ वासं च कोडिसहियं आ-हा याम कटु आणुपुषीए। गिरिकंदरंमि गंतुं पायवगमणं अह करेइ ॥३॥"भावसंलेखना तु क्रोधादिकषायप्रतिपक्षाभ्यासः, तथा 'विहारकल्प'इति विहरणं विहारः तस्य कल्पो-व्यवस्था स्थविरकल्पादिरूपा यत्र वर्ण्यते ग्रन्थे स विहारकल्पः, तथा ('चरणविधि'रिति) चरणं-चारित्रं तस्य विधिर्यत्र वर्ण्यते स चरणविधिः, तथा 'आतुरप्रत्याख्यान मिति, आतुर:चिकित्साक्रियाव्यपेतस्तस्य प्रत्याख्यानं यत्राध्ययने विधिपूर्वकमुपवर्ण्यते तदातुरप्रत्याख्यानं, विधिश्चातुरस्य प्रत्याख्या|नदानविषये चूर्णिकृतवमुपदर्शितः-"गिलाणं किरियातीयं गीयत्था पञ्चक्खायेंति दिणे २ दशहासं करेंता अंते य सब-| दबदायणाए भत्तवेरग्गं जणइत्ता भत्ते वितिण्हस्स भवचरिमपञ्चक्खाणं कारति"त्ति ।तथा ('महाप्रत्याख्यान'मिति) महत्प्रत्याख्यानं यत्र वर्ण्यते तन्महाप्रत्याख्यानं, इह चूर्णिणकारेण कृता भावना दयते-“धेरैकप्पेण जिणकप्पेण वा विहरित्ता अंते धेरकप्पिया बारस बासे संलेहणं करेत्ता जिणकप्पिया पुण विहारेणेव संलीढा तहावि जहाजुत्तं संलेहर्ण दीप अनुक्रम [१३७] १ चत्वारि विचित्राणि विकृतिनियूढानि चत्वारि । संवत्सरौतु द्वौ तु एकान्तरितं चाचामाम्लम् ॥१॥नातिविकृष्टं च तपः षण्मासान् परिमितं चाचामा ग्लम् । अन्यानपि षण्मासान् भवति विकटं तपःकर्म ॥ २ ॥ वर्ष च कोटीसहितानि आचामाम्लानि कृत्वाऽऽनुपूा । गिरिकन्दरा तु गवा पादपोपगमनमथ करोति ॥ २॥२ ग्लानं कियातीतं गीतार्थाः प्रत्याख्यापयन्ति दिने दिने द्रबहास कारवन्तोऽन्ते च सर्वदव्यदर्शनेन भक्तवैराग्यं जन यित्वा मके वितृष्णस्य भवचरमप्रत्याख्यानं कारयन्तीति । ३ स्थविरकल्पेन जिनकल्पेन वा विश्त्यान्ते स्थविरकल्पिका द्वादश वर्षाणि संलेखनां कृत्वा जिनकल्पिकाः पुनर्विकारेणव संलि खिता -%-5648 JOKE IT ~414~ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) .................... मूलं [४४]/गाथा ||८१...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलयगिरीया काधिक प्रत नन्दीतिः सूत्रांक [४४] ॥२०६॥ करेत्ता निवाघायं सचेट्ठा चेव भवचरिमं पञ्चक्खंति, एवं सवित्थर जत्यज्झयणे वणिजइ तमज्झयणं महापचक्खाणं": उत्कालि हट्टीकासत्कमेतत्]-"एवं तावदमून्यध्ययनानि-एतान्यध्ययनानि जहाभिहाणत्थाणि भणियाणि' 'सेत्त'मित्यादि, निगमनं, तदेतदुत्कालिकमुपलक्षणं चैतदिति, उक्तमुत्कालिकं । 'से किं तमित्यादि, अथ किं तत्कालिकं ?, कालिकमनेकविधं प्रज्ञप्त, तद्यथेत्यादि, 'उत्तराध्ययनानि' सवार्ण्यपि चाध्ययनानि प्रधानान्येव तथाऽप्यमन्येव रूढ्योत्तराध्ययनशब्दवाच्यत्वेन प्रसिद्धानि, 'दसाओ' इत्यादि प्रायो निगदसिद्ध, 'निशीथ मिति निशीथवनिशीथं, इदं प्रतीतमेव, तस्मात्परं यद्वन्धार्थाभ्यां महत्तरं तन्महानिशीथं, तथा आवलिकाप्रविष्टानामितरेषां वा विमानानां प्रविभक्तिः-प्रविभजनं यस्यां ग्रन्थपद्धतौ सा विमानप्रविभक्तिः, सा चैका स्तोकग्रन्थार्था द्वितीया महाग्रन्थार्था, तत्राऽऽद्या भुलिका विमानप्रविभक्तिः द्वितीया महाविमानप्रविभक्तिः, तथा 'अचूलिके'ति अङ्गस्य-आचारादेश्चलिकाऽचूलिका, चूलिका नाम उक्तानुक्तार्थसङ्ग्रहात्मिका ग्रन्थपद्धतिः, तथा 'वर्गचूलिके'ति वर्ग:-अध्ययनानां समूहो यथाऽन्तकृद्दशास्वष्टी वा इत्यादि तेषां चूलिका, तथा व्याख्या--भगवती तस्याश्चूलिका व्याख्याचूलिका, तथा 'अरुणोपपात' इति, अरुणो नाम देवः तद्वक्तव्यताप्रतिपादको यो ग्रन्थः परावर्त्यमानश्च तदुपपातहेतुः सोऽरुणोपपातः, तथा DIR०६॥ चात्र चूर्णिकारो भावनामकार्षीत्-जाहे तमज्झयणं उबउत्ते समाणे अणगारे परियट्टेइ ताहे से अरुणदेवे समयतथापि यथायोग संलेखनां कृत्वा निर्वागतं सलेष्टा एव भवचरमं प्रत्याख्यान्ति, एवं सविस्तर यत्राध्ययने वयते तदग्णगनं महारत्याख्यानम् । दीप अनुक्रम [१३७] ~ 415~ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४४]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उत्कालि प्रत काधिक सूत्रांक [४४] निबद्धत्तणो पलियासणसंभमुभंतलोयणे पउत्तावही वियाणियटे पहढे चलचबलकुंडलधरे दिवाए जुईए दिवाए। विभूईए दिवाए गईए जेणामेव से भयवं समणे णिग्गंथे अज्झयणं परियट्टेमाणे अच्छइ तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्वा | भत्तिभरोणयवयणे विमुक्यरकुसुमगंधवासे ओवयइ, ओवइत्ता ताहे से समणस्स पुरओ ठिचा अंतट्ठिए(रिकुखटिए)। कयंजली उपउत्ते संवेगविसुज्झमाणज्झवसाणे तं अज्झयणं सुणमाणे चिट्ठइ, संमत्ते अज्झयणे भणइ-भव ! सुसज्झाइयं २ वरं वरेहित्ति, ताहे से इहलोयनिप्पिवासे समतिणमुत्ताहललेडुकंचणे सिद्धिवररमणिपडिबद्धनिब्भराणुरागे समणे पडिभणइ-न मे णं भो ! वरेणं अट्ठोत्ति, ततो से अरुणे देवे अहिगयरजायसंवेगे पयाहिणं करता बंदइ नमसइ [वंदित्ता नमसित्ता पडिगच्छइ" एवं गरुडोपपातादिष्यपि भावना कार्या, तथा 'उत्थानश्रुत'मिति उत्थानम्-उदसनं तद्धेतुः श्रुतमुत्थानश्रुतं, तच्च शृङ्गनादिते कायें उपयुज्यते, अत्र चूर्णिणकारकृता भावना-"सजेगस्स कुलस्स वा गामस्स वा नगरस्स वा रायहाणीए वा समणे कयसंकप्पे आसरुत्ते चंडकिए अप्पसने अप्पसनलेसे विस-| मासुहासणत्थे उबउत्ते समाणे उट्ठाणसुयज्झयणं परियट्टेइ, तं च एकं दो वा तिणि वा वारे, ताहे से कुले वा गामे वा जाव रायहाणी या ओहयमणसंकप्पे बिलबते दुयं २ पहायते उद्रेह-उचसतित्ति भणियं होई"ति, तथा 'समुत्थानश्रुत'मिति समुपस्थान-भूयस्तत्रैव वासनं तद्धेतुः श्रुतं समुपस्थानश्रुतं, वकारलोपाच सूत्रे समुठ्ठाणसुयंति पाठः, तस्य चेयं भावना-"तओ समत्ते कजे तस्सेव कुलस्स वा जाब रायहाणीए वा से चेव समणे कयसंकप्पे तुट्टे पसन्ने दीप अनुक्रम [१३७] 93 ~ 416~ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४४]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: गिरीया प्रत सूत्रांक [४४] श्रीमलय-14 पसन्नलेसे समसुहासणस्थे उपउत्ते समाणे समुदाणसुयज्झयणं परियटेड, तं च एक दो तिन्नि वा वारे, ताहे से कुले नन्दीवृत्तिः वा गामे वा जाव रायहाणी वा पट्टचित्ते पसत्थं मंगलं कलयलं कुणमाणे मंदाए गईए सललियं आगच्छइ समुव |हिए-आवासइतिवृत्तं भवइ,सम्म उ(मु)वठ्ठाणसुयंति वत्तचे वकारलोवाओ समुट्ठाणसुयंति भणिय, तहा जइ अप्पणावि ॥२०७॥ पुबुट्ठियं गामाइ भवइ तहावि जद से समणे एवंकयसंकप्पे अज्झयणं परियट्टेइ तओ पुणरवि आवासेइ" तथा नागपरियावणिय'त्ति नागाः-नागकुमारास्तेषां परिज्ञा यस्यां ग्रन्थपद्धतौ भवति सा नागपरिज्ञा, तस्याश्चयं चूर्णिणकृतोपदर्शिता भावना-"जाहे तं अज्झयणं समणे निग्गंधे परियटेड ताहे अकयसंकप्पस्सवि ते नागकुमारा तत्थत्था द्र चेव तं समर्ण परियाणंति-वंदंति नमसंति बहुमाणं च करेंति, सिंगनादितकजेसु य वरदा भवंति" तथा 'निरयावतालियाओ'त्ति यत्रापलिकाप्रविष्टा इतरे च नरकावासाः प्रसङ्गतस्तद्वामिनश्च नरास्तिर्यञ्चो वा वर्ण्यन्ते ता निरयावपालिकाः, एकस्मिन्नपि ग्रन्थे वाच्ये बहुवचनं शब्दशक्तिखाभाच्यात् , यथा पञ्चाला इत्यादी, तथा 'कल्पिका' इति याः सोधम्मादिकल्पगतवक्तव्यतागोचरा अन्धपद्धतयस्ताः कल्पिकाः, एवं कल्पावतंसिका द्रष्टव्याः, नवरं तासामियं चूमाणिकृतोपदर्शिता भावना-'सोहम्मीसाणकप्पेसु जाणि कप्पविमाणाणि ताणि कप्पवर्डिसताणि जासु वणिजंति तेसु कप्पवडिसएसु बिमाणेसु देवी जा जेण तवोविसेसेण उववण्णा एयपि वणिजइ ताओ कप्पवडिसियाओ बुचंति' तथा 'पुष्पिता इति यासु ग्रन्थपद्धतिपु गृहवासमुत्कलनपरित्यागेन प्राणिनः संयमभावपुष्पिताः सुखिता उपिता भूयः दीप अनुक्रम [१३७] ॥२०७॥ F amaram.orm ~ 417~ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [४४]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४] संयमभावपरित्यागतो दुःखाद्यवाप्तिमुकुलनेन मुकुलिताः पुनस्तत्परित्यागेन पुष्पिताः प्रतिपाद्यन्ते ताः पुष्पिता उ. उत्कालि च्यन्ते, अधिकृतार्थविशेषप्रतिपादिकाः पुष्पचूडाः, तथा 'वृष्णिदशा' इति 'नाम्न्युत्तरपदस्य बेति लक्षणवशादादिप-18| काधिक Mदस्यान्धकशब्दरूपस्य लोपः, ततोऽयं परिपूर्णः शब्दः-अन्धकवृष्णिदशा इति, अयं चान्वर्थः-अन्धकवृष्णिनराधि-1 अपकुले ये जातास्तेऽपि अन्धकवृष्णयः तेषां दशाः-अवस्थाश्चरितगतिसिद्धिगमनलक्षणा यासु ग्रन्थपद्धतिषु वय॑न्ते ताशा अन्धकवृष्णिदशाः, अथवाऽन्धवृष्णिवक्तव्यताप्रतिपादिका दशा-अध्ययनानि अन्धकवृष्णिदशाः, आह च चूर्णिणकृत्-| “अन्धकवण्हिणो जे कुले अंधगसद्दलोवाओ वहिणो भणिया तेसिं चरियं गती सिझणा य जत्य भणिया ता वहिदसाओ, दसत्ति अवस्था अज्झयणावा" इति। एवमाइया' इत्यादि, कियन्ति नामग्राहमाख्यातुं शक्यन्ते प्रकीर्णकानि?,तत एवमादीनि चतुरशीतिः प्रकीर्णकसहस्राणि भगवतोऽहतः श्रीऋषभखामिनस्तीर्थकृतः, तथा सङ्ख्येयानि प्रकीपणकसहस्राणि मध्यमानामजितादीनां जिनवरेन्द्राणां तीर्थकराणाम् , एतानि च यस्य यावन्ति भवन्ति तस्य तावन्ति प्रथमानुयोगतो वेदितव्यानि, तथा चतुर्दश प्रकीपर्णकसहस्राणि भगवतोऽईतो वर्द्धमानखामिनः, इयमत्र भाव- १० ना-इह भगवत ऋषभस्वामिनश्चतुरशीतिसहस्रसङ्ख्याः श्रमणा आसीरन् , ततः प्रकीर्णकरूपाणि चाध्ययनानि कालिकोत्कालिकभेदभिन्नानि सर्वसङ्ख्यया चतुरशीतिसहस्रसङ्घयान्यभवन् , कथमिति चेत् ?, उच्यते, इह यद्भगवदहदुपदिष्टं श्रुतमनुसृत्य भगवन्तः श्रमणा विरचयन्ति तत्सर्वं प्रकीर्णकमुच्यते, अथवा श्रुतमनुसरतो यदात्मनो वचन-16 दीप अनुक्रम [१३७] SANE ~418~ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४४]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलय- गिरीया उत्कालिकाधिक प्रत नन्दीवृत्तिः सूत्रांक [४४] ।।२०८॥ कौशलेन धर्मदेशनादिषु ग्रन्थपद्धतिरूपतया भाषन्ते तदपि सर्व प्रकीर्णकं, भगवत ऋषभखामिन उत्कृष्टा श्रमण- सम्पदा आसीत् चतुरशीतिसहस्रप्रमाणा, ततो घटन्ते प्रकीर्णकान्यपि भगवतश्चतुरशीतिसहस्रसङ्घयानि, एवं मध्यमतीर्थकृतामपि सङ्ख्येयानि प्रकीर्णकसहस्राणि भावनीयानि, भगवतस्तु वर्द्धमानखामिनश्चतुर्दश श्रमणसहस्राणि, तेन प्र| कीर्णकान्यपि भगवतश्चतुर्दश सहस्राणि, अत्र द्वे मते-एके सूरयः प्रज्ञापयन्ति-इदं किल चतुरशीतिसहस्रादिकं ऋषभादीनां तीर्थकृतां श्रमणपरिमाणं प्रधानसूत्रविरचनसमर्थान् श्रमणानधिकृत्य वेदितव्यं, इतरथा पुनः सामान्यश्रमणाः | प्रभूततरा अपि तस्मिन् २ ऋषभादिकाले आसीरन् , अपरे पुनरेवं प्रज्ञापयन्ति-ऋपभादितीर्थकृता जीवतामिदं च. तुरशीतिसहस्रादिकं श्रमणपरिमाणं प्रवाहतः पुनरेकैकस्मिन् तीर्थे भूयांसः श्रमणा वेदितव्याः, तत्र ये प्रधानसूत्रविरचनशक्तिसमन्विताः सुप्रसिद्धतद्वन्था अतत्कालिका अपि तीर्थे वर्तमानास्तत्राधिकृता द्रष्टव्याः, एतदेव मतान्तरमुपदर्शयन्नाह-'अथवे'त्यादि, अथवेति प्रकारान्तरोपदर्शने, यस्य ऋषभादेस्तीर्थकृतो यावन्तः शिष्यास्तीर्थे औत्पत्तिक्या वैनयिक्या कर्मजया पारिणामिक्या चतुर्विधया बुद्ध्या उपेताः-समन्विता आसीरन् तस्य-ऋषभादेस्तावन्ति | प्रकीर्णकसहस्राण्यभवन् , प्रत्येकबुद्धा अपि तावन्त एव, अत्रके व्याचक्षते-इह एकैकस्य तीर्थकृतस्तीर्थेऽपरि-1 |माणानि प्रकीर्णकानि भवन्ति, प्रकीर्णककारिणामपरिमाणत्वात् , केवलमिह प्रत्येकबुद्धरचितान्येय प्रकीर्णकानि द्रष्टव्यानि, प्रकीर्णकपरिमाणेन प्रत्येकबुद्धपरिमाणप्रतिपादनातू, स्यादेतत्-प्रत्येकबुद्धानां शिष्यभावो विरुध्यते, दीप अनुक्रम [१३७] २०८॥ FarParenaswamucom ~419~ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [४४]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: अङ्गाप्रविशानि प्रत सूत्रांक [४४] R२ तिदेतदसमीचीनं, यतः प्राजकाचार्यमेवाधिकृत्य शिष्यभावो निषिध्यते, न तु तीर्थकरोपदिष्टशासनप्रतिपन्नत्वेनापि, ततो न कश्चिदोषः, तथा च तेषां अन्धः-"इह तिथे अपरिमाणा पइन्नगा, पइन्नगसामिअपरिमाणतणओ, किंत इह सुत्ते पत्तेयबुद्धपणीयं पइन्नगं माणियचं, कम्हा?, जम्हा पइण्णगपरिमाणेण चेव पत्तेयबुद्धपरिमाणं कीरद, (इति) भणियं 'पत्तेयबुद्धावि तत्तिया चेवत्ति, चोयग आह-'नणु पत्तेयबुद्धा सिस्सभावो य विरुज्झए' आयरिओ आह-12 तित्थयरपणीयसासणपडिवन्नत्तणओ तस्सीसा हवंती"ति, अन्ये पुनरेवमातुः-सामान्येन प्रकीर्णकैस्तुल्यत्वात् प्रत्येकबुद्धानामत्राभिधानं, न तु नियोगतः प्रत्येकबुद्धरचितान्येव प्रकीर्णकानीति, 'सेत्त'मित्यादि, तदेतत्कालिकं, तदेतदावश्यकव्यतिरिक्तं, तदेतदनकप्रविष्टमिति । से किं तं अंगपविटुं ?, अंगपविटुं दुवालसविहं पण्णत्तं, तंजहा-आयारो १ सूयगडो २ ठाणं ३ समवाओ४ विवाहपन्नत्ती ५ नायाधम्मकहाओ ६ उवासगदसाओ७ अंतगडदसाओ ८ अणुचरोववाइअदसाओ ९ पण्हावागरणाई १० विवागसुअं ११ दिट्रिवाओ १२ (सू०४५) से किं तं आयारे?, आयारे णं समणाणं निग्गंथाणं आयारगोअरविणयवेणइयसिक्खाभासाअभासाचरणकरणजायामायावित्तीओ आघविजंति, से समासओ पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-नाणायारे दीप अनुक्रम [१३७] iman अङ्गप्रविष्ठ सूत्रस्य १२ भेदा: ~420~ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............. मूलं [४५-४६]/गाथा ||८१...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत भीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः आचाराक्राधि० सूत्रांक ७.४६ [४५-४६] ॥२०९॥ दीप अनुक्रम [१३८-१३९] दसणायारे चरित्तायारे तवायारे वीरियाआरे, आयारे णं परित्ता वायणा संखेजा अणुओगदारा संखिजा वेढा संखेजा सिलोगा संखिज्जाओ निजुत्तीओ संखिजाओ पडिवत्तीओ, से णं अंगट्याए पढमे अंगे, दो सुअक्खंधा, पणुवीसं अज्झयणा, पंचासीई उदेसणकाला, पं. चासीई समुदेसणकाला, अट्ठारस पयसहस्साणि पयग्गेणं, संखिजा अक्खरा अणंता गमा अणंता पजवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासयकडनिबद्धनिकाइआ जिणपण्णता भावा आघविजंति पन्नविजंति परूविजंति दंसिर्जति निदंसिर्जति उवदंसिर्जति, से एवं आया से एवं नाया एवं विपणाया एवं चरणकरणपरूवणा आपविजइ, से तं आयारे ॥ (सू०४६) अथ किं तदङ्गप्रविष्टं ?, सूरिराह-अङ्गप्रविष्टं द्वादशविध प्रज्ञस, तद्यथा-'आचारः सूत्रकृत'मित्यादि, अथ किं तदाचार इति ?, अथवा कोऽयमाचारः१, आचार्य आह-आयारेण मित्यादि, आचरणमाचारः आचर्यते इति | वा आचारः, पूर्वपुरुषाचरितो ज्ञानाद्यासेवन विधिरित्यर्थः, तत्प्रतिपादको अन्धोऽप्याचार एवोच्यते, अनेनाचारेण | करणभूतेन अथवा आचारे आधारभूते 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे श्रमणाना-प्रागनिरूपितशब्दार्थानां बाह्याभ्यन्तरग्रन्धरहितानाम् , आह-श्रमणा निर्ग्रन्था एव भवन्ति तकिमर्थं निम्रन्थानामिति विशेषणं?, उच्यते, शाक्यादि ॥२०९॥ २१ SAREnationnainamaina आचार-अंग सूत्रस्य शास्त्रिय परिचय: प्रस्तुयते ~421~ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [४५-४६]/गाथा ||८१...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत आचाराकाधिक सूत्रांक [४५-४६] दीप अनुक्रम [१३८-१३९] व्यवच्छेदार्थ, शाक्यादयोऽपि हि लोके श्रमणा व्यपदिश्यन्ते, तदुक्तम्-"निग्गंध सक तावस गेरुय आजीय पंचहा समणा" इति, तेषामाचारो व्याख्यायते, तत्राऽऽचारो-ज्ञानाचाराधनेकभेदभिन्नो गोचरो-भिक्षाग्रहणविधिलक्षणः विनयो-ज्ञानादिविनयः वैनयिक-विनयफलं कर्मक्षयादि शिक्षा-ग्रहणशिक्षा आसेवनशिक्षा च, विनेयशिक्षेति चूर्णिणकृत् , तत्र विनेयाः-शिष्याः, तथा भाषा-सत्याऽसत्यामृषा च अभाषा-मृषा सत्यामृषा च, चरणं-प्रतादि, करणंपिण्डविशुधादि, उक्तं च-"वय (4) समणधम्म (१०) संजम (१७) बेयावचं(१०)च बंभगुत्तीओ (९)। नाणाइतियं (३) तब (१२) कोहनिग्गहाई (8) चरणमेयं ॥१॥ पिंडविसोही (2) समिई (५) भावण (१२) पडिमा (१२) य इंदि-15 यनिरोहो (५)। पडिलेहण (२५) गुत्तीओ (३)अभिग्गहा (४) चेव करणं तु ॥२॥" 'जायामायावित्तीउत्ति यात्रा-संय मयात्रा मात्रा-तदर्थमेव परिमिताहारग्रहणं वृत्तिः-विविधैरभिग्रहविशेषैर्वर्तनं, आचारश्च गोचरचे त्यादिर्द्वन्द्वः, आचा४ारगोचरविनयवनयिकशिक्षाभाषाऽभाषाचरणकरणयात्रामात्रावृत्तयः आख्यायन्ते, इह यत्र कचिदन्यतरोपादानेऽन्तर्गतार्थाभिधानं तत्सर्व तत्प्राधान्यख्यापनार्थमवसेयं, 'से समासओ' इत्यादि, स आचारः 'समासतः' सझेपतः पञ्चविधः प्रज्ञसः, तद्यथा-'ज्ञानाचार' इत्यादि, तत्र ज्ञानाचार:-'काले विणए बहुमाणुबहाणे तह अनिण्हवणे । 5 वंजणअत्थतदुभए अट्ठविहो नाणमायारो ॥१॥" दर्शनाचार:-"निस्संकिय निकंखिय निवितिगिच्छा अमूढदिट्ठीय।। १ निर्घन्धाः शाक्या: तापसा गैरुका आजीविकाः पवमा धमणाः । ~422~ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [४५-४६]/गाथा ||८१...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत श्रीमलय- गिरीया सूत्रांक [४५-४६] नन्दीवृत्तिः ॥२१०॥ दीप अनुक्रम [१३८-१३९] उपवूह थिरीकरणे वच्छल्ल पभावणे अट्ट॥१॥" प्रभावकाश्च तीर्थस्वामी द्रष्टव्याः-'अईसेस इडियायरिय वाई धम्मकहिआचाराखयग नेमित्ती । विजा रायागणसंमया य तित्थं पभावति ॥१॥' चारित्राचार:-'पणिहाणजोगजुत्तो पंचहिंझाधिक समिईहिँ तिहि उगुत्तीहि । एस चरित्तायारो अट्ठविहो होइ नायवो ॥१॥ तपआचारः-वारसविहंमिवि तवे १५ अभितरवाहिरे जिणुबइठे । अगिलागू अणाजीवी नायवो सो तवायारो ॥१॥' वीर्याचार:-'अणिगूहिअबलविरिओ परकमइ जो जहुत्तमाउत्तो । जुजइ य जहाधाम नायवो वीरियायारो ॥१॥' 'आयारे ण'मित्यादि, आचारे 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे 'परित्ता' परिमिता तं तं प्रज्ञापकं पाठकं चाधिकृत्याद्यन्तोपलब्धिः अथवा उत्सर्पिणीमचसर्पिणीं वा प्रतीत्य परीता वा द्रष्टव्या, काऽसावित्साह-वाचना' वाचना नाम सूत्रस्वार्थस्य वा प्रदानं, यदि पुनः सामान्यतः प्रवाहमधिकृत्य चिन्यते तदाऽनन्ता, तथा चाह चूर्णिणकृत्-"सुत्तस्स अत्थस्स वा पयाणं वायणा, सा परित्ता, अणंता न भवति, आईअंतोवलंभणओ, अहबा उस्सप्पिणीओसप्पिणीकालं पडुच्च परित्ता, तीयाणागयसबद्धं च पडुच अणंता" इति, तथा सङ्ख्येयान्यनुयोगद्वाराणि-उपक्रमादीनि, तानि बध्ययनमध्ययनं प्रति प्रव-] त्तन्ते, अध्ययनानि च सञ्जयेयानीतिकृत्या, तथा सङ्खबेया वेढा, बेढो नाम छन्दोविशेषः, तथा सझयेयाः श्लोकाः-15 सुप्रतीताः, तथा सपेया नियुक्तयः, तथा सोयाः प्रतिपत्तयः, प्रतिपत्तयो नाम द्रव्यादिपदार्थाभ्युपगमाः प्रतिमाघभिग्रहविशेषा वा, ताः सूत्रनिबद्धाः सङ्ख्येयाः, आह च चूर्णिणकृत्-“दवाइपयत्थभुवगमा पडिमादभिग्गदयि- ॥२१०॥ ~ 423~ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [४५-४६] दीप अनुक्रम [१३८ -१३९] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [ ४५-४६ ] / गाथा || ८१... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र -[ ४४], चूलिका सूत्र -[१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः | सेसा या पडिवत्तीओ सुत्तपडिबद्धा संखेज"त्ति, 'से ण'मित्यादि, स आचारो 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे अङ्गार्थतया - अङ्गार्थत्वेन, अर्थग्रहणं परलोकचिन्तायां सूत्रादर्थस्य गरीयस्त्वख्यापनार्थे, अथवा सूत्रार्थोभयरूप आचार इति ख्यापनार्थ, प्रथममङ्गम्, एकारान्तता सर्वत्र मागधभाषालक्षणानुसरणाद्वेदितव्या स्थापनामधिकृत्य प्रथममङ्गमित्यर्थः, तथा द्वौ श्रुतस्कन्धौ -अध्ययन समुदायरूपौ, पञ्चविंशतिरध्ययनानि, तद्यथा - "सत्यपरिन्ना ( १ ) लोगविजओ (२) सीओसणिज (३) संमत्तं (४) । आवंति (५) धुय (६) विमोहो (७) महापरिन्नो (८) वहाणसुयं ( ९ ) ॥ १ ॥ एतानि नवाध्ययनानि प्रथमश्रुतस्कन्धे, “पिंडेसण (१) सेजि (२) रिया (३) भासजाया (४) य वत्थ ( ५ ) पाएसा (६) । उग्गहपडिमा (७) सत्तसत्तिक्कया (१४) य भावण (१५) विमुत्ती (१६) || १ ||" अत्र 'सेज्जिरिय'त्ति शय्याऽध्ययनमीर्याऽध्ययनं च 'वत्थपाएस' त्ति वस्त्रैषणाध्ययनं पात्रेपणाध्ययनं च, अमूनि पोडशाध्ययनानि द्वितीयश्रुतस्कन्धे, एवमेतानि | निशीथवर्जानि पञ्चविंशतिरध्ययनानि भवन्ति, तथा पञ्चाशीतिरुदेशन कालाः, कथमिति चेत् ?, उच्यते, इहाङ्गस्य श्रुतस्कन्धस्याध्ययनस्योद्देशकस्य चैक एवोद्देशन कालः, एवं शखपरिज्ञायां सप्तोद्देशनकाला: लोकविजये षट् शीतोष्णीयाध्ययने चत्वारः सम्यक्त्वाध्ययने चत्वारः लोकसाराध्ययने पद बुताध्ययने पञ्च विमोहाध्ययनेऽष्टौ महापरिज्ञायां सम उपधानश्रुते चत्वारः पिण्डैषणायामेकादश शय्यैषणाध्ययने त्रयः ईर्ष्याध्ययने त्रयः भाषाध्ययने द्वौ वस्त्रेपणाध्ययने द्वौ पात्रैषणाध्ययने द्वौ अवग्रहप्रतिमाध्ययने द्वौ सप्त सप्तकिकाऽध्ययनेषु भावनायामेको विमुक्तावेकश्च, Eaton International For Para Lise Only ~ 424~ आचारा ङ्गाधिकारः ख. ४६ ५ १० १३ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [४५-४६] दीप अनुक्रम [१३८ -१३९] श्रीमलयनिरीया नन्दीवृत्तिः ॥२११ ॥ “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ४५-४६ ] / गाथा || ८१... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र -[ ४४], चूलिका सूत्र -[१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः एवमेते सर्वेऽपि पिण्डिताः पञ्चाशीतिर्भवन्ति, अत्र सङ्ग्रहगाथा - " सत्त (१) य छ २ चउ (३) चउरो (४) य छ (५) पंच (६) अट्ठेय (७) सप्त (८) चउरो (९) य । एक्कार (१०) त्तिय (११) तिय (१२) दो (१३) तिय दो (१४-१५-१६) सत्ते (२३) को (क) (२४) एको (२५) य ॥१॥ एवं समुद्देशनकाला अपि पञ्चाशीतिर्भावनीयाः, तथा पदाग्रेण-पदपरिमानाष्टादश पदसहस्राणि, इह यत्रार्थोपलब्धिस्तत्पदं, अत्र पर आह— यदाऽऽचारे द्वौ श्रुतस्कन्धौ पञ्चविंशतिरध्ययनानि पदाग्रेण चाष्टादश पदसहस्राणि तर्हि यद् भणितं "नवयंभचरेमइओ अट्ठारसपयसहस्सिओ बेओ" इति तद्विरुध्यते, अत्र हि नवत्रह्मचर्याध्ययनमात्र एवाष्टादशपदसहस्रप्रमाण आचार उक्तः, अस्मिंस्त्वध्ययने श्रुतस्कन्धद्वयात्मकः पञ्चविंशत्यध्ययन रूपोऽष्टादशपदसहस्रप्रमाण इति, ततः कथं न परस्परविरोधः १, तदयुक्तं, अभिप्रायापरिज्ञानात्, इह द्वौ श्रुतस्कन्धौ पञ्चविंशतिरध्ययनानि एतत्समग्रस्याचारस्य परिमाणमुक्तं, अष्टादशः पदसहस्राणि पुनः प्रथमथुतस्कन्धस्य नवब्रह्मचर्याध्ययनस्य विचित्रार्थनिवद्धानि हि सूत्राणि भवन्ति, अत एव चैषां सम्यगर्थावगमो गुरूपदेशतो भवति, नान्यथा, तथा चाह चूर्णिकृत् — “दो सुयखंधा पणवीसं अज्झयणाणि एवं आयरग्गसहियस्स आयारस्स पमाणं भणियं, अट्ठारसपय सहस्सा पुण पढमसुयक्खंधस्स नवत्रं भचेरमइयस्स पमाणं, विचित्तअत्थनिबद्धाणि य सुचाणि गुरुवएसओ सिं अत्थो जाणिय वो "त्ति । तथा सङ्ख्येयानि अक्षराणि, पदानां सङ्ख्धेयत्वात्, तथा 'अणता गमा' इति इद्द गमाः - अर्थगमा गृहयन्ते, अर्थगमा नाम अर्थपरिच्छेदाः, ते चानन्ताः, एकस्मादेव सूत्रादतिशाथि For Para Use Only ~ 425~ आचाराङ्गाधिकारः सू. ४६ २० ॥२११॥ २५ ayor Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [४५-४६] दीप अनुक्रम [१३८ -१३९] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [ ४५-४६ ] / गाथा ||८१...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः मतिमेधादिगुणानां तत्तद्धर्म्मविशिष्टानन्तधर्मात्मक वस्तुप्रतिपत्तिभावात् एतच टीकाकृतो व्याख्यानं, चूर्णिकृत-आचारापुनराह - अभिधानाभिधेयवशतो गमा भवन्ति, ते चानन्ताः, अनेन च प्रकारेण ते वेदितव्याः, तद्यथा - 'सुयं मे नाधिकारः सू. ४६ आउसंतणं भगवया एवमकखाय' मिति, इदं च सुधर्मस्वामी जम्बूखामिनं प्रत्याह, तत्रायमर्थः श्रुतं मया हे आयुष्मन् ! तेन भगवता वर्द्धमानखामिना एवमाख्यातं, अथवा श्रुतं मया 'आयुष्मदन्ते' आयुष्मतो भगवतो वर्द्धमानखामिनोऽन्ते - समीपे 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे, तथा च भगवता एवमाख्यातं, अथवा श्रुतं मयाऽऽयुष्मता, अथवा श्रुतं मया भगवत्पादारविन्दयुगलमामृशता, अथवा श्रुतं मया गुरुकुलवासमावसता, अथवा श्रुतं मया हे आयुष्मन् ! 'ते' ति प्रथमार्थे तृतीया तद्भगवता एवमाख्यातं, अथवा श्रुतं मयाऽऽयुष्मन् ! 'ते णं'ति तदा भगवता एवमाख्यातं, अथवा श्रुतं मया हे आयुष्मन् ! 'ते णं'ति षड्जीवनिकायविषये तत्र वा विवक्षिते समवसरणे स्थितेन भगवता एचमाख्यातं, अथवा श्रुतं मम हे आयुष्मन् ! वर्त्तते, यतस्तेन भगवता एवमाख्यातं, एवमादयस्तं तमर्थमधिकृत्य गमा भवन्ति, अभिधानवशतः पुनरेवं गमाः-- "सुयं मे आउ आउ सुयं मे मे सुयं आउस" मित्येवमर्थभेदेन तथा २ पदानां संयोजनतोऽभिधानगमा भवन्ति, एवमादयः किल गमाः अनन्ता भवन्ति, तथा अनन्ताः पर्यायाः, ते च खपरभेदभिन्ना अक्षरार्थगोचरा वेदितव्याः, तथा परीताः - परिमितास्त्रसा - द्वीन्द्रियादयः, अनन्ताः स्थावराः - वनस्पतिकायादयः, 'सासयकडनिबद्धनिकाइय'त्ति शाश्वता-धर्मास्तिकायादयः कृताः- प्रयोगवित्र साजन्या घटसन्ध्याभ्ररागादयः, For Parts Only ~426~ ५ १० १३ wor Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [४५-४६] दीप अनुक्रम [१३८ -१३९] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [ ४५-४६ ] / गाथा || ८१... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..... आगमसूत्र -[ ४४], चूलिका सूत्र -[१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ॥२१२ ॥ एते सर्वेऽपि त्रसादयो निबद्धाः - सूत्रे खरूपतः उक्ता निकाचिताः-निर्युक्तिसङ्ग्रहणिहेतू दाहरणादिभिरनेकधा व्यवस्था| पिता जिनप्रज्ञता भावा:- पदार्थाः आख्यायन्ते - सामान्यरूपतया विशेषरूपतया वा कथ्यन्ते प्रज्ञाप्यन्ते - नामादिभेदोपन्यासेन प्ररूप्यन्ते - नामादीनामेव भेदानां सप्रपञ्चखरूपकथनेन पृथग् विभक्ताः ख्याप्यन्ते प्रदर्श्यते -उपमाप्रदर्श* नेन यथा गौरिव गवय इत्यादि निदर्श्यन्ते- हेतुदृष्टान्तोपदर्शनेन उपदर्श्यन्ते-निगमनेन शिष्यबुद्धौ निःशङ्कं व्यवस्थाप्यन्ते । साम्प्रतमाचाराङ्गग्रहणे फलं प्रतिपादयति--' से एवमित्यादि, 'स' इति आचाराङ्गग्राहकोऽभिसम्बध्यते, एवमात्मा एवंरूपो भवति, अयमत्र भावः - अस्मिन्नाचाराने भावतः सम्यगधीते सति तदुक्तक्रियानुष्ठानपरिपालनात्साक्षान्मूर्त्त इवाऽऽचारो भवतीति, आह च टीकाकृत्-"तदुक्तक्रियापरिणामाव्यतिरेकात्स एवाचारो भवतीत्यर्थः " इति, तदेवं क्रियामधिकृत्योक्तं, सम्प्रति ज्ञानमधिकृत्याह - 'एवं नाय'त्ति यथाऽऽचाराङ्गे निबद्धा भावास्तथा तेषां भावानां ज्ञाता भवति, तथा 'एवं विनाय'त्ति यथा निर्युक्तिसङ्ग्रह णिहे तूदाहरणादिभिर्विविधं प्ररूपितास्तथा विविधं ज्ञाता भवति, एवं चरणकरणप्ररूपणाऽऽचारे आख्यायते, 'सेत्तं आयारे' ति सोऽयमाचारः । Education Intimat से किं तं सूअगडे?, सुअगडे णं लोए सूइज्जइ अलोए सुइज्जइ लोआलोए सूइजइ जीवा सूइजन्ति अजीवा सूइजंति जीवाजीवा सूइर्जति ससमए सूइजइ परसमए सुइज्जइ ससमयपरसमए सूइज्जइ, सूअगडे णं असीअस्त किरियावाइसयस्स चउरासीइए अकिरिआवाईणं सत्तट्टीए अण्णाणि - सूत्रकृत् - अंग सूत्रस्य शास्त्रिय परिचयः प्रस्तुयते For Pernal Pyssa Lise Only ~ 427 ~ सूत्रकृताङ्गाधिकारः सू. ४७ २० ॥२१२॥ २५ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [ ४७ ] दीप अनुक्रम [१४०] “नन्दी” - चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ४७ ] / गाथा ||८९... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र -[४४], चूलिका सूत्र -[१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः अवाई बत्तीसार वेणइअवाईणं तिन्हं तेसद्वाणं पासंडिअसयाणं वूहं किया ससमए ठाविज्जइ, सूअगडे णं परित्ता वायणा संखिज्जा अणुओगदारा संखेज़ा वेढा संखेजा सिलोगा संखिज्जाओ निज्जुत्सीओ संखिज्जाओ पडिवत्तीओ, से णं अंगट्टयाए बिइए अंगे दो सुअक्खंधा तेवीसं अणा तित्तीसं उद्देसणकाला तित्तीसं समुद्देसणकाला छत्तीसं पयसहस्साणि पयणं संखिज्जा अक्खरा अणंता गमा अणंता पजवा परित्ता तसा अनंता थावरा सासयकनिवद्धनिकाइया जिणपन्नत्ता भावा आघविज्जंति परुविजंति दंसिजति निदंसिज्जति उवदंसिजंति, से एवं आया से एवं नाया से एवं विष्णाया एवं चरणकरणपरूवणा आघविज्जइ, सेतं सूअगडे २ (सू०४७ ) 'से किं तमित्यादि, अथ किं तत्सूत्रकृतं ?, 'सूच पैशून्ये' सूचनात्सूत्रं निपातनाद्रूप निष्पत्तिः, भावप्रधानश्चायं सूत्रशब्दः, ततोऽयमर्थः- सूत्रेण कृतं, सूत्ररूपतया कृतमित्यर्थः, यद्यपि च सर्वमङ्गं सूत्ररूपतया कृतं तथापि रूढि वशादेतदेव सूत्रकृतमुच्यते, न शेषम, आचार्य आह-सूत्रकृतेन अथवा सूत्रकृते 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे ठोकः सूच्यते इत्यादि निगदसिद्धं यावत् 'असीयस्स किरियावाइसस्से' त्यादि, अशीत्यधिकय क्रियावादिशतस्य चतुर For Parts Only ~428~ सूत्रकृताङ्गाधिकारः सू. ४७ १० १२ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [ ४७ ] दीप अनुक्रम [१४०] श्रीमलय गिरीया नन्दीवृत्तिः शीतेरक्रियावादिनां सप्तपरज्ञानिकानां द्वात्रिंशतो वैनयिकानां सर्वसया वाणां त्रिपश्यधिकानां पाखvिeaतानां 'व्यूह' प्रतिक्षेपं कृत्वा स्वसमयः स्थाप्यते । तत्र न कर्त्तारमन्तरेण क्रिया पुण्यवन्धादिलक्षणा सम्भवति तत २ एवं परिज्ञाय तां क्रियाम् - आत्मसमवायिनीं वदन्ति तच्छीलाश्च ये ते क्रियावादिनः, ते पुनरात्मायस्तित्वप्रतिप॥ २१३ | ४ तिलक्षणेनामुनोपायेनाशीत्यधिकशतसङ्ख्या विज्ञेयाः, जीवाजीवाश्रवबन्धसंवरनिर्जरापुण्यापुण्यमोक्षरूपान् नव पदार्थान् परिपाट्या पट्टिकादौ विरचय्य जीवपदार्थस्याधः खपरभेदावुपन्यसनीयौ, तयोरघो नित्यानित्यभेदौ, तयोरप्यधः कालेश्वरात्म नियतिखभावभेदाः पञ्च न्यसनीयाः, पुनश्चैवं विकल्पाः कर्त्तव्याः, तद्यथा - अस्ति जीवः खतो | नित्यः कालत इत्येको विकल्पः अस्य च विकल्पस्यायमर्थः- विद्यते खल्वयमात्मा स्वेन रूपेण नित्यश्च कालतः कालवादिनो मते, कालवादिनश्च नाम ते मन्तव्या ये कालकृतमेव सर्वं जगत् मन्यन्ते, तथा च ते आहुःन कालमअन्तरेण चम्पकाशोकसहकारादिवनस्पतिकुसुमोद्मफलबन्धादयो हिमकणानुषक्तशीतप्रपातनक्षत्र गर्भाधान वर्षादयो वा ऋतुविभागसम्पादिता वालकुमारयौवन व लिपलितागमादयो वाऽवस्थाविशेषा घटन्ते, प्रतिनियतकालविभाग एव है तेषामुपलभ्यमानत्वात्, अन्यथा सर्वमव्यवस्थया भवेत्, न चैतद् दृष्टमिष्टं वा, अपिच - मुद्रपक्तिरपि न कालमन्तरेण लोके भवन्ती दृश्यते, किन्तु कालक्रमेण, अन्यथा स्थालीन्धनादिसामग्री सम्पर्कसम्भवे प्रथमसमयेऽपि तस्या भावप्रसङ्गो, न च भवति, तस्माद्ययत्कृतकं तत्सर्वं कालकृतमिति, तथा चोक्तम् - "न कालव्यतिरेकेण, गर्भवालशु “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ४७ ] / गाथा ||८९... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः Eucatio For Parts Only ~ 429~ क्रियावाद्यधिकारः १५ २० ॥११३॥ २५ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [ ४७ ] दीप अनुक्रम [१४०] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ४७ ] / गाथा ||८९... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः भादिकम् । यत्किञ्चिज्जायते लोके, तदसौ कारणं किल ॥ १ ॥ किञ्च कालाहते नैव, मुद्रपक्तिरपीक्ष्यते । स्थाल्यादिसन्निधानेऽपि ततः कालादसौ मता ॥ २॥ कालाभावे च गर्भादि, सर्व स्यादव्यवस्थया । परेष्टहेतुसद्भावमात्रादेव तदुद्भवात् ॥ ३ ॥ कालः पचति भूतानि कालः संहरति प्रजाः । कालः सुप्तेषु जागर्त्ति, कालो हि दुरतिक्रमः ॥ ४ ॥” अत्र 'परेष्टहेतुसद्भावमात्रादिति पराभिमतयनिता पुरुषसंयोगादिमात्ररूप हेतुसद्भावमात्रादेव 'तदुद्भवादिति गर्भायुद्भवप्रसङ्गादिति तथा कालः पचति - परिपाकं नयति परिणतिं नयति 'भूतानि' पृथिव्यादीनि तथा कालः संहरति प्रजाः - पूर्वपर्यायात् प्रन्यान्य पर्यायान्तरेण प्रजालोकान् स्थापयति, तथा कालः सुतेषु जनेषु जागर्त्ति, काल एव तं तं सुतं जनमापदो रक्षतीति भावः, तस्माद् हि:- स्फुटं दुरतिक्रमः अपाकर्तुमशक्यः काल इति । उक्तैनैव प्रकारेण द्वितीयोऽपि विकल्पो वक्तव्यो, नवरं कालवादिन इति वक्तव्ये ईश्वरवादिन इति वक्तव्यं तद्यथा अस्ति जीवः खतो नित्य ईश्वरतः, ईश्वरवादिनश्च सर्व जगदीश्वरकृतं मन्यन्ते, ईश्वरं च सहसिद्धज्ञानवैराग्यधम्मैश्वर्य रूपचतुतुष्टयं प्राणिनां स्वर्गापवर्गयोः प्रेरकमिति, तदुक्तम् - "ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः । ऐश्वर्यं चैव धर्मश्च, ४ | सहसिद्धं चतुष्टयम् ॥ १॥ अम्यो (ज्ञो) जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा श्रश्रमेव वा ॥ २ ॥ इत्यादि, एवं तृतीयो विकल्प आत्मवादिनां, आत्मवादिनो नाम 'पुरुष एवेदं सर्वमित्यादि प्रतिपन्नाः । चतुर्थी विकल्पो नियतिवादिनां ते येवमाहुः - नियतिर्नाम तत्त्वान्तरमस्ति यद्वशादेते भावाः सर्वेऽपि नियतेनैव १० For Par Use Only ~ 430~ क्रियावाद्यधिकारः १३ www.landbrary org Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [४७]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४७]] श्रीमलयरूपेण प्रादुर्भावमश्नुवते, नान्यथा, तथाहि-यद्यदा यतो भवति तत्तदा तत एव नियतेनैव रूपेण भवदुपलभ्यते, अ-15 क्रियावाच पी. धिकार: गिरीया ट्रिन्यथा कार्यकारणभावव्यवस्था प्रतिनियतरूपव्यवस्था च न भवेत् , नियामकाभावात् , तत एव कार्यनेयत्यतः प्रतीनन्दीवृत्तिः यमानामिमां नियति को नाम प्रमाणकुशलो बाधितुं क्षमते?, मा प्रापदन्यत्रापि प्रमाणपथव्याघातप्रसङ्गः, तथा ॥२१॥ चोक्तम्-"नियतेनैव रूपेण, सर्वे भावा भवन्ति यत् । ततो नियतिजा खेते, तत्स्वरूपानुवेधतः॥१॥ यद्यदैव यतो यावत्तत्तदैव ततस्तथा । नियतं जायते न्यायात् (नान्यात् ),क एनां बाधितुं क्षमः? ॥२॥" पञ्चमो विकल्पः खभाववादिनां, ते हि खभाववादिन एचमाहुः-इह सर्वे भावाः खभावयशादुपजायन्ते, तथाहि-मृदः कुम्भो भवति न पटादि, तन्तुभ्योऽपि पट उपजायते न कुम्भादि, एतच प्रतिनियतभवनं न तथाखभावतामन्तरेण घटाकोटीसण्यमाटीकते, तस्मात् सकलमिदं खभावकृतमवसेयं, अपिच-आस्तामन्यत् कार्यजातं इह मुद्गपक्तिरपि न खभावमन्तरेण भवितुमर्हति, तथाहि-स्थालीन्धनकालादिसामग्रीसम्भवेऽपि न काङ्कटुक मुद्गानां पक्तिरुपलभ्यते, तस्माद्यद्यद्भावे भवति यदभावे च न भवति तत्तदन्वयव्यतिरेकानुविधायि तत्कृतमिति खभावकृता मुद्गपक्तिरप्येष्टव्या, ततः सकलमेवेदं वस्तुजातं खभावहेतुकमवसेयमिति । तत एवं स्वत इति पदेन लब्धाः पञ्च विकल्पाः, एवं परत इत्यनेनापि पञ्च ल-1 | ॥२१४॥ भ्यन्ते, परत इति-परेभ्यो व्यावृत्तेन रूपेण विद्यते खल्वयमात्मेत्यर्थः, एवं नित्यत्वापरित्यागेन दश विकल्पा लब्धाः,15 २५ द्राएवमनित्यपदेनापि दश, सर्वे मिलिता विंशतिः, एते च जीवपदार्थेन लब्धाः, एवमजीवादिष्वष्टसु पदार्थेषु प्रत्येक दीप अनुक्रम [१४०] LATE ~ 431~ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४७]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४७]] विंशतिविशतिर्विकल्पा लभ्यन्ते, ततो विंशतिर्नवगुणिताः शतमशीत्युत्तरं क्रियावादिनां भवति ॥ तथा न कस्यचित्र- क्रियावादप्रतिक्षणमनवस्थितस्य पदार्थस्य क्रिया सम्भवति उत्पत्त्यनन्तरमेव विनाशादित्येवं ये वदन्ति तेऽक्रियावादिनः, तथा दू विकार। चाहुः एके-"क्षणिकाः सर्वसंस्कारा, अस्थिराणां कुतः क्रिया ?। भूतियैषां क्रिया सैव, कारक सैव चोच्यते ॥१॥" एते चात्मादिनास्तित्वप्रतिपत्तिलक्षणा अमुनोपायेन चतुरशीतिसङ्ख्या द्रष्टव्याः,पुण्यापुण्यवर्जितशेषजीवाजीयादिपदार्थसप्तकन्यासस्तथैव च जीवादिसप्तकस्याधः प्रत्येकं खपरविकल्पोपादानं, असत्त्वादात्मनो नित्यानित्यविकल्पो न स्तः, कालादीनां च पञ्चानामधस्तात्पष्ठी यदृच्छा न्यस्यते, इह यदृच्छावादिनः सर्वेऽप्यक्रियावादिनः एव, न केचिदपि क्रियावादिनः, ततः प्राक् यहच्छा नोपन्यस्ता, तत एवं विकल्पामिलापः-नास्ति जीवः खतः कालत इति इत्येको विकल्पः, एवमीश्वरादिभिरपि यदृच्छापर्यन्तैः, सर्वे मिलिताः षड् विकल्पाः, अमीषां च विकल्पानामर्थः प्राग्वद्भावनीयः, नवरं यहच्छात इति यदृच्छावादिनां मते. अथ के ते यहच्छावादिनः?, उच्यते, इह ये भावानां सन्तानापेक्षया न प्रतिनियतं कार्यकारणभावमिच्छन्ति किन्तु यहच्छया ते यहच्छावादिनः, तथा च ते एवमाहु:-"न खलु प्रतिनियतो वस्तूनां कार्यकारणभावः, तथाप्रमाणेनाग्रहणात् , तथाहि-शालूकादपि जायते शालको गोमयादपि जायते शालकः वढेरपि वह्निरुपजायते अरणिकाष्ठादपि धूमादपि जायते धूमोऽमीन्धनसम्पकोदपि जायते कन्दादपि जायते कदली बीजादपि वटादयो बीजादुपजायन्ते शाखैकदेशादपि, ततो न प्रतिनियतः कचिदपि दीप अनुक्रम [१४०] Fि१३ Namamurary.org ~ 432~ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) .................... मूलं [४७]/गाथा ||८१...|| ........... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत अक्रियावामवाद्यधिकार सूत्रांक [४७]] भीमलय-18 कार्यकारणभाव इति यरच्छातः कचित्किञ्चिद्भवतीति प्रतिपत्तव्यं, न खल्वन्यया वस्तुसद्भावं पश्यन्तोऽन्यथाऽऽत्मानं गिरीया दिप्रेक्षावन्तः परिक्लेशयन्तीति, यथा च खतः षड्विकल्पा लब्धाः तथा नास्ति परतः कालत इत्येवमपि पडिकल्पा लमन्दीचिः भ्यन्ते, सर्वेऽपि मिलिता द्वादश विकल्पा जीवपदे लब्धाः, एवमजीवादिषु पद्सु पदार्थेषु प्रत्येकं द्वादश २ पिकल्पा ।।२१५।। लभ्यन्ते. ततो द्वादशभिः सप्त गुणिताश्चतुरशीतिभवन्ति अक्रियावादिनां विकल्पाः ॥ तथा कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं तदे पामस्तीति अज्ञानिकाः, 'अतोऽनेकखरा'दिति मत्वर्थीय इकप्रत्ययः, अथवाऽज्ञानेन चरन्तीति अज्ञानिका:-असश्चिदन्त्यकृतवन्धवैफल्यादिप्रतिपत्तिलक्षणाः, तथाहि ते एवमाहुः-न ज्ञानं श्रेयः,तस्मिन् सति परस्परं विवादयोगतश्चित्त कालुष्यादिभावतो दीर्घतरसंसारप्रवृत्तेः, तथाहि-केनचित्पुरुषेणान्यथा देशिते सति वस्तुनि विवक्षितो ज्ञानी ज्ञानगर्याध्मातमानसस्तस्योपरि कलुषचित्तस्तेन सह विवादमारभते, विवादे च क्रियमाणे तीव्रतीव्रतरचित्तकालुष्यभाव(स्त)तोऽहङ्कारः ततश्च प्रभूततराशुभकर्मबन्धसम्भवः, तस्माच दीर्घतरः संसारः, तथा चोक्तम्-"अन्नेण अन्नहा देसियमि भायंमि नाणगवेणं । कुणइ विवायं कलुसियचित्तो तत्तो य से बंधो॥१॥" यदा पुनर्न ज्ञानमाश्रीयते तदा नाहङ्कारसम्भवो नापि परस्योपरि चित्तकालुष्यभावः ततो न कर्मवन्धसम्भवः, अपिच-सञ्चिन्य क्रियते कर्मवन्धः, स दारुणविपाकः, अत एव चावश्यंवेद्यः, तस्य तीब्राध्यवसायतो निष्पन्नत्वात्, यस्तु मनोव्यापारमन्तरेण कायवाकर्मवृत्तिमात्रतो विधीयतेन तत्र मनसोऽभिनिवेशस्ततो नासाववश्यंवेद्यो, नापि तस्य दारुणो विपाकः, केव दीप अनुक्रम [१४०] ॥२१५॥ ~ 433~ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत INIधिकार: सूत्रांक [४७]] लमतिष्कसुधापकधवलितभित्तिगतरजोमल इव स कर्मसङ्गः खत एव शुभाध्यवसायपवनविक्षोभितोऽपयाति, म- अक्रियाऽनसोऽभिनिवेशाभावश्चाज्ञानाभ्युपगमे समुपजायते, ज्ञाने सत्यभिनिवेशसम्भवात् , तस्मादज्ञानमेव मुमुक्षुणा मुक्ति- ज्ञानवायपथप्रवृत्तेनाभ्युपगन्तव्यं न ज्ञानमिति, अन्यच-भवेधुक्तो ज्ञानस्याभ्युपगमो यदि ज्ञानस्य निश्चयः कर्तुं पार्येत या-81 वता स एव न पार्यते, तथाहि-सर्वेऽपि दर्शनिनः परस्परं भिन्नमेव ज्ञानं प्रतिपन्नाः ततो न निश्चयः कर्तुं शक्यतेकिमि जान सम्यग् नेदमिति ?, उक्तं च-"संवे य मिहो भिन्नं नाणं इह नाणिणो जओ विति । तीरइ न तो काउंविणिच्छओ एवमेयंति ॥१॥" अथोच्येत-इह यत्सकलवस्तुस्त्रोमसाक्षात्कारिभगवदुपदेशादुपजायते ज्ञान | तत्सम्यग नेतरत् , असर्वज्ञमूलत्वादिति, सत्यमेतत्, किन्तु स एव सकलवस्तुस्तोमसाक्षात्कारीति कथं ज्ञायते !, तद्बाइकप्रमाणाभावात् ,अपिच-सुगतादयोऽपि सौगतादिभिः सकलवस्तुस्तोमसाक्षात्कारिण इभ्यन्ते, तर्कि सुगतादिः | सकलवस्तुस्तोमसाक्षात्कारीति प्रतिपद्यतामस्माभिः किंवा भगवद्वर्द्धमानखामीति तदवस्थ एव निश्चयाभावः?, सादेतत्-किमत्र संशयेन ?, यस्य पादारविन्दयुगलं प्रणिणंसवो दिवौकसः परस्परमहमहमिकया विशिष्टविशिष्टतरविभूतिघुतिपरिकलिताः शतसहस्रसभेन विमाननिवहेन सकलमपि नभोमण्डलमाच्छादयन्तो महीमवतीर्य पूजादिकमातन्वन्ति स्म स भगवान् बर्द्धमानखामी सर्वज्ञो न शेषाः सुगतादयः, मनुष्या हि मूढमनस्का अपि सम्भाव्यन्ते न देवाः, १ स च मियो मिनं ज्ञान मिह ज्ञानिनो यतो ध्रुवते । शक्यते न ततः कर्तुं विनिधय एवमेतदिति ॥1॥ दीप अनुक्रम [१४०] XAKSOCIRCCRA ~ 434~ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [४७]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत श्रीमलय- गिरीया | नन्दीवृत्तिः ॥२१६॥ १५ सूत्रांक [४७]] ततो यदि शेषा अपि सुगतादयः सर्वज्ञा अभविष्यन् तर्हि तेषामपि देवाः पूजामकरिष्यन् न च कृतवन्तस्तस्मान्न ते अज्ञानवाचसर्वज्ञाः, तदेतत्वदर्शनानुरागतरलितमनस्कतासूचकं, यतो वर्द्धमानखामिनो दिवः समागत्य देवास्तथा पूजां कृतवन्त | धिकारः इत्येतदपि कथमवसीयते?, भगवतश्चिरातीतत्वेनेदानीं तद्भावग्राहकप्रमाणाभावात् , सम्प्रदायादवसीयते इति चेत् ननु सोऽपि सम्प्रदायो न धूर्तपुरुषप्रवर्तितः किन्तु सत्यपुरुषप्रवर्तित एवेति कथमवगन्तव्यं ?, तद्राहकप्रमाणाभावात् , न चाप्रमाणकं वयं प्रतिपत्तुं क्षमाः, मा प्रापदप्रेक्षावत्ताप्रसङ्गः, अन्यच्च-मायाविनः खयमसर्वज्ञा अपि जगति स्वस्थ सर्वज्ञभावं प्रचिकटयिषवस्तथाविधेन्द्रजालवशादर्शयन्ति देवानितस्ततः सञ्चरतः खस्य च पूजादिकं कुर्वतः, ततो देवागमदर्शनादपि कथं तस्य सर्वज्ञत्वनिश्चयः ?, तथा चाह भावक एव स्तुतिकारः समन्तभद्रः-'देवागमनभोयान-131 चामरादिविभूतयः। मायाविष्वपि दृश्यन्ते, नातस्त्वमसि नो महान् ॥ १॥" भवतु वा बर्द्धमानखामी सर्वज्ञः त-1 थापि तत्सत्कोऽयमाचारादिक उपदेशो न पुनः केनापि धूर्त्तन खयं विरचय्य प्रवर्तित इति कथमवसेयं ?, अतीन्द्रियत्वेनेतद्विषये प्रमाणाभावात् , अथवा भवत्वेषोऽपि निश्चयो यथाऽयमाचारादिक उपदेशो वर्द्धमानखामिन इति, तथापि तस्योपदेशस्यायमर्थो नान्य इति न शक्यः प्रत्येतुं, नानार्थी हि शब्दा लोके प्रवर्तन्ते, तथादर्शनात् , त- ॥२१॥ |तोऽन्यथाऽप्यर्थसम्भावनायां कथं विवक्षितार्थनियमनिश्चयः?, अथ मन्येथास्तदात्वे तत एव सर्वज्ञात् साक्षाच्छ्वणतो गौतमादेरर्थनियमनिश्चयोऽभूत् तत आचार्यपरम्परयेदानीमपि भवतीति, तदप्ययुक्तं, यतो नाम गातमादिरपि २ दीप अनुक्रम [१४०] २५ Baitaram.org ~ 435~ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [ ४७ ] दीप अनुक्रम [१४०] “नन्दी” - चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ४७ ] / गाथा ||८९... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः विकारः छद्मस्थः, छद्मस्थस्य च परचेतोवृत्तिरप्रत्यक्षा, तस्या अतीन्द्रियत्वेनैतद्विषये चक्षुरादीन्द्रियप्रत्यक्ष प्रवृत्तेरभावात्, अप्रत्य- 2 अज्ञानवाद्यक्षायां च सर्वज्ञस्य विवक्षायां कथमिदं ज्ञायते - एप सर्वज्ञस्याभिप्रायोऽनेन चाभिप्रायेण शब्दः प्रयुक्तो नाभिप्रायान्तरेण ?, तत एवं सम्यपरिज्ञानाभावात् यामेव वर्णावलीमुक्तवान् भगवान् तामेव केवल पृष्ठतो लग्यो गौतमादिर भिभाषते, न पुनः परमार्थतस्तस्योपदेशस्वार्थमवबुध्यते, यथाऽऽर्यदेशोत्पन्नो कस्यानुवाद को ऽपरिज्ञातशब्दार्थो म्लेच्छ:, उक्तं च- “ मिलक्खू अभिलक्खुस्स, जहा वृत्ताणुभासए । न हेउं से वियागाइ, भासियं तऽणुभास ॥ १ ॥ एवमन्नाणिया नाणं, वयंता भासियं सयं । निच्छयत्थं न याणन्ति, भिलक्खुब अबोहिए ॥ २ ॥” तदेवं दीर्घ तरसंसारकारणत्वात् सम्यग्निश्चयाभावाच न ज्ञानं श्रेयः, किन्त्वज्ञानमेवेति स्थितं, ते चाज्ञानिकाः सप्तषष्टिसङ्ख्या असुनोपायेन प्रतिपत्तव्याः, इह जीवाजीवादीन् नव पदार्थान् क्वचित्पट्टिकादौ व्यवस्थाप्य पर्यन्ते उत्पत्तिः स्थाप्यते, तेषां च जीवाजीवादीनां नवानां पदार्थानां प्रत्येकमधः सप्त सत्त्वादयो न्यस्यन्ते, तद्यथा— सत्त्वमसत्त्वं सदसत्यमवाच्यत्वं सदवाच्यत्वमसदवाच्यत्वं सदसदवाच्यत्वं चेति । तत्र सत्त्वं स्वरूपेण विद्यमानत्वं, असवं पररूपेणाविद्यमानत्वं सदसत्त्वं | खरूपपररूपाभ्यां विद्यमानाविद्यमानत्वं तत्र यद्यपि सर्व वस्तु स्वरूपपररूपाभ्यां सर्वदैव स्वभावत एव सदसत् त १ छोऽच्छस्य यथा उक्तमेवानुभाषते । न हेतुं तस्य विजानाति, भाषितं खनुभाषते ॥१॥ एवमहानिका ज्ञानं वदन्तः भाषितं खकम् (भाषन्ते खयं । निश्वयार्थ न जानन्ति म्लेच्छा इव अयोधिकाः ॥ २ ॥ For Penal Use On ~ 436~ ५ १० ११ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [४७]/गाथा ||८१...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: M 4 प्रत सूत्रांक % A [४७] 4 श्रीमलय- थापि कचित् किश्चित्कदाचिदुतं प्रमात्रा विवक्ष्यते तत एवं त्रयो विकल्पा भवन्ति, तथा तदेव सत्त्वमसत्वं च यदा अज्ञानवायगिरीया | युगपदेकेन शब्देन वक्तुमिष्यते तदा तद्वाचकः शब्दः कोऽपि न विद्यते इति अवाच्यत्वं, एते चत्वारोऽपि विकल्पाधिकारः नन्दीवृत्ति सकलादेशा इति गीयन्ते, सकलवस्तुविषयत्वात् , यदा त्वेको भागः सन्नपरश्चावाच्यो युगपद्विवक्ष्यते तदा सदवाच्यत्वं, ॥२१७॥ यदा त्वेको भागोऽसन्नपरश्चावाच्यस्तदाऽसदवाच्यत्वं, यदा खेको भागः समपरश्वासन परतरश्चावाच्यस्तदा सदसदवा-181 च्यत्वमिति, न चैतेभ्यः सप्तविकल्पेभ्योऽन्यो विकल्पः सम्भवति, सर्वस्यैतेष्वेव मध्येऽन्तर्भावात् , ततस्सप्त विकल्पा उपन्यस्ताः, सप्त विकल्या नवभिगुणिता जातास्त्रिषष्टिः, उत्पत्तेश्चत्वार एचाऽऽद्या विकल्पाः, तद्यथा-सत्त्वमसत्त्वं सदसत्त्वमवाच्यत्वं चेति, एते चत्वारोऽपि विकल्पास्त्रिषष्टिमध्ये प्रक्षिप्यन्ते ततः सप्तषष्टिर्भवति, तत्र को जानाति दजीवः सन्नित्येको विकल्पः, न कश्चिदपि जानाति, तद्वाहकप्रमाणाभावादिति भावः, ज्ञातेन वा किं तेन प्रयोजनं, ज्ञानस्याभिनिवेशहेतुतया लोके प्रतिपन्थित्वात् , एवमसदादयोऽपि विकल्पा भावनीयाः, उत्पत्तिरपि किं सतोऽसतः। सदसतोऽवाच्यस्य वेति को जानाति ?, ज्ञातेन वा किं, न किञ्चिदपि प्रयोजनमिति ॥ तथा विनयेन चरन्तीति वैनयिकाः, एते चानवधृतलिङ्गाचारशास्त्रा विनयप्रतिपत्तिलक्षणा वेदितव्याः, ते च द्वात्रिंशत्सङ्ख्या अमुनोपायेन द्रष्ट ॥२१७॥ व्याः-सुरनृपतियतिज्ञातिस्थविराधमातृपितृरूपेष्वष्टसु स्थानेषु कायेन वाचा मनसा दानेन देशकालोपपन्नेन विनयः कार्य इति चत्वारः कायादयः स्थाप्यन्ते, चत्वारश्चाष्टभिर्गुणिता जाता द्वात्रिंशत् ॥ एतेषां च त्रयाणां त्रिषष्ट्य- २४ दीप अनुक्रम [१४०] %AR AHARASHTRA Hindurary.orm ~ 437~ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४७]/गाथा ||८१...|| ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४७]] धिकानां पाखण्डिकशतानां प्रतिक्षेपः सूत्रकृताङ्गे शेषेषु च प्रकरणेषु पूर्षाचार्यैरनेकधा युक्तिभिः कृतस्ततो ययमपि अज्ञानवाद्यस्थानाशून्यार्थं पूर्वाचार्यकृतं तेषां प्रतिक्षेपं सझेपतो दर्शयामः-तत्र ये कालवादिनः सर्व कालकृतं मन्यन्ते तान् | धिकारः प्रति ब्रूमः-कालो नाम किमेकखभावो नित्यो व्यापी? किंवा समयादिरूपतया परिणामी?, तत्र यद्याद्यः पक्षः तदयुक्तं, तथाभूतकालग्राहकप्रमाणाभावात् , न खलु तथाभूतं कालं प्रत्यक्षेणोपलभामहे, नाप्यनुमानेन, तदविनाभाविलिङ्गाभावात् , अथ कथं तदविनाभाविलिङ्गाभाषो? यावता दृश्यते भरतरामादिषु पूर्यापरव्यवहारः, स च न वस्तुस्वरूपमात्रनिमित्तो, वर्तमाने च काले वस्तुस्वरूपस्य विद्यमानतया तथाव्यवहारप्रवृत्तिप्रसक्तेः, ततो यन्निमित्तोऽयं भरतरामादिषु पूर्वोपरग्यवहारः स काल इति, तथाहि-पूर्वकालयोगी पूर्वो भरतचक्रवर्ती अपरकालयोगी चापरोरामादिरिति, ननु यदि भरतरामादिषु पूर्वापरकालयोगतः पूर्वापरव्यवहारस्तर्हि कालस्यैव कथं स्वयं पूर्वापरव्यवहारः, तदन्यकालयोगादिति चेत् , न, तत्रापि स एव प्रसङ्ग इत्यनवस्था, अथ मा भूदेष दोष इति तस्य खयमेव पूर्वत्वमपरत्वं चेष्यते नान्यकालयोगादिति, तथा चोक्तम्-"पूर्वकालादियोगी यः, स पूर्वाद्यपदेशभाक् । पूर्वापरत्वं तस्यापि, स्वरूपादेव |नान्यतः ॥ १॥" तदप्याकण्ठपीतासवप्रलापदेशीयं, यत एकान्तेनैको व्यापी नित्यः कालोऽभ्युपगम्यते, ततः कथं तस्य पूर्णादित्यसम्भवः, अथ सहचारिसम्पर्कपशादेकस्यापि तथात्वकल्पना, तथाहि-सहचारिणो भरतादयः पूर्वोः । अपरे च रामादयोऽपरास्ततस्तत्सम्पर्कवशात्कालस्यापि पूर्वापरव्यपदेशः, भवति च सहचारिणो व्यपदेशो यथा मचाः दीप अनुक्रम [१४०] ~ 438~ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [ ४७ ] दीप अनुक्रम [१४०] श्रीमलय गिरीया नन्दीष्वृत्तिः ॥२१८॥ “नन्दी” - चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ४७ ] / गाथा ||८९... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः क्रोशन्तीति, तदेतदपि बालिशजल्पितम्, इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात्, तथाहि सहचारिणां भरतादीनां पूर्वादित्वं काॐ लगत पूर्वादित्वयोगात् कालस्य च पूर्वादित्वं सहचारिभरतादिगतपूर्वादित्वयोगतः, तत एकासिद्धावन्यतरस्याप्यसिद्धिः, उक्तं च “एकस्वव्यापितायां हि, पूर्वादित्वं कथं भवेत् । सहचारिवशात्तचेदन्योऽन्याश्रयताऽऽगमः ॥ १ ॥ सहचारिणां हि पूर्वत्वं, पूर्वकालसमागमात् । कालस्य पूर्वादित्वं च, सहचार्यवियोगतः ॥ २॥ प्रागसिद्धावेकस्य कथमन्यस्य सिद्धिरिति तन्नायं पक्षः श्रेयान्, अथ द्वितीयः पक्षः, सोऽप्ययुक्तो, यतः समयादिरूपे परिणामिनि कालेऽविशिष्टेऽपि फलवैचित्रयमुपलभ्यते, तथाहि - समकालमा रम्यमाणाऽपि मुद्रपक्तिरविकला कस्यचिद् दृश्यते अपरस्य तु कालान्तरेऽपि न, तथा समकालमेकस्मिन्नेव राजनि सेव्यमाने सेवकस्यैकस्य फलमचिराद् भवति अपरस्य तु कालान्तरेऽपि न, तथा समकालमपि क्रियमाणे कृष्यादिकर्म्मण्येकस्य परिपूर्णा धान्यसम्पदुपजायते अन्यस्य तु खण्डस्फुटिता न वा किञ्चिदपि ततो यदि काल एव केवलः कारणं भवेत् तर्हि सर्वेषामपि सममेव मुद्द्रवत्त्वादि फलं भवेत् न च भवति तस्मान्न कालमात्रकृतं विश्ववैचित्र्यं, किन्तु कालादिसामग्रीसापेक्षं तत्तत्कर्म्मनिबन्धनमिति स्थितं ॥ यदपि |चेश्वरवादिनो ब्रुवते - 'ईश्वरकृतं जगदिति तदप्यसमीचीनं, ईश्वरग्राहकप्रमाणाभावात्, अचास्ति तद्वाहकं प्रमाणमनुमानं, तथाहि--यत्स्थित्वा स्थित्वाऽभिमतफलसम्पादनाय प्रवर्त्तते तद्बुद्धिमत्कारणाधिष्ठितं यथा वास्यादि द्वैधी- ४२५ करणादौ, प्रवर्त्तते च स्थित्वा स्थित्वा सकलमपि विश्वं स्वफलसाधनायेति, न खलु वास्यादयः खयमेव प्रवर्तन्ते, तेषामचे- ८ Education Internationa For Para Lise Only ~439~ अज्ञानवाद्यविकारः २० ॥२१८॥ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [४७]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४७]] तनत्वात् , खभावत एव चेत्प्रवर्त्तन्ते तर्हि सदैव तेषां प्रवर्तनं भवेत् , न च भवति, तस्मादवश्यं स्थित्वा खित्वा अज्ञानवाद्यप्रवर्त्तने केनचित्प्रेक्षावता प्रवर्तकेन भवितव्यं, सकलस्यापि च जगतः स्थित्वा २ फलं साधयतः प्रवर्तक ईश्वर एवो-18|धिकार: |पपद्यते, नान्य इतीश्वरसिद्धिः, तथाऽपरमनुमान-यत्पारिमण्डल्यादिलक्षणसन्निवेशविशेषभाक् तवेतनावत्कृतं, यथा घटादि, पारिमण्डल्यादिलक्षणसन्निवेशविशेषमाक् च भूभूधरादिकमिति, तदेतदयुक्तं, सिद्धसाधनेन पक्षस्व प्रसिद्धसम्बन्धत्वात् , तथाहि-सकलमपीदं विश्ववैचित्र्यं वयं कर्मनिबन्धनमिच्छामो, यतोऽमी वैतात्यहिमवदादयः पर्वता भरतैरावतविदेहान्तरद्वीपादीनि क्षेत्राणि तथा तथा प्राणिनां सुखदुःखादिहेतुतया यत्परिणमन्ते तत्र तथापरिणमने तत्तन्निवासिनामेव तेषां जन्तूनां कर्म कारणमवसेयं, नान्यत्, तथा च दृश्यते एव पुण्यवति राज्यमनुशासति भूपती तत्कर्मप्रभावतः सुभिक्षादयः प्रवर्त्तमानाः, कर्म च जीवाश्रितं, जीवाश्च बुद्धिमन्तश्चेतनावत्त्वात् , ततो बुद्धिमत्कारणाधिष्ठितत्वे चेतनावत्कृतत्वे च साध्यमाने सिद्धसाधनं, अथ बुद्धिमान चेतनावान् वा विशिष्ट एवेश्वरः कश्चित्साध्यते तेन न सिद्धसाधनं, तर्हि दृष्टान्तस्य साध्यविकलता, वास्यादौ च घटादौ चेश्वरस्याधिष्ठायकत्वेन कारणत्वेन वा व्याप्रियमाणस्थानुपलभ्यमानत्वादू, वार्द्धकिकुम्भकारादीनामेव तत्रान्वयतो व्यतिरेकतो वा व्याप्रियमाणानां निश्चीयमानत्वात् , अथ वार्धक्यादयोऽपि ईश्वरप्रेरिता एव तत्र २ कर्मणि प्रवर्तन्ते न खतः ततो न दृष्टान्तस्य साध्यविफलता, नन्वेवं तर्हि ईश्वरोऽप्यन्येनेश्वरेण प्रेरितः खकर्मणि प्रवर्तते,न खतो.विशेषाभावात् ,सोऽप्यन्येनेश्वरेण प्रेरित इति विकाल दीप अनुक्रम [१४०] RAKAASAALS SARETantramatara ~440~ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: गिरीया अजानवाथधिकार: प्रत सूत्रांक [४७]] श्रीमलय-1द्रासन्ध्यायां तमःसन्ततिरिवाइष्टपर्यन्ता ध्यानध्यमापादयन्ती प्रसरत्यनयस्था, अथ मन्येथा वार्द्धयादिको जन्तुःसर्वोऽपि खरूपेणाज्ञस्ततः स प्रेरित एव खकर्मणि प्रवर्तते भगवास्त्वीश्वरः सकलपदार्थज्ञाता ततो नासौ खकर्मण्यन्यं स्वनन्दीवृत्तिः प्रेरकमपेक्षते तेन नानवस्था, तदप्यसत् , इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात् , तथाहि-सकलपदार्थयथाऽवस्थितस्वरूपज्ञा॥२१९|| तृत्वे सिद्धे सत्यन्याप्रेरितत्वसिद्धिः अन्याप्रेरितत्वसिद्धौ च सकलजगत्करणतः सर्वज्ञत्वसिद्धिरित्येकासिद्धावन्यतरस्या प्यसिद्धिः, अपिच-यघसौ सर्वज्ञो वीतरागश्च तत्किमर्थमन्यं जनमसद्व्यवहारे प्रवर्तयति ?, मध्यस्था हि विवेकिनः सद्व्यवहार एवं प्रवर्तयन्ति, नासद्व्यवहारे, स तु विपर्वयमपि करोति, ततः कथमसौ सर्वज्ञो वीतरागो पा', अयोध्येत-सद्व्यवहारविषयमेव भगवानुपदेशं ददाति तेन सर्वज्ञो वीतरागश्च, यस्त्वधर्मकारी जनसमूहस्तं फलमसदमुभाषचति येन स तस्मादधर्माद् व्यावतते, तह उचितफलदायित्वाद्विवेकवानेष भगवानिति न कश्चिदोपः, तदप्यसमीक्षिताभिधानं, यतः पापेऽपि प्रथम स एव प्रवर्सयति नान्यो, न च स्वयं प्रवर्तते, तस्माज्ञत्वेन पापे धर्मे या स्वयंप्रवृत्तेरयोगात्, ततः पूर्व पापे प्रवर्य तत्फलमनुभान्य पश्चाद्धम्र्मे प्रवर्त्तयतीति केयमीश्वरस्य प्रेक्षापूर्वकारिता ?, अथ पाषेऽपि प्रथमं प्रपतयति तत्कर्माधिष्ठित एव, तथाहि-तदेव तेन जन्तुना कृतं कर्म यदशात्ताप एव प्रवर्तते, ईश्वरोऽपि च भगवान् सर्वज्ञस्तथारूपं तस्कर्म साक्षात् ज्ञात्वा तं पाप एव प्रवर्तयति, तत्र उचितफलदायित्वान्नाप्रेक्षापूर्वकारीति, मनु सदपि कर्म तेनैव कारित, सतस्तदपि कस्मात्प्रथमं कारयतीति स एवाप्रेक्षापूर्व दीप अनुक्रम [१४०] ॥२१॥ ~441~ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४७]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४७]] कारिताप्रसङ्गः, अथाधर्ममसीन कारयत्ति, किन्तु स्वत्त एवासौ अधर्मामाचरति, अधर्मकारिणं सु तं तत्फलमसदनु- अज्ञानवाद्यभावयति, तदन्येश्वरयत् , तथाहि-तदन्ये ईश्वरा राजादयो नाधर्मे जनं प्रवर्तवन्ति अधर्मफलं तु प्रेष्यादिकमनुभावय-18 विकारः |न्ति तहगवानीश्वरोऽपि, तदप्ययुक्तं, अन्ये हि ईश्वरा न पापप्रतिषेधं कारयितुमीशाः, न हि नाम राजानोऽपि उग्रशासनाः पापे मनोवाकायनिमिते (प्रवृत्त) सर्वथा प्रतिषेधयितुं प्रभविष्णवः, स तु भगवान् धर्माधर्मविधिप्रतिषेधविधापनसमर्थ इष्यते ततः कथं पापे प्रवृत्तं न प्रतिषेधवति ?, अप्रतिषेधतश्च परमार्थतः स एव कारयति, तत्फलश्च (ख) १५ | पश्चादनुभावनादिति तदवस एव दोषः, अब पापे प्रपर्तमान प्रतिषेधयितुमशक्त इष्यते तर्हि नैवोचकैरिदमविधा-181 तव्यं सर्वमीश्वरेण कृतमिति, अपिच-यघसी खयमधर्म करोति तथा धर्ममपि करिष्यति फलं च सबमेवर भोक्ष्यते ततः किमीवरकल्पनया विधेयमिति !, उक्तं च-"खशक्तयाऽन्येश्वराः पापप्रतिषेधं न कुर्वते । स त्वत्सन्तमशक्तेभ्यो, ब्यावृत्तमतिरिवते ॥ १॥ अवाप्यशक्त एचासौ, तथा सति परिस्फुटम् । नेश्वरेण कृतं सर्पमिति वक्तस्वमुच्चकैः ॥२॥ पापवस्स्वर्थकारित्वाद्धर्मादिरपि किं ततः" । इति, अथ प्रयीथाः-खबमसौ धर्माधम्मों करोति,8|१० तत्फलं त्वीश्वर एव भोजबति, तस्य धर्माधर्मफलभोगे स्वयशक्तत्वादिति, तदप्यसत् , यतो पो नाम खयं धर्या-161 धर्मों विधातुमलं स कथं तत्फलं स्वपमे न भोक्तुमीशः?, न हि पक्तुमोदनं समर्थो न भोक्तुमिति लोके प्रतीतं, अधवा भवत्येतदपि तथाऽध्यसी धर्मफलमुम्मसदेषाङ्गमासंस्पर्शादिरूपमनुभाषपतु, सस्पेष्टत्वात्, अधर्मफलं तु नरक-181१३ दीप अनुक्रम [१४०] ~442~ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [४७]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४७]] ॥२२०॥ श्रीमलय-18/प्रपातादिरूपं कस्मादनुभावयति ?, न हि मध्यस्थभावमवलम्बमानाः परमकरुणापरितचेतसः प्रेक्षावन्तो निरर्थके पर- बान गिरीया पीडाहेती कर्मणि प्रवर्तन्ते, क्रीडार्था भगवतस्तथा प्रवृत्तिरिति चेत्, यद्येवं तर्हि कथमसौ प्रेक्षावान् ?, तस्य हिधिकार: प्रवर्त्तने क्रीडामात्रमेव फलं, ते पुनः प्राणिनः स्थाने २ प्राणैर्वियुज्यन्ते, उक्तं च-"क्रीडार्था तस्य वृत्तिश्चेत्, प्रेक्षापूर्वक्रिया कुतः । एकस्य क्षणिका तृप्तिरन्यः प्राणैर्विमुच्यते ॥१॥" अपिच-क्रीडा लोके सरागस्योपलभ्यते। | भगवांश्च वीतरागः ततः कथं तस्य क्रीडा सङ्गतिमङ्गति ?, अथ सोऽपि सराग इष्यते तर्हि शेषजन्तुरियावीतरागत्वात् न सर्वज्ञो नापि सर्वस्य कर्तेत्यापतितं, अथ रागादियुतोऽपि सर्वज्ञः सर्वस्य कर्ता च भवति तथाखभावत्वात् ततो न कश्चिदोषो, न हि खभावे पर्यनुयोगो घटनामुपपद्यते, उक्तं च-"इदमे न वेत्येतत्कस्य पर्यनुयो-11 ज्यताम् ? । अग्निदहति नाकाशं, कोऽत्र पर्यनुयुज्यताम् ? ॥१॥" तदेतदसम्यक् , यतः प्रत्यक्षतस्तथारूपखभावेऽवगते यदि पर्यनुयोगो विधीयते तत्रेदमुत्तरं विजृम्भते-यथा खभावे पर्यनुयोगो न भवतीति, यथा प्रत्यक्षेणोपलभ्यमाने बढेर्दाबं दहतो दाहकत्वरूपे खभावे, तथाहि-यदि तत्र कोऽपि पर्यनुयोगमाधत्ते-यथा कथमेष वहिदाहकखभायो जातो?, यदि वस्तुत्वेन तर्हि व्योमापि किं न दाहकस्वभावं भवति ?, वस्तुत्वाविशेषादिति, तत्रेदमुत्तरं ४ ॥२२०॥ विधीयते, दाहकत्वरूपो हि खभावो वः प्रत्यक्षतः एवोपलभ्यते, ततः कथमेष पर्यनुयोगमहति?,न हिरटेऽनुपपन्नता नाम, तथा चोक्तम्- "खभावेऽध्यक्षतः सिद्धे, यदि पर्यनुयुज्यते । तत्रेदमुत्तरं वाच्यं, न दृष्टेऽनुपपन्नता ॥१॥"| दीप अनुक्रम [१४०] CCCCCASCAR ~443~ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) (४४) ................................... मूल [४७]/गाथा ||८१...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४७]] 64682 ईश्वरस्तु सर्वजगत्कतृत्वेन सर्वज्ञत्वेन च नोपलब्धः, ततस्तत्र तथाखमावत्वकल्पनाऽवश्यं पर्यनुयोगमाश्रयते, यदि ज्ञानवायपुनरदृष्टेऽपि तथाखभावता कल्पना पर्यनुयोगानाश्रयाऽभ्युपगम्येत तर्हि सर्वोऽपि वादी तं तं पक्षमाश्रयन् परेण वि- धिकार। क्षोभितस्तत्र तत्र तथास्वभावताकल्पनेन परं निरुत्तरीकृत्य लब्धजयपताक एव भवेत् , उक्तं च-“यत्किञ्चिदात्मा-IN ऽभिमतं विधाय, निरुत्तरस्तत्र कृतः परेण । वस्तुखभावैरिति वाच्यमित्थं, तदोत्तरं स्वाद्विजयी समस्तः ॥१॥" किंच-सर्वं यदि जगदीश्वरकृतं मन्यते तर्हि सर्वाण्यपि शास्त्राणि सकलदर्शनगतानि तेन प्रवर्तितानीति प्राप्तं, तानि |च शास्त्राणि परस्परविरुद्धार्थानि, ततोऽवश्यं कानिचित् सत्यानि कानिचिदसत्यानि, ततः सत्यासत्योपदेशदानात् | कथमसी प्रमाणम् ?, उक्तं च-"शास्त्रान्तराणि सर्वाणि, यदीश्वरविकल्पतः। सत्यान्योपदेशश्च (स्य) प्रमाणं दानतः कथम् ? ॥१॥" अथ न सकलानि शास्त्राणीश्वरेण कारितानि किन्तु सत्यान्येव ततो न कश्चिदोषावकाशः, तर्हि शास्त्रान्तरवदेव नेश्वरेणान्यदपि व्यधायीति हता तब पक्षसिद्धिरिति । अन्यच्च-पारम्भूतं संस्थानादि बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्येनोपलब्धं तारग्भूतमेवान्यत्रापि बुद्धिमन्तमात्मनो हेतुमनुमापयति, यथा जीर्णदेवकूलकूमादिगतं, न शेष, न हि सन्ध्याऽभ्रमरागवल्मीकादिगतसंस्थानाद्यात्मनो बुद्धिमन्तं कर्तारमनुमापयति, तथाप्रतीतेरभावात , तद्तस्य संस्थानादेर्बुद्धिमत्कारणत्वेन निश्चयाभावात् , तथा भूभूधरादिगतमपि संस्थानादिकं न बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वेन निश्चितमिति कथं तदशादुद्धिमतः कर्तुरनुमानम् ?,अथ मन्येथाः-तदपि संस्थानादि तादग्भूतमेव संस्थानादिशब्दवाच्यत्वात, दीप अनुक्रम [१४०] M ~ 444~ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४७]/गाथा ||८१...|| .... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४७] श्रीमलय-धन चैवं तत्कर्तुर्बुद्धिमतोऽनुमाने काश्चिदपि वाघायुपलभामहे सतः सधैं सुस्थमिति,तदबुक,शम्दा हि रूढिवशाजात्य-अमानवाबगिरीयान्तरेऽपि प्रवर्तन्ते, सतःशब्दसाम्पादि तथारूपवस्वनुमानसहि बोत्वावागादीनामपि पिचाणिताऽनुमीयतां, पिश-8 धिकार नन्दीधचिः पाभावात् , अब तत्र प्रवक्षेष पाधोपलभ्यते ईश्वराबुमाने तुरततो न कधिदोष इति, खदेतदतीय प्रमाणमार्यान॥२२॥ |भिज्ञतासूचकं, यतो वत्त एव सत्र प्रत्यक्षेण बायोफ्लम्मोऽत एव चान्यत्रापि शब्दसाम्यालथारूपवस्त्वनुमानं कर्त्तन्वं, प्रत्यक्षत एव शब्दसाम्यस्य वस्तुतथारूपेण सहाविनामावित्यवाभावावयमात, न घबाधकमत्र नोपलभ्यते इस्खे|वानुमानं प्रवर्तते, किन्तु वस्तुसम्बन्धबलात्, तथा चोक्तम्-न र बाध्यत इत्येवमनुमान प्रवसते । सम्बन्धदर्श भात्तस्य, प्रबर्सनमिहेष्यते ॥ १॥” इति, सव सम्पन्धोत्र न विद्यते, तद्वाहकत्रमाणाभायात् , सतोऽनैकान्तिकता हितोः, इत्वं चेतदशीकर्तव्यं, अन्यथा यो यो मृद्विकारः स स कुम्भकारकृतो यथा घटादिः, मृद्विकारवायं बल्मीकः तस्मात् कुम्भकारकृत इत्यनुमानं समीचीनसामाचनीस्कन्धते, वाधकादर्शनात् , अवासि बाधकमत्रादर्शनं, तथाहियदि तत्र कुम्भकारः कर्ता भवेत् तर्हि कदाचिदुपलभ्येत न चोपलभ्यते तस्यादेतदयुक्तमिति, तदेतदीश्वरानुमाचे|ऽपि समान, यदि हि सर्वस्यापि वस्तुजातस्येश्वरः कर्ता तर्हि कचित्कदाचिदुपलभ्येत न थोषलभ्यते तस्मात्तदप्य P3 ॥२२॥ 1 लीकमिति कृतं प्रसझेन ॥ येऽपि चात्मवादिनः 'पुरुष एवेदं सर्वमिति प्रतिपन्नास्तेऽपि महामोहमहोरगगरलपूरमू-18] २५ Iछितमानसा वेदितव्याः, तथाहि-यदि नाम पुरुषमात्ररूपमद्वैतं सत्त्वं तर्हि यदेतदुपलभ्यते सुखित्वदुःखित्वादि दीप अनुक्रम [१४०] For Pare ~445~ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [ ४७ ] दीप अनुक्रम [१४०] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ४७ ] / गाथा ||८९... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः तत्सर्वं परमार्थतोऽसत् प्राप्नोति, ततश्चैवं स्थिते यदेतदुच्यते - ' प्रमाणतोऽधिगम्य संसारनेर्गुण्यं तद्विमुखया प्रज्ञया तदुच्छेदाय प्रवृत्ति' रित्यादि तदेतदाकाशकुसुमसौरभवर्णनोपमानमवसेयं, अद्वैतरूपे हि तत्ये कुतो नरकादिभवभ्रमणरूपः संसारो ? यन्नैर्गुण्यमवगम्य तदुच्छेदाय प्रवृत्तिरुपपद्यते, यदप्युच्यते- पुरुषमात्रमेवाद्वैतं तत्त्वं यत्तु संसारनैर्गुण्यं भावभेददर्शनं च तत्सर्वदा सर्वेषामविगामप्रतिपत्तावपि चित्रे निम्नोश्नतमे ददर्शनमिव श्रान्तमवसेयमिति, तदप्यचारु, एतद्विपयवास्तवप्रमाणाभावात्, तथाहि -नाद्वैताभ्युपगमे किञ्चिदद्वैतग्राहकं ततः पृथग्भूतं प्रमाणमस्ति, द्वैतत्वप्रस केः, न च प्रमाणमन्तरेण निष्प्रतिपक्षा तत्त्वव्यवस्था भवति, मा प्रापत्सर्वस्य सर्वेष्टार्थसिद्धिप्रसङ्गः, तथा भ्रान्तिरपि प्र| माणभूताद्वैताद् भिन्नाऽभ्युपगन्तव्या, अन्यथा प्रमाणभूतमद्वैतमप्रमाणमेव भवेत्, तदव्यतिरेकात्, तत्स्वरूपवत्, तथा च कुतस्तत्त्वव्यवस्था ?, भिन्नायां च भ्रान्तावभ्युपगम्यमानायां द्वैतं प्रसक्तमित्यद्वैत हानिः अपि च-यदीदं सम्भा भः कुम्भाम्भोरुहादिभाव मेददर्शनं भ्रान्तमुच्यते तर्हि नियमात्तदपि कचित्सत्यमवगन्तव्यं, अभ्रान्तदर्शनमन्तरेण श्रान्तेरयोगात्, न खलु येन पूर्वमासीविषो न दृष्टस्तस्य रज्ज्यामासीविषभ्रान्तिरुपजायते, यदुकं - "मारटपूर्वसर्वस्य, रजयां सर्पमतिः कचित् । ततः पूर्वानुसारित्वाद्धांन्तिरभ्रान्तिपूर्विका ॥ १ ॥” तत एवमप्यव्याहतो भेदः, अन्यच'पुरुषाद्वैतरूपं तत्त्वमवश्यं परसे निवेदनीयं नात्मने, आत्मनो व्यामोहाभावात्, बिमोहश्चेदद्वैतप्रतिपत्तिरेव न भवेत्, अथोच्येत-यत एव व्यामोहोत एव तन्निवृस्वर्थमात्मनोऽद्वैतप्रतिपत्तिरास्थेया, तदयुक्तम्, एवं सत्यद्वैतप्रति For Parts Only ~446~ अज्ञानवाद्यघिकारः ५. १० १३ wor Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४७]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत श्रीमलय- नन्दीवृत्तिः ॥२२२॥ सूत्रांक [४७]] दीप अनुक्रम [१४०] पत्त्याधानेनात्मनो व्यामोहे निवर्त्यमानेऽवश्यं पूर्वरूपत्यागोऽपररूपस्य चाव्यामूढतालक्षणस्योत्पत्तिरित्यद्वैतप्रतिज्ञा-अज्ञानवाद्यहानिः, परस्मै च प्रतिपादयनियमतः परमभ्युपगच्छेत् , परं चाभ्युपगच्छन् तस्मै चाद्वैतरूपं तत्त्वं निवेदयन् पिता मे धिकारः कुमारब्रह्मचारीत्यादि वदन्निव कथं नोन्मत्तः १, खपराभ्युपगमेनाद्वैताचसो बाधनादिति यत्किञ्चिदेतत् ॥ यदपि च नियतिवादिन उक्तवन्तो-नियतिर्नाम तत्त्वान्तरमस्तीति,तदपि ताङ्यमानाऽतिजीर्णघट इव विचारताडनमसहमान शतशो विशरारुभावमाभजते, तथाहि-तन्नियतिरूपं नाम तत्त्वान्तरं भावरूपं वा स्यादभावरूपं वा ?, यदि भावरूपं तर्हि किमेकरूपमनेकरूपं वा ?, यद्यकरूपं ततस्तदपि नित्यमनित्यं वा?, यदि निसं कथं भावानां हेतुः?, नित्यस्य कारणत्वायोगात् , तथाहि-नित्यमाकालमेकरूपमुपवयेते, अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकखभावतया नित्यत्वस्य व्यावण्णनात् , ततो यदि तेन रूपेण कार्याणि जनयति तर्हि सर्वदा तेन रूपेण जनयेत् , विशेषाभावात् , न च सर्वदा तेन रूपेण जनयति, कचित्कदाचित्तस्य भावस्य दर्शनात् , अविच-यानि द्वितीयादिषु क्षणेषु कर्तव्यानि कार्याणि तान्यपि प्रथमसमय एवोत्पादयेत् , तत्कारणखभावस्य तदानीमपि विद्यमानत्वात् , मा वा द्वितीयादिष्वपि । २२२॥ क्षणेषु, विशेषाभावात् , विशेषे वा बलादनित्यत्वं, 'अतादवस्थ्यमनित्यतां ब्रूम' इति वचनप्राण्यात् , अथाविशिष्टमपि नित्यं तं तं सहकारिणमपेक्ष्य कार्य विधत्ते, सहकारिणश्च प्रतिनियतदेशकालभाविनः, ततः सहकारिभाषाभावाभ्यां कार्यस्य क्रम इति, तदप्यसमीचीन, यतः सहकारिणोऽपि नियतिसम्पाद्याः, निपतिश्च प्रथमक्षणेऽपि त २५ ~447~ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४७]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत E56425% सूत्रांक [४७]] %2% 4 करणखभावा, द्वितीयादिषु क्षणेषु तत्करणस्वभावताऽभ्युपगमे नित्यत्वक्षितिप्रसङ्गात् , ततः प्रथमेऽपि क्षणे सर्वसहका वातासमक्ष सपसहका-आज्ञनवाद्यरिणां सम्भवात् सकलकार्यकरणप्रसङ्गः, अपिच-सहकारिषु सत्सु भवति कार्य तदभावे च न भवति ततः सहकारिणामे- 1धिकार:वान्वयव्यतिरेकदर्शनात् कारणता परिकल्पनीया, न नियतेः, तत्र व्यतिरेकासम्भवात् , उक्तं च-"हेतुताऽन्वयपूर्वेण, व्यतिरेकेण सिध्यति । नित्यस्याव्यतिरेकस्य, कुतो हेतुत्वसम्भवः? ॥१॥" अथैतद्दोषभयादनित्यमिति पक्षाश्रयणं तर्हि तस्य प्रतिक्षणमन्यान्यरूपतया भवनं, ततो बहुत्वभावादेकरूपमिति प्रतिज्ञाव्याघातप्रसाः, न च क्षणक्षयित्वे कार्यकारणभाव इति प्रागेवोपपादितम् । अन्यथ-यदि नियतिरेकरूपा ततस्तनिवन्धननिखिलकार्याणामेकरूपताप्रसङ्गः, न हि कारणभेदमन्तरेण कार्यस्य भेदो भवितुमर्हति, तस्य निर्हेतुकत्वप्रसक्तेः, अथानेकरूपमिति पक्षो, ननु साऽनेकरूपता न तदन्यनानारूपविशेषणमन्तरेणोएपद्यते, न खलु ऊपरेतरादिधराभेदमन्तरेण विहायसः पततामम्भसामनेकरूपता भवति, 'विशेषणं विना यस्मान्न तुल्यानां विशिष्टते'ति वचनप्रामाण्यात्, ततोऽवश्यं तदन्यानि नानारूपाणि विशेषणानि नियतेर्भेदकान्यभ्युपगन्तव्यानि, तेषां च नानारूपाणां विशेषणानां भावः किं तत एव नियतेर्भवेदुतान्यतः, यदि नियतेस्तस्याः खत एकरूपत्वात्कथं तन्निबन्धनानां विशेषणानां नानारूपता, अथ विचित्रकार्यान्यधाऽनुपपत्त्या सा विचित्ररूपाऽभ्युपगम्यते, ननु सा विचित्ररूपता विशेषणबाहुल्यसम्पर्कमन्तरेण न घटामञ्चति, ततसत्रापि विशेषणबाहुल्यमभ्युपगन्तव्यं, तेषामपि विशेषणानां भावः किं तत एव नियतेभेवेदुतान्यत इत्यादि तदेवाव - %9 दीप अनुक्रम [१४०] - 4 - 11१३ SUREIGulhinmarana ~ 448~ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [ ४७ ] दीप अनुक्रम [१४०] श्रीमलयनिरीया नन्दीवृत्तिः ॥२२३॥ “नन्दी” - चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ४७ ] / गाथा ||८९... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र- [ १ ] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः र्त्तते इत्यनवस्था, अथान्यत इति पक्षः, तदप्ययुक्तं, नियतिव्यतिरेकेणान्यस्य हेतुत्वेनानभ्युपगमादिति यत्किञ्चिदेतत् अज्ञानवाद्यकिंच-अनेकरूपमिति पक्षाभ्युपगमे भवतः प्रतिपन्थि विकल्पयुगलमुपढौकते-तद्धि मूर्त्तं वा स्यादमूर्त्त या ?, यदि मूर्त्त & धिकारः तर्हि नामान्तरेण कम्मैव प्रतिपन्नं, यस्मात्तदपि कर्म्म पुद्गलरूपत्वात् मूर्त्तमनेकं चास्माकमभिप्रेतं भवताऽपि च नि यतिरूपं तत्त्वान्तरमनेकं मूर्त्तं चाभ्युपगम्यते इत्यावयोरविप्रतिपत्तिः, अथामूर्त्तमित्यभ्युपगमस्तर्हि न तत्सुखदुःखनिबन्धनम्, अमूर्त्तत्वात्, न खल्वाकाशममूर्त्तमनुग्रहायोपघाताय वा जायते, पुद्गलानामेवानुग्रहोपघातविधान समर्थत्वात्, “जमणुग्गहोबघाया जीवाणं पुग्गलेहिंतो” इति वचनात् अथ मन्येथाः - दृष्टमाकाशमपि देशभेदेन सुखदुःखनिबन्धनं, तथाहि - मरुस्थलीप्रभृतिषु देशेषु दुःखं शेषेषु तु सुखमिति, तदप्यसत्, तत्रापि तदाकाशस्थिताना| मेव पुद्गलानामनुग्रहोपघातकारित्वात्, तथाहि-- मरुस्थलीप्रायासु भूमिषु जलविकलतया न तथाविधा धान्यसम्पत्, वालुकाकुलतया चाध्वनि प्राणिनां गमनागमनविधावतिशायी पदे २ खेदो निदाघे च खरकिरण तीव्र करनिकरसम्प|र्कतो भूयान् सभ्तापो जलाभ्यवहरणमपि खल्पीयो महाप्रयत्नसम्पाद्यं चेति महत्तत्र दुःखं, शेषेषु तद्विपर्ययात्सुखमिति तत्रापि पुद्गलानामेवानुग्रहोपघातकारित्वं नाकाशस्येति, अथाभावरूपमिति पक्षस्तदप्ययुक्तं, अभावस्य तुच्छरूपतया सकलशक्तययोगतः कार्यकारित्वायोगात्, नहि कटककुण्डलाद्यभावतः कटककुण्डलायुपजायते, तथादर्शनाभावात्, अन्यथा तत एव कटककुण्डलाद्युत्पत्तेर्विश्वस्यादरिद्रताप्रसङ्गः, नन्विह घटाभावो मृत्पिण्ड एवं तस्माचोप Education Internationa For Pasta Use Only ~ 449~ २० ॥२२ २५ mar Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [ ४७ ] दीप अनुक्रम [१४०] “नन्दी” - चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ४७ ] / गाथा ||८९... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः जायमानो दृश्यते घटस्ततः किमिहायुक्तं ?, न खलु मृत्पिण्डस्तुच्छरूपः खरूपभावात्, ततः कथमिव तस्य हेतुतानोपपत्तिमर्हति ?, तदप्य समीचीनं, यतो न य एव मृत्पिण्डस्य स्वरूपभावः स एवाभावो भवितुमर्हति भावाभावविरोधात्, तथाहि - यदि भावः कथमभावः ?, अथाभावः कथं भाव इति ?, अथोच्येत - खरूपापेक्षया भावरूपता पररूपापेक्षया चाभावरूपता ततो भावाभावयोर्भिन्ननिमित्तत्वान्न कश्चिद्दोष इति, नन्येवं मृत्पिण्डस्य भावाभावात्मकत्वाभ्युपगमेऽनेकान्तात्मकता स्वतन्त्रविरोधिनी भवतः प्राप्नोति, एवं हि ब्रुवाणा जैना एव सदसि विराजन्ते ये सर्व वस्तु स्वपरभावादिनाऽनेकान्तात्मकमभिमन्यन्ते न भवादृशा एकान्तग्रहग्रस्तमनसः स्यादेतत्-परिकल्पितस्तत्र पररूपाभावः खरूपभावस्तु तात्त्विकः ततो नानेकान्तात्मकत्वप्रसङ्ग इति, यद्येवं तर्हि कथं ततो मृत्पिण्डाद् घटभावः १, तत्र परमार्थतो घटप्रागभावस्याभावात्, यदि पुनः प्रागभावाभावेऽपि ततो घटो भवेत् तर्हि सूत्रपिण्डादेरपि कस्मान्न भवति ?, प्रागभावाभावाविशेषात् कथं वा ततो न खरविषाणमिति यत्किञ्चिदेतत् यदप्युक्तं यद्यदा यतो | भवति कालान्तरेऽपि तत्तदा तत एव नियतेनैव रूपेण भवदुपलभ्यते इति, तदप्ययुक्तमेव, कारणसामग्रीशक्तिनिय मतः कार्यस्य तदा तत एव तेनैव रूपेण भावसम्भवात् ततो यदुक्तं- 'अन्यथा कार्यकारणभावव्यवस्था प्रतिनियतरूपव्यवस्था च न भवेत्, नियामकाभावादिति, तद्बहिः प्लवते, कारणशक्तिरूपस्य नियामकस्य भावात् एवं च का रणशक्तिनैयत्यतः कार्यस्य नैयत्ये कथं प्रेक्षावान् प्रमाणपत्रकुशलः प्रमाणोपपन्नयुक्तिवाधितां नियतिमङ्गीकुरुते १, मा For Parsala Lise Only ~ 450~ ९ अज्ञानवाद्यfuerrt ५ १० १३ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४७]/गाथा ||८१...|| ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॥२२॥ [४७]] श्रीमलय-1 प्रापदप्रेक्षावत्ताप्रसङ्गः, एतेन यदाहुः स्वभाववादिनः-इह सर्वे भावाः खभावयशादुपजायन्ते' इति, तदपि प्रतिक्षि- I n गिरीया समवगन्तव्यं, उक्तरूपाणां प्रायस्तत्रापि समानत्वात् , तथाहि-खभावो भावरूपो या स्वादभावरूपा वा!, भावरू-प्राधिकार नन्दीकृत्तिः पोऽप्येकरूपोऽनेकरूपो वेत्यादि सर्व तदवस्थमेवात्रापि दूषणजालमुपढौकते, अपिच-यः खो भावः खभावः, आ त्मीयो भाव इत्यर्थः, स च कार्यगतो वा हेतुभवेत् कारणगतो वा ?, न तावत्कार्यगतो, यतः कार्ये परिनिष्पन्ने सति स कार्यगतः खभावो भविष्यति, नानिष्पन्ने, निष्पन्ने च कार्ये कथं स तस्य हेतुः?, यो हि यस्खालब्धलाभसम्पाद-18 नाय प्रभवति स तस्य हेतुः, कार्य च परिनिष्पन्नतया लब्धात्मलाभं, अन्यथा तस्यैव खभावस्याभावप्रसङ्गात् , ततः कथं स कार्यस्य हेतुर्भवति?, कारणगतस्तु स्वभावः कार्यस्य हेतुरस्माकमपि सम्मतः, स च प्रतिकारणं विभिन्नस्तेन मृदः २० कुम्भो भवति न पटादिः, मृदः पटादिकरणसभावाभावात्, तन्तुभ्योऽपि पट एव भवति न घटादिः. तन्तनां घ-18 टादिकरणे स्वभावाभावात् , ततो यदुच्यते-मृदः कुम्भो भवति न पटादि रित्यादि तत्सर्व कारणगतस्वभावाभ्युप-10 गमे सिद्धसाध्यतामध्यमध्यासीनमिति न नो बाधामादधाति, यदपि चोक्तम्-'आस्तामन्यत्कार्यजात'मित्यादि, ४ तदपि कारणगतखभावाङ्गीकारेण समीचीनमेवावसेय, तथाहि-ते ककटुकमुगाः स्वकारणवशतस्तथारूपा एव ॥२२॥ जाता ये स्थालीन्धनकालादिसामग्रीसम्पर्कऽपि न पाकमश्नुवते इति, खभावश्च कारणादभिन्न इति सर्व सकारण|| मेवेति स्थितम् , उक्तं च-"कारणगओ उ हेऊ केण व निहोत्ति निययक जस्सन य सो तओ विभिन्नो सकारणं कारगतस्तु (खभाषः) हे केन याने इति निजककार्यस्य । न च स (समावः) ततो विभिन्नः सकारणमेव सर्व ततः ॥१॥ दीप अनुक्रम [१४०] २५ ~ 451~ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४७]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४७]] सद्यमेव तओ ॥१॥” यदपि च यदृच्छावादिनः प्रलपन्ति-न खलु प्रतिनियतो वस्तूनां कार्यकारणभाव' इत्यादि, अज्ञानवायतदपि च कार्याकार्यादिविवेचनपटीयःशेमुषीविकलतासूचकमवगन्तव्यं, कार्यकारणभावस्स प्रतिनियततया सम्भ विकार वात् , तथाहि-यः शालूकादुपजायते शालूकः स सदैव शालूकादेव, न गोमयादपि, योऽपि च गोमयादुपजायते शालूकः (ग्रन्थानं ७०००) सोऽपि सदैव गोमयादेव न शालूकादपि, न चानयोरेकरूपता, शक्तिवर्णादिवैचित्र्यतः परस्परं जात्यन्तरत्वात् , योऽपि च बढेरुपजायते बहिः सोऽपि सदैव वहेरेव नारणिकाष्ठादपि, योऽपि चारणिकाष्ठादुपजायते सोऽपि सर्वदाऽरणिकाष्ठादेव न वहेरपि, यदपि चोक्तं-बीजादपि जायते कदली'त्यादि, तत्रापि परस्परं विभिन्नत्वात् एतदेवोत्तरम्, अपिच-या कन्दादुपजायते कदली साऽपि परमार्थतो बीजादेव वेदितव्या, परम्परया |बीजस्लेव कारणत्वात् , एवं वटादयोऽपि शाखैकदेशादुपजायमानाः परमार्थतो बीजादवगन्तव्याः, तथाहि-शाखातः शाखा प्रभवति, न च शाखा शाखाहेतुका लोके व्यवहियते, वटवीजस्यैव सकलशाखादिसमुदायरूपवटहेतुत्वेन प्र-15 सिद्धत्वात्, एवं शाखैकदेशादपि जायमानो वटः परमार्थतो मूलवटप्रशाखारूप इति मूलबटवीजहेतुक एवं सोऽपि ४ वेदितव्यः, तस्मान्न क्वचिदपि कारणकार्यव्यभिचारः, निपुणविचारप्रवीणेन च प्रतिपत्रा भवितव्यं, ततो न कश्चिद्दोषः, एवं च यदुच्यते-'न खल्वन्यथा वस्तुसद्भावं पश्यन्तोऽन्यथाऽऽत्मानं प्रेक्षावन्तः परिक्लेशयन्तीति, तद्वाङ्मात्रमि४ाति स्थितं । येऽपि चाज्ञानवादिनो 'न ज्ञानं श्रेयः, तस्मिन् सति परस्परं विवादयोगतश्चित्तकालुप्यादिभावतो दीर्घ दीप अनुक्रम [१४०] ~ 452~ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४७]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत नन्दीवत्ति: सूत्रांक [४७]] ५ श्रीमलय- तरसंसारप्रवृत्ते'रित्यायुक्तवन्तः तेऽप्यज्ञानमहानिद्रोपप्लुतमनस्कतया यत्किञ्चिद्भाषितवन्तो वेदितव्याः, तथाहि-आ-18 अज्ञानवाबगिरीया |स्तामन्यद् एतावदेव वयं पृच्छामः-ज्ञाननिषेधकं ज्ञानं वा स्यादज्ञानं वा ?, तत्र यदि ज्ञानं ततः कथमभाषिष्ट-अज्ञान धिकार मेव श्रेयो ?, नन्वेवं ज्ञानं श्रेयस्तामाचनीस्कन्यते, तदन्तरेणाज्ञानस्य प्रतिष्ठापयितुमशक्यत्वात् , तथा च प्रतिज्ञाव्या-| ॥२२५॥ घातप्रसङ्गः, अथाज्ञानमिति पक्षः सोऽप्ययुक्तः, अज्ञानस्य ज्ञाननिषेधनसामर्थ्यायोगात्, न खलु अज्ञानं साधनाय बाधनाय वा कस्यापि प्रभवति, अज्ञानत्वादेव, ततोऽप्रतिषेधादपि सिद्धं ज्ञानं श्रेयः, आह च-"नाणेनिसेहण-18| भाऊ नाणं इयर व होज्ज जइ नाणं । अम्भुवगमम्मि तस्सा कहं नु अन्नाणमो सेयं ॥१॥ अह अन्नाणं न तयं || नाणनिसेहणसमत्यमेवंपि । अप्पडिसेहाउ चिय संसिद्धं नाणमेवन्ति ॥२॥" यदप्युक्तं-'ज्ञाने सति परस्परं विवा-10२० दयोगतश्चित्तकालुप्यादिभाव' इति, तदप्यपरिभावितभाषितं, इह हि ज्ञानी परमार्थतः स एवोच्यते यो विवेकपूतात्मा ज्ञानगर्वमात्मनि सर्वथा न विधत्ते, यस्तु ज्ञानलवमासाधाकण्ठपीतासव इवोन्मत्तः सकलमपि जगत्तॄणाय मन्यते स परमार्थनाज्ञानी वेदितव्यो, ज्ञानफलाभावात् , ज्ञानफलं हि रागादिदोषगणनिरासः, स चेन्न भवति तर्हि न ॥२५॥ | परमाथतस्तत् ज्ञान, उक्तं च-"तज्ज्ञानमेव न भवति यस्मित्रुदिते विभाति रागगणः। तमसः कुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकर-18|२४ CAMERCECTUREMEMORE दीप अनुक्रम [१४०] कब का ज्ञाननिषेधन हेतुज्ञान मितरता भवेत् ! यदि शागम् । मभ्युपगमे तस्य कथं वहानं श्रेयः॥9॥ अथावान न तकत् शाननिषेधनसमर्थनेवमपि । मप्रति पेषादेव मंसिर ज्ञानमेवामिति ॥२॥ ~ 453~ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [ ४७ ] दीप अनुक्रम [१४०] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ४७ ] / गाथा ||८९... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः किरणाग्रतः स्थातुम् ? ॥ १ ॥" तत इत्थम्भूतो ज्ञानी विवेकपूतात्मा परहितकरणैकरसिको वादमपि परेषामुपकाराथेमाधत्ते, न यथाकथञ्चित्, तमपि च वादं वादिनरपतिपरीक्षकेषु निपुणबुद्धिषु मध्यस्थेषु सत्सु विधत्ते, नान्येषु, तथा तीर्थकरगणधरैरनुज्ञानात् उक्तं च- "वादोऽवि वाइनर व इपरिच्छगजणेसु निउणबुद्धीसुं । मज्झत्थेसु य विहिणा उस्सग्गेणं अणुण्णाओ ॥ १ ॥ " तत एवं स्थिते कथं नु नाम चित्तकालुष्यभायो ? यद्वशात् तीव्र तीव्रतर कर्मबन्धयोगतो दीर्घदीर्घतरसंसारप्रवृत्तिः सम्भवेत्, केवलं वादिनरपतिपरीक्षकाणामज्ञानापगमतः सम्यग्ज्ञानोन्मीलनं जायते, तथा च महदुपकारि ज्ञानमिति तदेव श्रेयः । यत्पुनरुच्यते- 'तीव्राध्यवसायनिष्पन्नः कर्मबन्धो दारुणविपाको भ वती'ति तदभ्युपगम्यते एव, न च तीनोऽध्यवसायो ज्ञाननिबन्धनः, अज्ञानिनोऽपि तस्य दर्शनात्, केवलज्ञाने सति यदि कथञ्चित्कर्म्मदोपतोऽकार्येऽपि प्रवृत्तिरुपजायते तथापि ज्ञानवशतः प्रतिक्षणं संवेगभावतो न तीत्रः परिणामो भवति, तथाहि यथा कश्चित्पुरुषो राजादिदुष्टनियोगतो विपमिश्रमन्नं जानानोऽपि भयभीतमानसो भुझे तथा सम्यग्ज्ञान्यपि कथञ्चित्कर्मदोषतोऽकार्यमाचरन्नपि संसारदुःखभयभीतमानसः समाचरति, न निःशङ्कं संसारभयभीतता च संवेग उच्यते, ततः संवेगवशान्न तीव्रः परिणामो भवति, उक्तं च- "जांणतो सविसरणं पवत्तमाणोऽवि बीहए जह उ । न उ इयरो तह नाणी पवत्तमाणोऽवि संविग्गो ॥ १ ॥ जं संवेगपहाणो अचंतसुहो य १ वादोऽपि वादिनरपतिपरीक्षकजनेषु निपुणवुद्धिषु मध्यस्थेषु च विधिनोत्सवेंग अनुज्ञातः ॥ १ ॥ २ जानानः सवयम प्रवर्तमानोऽपि विमेति यथा तु न त्वितरः तथा ज्ञानी प्रवर्तमानोऽपि संविप्रः ॥ १ ॥ यत् संवेगप्रधान अन्तशुभञ्च भवति परिणामः । पापनिवृत्तिव पुरा नेदमज्ञानिनामुभयम् ॥ २ ॥ Jan Education International For Para Use Only ~ 454 ~ अज्ञानवाद्यधिकारः १० १२ (Sar Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४७]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत भीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः सूत्रांक [४७]] ॥२२६॥ दीप अनुक्रम [१४०] CROGRECORRECEk होइ परिणामो । पावनिवित्ती य परा नेयं अण्णाणिणो उभयं ॥२॥" ततो यदुक्तम्-'अज्ञानमेव मुमुक्षुणा मुक्ति- अज्ञानवापपथप्रवृत्तेनाभ्युपगन्तव्यं, न ज्ञान मिति, तत्तेषां मूढमनस्कतासूचकमवगन्तव्यं, यदयुक्त-भवेत् युक्तो ज्ञानस्या-दाधिकार: भ्युपगमो यदि ज्ञानस्य निश्चयः कर्तुं पार्यते' इत्यादि, तदपि बालिशजल्पितं, यतो यद्यपि सर्वेऽपि दर्शनिनः परस्परं भिन्नमेव ज्ञानं प्रतिपन्नाः तथापि यद्वचो दृष्टेष्टाबाधितं पूर्वापराव्याहतं च तत्सम्यग्रूपमवसेयं, ताग्भूतं च वचो भगवत्प्रणीतमेवेति तदेव प्रमाणं न शेषमिति, यदप्युक्तं-'सुगतादयोऽपि सौगतादिभिः सर्वज्ञा इष्यन्ते' इत्यादि, तदप्यसत्, दृष्टेष्टबाधितवचनतया सुगतादीनामसर्वज्ञत्वात् , यथा च दृष्टेष्टबाधितवचनता सुगतादीनां तथा प्रागेव सर्वज्ञसिद्धौ लेशतो दर्शिता, ततो भगवानेव सर्वज्ञः, उक्तं च-"सर्वण्णुविहाणं मिवि दिडिट्ठावाहियाउ वयणाओ। सवण्णू होइ जिणो सेसा सचे असवण्णू ॥१॥" एतेन यदुक्तं भवतु या वर्द्धमानखामी सर्वज्ञस्तथापि तस्य स २० त्कोऽयमाचारादिक उपदेश इति कथं प्रतीयते?' इति, तदपि दुरापास्तं, अन्यस्वेत्थम्भूतदृष्टेष्टावाधितवचनप्रवृत्तेरसम्भवात् , यदप्युक्तं-भवत्वेषोऽपि निश्चयो यथाऽयमाचारादिक उपदेशो वर्द्धमानखामिन इति, तथापि तस्योपदेशस्थायमर्थो नान्य इति न शक्यं प्रत्येतु'मित्यादि, तदध्ययुक्तं, भगवान् हि वीतरागस्ततो न विप्रतारयति, वि-18|२२६॥ प्रतारणाहेतुरागादिदोषगणासम्भवात् , तथा सर्वज्ञत्वेन विपरीतं सम्यग् वाऽर्थमवबुध्यमानं शिष्यं जानाति ततो २४ १ सर्वहविधानेऽपि टेवाबाधितात् बचनात् । सर्वज्ञो भवति जिनः शेषाः सर्वे भवैशाः ॥ १ ॥ SAREaratih na . . ~455~ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [ ४७ ] दीप अनुक्रम [१४०] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ४७ ] / गाथा ||८९... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः यदि विपरीतमर्थमवबुध्यते श्रोता तर्हि निवारयेत् न च निवारयति, न च विप्रतारयति, करोति च देशनां कृतकृ| त्योऽपि तीर्थकरनामकर्मोदयात्, ततो ज्ञायते एष एवास्योपदेशस्वार्थ इति उक्तं च- " नांएऽवि तदुवएसे एसेवत्थो मउति से एवं । नज्जद पवत्तमाणं जं न निवारेइ तह चैव ॥ १ ॥ अन्नह य पवसंतं निवारई न य तओ पर्वचेई । जम्हा स वीयरागो कहणे पुण कारणं कम्मं ॥ २ ॥” एवं च भगवद्विवक्षायाः परोक्षत्वेऽपि सम्यगुपदेशस्याअर्थनिश्वये जाते यदुक्तं- 'गौतमादिरपि छद्मस्थ' इत्यादि, तदप्यसारमवसेयं, छद्मस्थस्याप्युक्तप्रकारेण भगवदुपदेशार्थनिश्चयोपपत्तेः, तथा चित्रार्था अपि शब्दा भगवतैव समयिताः, ते च प्रकरणाद्यनुरोधेन तत्तदर्थप्रतिपादकाः प्रतिपादितास्ततो न कश्चिद्दोषः, तत्प्रकरणाद्यनुरोधेन तत्तदर्थनिश्चयोपपत्तेः, भगवताऽपि च तथा तथाऽर्थावगमे प्रतिबेधाकरणादिति, एवं च तदानीं गौतमादीनां सम्यगुपदेशार्थस्यावगतावाचार्यपरम्परात इदानीमपि तदर्थावगमो भवति, न चाचार्य परम्परा न प्रमाणं, अविपरीतार्थव्याख्यातृत्वेन तस्याः प्रामाण्यस्यापा कर्त्तुमशक्यत्वात्, अपिचभवद्दर्शनमपि किमागममूलमनागममूलं वा ?, यद्यागममूलं तर्हि कथमाचार्य परम्परामन्तरेण ?, आगमार्थस्यावचोदुमशक्यत्वात्, अथानागममूलं तर्हि न प्रमाणं, उन्मत्तकविरचितदर्शनवत्, अथ यद्यपि नागममूलं तथापि युक्तत्युपपन्न १ ज्ञातेऽपि तदुपदेशे एष एवार्थो मत इति तस्यैवम् ज्ञायते वर्तमानं यन्त्र निवारयति तथैव ॥ १ ॥ अन्यथा प्रवर्तमानं निवारयेत् न च ततः प्रवश्यते । यस्मात् स वीतरागः कथने पुनः कारणं कर्म ॥ २ ॥ २ संकेतिताः । For Parts Only ~456~ अज्ञानवाद्यधिकार: ५. yor Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [४७]/गाथा ||८१...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४७ भीमलय- मितिकृत्वा समाश्रीयते, अहो! दुरन्तः खदर्शनानुरागो य एवमपि पूर्वापरविरुद्धं भाषयति, अथवा भूषणमेतद- अज्ञानवाबगिरीया ज्ञानपक्षाभ्युपगमस्य यदित्थं पूर्वापरविरुद्धार्थभाषणं, कथं पूर्वापरविरुद्धार्थभाषितेति चेत्?, उच्यते, युक्तयो हिज्ञा-राधिकार नन्दीपतिः नमूला भवतां चाज्ञानाभ्युपगमः ततः कथं तास्तत्र घटन्ते? इति पूर्वापरविरुद्धार्थभाषितेति यत्किञ्चिदेतद् । येऽपि च । ॥२२७॥ विनयवादिनो विनयप्रतिपत्तिलक्षणास्तेऽपि मोहान्मुक्तिपथपरिभ्रष्टाः वेदितव्याः, तथाहि-विनयो नाम मुक्त्यङ्गं यो ४|१५ मुक्तिपथानुकूलो न शेषः, मुक्तिपथश्च ज्ञानदर्शनचारित्राणि, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' (त०अ०१-सू०१)। इतिवचनात् , ततो ज्ञानादीनां ज्ञानाद्याधाराणां च बहुश्रुतादिपुरुषाणां यो विनयो ज्ञानादिवहुमानप्रतिपत्तिलक्षणः स ज्ञानादिसम्पवृद्धिहेतुत्वेन परम्परया मुक्त्यमुपजायते, यस्तु सुरनृपत्यादिषु विनयः स नियमात् संसारहेतुः, यतः 8सुरनृपत्यादिषु विनयो विधीयमानः सुरनृपत्यादिभावविषयं बहुमानमापादयति, अन्यथा विनयकरणाप्रवृत्तेः, सुरन पत्यादिभावश्च भोगप्रधानः, तद्बहुमाने च भोगबहुमानमेव कृतं परमार्थतो भवतीति दीर्घसंसारपथप्रवृत्तिः, येऽपि च यतिविनयवादिनस्तेऽपि यदि साक्षाद्विनयमेव केवलं मुक्त्यङ्गमिच्छन्ति तर्हि तेऽप्यसमीचीनवादिनो वेदितव्याः, १ ॥२२७॥ ज्ञानादिरहितस्य केवलस्य विनयस्य साक्षान्मुक्त्यङ्गत्वाभावात्, न खलु ज्ञानदर्शनचारित्ररहिताः केवलपादपतनादिविनयमात्रेण मुक्तिमार्गमनुवते जन्तवः, किन्तु ज्ञानादिसहिताः, ततो ज्ञानादिकमेव साक्षान्मुक्त्यकं न विनयः, कथमेतदवसीयते ?, इति चेदुच्यते, इह मिथ्यात्वाज्ञानाविरतिप्रत्ययं कर्मजालं, कर्मजालक्षयाच मोक्षः २४ दीप अनुक्रम [१४०] रकर ~ 457~ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) .................... मूलं [४७]/गाथा ||८१...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४७]] 'मुक्तिः कर्मक्षयादिष्टे'तिवचनप्रामाण्यात्, कर्मजालक्षयश्च न निमूलकारणोच्छेदमन्तरेण सर्वथा सम्भवति, ततो अज्ञानवाद्यमिथ्यात्वप्रतिपक्षं सम्यग्दर्शनमज्ञानप्रतिपक्षं च ज्ञानमविरतिप्रतिपक्षं च चारित्रं सम्यक् सेव्यमानं यदा प्रकर्षप्रासंधिकारः भवति तदा सर्वथा कारणापगमतो निर्मूलकोच्छेदो भवतीति ज्ञानादिकं साक्षान्मुक्त्य, न विनयमात्र, केवलंता विनयो ज्ञानादिषु विधीयमानः परम्परया मुक्त्यङ्गं साक्षात्तु ज्ञानादिहेतुरिति सर्वकल्याणभाजनं तत्र २ प्रदेशे गीयते, यदि पुनर्यतिविनयवादिनोऽपि ज्ञानादिवृद्धिहेतुतया मुक्त्यङ्गं विनयमिच्छन्ति तदा तेऽप्यस्मत्पथवर्तिन एवेति न कदा(का)चिद्विप्रतिपत्तिरिति कृतं प्रसङ्गेन, प्रकृतमनुसन्धीयते । 'सूयगडस्स णं परित्ता' इत्यादि सर्व प्रागवत् , उद्देशानां च परिमाणं कृत्वा उद्देशसमुद्देशकालसङ्ख्या भावनीया, 'सेत्तं सूयगडे' तदेतत्सूत्रकृतं ॥ से किं तं ठाणे?, ठाणे णं जीवा ठाविजंति अजीवा ठाविजंति ससमए ठाविजइ परसमए ठाविजइ ससमयपरसमए ठाविजइ लोए ठाविजइ अलोए ठाविजइ लोआलोए ठाविजइ, ठाणे णं टंका कूडा सेला सिहरिणो पब्भारा कुंडाई गुहाओ आगरा दहा नईओ आघविजंति, ठाणे णं परित्ता वायणा संखेज्जा अणुओगदारा संखेजा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेजाओ निजुत्तीओ संखेजाओ संगहणीओ संखेजाओ पडिवत्तीओ, से गं अंगट्टयाए तइए R दीप अनुक्रम [१४०] | स्थान-अंग सूत्रस्य शास्त्रिय परिचय: प्रस्तुयते ~ 458~ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४८]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत गिरीया खानानाधिकार: सू. ४८ सूत्रांक [४८ श्रीमलय- अंगे एगे सुअक्खंधे दस अज्झयणा एगवीसं उद्देसणकाला एकवीसं समुद्देसणकाला बावत्तरि पयसहस्सा पयग्गेणं संखेजा अक्खरा अणंता गमा अणंता पजवा परित्ता तसा अणंता थानन्दीपत्तिः वरा सासयकडनिबद्धनिकाइआ जिणपन्नत्ता भावा आघविजंति पन्नविजंति परूविजंति दंसि॥२२८॥ जंति निदंसिर्जति उवदंसिर्जति, से एवं आया एवं नाया एवं विण्णाया एवं चरणकरणपरूवणा आघविजइ, से तं ठाणे ३ (सूत्रं. ४८) से कि तमित्यादि, अथ किं तत्स्थानं ?, तिष्ठन्ति प्रतिपाद्यतया जीवादयः पदार्था अस्मिन्निति स्थानं, तथा | चाह सूरि:-'ठाणे ण'मित्यादि, स्थानेन स्थाने या 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे जीवाः स्थाप्यन्ते-यथाऽवस्थितस्वरूपप्ररूपणया व्यवस्थाप्यन्ते, शेपं प्रायो निगदसिद्धं, नवरं 'टंक त्ति छिन्नतट रई, कूटानि पर्वतस्योपरि, यथा वैताड्यस्वोपरि सिद्धायतनकूटादीनि नव कूटानि, शैला हिमवदादयः, शिखरिणः-शिखरेण समन्विताः, ते च वैताठ्यादयः, तथा यत्कूटमुपरि कुब्जामवत् कुजं तत्प्राग्भारं, यद्वा यत्पर्यतस्योपरि हस्तिकुम्भाकृति कुब्जं विनिर्गतं तत्प्रागभारं, KIकुण्डानि-गङ्गाकुण्डादीनि गुहाः-तिमिश्रगुहादयः आकराः-रूप्यसुवर्णाद्युत्पत्तिस्थानानि इदाः-पौण्डरीकादयः | नद्योगज्ञासिन्ध्वादय आख्यायन्ते, तथा स्थानेनाथवा स्थाने 'ण'मितिवाक्यालङ्कारे एकाद्यकोत्तरिकया वृया दश दीप अनुक्रम [१४१] ॥२२८॥ २४ THEaratunni ~ 459~ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४८]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४८] CANCCARECAUSARAKAR है स्थानकं यावंद्विवर्द्धितानां भावानां प्ररूपणा आख्यायते, किमुक्तं भवति ?-एकसङ्ख्यायां द्विसङ्ख्यायां यावद्दशसङ्ख्यायां ये। समवायाये भावा यथा यथाऽन्तर्भवन्ति तथा तथा ते ते प्ररूप्यन्ते इत्यर्थः, यथा 'एगे आया' इत्यादि, तथा 'जं इत्थं च णं लोके |धिकार: सू. ४९ तं सर्च दुपडोयारं, तंजहा-'जीवा चेव अजीवा चेव' इत्यादि, 'ठाणस्स णं परित्ता वायणा' इत्यादि, सर्व प्राग्वत् परिभावनीयं, पदपरिमाणं च पूर्वस्मात् पूर्वस्मादङ्गादुत्तरस्मिनुत्तरस्मिन्नऊ द्विगुणमवसेयं, शेष पाठसिद्धं, यावनिगमनं ।। से किं तं समवाए ?, समवाए णं जीवा समासिजति अजीवा समासिज्जति जीवाजीवा स. मासिजति ससमए समासिजइ परसमए समासिजइ ससमयपरसमए समासिजइ लोए समासिज्जइ अलोए समासिज्जइ लोआलोए समासिजइ. समवाए णं एगाइआणं एगुत्तरिआणं ठाणसयविवडिआणं भावाणं परूवणा आपविजइ दुवालसविहस्स य गणिपिडगस्स पल्लवग्गे समासिजइ, समवायस्सणं परित्ता वायणा संखिज्जा अणुओगदारा संखेज्जा वेढा संखेजा सिलोगा संखिजाओ निजुत्तीओ संखिज्जाओ पडिवत्तीओ, से णं अंगट्टयाए चउत्थ अगं एगे सुअखंधे एगे अज्झयणे एगे उद्देसणकाले एगे समुद्देसणकाले एगे चोआले सयसहस्से पयग्गेणं संखेज्जा अक्खरा अणंता गमा अणंता पजवा परित्ता तसा अणंता थावरा दीप अनुक्रम [१४१] SINEaahinintam समवाय-अंग सूत्रस्य शास्त्रिय परिचय: प्रस्तुयते ~ 460~ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [४९]/गाथा ||८१...|| ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलयगिरीया नन्दीतिः प्रत सूत्रांक ||२२९॥ [४९] सासयकडनिबद्धनिकाइआ जिणपन्नत्ता भावा आघविजंति पन्नविजंति परूविजंति देसिजंति समवाया धिकार: निदंसिर्जति उवदंसिर्जति, से एवं आया से एवं नाया एवं विण्णाया एवं चरणकरणपरूवणा .सू. ४९ आघविज्जइ, से तं समवाए ४॥ (सू.४९) व्याख्या'से किं त'मित्यादि, अथ कोऽयं समवायः ?, सम्यगवायो-निश्चयो जीवादीनां पदार्थानां यस्मात्स समवायः, तथा धिकारः चाह सूरिः-'समवाए णमित्यादि, समवायेन यद्वा समवाये 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे, जीवाः 'समाश्रीयन्ते'समिति-16 सू. ५० सम्यग् यथाऽवस्थिततया आश्रीयन्ते-बुद्ध्या स्वीक्रियन्ते, अथवा जीवाः समस्यन्ते-कुप्ररूपणाभ्यः समाकृष्य सम्य जाताधि. कारूपणायां प्रक्षिप्यन्ते, शेषमानिगमनं निगदसिद्ध, नवरमेकादिकानामेकोत्तराणां शतस्थानकं यावद्विवर्द्धितानां|81 भावानां प्ररूपणा आख्यायते, अयमत्र भावार्थ:-एकसङ्ग्यायां द्विसद्ध्यायां यावच्छतसञ्जवायां ये ये भावा यथा २ यत्र यत्रान्तर्भवन्ति ते ते तत्र तत्र तथा २ प्ररूप्यन्ते, यथा 'एगे आया' इत्यादि ॥ . से किं तं विवाहे ?, विवाहे णं जीवा विआहिजंति अजीवा विआहिजति जीवाजीवा विआहिजंति ससमए विआहिजति परसमए विआहिजति ससमयपरसमए विआहिजंति लोए विआहिजति अलोए विआहिजति लोयालोए विआहिजंति, विवाहस्स णं परित्ता वा ||२२९॥ यणा संखिज्जा अणुओगदारासंखिज्जा वेढा संखिजा सिलोगासंखिजाओनिजुत्तीओ संखेजाओ दीप अनुक्रम [१४२] Saintairatn a FaPramamyam uncom व्याख्या-अंग तथा ज्ञाताधर्मकथा-अंग सूत्रयो: शास्त्रिय परिचय: प्रस्तुयते ~ 461~ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [५०-५१] दीप अनुक्रम [१४३ -१४४] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः ) मूलं [५०-५१ ] / गाथा || ८१... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः संग्रहणीओ संखिजाओ पडिवत्तीओ, से णं अंगट्टयाए पंचमे अंगे एगे सुअक्खंधे एगे साइरेगे अज्झयणसए दस उद्देसगसहस्साई दस समुद्देसग सहस्साइं छत्तीसं वागरणसहस्साइं दो लक्खा अट्ठासीइं पयसहस्साइं पयग्गेणं संखिज्जा अक्खरा अनंता गमा अनंता पज्जवा परित्ता तसा अ ता थावरा सासयकडनिबद्धनिकाइया जिणपन्नत्ता भावा आघविज्जति पन्नविज्जंति परुविज्जति दंसिजंति निदंसिज्जति उवदंसिज्जंति, से एवं आया एवं नाया एवं विष्णाया एवं चरणकरणपरूवणा आघविज्जइ, से तं विवाहे ५ । (सू. ५०) । से किं तं नायाधम्मकहाओ ?, नायाधम्मक - हासु णं नायाणं नगराई उज्जाणाई चेइआई वणसंडाई समोसरणाई रायाणो अम्मापियरो धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइयपरलोइया इडिविसेसा भोगपरिचाया पव्वज्जाओ परिआया सुअपरिग्गहा तवोवहाणाई संलेहणाओ भत्तपञ्चक्खाणाई पाओवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुलपच्चायाईओ पुणवोहिलाभा अंतकिरिआओ अ आघविज्जति, दस धम्मकहाणं वगा, तत्थ णं एगमेगा धम्मकहाए पंचपंचअक्खाइआसयाई एगमेगाए अक्खाइआए पं For Parts Only ~462~ व्याख्याधिकारः सू. ५० ज्ञाताधिकारः सू. ५१ १० Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [५०-५१]/गाथा ||८१...|| .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक व्याख्याविकार ज्ञाताधि कारः स. ५०-५१ [५०-५१] दीप अनुक्रम श्रीमलय-1 चपंचउवक्खाइआसयाई एगमेगाए उवक्खाइआए पंचपंचअक्खाइउवक्खाइआसयाई एवगिरीया ६ मेव सपुवावरेणं अदुवाओं कहाणगकोडीओ हवंतित्ति समक्खायं, नायाधम्मकहाणं परित्ता नन्दीवृत्तिः वायणा संखिजा अणुओगदारा संखिज्जा वेढा संखिजा सिलोगा संखिजाओ निज्जुत्तीओ ॥२३०॥ संखिजाओ संगहणीओ संखजाओ पडिवत्तीओ, से णं अंगट्ठयाए छठे अंगे दो सुअक्खंधा एगृणवीसं अज्झयणा एगूणवीसं उद्देसणकाला एगूणवीसं समुद्देसणकाला संखेजा पयसहस्सा पयग्गेणं संखेज्जा अक्खरा अणंता पज्जवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासयकडनिबद्धनिकाइआ जिणपन्नत्ता भावा आघविजन्ति पन्नविजंति परूविजंति दंसिर्जति निदंसिर्जति उव. दंसिर्जति, से एवं आया एवं नाया एवं विण्णाया एवं चरणकरणपरूवणा आघविजइ, से तं नायाधम्मकहाओ६। (सू. ५१) अथ केयं व्याख्या ?, व्याख्यायन्ते जीवादयः पदार्था अनयेति व्याख्या, 'उपसर्गादात' इत्यङ्प्रत्ययः, तथा चाह |सूरि:-'विवाहे ण'मित्यादि, व्याख्यायां जीवा व्याख्यायन्ते शेपमानिगमनं पाठसिद्धं, । 'से किं त'मित्यादि, अथ कास्ता ज्ञाताधर्मकथाः ?, ज्ञातानि-उदाहरणानि तत्प्रधाना धर्मकथा ज्ञाताधर्मकथाः, अथवा ज्ञातानि-जाताध्ययनानि [१४३ -१४४] ॥२३०॥ २३ SAREauratoninternational ~ 463~ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............. मूलं [५०-५१]/गाथा ||८१...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५०-५१] दीप अनुक्रम प्रथमश्रुतस्कन्धे धर्मकथा द्वितीयश्रुतस्कन्धे यासु ग्रन्थपद्धतिषु (ता)ज्ञाताधर्मकथाः पृषोदरादित्वात्पूर्वपदस्य दीर्घान्तता, व्याख्या|सरिराह-ज्ञाताधर्मकथासु 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे ज्ञातानाम्-उदाहरणभूतानां नगरादीनि व्याख्यायन्ते, तथा 'दस धिकार धम्मकहाणं वग्गा' इत्यादि, इह प्रथमश्रुतस्कन्धे एकोनविंशतिव्रताध्ययनानि ज्ञातानि-उदाहरणानि तत्प्रधानानि ज्ञाताअध्ययनानि द्वितीयश्रुतस्कन्धे दश धर्मकथाः धर्मस्य-अहिंसादिलक्षणस प्रतिपादिकाः कथा धर्मकथाः, अथवा Sधिकार C .५०-५१ धर्मादनपेता धाः धाश्च ताः कथाश्च धर्म्यकथाः, तत्र प्रथमे श्रुतस्कन्धे यान्येकोनविंशतिर्जाताध्ययनानि तेष्वादिमानि दश ज्ञातानि ज्ञातान्येव न तेष्वाख्यायिकादिसम्भवः, शेषाणि पुनर्यानि नव ज्ञातानि तेष्वेककस्मिन् चत्वारिंशानि पञ्च पञ्चाख्यायिकाशतानि ५४०[च] भवन्ति ४८६० एकैकस्यां चाख्यायिकायां पञ्च पञ्च उपाख्यायिकाशतानि |२४३०००० एकैकस्यां चोपाख्यायिकायां पञ्च पञ्च आख्यायिकोपाख्यायिकाशतानि सर्वसङ्ख्यया १२१५००००००एकविशं कोटिशतं लक्षाः पञ्चाशत् ,तत एवं कृते सति प्रस्तुतसूत्रस्यावतारः, आह च टीकाकृत्-"इगबीसं कोडिसयं लक्खा पन्नास चेव बोद्धबा । एवं कए समाणे अहिगयसुत्तस्स पत्थावो ॥१॥" द्वितीये श्रुतस्कन्धे दशधर्मकथानां वर्गाः,वर्गः-16/१० समूहः, दश धर्मकथासमुदाया इत्यर्थः, त एव च दशाध्ययनानि, एकैकस्यां धर्मकथायां-यासमूहरूपायामध्ययनप्रमाणायां पञ्च पञ्चाख्यायिकाशतानि, एकैकस्यां चाख्यायिकायां पञ्चपञ्च उपाख्यायिकाशतानि एकैकस्यां चोपाख्यायिकार्या पञ्च पञ्च आख्यायिकोपाख्यायिकाशतानि सर्वसङ्ख्यया पञ्चविंशं कोटिशतं, इह नव ज्ञाताध्ययनसम्बन्ध्याख्यायि-| [१४३ -१४४] SAREailhimilimimarana ~464~ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) सूत्रांक [५०-५१] – अनुक्रम [१४३ -१४४] श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ॥२३१॥ “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [५०-५१ ] / गाथा || ८१... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः कादिसदृशा या आख्यायिकादयः पञ्चाशलक्षाधिकैकविंशकोटिशतप्रमाणास्ता अस्मात्पञ्चविंशतिकोटिशतप्रमाणाद्राशेः शोध्यन्ते, ततः शेषा अपुनरुक्ता अर्द्धचतुर्थाः कथानककोट्यो भवन्ति, तथा चाह - 'एवमेव' उक्तप्रकारेणैव गुणिते शोधने च कृते 'सपूर्वापरेण' पूर्वश्रुतस्कन्धापरश्रुतस्कन्धकथाः समुदिता अपुनरुक्का 'अदुट्ठाओं त्ति अर्द्धचतुर्थाः कथानककोट्यो भवन्तीत्याख्यातं तीर्थकरगणधरैः, आह च टीकाकृत् -"पणवीसं कोडीसयं एत्थ य समलक्खणाइमा जम्हा । नवनायासम्बद्धा अक्खाइयमाझ्या तेणं ॥१॥ ता सोहिज्वंति फुडं इमाओ रासीउ वेगलाणं तु । पुणरुत्तवज्जियाणं पमाणमेयं विनिद्दिद्धं ॥ २ ॥" तथा 'नायाधम्मकहाणं परित्ता वायणा' इत्यादि सर्व प्राग्वद्भावनीयं यावन्निगमनं, नवरं सङ्ख्येयानि पदसहस्राणि पदाग्रेण पदपरिमाणेन, तानि च पञ्च लक्षाः षट्सप्ततिः सहस्राः, पदमपि चात्रोपसर्गिकं नैपातिकं नामिकमाख्यातिकं मिश्रं च वेदितव्यं तथा चाह चूर्णिकृत् -"पयग्गेणंति उवसग्गपयं निवायपयं नाभियपयं अक्खाइयपयं मिस्तपयं च पए पए अधिक पंच लक्खा छात्तरिसहस्सा पयग्गेणं भवंति " अथवेह पदं सूत्रालापकरूपमुपगृह्यते, ततस्तथारूपपदापेक्षया सङ्ख्येयानि पदसहस्राणि भवन्ति, न लक्षाः, आह च चूर्णिकृत् -"अहवा सुत्तालावगपयग्गेणं संखेजाई पयसहस्साइं भवंति" एवमुत्तरत्रापि भावनीयं ॥ ६ ॥ Education Internationa से किं तं वासगदसाओ ?; उवासगदसासु णं समणोवासयाणं नगराई उज्जाणाई चेइआई वणसंडाई समोसरणाई रायाणो अम्मापियरो धम्मायरिआ धम्मकहाओ इहलोइअपरलो उपासकदशा-अंग सूत्रस्य शास्त्रिय परिचयः प्रस्तुयते For Peralata Use Only ~465~ व्याख्या धिकारः ज्ञाताधिकारः सू. ५००५१ २० ॥२३१॥ २५ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [१२]/गाथा ||८१...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५२]] इआ इविविसेसा भोगपरिचाया पवजाओ परिआगा सुअपरिग्गहा तवोवहाणाई सीलब्ब व्याख्या धिकारः यगुणवेरमणपञ्चक्खाणपोसहोववासपडिवजणया पडिमाओ उवसग्गा संलेहणाओ भत्तपञ्च ज्ञाताक्खाणाई पाओवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुलपञ्चायाईओ पुणबोहिलाभा अंतकिरिआओ तिधिकार म.५१-५२ अ आघविजंति, उवासगदसाणं परित्ता वायणा संखेजा अणुओगदारा संखेजा वेढा संखेजा सिलोगा संखेज्जाओ निजुत्तीओ संखेजाओ संगहणीओ संखेजाओ पडिवत्तीओ, से णं अंगट्ठयाए सत्तमे अंगे एगे सुअक्खंधे दस अज्झयणा दस उद्देसणकाला दस समुद्देसणकाला संखेजा पयसहस्सा पयग्गणं सज्जा अक्खरा अणंता गमा अणंता पजवा परित्ता तसा अ. णंता थावरा सासयकडनिबद्धनिकाइआ जिणपन्नत्ता भावाआघविजंत्ति पन्नविजंति परूविजंति दंसिर्जति निदंसिर्जति उवदंसिजेति, से एवं आया एवं नाया एवं विन्नाया एवं चरणकरणपरूवणा आधविजइ, से तं उवासगदसाओ ७॥ (सू. ५२) . 'से कि त'मित्यादि, अथ कास्ता उपासकदशाः?, उपासकाः-श्रावकाः तद्गताणुव्रतगुणवतादिक्रियाकलापप्रतिबद्धा दशा-अध्ययनानि उपासकदशाः, तथा चाह सूरिः-'उवासगदसासु णमित्यादि पाठसिद्धं यावन्निगमनं, नवरं दीप अनुक्रम 49-645-455-25 [१४५] M VImmunmurary.om ~466~ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [43] दीप अनुक्रम [१४६ ] श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः २ २३२ ॥ “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ५३ ] / गाथा || ८१... || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र -[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः *** % क सङ्ख्येयानि पदसहस्राणि पदाप्रेणेति एकादश लक्षा द्विपञ्चाशत्सहस्राणि इत्यर्थः, द्वितीयं तु व्याख्यानं प्रागिव भावनीयं । से किं तं अंतगडदसाओ ?, अंतगडदसासु णं अंतगडाणं नगराई उज्जाणाई चेइआई वणसंडाई समोसरणाई रायाणो अम्मापियरो धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइ अपरलोइआ इड्डिविसेसा भोगपरिचागा पव्वज्जाओ परिआगा सुअपरिग्गहा तवोवहाणाई संलेहणाओ भत्तपचक्खाणाई पाओवगमणाई अंतकिरिआओ आघविजंति, अंतगडदसासु णं परित्ता वायणा संखिजा अणुओगदारा संखेजा वेढा संखेजा सिलोगा संखेज्जाओ निज्जुत्तीओ संखेजाओ संगणीओ संखेजाओ पडिवत्तीओ, से णं अंगट्टयाए अट्टमे अंगे एगे सुअक्खंधे अट्ट वग्गा अट्ठ उद्देणकाला अट्ट समुद्देसणकाला संखेजा पयसहस्सा पयग्गेणं संखेज्जा अक्खरा अनंता गमा अनंता पजवा परिता तसा अनंता थावरा सासयकडनिबद्धनिकाइआ जिणपन्नन्ना भावा आधविनंति पन्नविनंति परुविज्जति दंसिजंति निदंसिजंति उवदंसिजंति से एवं आया एवं नाया एवं विन्नाया एवं चरणकरणपरूवणा आघविजइ, से तं अंतगडदसाओ ८ ॥ (सू. ५३) अंतकृद्दशा - अंग सूत्रस्य शास्त्रिय परिचयः प्रस्तुयते For Praise Only ~467~ उपासक दशावि. अन्तक दशाषि. यू. ५२-५३ २० | ॥२३२॥ २३ www.andbrary.org Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५३] 'से कि तमित्यादि, अथ कास्ता अन्तकृद्दशाः?, अन्तो-विनाशस्तं कर्मणस्तत्फलभूतस्य वा संसारस्य ये कृतवन्तस्तेड- उपासकदन्तकृतः-तीर्थकरादयः तद्वक्तव्यताप्रतिबद्धादशा-अध्ययनानि अन्तकृद्दशाः, तथा चाह सूरि:-'अंतकड(कृद् )दशासुर दशाधि. अन्तकृ. 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे, पाठसिद्धं यावद् 'अन्तकिरियाओ'त्ति भवापेक्षया अन्त्याश्च ताः क्रियाश्चान्त्यक्रियाः शैलेश्य दशाधि. वस्थादिका गृह्यन्ते, शेष प्रकटार्थ यावद् 'अट्ठ वग्ग'त्ति वर्गः समूहः, स चान्तकृतामध्ययनानां वा वेदितव्यः, सर्वाणि ५२५३ चाध्ययनानि वर्गवर्गान्तर्गतानि युगपदुद्दिश्यन्ते अत आह-अष्टाबुद्देशनकाला अष्टौ समुद्देशनकालाः, सङ्ख्थेयानि पदसहस्राणि पदाग्रेण तानि च किल त्रयोविंशतिः लक्षाश्चत्वारश्च सहस्राः, शेष पाठसिद्धं यावन्निगमनम् ॥ से किं तं अणुत्तरोववाइअदसाओ?, अणुत्तरोववाइअदसासु णं अणुत्तरोववाइआणं नगराई उजाणाई चेइआई वणसंडाई समोसरणाई रायाणो अम्मापिअरो धम्मायरिआ धम्मकहाओ इहलोइअपरलोइआ इविविसेसा भोगपरिच्चागा पवजाओ परिआगा सुअपरिग्गहा तवोवहाणाई पडिमाओ उक्सग्गा संलेहणाओ भत्तपञ्चकवाणाई पाओवगमणाई अणुत्तरोषवाइयत्ते उववत्ती सुकुलपञ्चायाईओ पुणबोहिलाभा अंतकिरिआओ आघविजंति, अणुत्तरोक्वाइअदसासु णं परित्ता वायणा संखेज्जा अणुओगदारा संखेज्जा वेढा संखेजा सिलोगा संखेजाओ दीप अनुक्रम [१४६] Sanelmmational अनुत्तरोपपातिकदशा-अंग सूत्रस्य शास्त्रिय परिचय: प्रस्तुयते ~ 468~ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१४]/गाथा ||८१...|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमलय गिरीया प्रत नन्दीवृत्तिः सूत्रांक ॥२३३॥ [५४] निजुत्तीओ संखेजाओ संगहणीओ संखेजाओ पडिवत्तीओ, से णं अंगट्टयाए नवमे अंगे अनुत्तरोप पातिका. एगे सुअक्खंधे तिन्नि वग्गा तिन्नि उद्देसणकाला तिन्नि समुद्देसणकाला संखेजाई पयसहस्साई का प्रश्नव्यापयग्गेणं संखेजा अक्खरा अणंता गमा अणंता पजवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासयक- र करणा. डनिबद्धनिकाइआ जिणपन्नत्ता भावा आपविजंति पन्नविनंति परूविजंति दंसिर्जति निदंसि सु.५४-५५ जंति उवदंसिर्जति, से एवं आया एवं नाया एवं विनाया एवं चरणकरणपरूवणा आघविजइ, से तं अणुत्तरोववाइअदसाओ ९ ॥ (सू. ५४) 'से किं तमित्यादि, अथ कास्ता अनुत्तरोपपातिकदशाः?, न विद्यते उत्तरः-प्रधानो येभ्यस्तेऽनुत्तराः-सर्वोत्तमा इत्यर्थः, उपपातेन निर्वृत्ता औपपातिका अनुत्तराश्च ते औपपातिकाच अनुत्तरौपपातिकाः, विजयाद्यनुत्तरविमानवा|सिन इत्यर्थः, तद्वक्तव्यताप्रतिबद्धा दशा अनुत्तरोपपातिकदशाः, तथा चाह सूरिः-'अनुत्तरोववाइयदसा सुण'मि ॥२३शा त्यादि पाठसिद्धं यावनिगमनं, नवरमध्ययनसमूहो वर्गः, वर्ग २ च दश दशाध्ययनानि, वर्गश्च युगपदेवोद्दिश्यते इति त्रय एवं उद्देशनकालात्रय एव समुद्देशनकालाः, सङ्ख्येयानि च पदसहस्राणि-पदसहस्राष्टाधिकषट्चत्वारिंशलक्षप्रमाणानि बेदितन्यानि। SRCESSARDCCE SASSARAM दीप अनुक्रम [१४७] ~469~ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [१५]/गाथा ||८१...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: अनुनरोप प्रत पातिकाप्रश्नन्याकरणा. सू.५४-५५ सूत्राक [५५] से किं तं पण्हावागरणाई?, पाहावागरणेसुणंअटुत्तरं पसिणसयं अद्रुत्तरं अपसिणसयं अछुत्तरंपसिणापसिणसयं, तंजहा-अंगुट्रपसिणाई बाहुपसिणाई अदागपसिणाईअन्नेवि विचित्ता विजाइसया नागसुवण्णेहिं सद्धिं दिव्या संवाया आघविजंति, पण्हावागरणाणं परित्ता वायणा संखेजा अणुओगदारा संखेजा वेढा संखेजा सिलोगासंखेजाओ निजुत्तीओ संखेजाओ संगहणीओसंखेजाओ पडिवत्तीओ,सेणं अंगट्टयाए दसमे अंगेएगे सुअक्खंधेपणयालीसं अज्झयणा पणयालीसं उदेसणकाला पणयालीसं समुद्देसणकाला संखेजाइं पयसहस्साई पयग्गेणं संज्जा अक्खरा अणंता गमा अणंतापजवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासयगडनिबद्धनिकाइआ जिणपन्नत्ता भावा आघविजंति पन्नविजंति परूविजंति दंसिर्जति निदंसिजति उवदंसिर्जति, से एवं आया से एवं नायाएवं विन्नाया एवं चरणकरणपरूवणा आपविजइ, सेतं पण्हावागरणाई १०॥(सू.५५) 'से किं तमित्यादि, अथ कानि प्रश्नव्याकरणानि ?, प्रश्नः-प्रतीतः तद्विषयं निर्वचनं-व्याकरणं, तानि च बहूनि ततो बहुवचनं, तेषु प्रश्नव्याकरणेषु अष्टोत्तरं प्रश्नशतं-या विद्या मत्रा वा विधिना जप्यमानाः पृष्टा एव सन्तः शुभाशुभं कथयन्ति ते प्रश्नाः तेषामष्टोत्तरं शतं, या पुनर्विद्या मन्त्रा वा विधिना जप्यमाना अपृष्टा एव शुभाशुभं कथयन्ति CREACHECCLESC दीप अनुक्रम [१४८] ESS HE M iamational प्रश्नव्याकरण-अंग सूत्रस्य शास्त्रिय परिचय: प्रस्तुयते ~ 470~ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [५५]/गाथा ||८१...|| .... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: RCM प्रत सूत्रांक [५५]] श्रीमलय-14 तेऽप्रश्नाः तेषामष्टोत्तरं शतं, तथा ये पृष्टाः अपृष्टाश्च कथयन्ति ते प्रश्नाप्रश्नाः तेपामप्यष्टोत्तर शतमाख्यायते, तथाऽ- प्रश्नव्यागिरीया शान्येपि च विविधा विद्यातिशयाः कथ्यन्ते, तथा नागकुमारैः सुपर्णकुमारैरन्यैश्च भवनपतिभिः सह साधूनां दिव्याःकरणा. विसंवादा-जल्पविधयः कथ्यन्ते, यथा भवन्ति तथा कश्यन्ते इत्यर्थः, शेष निगदसिद्धं, नवरं सहयेयानि पदसहस्राणि पाकश्रुता. ॥२३॥ द्विनवतिर्लक्षाः पोडश सहस्रा इत्यर्थः । . से किं तं विवागसुअं?, विवागसुए णं सुकडदुकडाणं कम्माणं फलविवागे आपविजइ, तत्थ णं दस दुहविवागा, दस सुहविवागा, से किं तं दुहविवागा ?, दुहविवागेसु णं दुहविवागाणं नगराई उजाणाई वणसंडाई चेइआई समोसरणाई रायाणो अम्मापिअरी धम्माअरिआ धम्माकहाओ इहलोइअपरलोइआ इड्डिविसेसा निरयगमणाई संसारभवपवंचा दुहपरंपराओ दुकुलपञ्चायाईओ दुलहबोहिअत्तं आघविजइ से तं दुहविवागा। से कितं सुहविवागा?, सुहविवागेसु णं सुहविवागाणं नगराई उजाणाई वणसंडाई चेइआई समोसरणाई रायाणो अम्मापिअरोधम्मायरिआ धम्मकहाओ इहलोइअपारलोइआइविविसेसा भोगपरिच्चागा पठबउजाओ परिआगा सुअपरिग्गहा तबोवहाणाई संलहणाओ भत्तपञ्चक्खाणाई पाओवगमणाई SASCADDA दीप अनुक्रम [१४८] ॥२३॥ विपाक-अंग सूत्रस्य शास्त्रिय परिचय: प्रस्तुयते ~ 471~ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................... मूलं [५६/गाथा ||८१...|| ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: विपाकभु. प्रत *CARE दृष्टिवादेपरिकर्माद्य सूत्रांक [५६] धिकारः C .५७ SSACREASUREORECRee देवलोगगमणाई सुहपरंपराओ सुकुलपञ्चायाईओ पुणवोहिलाभा अंतकिरिआओ आघविजंति । विवागसुयस्स णं परित्ता वायणा संखिज्जा अणुओगदारा संखेजा वेढा संखेजा सिलोगा संखेजाओ निजुत्तीओ संखिजाओ संगहणीओ संखिज्जाओ पडिवत्तीओ, से गं अंगट्रयाए इक्कारसमे अंगे दो सुअक्खंधा वीसं अज्झयणा वीसं उद्देसणकाला वीसं समुद्देसणकाला संखिज्जाई पयसहस्साई पयग्गेणं संखेज्जा अक्खरा अणंता गमा अणंता पजवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासयकडनिबद्धनिकाइआ जिणपन्नत्ता भावा आघविजंति पन्नविजंति परूविजंति दंसिर्जति निदंसिजति उवदंसिजंति, से एवं आया एवं नाया एवं विनाया एवं चरणकरणपरूवणा आघविज्जइ, से तं विवागसुयं ११ (सू. ५६) ___अथ किं तद्विपाकश्रुतं ?, विपचन विपाकः शुभाशुभकर्मपरिणाम इत्यर्थः तत्प्रतिपादकं श्रुतं विपाकश्रुतं, शेष सर्वमानिगमनं पाठसिद्ध, नवरं सङ्ख्येयानि पदसहस्राणीति एका कोटी चतुरशीतिलेक्षा द्वात्रिंशच सहस्राणि । से किं तं दिट्टिवाए , दिठिवाए णं सब्वभावपरूवणा आघविजइ, से समासओ पंचविहे पन्नत्ते, तंजहा-परिकम्मे १ सुत्ताई २ पुव्वगए ३ अणुओगे ४ चूलिआ५, से किं तं परिकम्मे?, २- दीप अनुक्रम [१४९] २-CSCIES SAPERaininainarana दृष्टिवाद-अंग सूत्रस्य शास्त्रिय परिचय: प्रस्तुयते ~472~ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [१७]/गाथा ||८२-८४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५७] श्रीमलयगिरीया नन्दीवृचिः ॥२३५| 0 -८४|| परिकम्मे सत्तविहे पन्नत्ते, तंजहा-सिद्धसेणिआपरिकम्मे १ मणुस्ससेणिआपरिकम्मे २ पुट्रसे- IN दृष्टिवादेणिआपरिकम्मे ३ ओगाढसेणिआपरिकम्मे ४ उवसंपज्जणसेणिआपरिकम्मे ५ विप्पजहणसेणि परिकर्माच धिकार आपरिकम्मे ६ चुआचुअसेणिआपरिकम्मे ७, से किं तं सिद्धसेणिआपरिकम्मे ?,२ चउदसविहे सू. ५७ पन्नत्ते, तंजहा-माउगापयाई १ एगटिअपयाई २ अटुपयाई २ पाढोआमासपयाई ४ केउभूअं ५ रासिबद्धं ६ एगगुणं ७ दुगुणं ८ तिगुणं ९ केउभूअं १० पडिग्गहो ११ संसारपडिग्गहो १२ नंदावत्तं १३ सिद्धावत्तं १४, से तं सिद्धसेणिआपरिकम्मे १, से किं तं मणुस्ससेणिआपरिकम्मे?,मगुस्ससेणिआपरिकम्मे चउदसविहे पन्नत्ते, तंजहा-माउयापयाई १ एगट्टिअपयाई २ अट्टापयाई ३ पाढोआमासपयाई ४ के उभूअं ५ रासिबद्धं ६ एगगुणं ७ दुगुणं तिगुणं ९ केउभूअं १० पडिग्गहो ११ संसारपडिग्गहो १२ नंदावतं १३ मणुस्सावत्तं १४, सेत्तं मणुस्ससेणिआपरिकम्मे २, से किं तं पुट्ठसेणिआपरिकम्मे ?. पुट्टसेणिआपरिकम्मे इक्कारसविहे पन्नत्ते, तंजहा-पाढोआमा १२३५॥ सपयाई १ केउभूयं २ रासिबद्धं ३ एगगुणं ४ दुगुणं ५ तिगुणं ६ के उभूयं ७ पडिग्गहो ८ दीप 460-6--6 अनुक्रम [१५०-१५४]] SAREnatandina ~ 473~ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [१७]/गाथा ||८२-८४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५७]] परिकाबधिकार -८४|| संसारपडिग्गहो ९ नंदावत्तं १० पुटावत्तं ११, सेत्तं पुटुसेणिआपरिकम्मे ३, से किं तं ओगा दिदृष्टिवादेढसेणिआपरिकम्मे ?, ओगाढसेणिआपरिकम्मे इकारसविहे पन्नत्ते, तंजहा-पाढोआमासपयाई १ केउभूअं २ रासिबद्धं ३ एगगुणं ४ दुगुणं ५ तिगुणं ६ केउभूअं ७ पडिग्गहो ८ संसा सू. ५७ रपडिग्गहो ९ नंदावत्तं १० ओगाढावत्त११, सेत्तं ओगाढसेणियापरिकम्मे ४, से किं तं उपसंपजणसेणिआपरिकम्मे १, २ इक्कारसविहे पन्नत्ते, तंजहा-पाढोआमासपयाई १ केउभूयं २ रासीबद्धं ३ एगगुणं ४ दुगुणं ५ तिगुणं ६ केउभूअं ७ पडिग्गहो ८ संसारपडिग्गहो ९ नंदावत्तं १० उवसंपजणावत्तं ११, सेतं उवसंपजणसेणिआपरिकम्मे ५, से किं तं विप्पजहणसेणिआपरिकम्मे ?, विष्पजहणसेणियापरिकम्मे एक्कारसविहे पन्नत्ते, तंजहा-पाढोआमासपयाई १ केउभूअं २ रासिबद्धं ३ एगगुणं ४ दुगुणं ५ तिगुणं ६ केउभूअं ७ पडिग्गहो ८ संसारपडिग्गहो ९ नंदावत्तं १० विप्पजहणावत्तं ११, से तं विप्पजहणसेणिआपरिकम्मे ६ । से किं तं चुआचुअसेणिआपरिकम्मे ?, चुअअचुअसेणिआपरिकम्मे एकारसविहे पन्नत्ते, तं दीप अनुक्रम [१५०-१५४]] Refe REKHimational ~ 474~ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [46] + ॥८२ -८४|| दीप अनुक्रम [१५० -१५४] श्रीमलयगिरीया नन्दीवृचिः ॥२३६॥ “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ५७ ]/ गाथा ||८२-८४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः ১৮%% % *%****%*** यह Education Int जहा - पाढोआमासयाई १ केभूअं २ रासिवद्धं ३ एगगुणं ४ दुगुर्ण ५ तिगुणं ६ केउभूअं ७ डिग्गहो ८ संसारपडिग्गहो ९ नंदावत्तं १० चुआचुआवत्तं ११, सेत्तं चुआचुअसेणिआपरिकम्मे ७, छचकनआई सत्त तेरासियाई, सेत्तं परिकम्मे १] से किं तं सुताई ?, सुत्ताई बावीसंपन्नत्ताई, तंजा-उज्जुसुयं १ परिणयापरिणयं २ बहुभंगिअं ३ विजयचरियं ४ अनंतरं ५ परंपरं ६ मासाणं ७ संजूहं ८ संभिषणं ९ आहव्वायं १० सोवत्थिअवत्तं १९ नंदावतं १२ बहुलं १३ पुट्टापु १४ विआवत्तं १५ एवंभूअं १६ दुयावत्तं १७ वत्तमाणप्ययं १८ समभिरूढं १९ सव्वओभदं २० पस्सास २१ दुप्पडिग्गहं २२, इच्चे आई बावीस सुत्ताइं छिन्नच्छेअनइआणि ससमयसुत्तपरिवाडीए, इच्चेइआई बावीस सुत्ताइं अच्छिन्नच्छेअनइयाणि आजीविअसुत्तपरिवाडीए इच्चे आई बावीस सुत्ताई तिगणइयाणि तेरासिअमुत्तपरिवाडीए, इचेइआई बावीसं सुत्ताई चउक्कनइआणि सप्तमयसुत्तपरिवाडीए, एवामेव सव्वावरेणं अट्टासीई सुत्ताई भवतीति मक्खायं से तं सुत्ताई २ । से किं तं पुत्रगए ?, २ च उद्दसविहे पण्णत्ते, तंजहा For Pernal Praise Only ~475~ दृष्टिवादेपरिकर्माद्यधिकारः सू. ५७ २० ॥२३६॥ २२ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [१७]/गाथा ||८२-८४|| ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 4 [५७]] दृष्टिवादेपरिकर्माद्यधिकार सू. ५७ -0- %8 - 2 -८४॥ उप्पायपुव्वं १ अग्गाणीयं २ वीरिअं ३ अस्थिनत्थिप्पवायं ४ नाणप्पवायं ५ सञ्चप्पवायं ६ आ. यप्पवायं ७ कम्मप्पवायं ८ पच्चक्खाणप्पवायं (पञ्चक्खाणं) ९ विजाणुप्पवायं १० अवंझं ११ पाणाऊ १२ किरिआविसालं १३ लोकबिंदुसारं १४। उप्पायपुवस्स णं दस वत्थू चत्तारि चूलिआवत्थू पन्नत्ता, अग्गेणीयपुवस्स णं चोदस वत्थू दुवालस चूलिआवत्थू पण्णता, पीरियपुठवस्स णं अट्ठ वत्थू अट्ट चूलिआवत्थू पण्णत्ता, अस्थिनस्थिप्पवायपुव्वस्त णं अट्ठारस वत्थू दस चूलिआवत्थू पण्णत्ता, नाणप्पवायपुवस्स णं बारस वत्थ पण्णता, सञ्चप्पवायपुव्वस्स ण दोपिण वत्थू पण्णत्ता, आयप्पवायपुवस्स णं सोलस वत्थू पपणत्ता, कम्मप्पवायपुवस्स णं तीसं वत्थू पण्णत्ता, पञ्चक्खाणपुव्वस्स णं वीसं वत्थ पन्नत्ता, विजाणुप्पवायपुवस्स णं पनरस वस्थू पण्णत्ता, अवंझपुव्वस्स णं बारस वत्थ पन्नत्ता, पाणाउपुवस्सणं तेरस वत्थू पण्णत्ता, किरिआविसालपुवस्स णं तीसं वत्थ पण्णता, लोकबिंदुसारपुवस्स णं पणुवीस वस्] पण्णत्ता-'दस १ चोदस अट्रहारसेव४ बारस ५ दुवे६अ वत्थूणि। सोलस७तीसार दीप अनुक्रम [१५०-१५४]] SARELadimateand ~ 476~ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [ ५७ ] + ॥८२ -८४|| दीप अनुक्रम [१५० -१५४] श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ॥२३७॥ “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ५७ ]/ गाथा ||८२-८४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः वीसा ९ पनरस १० अणुष्पवामि ॥८२॥ वारस इक्कारसमे वारसमे तेरसेव वत्थूणि । तीसा पुण तेरसमे चोदसमे पणवीसाओ ॥ ८३ ॥ चत्तारि १ दुवालस २ अट्ट ३ चैत्र दस ४ चैव चुलवत्थूणि । आइलाण चउहं सेसाणं चूलिआ नत्थि ॥८४॥ से तं पुण्वगए । से किं तं अणुओगे ?, अणुओगे दुपण्णत्ते, तंजहा- मूलपढमाणुओगे गंडिआणुओगे य, से किं तं मूलपढमाणुओगे ?, मूलपढमाणुओगे णं अरहंताणं भगवंताणं पुग्वभवा देवगमणाई आउंचवणाई जम्मणाणि अभिसेआ रायवरसिरीओ पव्वज्जाओ तवा य उग्गा केवलनाणुप्पयाओ तित्थपवत्तणाणि अ सीसा गणा गंणहरा अजपवत्तिणीओ संघस्स चउव्विहस्स जं च परिमाणं जिणमणपज्जवओहिनाणी सम्मत्तसुअनाणिणो अ वाई अणुत्तरगई अ उत्तरवेउब्विणो अमुणिणो जत्ति सिद्धा सिद्धीपहो जह देसिओ जचिरं च कालं पाओवगया जे जहिं जत्तिआई भत्ताई छेइत्ता अंतगडे मुणिवरुत्तमे तमरओधविष्यमुक्के मुक्खसुहमणुत्तरं च पत्ते एवमन्ने अ एवमाभावा मूल पढमाणुओगे कहिआ, सेत्तं मूलपढमाणुओगे । से किं तं गंडिआ For Personal Prata Use Only ~ 477 ~ दृष्टिवादेपरिकर्माद्य धिकार: सू. ५७ १५ २० ॥२३७॥ २२ Jandorary.org Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [१७]/गाथा ||८२-८४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७] RE दृष्टिवादेपरिकाच धिकार सू. ५७ -८४॥ णुओगे ?, २ कुलगरगंडिआओ तित्थयरगंडिआओ चक्कवट्टिगंडिआओ दसारगंडिआओ बलदेवगंडिआओ वासुदेवगंडिआओ गणधरगंडिआओ भद्दबाहुगंडिआओ तवोकम्मगंडिआओ हरिवंसगंडिआओ उस्सप्पिणीगंडिआओ ओसप्पिणीगंडिआओ चित्ततरगंडिआओ अमरनरतिरिअनिरयगइगमणविविहपरियट्टणेसु एवमाइआओ गंडिआओ आघविजंति पण्णविजंति, . से तं गंडिआणुओगे, से तं अणुओगे । से किं तं चूलिआओ ?, चूलिआओ आइल्लाणं चउण्हं पुव्वाणं चूलिआ, सेसाई पुव्वाइं अचूलिआई,से तं चूलिआओ ५।दिट्रिवायस्स णं परित्ता वायणा संखेज्जा अणुओगदारा संखेजा वेढा संखेज्जा सिलोगा संखेजाओ पडिवत्तीओ संखिजाओ निजुत्तीओ संखेजाओ संगहणीओ, से णं अंगठ्याए बारसमे अंगे एगे सुअक्खंधे चोदस पुब्वाइं संखेज्जा वत्थूसंखेज्जा चूलवत्थू संखेजापाहुडा संखेजा पाहुडपाहुडा संखेजाओ पा. हुडिआओसंखेजाओ पाहुडपाहुडिआओ संखेजाई पयसहस्साइं पयग्गेणं संखेजा अक्खरा अणंतागमा अणंतापज्जवा परित्ता तसा अणंता थावरासासयकडनिबद्धनिकाइआ जिणपन्नत्ता भावा दीप अनुक्रम [१५०-१५४]] ~ 478~ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [१७]/गाथा ||८२-८४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५७] घिकार: -८४|| श्रीमलय- आघविजति पण्णविनंति परूविजंति देसिजति निदसिजति उवदंसिर्जति, से एवं आया एवं गिरीया नाया एवं विन्नाया एवं चरणकरणपरूवणा आघविज्जति, से तं दिट्रिवाए १२ ॥ (सू. ५७) परिकर्माद्य A नन्दीवृत्तिः 'से किं तमित्यादि, अथ कोऽयं दृष्टिवादः?, दृष्टयो-दर्शनानि वदनं वादः दृष्टीनां वादो दृष्टिबादः, अथवा पतनं सू. ५७ ॥२३८॥ 181पातो दृष्टीनां पातो यत्र स दृष्टिपातः, तथाहि-तत्र सर्वनयदृष्टय आख्यायन्ते, तथा चाह सूरिः-'दिट्ठिवाए णमित्यादि, हरष्टिवादेन अथवा दृष्टिपातेन यद्वा दृष्टिवादे दृष्टिपाते 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे सर्वभावप्ररूपणा आख्यायते, 'से समा-2 सतो पंचविहे पन्नत्ते' इत्यादि, सर्वमिदं प्रायो व्यवच्छिन्नं तथापि लेशतो यथाऽऽगतसम्प्रदाय किश्चियाख्यायते, स दृष्टिवादो दृष्टिपातो वा समासतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-परिकर्म १ सूत्राणि २ पूर्वगतं ३ अनुयोग ४ श्चलिका 1५, तत्र परिकर्म नाम योग्यतापादनं तद्धेतुः शास्त्रमपि परिकर्म, किमुक्तं भवति ?-सूत्रादिपूर्वगतानुयोगसूत्रार्थग्रहणयोग्यतासम्पादनसमर्थानि परिकर्माणि, यथा गणितशास्खे सङ्कलनादीन्यायानि पोडश परिकर्माणि शेषगणितसूत्रार्थग्रहणे योग्यतासम्पादनसमर्थानि, तथाहि-यथा गणितशाखे गणितशाखगताद्यपोडशपरिकर्मगृहीतसूत्रार्थः सन् शेषग-1 |णितशाखग्रहणयोग्यो भवति, नान्यथा, तथा गृहीतविवक्षितपरिकर्मसूत्रार्थः सन् शेषसूत्रादिरूपदृष्टिवादश्रुतग्रह-11 णयोग्यो भवति, नेतरथा, तथा चोक्तं चूपों-'परिकम्र्मेति योग्यताकरणं, जह गणियस्स सोलस परिकम्मा, त-15 ग्गहियसुत्तत्थो सेसगणियस्स जोग्गो भवइ, एवं गहियपरिकम्मसुत्तत्थो सेससुत्ताइदिहिवायस्स जोग्गो भवई"त्ति। 25ARSECREENA दीप अनुक्रम [१५०-१५४]] १ . २४ ~479~ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [१७]/गाथा ||८२-८४|| ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५७]] परिकर्मसूत्राणाम -८४॥ तच परिकर्म सिद्धश्रेणिकापरिकर्मादिमूलभेदापेक्षाया सप्तविधं, मातृकापदाद्युत्तरभेदापेक्षया व्यशीतिविघं, तच्च समूलोत्तरभेदं सकलमपि सूत्रतोऽर्थतश्च व्यवच्छिन्नं, यथागतसम्प्रदायतो वा वाच्यं, एतेषां च सिद्ध श्रेणिकाप- रिकर्मादीनां सप्तानां परिकर्मणामाद्यानि पद परिकर्माणि स्खसमयवक्तव्यतानुगतानि, खसिद्धान्तप्रकाशकानीत्यर्थः, ये तु गोशालप्रवर्तिता आजीविकाः पाषंडिनस्तन्मतेन च्युताच्युतश्रेणिका षट्परिकर्मसहि तानि (ता.), सप्तापि परिकर्माणि प्रज्ञाप्यन्ते, सम्प्रत्येष्वेव परिकर्मसु नयचिन्ता, तत्र नयाः सप्त नैगमादयः, नैगमोऽपि द्विधा-सामान्यदाग्राही विशेषग्राही च, तत्र यः सामान्यग्राही स सङ्कहं प्रविष्टो यस्तु विशेषग्राही स व्यवहारं, आह च भाष्यकृत् “जो सामन्नग्गाही स नेगमो संगई गओ अहवा । इयरो वयहारमिओ जो तेण समाणनिदेसो ॥१॥" शब्दादयश्च त्रयोऽपि नया एक एव नयः परिकल्प्यते, खत एवं चत्वार एव नयाः, एतश्चतुर्भिर्नयैरायानि पट परिकर्माणि खस|मयवक्तव्यतया परिचिन्त्यन्ते, तथा चाह चूर्णिकृत-"इयाणि परिकम्मे नयचिंता, नेगमो दुविहो-संगहिओ असंग-15 |हिओ य, तत्थ संगहिओ संगहं पविट्ठो असंगहिओ ववहार, तम्हा संगहो ववहारो उज्जुसुओ सहाइया य एको, एवं चउरो नया, एएहिं चाहिं नएहि छ ससमइगा परिकम्मा चिंतिजति" तथा चाह सूत्रकृत्-'छ चउकनइयाईति, आद्यानि पटू परिकर्माणि चतुर्नयिकानि-चतुर्नयोपेतानि, तथा त एवं गोशालप्रवर्तिता आजीविकाः पाखण्डिनलेराशिका उच्यन्ते, कस्मादिति चेदुच्यते , इह ते सर्व वस्तु यात्मकमिच्छन्ति, तद्यथा-जीवोऽजीवो जीवाजीवश्च दीप अनुक्रम [१५०-१५४]] Res ~ 480~ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [१७]/गाथा ||८२-८४|| ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५७] -८५11 श्रीमलय-13 लोका अलोका लोकालोकाच, सदसत्सदसत् ,नयचिन्तायामपि त्रिविधं नयमिच्छन्ति,तद्यथा-द्रव्यास्तिकं पर्यायास्ति- परिकर्मगिरीया कमुभयास्तिकं च, ततत्रिभी राशिभिश्चरन्तीति त्रैराशिकाः तन्मतेन सप्तापि परिकर्माणि उच्यन्ते, तथा चाह सूत्रकृत्- सूत्रागामनन्दीवृत्तिः | 'सत्व तेरासिया' इति, सप्त परिकर्माणि त्रैराशिकमतानुयायीनि, एतदुक्तं भवति-पूर्व सूरयो नयचिन्तायां त्रैराशि साधिकार: ॥२३९॥ ककमतमवलम्बमानाः सप्तापि परिकर्माणि विविधयापि नयचिन्तया चिन्तयन्ति स्मेति, 'सेत्तं परिकम्मे' तदेतत्परिकर्म। 'से किं तं सुत्ताई' अथ कानि सूत्राणि ?, पू(सर्वस्य पूर्वगतसूत्रार्थस्य सूचनात्सूत्राणि, तथाहि-तानि सूत्राणि सर्वद्रब्याणां सर्वपर्यायाणां सर्वनयानां सर्वभङ्गविकल्पानां प्रदर्शकानि, तथा चोक्तं चूर्णिकृता-"ताणिय सुत्ताई सचदवाण सबपजवाण सबनयाण सबभंगविकप्पाण य पदंसगाणि । सबस्स पुवगयस्स सुयस्स अत्थस्स य सूयगत्ति सूयणचाउ(वा) सुया भणिया जहाभिहाणत्था" इति, आचार्य आह-सूत्राणि द्वाविंशतिः प्रज्ञप्तानि, तद्यथा 'ऋजुसूत्र'मित्यादि, एतान्यपि सम्प्रति सूत्रतोऽर्थतश्च व्यवच्छिन्नानि यथागतसम्प्रदायतो वा वाच्यानि, एतानि च सूत्राणि नयविभागतो विभज्यमानानि अष्टाशीतिसङ्ख्यानि भवन्ति, कथमिति चेत् ? अत आह-'इच्चेझ्याई ॥२३९॥ बावीसं सुत्ताई' इत्यादि, इह यो नाम नयः सूत्रं छेदेन छिन्नमेवाभिप्रेति न द्वितीयेन सूत्रेण सह सम्बन्धयति यथा 'धम्मो मंगलमुक्किट्ठ'मिति श्लोक, तथाहि-अयं श्लोकः छिनच्छेदनयमतेन व्याख्यायमानो न द्वितीयादीन् 81३५ श्लोकानपेक्षते नापि द्वितीयादयः श्लोका अमुं, अयमत्राभिप्रायः-तथा कथञ्चनाप्यमुं श्लोकं पूर्वसूरयः छिन्नच्छे दीप अनुक्रम [१५०-१५४]] SHARERucatunaN E ~481~ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [१७]/गाथा ||८२-८४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७] ५ -5600-3402068 सदनयमतेन व्याख्यान्ति स्म यथा न मनागपि द्वितीयादिश्लोकानामपेक्षा भवति, द्वितीयादीनपि श्लोकान्प रिकर्म तथा व्याख्यान्ति स्म यथा न तेपां प्रथमश्लोकस्यापेक्षा, तथा सूत्राण्यपि यन्नयाभिप्रायेण परस्परं निरपे-18 सूत्राणाम क्षाणि व्याख्यान्ति स्म स छिन्नग्छेदनयः, छिन्नो-द्विधाकृतः पृथकृतः छेदः-पर्यन्तो येन स छिनच्छेदः प्रत्येकदा विकारर विकल्पितपर्यन्त इत्यर्थः, स चासो नयश्च छिनच्छेदनय()श्च, इत्येतानि द्वाविंशतिः सूत्राणि खसमयसूत्रपरिपायांखसमयवक्तव्यतामधिकृत्य सूत्रपरिपाट्यां विवक्षितायां छिनछेदनयिकानि, अत्र 'अतोऽनेकखरा'दिति मत्वर्थाय | इकप्रत्ययः, ततोऽयमर्थः-छिन्नच्छेदनयवन्ति द्रष्टव्यानि, तथा 'इचेइयाई' इत्यादि, इत्येतानि द्वाविंशतिः सूत्राणि आजीविकसूत्रपरिपाट्यां-गोशालप्रवर्तिताजीविकपाखण्डिमतेन सूत्रपरिपाट्यां विवक्षितायामच्छिन्नच्छेदनयिकानि, इयमत्र भावना-अच्छिन्नच्छेदनयो नाम यः सूत्रं सूत्रान्तरेण सहाच्छिन्नमर्थतः सम्बद्धमभिप्रेति, यथा 'धम्मो मंगलमुकिट्ठ मिति श्लोकं,तथाहि-अयं श्लोकोऽच्छिन्नच्छेदनयमतेन व्याख्यायमानो द्वितीयादीन् श्लोकानपेक्षते द्वितीयादयोऽपि श्लोका एनं श्लोकं,एवमेतान्यपि द्वाविंशतिःसूत्राणि अक्षररचनामधिकृत्य परस्परं विभक्तान्यपि स्थितान्यच्छिन्नच्छेदनयम-18R तेनार्थसम्बन्धमपेक्ष्य सापेक्षाणि वर्तन्ते, तदेवं नयाभिप्रायेण परस्परं सूत्राणां सम्बन्धासंबन्धावधिकृत्य भेदो दर्शितः, सम्प्रत्यन्यथा नयविभागमधिकृत्य भेदं दर्शयति-'इबेइयाई' इत्यादि, इत्येतानि द्वाविंशतिः सूत्राणि त्रैराशिकसूत्रपरिपाट्यां-त्रैराशिकनयमतेन सूत्रपरिपाट्यां विवक्षितायां त्रिकनयिकानि, त्रिकेति प्राकृतत्वात् खार्थे कः प्रत्ययः, त- १३ -८४|| दीप अनुक्रम [१५०-१५४]] ~ 482~ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [१७]/गाथा ||८२-८४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक सूत्रपूर्वग [५७] -८४ श्रीमलय- तोऽयमर्थ:-त्रिनयिकानि-त्रिनयोपेतानि, किमुक्तं भवति ?-त्रैराशिकमतमवलम्ब्य द्रव्यास्तिकादिनयत्रिकेण चिन्त्यन्ते । गिरीया इति, तथा इत्येतानि द्वाविंशतिः सूत्राणि खसमयसूत्रपरिपाट्यां-खसमयवक्तव्यतामधिकृत्य सूत्रपरिपाट्यां विवक्षि- ताधिकार बन्दीष्टचितायां चतुर्नयिकानि-सङ्ग्रहव्यवहारकजुसूत्रशब्दरूपनयचतुष्टयोपेतानि, सङ्ग्रहादिनयचतुष्टयेन चिन्त्यम्ते इत्यर्थः, एव॥२४ मेव-उक्तेनैव प्रकारेण 'पुचावरेणीति पूर्वाणि चापराणि च पूर्वापरं समाहारप्रधानो द्वन्द्वः, पूर्वापरसमुदाय इत्यर्थः, ततः, एतदुक्तं भवति-नयविभागतो विभिन्नानि पूर्वाण्यपराणि च सूत्राणि समुदितानि सर्वसङ्ख्ययाऽष्टाशीतिः सूत्राणि भवन्ति, चतसृणां द्वाविंशतीनामष्टाशीतिमानत्वात् , इत्याख्यातं तीर्थकरगणधरैः, 'से तं मुत्ताई तान्येतानि सूत्राणि 1310 से किं त'मित्यादि, अथ किं तत्पूर्वगतं ?, इह तीर्थकरस्तीर्थप्रवर्तनकाले गणधरान् सकलश्रुताविमानसमर्थानधिविकृत्य पूर्व पूर्वगतं सूत्रार्थ भापते, ततस्तानि पूर्वाण्युच्यन्ते,गणधराः पुनः सूत्ररचनां विदधतः आचारादिक्रमेण विदधति दिखापयन्ति चा, अन्ये तु ब्याचक्षते-पूर्व पूर्वगतसूत्रार्थमर्हन् भापते गणधरा अपि पूर्व पूर्वगतसूत्रं विरचयन्ति पश्चा सदाचारादिकम् , अत्र चोदक आह-जन्धिदं पूर्वापरविरुद्धं यस्मादादौ निर्युक्ताबुतं-सवेसि आधारो पढमो' इत्यादि, जासत्यमुक्तं, किन्तु तत्स्थापनामधिकृत्योक्तमक्षररचनामधिकृत्य पुनः पूर्व पूर्वाणि कृतानि ततो न कश्चित् पूर्वापरविरोधः,18 सरिराह-'पुतगयं' इत्यादि, पूर्वगतं श्रुतं चतुर्दशविध प्रज्ञतं, तद्यथा-'उत्पादपूर्वमित्यादि, तत्र उत्पादप्रतिपादक २५ पूर्वमुत्पादपूर्व, तथाहि-तत्र सर्वव्याणां सर्वपयार्याणां चोत्पादमधिकृय प्ररूपणा क्रियते, आह चूर्णिकृत्-“पढम। दीप अनुक्रम [१५०-१५४]] २६ ~483~ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [१७]/गाथा ||८२-८४|| ... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५७]] चतुर्दशपूर्वी RASA -८४|| ACROCOCALCRECORA उप्पायपुवं, तत्थ सबदवाणं पजवाण य उप्पायमंगीकाउं पण्णवणा कया" इति, तस्य पदपरिमाणमेका पदकोटी। द्वितीयमग्रायणीयं,अग्रं-परिमाणं तस्यायनं गमनं परिच्छेदनमित्यर्थः तस्मै हितमग्रायणीयं, सर्वद्रव्यादिपरिमाणपरिच्छे- दकारीति भावार्थः, तथाहि-सर्व जीवद्रव्याणां सर्वपर्यायाणां सर्वजीवविशेषाणां च (तत्र)परिमाणमुपवर्ण्यते, यत | उक्तं चूर्णिकृता-"विइयं अग्गाणीयं, तत्थ सबदवाण पजवाण सबजीवाण य अग्ग-परिमाणं वन्निजई"त्ति, अपायहाणीयं तस्य पदपरिमाणं षण्णवतिः पदशतसहस्राणि । तृतीयं पूर्व 'बीरियन्ति पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद्वीर्यप्रवाद, तत्र सकर्मतराणां जीवानामजीवानां च वीर्य प्रवदतीति वीर्यप्रवाद, 'कर्मणोऽणि ति अण्प्रत्ययः, तस्य पदपरिमाणं | सप्ततिः पदशतसहस्राणि । चतुर्थमस्तिनास्तिप्रवाई, तत्र यद्वस्तु लोकेऽस्ति धर्मास्तिकायादि यच नास्ति खरशृङ्गादि तत्प्रवदतीत्यस्तिनास्तिप्रवाद, अथवा सर्व वस्तु खरूपेणास्ति पररूपेण नास्तीति प्रवदतीति अस्तिनास्तिप्रवाद, तस्य पदपरिमाणं षष्टिः पदशतसहस्राणि । पञ्चमं ज्ञानप्रवाई, ज्ञान-मतिज्ञानादिभेदभिन्नं पञ्चप्रकारं तत्सप्रपञ्चं वदतीति ज्ञा|नप्रवादं, तस्य पदपरिमाणमेका पदकोटी पदेनैकेन न्यूना । षष्ठं सत्यप्रवाद, सत्यं-संयमो वचनं वा तत्सत्यं संयम वचनं वा प्रकर्षण सप्रपञ्च वदतीति सत्यप्रवादं, तस्य पदपरिमाणमेका पदकोटी षड्भिः पदेरभ्यधिका । सप्तमं पूर्वमात्मप्रवादं, आत्मानं-जीवमनेकधा नयमतभेदेन यत्प्रवदति तदात्मप्रवाद, तस्य पदपरिमाणं षड्विंशतिः पदकोटयः।। अष्टमं कम्मेप्रवाई, कर्म-ज्ञानावरणीयादिकमष्टप्रकारं तत्प्रकर्षण-प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशादिभिर्भेदैः सप्रपञ्च बद 4 दीप . 1 अनुक्रम [१५०-१५४]] %---- - MEINhmanand ~484~ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [५७] ॥८२ -८४|| दीप अनुक्रम [१५० -१५४] श्रीमलय नन्दीवृत्ति: ॥२४१॥ “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ५७ ]/ गाथा ||८२-८४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः तीति कर्मप्रवादं तस्य पदपरिमाणमेका पदकोटी अशीतिश्च पदसहस्राणि । नवमं 'पञ्चक्खाणं'ति अत्रापि पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात्प्रत्याख्यानप्रवादमिति द्रष्टव्यं प्रत्याख्यानं सप्रभेदं यद्वदति तत्प्रत्याख्यानप्रवादं तस्य पदपरिमाणं चतुरशीतिः पदलक्षाणि । दशमं विद्यानुप्रवादं, विद्या- अनेकातिशयसम्पन्ना अनुप्रवदति-साधनानुकूल्येन सिद्धिप्रकर्षेण वदतीति विद्यानुप्रवादं तस्य पदपरिमाणमेका पदकोटी दश च पदलक्षाः । एकादशमवन्ध्यं वन्ध्यं नाम निष्फलं न विद्यते वन्ध्यं यत्र तदवन्ध्यं किमुक्तं भवति ?-यत्र सर्वेऽपि ज्ञानतपः संयमादयः शुभफलाः सर्वे च प्रमादादयोऽशुभफला यत्र वर्ण्यन्ते तदवन्ध्यं नाम, तस्य पदपरिमाणं पड़िशतिः पदकोय्यः । द्वादशं प्राणायुः प्राणाः पञ्चेन्द्रियाणि त्रीणि मानसादीनि बलानि उच्च्छासनिश्वासौ चायुश्च प्रतीतं, ततो यत्र प्राणा आयुश्च सप्रभेदमुपवर्ण्यन्ते तदुपचारतः प्राणायुरित्युच्यते, तस्य पदपरिमाणमेका पदकोटी पट्पञ्चाशञ्च पदलक्षाणि । त्रयोदशं क्रियाविशालं, क्रियाः - कायिकयादयः संयमक्रियाश्च ताभिः प्ररूप्यमाणाभिर्विशालं क्रियाविशालं, तस्य पदपरिमाणं नव कोटयः । चतुर्दशं लोकविन्दुसारं, लोके - जगति श्रुतलोके च अक्षरस्योपरि विन्दुरिव सारं - सर्वोत्तमं सर्वाक्षरसन्निपातलब्धिहेतुत्वात् लोकविन्दुसारं, तस्य पदपरिमाणमर्द्धत्रयोदशकोटयः । 'उप्पायपुञ्चस्स ण' मित्यादिकं कण्ठ्यं, नवरं वस्तु- प्रन्थविच्छेदविशेषः तदेव लघुतरं चुलकं वस्तु, तानि चादिमेष्वेव चतुर्षु, न शेषेषु, तथा चाह- 'आइलाण चउन्हं सेसाणं चुलिया णत्थि', 'सेत्तं पुबगए' तदेतत्पूर्वगतं । 'से किं तमित्यादि, अथ कोऽयमनुयोगः ?, अनुरूपोऽनुकूलो वा योगोऽनुयोगः For Penal Praise Only Jucaton International ~ 485 ~ चतुर्दशपूर्वा धिकारः २० ॥२४१॥ २५ nar Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [१७]/गाथा ||८२-८४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७] -८४|| सूत्रस्य स्वेनाभिधेयेन सार्द्धमनुरूपः सम्बन्धः, स च द्विधा-मूलप्रथमानुयोगो गण्डिकानुयोगश्च, इह मूलं-धर्मप्रण- मूलप्रथमायनातीर्थकरास्तेषां प्रथमः-सम्यक्त्वायाप्सिलक्षणपूर्वभवादिगोचरोऽनुयोगो मूलप्रथमानुयोगः, इक्षादीनां पूर्वापरपर्व-13 नुयोग: परिच्छिन्नो मध्यभागो गण्डिका गण्डिकेव गण्डिका-एकार्थाधिकारा ग्रन्थपद्धतिरित्यर्थः, तस्या अनुयोगो गण्डिका-18 नुयोगः । 'से किं त'मित्यादि, अथ कोऽयं मूलप्रथमानुयोगः?, आचार्य आह-मूलप्रथमानुयोगेन अथवा मूलप्रथ-11 मानुयोगे 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे अर्हतां भगवतां सम्यक्त्वभवादारभ्य पूर्वभवा देवलोकगमनानि तेषु पूर्वभवेषु देव-11 भवेषु चायुर्देवलोकेभ्यश्यवनं तीर्थकरभवत्वेनोत्पादस्ततो जन्मानि ततः शैलराजे सुरासुरैर्विधीयमाना अभिषेका इत्यादि पाठसिद्धं यापन्निगमनं । 'से कि तमित्यादि, अथ कोऽयं गण्डिकानुयोगः?, सूरिराह-गण्डिकानुयोगेन अथवा गण्डिकानुयोगे 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे, कुलकरगण्डिकाः, इह सर्वत्राप्यपान्तरालवर्त्तिन्यो बहुचः प्रतिनियतैकार्थाधिकाररूपा गण्डिकास्ततो बहुवचनं, कुलकराणां गण्डिकाः कुलकरगण्डिकाः, तत्र कुलकराणां विमलवाहना-15 दीनां पूर्वभवजन्मनामादीनि सप्रपञ्चमुपवर्ण्यन्ते, एवं तीर्थकरगण्डिकादिष्वभिधानवशतो भावनीयं, 'जाव चिनंतर- गडिआउत्ति चित्रा-अनेकार्था अन्तरे-ऋषभाजिततीर्थकरापान्तराले गण्डिकाः चित्रान्तरगण्डिकाः, एतदुक्तं भयति-ऋषभाजिततीर्थकरान्तरे ऋषभवंशसमुद्भतभूपतीनां शेषगतिगमनव्युदासेन शिवगतिगमनानुत्तरोपपातप्राप्ति-12 ४ प्रतिपादिका गण्डिकाश्चित्रान्तरगण्डिकाः, तासां च प्ररूपणा पूर्वाचायरेवमकारि-वह सुबुद्धिनामा सगरचक्रवर्तिनो दीप अनुक्रम [१५०-१५४] ~486~ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [५७] + ॥८२ -८४|| दीप अनुक्रम [१५० -१५४] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ५७ ]/ गाथा ||८२-८४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ४४ ॥२४२॥ महामात्योऽष्टापदपर्वते सगर चक्रवर्त्तिसुतेभ्य आदित्ययशःप्रभृतीना भगवद्दषभवंशजानां भूपतीनामेवं सङ्ख्यामाख्यातुमुपक्रमते स्म, आह च- " आइचजसाईणं उसभस्स परंपरा नरवईणं । सगरसुवाण सुबुद्धी इणमो संखं परिकहे ॥ १॥” आदित्यशःप्रभृतयो भगवन्नाभेयवंशजाखिखण्ड भरतार्द्धमनुपालय पर्यन्ते पारमेश्वरीं दीक्षामभिगृव तत्प्रभावतः सकलकर्मक्षयं कृत्वा चतुर्द्दश लक्षा निरन्तरं सिद्धिमगमन् तत एकः सर्वार्थसिद्धौ ततो भूयोऽपि चतुर्द्दश लक्षा निरन्तरं निर्वाणे, ततोऽप्येकः सर्वार्थसिद्धे महाविमाने, एवं चतुर्दशलक्षान्तरितः सर्वार्थसिद्धावेकैकस्तायद्वक्तव्यो यावत्तेऽप्येकका असङ्ख्येया भवन्ति, ततो भूयश्चतुर्द्दश लक्षा नरपतीनां निरन्तरं निर्वाणे ततो द्वौ सर्वार्थसिद्धे, ततः पुनरपि चतुईश लक्षा निरन्तरं निर्वाणे ततो भूयोऽपि द्वौ सर्वार्थसिद्धे, ततः पुनरपि चतुर्द्दश लक्षा निरन्तरं निर्वाणे ततो भूयोऽपि द्वौ सर्वार्थसिद्धे, एवं चतुर्दश लक्षा २ लक्षान्तरितौ द्वौ २ सर्वार्थसिद्धे तावद्वक्तव्यौ यावत्तेऽपि द्विक २ साया असलेया भवन्ति, एवं त्रिक २ सङ्ख्यादयोऽपि प्रत्येकमसङ्ख्येयास्तावद्वकन्याः यावन्निरन्तरं चतुर्द्दश लक्षा निर्माणे ततः पञ्चाशत्सर्वार्थसिद्धे ततो भूयोऽपि चतुर्द्दश लक्षा निर्वाणे ततः पुनरपि पञ्चाशत्सर्वार्थसिद्धे, एवं पञ्चाशत्सङ्ख्याका अपि चतुर्द्दश २ लक्षान्तरितास्तावद्व कण्या यावत्तेऽप्यसङ्ख्येया भवन्ति, उक्तं च- " चोदस लक्खा सिद्धा निवईणेको य होइ सचढे । एवेकेके ठाणे पुरिसजुगा होंतिऽसंखेजा ॥ १॥ पुणरवि चोदस लक्खा सिद्धा निवईण दोवि सचट्ठे । दुगठाणेऽवि असंखा पुरिसजुगा होंति नायचा ॥२॥ जाव य लक्खा चोइस सिद्धा पण्णास होंति सबढे । पन्नासहा Educator International For Pal Use Only ~ 487 ~ मूलप्रथमानुगण्डिकानुयोगः २० ॥२४२॥ २५ waryru Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [१७]/गाथा ||८२-८४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक णेवि उ पुरिसजुगा होतिऽसंखेजा ॥३॥ एगुत्तरा उ ठाणा सबढे चेव जाव पन्नासा । एकेकंतरठाणे पुरिसजुगागण्डिकानुहोतिऽसंखेजा॥४॥ स्थापना । योगः [१७] -८४॥ ततोऽनन्तरं चतुर्दश लक्षा नरपतीनां निरन्तरं सर्वार्थसिद्धे एकः सिद्धौ, भूयः चतुर्दश लक्षाः सर्वार्थ एकः सिद्धी, एवं चतुर्दशचतुर्दशलक्षान्तरित एकैकः सिद्धी तावद्वक्तव्यो यावत्तेऽप्येकका असङ्ख्यया भवन्ति, ततो भूयोऽपि चतु-है ईश लक्षा नरपतीनां निरन्तरं सर्वार्थसिद्धौ, ततो द्वौ निर्वाणे, ततः पुनरपि चतुर्दश लक्षाः सर्वार्थसिद्धे ततो भूयोऽपि द्वौ निर्वाणे एवं चतुर्दशलक्षान्तरिती २ द्वौ २ निर्वाणे तापद्वक्तव्यी यावत्तेऽपि द्विकसक्यया असङ्ख्यया भवन्ति, एवं त्रिक २ सयादयोऽपि यावत्पञ्चाशत्सायाश्चतुर्दशचतुर्दशलक्षान्तरिताः सिद्धी प्रत्येकमसलोया वक्तव्याः, उक्तं च "विवरीयं सबढे चोदसलक्खा उ निवुओ एगो । सचेव य परिवाडी पन्नासा जाव सिद्धीए ॥१॥" स्थापना । दीप अनुक्रम [१५०-१५४]] १४ |१४|१४|१४१४|१४|१४|१४|१४|१४|१४| ततः परं वे लक्षे नरपतीनां निरन्तरं निर्वाणे, ततो वे लक्षे निरन्तरं सर्वार्थसिद्धी, ततस्तिस्रो लक्षा निर्वाणे, REMImmational ~ 488~ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [१७]/गाथा ||८२-८४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक गण्डिकानुयोग [५७] श्रीमलय-18 ततो भूयोऽपि तिस्रो लक्षाः सर्वार्थसिद्ध, ततश्चतस्रो लक्षा निर्वाणे, ततः पुनरपि चतस्रो लक्षाः सर्वार्थसिद्धे, एवं M गिरीया | पञ्च पञ्च षट् २ याबदुभयत्राप्यसङ्ख्येया लक्षा वक्तव्याः , आह च-"तेण परं दुलक्खाई दो दो ठाणा य समग विचंति । सिवगइसबढेहिं इणमो तेर्सि विही होइ ॥१॥दो लक्खा सिद्धीए दो लक्खा नरवईण सबढे । एवं ॥२४॥18॥तिलक्ख चउ पंच जाव लक्खा असंखेजा ॥२॥" स्थापना ॥ दीप ततः परं चतस्रश्चित्रान्तरगण्डिकाः, तद्यथा-प्रथमाएकादिका एकोत्तरा, द्वितीया एकादिका व्युत्तरा, तृतीया एका18|दिका व्युत्तरा, चतुर्थी च्यादिका व्यादिविषमोत्तरा, आह च-"सिवगइसबहिं चित्तंतरगंडिया तओ चउरो। एगा एगुचरिया एगाइ विउत्तरा बिइया ॥१॥ एगाइतिउत्तरा एगाइ विसमुत्तरा चउत्थी उ।" प्रथमा भाव्यतेप्रथममेकः सिद्धौ ततो द्वौ सर्वार्थसिद्धे ततस्त्रयः सिद्धौ ततश्चत्वारः सर्वार्थे ततः पञ्च सिद्धौ ततः पद सर्वार्थ एवमे-1AL कोत्तरया वृद्ध्या शिवगतो सर्वार्थे च तावद्वक्तव्याः यावदुभयत्राप्यसङ्ख्यया भवन्ति, उक्तं च-"पढमाए सिद्धेको दादोन्नि उ सबट्ठसिद्धमि ॥२॥ तत्तो तिनि नरिंदा सिद्धा चत्तारि होति सबढे । इय जाव असंखेजा सिवगइ-18 सघट्टसिद्धेहि ॥३॥" स्थापना ॥ अनुक्रम [१५०-१५४]] ॥२४॥ ~ 489~ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत [५७] ॥८२ -८४|| दीप अनुक्रम [१५० -१५४] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ५७ ]/ गाथा ||८२-८४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४४], चूलिका सूत्र [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः १ ३ ५ ७ ९ ११ १३ १५ १७ १९ BEAT | २ ४ ६ ८ १० १२ १४ १६ १८ २० सम्प्रति द्वितीया भाव्यते, ततः ऊर्द्धमेकः सिद्धी त्रयः सर्वार्थे ततः पञ्च सिद्धौ सप्त सर्वार्थे ततो नव सिद्धौ एकादश सर्वार्थे ततः त्रयोदश सिद्धौ पञ्चदश सर्वार्थ एवं द्व्युत्तरया वृद्ध्या शिवगतौ सर्वार्थे च तावद्वक्तव्यौ यावदुभयत्राप्यसङ्ख्येया भवन्ति, उक्तं च--"ताई दिउत्तराए सिद्धेको तिन्नि होंति सङ्घट्टे । एवं पंच व सत्त य जाव असंखेज दोणिवि ॥ १ ॥ ति । स्थापना ॥ १ ५ ९ १३ | १७ २१ २५ सम्प्रति तृतीया भाव्यते, ततः परमेकः सिद्धौ चत्वारः सर्वार्थे, ततः सप्त सिद्धौ दश सर्वार्थे, ततस्त्रयोदश सिद्धौ षोडश सर्वार्थे, एवं श्युत्तरया वृद्ध्या शिवगतौ सर्वार्थे च क्रमेण तावदवसेयं यावदुभयत्राप्यस ज्ञेया गता भवन्ति, उक्तं, च-"एग चउ सत्त दसगं जाव असंखेज होंति ते दोषि । सिवगयसबहिं तिउत्तराए उ नायवा ॥१॥" स्थापना ॥' Education International १ ७ १३ १९ २५ ३१ ३७ ४३ ४९ ५५ १० १६ २२ २८ ३४ ४० ४६ ५२ ५८ ४ For Parkala Use Only ~ 490 ~ गण्डिकानु योगः १३ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [१७]/गाथा ||८२-८४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक श्रीमलयगिरीया दिगण्डकानु [५७] योग नन्दीपत्तिः ॥२४॥ -८४|| सम्प्रति चतुर्थी भाव्यते, सा च विचित्रा, ततस्तस्याः परिज्ञानार्थमयमुपायः पूर्वाचार्यदेर्शितः, इह एकोनत्रिंशत्सयास्त्रिका ऊधिःपरिपाच्या पट्टिकादौ स्थाप्यन्ते, तत्र प्रथमे त्रिके न किश्चिदपि प्रक्षिप्यते, द्वितीये द्वौ प्रक्षिप्यते | तृतीये पञ्च चतुर्थे नव पञ्चमे त्रयोदश षष्ठे सप्तदश सप्तमे द्वाविंशतिः अष्टमे षट् नवमे अष्टौ दशमे द्वादश एकादशे चतुर्दश द्वादशेऽष्टाविंशतिः त्रयोदशे पड्डिंशतिः चतुर्दशे पञ्चविंशतिः पञ्चदशे एकादश पोडशे त्रयोविंशतिः सप्तदशे सप्तचत्वारिंशत् अष्टादशे सप्ततिः एकोनविंशे सससप्ततिः विंशती एकः एकविंशे द्वौ द्वाविंशे सप्ताशीतिः त्रयोविंशे |एकसप्ततिः चतुर्विशे द्विषष्टिः पञ्चविंशे एकोनससतिः षड्डुिशे चतुर्विशतिः सप्तर्विशे षट्चत्वारिंशत् अष्टाविंशे शतं एकोन त्रिंशे षड्विंशतिः, उक्तंच-"[ताहे] तियगाइविसमुत्तराए अउणतीसं तु तियग ठाउं । पढमे नत्थि उ खेबो सेसेसु र इमो भवे खेयो ॥१॥ दुग पण नवगं तेरस सतरस दुवीसं च छच अटेव । वारस चउदस तह अळूवीस छपीस पणुवीसा ॥२॥ एकारस तेवीसा सीयाला सतरि सत्तहत्तरिया । इग दुग सत्तासीई एगुत्तरमेव बावट्ठी ॥ ३ ॥ अउणत्तरि चउवीसा छायाल सयं तहेय छबीसा । एए रासिक्खेवा तिगतंता जहाकमसो ॥ ४॥" एतेषु च राशिष प्रक्षिप्तेषु यद्भवति तावन्तस्तावन्तः क्रमेण सिद्धौ सर्वार्थे चेत्येवंरूपेण वेदितव्याः, तद्यथा-त्रयः सिद्धौ पञ्च|8| सर्वार्थ ततः सिद्धायष्टी द्वादश सर्वार्थ ततः पोडश सिद्धौ सर्वार्थ विंशतिः ततः पञ्चविंशतिः सिद्धी नव सर्वार्थ तत २५ एकादश सिद्धी पञ्चदश साथै ततः सप्तदश सिद्धौ एकत्रिंशत्सवार्थ तत एकोनत्रिंशत्सिद्धी अष्टाविंशतिः सर्वार्थ दीप अनुक्रम [१५०-१५४]] ~491~ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत [५७] ॥८२ -८४|| दीप अनुक्रम [१५० -१५४] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ५७ ]/ गाथा ||८२-८४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र -[१] “नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ततः सिद्धौ चतुर्द्दश षडंशतिः सर्वार्थ ततः पञ्चाशत्सिद्धौ त्रिसप्ततिः सर्वार्थे ततोऽशीतिः सिद्धौ चत्वारः सर्वार्थे ततः पञ्च सिद्धौ नवतिः सर्वार्थे ततश्चतुःसप्ततिर्मुक्तौ पञ्चषष्टिः सर्वार्थसिद्धे ततः सिद्धौ द्विसप्ततिः सप्तविंशतिः सर्वार्थे एकोनपञ्चाशत् मुक्तौ श्युत्तरं शतं सर्वार्थे तत एकोनत्रिंशत्सिद्धी, उक्तं च – “सिवगसबहिं दो दो ठाण विसमुतरा नेया । जाव उणतीसठाणे गुणतीसं पुण छवीसाए ॥ १ ॥” अत्र 'जावे त्यादि यावदेकोनत्रिंशत्तमे स्थाने त्रिकरूपे पशितौ प्रक्षिप्तायामेकोनत्रिंशद्भवति, स्थापना चेयं । ३ ८ १६ २५ | ११ १७ | २९ | १४ ५० ८० | ५ ७४ ७२ ४९ २९ ५ १२ २० ९ १५ ३१ २८ २६ ७३ | ४ | ९० ६५ २७ १०३ एवं व्यादिविषमोत्तरा गण्डिका असङ्ख्येयास्तावद्वक्तव्या यावदजितखामिपिता जितशत्रुः समुत्पन्नः, नवरं पाश्चात्याय २ गण्डिकायां यदन्त्यमङ्कस्थानं तदुत्तरस्यामादिमं द्रष्टव्यं तथा प्रथमायां गण्डिकायामादिममङ्कस्थानं सिद्धौ द्वितीयस्यां सर्वार्थे तृतीयस्यां सिद्धौ चतुर्थ्यां सर्वार्थे, एवमसङ्ख्ये याखपि गण्डिकाखादिमान्यान्यङ्कस्थानानि क्रमेणैकान्तरितानि शिवगतौ सर्वार्थे च वेदितव्यानि, एतदेव दिग्मात्रप्रदर्शनतो भाव्यते, तत्र प्रथमायां गण्डिकायामन्त्यमङ्कस्थानमेकोनत्रिंशत्तत एकोनत्रिंशद्वारान् सा एकोनत्रिंशद्धः क्रमेण स्थाप्यते, तत्र प्रथमेऽङ्के नास्ति प्रक्षेपः, द्वितीयादिषु चाहेषु 'दुग पण नवगं तेरसे' त्यादयः क्रमेण प्रक्षेपणीया राशयः प्रक्षिप्यन्ते तेषु प्रक्षिप्तेषु च सत्सु यद्यत् क्रमेण For Parts Only ~ 492~ ण्डिकायोगः १० १३ www.ncbrary or Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [१७]/गाथा ||८२-८४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक गिरीया | [५७] श्रीमलय-1४ भवति तावन्तस्तावन्तः क्रमेण सिद्धौ सर्वार्थे इत्येवं वेदितव्याः, तद्यथा-एकोनत्रिंशत्सर्वार्थ सिद्धावेकत्रिंशत्ततश्चतुस्चि- गण्डिकानु शत्सर्वार्थ सिद्धावष्टात्रिंशत्ततो द्विचत्वारिंशत्सर्वार्थे षट्चत्वारिंशसिद्धौ तत एकपञ्चाशत्सर्वार्थे पञ्चत्रिशसिद्धौ सप्तत्रि- योग: नन्दीवृत्तिः । शत्सर्वार्थ सिद्धावेकचत्वारिंशत्रिचत्वारिंशत्सर्वार्थे सप्तपञ्चाशत्सिद्धौ ततः पञ्चपञ्चाशत्सर्वार्थ चतुःपञ्चाश सिद्धौ चत्वा-12 ર૪ रिंशत्सर्वार्थे द्विचत्वारिंशत्सिद्धौ सर्वार्थे षट्सप्ततिः सिद्धौ नवनवतिः षडुत्तरशतं सर्वार्थे त्रिशसिद्धौ एकत्रिंशत्सर्वार्थे 3 सिद्धौ षोडशाधिकं शतं सर्वार्थे शतं सिद्धावेकनवतिः सर्वार्थेऽष्टानवतिः त्रिपञ्चाशसिद्धौ पञ्चसप्ततिः सर्वार्थ सिद्धावेकोनत्रिंशं शतं पञ्चपञ्चाशत्साधे, स्थापना । |२९| ३४ ४२ ५१ ३७ ४३|५५/४० ७६ | १०६ ३१ १९०९४.७५ १५ |३१| ३८४६ ३५ ४१५७५४|४२ ९९ ३०११६/ ९१ ५३ १२९ . एषा द्वितीया गण्डिका, अस्यां च गण्डिकायामन्त्यमङ्कस्थानं पञ्चपञ्चाशत् ततस्तृतीयस्यां गण्डिकायामिदमेवादि-8 ममकस्थानं, ततः पञ्चपञ्चाशदेकोनत्रिंशद्वारान् स्थाप्यते, तत्र प्रथमेऽ नास्ति प्रक्षेपो, द्वितीयादिषु चाङ्केषु क्रमेण || द्विकपञ्चनवत्रयोदशादयः पूर्वोक्तराशयः क्रमेण प्रक्षेपणीयाः प्रक्षिप्यन्ते, इह चादिममङ्कस्थानं सिद्धौ ततस्तेषु प्रक्षेप-12 आणीयेषु राशिषु प्रक्षिसेषु सत्सु यत् २ क्रमेण भवति तावन्तस्तावन्तः प्रथमादकादारभ्य सिद्धौ सर्वार्थे इत्येवं क्रमेण | वेदितव्याः, एवमन्याखपि गडिकासूक्तप्रकारेण भावनीयं, उक्तं च-"विसमुत्तरा य पढमा एवमसंखविसमुत्तरा Fg -८४॥ दीप ॥२४५ अनुक्रम [१५०-१५४] REarahinthalirational ~ 493~ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी”- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [१७]/गाथा ||८२-८४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७] -८४|| नेया । सपथवि अंतिलं अन्नाए आइमं ठाणं ॥१॥ अउणत्तीसं वारा ठाउँ नथि पढम उक्खेवी । सेसे अडवीसाए गण्डिकाल. सवत्थ दुगाइउक्खेवो ॥२॥ सिवगइ पढमादीए बीआए तह य होइ सबढे । इय एगंतरियाई सिबगइसघट्ठठाणाई योगः ॥३॥ एवमसंखेजाओ चित्तंतरगंडिया मुणेयषाजाव जियसत्तुराया अजियजिणपिया समुप्पण्णो॥४॥" तथा अमरे'त्यादि, विविधेषु परिवर्तेषु-भवभ्रमणेषु जन्तूनामवगम्यते अमरनरतियनिरयगतिगमनं, एचमादिका गण्डिका बहन आख्यायन्ते, 'सेत्तं गण्डियाणुजोगे' सोऽयं गण्डिकानुयोगः । ‘से किं तमित्यादि, अथ कास्ताथूलाः ?, इह चूला शिखरमुच्यते, यथा मेरौ चूला, तत्र चूला इव चूला दृष्टिवादे परिकर्मसूत्रपूर्वानुयोगेऽनुक्तार्थसङ्ग्रहपरा अन्धपद्धतयः, तथा चाह चूर्णिणकृत्-"दिद्विवाए जं परिकम्मसुत्तपुवाणुयोगे न भणियं तं चूलासु भणियं"ति । अत्र सरिराह--चूला आदिमानां चतुण्णा पूर्वाणां, शेषाणि पूर्वाण्यचूलकानि, ता एव चूला आदिमानां चतुणों पूर्वाणां प्राक् पूर्ववक्तव्यताप्रस्तावे चूलावस्तूनीति भणिताः, आह च चर्णिणकृत्-"ता एव चूला आइलपुषाणं चउण्हं चुल्लवत्थूणि भणिता" एताश्च सर्वखापि दृष्टिवादस्योपरि किले स्थापितास्तथैव च पश्यन्ते, ततः ४१ श्रुतपर्वते चूला इव राजन्ते इति चूला इत्युक्ताः, तथा चोक्तं चूर्णिणकृता-“सधुवरिट्ठिया पढिजंति, अतो तेसु य पचयचुला इस चूला इति", तासां च चूलानामियं सङ्ख्या-प्रथमपूर्वसत्कावतसः द्वितीयपूर्वसत्का द्वा-1 हादश तृतीयपूर्वसत्का अष्टौ चतुर्थपूर्वसत्का दश, तथा च पूर्वमुक्तं सूत्रे-"चत्तारि दुवालस अट्ट चेव दस चेव चलय-151१३ , COALVOLM SNESS दीप अनुक्रम [१५०-१५४]] ~ 494~ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [१७]/गाथा ||८२-८४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५७] -८४ श्रीमलय-दत्थूणि । आइलाण चउण्हं सेसाणं चूलिया नत्थि ॥१॥" सर्वसङ्ख्यया चूलिकाश्चतुर्विंशत् , 'सेत्तं चूलिय'त्ति अयैगिरीया तालिकाः । दिद्विवायस्स णमित्यादि, पाठसिद्धं, नवरं 'सङ्ग्रेजा वत्थू'त्ति, सङ्ख्येयानि वस्तूनि, तानि पञ्चविंशत्युत्तरे । विकार नन्दीपतिः देशते, कथमिति चेत् , इह प्रथमपूर्वे दश वस्तूनि द्वितीये चतुर्दश तृतीये अष्टौ चतुर्थेऽष्टादश पञ्चमे द्वादश षष्ठे द्वे ॥२४६॥ सप्तमे षोडश अष्टमे त्रिंशत् नवमे विंशतिः दशमे पञ्चदश एकादशे द्वादश द्वादशे त्रयोदश त्रयोदशे त्रिंशचतुर्दशे पञ्च-18 ताविंशतिः, तथा सूत्रे प्राक् पूर्ववक्तव्यतायामुक्तं-"दस चोइस अट्ठद्वारसेव वारस दुवे य [मूल]वत्धूणि । सोलस तीसा सावीसा पनरस अणुप्पवायमि ॥१॥ वारस एकारसमे बारसमे तेरसेव पत्थूणि । तीसा पुण तेरसमे चोद्दसमे पपण51वीसा उ ॥१॥” सर्वसङ्ख्यया चामूनि द्वे शते पञ्चविंशत्यधिके, तथा सद्ध्येयानि चूलावस्तूनि, तानि च चतुर्विंशत्स-1 याकानि । साम्प्रतमोघतो द्वादशाङ्गाभिधेयमुपदर्शयतिइच्चेइयंमि दुवालसंगे गणिपिडगे अणंता भावा अणंता अभावा अणंता हेऊ अणता अहेऊ अणंता कारणा अणता अकारणा अणंता जीवा अणंता अजीवा अगंता भवसिद्धिया अणंता अभव | ॥२४॥ सिद्धिआ अणंता सिद्धा अणंता असिद्धा पण्णत्ता-'भावमभावा हेऊमहेउ कारणमकारणे चेव । जीवाजीवा भविअमभविआ सिद्धा असिद्धा या॥८॥'इच्चेइअंदुवालसंगं गणिपिडगंतीए काले दीप अनुक्रम [१५०-१५४]] SEARSAX SAREascalinintamational | "द्वादश-अंग" तेषाम् अभिधेय, आराधना-विराधना फ़लम्, शाश्वतता आदीनाम् वर्णनं ~ 495~ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [५८]/गाथा ||८५|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत द्वादशा सूत्राक RECARE [५८ ||८|| अणंता जीवा आणाए विराहिता चाउरतं संसारकतारं अणुपरिअहिंसु, इच्चेइअंदुवालसंगं गणि. पिडगं पडुप्पण्णकाले परित्ता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरतं संसारकंतारं अणुपरिअहति, झ्याआराइच्चेइ दुवालसंगं गणिपिडगं अणागए काले अणंता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरतं सं धनाविराध नाफलं सारकंतारं अणुपरिअहिस्संति इच्चेइ दुवासंगं गणिपिड़गं तीए काले अणंता जीवा आ- - दिस्वरूपं च णाए आराहित्ता चाउरतं संसारकतारं वीईवइंसु, इच्चेइ दुवालसंग गणिपिडगं पडुप्पण्णकाले परित्ता जीवा आणाए आराहिता चाउरतं संसारकंतारं वीईवयंति, इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडर्ग अणागए काले अणंता जीवा आणाए आराहिता चाउरतं संसारकंतारं वीईवइस्संति । इच्चेइअंदुवालसंगं गणिपिडगं न कयाइ नासीन कयाइन भवइ न कयाइ न भविस्सइ भुवि च भवइ अ भविस्सइ अ धुवे निअए सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए निचे, से जहानामए पंचस्थिकाए न कयाइ नाती न कयाइ नत्थि न कयाइ न भविस्सइ भुर्वि च भवइ अ भविस्सइ अ धुवे नियए सासए अक्खए अबए अवहिए निच्चे, एवामेव दुवालसंगे दीप अनुक्रम [१५५-१५७] ~496~ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) ཎྞཾཉྩནྡྲིཝཱ ༦ + ཛཡྻཱཡྻ श्रीमलयगिरीया नन्दीवृत्तिः ॥२४७॥ “नन्दी” - चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ५८ ] / गाथा ||८५|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ****** गणिush न कयानासी कयाइ नंत्थिन कयाइ न भविस्सइ भुविं च भवइ अभविस्सइ: अ धुवे निअ सास अक्खए अव्वए अवट्टिए निचे । से समासओ चउविहे पण्णसे, तंजहा-दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ, तत्थ दव्वओ णं सुअमाणी उवउसे सव्वदव्वाई जाणइ पा सइ, खित्तओं णं सुअनाणी उवउत्ते सव्यं खेत्तं जाणइ पासइ, कालओ णं सुअनाणी उवउत्ते सव्वं कालं जाणइ पासइ, भावओ णं सुअनाणी उवडते सव्वे भावे जाणइ पासइ (सू. ५८ ) 'इत्येतस्मिन् द्वादशाङ्गे गणिपिटके' एतत्पूर्ववदेव व्याख्येयं अनन्ता भावा-जीवादयः पदार्थाः, प्रज्ञता इत्तिः योगः, तथा अनन्ता अभावाः सर्वभाषानां पररूपेणासत्त्वात् त एवानन्ता अभाषा द्रष्टव्याः तथाहि —खपरसत्ताभावाभायात्मकंः वस्तुतत्त्वं यथर जीवो जीवात्मना भावरूपो अजीवात्मना चाभावरूपः, अन्यथाऽजीवत्वप्रसङ्गात्, अत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थगौरव भयादिति, तथाऽनन्ता 'हेतवो' हिनोति-गमयति जिज्ञासितधर्म्मविशिष्टमर्थमिति हेतुः, ते चानन्ताः, तथाहि वस्तुनोऽनन्ता धर्मास्ते च तत्प्रतिबद्धधर्मविशिष्टवस्तुगम का ततोऽनन्ता हेतवो भवन्ति, यथोक्तहेतुप्रतिषक्षभूता अहेतवः, तेऽपि अनन्तरः, तथा अनन्तानि कारणानि घटपट (दीयां निर्वर्त्तकानि मुत्पिण्डतन्त्रवादीनि, अजनतान्यकारणानि, सर्वेषामपि कारणानां कार्यान्तराण्यधिकृत्यकारणत्वात्, तथा जीवाः प्राणिनः, अजीवाद : For Palata Use Only ~ 497~ द्वादशा इम्याआराधनाविराधनाफलं स्वरूपं च सू. ५८ .२०. ॥२४७॥ २३. Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत सूत्रांक [५८] + ||८५|| दीप अनुक्रम [१५५ -१५७] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ५८ ] / गाथा || ८५|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र [४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ****** परमाणुद्यणुकादयः, भव्या-अन्नादिपारिणामिकसिद्धिगमम योग्यतायुक्ताः, तद्विपरीता अभव्याः, सिद्धा अपसलकर्मसलकलङ्काः, असिद्धाः संसारिणः, एते सर्वेऽप्यनन्ताः प्रशसाः, इह भवाभव्यानामानन्त्येऽभिहितेऽपि यत्पुनरसिद्धा अनन्ता इत्यभिहितं तत्सिद्धेभ्यः संसारिणामनन्तगुणताख्यापनार्थ । सम्प्रति द्वादशाङ्गविराधनाफलं त्रैकालिकसुपदर्शयति -- 'इथेइय' मित्यादि इत्येतद् द्वादशाक्षं गणिपिटकमतीते कालेऽनन्ता जीवा आज्ञया यथोक्ताज्ञापरिपालनाऽभावतो विराध्य चतुरन्तं संसारकान्तारं विविधशारीरमानसानेकदुःखविटपिशतसहस्रदुस्तरं भवगहनं 'अणुपरियहिंस' अनुपरावृतवन्त आसन्, इह द्वादशाङ्गं सूत्रार्थोभयभेदेन त्रिविधं द्वादशाङ्गमेव चाऽऽज्ञा, आज्ञाप्यते जन्तुगणो हितकृती क्या साऽऽज्ञेतिग्युत्पत्तेः, ततश्चाज्ञा त्रिविधा, तद्यथा - सूत्राज्ञा अर्थाज्ञा उभयाज्ञा च सम्प्रति असूपामाज्ञानां विराधन्तश्चिन्त्यन्ते तत्र यदाऽभिनिवेशवशतोऽन्यथा सूत्रं पठति तदा सूत्राज्ञाविराधना, सा च यथा जमा लिप्रभृतीनां यदा त्वभिनिवेशवशतोऽन्यथा द्वादशाङ्गार्थः प्ररूपयति तदाऽर्थाज्ञा विराधना, सा च गोष्ठामाहिलादीनाममसेया, यदा पुनरभिनिवेशवशतः श्रद्धाविहीनतया हास्यादितो वा द्वादशाङ्गस्य सूत्रमर्थं च विकुट्टयति तदाः उभयाज्ञाविराधना, सा च दीर्घसंसारिणामभव्यानां चानेकेषां विज्ञेया; अथवा पञ्चविधाचारपरिपालनशीलख परो|पकारकरणे कतत्परस्य गुरोहितोपदेशवचनं आज्ञा; तामन्यथा समाचरन् परमार्थतो द्वादशाङ्गं विराधयति, तथा चाह | चूर्णिकृत् - 'अहवा आणति पञ्चविधायारायरणसीलस्स गुरुणों हियोवएसवयणं आणा, तमन्ना आयरंतेण For Pass Use Only ~ 498~ द्वादशादिग्याआराधना विराधनाफलं स्वरूपं च सू. ५८ १०. १३ or Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [५८]/गाथा ||८५|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [५८] ||८|| श्रीमलय-18|गणिपिडगं विराहियं भवइत्ति” तदेवमतीते काले विराधनाफलमुपदर्थ सम्प्रति वर्तमानकाले दर्शयति-'इचेइय'- द्वादशागिरीया मित्यादि, सुगम, नवरं 'परित्ता' इति परिमिता नत्वनन्ता असङ्खयेया वा, वर्तमानकालचिन्तायां विराधकमनुष्याणां न्याआरानन्दीतिः का सङ्ख्येयत्वात् , 'अणुपरिय{ति'त्ति अनुपरावर्तन्ते-भ्रमन्तीत्यर्थः, भविष्यति काले विराधनामुपदर्शयति-'इचेइय-18 धनाविराध नाफलं ॥२४८|| |मित्यादि, इदमपि पाठसिद्धं, नवरं 'परियट्टिस्संति'त्ति अनुपरावर्तिष्यन्ते-पर्यटिष्यन्तीत्यर्थः तदेवं विराधनाफलं खरूपं च कालिकमुपदर्य सम्प्रत्याराधनाफलं त्रैकालिकं दर्शयति-'इच्चेइयमित्यादि, सुगम, नवरं 'बीइवइंसुत्ति व्यतिकातवन्तः, संसारकान्तारमुलद्धय मुक्तिमवाप्ता इत्यर्थः, 'बीईवइस्संति'त्ति व्यतिक्रमिष्यन्ति, एतच त्रैकालिकं विराधनाफलमाराधनफलं च द्वादशाङ्गस्य सदाऽवस्थायित्वे सति युज्यते, नान्यथा, ततः सदावस्थायित्वं तस्याह-'इवे-161 | इय'मित्यादि, इत्येतद्वादशाझं गणिपिटकं न कदाचिन्नासीत् , सदेवासीदिति भावः, अनादित्वात् , तथा न| कदाचिन्न भवति, सर्वदेव वर्तमानकालचिन्तायां भवतीति भावः, सदैव भावात् , तथा न कदाचिन्न भविष्यति, | किन्तु भविष्यचिन्तायां सदैव भविष्यतीति प्रतिपत्तव्यं, अपर्यवसितत्वात् , तदेवं कालत्रयचितन्तायां नास्तित्वप्रतिपेधं विधाय सम्प्रत्यस्तित्वं प्रतिपादयति-'भुर्वि च' इत्यादि, अभूत् भवति भविष्यति चेति, एवं त्रिका-181॥२४८॥ लावस्थायित्वात् धुर्व मर्यादिवत् , ध्रुवत्वादेव सदैव जीवादिषु पदार्थेषु प्रतिपादकत्वेन नियतं पञ्चास्तिकायेषु लोक-13 वचनवत, नियतत्वादेव च शाश्वतं-शश्वद्भवनसभायं, शाश्वतत्यादेव च सततगङ्गासिन्धुप्रवाहप्रवृत्तावपि (पद्म) पुण्डरी-18|२४ दीप अनुक्रम [१५५-१५७] स्कार ~ 499~ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [१८]/गाथा ||८५|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [५८] ||८|| कहद इव वाचनादिप्रदानेऽपि अक्षय-नास्य क्षयोऽस्तीत्यक्षयमक्षयत्वादेव च अव्ययं मानुषोत्तराद्वहिः समुद्रवत् , अव्य द्वादशायत्वादेव सदैव प्रमाणेऽवस्थितं जम्बूद्वीपादिवत् , एवं च सदाऽवस्थानेन चिन्त्यमानं नित्यमाकाशवत् , साम्प्रतमत्रैव ल्याआरादृष्टान्तमाह-'से जहानामे'त्यादि, तद्यथानाम पञ्चास्तिकायाः-धर्मास्तिकायादयः न कदाचिन्नासन्नित्यादि पूर्ववत् , धनाविराध'एवमेवे'त्यादि निगमनं निगदसिद्धं । से समासओं' इत्यादि, तद्वादशाकं समासतश्चतुर्विध प्रज्ञप्त, तद्यथा-द्रव्यतः11 कानाफले खरूपं च क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे श्रुतज्ञानी उपयुक्तः सर्वद्न्याणि जानाति पश्यति, ट्र तत्राह-ननु पश्यतीति कथं ?, न हि थुतज्ञानी श्रुतज्ञानज्ञेयानि सकलानि वस्तूनि पश्यति, नैप दोषः, उपमाया| अत्र विवक्षितत्वात् , पश्यतीव पश्यति, तथाहि-मेर्वादीन् पदार्थानदृष्टानप्याचार्यः शिष्येभ्य आलिख्य दर्शयति तत|स्तेषां श्रोतृणामेवं बुद्धिरुपजायते भगवानेष-गणी साक्षात्पश्यन्निव व्याचष्टे इति, एवं क्षेत्रादिष्वपि भावनीयं, ततो 3 न कश्चिद्दोषः, अन्ये तु न पश्यतीति पठन्ति, तत्र चोयस्थानवकाश एव, श्रुतज्ञानी चेहाभिन्नदशपूर्वधरादिश्रुतकेवली परिगृह्यते, तस्यैव नियमतः श्रुतज्ञानवलेन सर्वद्रव्यादिपरिज्ञानसम्भवात् , तदारतस्तु ये श्रुतज्ञानिनस्ते सर्वद्रब्यादिपरिज्ञाने भजनीयाः, केचित्सर्वद्रव्यादि जानन्ति केचिन्नेति भावः, इत्थम्भूता च भजना मतिवैचित्र्याद्वेदितन्या, आह च चूर्णिकृत्-"आरओ पुण जे सुखनाणी ते सव्वदचनाणपासणासु भइया, सा य भयणा मइविस-18 सओ जाणियवति ।” सम्प्रति सङ्ग्रहगाथामाह दीप अनुक्रम [१५५-१५७] SARERatininemarana ~500~ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [५९]/गाथा ||८६-९०|| ...... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५९] श्रीमलय- अक्खर स्त्री सम्म साइ खलु सपजवसि च । गमिअं अंगपविट्रं सत्तवि एए सपडिव- 15 श्रुतमेदाः गिरीया क्खा ॥ ८६ ॥ आगमसत्थग्ग्गहणं जंबुद्धिगुणेहि अट्टहिं दिटुं । विति सुअनाणलंभं तं पुठववि श्रुतलाभ: नन्दीवृत्ति: बुद्धिगुणो सारया धीरा ॥ ८७ ॥ सुस्सूसइ १ पडिपुच्छइ २. सुणेइ ३ गिण्हइ अ ४ ईहए याऽवि ५। अनुयोगश्च ॥२४९॥ तत्तो. अपोहए वा ६ धारे ७ करेड़ वा सम्म ८॥८८॥ मूअं हुंकारं वा बाढकार पडिपुच्छ, सू. ५९ गा.८६-९० वीमंसा । तत्तो पसंगपारायणं च परिणिट्र सत्तमए॥.८९ ॥ सुत्तत्थो खल्लु पढमो बीओ निज्जुतिमीसिओ भणिओ। तइओ य निरवसेसो एस विही होइ अणुओगे ॥. ९०.॥ से तं अंगपविटुं, से तं सुअनाणं, से तं परोक्खनाणं, से तं नंदी॥ ('नंदी) समत्ता ॥ (सू० ५९) । 'अक्सरसन्नी'त्यादि, गतार्था, नपरं सप्ताप्येते पक्षाः सप्रतिपक्षाः, ते चैवम्-अक्षरश्रुतमनक्षरश्रुतमित्यादि, इदं च श्रुतज्ञानं सातिशयरवकल्पं प्रायो गुवधीनं च ततो विनेयजनानुग्रहार्थ यो यथा चास लाभस्तं तथा दर्शयति-'आगमे त्यादि, आ-अभिविधिना सकलश्रुतविषयव्याप्तिरूपेण मर्यादया वा यथावस्थितप्ररूपणारूपया. गम्यन्ते-परि ॥२४९॥ हाच्छिद्यन्तेऽर्था येन स आगमः, स चैवं व्युत्पत्त्या अपधिवलादिलक्षणोऽपि भवति ततस्तववच्छेदार्थ विशेषणान्तर माह-शाने ति शिष्यतेऽनेनेति शास्त्रमागमरूपं शास्त्रमागमशास्त्रं, आगमग्रहणेन पष्टितत्रादिकुशासव्यवच्छेदः, २५ दीप अनुक्रम [१५५ -१५७] SARERatorshinitional ~501~ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [१९]/गाथा ||८६-९०|| ..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: * C प्रत सूत्रांक [५९] RECENESCORROCESC तेषां यथावस्थितार्थप्रकाशनाभावतोऽनागमत्वाद, आगमशास्त्रस्य ग्रहणं आगमशास्त्रग्रहणं यद् बुद्धिगुणवेक्ष्यमाणैःश्रुतभेदाः कारणभूतैरष्टमिदृष्टं तदेव ग्रहणं श्रुतज्ञानस्य लाभं ब्रुवते पूर्वेषु विशारदा-विपश्चितः धीराः-प्रतपरिपालने स्थिराः, श्रुतलाभः किमुक्तं भवति?-यदेष जिनप्रणीतप्रवचनार्थपरिज्ञानं तदेव परमार्थतः श्रुतज्ञानं, न शेपमिति ॥ बुद्धिगुणैरष्टभि-18 बुद्धिगुण) अनुयोगश्च रित्युक्तं, ततस्तानेव बुद्धिगुणानाह-'सुस्सूसईत्यादि, पूर्व तावत् शुश्रूषते-विनययुक्तो गुरुवदनारविन्दाद्विनिर्गच्छ-समू.५९ द्वचनं श्रोतुमिच्छति, यत्र शङ्कितं भवति तत्र भूयोऽपि विनयनम्रतया वचसा गुरुमनः प्रहादयन् पृच्छति, पृष्टे च गा.८६-९० सति यद्गुरुः कथयति तत्सम्यक्-व्याक्षेपपरिहारेण सावधानः शृणोति,श्रुत्वा चारूपतया गृह्णाति, गृहीत्वा च ईहतेपूर्वापराविरोधेन पर्यालोचयति, चशब्दः समुच्चयार्थः, अपिशब्दात्प(ब्दःपालोचयन् किञ्चित् खबुद्ध्याऽप्युत्प्रेक्षते इति सूचनार्थः, ततः पर्यालोचनाऽनन्तरमपोहते-एवमेतत् यदादिष्टमाचार्येण नान्यथेत्यवधारयति, ततस्तमर्थे निश्चितं खचेतसि विस्मृत्यभावार्थ सम्यग् धारयति, करोति च सम्यग् यथोक्तमनुष्ठानं, यथोक्तमनुष्ठानमपि श्रुतज्ञानप्राप्तिहेतुः तदावरणक्षयोपशमनिमित्तत्वात् । तदेवं गुणा व्याख्याताः, सम्प्रति यच्छुश्रूषते इत्युक्तं तत्र श्रवणविधिमाह-मूय'मित्यादि, मूकमिति प्रथमतो मूकं शृणुयात् , किमुक्तं भवति ?-प्रथमश्रवणे संयतगात्रस्तूष्णीमासीत, ततो द्वितीये श्रवणे हुङ्कारं दद्यात् , वन्दनं कुर्यादित्यर्थः, ततस्तृतीये वाढंकारं कुर्यात् , बाढमेवमेतन्नान्यथेति, ततश्चतुर्थे श्रवणे, ४ातु गृहीतपूर्वापरसूत्राभिप्रायो मनाक् प्रतिपृच्छां कुर्यात् , कथमेतदिति ?, पञ्चमे मीमांसां-प्रमाणजिज्ञासां कुर्यादिति ||१३ दीप अनुक्रम [१५५ -१५७] HEA mhimational ~502~ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत [ ५९ ] + ||८६ -९०|| दीप अनुक्रम [१५५ -१५७] श्रीमलय गिरीया नन्दीवृत्तिः ॥२५० ॥ Eticatior “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ५९ ]/ गाथा ||८६-९०|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः भावः, षष्ठे श्रवणे तदुत्तरोत्तरगुणप्रसङ्गः पारगमनं चास्य भवति, ततः सप्तमे श्रवणे परिनिष्ठा - गुरुवदनुभाषते । एवं तावच्छ्रवणविधिरुक्तः, सम्प्रति व्याख्यानविधिमभिधित्सुराह - 'सुत्तत्थो' इत्यादि, प्रथमानुयोगः सूत्रार्थः - सूत्रार्थप्रतिपादनपरः, खलुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, ततोऽयमर्थः- गुरुणा प्रथमोऽनुयोगः सूत्रार्थाभिधानलक्षण एव कर्त्तव्यः, मा भूत् प्राथमिकविनेयानां मतिमोहः, द्वितीयोऽनुयोगः सूत्रस्पर्शिक नियुक्तिमिश्रितो भणितस्तीर्थकर - गणधरैः, सूत्रस्पार्शकनिर्युक्तिमिश्रितं द्वितीयमनुयोगं गुरुर्विदध्यादित्याख्यातं तीर्थकरगणधरैरिति भावः, तृतीयधानुयोगो निरवशेषः - प्रसक्तानुप्रसक्तप्रतिपादनलक्षण इत्येषः - उक्तलक्षणो विधिर्भवसनुयोगे-व्याख्यायाम्, आह-परिनिष्ठा सप्तमे इत्युक्तं, त्रयश्चानुयोगप्रकारास्तदेतत्कथम् ?, उच्यते, त्रयाणामनुयोगानामन्यतमेन केनचित्प्रकारेण भूयो २ भाव्यमानेन सप्त वाराः श्रवणं कार्यते ततो न कश्चिद्दोषः, अथवा कञ्चिन्मन्दमतिविनेयमधिकृत्य तदुक्तं द्रष्टव्यं न पुनरेष एव सर्वत्र श्रवणविधिनियमः, उद्घटितज्ञविनेयानां सकृच्छ्रवणत एवाशेपग्रहणदर्शनादिति कृतं प्रसझेन, 'सेत्त' मित्यादि, तदेतच्छ्रुतज्ञानं, तदेतत्परोक्षमिति ॥ नन्यध्ययनं पूर्व प्रकाशितं येन विषमभावार्थम् । तस्मै श्रीचूर्णिकृते नमोऽस्तु विदुषे परोपकृते ॥ १ ॥ मध्येसमस्तभूपीठं, यशो यस्याभिवर्द्धते । तस्मै श्रीहरिभद्राय नमष्टीकाविधायिने ॥ २ ॥ वृत्तिर्वा चूर्णिर्वा रम्याऽपि न मन्दमेधसां योग्या । अभवदिह तेन तेषामुपकृतये यल एप कृतः ॥ ३ ॥ बह्वर्थमल्पशब्दं नन्यध्ययनं विवृण्वता कुशलम् । यदवापि मलयगिरिणा सिद्धिं तेनाश्रुतां लोकः For Penal Use On ~ 503~ श्रुतभेदाः श्रुतलाभः बुद्धिगुणो अनुयोगव .५९ गा. ८६-९० २० ॥२५०॥ २५ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) प्रत (परिशिष्ठ) सूत्रांक [?] दीप (परिशिष्ठ) अनुक्रम [१] “नन्दी”- चूलिकासूत्र -१ ( मूलं + वृत्ति:) [ अनुज्ञा- नन्दी] मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र- [ ४४], चूलिका सूत्र - [१] “नन्दीसूत्र” मूलं एवं मलयगिरिसूरि - रचिता वृत्तिः ॥ ४ ॥ अर्हन्तो मङ्गलं मे स्युः, सिद्धाश्व मम मङ्गलम् । साधवो मङ्गलं सम्यग् जैनो धर्म्मश्च मङ्गलम् ॥५॥” इति - श्रीमलयगिरिविरचिता नन्द्यध्ययनटीका समाप्ता ॥ श्रीरस्तु । ( प्रन्थानं ७७३२ ) इति सूरिपुरन्दर श्रीमन्मलयगिरिविरचिता नन्यध्ययनटीका परिसमाप्तिमगमत् ॥ [[अनुज्ञाप्ररूपणा ] | से किं तं अणुन्ना ?, अणुन्ना छबिहा पण्णत्ता, तंजहा -- नामाणुण्णा १ठवणाणुण्णा २ दवागुण्णा ३ खित्ताणुण्णा ४ कालाणुण्णा ५ भावाणुण्णा ६, से किं तं नामाणुन्ना १, २ जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा ४ ५ | जीवाणं वा अजीवाणं वा तदुभयस्स वा तदुभयाणं वा अणुष्णत्ति नाम कीरह से तं नामाणुन्ना, से किं तं ठवणाणुण्णा १, ठवणाणुण्णा जेणं कटुकम्मे वा पोत्थकम्मे वा लिप्पकम्मे वा चित्तकम्मे वा गंधिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संघाइमे या अक्खे वा गराडए वा एगे वा अणेगे वा सम्भावटुवणाए वा असम्भावठवणाए वा अणुण्णत्ति उवणा ठविजह से तं ठवणाणुण्णा, नामटवणाणं को पइविसेसो ?, नामं आवकहिअं ठपणा इत्तरिआ या हुजा आवकहिआ वा, से किं तं दवाणुष्णा १, २ दुविहा पण्णसा, तंजहा - आगमओ अ नोआगमओ य । से किं तं आगमओ दवाणुण्णा १, २ १० आगमओ दवाणुण्णा जस्स णं अणुण्णत्ति पयं सिक्खिअं टिभं जिर्भ मिश्रं परिजिअं नामसमं घोससमं अहीणक्खरं अणचक्खरं अवाइद्धक्खरं अक्खलिअं अमिलिअं अविद्यामेलिअं पडिपुत्रं पडिपुण्णघोसं कंठोट्ठविप्यमुकं गुरुवायणोवगयं से णं तत्थ वाजणाए पुच्छणाए परियहणाए धम्मकहाए नो अणुप्पेहाए, कन्हा?, 'अणुवओगो दब' मितिकडु, Eaton International अत्र नन्दीसूत्र मूलं एवं वृत्तिः परिसमाप्ताः For Pale Only •••• अथ अनुज्ञा नन्दी आरब्धाः ••• प्रशस्तिः अनुज्ञा च ~504~ १३ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ [अनुज्ञा-नन्दी ] मूलं [१] .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत (परिशिष्ठ) सूत्रांक [१] श्रीमलय-18/नेगमस्स एमे अणुवउत्ते आगमओ इका दवाणुन्ना दुन्नि अणुयउत्ता आगमओ दुन्नि दवाणुग्णाओ तिण्णि अणुवउत्ता गिरीया अनुज्ञा नन्दीवृत्तिः आगमजोतिष्णि दवाणुण्णाओ एवं जावइआ अणुवउत्ता तावइआओ दवाणुण्णाओ, एवमेव ववहारस्सवि, संगहस्स४/१५ एमो वा अणेगो बा अणुवउत्तो वा अणुवउत्ता वा दवाणुण्णा वा दवाणुण्णाओ वा सा एगा दवाणुण्णा,उज्जुसु॥२५॥ अस्स एगे अणुवउत्ते आगमओ एगा दवाणुण्णा पुहु नेच्छइ, तिण्हं सदनयाणं जाणए अणुवउत्चे अवत्थू, कम्हा ?, II जइ जाणए अणुवउत्ते न भवइ जइ अणुवउत्ते जाणए न भवइ, से तं आगमओ दवाणुण्णा । से किं तं नोआगमओ दि दवाणुग्णा?, नोआगमओ दवाणुण्णा तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-जाणगसरीरदवाणुन्ना भविअसरीरदवाणुण्णा जाणगसरीरभविअसरीरवइरित्ता दषाणुण्णा, से किं तं जाणगसरीरदवाणुण्णा !, जागगसरीरदवाणुण्णा अणुण्णत्तिठापयत्याहिगारजाणगस्स गं जं सरीरं ववगयचुअचाविजचत्तदेहं जीवविष्पजद सिज्जागयं वा संधारगयं वा निसीहि आगयं वा सिद्धिसिलातलगयं वा अहोणं इमेणं या सरीरसमुस्सएणं अणुण्णत्तिपयं आधविशं पन्नविशं परूविरं दंसिकं निदंसि उवदंसिअं, जहा को दिटुंतो?, अयं घयकुंभे आसी, अयं महुकुंभे आसी, से तं जाणगसरीरदबा ॥२५॥ णुण्णा, से किं तं भवियसरीरदवाणुण्णा?, भविअसरीरदवाणुण्णा जे जीवे जोणीजम्मणनिक्खंते इमेणं चेव सरीरसमुस्सएणं आदत्तेणं जिणदिट्टेणं भावेणं अणुषणत्तिपयं सिकाले सिक्खिस्सइ न ताच सिक्सइ, जहा को दिटुंतो?, २५ अयं घयकुंभे भविस्सइ अयं महुकुंभे भविस्सइ, सेत्तं भविअसरीरदवाणुपणा, से किं तं जाणगसरीरभविअसरीरवइ-18 दीप (परिशिष्ठ) अनुक्रम [१] २० ~ 505~ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ [अनुज्ञा-नन्दी ] मूलं [१] .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: अनुज्ञा प्रत (परिशिष्ठ) सूत्रांक रित्ता दव्याणुण्णा?, जाणगसरीरभविजसरीरवइरिचा दव्वाणुण्णा तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-लोहा लोउत्तरिआ हाकुप्पाव(यणिया य, से कितं लोइआ दवाणुण्णा ?, लोइमा दव्वाणुण्णा तिविहा पण्णता,तंजहा-सचित्ता अचित्ता मीसिआ, से किं तं सचित्ता?, सचित्ता से जहानामए राया इ वा जुवराया इ वा ईसरे इ वा तलवरे इ वा माईबिए इ दवा कोडुबिए इवाइम्मे इ वा सेट्ठी इवा सत्यवाहे इ वा सेणायई इ या कस्सइ कम्मि कारणे तुढे समाणे आसं वा हत्यि वा उट्टे वा गोणं पाखरं पा घोडयं वा एलयं वा अयं वा दासं वा दासि वा अणुजाणिजा, सेत्तं सचित्ता, से कि ४ तं अचित्ता ?, अचिसा से जहानामए राया इ वा जुवराया इ वा ईसरे इ वा तलबरे इ वा कोडंबिए इबा माड-13 विए इ वा इन्भे इषा सत्यवाहे इ बा सेट्ठी इ वा सेणावई इ वा कस्सइ कम्मि कारणे तुडे समाणे आसणं या सवर्ण वा छत्तं वा चामरं वा पडगं वा मउडं वा हिरणं वा सुवणं वा कंसं वा दूसं वा मणिमुत्तिअसंखसिलप्पयालरचरयणमाइ संतसारसावइजं अणुजाणिजा,सेतं अचित्ता दब्वाणुण्णा, से किं तं मीसिना दवाणुण्णा?, मीसिआ दवाणुण्णा से जहानामए राया इ वा ईसरे इ वा तलवरे इ वा माडंबिए इ वा कोटुंबिए इ वा इन्भे हवा सिट्टी दइ वा सेणाबई इ वा सत्ववाहे इ वा कस्सइ कम्मि कारणे तुडे समाणे हत्यिं वा मुहभंडगमंडिअं आसं वा घासग चामरमंडिअं सकडअंदासं वा दासि वा सव्वालंकारविभूसिअणुजाणिजा, से तं मीसिआ दवाणुण्णा, से तं लोइआ दिवाणुण्णा, से किं तं कुप्पाव(यणिआ दव्वाणुण्णा ?, कुप्पाव(य)जिआ दव्याणुण्णा तिविहा पणत्ता, तंजहा दीप (परिशिष्ठ) अनुक्रम ~5064 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ [अनुज्ञा-नन्दी ] मूलं [१] .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: अनुज्ञा प्रत (परिशिष्ठ) सूत्रांक [१] श्रीमलय- सचिचा अचित्ता मीसिआ, से किं तं सचित्ता!, सचित्ता से जहानामए आयरिए इवा उवज्झाए इ वा कस्सइ कम्मि गिरीया कारणे तुझे समाणे आसं वा हत्थिं वा उर्ल्ड वा गोणं वा खरं वा घोडं वा अयं वा एलगं वा दासंवादासि वा अणुजानन्दातमाणिजा, से तं सच्चित्ता कुप्पाव(य)णिआ दवाणुण्णा । से किं तं अचित्ता, अचित्ता से जहानामए आयरिए इ वा उव॥२५२॥ ज्झाए इ वा कस्सइ कम्मि कारणे तुढे समाणे आसणं वा सयणं वा छत्तं वा चामरं वा पट्टे वा मउडं वा हिरणं वा सुवणं वा कंसं वा दूसं वा मणिमुत्तिअसंखसिलष्पवालरत्तरयणमाइ संतसारसायएजं अणुजाणिज्जा, से तं अचित्ता कुप्पाय(य)णिआ दवाणुण्णा । से किं तं मीसिआ दवाणुण्णा ?, मीसिआ दवाणुण्णा से जहानामए आयरिए इवा उवज्झाए इ वा कस्सइ कम्मि कारणे तुट्टे समाणे हत्थिं वा मुहभंडगमंडिअं आसं वा घासगचामरमंडिअं सकडअंदासं वा दासि वा सबालंकारविभूसियं अणुजाणिजा, से तं मीसिआ कुप्पा(य)णिआ दवाणुण्णा, से तं कुष्पाव(य)णिआ दिवाणुण्णासे किं तं लोउत्तरिआ दवाणुण्णा?, लोउत्तरिआ दवाणुण्णा तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-सचित्ता अचित्ता मीसिआ, से किं तं सचित्ता ?, सचित्ता से जहानामए आयरिए इ वा उवज्झाए इ वा पयत्तए इ वा थेरे इ वा गणी इवा गहणरे इ वा गणावच्छेयए इवा सीसस्स वा सिस्सिणीए इ या कम्मि कारणे तुढे समाणे सीसं वा सिस्सिणीअंवा Iકારપરા लोअणुजाणिज्जा,से तं सचित्ता,से किं तं अचित्ता?, अचित्ता से जहानामए आयरिए इ वा उवज्झाए इ वा पवत्तए इ वा थेरे इ वा गणी इवा गणधरेइ वा गणाच्छेयए इ वा सिस्सस्स वा सिस्सिणीए वा कम्मि य कारणे तुढे समाणे दीप (परिशिष्ठ) अनुक्रम [१] 60-6 २५ ~507~ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ [अनुज्ञा-नन्दी ] मूलं [१] .......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत (परिशिष्ठ) सूत्रांक [१] GAME दीप (परिशिष्ठ) अनुक्रम वत्थं वा पायं वा पडिग्गहं या कंबलं वा पायपुच्छणं वा अणुजाणिज्जा, सेतं अचित्ता,से किं तं मीसिआ?,२ से जहा-18 अनुबा नामए आयरिए इ वा उपज्झाए इवा पवत्तए इ वा धेरे इ वा गणी इ वा गणहरे या गणावच्छेयए इ वा सिस्सस्स या सिस्सिणीए वा कम्मि य कारणे तुढे सिस्सं वा सिस्सिणीअं वा सभंडमत्तोवगरणं अणुजाणिज्जा से तं मीसिआ, से तं कालोउत्तरिया, से तं जाणगसरीरभविअसरीरबारिता दवाणन्ना, से तं नोआगमओ दवाणुन्ना, से तं दवाणुना ३। से ४/किं तं खित्ताणुपणा?, खित्ताणुण्णा जपणं जस्स खित्तं अणुजाणइ जत्ति वा जम्मि वा खित्ते, से तं खित्ताणुण्णा ।। ट्रासे किंतं कालाणुषणा?,कालाणुण्णा जपणं जस्स कालं अणुजाणइ जत्तिकं वा कालं अणुजाणइ जम्मि वा काले अणु-दा जाणइ, तं०-तीतंचा पडुप्पणं वा अणागतं या वसंतं वा हेमंतं वा पाउसंवा अवत्थाणहेउ,सेतं कालाणुण्णा ५1 से कि तं भावाणुण्णा?, भावाणुण्णा तिविहा पण्णता, तंजहा-लोइआ कुष्पावणिया लोगुत्तरिआ, से कि त लोइया भा पाणुण्णा,२स जहानामए राया इवा जुवराया इवा जाव तने समाणे कस्सइ कोहाइभावं अणुजाणिज्जा, से तं लोइजा तिभावाणुण्णा,से कितं कुप्पावयणि भावाणण्णा?.२ से जहानामए केइ आयरिए वा जाव कस्सवि कोहाइभाव अणुजापाणिज्जा,सेत्तं कुप्पाययणिया भावाणुण्णा । से कितं लोगत्तरिया भावाणण्णा?.२ से जाहानामए आयरिए वा जाव कम्हि कारणे तुट्टे समाणे कालोचियनाणाइगुणो जोगिणो विणीयस्स खमाइपहाणस्स सुसीलस्स सिस्सस्स तिविहेणं तिगरविसुद्धणं भावणं आयारं वा सूयगडं वा ठाणं वा समवायं वा विवाहपण्णतिं वा नायाधम्मकई वा उवासगदसाओ GANGESEXUASAAN ~508~ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................ [अनुज्ञा-नन्दी ] मूलं [१] ......... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत (परिशिष्ठ) सूत्रांक [१] दीप (परिशिष्ठ) अनुक्रम [१] श्रीमलय- दावा अंतगडदसाओ वा अणुत्तरोवाइयदसाओ वा पण्हावागरणं वा विवागसुयं वा दिहिवायं वा सबदवगुणपज्जवोह || | अनुज्ञा गिरीया सवाणुओगं अणुजाणिजा, से तं लोगुत्तरिआ भावाणुण्णा, से तं भावाणुण्णा ६ । 'किमणुण्णा कस्सऽणुण्णा के-14 नन्दीवृत्तिःद वइकालं पवत्तिआणुण्णा । आइगर पुरिमताले पवत्तिया उसहसेणस्स ॥१॥ अणुण्णा १ उषणमणी २|| ॥२५॥ नमणी ३ नामणी ४ ठवणा ५ पभावो ६ पभावणं ७ पयारो दातदुभयहिय ९ मज्जाया १० नाओ ११ मग्गो| य १२ कप्पो अ १३ ॥२॥ संगह १४ संवर १५ निजर १६ ठिइकारण चेव १७ जीवबुद्धिपयं १८॥ पय १९ पवरं व २० तहा वीसमणुण्णाइ नामाई ॥३॥। अणुण्णा नंदी समत्ता । [अथ योगक्रियायां बृहन्नन्दी]| नाणं पंचविहं पण्णत्तं, तंजहा-आभिणियोहियनाणं १ सुयनाणं २ ओहिनाणं ३ मणपजवनाणं ४ केवलनाणं ५, तत्थ णं चत्तारि नाणाई ठप्पाई ठवणिजाई नो उद्दिस्सिर्जति नो समुद्दिस्सिर्जति नो अणुण्णविजंति, सुयनाणस्स पुण उद्देसो १ समुद्देसो २ अणुण्णा ३ अणुओगो य पयत्तइ ४, जइ सुयनाणस्स उद्देसो १ समुद्देसो २ अणुण्णा ३ अणुओगो ४ पवत्तइ किं अंगपविठुस्स उद्देसो १ समुद्देसो २ अणुण्णा ३ अणुओगो ४ पवत्तइ ? किं अंगवाहिरस्स | उद्देसो १ समुद्देसो २ अणुण्णा ३ अणुओगो ४ पयत्तइ ?, गो! अंगपविट्ठस्सवि उद्देसो १ समुद्देसो २ अणुण्णा ३ अणुओगो ४ पवत्तइ अंगबाहिरस्सवि उद्देसो १ समुद्देसो २ अणुण्णा ३ अणुणोगो ४ पवत्तइ, इमं पुण पढवणं पडुच अंगवाहिरस्स उद्देसो० ४, जब अंगवाहिरस्स उद्देसो जाय अणुओगो पवत्तइ किं कालियस्स उद्देसो०४, किं| 4%AESAR ॥२५३॥ REaratimIAnd ...अत्र अनुज्ञा-नन्दी परिसमाप्ता, ...अथ योग-नन्दी आरब्धा: ... ~509~ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ................. [योग-नन्दी ] मूलं [१] ........... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: अनुज्ञा प्रत (परिशिष्ठ) सूत्रांक [१] दीप (परिशिष्ठ) अनुक्रम उकालियस्स उद्देसो०४,१,गो कालियस्सवि उद्देसो०४ उकालियस्स(वि) उद्देसो०४, इमं पुण पठ्ठवणं पहुच उक्कालि- यस्स उद्देसो०४, जइ उकालियस्स उद्देसो०४ किं आवस्सगस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो पवत्तइ आवस्सगवइरित्तस्स०४१,गो० आवस्सगस्सवि उद्देसो० ४ आवस्सगवइरित्तस्सवि उद्देसो.४, जइ आवस्सगस्स उद्देसो किं सामाइयस्स १ चउबीसत्थयस्स २ बंदणस्स ३ पडिक्कमणस्स ४ काउस्सग्गस्स ५ पञ्चक्खाणस्स ६१ सवेर्सि एतेसिं उद्देसो १ समुद्देसो २ अणुण्णा ३ अणुओगो पबत्तइ ४ । जइ आवस्सगवइरित्तस्स उद्देसो० ४ किं कालियसुयस्स उद्देसो०४ उकालियसुयस्स उद्देसो०४१, कालियस्सवि उद्देसो०४ उकालियस्सवि उद्देसो०४, जइ उक्कालियस्स उद्देसो०४ किं दसवेकालियस्स १ कप्पियाकप्पियस्स २चुल्लकप्पसुयस्स ३ महाकप्पसुयस्स ४ उववाइयसुयस्स ५ रायपसेणीसुयस्स ६ जीवाभिगमस्स ७ पण्णवणाए ८ महापण्णवणाए ९पमायष्पमायस्स १० नंदीए ११ अणुओगदाराणं १२ देविंदथयस्स १३ तंदुलक्यालियस्स १४ चंदाविज्झयस्स १५ सूरपण्णत्तीए १६ पोरसिमंडलस्स | W१७ मंडलप्पवेसस्स १८ विजाचरणविणिच्छियस्स १९ गणिविजाए २० संलेहणासुयस्स २१ विहारकप्पस्स २२ वीयरागसुयस्स २३ झाणविभत्तीए २४ मरणविभत्तीए २५ मरणविसोहीए २६ आयविभत्तीए २७ आयविसोहीए२८ चरणविसोहीए २९ आउरपञ्चक्खाणस्स ३० महापञ्चक्खाणस्स ३११, सबेसि एएसि उद्देसो १ समुद्देसो २ अणुण्णा ३ अणुओगो ४ पवत्तइ । जइ कालियस्स उद्देसो जाव अणुओगोपवत्तइ किं उत्तरज्झयणाण१ दसाणं २ कप्पस्स ३ बब SCREASSACROGRECIPES १३ SAREasttimintamarana ~510~ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४४) “नन्दी'- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ............... [योग नन्दी ] मूलं [१] ........... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४४], चूलिका सूत्र-[१] "नन्दीसूत्र" मूलं एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत (परिशिष्ठ) गिरीया सूत्रांक दीप (परिशिष्ठ) अनुक्रम [१] श्रीमलय ट्र हारस्स ४ निसीहस्स ५ महानिसीहस्स ६ इसिभासियाणं ७ जंबुद्दीवपण्णत्तीए ८ चंदपण्णत्तीए ९दीवपण्णत्तीए १० सागरपण्णत्तीए(दीवसागरप०)११ खुडियाविमाणपविभत्तीए १२ महलियाविमाणपविभत्तीए १३ अंगचूलियाए १४ | नन्दीवृत्तिः वग्गचूलियाए१५विवाहचूलियाए १६ अरुणोववाए १७ वरुणोववाए १८गरुलोववाए १९ धरणोवबाए २० बेसमणो॥२५४|| विवाए २१ वेलंधरोक्वायस्स २२ देविंदोषवायस्स २३उठाणसुयस्स २४ समुठ्ठाणसुयस्स २५ नागपरियावणियाणं २६ | निरयावलियाणं २७ कप्पियाणं २८ कप्पडिसियाणं २९ पुफियाणं ३० पुप्फचूलियाणं ३१ [ पण्हियाणं ३२] वण्हिदसाणं३३ आसीविसभावणाणं ३४ दिद्विविसभावणाणं ३५ चारणभा०३६ सुमिणभा० (चारणसुमिण)३७ | महासुमिणमा०३८ तेयग्गिनिसग्गाणं ३९१, सवेसिपि एएसिं उद्देसो जाव अणुओगो ४ पवत्तइ, जइ अंगपविठ्ठस्स | उद्देसो जाब अणुओगो ४ पबत्तइ किं आयारस्स १ सुयगडस्स २ ठाणस्स ३ समवायस्स ४ विवाहपण्णत्तीए ५ नायाधम्मकहाणं ६ उवासगदसाणं ७ अंतगडदसाणं ८ अणुत्तरोववाइयदसाणं ९ पण्हावागरणाणं १० विवाग-1 सुयस्स ११ दिठिवायस्स १२१, सबेसिं एएसिं उद्देसो १ समुद्देसो २ अणुण्णा ३ अणुओगो४ पयत्तइ, इमं पुण पठ्ठवणं पडुच इमस्स साहुस्स इमाए साहुणीए उद्देसो १ समुद्देसो २ अणुण्णा ३ अणुओगो ४ पवत्तइ, खमासमणाणं हत्थेणं सुत्तेणं अत्थेणं तदुभएणं उद्देसामि समुद्देसामि अणुजाणामि ॥ इति श्रीयोगनन्द्यनुज्ञासूत्रं ॥ तदेवं श्रीनन्दीसूत्र समाप्तम् ॥ . ॥ २५४॥ २५ ~511~ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “नन्दी- चूलिकासूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः) ........... मूलं [-] ............ ॥ श्रीमन्नन्दीसूत्रं समाप्तम् ॥ मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र ४४) "नन्दीसूत्र” परिसमाप्तं ~512~ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरूभ्यो नमः 44 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च / ' “नन्दी (चूलिका)सूत्र” [मूलं + मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः] | (किंचित वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "नन्दीसूत्र” मूलं एवं वृत्ति: नामेण परिसमाप्तं Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's' ~513~